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' `शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
साधना
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ढाल सुनकर पूज्य कालूगणी ने फरमाया-' कैसे गाते हो ? एक पद्य में पांच गलतियां हैं। जुगजाल नहीं, जगजाल है। सुपन नहीं, स्वपन है । गरभाणा नहीं, गरवाना है। आब नहीं आउ है, रयण नहीं, रहण है । ' पूज्य गुरुदेव को एक नया प्रतिबोध मिल गया।
मुनि अवस्था में गुरुदेव ने कालूगणी के निर्देश से संस्कृत व्याकरण सीखना शुरू किया। गुरुदेव ने कालूगणी के पास चंद्रिका कंठस्थ करनी प्रारम्भ की। गुरुदेव प्रातः काल प्रतिलेखन के बाद सूर्योदय के समय तक कालूगणी के पास पढ़ने जाते। उस समय की मनःस्थिति पर अनुताप की अभिव्यक्ति “संस्मरणों के वातायन" में पूज्य गुरुदेव के शब्दों में ही पठनीय है- “ उस समय मेरी इच्छा रहती थी कि मैं साध्वियों के सामने पढूं ताकि वे समझें कि मुझ पर गुरुदेव की कितनी कृपा है और मैं कितना अध्ययन करता हूं। साध्वियों को दिखाने के लिए महीनों तक गुरुदेव के पास सूर्योदय के समय पढ़ने का क्रम चलाया।'
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मैत्री दिवस के अवसर पर जब गुरुदेव क्षमायाचना करते तो लगता मानो क्षमा स्वयं साकार हो गयी हो। अपनी मजबूरी का उल्लेख भी वे इतने मार्मिक शब्दों में करते थे कि वह भी उनकी महानता की झलक बन जाती थी। यहां उनके द्वारा प्रतिदिन लिखे जाने वाले प्रेरक वाक्य का एक उद्धरण देना असंगत नहीं होगा - " मैं कभी-कभी क्लान्त होता हूं, कभी-कभी उदास या निराश भी होता हूं। इसका मूल कारण मेरी अपनी दुर्बलता ही है । '
श्रद्धालुवर्ग उनकी एक कृपा दृष्टि को पाकर निहाल हो उठता था पर कभी-कभी व्यस्तता या किसी अन्य कारण से जब गुरुदेव लोगों की . वंदना को स्वीकार नहीं कर पाते तो श्रद्धालुओं का मानस खिन्न हो जाता। यद्यपि यह उनकी भूल नहीं, अपितु मजबूरी थी पर इसे वे अपनी भूल स्वीकारते हुए कहते थे— “मैं कभी-कभी वंदना की स्वीकृति भी नहीं दे पाता। मेरी स्वीकृति श्रद्धालुओं के लिए निधि हो सकती है पर मैं व्यस्तता या विवशता के कारण स्वीकृति देना भी भूल जाता हूं। इसके लिए मैं अपने आपको दोषी कहूं तो कह सकता हूं।'
लोग उन्हें भगवान् मानकर श्रद्धा अर्पित करते पर वे कहते- 'मैं