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साधना की निष्पत्तियां सफलता एवं प्रगति के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपने द्वारा अपने को मापता रहे और स्वयं की स्खलनाओं का अहसास करता रहे। गुरुदेव तुलसी का स्पष्ट मंतव्य था कि गलती होना कोई बड़ी बात नहीं पर उसको स्वीकार न करना या उस पर आत्मग्लानि न करना मूर्खता है।" साधना के पथ पर चरणन्यास करने पर भी यदि साधक अकरणीय कार्यों से निवृत्त नहीं होता है तो वह अपने लक्ष्य के दर्शन नहीं कर सकता।
___ अतीत का प्रतिक्रमण करने वाला व्यक्ति ही वर्तमान को सुधार कर भविष्य में नयी प्रेरणा ग्रहण कर सकता है। पूज्य गुरुदेव ने अतीत की चिंता का भार न ढोकर उससे नया बोध-पाठ लिया। उम्र के नवें दशक में वे समय के अंकन के बारे में अपनी अन्तर्वेदना प्रकट करते हुए कहने लगे- "मैं बहुत बार सोचता हूं कि बालवय और किशोरवय में समय का मूल्य समझ पाता तो आज न जाने कहां पहुंच जाता। कभी-कभी मन में आता है कि बचपन लौट आए पर वह अब लौटने वाला नहीं है। यद्यपि मैंने अपने बचपन को यों ही नहीं खोया है फिर भी जितना उपयोग होना चाहिये था वह नहीं हो पाया।"
इसी प्रकार धर्म को व्यापक बनाने के संदर्भ में अपनी असमर्थता को डायरी के पन्नों में वे इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- "मेरा हृदय यह कह रहा है कि धर्म को ज्यादा से ज्यादा व्यापक बनाना चाहिए पर समूचे संघ में मैं इस भावना को भरने में समर्थ नहीं हुआ। हो सकता है मेरी भावना में इतनी मजबूती नहीं हो अथवा और कोई कारण हो।"
. सामान्यतया व्यक्ति अपने अतीत के उज्ज्वल पक्ष को याद रखता है और कृष्णपक्ष को छिपाना चाहता है या जल्दी भूल जाता है। पूज्य गुरुदेव को अपने बचपन की छोटी-बड़ी भूलें ऐसे याद थीं, मानो वे कल ही घटित हुई हों। मेरा जीवन: मेरा दर्शन' पुस्तक में गुरुदेव ने अनेक प्रसंगों की चर्चा की है, उनमें से यहां एक प्रसंग प्रस्तुत किया जा रहा है। मुनि अवस्था में गुरुदेव पूज्य कालूगणी की सन्निधि में व्याख्यान कर रहे थे। व्याख्यान के प्रारम्भ में उन्होंने एक गीत गाया
औ जुगजाल सुपन की माया, इस पर क्या गरभाणा रे। घट गई आब रयण नहीं पावै, क्या राजा क्या राणा रे॥