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स्वकथ्य भारतभूमि अनादिकाल से योग भूमि के रूप में विख्यात रही है। यहां का कण-कण, अणु-अणु न जाने कितने योगियों की योग-साधना से आप्लावित हुआ है। तपस्वियों की गहन तपस्या के परमाणुओं से अभिषिक्त यह माटी धन्य है और धन्य है यहां की हवाएं, जो साधना के शिखर पुरुषों की साक्षी हैं। इसी भूमि पर कभी वैदिक ऋषियों एवं महर्षियों की तपस्या साकार हुई थी तो कभी भगवान् महावीर, बुद्ध एवं आद्य शंकराचार्य की साधना ने इस माटी को कृत्कृत्य किया था। साक्षी है यही धरा रामकृष्ण परमहंस की परमहंसी साधना की, साक्षी है यहां का कण-कण विवेकानंद की विवेक-साधना का, साक्षी है क्रांत योगी से बने अध्यात्म योगी श्री अरविन्द की ज्ञान साधना का और साक्षी है महात्मा गांधी की कर्मयोगसाधना का। योग साधना की यह मंदाकिनी न कभी यहां अवरुद्ध हुई है
और न ही कभी अवरुद्ध होगी। साधना की यह गंगा बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जिस शलाकापुरुष में आत्मसात् हुई, उनका नाम था- आचार्य श्री तुलसी। जो एक गण के नायक थे तो साधना के महानायक, जिनमें 'योगः कर्मसुकौशलम्'का कर्मयोग, 'समत्वं योगमुच्यते' का समतायोग तथा योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' का शान्तयोग समाहित था। उनके बारे में भूतपूर्व लोकसभा के अध्यक्ष शिवराज पाटिल की इस अनुभूति में अनेक अनुभूतियों का स्वर साक्षात् दृष्टिगोचर होता है- "संसार में पूर्णत्व को जो प्राप्त हैं, उन इने गिने व्यक्तियों में एक नाम गुरुदेव तुलसी का है, ऐसी मेरी मान्यता है। गुरुदेव तुलसी अध्यात्म के शिरोमणि हैं।"
भारतीय परम्परा में संन्यस्त होना सबसे बड़ा योग है। गीता में श्रीकृष्ण पांडवों को संबोध देते हुए कहते हैं- 'यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव!' अर्थात् जो संन्यास है, वही योग है। इस दृष्टि से गुरुदेव श्री तुलसी ७२ वर्षों तक योगी का जीवन जीकर महाप्रयाण कर गये। उनका जीवन ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का समन्वय था। गीता में योगी को तपस्वी, ज्ञानी और पुरुषार्थी व्यक्ति से भी अधिक ऊंचा बताया है
तपस्विभ्योऽधिको योगी, ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तस्माद् योगी भवार्जुन!॥ पूज्य गुरुदेव की दिव्य वाणी ने हजारों-लाखों को साधना के राजपथ