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साधना की निष्पत्तियां
मिलती है तो उसमें भी अपने पुरुषार्थ की पुट मिलाकर उसे नए रूप में प्रस्तुत कर देना गुरुदेव के लिए सहज कार्य था । वेद के ये सूक्त उनकी पुरुषार्थी चेतना को सुहाए नहीं इसलिए उसको नई भाषा के साथ प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा
असतो मा सद् गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योः मा अमृतं गमय
'मुझे असत् से सत् की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो'- ये तीनों ही मांगें बहुत सुन्दर हैं। सत्, प्रकाश और अमरत्व प्राप्त होने के बाद मनुष्य को चाहिए ही क्या ? मैं इन वाक्यों को थोड़ा बदलना चाहता हूं । याचना के स्थान पर पुरुषार्थ को जोड़ना चाहता हूं । पुरुषार्थ में विश्वास रखने वाले व्यक्ति की भाषा होगी - " मैं असत् से सत् की ओर जाऊं, मैं अंधकार से प्रकाश की ओर जाऊं, मैं मृत्यु से अमरत्व की ओर जाऊं। इसमें व्यक्ति का अपना कर्तृत्व उजागर होता है । आस्थाप्रधान संस्कृति में याचना की बात अस्वाभाविक नहीं है, फिर भी उसमें पुरुषार्थहीनता नहीं होनी चाहिए ।' पुरुषार्थी व्यक्ति अपने इष्ट का सम्बल या आलम्बन प्राप्त कर सकता है। उसका संकल्प होता है
" अमग्गं परियाणामि, मग्गं उवसंपज्जामि अन्नाणं परियाणामि, नाणं उवसंपज्जामि मिच्छत्तं परियाणामि, सम्मत्तं उवसंपज्जामि"
मैं अमार्ग को छोड़ता हूं और मार्ग को स्वीकार करता हूं। मैं अज्ञान को छोड़ता हूं और ज्ञान को स्वीकार करता हूं। मैं मिथ्यात्व को छोड़ता हूं और सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूं। इस प्रकार सोचने वाला व्यक्ति ईश्वर
प्रतिस्थाशील रहता हुआ भी लक्ष्यप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ का उपयोग करेगा।' ये पंक्तियां उनके अजेय आत्मबल और अमित आत्मकर्तृत्व की भावना को प्रकट कर रही हैं।
'सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम हैं। मैं तो पुरुषार्थ