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साधना की निष्पत्तियां था। सहजानंद की धारा में वे स्वयं ही निमजित नहीं होते, दूसरों को भी आप्लावित करते रहते थे। सदैव आनंदनिमग्न रहने की प्रेरणा उनके मुखारविंद से अनेक रूपों में प्रकट होती रहती थी। यदि कोई दुःखी या खिन्न व्यक्ति उनके चरणों में उपस्थित होता तो उसे भी वे ऐसी प्रेरणा देते, जिससे वह अपनी पीड़ा को भूलकर आनंद-सागर में निमग्न हो जाता। दक्षिण यात्रा के दौरान एक बार जेल में कैदियों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा'जेल में रहकर भी व्यक्ति आत्मनिरीक्षण करे तो बन्धन को मुक्ति में परिणत कर सकता है। दुःखानुभूति की इन घड़ियों को भी आनन्द में बिता सकता है, बशर्ते कि अतीत को भूलकर भविष्य के बारे में चिंतन किया जाए।'
सदा प्रसन्न रहने वाले साधक का आभामंडल पवित्र रहता है। आभामंडल की शुद्धता और पवित्रता का प्रभाव शरीर और मन की प्रसन्नता का हेतु भी बनता है। गुरुदेव के आभामंडल की पवित्रता और निर्मलता की अनुभूति उनके निकट रहने वाले हर व्यक्ति को होती रहती थी। साधक के जीवन में यदि आनन्द का स्रोत नहीं फूटता है तो साधना उसके लिए भार बन जाती है। फिर खाद्य-संयम, मौन, जप या अन्य क्रियाएं भी उसके भीतरी आनंद या शक्ति के स्रोत को खोलने में योगभूत न बनकर भारभूत बन जाती हैं। पूज्य गुरुदेव साधु मार्ग की हर कठिनाई को प्रसन्नता से स्वीकार करते थे। इसलिए किसी भी नियम का पालन वे परवशता या भार समझकर नहीं करते बल्कि उसको अपने भीतरी आनन्द को जगाने का साधन बना लेते थे। उनका मानना था कि थकान किसी कार्य को भार मानने से आती है। मेरे मन और शरीर पर किसी बात का कोई भी भार नहीं रहता अत: किसी भी कार्य को करने में मुझे थकान की अनुभूति नहीं होती।'
शारीरिक कष्ट की स्थिति में भी उनकी मानसिक प्रसन्नता में कोई अन्तर नहीं आता था। उनका अनुभव था कि मनःप्रसत्ति स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा उपचार है। जब-जब उनके जीवन में शारीरिक अस्वस्थता का प्रसंग उपस्थित होता, वे उसे प्रसन्नता से वरदान के रूप में स्वीकार करते थे। एक बार गुरुदेव तीव्र ज्वर से आक्रांत हो गए। सबके मुख पर