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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२९८ को ही सबका नियामक मानता हूं। पुरुषार्थ ही सौभाग्य को खींच लाता है।' जयशंकरप्रसाद की ये पंक्तियां उनके मानस में हर पल झंकृत होती रहती थीं। इसीलिए वे बार-बार जनता को उद्बोधित करते रहते थे कि चाह करने मात्र से राह नहीं मिलती। उसके साथ उत्साह और पुरुषार्थ का योग होने पर ही सफलता मिलती है। यही कारण है कि गुरुदेव तुलसी अपने पौरुष से हर विपदा को सम्पदा में बदल देते थे।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अणुव्रत अनुशास्ता श्री तुलसी के पुरुषार्थ की गति आत्मविकास, संघविकास और राष्ट्रविकास की ओर अग्रसर थी। निर्लक्ष्य या बिना प्रयोजन कुछ भी करना उनकी जागृत चेतना को स्वीकार्य नहीं था। किसी साधु या संत को अनावश्यक क्रिया करते देख वे तत्काल उसे सावधान कर देते थे। कभी-कभी तो सामान्य घटना के माध्यम से भी एक नया बोध-पाठ दे देते थे। एक बार साधु-साध्वियों को ग्रन्थ-वाचन कराते समय गुरुदेव की दृष्टि ऊपर बैठे दो कबूतरों पर अटक गई। उनको बिना प्रयोजन इधर-उधर उड़ते देख गुरुदेव ने शिक्षा देते हुए कहा- 'इनका भी कोई जीवन है ? न कोई काम, न कोई प्रयोजन। निष्प्रयोजन जीवन कबूतर के समान है, जो केवल खाने-पीने और इधरउधर दौड़ने में ही बीत जाता है।'
__ अणुव्रत अनुशास्ता की अप्रमत्तता और क्रियाशीलता इस बात से जानी जा सकती थी कि वे प्रथम क्षण में एक कार्य समाप्त करते और अगले क्षण दूसरा कार्य प्रारम्भ कर देते। न प्रथम कार्य की अधिकता का भार महसूस करते और न दूसरे कार्य की पूर्ति में उतावलापन । सहज भाव से निष्कामयोगी की भांति कार्य करते चले जाते। आश्चर्य तो इस बात का होता कि वे जनहित के प्रति जितने सक्रिय थे, शरीर-सुख या अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु उतने ही निष्क्रिय थे।
लम्बी-लम्बी यात्राओं के दौरान १५-२० मील के पादविहार करने तथा दिन में तीन-चार बार व्याख्यान देने पर भी उन्होंने कभी थकान की अनुभूति व्यक्त नहीं की। मेवाड़ में थोरिया से गजपुर जाते हुए ७२ वर्ष की उम्र में दिन में पांच बार प्रवचन किया। पर न सुस्ती, न अलसाहट और न अहसान का ज्ञापन। पूज्य गुरुदेव की इस अति कार्यशीलता को देखकर