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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी वीतरागता। वीतराग बनने के लिए दृष्टिकोण को निरन्तर आध्यात्मिक बनाये रखना जरूरी है। धर्म-शासना के पचासवें वर्ष में मैं अपने धर्मसंघ में एक विशेष मोड़ देखना चाहता हूँ। वह मोड़ नितान्त आध्यात्मिक हो। आध्यात्मिकता, श्रमशीलता और यथार्थजीविता हमें विरासत में प्राप्त है। हम इनकी उपेक्षा न करके इनमें कुछ अधिक उत्कर्ष लाएंयह अपेक्षा
'यदि हम जागरूक हैं तो एक कदम भी देखे बिना नहीं चलेंगे, प्रमार्जन किये बिना नहीं बैठेंगे, विचारे बिना नहीं बोलेंगे, समय का दुरुपयोग नहीं करेंगे, दूसरों से जैसी अपेक्षा रखेंगे, वैसा स्वयं बनने का प्रयास करेंगे, हमारा संघ प्रगतिशील संघ है, पर हमें एक बात का सदैव ध्यान रखना है कि हम युग के प्रवाह में न बह जाएं। हमें अपनी अध्यात्म भावना को सदा जागृत रखना है और साधना में उत्कर्ष लाने हेतु नए-नए प्रयोग करते रहना है।'
* 'एक व्यक्ति अध्ययनशील तो नहीं है पर साधनाशील है। उससे मैं प्रसन्न ही हूँ। एक अध्ययनशील तो है पर साधनाशील नहीं, मुझे वह व्यक्ति प्रिय नहीं और एक अध्ययनशील भी नहीं और साधनाशील भी नहीं तो वह किसी काम का नहीं।' उनकी इन प्रेरणाओं को 'दिनकर' की इन काव्य पंक्तियों में प्रस्तुत किया जा सकता है
हूं जगा रहा आलोक अरुण बाणों से, मरघट में जीवन फूंक रहा गानों से। मैं विभा-पुत्र जागरण गान है मेरा, जग को अक्षय आलोकदान है मेरा॥
एक अन्तरंग गोष्ठी में प्रदत्त अग्रांकित जीवन-सूत्र हर साधक के भीतर आध्यात्मिक आकर्षण एवं रुचि पैदा करने में प्रेरणास्रोत बनकर मस्तिष्क-परिष्कार में प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं* महान बनने का प्रयत्न करो, पर महत्त्वाकांक्षी मत बनो।
अनुकूल और प्रतिकूल किसी भी परिस्थिति में अपना धैर्य मत खोओ। अकरणीय कार्य हो जाने पर उसे न छिपाओ, न झुठलाओ। साधना से प्रतिकूल आचरण हो जाए तो वहां से उसी क्षण