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________________ साधना का उद्देश्य स्वामी विवेकानंद दृढ़ आत्मविश्वास के साथ कहते हैं- " जो आराममय और विलासमय जीवन की इच्छा रखते हुए आत्मानुभूति की चाह रखता है, वह उस मूर्ख के समान है, जिसने नदी पार करने के लिए, एक मगर को लकड़ी का लट्ठा समझकर पकड़ लिया । " गुरुदेव तुलसी कहते हैं कि साधना का निर्मल जलाशय तभी तक सुखकर और हितकर है, जब तक उस पर सुविधाओं की शैवाल नहीं जमती । आत्मनिष्ठ साधक का ध्येय होता है आए हुए कष्टों को सहन करना, आत्म-धर्म समझकर उनका स्वागत करना तथा कष्ट-सहन से होने वाली क्षणिक दुःखानुभूति 1 अम्लान रहना । ७ कलात्मक जीवन जीने का प्रशिक्षण साधक का हृदय साधना का प्रयोगस्थल होता है और जीवन कला की प्रयोगशाला । गुरुदेव तुलसी की विचार - सरणि में आत्मा में रहना सबसे बड़ी कला है। जो इस कला को जान लेता है, वह केवल जीने की ही नहीं, मरने की कला भी सीख लेता है। कुछ लोग साधक जीवन को नीरस मानते हैं, यह एकांगी दृष्टिकोण है। साधना और कला - दोनों को विभक्त नहीं किया जा सकता। जीवन यदि कलात्मक है तो उसमें स्वतः सामंजस्य, समरसता और सरसता उत्पन्न हो जाती है । यही साधना है । अस्तव्यस्तता और फूहड़पन अव्यवस्थित चित्त के द्योतक हैं। 1 प्लेटो ने कला पर यह आक्षेप लगाया था कि इससे हमारी दूषित वासनाएं और मनोवृत्तियाँ उत्तेजित एवं पुष्ट होती हैं। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का मंतव्य है कि कला मुझे प्रिय है, किन्तु जिस कला में श्लीलता की सीमाएं टूटती हैं, उसे मैं मान्यता नहीं दे सकता। फूहड़पन को मैं कतई पसंद नहीं करता । विचारों को उत्तेजित करने वाली कला का प्रदर्शन कला का दुरुपयोग है। कला तो एक साधना है। उसका व्यवसायीकरण होने से साधनापक्ष और कलापक्ष- दोनों ही गौण हो जाते हैं, विकृत हो जाते हैं" कला द्वारा बाह्य में ही सौन्दर्य पैदा नहीं किया जाता, जीवन के अंतरतम की सजावट या परिष्कार भी कलात्मक जीवन द्वारा ही संभव है। गुरुदेव तुलसी कला को कला के लिए या मनोरंजन के लिए न मानकर उसे जीवन के लिए उपयोगी तथा अध्यात्म का साधन मानते थे । वे खाने, पीने,
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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