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साधना की निष्पत्तियां चैतन्य का अनुभव करने के कारण वह शरीर की पकड़ से मुक्त हो जाता है। कष्ट की अनुभूति तब होती है, जब शरीर को आत्मा मान लिया जाता है। साधक को यह अनुभूति होती रहती है कि वेदना शरीर को होती है, चेतना को नहीं। मैं शुद्ध चैतन्यरूप आत्मा हूं। शरीर का आत्मा के साथ केवल संयोग मात्र है।
भेदविज्ञान के सघन प्रयोग से ही गुरुदेव श्री तुलसी ने हर वेदना को अपना मित्र मानकर उसका स्वागत किया। हर बीमारी या वेदना को उन्होंने दीनता से नहीं, अपितु वीरता से सहा। अनेक बार प्रवचनों में वे अपनी अनुभूति को शाब्दिक बाना भी देते रहते थे- 'मैं ४५ वर्ष से श्वास रोग का मरीज हूं, पर कभी भी इस बीमारी को लेकर मेरे मन में निराशा, हीनता या दीनता के भाव नहीं आए। गुरुओं की ऐसी शक्ति मेरे साथ है कि किसी भी पीड़ा में मेरा मनोबल डोलता नहीं। अब तो मैं आनन्द के साथ कहता हूं, श्वास रोग! पधारो, आपका स्वागत है। मैं आपको नहीं सताऊंगा आप मुझे न सताएं।' यह वक्तव्य उसी साधक के मुख से निकल सकता है, जिसने अपनी चेतना को दर्द की अनुभूति से हटा लिया हो तथा जो देहाध्यास से मुक्त हो।
शरीर से प्रतिबद्ध व्यक्ति सामान्य बीमारी की स्थिति में अधीर होकर अनेक प्रकार के औषधि-सेवन की ओर प्रवृत्त हो जाता है पर गुरुदेव अधिक औषधि-प्रयोग के विरोधी थे। उनका चिन्तन था कि दर्दशामक दवा का प्रयोग करने की अपेक्षा पीड़ा को सहन करने में अधिक आनन्द की अनुभूति होती है। सन् १९६२ का घटना-प्रसंग है। दिन में गुरुदेव का स्वास्थ्य कुछ नरम था। विहार में बार-बार उल्टियों एवं दस्तों का प्रकोप रहा। विहार के दौरान गुरुदेव को शारीरिक शिथिलता का अनुभव हो रहा था। संतों ने रात को जल्दी विश्राम के लिए निवेदन किया लेकिन विश्राम की बात तो दूर गुरुदेव वेदना में सहजतया दिनचर्या में परिवर्तन करना भी पसन्द नहीं करते थे। उस दिन लम्बे समय तक गुरुदेव ने रात्रिकालीन प्रवचन किया। हजारों की संख्या में उपस्थित जनता गुरुमुख से अमृतवाणी सुनकर तृप्त हो गई।
उनके जीवन के ऐसे अनेक घटना-प्रसंग हैं, जो उनकी भेदविज्ञान