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साधना की निष्पत्तियां .
को उसकी अनुकूलता - प्रतिकूलता में प्रसन्न या खिन्न न होकर सदैव सहिष्णुता से उसे सहन करना चाहिए। ग्रीष्मकाल की उच्छृंखल लू और कड़ी धूप दुर्बल मन वाले व्यक्ति को बेचैन बना सकती है पर साधक सदा सर्वत्र समभाव में रहता है ।'
अनुशास्ता में यदि वाचिक सहिष्णुता नहीं होती तो संगठन को छिन्न-भिन्न होने में समय नहीं लगता । साठ साल के लम्बे नेतृत्व में गुरुदेव का अनुभव रहा कि गाली का जवाब गाली से देना कमजोरी है पर सक्षम और सबल होकर दूसरों के कुवचनों एवं विरोध को सहना बहुत बड़ी साधना है ।' पूज्य गुरुदेव अपनी भाषा के सम्यक् प्रयोग के प्रति प्रारम्भ से ही जागरूक रहे थे। वे किसी की कटु आलोचना और आक्षेप को पाप मानते थे । वे कहते थे - 'विचारभेद कहीं भी हो सकता है पर विचारभेद को लेकर किसी पर कटु शब्दों से प्रहार करना मेरी दृष्टि में `कदापि उचित नहीं है। मैं इसमें एक प्रकार की हिंसा के दर्शन करता हूँ।' वाचिक सहिष्णुता के ऐसे सैकड़ों प्रसंग हैं, जब खुलकर अखबारों और पोस्टरों में उनका निम्नस्तरीय विरोध हुआ लेकिन उन्होंने उसके प्रत्युत्तर में अपनी जबान नहीं खोली। 'मेरा जीवनः मेरा दर्शन' पुस्तक में वे लिखते हैं- "विरोध में मुझे जो ग्राह्य प्रतीत हुआ, उससे लाभ उठाया पर हम विरोध में उलझे नहीं । यदि उलझ जाते तो हमारी ऊर्जा समाप्त हो जाती। इस सन्दर्भ में कवि कबीर की अनुभव - वाणी हमारी स्मृति में रही
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निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय । बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करत सुभाय ॥
हमने सदैव यही चिन्तन किया कि आलोचक और विरोधी लोग हमें सजग कर रहे हैं। हम स्वयं अपनी समीक्षा करें और लक्ष्य की दिशा में गति करते रहें, यही हमें अभीष्ट है ।"
"पुढ़वीसमे मुणी हवेज्जा" दशवैकालिक के इस भिक्षु आदर्श को उन्होंने जीवन्त किया था। अनुशास्ता के रूप में वे अपनी सफलता का बहुत कुछ श्रेय सहिष्णुता को देते थे । यही कारण है कि उनकी मानसिक सहिष्णुता उच्च शीर्ष पर थी । प्रकृति का कोई भी तेवर उनके मनोबल को