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साधना की निष्पत्तियां सुख और आनंद के अनुभव में बहुत अन्तर होता है। सुख भौतिक पदार्थों से मिल सकता है, पर परिणाम में वह नीरसता, चित्तभ्रम या पागलपन पैदा करता है किन्तु आनंद भीतर से फूटता है, वह समता और समरसता की स्थिति में अनुभूत होता है। सुख और आनंद का भेद महात्मा गांधी के शब्दों में पठनीय है- 'सुख-दुःख देने वाली बाहरी चीजों पर आनंद का आधार नहीं है। आनंद सुख से भिन्न वस्तु है। मुझे धन मिले
और मैं उसमें सुख मानूं, यह मोह है। मैं भिखारी होऊ, खाने का दुःख हो, फिर भी मेरे इस चोरी या किन्हीं दूसरे प्रलोभनों में न पड़ने में जो बात मौजूद है, वह मुझे आनंद देती है।' पूज्य गुरुदेव ने अपनी दिव्य दृष्टि से इन दोनों में भेद का अनुभव किया और भीतर के आनंद का स्वाद चखा। उनके मुख से आत्मविश्वास के साथ अनेक बार ये पंक्तियां निःसृत होती रहती थीं- "आनंद का स्रोत व्यक्ति के अपने अंत:करण में प्रवहमान है। • आप चाहें तो उसमें अवगाहन कर सकते हैं और चाहें तो छलांग मारकर उसके ऊपर से निकल सकते हैं। आप चाहें तो उसे रेगिस्तानी टीलों की ओर मोड़कर सुखा सकते हैं और चाहें तो उससे अपने जीवन की बगिया को सरस बना सकते हैं।'
- सृजनशील व्यक्ति हर क्षण सृजन के आनंद में निमज्जित रहता है अतः सुख और दुःख उसकी चेतना का स्पर्श नहीं कर पाते। वह जानता है कि दुःख और समस्या एक नहीं है। घटना को तटस्थ द्रष्टा की भांति देखने के कारण उसके संवेग में कोई अन्तर नहीं आता। उसके भीतर प्रतिक्षण आनंद का स्रोत बहता रहता है। इस संदर्भ में दिनकर के जीवन का यह अनुभव पठनीय है- 'धनाभाव की पीड़ा, दफ्तरों में मिलने वाला प्रच्छन्न अपमान, बेटियों के विवाह की चिंताएं और पारिवारिक कष्ट- मैंने बहुत सहे हैं। कुछ क्लेश मुझे अपने स्वभाव-दोष अथवा मूर्खता के कारण भी उठाने पड़े। किन्तु पीड़ाओं और कष्टों का मुझ पर कोई प्रभाव पड़ा हो, ऐसा आभास मुझे नहीं मिलता। दुःख और सुख के भेद मुझे कभी ज्ञात ही नहीं हुए।' यह स्थिति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जिसे अपने आपमें रहने का अभ्यास हो।
आनंद वह पारसमणि है, जिसको छूने से हर दुःख स्वर्णिम बन जाता है। आनंद की अनुभूति में निमग्न साधक कभी जड़ता या शैथिल्य