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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१३२ हैं तो भले समझें पर मैंने यह चातुर्मास कृपा के लिए नहीं, संत-सतियों को साधना का विशेष प्रशिक्षण देने के लिए किया है। मैं चाहता हूं साधु जीवन साधना प्रधान हो। आंतरिक विकास की दृष्टि से कुछ प्रयोग हों तथा व्यवहार में उनका प्रतिबिम्ब भी आए। आपस में सामंजस्य कैसे रहे? कषायविजय कैसे हो? मानसिक विकार कैसे मिटे? आदि विषयों का विशेष प्रशिक्षण देने और समय-समय पर उसका परीक्षण करने के लिए मैं सामूहिक प्रयोग कराना चाहता हूं।' उस चातुर्मास में पूज्य गुरुदेव ने आध्यात्मिक विकास हेतु साधु-साध्वियों के समक्ष दस सूत्री कार्यक्रम' प्रस्तुत किया। वे दस सूत्र इस प्रकार थे- आसन, प्राणायाम, प्रतिसंलीनता, रस-परित्याग, क्षमा आदि दशविध श्रमण धर्म का अभ्यास, पांच महाव्रत की पच्चीस भावना का अभ्यास, अनित्य आदि सोलह भावनाओं का अभ्यास, जप, स्वाध्याय तथा ध्यान। उस चातुर्मास में गुरुदेव ने अनेक बार प्रयोगात्मक सक्रिय प्रशिक्षण दिया।२० अप्रैल १९६० को गोष्ठी के माध्यम से सबको चलने, बोलने आदि का प्रशिक्षण दिया। सब साधु-साध्वियों के बीच स्वयं चलकर चलने की कला सिखाई और कहा-'प्रयोगात्मक रूप से आज सक्रिय प्रशिक्षण देते हुए मुझे अत्यन्त आनन्द का अनुभव हो रहा है। यद्यपि मैं दण्ड में नहीं, हृदय-परिवर्तन में विश्वास करता हूं पर जब तक हृदय-परिवर्तन न हो तब तक दण्ड-व्यवस्था का भी उपयोग है। मैं
आप लोगों के सामने दण्ड नहीं, बल्कि प्रायश्चित्त का प्रस्ताव रख रहा हूं। ईर्यासमिति से सम्बन्धित गलती आने पर भारमलजी के लिए आचार्य भिक्षु ने तेले का प्रायश्चित्त निर्धारित किया था। लेकिन मैं चाहता हूं यदि आप लोगों को चलते समय बोलने की शिकायत आ जाए तो स्वेच्छा से दो सौ श्लोक खड़े-खड़े स्वाध्याय का प्रायश्चित्त करें। ऐसा करने से स्वतः ईर्यासमिति सध जायेगी।' साधना के विशेष प्रयोगों की प्रेरणा ____ पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी की तीव्र तड़प थी कि उनका धर्मसंघ साधना की साकार प्रयोगशाला बने। एक बार प्रसंगवश मदनचंदजी गोठी के सामने अपने मन की पीड़ा प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा- "मैं चाहता हूं कि संघ में अंतरंग साधना का अधिक विकास हो । यदि कोई मेरे मन को