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साधना का जीवन्त इतिहास साधना में अगाध क्षमता है, क्योंकि वह एकाक्षी है। साधना के एकाक्षी होने का प्रमाण कृष्ण की बांसुरी की रागात्मकता में मिलता है। दिन हो या अंधेरी रात, बांसुरी के स्वरों में सभी रागमय हो जाते हैं। तब अन्य विचार तिरोहित हो जाते हैं और स्वर के राग-केन्द्रों में जीवन की गति समाहित कर देते हैं। सूफी चिन्तक और साधक भी ऐसे ही जीवन्त पुरुष होते हैं। उनके जहां-जहां हस्ताक्षर पहुंचते हैं, वहां जड़ भी जीवित होकर जीवन की सांस
लेने लगते हैं। अमिट हस्ताक्षर ही तो साक्षात् ब्रह्म हैं, जिसे वे मिल जाएं, - अभिलाषाएं शेष नहीं रहतीं। .. यही वह साधना है, जिससे छोटा-सा बालक तुलसी आगे चलकर न केवल देश में बल्कि समूची दुनिया में मानवतावादी धर्मगुरु के रूप में विख्यात हुआ। आचार्य श्री तुलसी एक तपस्वी एवं साधक पुरुष थे। इस शताब्दी के अग्रणी एवं सर्वपरिचित साधक के रूप में आचार्यश्री तुलसी सदा स्मरणीय रहेंगे। उनकी साधना के अनेक आयाम हैं, अनेक दिशाएं हैं और अनेक रूप . हैं। एक साधक के रूप में जितना क्रियाशील एवं सार्थक जीवन आचार्य तुलसी ने जिया है, वह अपने आपमें विलक्षण घटना है। समणी कुसुमप्रज्ञा ने 'साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी' शीर्षक से लगभग तीन सौ पचास पृष्ठों की पुस्तक लिखी है। चार खण्डों में करीब ६८ लेखों का इस पुस्तक में समावेश है। पुस्तक में आचार्य तुलसी की साधना के विविध आयामों की सूक्ष्म एवं गहन विवेचना लेखिका ने की है। एक ही विषय पर इतनी विपुल एवं विशाल सामग्री का प्रस्तुतीकरण सचमुच एक बड़ी घटना
आचार्य तुलसी का व्यक्तित्व इतना विशाल एवं व्यापक था कि हम उन्हें केवल धर्मगुरु की सीमा में नहीं बांध सकते, क्योंकि आज 'धर्म' शब्द साम्प्रदायिकता का प्रतीक बन गया है। आचार्य तुलसी अनेक बार कहा करते थे, 'धर्मगुरु तो आप मुझे कहें या न कहें लेकिन मैं साधक हूं और समाजसुधारक हूं।' आचार्य तुलसी ने एक सम्प्रदाय के आचार्य होते हुए भी अपने आपको धर्मगुरु कहलाने की बजाय साधनापुरुष कहलाना ज्यादा उपयुक्त