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________________ अध्यात्म के प्रयोक्ता उनके साथ सैकड़ों लोग नारे लगाते हुए आगे बढ़ रहे थे। पूज्य गुरुदेव को ज्ञात हुआ कि जुलूस जिस मार्ग से आगे बढ़ रहा है, उस मार्ग में अन्य सम्प्रदाय के मुनियों का व्याख्यान हो रहा है। गुरुदेव दो क्षण रुके और श्रावकों को निर्देश देते हुए कहा- 'नारे बंद किए जाएं।' श्रद्धालुओं ने प्रश्न उपस्थित किया- 'हम किसी को बाधा पहुंचाना नहीं चाहते पर मन के उत्साह को कैसे रोकें?' गुरुदेव ने उन्हें समाहित करते हुए कहा'तुम्हारी धर्म-सभा में साधु-साध्वियों का या मेरा प्रवचन होता हो, उस समय दूसरे लोग नारे लगाते हुए वहां से गुजरें तो तुम्हें कैसा लगेगा? किसी के कार्यक्रम में बाधा पहुंचे वैसा उत्साह या वाणी का प्रयोग मानसिक हिंसा का ही एक रूप है।' गुरुदेव की यह बात उनके अंत:करण को छू गयी और सब अनुयायी शांतभाव से आगे बढ़ने लगे। शांत जुलूस देखकर दर्शक तो आश्चर्यचकित हुए ही, दूसरे सम्प्रदाय के लोगों पर भी इतना गहरा असर हुआ कि वे सहयोग की भावना प्रदर्शित करने लगे। मौन और संभाषण दोनों के मध्य सेतु बांधने वाले पूज्य गुरुदेव की वाग्गुप्ति की साधना प्रत्येक साधक को वाणी-विवेक का अभिनव बोधपाठ देने वाली है। स्वाध्याय मन को सबल एवं सक्षम बनाने का एक पुष्ट आलम्बन हैस्वाध्याय। चेतना पर आए आवरण को दूर करने एवं आत्मविद्या की उपलब्धि में स्वाध्याय एक महत्त्वपूर्ण उपक्रम है। महात्मा गांधी के शब्दों में स्वाध्याय एक महकता गुलशन है, जिससे चित्त सदा प्रसन्न रहता है। पूज्य गुरुदेव स्वाध्याय को साधना का अभिन्न अंग मानते थे। उनकी दृष्टि में स्वाध्याय और साधना का गहरा सम्बन्ध है। एकांगी स्वाध्याय बौद्धिक विकास तक सीमित रह जाता है और एकांगी साधना साधक को रूढ़ बना देती है। स्वाध्याय को साधना का अंग बना लिया जाए, साधना में साधक मान लिया जाए तो नवोन्मेष की संभावना बनी रहती है। ध्यान की साधना हर एक न भी कर सके पर स्वाध्याय चंचल चित्त वालों के लिए भी सहज है। प्राचीन आचार्यों का मंतव्य रहा कि स्वाध्याय की लीनता ही धीरे-धीरे ध्यान में परिणत हो जाती है और उससे भीतर का परमात्मा प्रकट हो जाता है
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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