________________
साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
११४ भविष्य की चिंता का भार व्यक्ति को सामान्य नहीं रहने देता। पूज्य गुरुदेव एक कार्य को छोड़कर जब दूसरे कार्य में प्रवृत्त होते तो पहले कार्य को पूर्णतया निःशेष करके ही दूसरे कार्य में संलग्न होते। छोड़े हुए कार्य का अनावश्यक भार ढोकर दिमाग को भारी नहीं बनाते। बेमतलब चिंता का भार ढोने वालों को प्रेरणा देते हुए पूज्य गुरुदेव कहते थे
अणहोणी होसी नहीं, होसी जो होणी।
बेमतलब बेचैन बण, क्यूं धीरज खोणी॥
भावक्रिया का दूसरा अर्थ है- भीतरी जागरूकता। अर्थात रागद्वेष मुक्त क्रिया करने का अभ्यास। भावक्रिया एक ऐसा ध्यान है, जिसका अभ्यास चौबीस घंटे किया जा सकता है क्योंकि जब चेतना और क्रिया एक ही दिशा में प्रवाहित होती है, तब भावक्रिया सधती है अन्यथा वह मूर्छा का प्रतीक बन जाती है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में भावक्रिया ही ऐसा तत्त्व है, जो व्यक्ति को अपनी बुरी आदतों और दुष्प्रवृत्तियों के प्रति जागृत करता है। इसके अनुसार व्यक्ति क्रोध भी करे तो उसे भान होना चाहिए कि मैं अभी क्रोध अवस्था में हूं। जागृत दशा में होने वाला क्रोध उतना घातक नहीं होता, जितना बेहोशी में किया गया क्रोध होता है। अच्छाई हो या बुराई, उसके प्रति जागरूकता रहने से ही वृत्तियां उदात्त हो सकती हैं। चेतना के ऊर्ध्वारोहण या वृत्तियों के उदात्तीकरण के लिए भावक्रिया की साधना बहुत लाभप्रद है।'
पूज्य गुरुदेव के जीवन में भावक्रिया की साधना इतनी आत्मसात् हो चकी थी कि वे तन्मय हुए बिना कोई कार्य करते ही नहीं थे। उनके ज्ञानतंतु और क्रियातंत में एक अद्भुत संतुलन स्थापित था इसलिए उनका चित्त और शरीर दोनों एक ही क्रिया में संलग्न रहते थे। उनका बोलना, चलना, लिखना, गाना और पढ़ना-पढ़ाना आदि सब क्रियाएं चेतना के साथ संपृक्त थीं अतः उनकी हर क्रिया योग बन जाती थी। आचार्य हरिभद्र ने इसी बात की संपुष्टि की है- 'मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्मवावारो जोगो' अर्थात् मोक्ष से जोड़ने वाली तन्मयतापूर्वक की जाने वाली हर क्रिया योग है। आगम-साहित्य में भावक्रिया के वाचक ये शब्द मिलते हैं- 'तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तन्निवेसणे'- अर्थात् जो