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अध्यात्म के प्रयोक्ता प्रयोग करते-करते प्रयोक्ता उस बिन्दु तक पहुंच सकता है, जहां पहुंचकर वह नए सिद्धांत की प्रस्थापना भी कर सकता है। इसी दृष्टिकोण के आधार पर आचारांग के वाचन के दौरान उसके एक सूक्त 'कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के' पर गुरुदेव का ध्यान टिका। कुशल वह है, जो कामना से प्रतिबद्ध नहीं होता और साधना से कभी मुक्त नहीं होता। इस सूक्त के आधार पर कुशल-साधना का महत्त्वपूर्ण प्रयोग प्रारम्भ किया गया। पूज्य गुरुदेव ने साधु-साध्वियों को कुशल-साधना के माध्यम से अप्रमत्त रहने का विशेष निर्देश दिया। 'अलं कुसलस्स पमाएणं' कुशल व्यक्ति के लिए प्रमाद का कोई स्थान नहीं है। इस आदर्श को जीवन-सूत्र मानकर साधु-साध्वियों में नयी चेतना का जागरण हो गया। इस साधना का प्रारम्भ उज्जैन चातुर्मास में श्रावणबदी चतुर्दशी को हुआ। कुशल साधना के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए पूज्य गुरुदेव संस्मरणों के वातायान' में कहते हैं'कार्य शरीर को संभालने का हो या आत्मशक्तियों के जागरण का, कुशलता का महत्त्व सब जगह है। हमारा लक्ष्य साधु के आचार और व्यवहार की कुछ ऐसी कसौटियों का निर्धारण था, जिनके आधार पर साधक अपनी प्रगति का मूल्यांकन कर सके। आत्मनिरीक्षण और आत्मपरीक्षण के बाद साधु-साध्वियां अपनी अर्हता का निर्णय कर सकें।....इस प्रयोग के पीछे दो प्रेरणाओं ने काम किया। पहली प्रेरणा थी मेरा नवीनता के प्रति प्रेम। मेरे मन में प्रायः कुछ नया करने की भावना रहती है। दूसरी प्रेरणा थी संघ के कुछ साधुओं द्वारा निर्मित वातावरण । उन्होंने भीतर ही भीतर ऐसा वातावरण बनाना शुरू कर दिया था कि संघ में अंतरंग दृष्टि से कुछ नहीं हो रहा है। केवल बाह्य बातों पर ध्यान दिया जाता है। मेरा यह मानसिक संकल्प था कि चातुर्मास में कुछ प्रयोग करके साधु-साध्वियों की मानसिकता का निर्माण करना है। उसके बाद साधना की दृष्टि से पूरे संघ का कायाकल्प करना है। कितना कुछ होगा, पहले कहना कठिन है। पुरुषार्थ करना आत्मधर्म है, यह मानकर मैंने यह प्रयोग प्रारम्भ किया। ज्ञात हुआ कि उसकी अच्छी प्रतिक्रिया रही।" कुशल साधना में संलग्न साधक के लिए पूज्य गुरुदेव ने निम्न कसौटियां निर्धारित की१. निर्जरार्थिता (निज्जरट्ठिय) .
* प्रत्येक कल्पनीय कार्य निर्जरा के लिए करना।