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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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किया - ' घर में किसी से लड़ाई-झगड़ा कलह तो नहीं होता ? बहिन ने उत्तर दिया- 'हमारे घर में इतना सामंजस्य है कि लड़ाई-झगड़े की नौबत ही नहीं आती। मैंने सबको एक ही प्रेरणा दी है कि घर में सब सदस्य एक दूसरे को सहन करें । मेरी उस सीख का सब सदस्य हार्दिक भाव से पालन करते हैं।' बहिन के भावभीने उद्गार सुनकर गुरुदेव ने उसे समाहित करते. हुए कहा- 'बहिन ! धर्मस्थान में आने मात्र से ही कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म का सही रूप उसका आचरण है। तुम अपनी जो स्थिति बता रही हो, मैं उसे धार्मिक जीवन का प्रतीक मानता हूं। यदि तुम्हारे जीवन- व्यवहार में कषाय शांत रहेंगे तो धर्म के लिए अतिरिक्त समय लगाने की अपेक्षा ही नहीं रहेगी। मैं धर्म को जीवन का अभिन्न तत्त्व मानता हूं। इसलिए मैं बार-बार कहता हूं कि भले ही व्यक्ति वर्ष भर में एक दिन भी धर्मस्थान न जाए, मैं उसे क्षम्य मान लूंगा । बशर्ते कि वह अपने कार्यक्षेत्र को ही धर्मस्थान, मंदिर बना ले और उपशांत जीवन जीना सीख ले। मैं उस जीवन को नारकीय जीवन मानता हूं, जिसमें छल, धोखा, लोलुपता, विश्वासघात और हिंसा है और उस जीवन को स्वर्गीय जीवन कहता हूं, जो संतोष, सादगी, विश्वास, चरित्र और नीति से भरा है ।'
यहां एक और घटना-प्रसंग का उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा । पूज्य गुरुदेव पाली में विराज रहे थे । कवि सम्मेलन का आयोजन था । श्रोताओं को कविताओं में रस आ रहा था अतः उन्होंने ताली बजा दी । ताली सुनकर एक आदमी उबल पड़ा और बोला- 'ताली बजाना प्रत्यक्ष हिंसा है। धर्मगुरु के सामने ऐसा नहीं होना चाहिए।' उसकी उत्तेजना को लक्ष्य करते हुए गुरुदेव ने फरमाया-'मैं मानता हूं कि ताली बजाना हिंसा थी पर एक समझदार व्यक्ति छोटी सी बात पर इतना रोष करे, कषाय लाए, संतुलन और धैर्य खो दे, मेरी दृष्टि में यह भी हिंसा है। अपनी बात को शांति से रखने वाला ही दूसरों के गले अपनी बात उतार सकता है।' गुरुदेव की इस मार्मिक प्रेरणा को सुनकर भाई शांत हो गया और उसे अपने भीतर झांकने का अवकाश मिल गया। दूसरों की गलती पर उत्तेजित होना भी आत्महिंसा है। इस संदर्भ में गुरुदेव का मंतव्य मननीय है कि दूसरे लोग विचारों के अनुकूल न चलें, तब व्यक्ति को उत्तेजना आती है, यह उसका आत्महनन है, जो हिंसा का ही एक रूप है ।'