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अध्यात्म के प्रयोक्ता अहिंसा को प्रायोगिक बनाने के लिए अपनी योजना प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा- "मैं चाहता हूं कि एक शक्तिशाली अहिंसक सेना का निर्माण हो। वह सेना राजनीति के प्रभाव से सर्वथा अछूती रहे । मेरी दृष्टि में अहिंसक सेना के ये पांच तत्त्व मुख्य होंगे- समर्पण- अपने कर्त्तव्य के लिए जीवन की आहुति देनी पड़े,
तो तैयार रहे। - शक्ति - परस्पर एकता हो। - संगठन- संगठन में इतनी दृढ़ता हो कि एक ही आह्वान पर
हजारों व्यक्ति तैयार हो जाएं। - सेवा- एक दूसरे के प्रति निरपेक्ष न रहें। अनुशासन- परेड में सैनिक की तरह चुस्त अनुशासन हो।"
अहिंसा सार्वभौम की एक अंतरंग परिषद् के सम्मुख इसके उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए पूज्य गुरुदेव ने फरमाया-"मेरा यह निश्चित अभिमत है कि संसार में हिंसा थी, है और रहेगी। हिंसा की तरह अहिंसा का भी त्रैकालिक अस्तित्व है। हिंसा की प्रबलता देखकर अहिंसा की निष्ठा शिथिल हो जाए या समाप्त हो जाए, यह चिंता का विषय है। हिंसा का पलड़ा अहिंसा से भारी न हो, ऐसी जागरूकता रखनी है। यह काम निराशा और कुण्ठा के वातावरण में नहीं होगा। प्रसन्नता, उत्साह और लगन के साथ काम करना है, अहिंसा की शक्ति को उजागर करना है। अहिंसा सार्वभौम की सफलता का पहला कदम यही होगा।" ध्रुवयोग की साधना
आगमों में मुनि के लिए 'ध्रुवयोगी', 'संजमधुवजोगजुत्ते' आदि विशेषणों का प्रयोग मिलता है। जो अवश्य करणीय कार्यों को नियमित रूप से करता है, वह ध्रुवयोगी कहलाता है। चूर्णिकार जिनदास महत्तर के अनुसार प्रतिपल जागरूक, प्रतिलेखन आदि कार्यों को नियमित रूप से करने वाला, मन, वचन, काया की प्रवृत्ति को सावधान होकर करने वाला तथा पांच प्रकार के स्वाध्याय में रत मुनि ध्रुवयोगी कहलाता है।" सन् १९९५ के दिल्ली चातुर्मास में पूज्य गुरुदेव ने ध्रुवयोग की साधना का प्रकल्प साधु-साध्वियों के समक्ष रखा। ध्रुवयोग सात हैं