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साधना की निष्पत्तियां है तो किसी क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं करेगा, एक क्षण में प्रसन्न और एक क्षण में नाराज नहीं होगा, एक क्षण में विरक्त और एक क्षण में वासना का दास नहीं बनेगा। ये सब स्थितियां तभी घटित होती हैं, जब व्यक्ति यंत्र होता है, दूसरों के चलाने पर चलता है। भगवान् महावीर का दर्शन स्वतंत्रता का दर्शन है, आत्मकर्तृत्व का दर्शन है। इस दर्शन के परिप्रेक्ष्य में हर व्यक्ति अपने आपसे पूछे कि वह यंत्र कितना है और स्वतंत्र कितना है?' गीत के इस पद्य में प्रकारान्तर से उन्होंने इसी तथ्य को उजागर किया है
अच्छा हो अपने नियमों से, हम अपना संकोच करें। नहीं दूसरे वध-बंधन से, मानवता की शान हरें॥
अनुशासन का उत्कृष्ट रूप है- अपने द्वारा अपना अनुशासन, अपने द्वारा अपना शासन। आत्मानुशासन का बोध देने के लिए सम्पूर्ण मानव जाति को पूज्य गुरुदेव ने "निज पर शासन : फिर अनुशासन" का घोष दिया। उन्होंने स्वयं अनुशासित जीवन जीया फिर दूसरों पर उसका प्रयोग किया। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का अनुभव पठनीय है'अनुशासन का मेरे जीवन में शुरू से गहरा स्थान था, स्वयं अनुशासित रहना तथा अपने से छोटों को अनुशासन में रखना मुझे सहज भाता था।' बचपन में ज्येष्ठ भ्राता मुनिश्री चम्पालालजी का कठोर अनुशासन उन्होंने सहर्ष झेला। इस संदर्भ में गुरुदेव के ज्येष्ठ भ्राता मुनिश्री चम्पालालजी का यह अनुभव पठनीय है
'मैं कभी-कभी तुलसी मुनि की त्रुटियां ढूंढ़ने के लिए लुक-छिप कर जाया करता। मेरा आशय स्पष्ट था- मैं अपने भाई को नितान्त निर्दोष देखना चाहता था। एक दिन तुलसी मुनि मेरे पास आये और बोले- क्या आपको मेरे प्रति अविश्वास है, आप लुक-छिप कर क्या देखा करते हैं?' इतना पूछने का साहस सम्भवतः उन्होंने कई दिनों के चिन्तन के बाद किया होगा। मैंने अधिकार की भाषा में कहा- "तुम्हें यह पूछने की कोई जरूरत नहीं। मुझे जैसा उचित जंचेगा, करूंगा, देखूगा, पूलूंगा। स्पष्ट आऊं या लुक-छिप कर, तुम्हें क्या प्रयोजन? मैं मानता हूं तुलसी मुनि ने मेरा जो सम्मान रखा आज का विद्यार्थी क्या अपने बड़े का रखेगा? उन्होंने जो मेरा कड़ा अनुशासन झेला, वह हर कोई नहीं झेल सकता। न विशेष मैं