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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३३० स्वयं से परिचित कराती है, स्वयं पर अनुशासन करना सिखाती है और स्वयं के भीतर छिपी हुई ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की समृद्धि बढ़ाने की क्षमता प्रदान करती है। अब मनुष्य स्वयं सोचे कि उसे लघुता से प्रभुता की दिशा में आगे बढ़ना है या प्रभुता के दर्प से लघुता की ओर फिसलना है।' विदेह - साधना साधना का प्रथम और अन्तिम बिन्दु भेदविज्ञान है । भारतीय ऋषियों ने विद्या और अविद्या का सम्बन्ध भी भेदविज्ञान से जोड़ा है। सैकड़ों पुस्तकों का ज्ञाता भी विद्यावान् नहीं है, यदि उसे देह और आत्मा की भिन्नता का बोध न हो। यदि भेदविज्ञान का अनुभव है तो पुस्तकीय ज्ञान न होने पर भी वह सबसे बड़ा ज्ञानी है। देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्येति प्रकीर्तिता । नाहं देहश्चिदात्मेति, बुद्धिं विद्येति भण्यते ॥ साधना के प्रथम चरण में साधक देहाध्यास से मुक्त होने के लिए प्रयोग करता है और अन्तिम चरण में चैतन्य के पूर्ण साक्षात्कार से वह कृतकृत्य हो जाता है। बिना भेदविज्ञान के न तो विदेह की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है और न ही आत्मविकास की दिशा में चरणन्यास हो सकता है। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि आत्मा का अनुभव सूक्ष्म सत्य का अनुभव है । यह अनुभव उनको ही हो सकता है, जो भेदविज्ञान की साधना करके शरीर और आत्मा की भिन्नता को समझ लेते हैं। विदेह की स्थिति को प्राप्त करना प्रयत्नजन्य है क्योंकि आत्मा और पुद्गल का संयोग अनादिकालीन है पर कुछ व्यक्तियों को यह स्थिति सहज प्राप्त हो जाती विज्ञान की अनुप्रेक्षा के लिए पूज्य गुरुदेव द्वारा निर्मित यह पद्य मन्त्र के रूप में जपा जा सकता है आत्मा भिन्न शरीर भिन्न है, एक नहीं संजोना । है मिट्टी से मिला-जुला, पर आखिर सोना सोना । शरीर के संवेदनों से प्रभावित होने वाला साधक भेदविज्ञान की गहराई में नहीं पैठ सकता। वह थोड़ी सी शारीरिक वेदना में हताश और निराश हो जाता है। भेदविज्ञान का अभ्यास सधने पर शरीर की कोई भी पीड़ा साधक के आनन्द में बाधक नहीं बन सकती क्योंकि सतत आत्मा या
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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