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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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विशिष्ट मानता हूं, जो अमुक समय सापेक्ष न रहकर जीवन की सहज वृत्ति बन जाए। हमारी साधना केवल योगासन, ध्यान, स्वाध्याय और जप तक सीमित नहीं है । जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति हमारी साधना है। इसलिए हम जिस समय जो काम करें, उसमें तन्मय बन जाएं, यही योग है । '
सन् १९७२ में गुरुदेव की प्रेरणा से १० साधुओं ने १० दिन के लिए विशिष्ट साधना का क्रम प्रारम्भ किया । उसमें १० दिन मौन के साथ ध्यान, स्वाध्याय आदि के विशेष प्रयोग किए गए। सभी साधु अपना काम स्वयं करते पर गोचरी में परस्पर सहयोग रहता । सम्पन्नता के दिन सबको प्रेरणा देते हुए गुरुदेव ने फरमाया- 'जैसे महावीर के शासन में स्थविर, जिनकल्पिक, अहालंदिक आदि साधना के अनेक रूप थे, वैसे ही संघ में अपनी-अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार सब साधु साधना का कोई न कोई प्रयोग अवश्य करें। इससे मुझे प्रसन्नता होगी, संघ की तेजस्विता बढ़ेगी और आपका आत्मबल बढ़ेगा।'
सामूहिक प्रतिक्रमण एवं प्रतिलेखन
प्रतिक्रमण प्रायोगिक आध्यात्मिक अनुष्ठान है। जैन मुनि अनिवार्य रूप से प्रात: और सायं प्रतिक्रमण करते हैं। पहले तेरापंथ धर्मसंघ में प्रतिक्रमण सामूहिक नहीं होता था । 'कहीं दो कहीं अलग-अलग खड़े होकर साधु प्रतिक्रमण किया करते थे । गुरुदेव को यह क्रम अच्छा नहीं लगा । वि. सं. २०१८ आसोज कृष्ण चतुर्थी बीदासर प्रवास में उन्होंने सामूहिक रूप से विधिवत् प्रतिक्रमण की शुरूआत कर दी । यह क्रम केवल दर्शनीय ही नहीं, भावक्रिया की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा। इसी प्रकार पहले प्रतिक्रमण के बीच में ही आने-जाने वाले लोगों को मंगलपाठ सुनाया जाता था। इससे एकाग्रता में व्यवधान पड़ता था। साधुओं को प्रतिक्रमण के बीच में ' आलोयणा' दी जाती थी, यह क्रम भी गुरुदेव को उचित नहीं लगा। बाड़मेर यात्रा के दौरान इन दोनों परम्पराओं में गुरुदेव ने परिवर्तन कर दिया। प्रतिक्रमण के बीच मंगलपाठ सुनाना एवं आलोयणा देनी बंद कर दी। इस प्रयोग के बारे में 'संस्मरणों के वातायन' में पूज्य गुरुदेव ने कहा- 'मेरे जीवन के ये छोटे-छोटे प्रयोग थे पर लक्ष्यपूर्वक किए गए छोटे प्रयोग भी सार्थक हो गए।'