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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ६ अणुसोयपट्ठिए बहुजणम्मि, पडिसोयलद्धलक्खेणं । पडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होडकामेणं ॥ अणुसोयसुहो लोगो, पडिसोओ आसवो सुविहियाणं । अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ॥ सामान्य व्यक्ति अनुस्रोत के पथ पर आगे बढ़ते हैं लेकिन 'भवितुकाम' व्यक्ति का प्रतिस्रोत में चलना अनिवार्य है। यद्यपि यह सत्य है कि प्रतिस्रोत का मार्ग संघर्ष, कठिनाई और बाधाओं का मार्ग है और अनुस्रोत का मार्ग सरल और सुकर है पर प्रतिस्रोत के पथ पर चलने वाला अपनी मंजिल को प्राप्त कर लेता है, जबकि अनुस्रोत में बहने वाला प्रवाह के साथ बहकर अपने अस्तित्व को समाप्त कर देता है। नियंत्रण की शक्ति का विकास करने के लिए प्रतिगमन आवश्यक है। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि परीषहों को सहना, पदयात्रा करना, श्रमशील रहना, आवेग पर विजय पाना, निष्कषाय रहना, कष्टों को शान्तभाव से सहना और वैराग्य की वृद्धि करना- - ये सब प्रतिस्रोतगमन के उपाय हैं। इनमें भी उत्कृष्ट कोटि का सुख है लेकिन इसके लिए अतिरिक्त क्षमता और साहस की जरूरत रहती है। बिना मनोबल और धृति के व्यक्ति प्रतिस्रोत में संचरण नहीं कर सकता । मनःस्थिति जब परिस्थिति के अनुसार बन जाती है, उस स्थिति में व्यक्ति प्रतिस्रोत में चलने का साहस नहीं कर पाता । परिस्थिति को अपने अनुकूल ढालने वाला ही प्रतिस्रोत में गमन कर सकता है। प्रतिस्रोत गमन करने वाला विलासिता को ठोकर मारकर चलता है। विलासी एवं सुविधावादी साधक प्रतिस्रोतगमन का साहस नहीं कर सकता। मन की अविश्रान्त गति पर प्रश्नचिह्न उपस्थित करके उसका समाधान प्रस्तुत करते हु गुरुदेव तुलसी कहते हैं आए कैसे हाथ में, मन की सही लगाम । उलटी गति का अश्व यह, लेता नहीं विराम ॥ तन मन के पीछे चले, तो साधक कीहार । तन मन अनुगामी रहे, खुले साधनाद्वार ॥
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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