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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
७२ स्वाध्यायाध्यानमध्यास्तां, ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत्। स्वाध्यायध्यानसम्पत्त्या, परमात्मा प्रकाशते॥
स्वाध्याय को परिभाषित करते हुए पूज्य गुरुदेव ने कहा- 'अपने आपको केन्द्र में रखकर अपने बारे में जानकारी पाने के लिए अपने द्वारा जो अध्ययन किया जाता है, वह स्वाध्याय है।' इस परिभाषा से स्वाध्याय के दो अर्थ फलित होते हैं• अपना अध्ययन, आत्मनिरीक्षण, अपनी पहचान एवं
आत्मविश्लेषण। सत्साहित्य का वाचन और उसका मनन।
पूज्य गुरुदेव दोनों प्रकार के स्वाध्याय से स्वयं को भावित करते रहते थे। वे अपने मन को स्वाध्याय के खंटे से बांधे रहते थे इसलिए वह कभी भटकने नहीं पाता था। मुनि जीवन में वे रात के प्रथम प्रहर में तीनतीन हजार श्लोकों का पुनरावर्तन कर लेते थे। मार्ग में चलते कभी दो मिनट का भी विश्राम होता तो वहीं स्वाध्याय या नयी गाथा सीखना प्रारम्भ कर देते थे। आचार्य बनने के बाद भी उनका स्वाध्याय का क्रम अविच्छिन्न चलता था। पूर्व रात्रि में जनसम्पर्क या प्रवचन आदि के कारण स्वाध्याय का समय नहीं मिलता पर पश्चिम रात्रि में स्वाध्याय का क्रम अनिवार्यतः चलता था। कभी वे अकेले स्वाध्याय करते, कभी बाल संतों का सुनते तथा कभी सामूहिक स्वाध्याय भी करते।
. 'संस्मरणों के वातायन' में व्यक्त अनुभव उनकी इसी परिष्कृत रुचि का संवाहक है- 'स्वाध्याय और ध्यान-साधना के अभिन्न अंग हैं। पश्चिम रात्रि में चार बजे उठने और स्वाध्याय करने की अच्छी आदत पूज्य कालूगणी ने डाल दी थी। यह मेरे लिए भी अनुकूल थी। सन् १९४९ जयपुर यात्रा में इस क्रम को और अधिक व्यवस्थित और पुष्ट करने के लिए मैंने एक घंटा खड़े-खड़े स्वाध्याय करने का संकल्प स्वीकार कर लिया।'
'ज्ञान कंठा और दाम अंटा' यह प्राचीन काल की प्रसिद्ध उक्ति है इसलिए बहुश्रुतता के लिए आवश्यक है कि गंभीर ग्रंथों को कंठस्थ किया जाए। पूज्य गुरुदेव ने कंठस्थ के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया।