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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
निर्दिष्ट प्रश्नावली के आलोक में प्रत्येक साधक अपना आत्मनिरीक्षण कर सकता है- 'व्यक्ति की वृत्तियों में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का उभार है या नहीं? वह अपनी दुर्बलताओं को स्वीकार कर सकता है या नहीं ? वह किसी प्रतिकूल हरकत को सहन कर सकता है या नहीं ? दुर्बलता का अहसास होने पर उससे मुक्त होने का प्रयास करता है या नहीं ?' पूज्य गुरुदेव का आत्मलोचन उन्हीं की भाषा में पठनीय है- 'मैं आत्मचिंतन या आत्मविश्लेषण करता हूं तब मुझे अनुभव होता है कि मेरा उपशम भाव परिपूर्ण नहीं है। कभी-कभी मुझे भी आवेश आता है। किसी को कुछ कहते समय मैं उत्तेजित हो जाता हूं। मैं यह भी अनुभव करता हूं कि मेरा आवेश टिकाऊ नहीं है। प्रथम क्षण वह अपना प्रभाव दिखाता है, दूसरे क्षण उसे खोजना पड़ता है। जैसे पानी में खींची गई लकीर उसी क्षण विलीन हो जाती है, वैसे ही तत्काल प्रभावहीन होने वाला आवेश अपनी झलक भर दिखाकर समाप्त हो जाता है।'
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आत्मनिरीक्षण या आत्मदर्शन वही व्यक्ति कर सकता है, जो पहले स्वयं को देखता है फिर दूसरों की ओर अंगुलिनिर्देश करता है। इस संदर्भ में गुरुदेव का यह चिन्तन मननीय है- 'मनुष्य का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह दूसरे की बुराई देखने के लिए सहस्राक्ष बन जाता है, जबकि उसकी अच्छाई देखने के लिए दो आंखों को भी काम में नहीं लेता। वह दूसरों की छोटी-से-छोटी बुराई देखने के लिए तत्पर रहता है किन्तु अपनी बड़ी से बड़ी बुराई पर पर्दा डालने का प्रयास करता है। यह मनोवृत्ति आत्मालोचन में बाधक बनती है। '
सामान्य व्यक्ति को जब रात्रि में किसी कारणवश नींद नहीं आती तो वह उद्वेलित एवं बेचैन हो उठता है, नींद को कोसता है तथा दूसरे दिन उसकी पूर्ति की बात सोचता है। किन्तु पूज्य गुरुदेव जागरण की रात को
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'धम्मजागरण' एवं 'आत्मजागरण' के रूप में परिवर्तित कर देते थे । फिर चाहे अस्वस्थता या तपस्या की कठिनता के कारण रात्रि जागरण करना पड़े अथवा प्राकृतिक उपद्रव या किसी को सम्बोध देने के कारण नींद जगानी पड़े।
सन् १९५२ में तपस्या की कठिनता के कारण संवत्सरी के दूसरे
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