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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
११२ भावक्रिया
साधना में सघनता लाने के लिए भावक्रिया का सतत अभ्यास अपेक्षित है। जीवन की सफलता में भी भावक्रिया का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भावक्रिया का अर्थ है-जिस समय जो काम करें, उसी में तन्मय हो जाना, अपने अस्तित्व को उससे भिन्न नहीं रखना। मन का स्वभाव है- स्मृति, चंचलता और कल्पना। अतीत का स्मरण होता है, भविष्य की कल्पना होती है और वर्तमान में मन चंचलता से प्रेरित होता है। गुरुदेव ने दर्शन के क्षेत्र में एक नयी सोच प्रस्तुत की। उनके अनुसार भावक्रिया के माध्यम से मन को अमन बनाया जा सकता है क्योंकि जब तक मनन नहीं होता, मन होता ही नहीं अतः भावक्रिया की साधना मन को अमन बनाने की सफल प्रक्रिया है। भावक्रिया का मूल अर्थ है- चैतन्य का जागरण और उसके प्रति सतत जागरूकता। आचार्य महाप्रज्ञजी ने भावक्रिया को तीन संदर्भो में व्याख्यायित किया है
१. वर्तमान में जीना २. सतत जागरूकता ३. जानते हुए काम करना।
क्रिया में ये तीन बातें जुड़ते ही वह भावक्रिया बन जाती है। जिस क्रिया में मन का योग नहीं होता, वह क्रिया मूर्छा का प्रतीक बन जाती है। 'खणं जाणाहि पंडिए' महावीर की इस सूक्ति से स्पष्ट है कि पंडित वही होता है, जो क्षण को जानता है अर्थात् वर्तमान में जीना जानता है। पूज्य गुरुदेव के जीवन में यह विशेषता इतनी आत्मसात् हो चुकी थी कि वे न अतीत की चिंता का भार ढोते और न भविष्य की वायवी कल्पनाएं करते। महर्षि विनोद उनकी इस विशेषता का आकलन इन शब्दों में करते हैं- "मैंने अनुभव किया है कि आचार्य तुलसी ईश्वरीय पुरुष हैं। उन्होंने ईश्वर का संदेश फैलाने और उसका कार्य पूरा करने के लिए ही जन्म धारण किया है। वे न भूतकाल में रहते हैं और न भविष्यकाल में। वे नित्य वर्तमान में रहते हैं।" (आचार्य तुलसी विचार के वातायन से पृ. १८३) वर्तमान में जीने के कारण उनकी शक्ति व्यर्थ नहीं जाती थी। एक कार्य सम्पन्न करके दूसरा कार्य प्रारम्भ करते समय प्रथम कार्य की चिंता उन्हें कभी नहीं सताती थी। आचारांग का