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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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उदासी के भाव उभर आए पर गुरुदेव ने अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए कहा- 'बुखार नहीं होता तो विश्राम नहीं मिलता। जो कुछ होता है, वह अच्छे के लिए होता है । '
मेवाड़ के बिलोदा गांव से गुरुदेव का विहार हो रहा था । मार्ग में कमर में भयंकर दर्द उठ खड़ा हुआ। दो बार रास्ते में विश्राम किया किन्तु दृढ़ मनोबल के साथ संतों और श्रावकों के मना करने पर भी वे निर्धारित स्थान पर पहुंच गये। एक बजे आवास-स्थल पर डॉ. खाब्या और बाबेल आए। इस असह्य पीड़ा को अपने अनुभव के साथ जोड़ते हुए गुरुदेव मुस्कराते हुए डॉक्टरों से कहने लगे- 'मैंने अपने जीवन में बहुत अनुभव किए हैं। अनेक प्रकार की बीमारियों का अनुभव भी किया है। आंख, कान, नाक आदि सभी अवयवों के दर्द का मुझे अनुभव है। पर कभी कमर में दर्द नहीं हुआ आज यह भी एक नया अनुभव और जुड़ गया।' उनका प्रसन्न मानस असह्य पीड़ा को भी अपने अनुभव के साथ जोड़कर आनंद की अनुभूति करता था । आचार्य महाप्रज्ञ का अनुभव है कि आनंद हमेशा सत्य होता है इसलिए जो व्यक्ति आनंद का खोजी है, सत्य अपने आप उसका सहचर हो जाता है। वह सत्यं शिवं, सुंदरम् से आंदोलित होकर प्रतिक्षण आनन्द-1 द- निमग्न होता रहता है । '
सरलता
'मैं कैसा हूं यह मेरे लिए पर्यालोच्य है पर इतना अवश्य जानता हूं कि टेढ़े की अपेक्षा सीधा अधिक हूं।' पूज्य गुरुदेव की यह आत्माभिव्यक्ति उनके ऋजु एवं सरल जीवन की संकथा कह रही है। " धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ" महावीर की यह आर्षवाणी ऋजुता के वैशिष्ट्य को सत्यापित करने वाली है । ईसा के अनुसार ईश्वर का साम्राज्य वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जिसका मन बच्चे की भांति निश्छल और पवित्र होता है। ऋजु व्यक्ति ही सत्य की साधना कर सकता है क्योंकि ऋजुता और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पूज्य गुरुदेव की यह अभिव्यक्ति उनकी सत्यसाधना के साथ जुड़ी ऋजुता का श्रेष्ठ उदाहरण है - " मैं सत्य को पाने के लिए प्रयत्नशील हूँ। आप पूछेंगे कि क्या आपको भी अभी तक सत्य नहीं मिला है ? मैं कहूंगा हां, नहीं मिला है। यदि पूर्ण सत्य का