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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
३४४ भगवान् महावीर के आत्मकर्तृत्व के सिद्धान्त को गुरुदेव ने अपने जीवन में जीवन्त करके दिखाया। "णो णीहेज वीरियं, परक्कमियव्वं" जैसे आगम-सूक्तों से सबमें नवप्राणों का संचार करना उनका नित्य का क्रम था। उनकी दृष्टि में जीवन लकड़ी नहीं, जिसके निर्माण के लिये किसी बढ़ई की आवश्यकता हो, जीवन पत्थर नहीं, जिसे घड़ने के लिए कारीगर की जरूरत हो, जीवन कागज भी नहीं, जिसे सजाने के लिए चित्रकार की अपेक्षा हो, लकड़ी, पत्थर और कागज जड़ वस्तुएं हैं। जीवन में चैतन्य होता है, उसका निर्माण स्वयं मनुष्य को करना है। पूज्य गुरुदेव का जागृत पौरुष किसी भी उपलब्धि को असंभव मानने को तैयार नहीं था। ये पंक्तियां उनके अतुल आत्मविश्वास एवं आत्मबल की मुखर अभिव्यक्तियां हैं
*"कहा जाता है कि आज केवलज्ञान नहीं हो सकता। मनःपर्यव ज्ञान नहीं हो सकता। पूर्वो का ज्ञान नहीं हो सकता। क्षपक श्रेणी नहीं ली जा सकती। क्यों? मेरे अभिमत से यह मान लेना सबसे बड़ी दुर्बलता है। वर्तमान में उतनी उत्कृष्ट साधना की जाए तो इन उपलब्धियों को कौन रोक
सकता है?"
*"जब तक आपके सिर पर कलियुग का भूत सवार रहेगा, तब तक आप सत्य को सही रूप में ग्रहण नहीं कर सकेंगे। इसलिए आप यही सोचकर चलें कि अभी सतयुग है और हमें अभी सत्य की साधना करनी है।" यह आशावादिता, उत्साह और प्रबल पुरुषार्थ ही उन्हें हर क्षण तारुण्य की अनुभूति कराता रहता था तथा दूसरों में आत्मविश्वास का दीप प्रज्वलित करता रहता था। काव्य की पंक्तियों में भी उनकी असीम आत्मशक्ति एवं आत्मविश्वास समय-समय पर अभिव्यक्त होता रहता था- .
जब स्वयं का सत्य ही धुव सत्यपथ अविवाद है, जब स्वयं की साधना में प्राप्त परमाह्लाद है। जब स्वयं के नेत्र सक्षम दिव्य दृश्य निहारने, तो भला क्यों किसलिए हम परमुखापेक्षी बनें। आचार्य तुलसी व्यक्ति नहीं, मूर्तिमान विचार थे। सिद्धान्त नहीं,