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अध्यात्म के प्रयोक्ता क्रिया की जा रही है, उसी में पूर्णरूपेण तन्मय एवं तल्लीन हो जाना। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का यह अनुभव पठनीय ही नहीं, मननीय भी है"साधना के प्रयोगों से आंतरिक लय इतनी जुड़ जाए कि बाह्य और अंतर में भेद न रहे। ऐसा करने से हमारी हर क्रिया मुक्ति का कारण बन जाएगी। तब विचार और आत्मालोचन का भेद मिट जाएगा।" (२६/२/१९६७ के प्रवचन से उद्धृत)
भावक्रिया का प्रथम प्रायोगिक रूप गति से प्रारम्भ होता है। इस संदर्भ में महावीर का प्रतिबोध है
इंदियत्थे विवजेत्ता, सज्झायं चेव पंचहा। तम्मुत्ती तप्परक्कारे, उवउत्तो रियं रिए॥
पूज्य गुरुदेव चलते समय साक्षात् गति बन जाते थे। अत्यावश्यक होने पर जब उनको बोलना पड़ता तो पग थामकर बोलते, यह घटना प्रसंग उनकी इसी साधना का जीवन्त प्रतीक है। दिल्ली से राजस्थान जाते समय पूज्य गुरुदेव पिलाणी पधारे। पिलाणी से प्रस्थान करते समय जुगलकिशोरजी बिड़ला गुरुदेव के साथ विहार में चलने लगे। चलते समय वे बात करते हुए चल रहे थे। गुरुदेव जब-जब उनके प्रश्न का उत्तर देते, अपने पैरों को थाम लेते। तीन-चार बार रुककर बोलने से बिड़लाजी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा- 'आपके पैर में दर्द है क्या? गुरुदेव ने कहा- 'नहीं, आपके ऐसा पूछने का प्रयोजन क्या है ?' बिड़लाजी ने उत्तर दिया- 'आप चलते-चलते बार-बार रुक रहे हैं, इसलिए मैंने सोचा कि आपके पैरों में दर्द है।' गुरुदेव ने उन्हें समाहित करते हुए कहा- 'हम चलते हुए बात नहीं करते। यह हमारी चर्या का प्रमुख अंग है। इसे हम ईर्या समिति कहते हैं। यह बात सुनकर बिड़लाजी अभिभूत हो गए और खेद के साथ बोले- 'तब मुझे आपके साथ चलते समय बात नहीं करनी चाहिए थी।'
__ भावक्रिया का यह अभ्यास पूज्य गुरुदेव ने बचपन में ही साध लिया था। दीक्षित होते ही कुछ दिनों बाद गंगाशहर में श्रीचंदजी गधैया ने पूज्य कालूगणी को निवेदन किया कि मुनि श्री तुलसीरामजी अत्यन्त स्थिरयोगी हैं । चलते समय मैंने अनेक बार इनका परीक्षण किया है। इनकी दृष्टि कभी गमनपथ से नहीं हटती।