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________________ ११३ अध्यात्म के प्रयोक्ता यह पद्य उनकी चेतना में सदैव तरंगित होता रहता था नातीतमटुं न य आगमिस्सं, अटुंनियच्छंति तहागया उ। विधूतकप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी॥ यह सत्य है कि कोई भी मनुष्य अतीत और भविष्य से कटकर नहीं जी सकता पर अनावश्यक स्मृति और कल्पना से बचकर अपनी शक्ति का सदुपयोग किया जा सकता है। अतीत की अनावश्यक स्मृति जीवनी शक्ति पर जंग लगा देती है। विचारक कृष्णकुमार के अनुसार अतीतस्थ मन की दशा एक मानसिक बीमारी से कम नहीं। यह बीमारी सबसे पहले कल्पनाशक्ति का नाश करती है फिर धीरे-धीरे व्यक्तित्व की अन्य ताकतों की तरफ बढ़ती है। तर्क शक्ति कमजोर पड़ती जाती है, लचीले ढंग से सोचना नामुमकिन हो जाता है, सूझ-बूझ जाती रहती है।" समय के संदर्भ में उनका स्पष्ट मंतव्य था कि समय के पांव कभी रुकते नहीं। मनुष्य कुछ करेगा तो समय बीतेगा और कुछ नहीं करेगा तो भी समय बीतेगा। समय को थामकर रखने की शक्ति या कला किसी के पास नहीं है। अतीत और भविष्य के बीच का क्षण कार्यकारी होता है। अतीत की स्मृति हो सकती है पर उसे वर्तमान में नहीं लाया जा सकता। भविष्य की कल्पना की जा सकती है पर कल्पना को जीया नहीं जा सकता। जीने के लिए आज का दिन होता है। आज की खाद से ही कल का निर्माण संभव है। इसलिए आज को सही ढंग से जीने की अपेक्षा है।' अगर हमारा वर्तमान सही दिशा में है तो भविष्य निश्चित ही हमारे अनुकूल हो जाएगा। यद्यपि यह सत्य है कि गुरुदेव समय-समय पर अतीत की स्मृति भी करते थे पर उससे कुछ प्रेरणा एवं शिक्षा ग्रहण करने के लिए। भविष्य की अनेक योजनाएं भी बनाते थे पर उसे साकार रूप देने के लिए। वे इस सत्य को स्वीकार करते थे- 'मैं अतीत और अनागत को अपने चिंतन से ओझल नहीं करता। पर उन्हीं को सब कुछ मानकर नहीं सोचता। अतीत व्यक्ति के वर्तमान का आधार बनता है और भविष्य की कल्पनाओं के आधार पर वर्तमान को संवारा जाता है। इस दृष्टि से वर्तमान अपने अतीत और अनागत का आभारी रहता है।' अतीत की स्मृति के बोझ से व्यक्ति दबता चला जाता है और
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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