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अध्यात्म के प्रयोक्ता
सामूहिक प्रतिक्रमण की भांति वि. सं. २०२१ के पर्युषण काल में गुरुदेव ने सामूहिक प्रतिलेखन का क्रम प्रारंभ किया। प्रतिलेखन का शब्द होते ही सब साधु निर्दिष्ट स्थान पर आकर पंक्तिबद्ध बैठ जाते थे । पूज्य गुरुदेव नमस्कार महामंत्र का उच्चारण करते फिर सभी साधु एक साथ प्रतिलेखन करते । साध्वियां अपने स्थान पर सामूहिक प्रतिलेखन करतीं । सामूहिक प्रतिलेखन का क्रम लोगों को बहुत आकर्षक और सुंदर लगा। यह क्रम केवल प्रशिक्षण देने के लिए प्रारम्भ किया गया था अतः अधिक दिनों तक नहीं चला।
सायंकालीन प्रार्थना का प्रारम्भ
आत्मविकास के पथ पर प्रस्थित साधकों के लिए प्रार्थना अमूल्य पाथेय है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में प्रार्थना का अर्थ है- 'लक्ष्यानुरूप आदर्श में एकाग्र होना तथा बंधनमुक्त, निर्विकार, वीतराग, मोक्षगत आत्मा
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गुणों का स्मरण एवं संस्तवन करना ।' महात्मा गांधी की अनुभूति में प्रार्थना आत्मा की खुराक है । स्तुति, उपासना, प्रार्थना आदि बहम नहीं बल्कि हमारा खाना, पीना, चलना, बैठना जितना सच है, उससे भी अधिक सच प्रार्थना है।'
वि. सं. २००१ में गुरुदेव चाड़वास से बीदासर पधारे। उस समय तक सायंकालीन प्रार्थना आदि का सामूहिक अनुष्ठान नहीं होता था। पूज्य गुरुदेव के मानस में चिंतन उभरा कि कोई ऐसा सामूहिक आध्यात्मिक अनुष्ठान होना चाहिए, जिसमें साधुओं के साथ श्रावक भी संभागी बन सकें। पौष कृष्णा पंचमी के दिन बीदासर में सर्वप्रथम भगवान महावीर की स्तुति में गुरुदेव ने ॐ जय जय त्रिभुवन अभिनंदन, त्रिशला नंदन तीर्थपते! गीत बनाया, जो प्रार्थना के रूप में गाया जाने लगा ।
वि.सं. २००६ जयपुर में गुरुदेव ने "महावीर तुम्हारे चरणों में श्रद्धा के कुसुम चढ़ाएं हम " गीत का निर्माण किया । यह गीत जन-जन कंठों में प्रसिद्ध हो गया । २००६ में प्रार्थना के रूप में इस गीत का संगान होने लगा ।
अर्हत् वन्दना का शुभारम्भ
आगम के प्रत्येक वाक्य गम्भीर रहस्य से भरे हुए हैं। पूज्य गुरुदेव