SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २४८ का अनुभव नहीं करता । सहजानंद में रमण करने वाला साधक शोक, दुःख, दैन्य और पीड़ा की अनुभूति से दूर सदा आत्मलीन रहता है। सहजानंद को व्यक्त करने वाली पूज्य गुरुदेव के जीवन की निम्न घटनाएं अनेक संत-महात्माओं को प्रतिबोध देने वाली हैं - पूज्य गुरुदेव पीपल गांव में एक छोटी-सी घास की टपरी में. विराजे । टपरी में लगा घास स्थान- स्थान से खिसका हुआ था । वैशाख का महीना था। प्रचंड गर्मी का मौसम था। टपरी के आसपास प्राकृतिक दृश्य बहुत सुंदर था। उस दिन की अनुभूति लिखते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं 4. 'हम कहते हैं कि सुख - दुःख व्यक्ति के भीतर होता है, पदार्थ में नहीं । यह बात सही है। यदि पदार्थ में सुख होता तो आज हमें कष्ट की अनुभूति होती । किन्तु यहां रहकर जो आनन्दानुभूति हुई है, वह प्रमाणित करती है कि सुख बाहर नहीं, भीतर ही है । गोपड़ी गांव में गुरुदेव को किसी कारण से चार बार स्थान परिवर्तन करना पड़ा। जिस संत को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी मनुहार के साथ अपने भवन में ले जाना चाहते थे, इतनी बार स्थान - परिवर्तन के बावजूद भी उनकी मनःस्थिति में कोई अन्तर नहीं आया, यह विशिष्ट साधना की फलश्रुति है । उस समय की अपनी मानसिक स्थिति का चित्रण करते हुए वे स्वयं ही कह उठे - 'बार-बार स्थान - परिवर्तन करने पर भी कष्ट की अनुभूति नहीं हुई प्रत्युत् एक नैसर्गिक आनंद का अनुभव हुआ और मन में आया कि यह तो चार बार ही स्थान परिवर्तन करना पड़ा यदि सौ बार भी करना पड़े तो भी कोई बात नहीं । यही समता और सहजता साधु जीवन की मौज है।' इसी बात को लक्ष्य कर नैसर्गिक काव्य-धारा उनके मुखारविंद से फूट पड़ी कोठी हो चाहे कुटी, समुचित संत अदीन । पचपदरो और गोपड़ी, देखो दोनूं सीन ॥ कोठी आपे आज ओ, जनता से उमड़ाव । काल कुटी में हैं कियो, चार बार बदलाव ॥ गुरुदेव भव्य अट्टालिका में जितनी प्रसन्नता से निवास करते उतनी ही प्रसन्नता से एक कच्ची झोपड़ी में अपने समय को बिता देते थे। वस्तु के भाव-अभाव का उनके साधक मानस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy