________________
साधना का उद्देश्य ही सत्य के प्रतिबिम्ब के लिए सर्वोत्तम दर्पण है। इसलिए सारी साधना हृदय को निर्मल करने के लिए ही है। जब वह निर्मल हो जाता है तो सारे सत्य उसी क्षण उसमें प्रतिबिम्बित हो जाते हैं। .......पावित्र्य के बिना आध्यात्मिक शक्ति नहीं आ सकती। अपवित्र कल्पना उतनी ही बुरी है, जितना अपवित्र कार्य।"
सामान्य व्यक्ति इस भाषा में सोच सकता है कि मैं अकारण दूसरों को सहन क्यों करूं? लेकिन एक साधक मानसिक पावित्र्य के कारण गालियों की बौछार एवं प्रतिकूलता में भी यही चिंतन करता है कि परिस्थितियों एवं कष्टों का उपादान मैं स्वयं हूँ अत: बाह्य निमित्तों से अप्रभावित रहना ही साधना की तेजस्विता है। गुरुदेव श्री तुलसी की ये अभिव्यक्तियां इन्हीं भावों की संवादी हैं• आत्मा सुख-दुःख का कर्ता है, स्वयं वही उपभोक्ता।
अपना शुभ अपने द्वारा, जीवन के बनो प्रयोक्ता॥
• 'कंकर की मार खाकर पत्थर मारने वाले बहुत हैं। पर शक्ति होने पर भी जो सामने वाले पर पत्थर नहीं मारता, यह मन की पवित्रता की दिशा में एक प्रयोग है।' . चैतसिक निर्मलता के लिए साधक को हजरत मुहम्मद पैगम्बर
की यह शिक्षा सतत स्मृति में रखनी चाहिए-'अच्छा काम करने की मन में आए तो तुम्हें सोचना चाहिए कि तुम्हारी जिंदगी अगले क्षण समाप्त हो सकती है अतः काम तुरन्त शुरू कर दो। इसके विपरीत अगर बुरे कामों का विचार आए तो सोचो कि मैं अभी वर्षों जीने वाला हूँ। बाद में कभी भी उस काम को पूरा कर लूंगा।' . चित्त को मलिन करने वाले तत्त्व हैं-राग, द्वेष और अपरिमित आकांक्षाएं। साधना का उद्देश्य है- इन्द्रिय विषयों का प्रयोग करते हुए भी उनमें राग, द्वेष की तरंग नहीं उठने देना। बर्टेड रसेल अपने अनुभूत सत्यों की अभिव्यक्ति इस भाषा में देते हैं-"अपने लम्बे जीवन में मैंने कुछ ध्रुव सत्य देखे हैं- पहला यह है कि घृणा, द्वेष और मोह को पल-पल मरना पड़ता है। निरंकुश इच्छाएं चेतना पर हावी होकर जीवन को असंतुलित और दुःखी बना देती हैं।" एक साधक आवश्यकता एवं आकांक्षा में