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पर प्रस्थित किया। उनके जादुई हाथों के स्पर्श ने न जाने कितने व्यक्तियों में नयी चेतना का संचार किया। उनके प्रेरक जीवन ने अनेकों की दिशा का रूपान्तरण किया। उनकी पावन सन्निधि अध्यात्म की नयी किरणें बिखेरती रहीं अतः वे साधक ही नहीं, लाखों साधकों के अनुशास्ता थे। लगभग ६० वर्ष तक उन्होंने नेतृत्व को साधना का कार्यक्षेत्र बनाया और कुर्सी के आपाधापी के युग में पद-विसर्जन कर निष्काम साधना की जीवन्त मिशाल स्थापित कर दी।
गुरुदेव तुलसी ब्रह्मर्षि थे क्योंकि उन्होंने साधना के नए-नए प्रयोगों का आविष्कार किया। वे देवर्षि थे क्योंकि वे सबको ज्ञान का प्रकाश बांटते रहे। वे राजर्षि थे क्योंकि वे एक विशाल धर्मसंघ के अनुशास्ता थे तथा वे महर्षि थे क्योंकि वे सतत महान् की खोज में प्रयत्नशील रहे।
महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी पूज्य गुरुदेव की हर साहित्यिक कृति एवं आध्यात्मिक प्रयोगों के साथ जुड़ी हुई हैं। वे उन विरल व्यक्तित्वों में एक हैं, जिन्हें गुरु का अमित वात्सल्य और सतत निकट सन्निधि मिली। गुरुदेव की साधना के बिन्दुओं का रेखांकन वे इन सूत्रों में करती हैं* चैतन्य की अनुभूति का क्षण
जीवन-परिमार्जन का क्षण * अहंकार और ममकार के विसर्जन का क्षण
वर्तमान में जीने का बोध
जागरण का प्रथम क्षण * मूर्छा की ग्रंथि तोड़ने का क्षण
सृजन का क्षण ऐसे साधना के शिखर पुरुष की साधना को शब्दों में बांधा जाए, यह किस लेखनी की बिसात है? ___ आचार्य तुलसी को मैंने अनेक रूपों में देखा। वे मेरे गुरु थे, पथदर्शक थे तथा मेरी हर प्रवृत्ति के प्रेरक भी। उनका प्रोत्साहन मेरे जीवन का पाथेय बन गया। उन्होंने मुझे केवल संन्यस्त ही नहीं किया, अध्यात्मविकास के अनेक उपक्रमों से परिचित भी कराया। उनका नाम मेरी जीवन पोथी के हर पृष्ठ की हर पंक्ति पर अंकित है। प्रयत्न यही रहता है कि गुरुदेव की अभीक्ष्ण स्मृति बनी रहे। यही कारण है कि मेरा हर सृजन