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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
३१६ विवशता से किया जाता है। संयम में सदैव सुरक्षा का भाव अन्तर्निहित रहता है, जबकि दमन में भय, पीड़ा एवं तनाव की बेचैनी रहती है। अस्वीकार की शक्ति का नाम संयम है। दूसरे शब्दों में मन, वाणी और शरीर पर अपना नियंत्रण ही संयम है। संयम बाहरी और भीतरी दोनों प्रकार के प्रदूषण से बचाव करता है। बढ़ती हुई अनंत भौतिक आकांक्षा को शान्त करने का एकमात्र उपाय संयम है। एक समस्या समाप्त होती है दूसरी अपना सिर उठा लेती है अत: पूज्य गुरुदेव कहते थे कि इच्छाएं अनंत हैं यह बात जितनी सही है उतनी ही सही यह बात भी है कि व्यक्ति में इच्छाओं के निरोध की शक्ति भी अनंत है। हमने इच्छाओं को पकड़ लिया और निरोध या संयम की शक्ति को उपेक्षित कर दिया, यह अधूरी समझ है।' साधना और संयम दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। साधना के बिना संयम को नहीं साधा जा सकता तथा संयम के बिना साधना तेजस्वी
और फलदायी नहीं बनती। पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि संयम न हो तो कितनी ही यौगिक क्रियाएं की जाएं, कितने ही अनुष्ठान किए जाएं, कितना ही तप तपा जाए, कितना ही जप किया जाए, कितना ही स्वाध्याय किया जाए, कितना ही भ्रमण किया जाए, दुःखों से छुटकारा नहीं मिल सकता। दुःख-मुक्ति का एक मात्र उपाय है- संयम।' चेतना के दरवाजे पर संयम पहरेदारी का कार्य करता है, जिससे विकारों की रोकथाम की जा सके।
. 'संयम के प्रति मेरे मन में प्रारम्भ से ही आकर्षण रहा है। मैंने संयम को जीकर देखा है और उसका सुफल भी चखा है। मेरे मन का विश्वास बोल रहा है कि संयम के द्वारा ही विश्व की अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है। संयम के शिखर तक आरोहण करना मेरा लक्ष्य है। मैं चाहता हैं कि इस दिशा में कुछ विशेष प्रयोग करूं।' पूज्य गुरुदेव का यह वक्तव्य उनकी संयम के प्रति गहरी निष्ठा को व्यक्त करने वाला है। उनके जीवन के कण-कण से संयम झलकता था। उनकी हर क्रिया संयम से अनुप्राणित होती थी। वे संयम को जीवन का सर्वोत्तम क्रियात्मक पक्ष मानते थे। लगभग साढ़े सात दशक तक वे संयम-साधना में संलग्न रहे। उनका मानना था कि वैसे तो मेरा जन्म वि.सं. १९७१ कार्तिक शुक्ला २ (२१ अक्टूबर १९१४) को हुआ था। किन्तु वास्तव में संयमी जीवन के