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साधना की निष्पत्तियां
आत्मानुशासन के अभाव में पदार्थ व्यक्ति पर हावी होने लगते हैं। पूज्य गुरुदेव का आत्मानुशासन इतना पुष्ट था कि उन्होंने अस्वीकार की शक्ति को आजमाकर देखा था। वे कहते थे कि अस्वीकार की क्षमता जागने पर भी बुराई टिककर रहे तो योग-साधना व्यर्थ हो जाएगी? मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि अस्वीकार की शक्ति से हर असंभव को संभव करके दिखाया जा सकता है।'
संसार में आत्मानुशासन से बड़ा कोई सुख नहीं है। लेकिन यह भी सत्य है कि इंद्रिय और मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सुंदर रूप देखते ही व्यक्ति की आंखें उसमें अटक जाती हैं। स्वादु पदार्थ उपस्थित होते ही वह खाने को ललक उठता है। "एक शेर या दैत्य पर नियंत्रण करना सरल है पर उत्तेजना के क्षणों में अपने आप पर नियंत्रण या अनुशासन कर पाना बहुत बड़ी उपलब्धि है। जो अपनी वृत्तियों और इंद्रियों पर नियंत्रण कर लेता है, वही सच्चा विजेता हो सकता है।'
___अनुशासन के निम्न पड़ाव हैं- इच्छा, आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वास और भाषा। जब तक इन छहों पर अनुशासन नहीं होता, इनको वश में नहीं किया जा सकता। साधना का संकल्प स्वीकार करने पर भी बार-बार विचलन एवं अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न होती रहती है। प्रशिक्षित और नियंत्रित होने के बाद ये ही साधना और विकास के वाहक बन जाते हैं। पूज्य गुरुदेव ने एक-एक पड़ावों को पार करके मन को साधा तथा उसे अमन बनाने का प्रयत्न किया था। दशवैकालिक का यह भावानुवाद उनकी आत्मानुशासी चेतना की ओर संकेत है..जो संकल्प-विकल्पों के वश, काम-निवारण नहीं करे। ' कैसे श्रमण धर्म का पालन, पग-पग जो अवसाद वरे॥
पूज्य गुरुदेव का मानना था कि आत्मा को परमात्मा बनाने का सीधा सा उपक्रम है- अपने मन को आत्मा में स्थापित करना। मन आत्मा का अनुचर है। यह जिस दिन सही अर्थ में आत्मा का अनुचर बन जाता है, आत्मा विकास की सीढ़ियों पर आरोहण करना शुरू कर देती है। प्रेक्षासंगान में भी पूज्य गुरुदेव मनोनुशासन की महत्ता उजागर करते हुए कहते हैं
मन साधे आत्मा सधे, सध जाए संसार। समाधान हर बात का, रहे न कोई भार॥