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________________ १४९ अध्यात्म के प्रयोक्ता प्रेक्षाध्यान जैनों की कोई स्वतंत्र ध्यान-पद्धति नहीं है, यह बात पूज्य गुरुदेव के पास अनेक बार उपस्थित हुई। सन् १९६२ उदयपुर चातुर्मास में पूज्य गुरुदेव ने मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) को संकेत दिया कि जैन परम्परा में ध्यान-योग की परम्परा विच्छिन्न जैसी हो गयी है। यदि आगम में विकीर्ण सामग्री के आधार पर इसका पुनरुद्धार हो जाए तो जैन शासन की बहुत प्रभावना होगी। मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञजी) ने इस दिशा में अनेक प्रयोग किए। अन्य योग पद्धतियों का भी तुलनात्मक अध्ययन किया। अन्त में सन् १९७५ ग्रीन हाऊस, जयपुर में इस ध्यानपद्धति का नामकरण प्रेक्षाध्यान हो गया। प्रेक्षा के प्रयोग की पृष्ठभूमि में पूज्य गुरुदेव का एक लक्ष्य यह भी रहा कि धर्म का प्रायोगिक रूप जनता के समक्ष आए। लोगों को जीवन-परिवर्तन के लिए केवल मौखिक उपदेश ही नहीं दिया जाए वरन् प्रयोग प्रस्तुत किए जाएं, जिससे उनमें स्वतः रूपांतरण घटित हो। प्रेक्षा का उद्देश्य बताते हुए प्रेक्षा-संगान में पूज्य गुरुदेव कहते हैं प्रेक्षा का उद्देश्य है, समता का अभ्यास। पल-पल नियमितता सधे, आए नया प्रकाश॥ प्रेक्षाध्यान अंत:सौन्दर्य को प्रकट करने एवं उसे देखने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। सम्पूर्ण मानव जाति के लिए पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ का यह एक महान् आध्यात्मिक अवदान है। इससे हजारोंलाखों लोगों ने शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य प्राप्त किया है। . सन् १९८६ आमेट चातुर्मास में साधु-साध्वियों के लिए नौ दिवसीय प्रेक्षा-प्रशिक्षण का शिविर आयोजित हुआ। इस शिविर में साधु-साध्वियों को इन बिन्दुओं पर ध्यान रखने की विशेष प्रेरणा दी गयी - भावक्रिया का अभ्यास। - प्रायः मौन रखना। - भोजन में सीमित द्रव्यों का उपयोग करना। - सामूहिक गोष्ठियों में बराबर उपस्थित रहना।
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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