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________________ १६५ साधना की निष्पत्तियां योगक्षेम वर्ष के प्रारम्भ में गुरुदेव के स्वास्थ्य में कुछ व्यवधान आ गया अत: लगभग एक मास तक वे प्रवचन, स्वाध्याय आदि कार्यक्रमों में उपस्थित नहीं हो सके। गुरुदेव ने युवाचार्य महाप्रज्ञजी को निर्देश देते हुए कहा- "इस बार प्रवचन तुमको करना है। इसलिए तुम अस्वस्थ मत हो जाना। लगता है गुरुदेव की इस वाणी का ही चमत्कार हुआ कि पूरे वर्ष में अस्वस्थता के कारण उन्होंने केवल एक दिन प्रवचन करने का कार्य छोड़ा। पूरे साल व्यवस्थित कार्यक्रम चला। जिस व्यक्ति के चिन्तन एवं चिन्तन की परिणति में वैषम्य होता है, वह सत्य की साधना नहीं कर सकता। पूज्य गुरुदेव ने इस खाई को पाटने का प्रयत्न किया है। वे अपने श्रद्धालु भक्तों को भी प्रेरणा देते हुए कहते थे- "मैं शाब्दिक अभिनन्दन में विश्वास नहीं करता। मैं बहुत बार कहा करता हूं कि मेरा सच्चा अभिनन्दन तभी होगा, जब अभिनन्दनकर्ता मन, वचन और कर्म से एकरूप होगा।" उनके सत्यनिष्ठ व्यक्तित्व की झांकी जैनेन्द्रजी के शब्दों में पठनीय है- 'आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व में मुझे विघटन कम प्रतीत होता है। आचार, उच्चार और विचार में बहुत कुछ एकसूत्रता है। इसी से उनके व्यक्तित्व में वेग और प्रवाह है।" सत्य के पांच लक्षण बताए गए हैं - कथनी-करनी की एकरूपता। - प्रतिष्ठा एवं आत्मख्यापन की भावना से मुक्ति। - कर्तृत्व के अहंकार से मुक्ति। - असत्प्रवृत्ति से बचाव। - आवेशमुक्ति। पूज्य गुरुदेव के जीवन में ये पांचों बातें सहजरूप से चरितार्थ थीं अतः सत्य-साधना में उनके जीवन में आंतरिक रूप से कोई बाधा उपस्थित नहीं हुई। उनकी पवित्रता इतनी सध चुकी थी कि सत्य का तेज स्वतः प्रस्फुटित हो गया था। गुरुदेव की दृढ़ आस्था थी कि पवित्रता और आत्मशुद्धि के मार्ग पर चलना है तो सत्य को अपनाना ही होगा। बिना सत्य-साधना के पवित्रता को नहीं पाया जा सकता। अर्हत्-वाणी में उद्गीत सत्य का वैशिष्ट्य सबको एक अभिनव प्रेरणा देने वाला है
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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