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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी पूज्य गुरुदेव की स्मृति एवं उनकी शक्ति से जुड़ा हुआ है। अभीप्सा है सृजन का यह क्रम तब तक चलता रहे, जब तक जीवन की अंतिम सांस न खूट जाए। आचार्य महाप्रज्ञजी स्वयं योगी हैं। उनकी योग साधना ने प्रज्ञा के नए-नए आयामों को उद्घाटित किया है। उनका आशीर्वाद मेरे साहित्यिक पथ का आलोक है। युवाचार्यश्री महाश्रमणजी सहज साधक हैं, उनकी मृदु मुस्कान एवं मूक प्रेरणा ही मेरे लिए प्रेरक है।
इस लेखन-यात्रा के हर दुर्गम पड़ाव पर, सुषुप्ति के अवसरों पर निरंतर गंतव्य की ओर अग्रसर करने में महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी की प्रेरणा और अमियपगा वात्सल्य बहुत मूल्याह रहा है। भविष्य में गुरुदेव के व्यक्तित्व के अन्य आयामों पर लिखने में उनकी प्रेरणा मेरे पथ को प्रशस्त करेगी अतः उनके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन नहीं, बल्कि वात्सल्यमय अभिप्रेरणा की अभीप्सा है। समय-समय पर मुनिश्री मधुकरजी स्वामी एवं मुनिश्री दुलहराजजी स्वामी का बहुमूल्य मार्गदर्शन भी मिलता रहा है। समणी नियोजिका एवं समस्त समणी परिवार की हार्दिक मंगलभावना भी बहुमूल्य रही है। . पुस्तक पढ़ते समय पाठक हर क्षण गुरुदेव की साक्षात् उपस्थिति का अहसास करते रहेंगे क्योंकि पुस्तक की सम्पन्नता के समय तक गुरुदेव की साक्षात् सन्निधि उपलब्ध थी।
पुस्तक लिखते समय मुझे जिस अनिर्वचनीय अतीन्द्रिय आनंद की. अनुभूति हुई, वह अवक्तव्य है। आशा है पाठक भी इस पुस्तक को पढ़तेपढ़ते आनंद-सागर में निमज्जित हुए बिना नहीं रहेंगे। पुस्तक पढ़ते समय हर क्षण उन्हें इस बात का अहसास होता रहेगा कि वे चैतन्य के क्षीरसागर की कल्लोलों से अभिषिक्त हो रहे हैं, उनके भीतर जागृति अंगड़ाई ले रही है और आंतरिक रूपान्तरण करवट ले रहा है। यदि इस पुस्तक को पढ़कर कुछ व्यक्ति भी चैतन्य के संस्पर्श का अनुभव कर सकें तो श्रम की सार्थकता होगी। पुस्तक का तृतीय संस्करण अनेक लोगों को योग-साधना की ओर प्रेरित करेगा। इसी विश्वास के साथ...... .
-समणी कुसुमप्रज्ञा २३ दिसम्बर, १९९७ जैन विश्व भारती लाडनूं, (राजस्थान)