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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
११८ स्वतः प्रकंपित हो जाता है। अप्रमत्त साधक के लिए बाहर का अनुशासन कृतार्थ हो जाता है। अप्रमाद वह स्वर्णिम सूत्र है, जो साधक के भीतर अभय की चेतना जगा देता है तथा शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक समस्याओं से जूझने की प्रेरणा देता है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में- 'अपने भीतर अप्रमाद रूपी सिपाही को खड़ा कर लीजिए, वह पल-पल आपकी रक्षा करेगा।' समय की सही पहचान करके सही समय पर सही काम
करना साधना की निष्पत्ति है। पूज्य गुरुदेव ने जीवन के प्रत्येक क्षण का रस निचोड़कर उसे काम में लेना सीखा। मुनि जीवन में अनेक बार रात के प्रथम प्रहर में गुरुदेव तीन-तीन हजार श्लोकों का पुनरावर्तन कर लेते थे। वे अनेक बार अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहते थे- 'मेरा क्षण-क्षण किसी अच्छे कार्य में लगे, यह मेरी तीव्र भावना है।' जीवन के इतने लम्बे काल में कोई व्यक्ति इतना अप्रमत्त रहा हो, यह आश्चर्य का विषय है। उनके निकट रहने वाला हर व्यक्ति उनकी अप्रमत्तता और जागरूकता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। विद्वद्वर्ग उनकी इसी विशेषता से उनके प्रति आकृष्ट हुआ था।
प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी ने अपनी अनुभूति इन शब्दों में व्यक्त की- 'जब अन्तरंग गोष्ठी में मैंने उनके दर्शन पाए तो देखा कि यह व्यक्ति खरा है, उसमें आन है, तेरापंथ का एकमात्र आचार्य और शास्ता होने पर भी जिज्ञासु और साधकपन उनमें जगा हुआ है। वह साधनाशील पुरुष किसी प्रमाद के अधीन नहीं है, जागरूक है।...मैंने उन्हें सदा जागृत व तत्पर पाया। शैथिल्य कहीं देखने में नहीं आया। प्रमाद और अवसाद उनके निकट नहीं आ पाता। आसपास का वातावरण उनकी कर्मशीलता से चैतन्य और उन्नत बना दिखता है।'
_ 'समयं गोयम! मा पमायए' महावीर के इस अनमोल वचन को उन्होंने केवल अपने जीवन में ही नहीं उतारा बल्कि अपने परिपार्श्व को भी इसका प्रतिबोध दिया। उनके पास बैठने वाला कोई व्यक्ति प्रमाद, आलस्य या अकर्मण्यता को प्रश्रय नहीं दे सकता था। वे बार-बार इस बात को दोहराते रहते थे- 'सुषुप्ति एवं आलस्य का जीवन मुझे पसंद नहीं।' यात्रा के दौरान ऐसी अनेक घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है, जब