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साधना की निष्पत्तियां
कुछ हरिजन भी थे । उन्होंने भी गुरुदेव के साथ मंदिर में प्रवेश कर लिया। पुजारिन हरिजनों को मंदिर में देखकर क्रोध में आकर गालियां बकने लगी । गुरुदेव को जब यह बात ज्ञात हुई तो उन्होंने संतों को निर्देश देते हुए कहा - "हम दूसरी जगह ठहरेंगे यहां मन्दिर में भगवान् नहीं, चंडाल (क्रोध) रहता है। हम इस अपवित्रता में ठहरकर क्या करेंगे ? पुजारिन ने जब गुरुदेव के ये शब्द सुने तो वह शान्त हो गयी और बोली - " आप यहां से क्यों जा रहे हैं? मैं तो इन लोगों को मना कर रही हूं।' गुरुदेव ने फरमाया- 'तुम जब हमको ठहरा रही हो तो हमारे साथ आने वाले लोगों को कैसे रोक सकती हो? हम मानव-मानव में कोई भेद नहीं करते हैं । सबकी आत्मा समान है ।' गुरुदेव की ओजपूर्ण वाणी सुनकर पुजारिन चुपचाप दूसरी ओर चली गयी। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं, जब उन्होंने जातिवाद की जड़ों पर क्रियात्मक प्रहार किया ।
गुरुदेव श्री तुलसी की अहिंसा विषयक मौलिक सोच एवं उनके अहिंसक प्रयोगों की चर्चा एक स्वतंत्र पुस्तक में की जाएगी।
लाघव
साधना और भार ये दोनों ३६ के अंक की भांति विपरीत दिशोन्मुखी हैं। साधक भीतर और बाहर से हर क्षण हल्केपन की अनुभूति करता है क्योंकि लघुता की साधना करने वाला साधक ही प्रभुता का वरण कर सकता है। भारीपन व्यक्ति को नीचे की ओर ले जाता है। इस संदर्भ में भगवती में वर्णित उपासिका जयंती और महावीर के प्रश्नोत्तर अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । आध्यात्मिक विकास हेतु हल्कापन अनिवार्य शर्त है। आचार्य तुलसी ने इसी सत्य को काव्य में निबद्ध कर दिया
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हल्कापन तन में रहे, मन में स्फूर्ति अपार । आध्यात्मिक चिंतन स्वयं, पाता है विस्तार ॥
भारीपन शरीर का हो, वस्तु का या विचारों का, वह व्यक्ति के मन बेचैन बनाता है। पूज्य गुरुदेव सभी प्रकार के भार की अनुभूति से मुक्त थे । वे अनावश्यक चिन्ता का भार नहीं ढोते थे । वे चिन्ता और चिंतन में भेदरेखा खींचना जानते थे । अनावश्यक चिन्ता करने वालों को उनका प्रतिबोध था - ' चिन्ता नहीं, चिंतन करो, व्यथा नहीं, व्यवस्था करो,