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साधना की निष्पत्तियां
लघुभूतविहारी हैं । परिग्रह के नाम पर हमारे पास बैंक बेलेंस नहीं है अतः इन कागज के टुकड़ों का हम क्या करें ? इनसे अधिक तो हमारे लिए कागज ही मूल्यवान हैं, जो लिखने के काम तो आते हैं। हम तो त्यागतपस्या की भेंट लेते हैं, नोटों की नहीं । ठाकुर साहब ने भावविह्वल होकर गुरुदेव की अभ्यर्थना करते हुए कहा - 'साधु तो बहुत आते हैं लेकिन आपके पदार्पण से हमें अतिरिक्त प्रसन्नता हुई है क्योंकि आपका किसी प्रकार का भार नहीं है। न आपको पलंग चाहिए, न दरी । न ही भिक्षा में आप कोई वस्तु मांगकर लेते हैं।' आज के तथाकथित साधुओं की स्थिति पर व्यंग्य करती पूज्य गुरुदेव की ये पंक्तियां कितनी मार्मिक हैं
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दंभी पाखण्डी मुनियों से, यह साधु नाम बदनाम हुआ । उनकी काली करतूतों का, हा ! कितना दुष्परिणाम हुआ । उनके कारण सच्चे त्यागी संतों पर भी लगता लांछन । निर्दोष सदोष कहलाते हैं, मोठों में पीसे जाते घुन ॥
निम्न घटना प्रसंग भी उनकी लाघव-साधना का स्पष्ट निदर्शन है । सन् १९६७ में विलीमोरा गांव में एम. एच. ए. टाटा हाई स्कूल के छात्रों के बीच गुरुदेव का प्रवचन निर्धारित था । स्कूल के अध्यापकों ने बड़े-बड़े तख्तों पर गद्दी, कालीन एवं तकिए लगाकर उसे सिंहासन का रूप दे दिया। स्वागत की जोरदार तैयारियां देखकर गुरुदेव ने फरमाया 'संत और सिंहासन का क्या मेल ? संत तो अकिंचन होता है। जो बाह्य सुख-सुविधा में प्रतिबद्ध हो जाता है, वह साधुता का आनन्द नहीं उठा सकता ।' व्यवस्थापकों ने तत्काल गद्दी, कालीन तथा तकिए आदि उठा दिए और एक कुर्सी रख दी। गुरुदेव ने उसी पर बैठकर प्रवचन किया। अध्यापक लोगों ने ऐसे अकिंचन और मुक्तविहारी संत के प्रथम बार ही दर्शन किये थे इसलिए आश्चर्य होना स्वाभाविक था ।
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गुरुदेव का अभिमत था कि जो व्यक्ति जितना लघुतासम्पन्न होगा, प्रभुता स्वयं उसके दरवाजे पर दस्तक देगी। प्रभुता के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए पूज्य गुरुदेव ने कहा- 'प्रभुता औरों पर शासन करने, अधिक से अधिक सुख-सुविधा भोगने, वैयक्तिक स्वार्थ साधने अथवा प्रतिष्ठा के शिखर पर चढ़ने के लिए नहीं होती । प्रभुता वह होती है, जो मनुष्य को