SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी कीमत आंके, समयज्ञ विवेकी इसकी मुनि अहालंद जागरणा भीतर झांके ॥ भिवानी में कुछ आर्यसमाजी व्यक्ति गुरुदेव के पास आए और अहं भरे शब्दों में बोले- 'हम शास्त्रार्थ करना चाहते हैं ।' गुरुदेव ने शास्त्रार्थ का प्रयोजन पूछा। उन्होंने ऋजुता से कहा- 'हम आपको पराजित करना चाहते हैं।' गुरुदेव ने पुन: शांत भाव से पूछा- 'इसका प्रयोजन क्या होगा ?' आगंतुक बोले- 'इससे हमारा यश बढ़ेगा।' गुरुदेव ने अपनी सूक्ष्म मेधा से समझ लिया कि यहां समय लगाना व्यर्थ है। जहां शास्त्रार्थ या वाद-विवाद ज्ञानवृद्धि के लिए हो, वहां ज्ञानचर्चा की जा सकती है किन्तु जहां वह हार-जीत के साथ जुड़ जाए, वहां वितण्डा बन है। गुरुदेव ने सहजता से उत्तर दिया- 'बिना शास्त्रार्थ किए ही मैं अपनी पराजय स्वीकार करता हूं। आप बाजार में जाकर ऐलान कर सकते हैं कि आचार्य तुलसी हारे और हम जीते। आप जानते हैं कि मैं घर-बार, धन-दौलत छोड़कर साधु बना और स्वयं को जीतने का प्रयत्न कर रहा हूं। ऐसी स्थिति में आप मुझे जीतने आए हैं अतः मुझे हारने का कोई दुःख नहीं होगा । आप निश्चिंत होकर मेरी पराजय की घोषणा कर सकते हैं और अपना यश बढ़ा सकते हैं ।' यह कथन जहां उनके आत्मलक्षी और अप्रमत्त व्यक्तित्व की ओर संकेत करता है, वहां समय-प्रबंधन की जागरूकता की ओर भी इंगित करता है। इस घटना ने उन लोगों को कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया। अगली बार जब गुरुदेव भिवानी पधारे तो वे ही व्यक्ति स्वागत में सबसे आगे थे। अपनी पहचान प्रस्तुत करते हुए श्रद्धाप्रणत भावों से वे बोले - 'गुरुदेव ! हम वे ही व्यक्ति हैं, जो पहली बार आपको पराजित करने आए थे पर आज आपके भक्त बनकर हार्दिक अभिनन्दन करने आए हैं । सक्षम होते हुए भी आपने अपनी हार स्वीकार करके हम सबको हरा दिया।' १२० उपर्युक्त घटना के विपरीत जहां बातचीत में उन्हें समय की सार्थकता प्रतीत होती, वे पूरी रात जागकर भी धर्म-प्रतिबोध देने के लिए उद्यत रहते थे। व्रजवाणी गांव में किसानों के परिवार अधिक थे। रात्रिकालीन प्रवचन के बाद बेला से आए हुए भाइयों के साथ प्रश्नोत्तर का क्रम प्रारम्भ हो गया। ग्रामीणों की जिज्ञासाएं एक के बाद एक करके उभरती गईं।
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy