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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१३६ के मन में विकल्प उठा कि आगम से ऐसे प्रेरक आध्यात्मिक सूक्तों का संकलन किया जाए, जिसका सामूहिक रूप से संगान किया जा सके। इसी चिंतन की फलश्रुति स्वरूप आचारांग आदि आगम ग्रंथों से कुछ आर्ष वाक्यों का चयन किया गया। इसमें चेतना को ऊर्ध्वमुखी बनाने वाले २४ सूक्त हैं। इसका प्रत्येक सूक्त अन्तःकरण को झकझोरकर अध्यात्म की नयी ज्योति विकीर्ण करने वाला है। इसके अन्त में गुरुदेव ने अर्हत् स्तुति में एक भावपूर्ण गीत बनाया, जो हर गायक एवं श्रोता को भावविभोर कर देता है। पूरा गीत आत्मकर्तृत्व एवं समता की प्रबल प्रेरणा देने वाला है। गीत का यह पद्य भीतर सोयी प्रभुता को जगाने में प्रेरक बन सकता है
बिंदु भी हम सिंधु भी हैं, भक्त भी भगवान् भी हैं। छिन्न कर सब ग्रंथियों को, सुप्त चेतन को जगाएं। भावभीनी वंदना भगवान, चरणों में चढ़ाएं। शद्ध ज्योर्तिमय निरामय, रूप अपने आप पाएं॥
चतुर्विध धर्मसंघ के लिए पूज्य गुरुदेव द्वारा संकलित की गयी यह महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक कृति है। इसका प्रारम्भ वि.स. २०२५ मद्रास . चातुर्मास में हुआ। इससे पूर्व महावीर की स्तवना में गीत गाकर सायंकालीन प्रार्थना की जाती थी। पूज्य गुरुदेव का लक्ष्य था कि अर्हद् वन्दना के माध्यम से जन-जन की आध्यात्मिक चेतना जागे इसलिए वे समय-समय पर इसकी उच्चारण-विधि का प्रशिक्षण देते रहते थे। इसके उच्चारण में वे दीर्घ-हस्व, उदात्त-अनुदात्त, आरोह-अवरोह का पूरा ध्यान रखते थे। पूज्य गुरुदेव अनेक बार साधु-साध्वियों की विशेष गोष्ठी भी आमंत्रित करते, जिसमें किस सूक्त को किस लय से गाना या उच्चारित करना, इसका समुचित प्रायोगिक प्रशिक्षण देते रहते थे। 'व्यवहारबोध' में अर्हद् वन्दना के संगान का बोध देते हुए उन्होंने कहा
विधिवद अर्हत् वंदना, मंद मधुर संगान।
आकर्षक सबको लगे, तन-मन की इक तान॥
लगभग २९ वर्षों से अनवरत अर्हद् वन्दना का क्रम चल रहा है। जहां साधु-साध्वियों एवं समणियों का प्रवास होता है, वहां तो सुबह-शाम नियमित रूप से अर्हद् वन्दना होती ही है, अनेक परिवारों में भी प्रार्थना के