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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी सोने, जागने, बोलने आदि जीवन की हर क्रिया के साथ कला का सम्बन्ध जोड़ना चाहते थे। उनकी दृष्टि में वही कला कला है, जो सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् के पथ पर आगे बढ़ाने वाली हो, जिससे अध्यात्मशक्ति का विकास हो, जो संयम और अनुशासन का पाठ पढ़ाती हो तथा जो ज्ञान और आचरण का सामंजस्य करने वाली हो। जीवन एक कला है' इस सम्बन्ध में पूज्य गुरुदेव की काव्य-पंक्तियों में निहित उक्ति-वैचित्र्य द्रष्टव्य है* नीतिशास्त्र निर्णेतावां री, आ ही नेक सला।
जबरन जोग सधे नहीं तुलसी, जीवन एक कला॥ * सभी कलाएं हैं विकलाएं, पण्डित सभी अपंडित हैं।
नहीं जानते कैसे जीना, केवल महिमामंडित हैं।
प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रेमचन्द कहते हैं- 'स्वाभाविकता से दूर होकर कला अपना आनंद खो देती है। थोड़े ही कलाविद् हैं, जो इस मर्म को समझते हैं।' चैतसिक निर्मलता का विकास
पुनन्तु मा देवजनाः, पुनन्तु मनसा धियः।
पुनन्तु विश्वा भूतानि, जातवेदः पुनीहि मा॥
"देवजन मुझे पवित्र करें, मन से सुसंगत बुद्धि मुझे पवित्र करे, विश्व के सभी प्राणी मुझे पवित्र करें, अग्नि मुझे पवित्र करे।" यजुर्वेद में की गयी पवित्रता की यह कामना हर साधक के लिए काम्य है। साधना के पथ पर अविराम गति से वही साधक आगे बढ़ सकता है, जो चित्त की पवित्रता एवं निर्मलता के प्रति पूर्ण जागरूक हो। निर्मल चित्त ही अध्यात्म की गहराई तक पहँच सकता है। चैतसिक निर्मलता के बिना बाह्य क्रियाकाण्ड एवं उपासना-पद्धतियाँ व्यर्थ हो जाती हैं। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के शब्दों में- 'साधना का अर्थ है चित्त की निर्मलता का वह प्रतिबिम्ब, जो हमारे व्यवहार पर पड़ता है। चित्त के तैजस की वह रश्मि, जो हमारे अंत:करण को आलोक से भर देती है।' कषाय से कलुषित चित्त को साधना के जल से ही प्रक्षालित किया जा सकता है। चित्त निर्मल हो जाए तो समता का अवतरण सहज हो जाता है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं- "निर्मल हृदय