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________________ ३२८ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी प्रशंसा नहीं, प्रशस्ति करो।' दिल्ली में जयाचार्य शताब्दी के अवसर पर गुरुदेव के पास एक व्यक्ति आया और चिंतित स्वरों में बोला- 'इतने लोग यहां पहुंच रहे हैं। दिल्ली जैसे शहर में उनकी व्यवस्था कैसी होगी? उनको कैसे संभाला जाएगा?' बहुत भय दिखाने पर भी गुरुदेव के साधक मानस पर भार की अनुभूति नहीं हुई। उन्होंने भाई को समाहित करते हुए कहा- 'समय पर सब व्यवस्था ठीक हो जायेगी। परिस्थिति आने से पहले ही व्यर्थ चिन्ता का भार क्यों ढोया जाए? चिंता के भार से आधी कार्यजा शक्ति तो पहले ही नष्ट हो जाती है।' समय पर जयाचार्य शताब्दी का ऐतिहासिक समारोह इतने व्यवस्थित ढंग से सम्पन्न हुआ कि कई दिनों तक उसकी गूंज दिल्ली के जनमानस पर गूंजती रही। ___ लघुता आकिंचन्य का सर्वश्रेष्ठ प्रयोग है। जिसका किसी पर स्वामित्व नहीं, वह पूरे जगत् का सम्राट बन जाता है। रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में स्वामी के पास ही वैभव आता है, गुलाम को कभी कुछ नहीं मिलता। स्वामी वह है, जो बिना उन सबके रह सके। जिसका जीवन संसार की क्षुद्र, सारहीन वस्तु पर अवलम्बित नहीं रहता।' पूज्य गुरुदेव ने 'व्यवहारबोध' में इसी सत्य का संगान किया है अंगलाघव संगलाघव, अकिंचनता जो मिले। त्रिलोकी का विभव पाया, हृदय की वनिका खिले॥ . वर्तमान में तथाकथित साधु समुदाय के परिग्रह और ठाटबाट को देखकर साधुता भी शर्म से झुक जाती है। सारी सुख-सुविधा उपलब्ध होने पर भी गुरुदेव न किसी स्थान से बंधे और न किसी वैभव-संपदा से। उनके इस लघुता के भाव ने सहज ही सारे संसार को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया तथा उनको प्रभुतासम्पन्न बना दिया। वे मानते थे कि साधक का मन इतना निर्लोभ होना चाहिए कि उसके सामने कितना ही बड़ा आकर्षण उपस्थित होने पर भी वह सर्वथा निराशंस और निराकुल रहे। ऐसी मनोवृत्ति वाला साधक सदा सुखशय्या में सोता है। ___सादड़ी में वहां के ठाकुर गुमानसिंहजी गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए। दर्शन करते ही उन्होंने कुछ रुपये गुरुदेव के चरणों में रख दिए । रुपयों को देखकर गुरुदेव मन ही मन मुस्कराए और बोले- 'ठाकुर साहब! हम
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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