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________________ २५१ साधना की निष्पत्तियां साक्षात्कार हो जाता तो फिर मुझे कोई प्रयत्न करने की अपेक्षा ही नहीं. होती। आप कहेंगे कि इतनी साधना के बाद भी सत्य की प्राप्ति क्यों नहीं हुई? इसका कारण यह है कि सत्य असीमित है परन्तु हमारी दृष्टि सीमित है। जिस दिन हमारी दृष्टि असीमित हो जाएगी, उस दिन हमारा सत्य से साक्षात्कार हो जाएगा। अन्तःचक्षु खुलते ही हम सत्य को प्राप्त कर लेंगे।' युवाचार्य महाश्रमणजी को ऋजुता का पर्याय कहा जा सकता है। उनके हर व्यवहार में सरलता और सहजता झलकती है। वे आर्जवभाव को परिभाषित करते हुए कहते हैं- 'आर्जव की साधना का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति धोखा खाता रहे। धोखेबाज व्यक्ति के प्रति प्रतिशोध की भावना किए बिना उसके चक्रव्यूह से निकलना चतुराई है। इससे आर्जवभाव दूषित नहीं होता।' __अनुशास्ता होने के नाते पूज्य गुरुदेव को साम, दाम, दण्ड आदि का प्रयोग करना पड़ता था किन्तु साधक होने के नाते सरलता उनकी सहचरी थी। साधक यदि माया या प्रवंचना करता है तो यह उनकी दृष्टि में अक्षम्य अपराध था। सरलता को परिभाषित करते हुए वे कहते थे- 'मन के उस प्रकाश की साधना, जहां छिपाव और दुराव स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं, सरलता कहलाती है।' पूज्य गुरुदेव का जीवन खुली पुस्तक के समान स्पष्ट था। ऐसे व्यक्तियों को वे बहुत खतरनाक मानते थे, जिनमें बाहर और भीतर की एकरूपता नहीं होती तथा जो ऊपर से मधु से भी अधिक मीठा बोलते हैं पर भीतर से छुरी चलाते हैं। ऐसे व्यक्तियों की स्थिति को वे बहुत सरल एवं बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत करते हुए कहते थे- 'कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो सामने तो प्रशंसा करते हैं और पीठ पीछे निंदा करते हैं। वे कहते हैं- 'क्या है जी! सामने तो कहना ही पड़ता है पर हैं जैसे ही हैं। ऐसे दुमुहें व्यक्ति ढके कुएं हैं। खुले कुएं में व्यक्ति गिरता नहीं, कोई अन्धा भले ही गिर जाए। लेकिन कुएं पर एक गलीचा बिछा दिया जाए और फिर उस पर किसी को बिठाया जाए तो बताइए वह बचेगा क्या? मैं तो स्पष्ट कहूँगा कि ऐसे निन्दकों से तो वे निन्दक कहीं अच्छे हैं, जिन्हें लोग स्पष्ट जानते हैं। जो सरलता से स्पष्ट रूप से अपनी बात कहते हैं।' तीर्थंकर के संपादक नेमीचंदजी जैन सरलता को परिभाषित करते हुए
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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