Book Title: Rajasthan ka Jain Sahitya
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Devendraraj Mehta
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान का जैन साहित्य प्राकृत भारती, जयपुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-भारती पुष्प 2 राजस्थान का जैन साहित्य सम्पादक-मण्डल अगरचन्द नाहटा हॉ. नरेन्द्र भानावत डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल डॉ अलचाद सेठिया महोपाध्याय विनयसागर प्राकृत भारती, जयपुर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक देवेन्द्रराज मेहता सचिव, प्राकृत-भारती जयपुर मूल्य 50.00 रुपये वीर नि. सं. 2503 विक्रम सं. 2034 ईसवी 1977 शकाब्द 1899 मुद्रक । राज्य केन्द्रीय मुद्रणालय, जयपुर । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख जैन धर्म का दर्शन, न्याय तथा संस्कृति--ये भारतीय परम्परा के बड़े समृद्ध और प्राचीनतम तत्व हैं। इस स्थिति का प्रमाण जैन साहित्य है जो प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी एवं कई स्थानीय भाषाओं में मिलता है। ये साहित्य श्रागम, पुराण, कथा, चरित्र, काव्य, निबन्ध आदि के रूप में उपलब्ध है। कुछ साहित्य ऐसा है जो कवितानों, कथानों तथा गीतों के द्वारा जैन धर्म के गूढ़ सिद्धान्तों को समाजोद्धार और राष्ट्रोत्थान के स्वर को मुखरित करने में सहयोगी सिद्ध हुना है | परन्तु इस वैज्ञानिक युग में इस साहित्य का अधिकांश भाग या तो प्रकाशित है या श्रप्राप्य है । श्रतएव जैन धर्म और संस्कृति के संबंध में लेखन एवं अध्ययन का कार्य अनुसंधानकों के लिये एक कठिनाई का कारण बना हुआ है । कई जैन भण्डार ऐसे हैं जिनमें निहित विद्या-निधि के दर्शन का लाभ भी सुलभ नहीं है। प्रस्तुत ग्रन्थ में गणमान्य विद्वानों के लेखों ने जैन साहित्य को प्रकाश में लाने का सफल प्रयत्न किया है। इन लेखों में प्राचीन लेखकों, साधकों और ग्रन्थों की समीक्षा देकर जिज्ञासुनों की ज्ञान-पिपासा को किसी सीमा तक बुझाने में सफलता प्राप्त की है। अनुसंधानकर्तानों के लिए भी यह ग्रन्थ पथ-प्रदर्शक का काम करेगा, ऐसी मेरी मान्यता है । इसमें दिये गये साहित्य और साहित्यकारों का परिचय महत्वशाली जैन साहित्य की अपार विश्लेषण तो नहीं करता परन्तु खोज की दृष्टि से समुचित उद्बोधन अवश्य करता है । में प्राकृत भारती एवं संचालक मंडल को बधाई देता हूं कि इस प्रकाशन के कार्य का शुभारंभ कर उसने जैन साहित्य की प्रशंसनीय सेवा की है । राशि का सर्वागीण गोपीनाथ शर्मा, निदेशक, राजस्थान अध्ययन केन्द्र, राजस्थान विश्व विद्यालय, जयपुर । Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय 'प्राकृत-भारती' के द्वितीय पुष्प के रूप में राजस्थान का जैन साहित्य' नामक शोधनिबन्धों का संग्रह पाठकों के कर-कमलों में अर्पित करते हुए मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। श्रमण भगवान महावीर की 2500वीं निर्वाण शताब्दी के शुभ अवसर पर राजस्थान सरकार ने राज्य स्तर पर शताब्दी समारोह समिति की स्थापना की थी। समिति ने साहित्यिक योजना के अन्तर्गत तीन पुस्तकों के प्रकाशन का निर्णय लिया था-1. कल्पसूत्र (सचिन), 2. राजस्थान का जैन साहित्य, और 3. राजस्थान की जैन कला और स्थापत्य । भगवान् महावीर का दर्शन और लोक-कल्याणमयी सार्वजनीन विचारधारा से सम्बन्धित साहित्य का प्रचार-प्रसार सर्वदा प्रवर्धमान रूप से होता रहे, इस दष्टि-बिन्दू को ध्यान में रखकर, शताब्दी समारोह के पश्चात् 'प्राकृत-भारती' की स्थापना की गई और उक्त ग्रन्थों के कार्य को पूर्ण करने का भार 'प्राकृत-भारती' को सौंप दिया गया। राजस्थान प्रदेश के निवासियों एवं इस प्रदेश में विचरण करने वाले मुर्धन्य विद्वानोंश्रमणों ने शताब्दियों से धर्म एवं धर्मेतर सभी विषयों तथा समग्र विधाओं पर मौलिक एवं व्याख्यात्मक साहित्य-सर्जन कर सरस्वती की अभूतपूर्व सेवा की है। इन मनीषियों ने केवल देववाणी-संस्कृत को ही माध्यम नहीं बनाया, अपितु संस्कृत के साथ-साथ तत्कालीन जन-भाषाओं प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और हिन्दी भाषा में भी रचनाएं कीं और इन भाषाओं को सक्षम बनाने में हाथ बटाया । प्रत्येक साहित्यकार और साहित्य का समीक्षात्मक मल्यांकन अनेक खण्डों में किया जा सकता है किन्तु वह समय तथा श्रमसाध्य है। इसी कारण विद्वान् लेखकों ने प्रस्तुत पुस्तक में राजस्थान के ज्ञात विद्वानों द्वारा रचित तथा प्राप्त समस्त साहित्य का दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न किया है। विज्ञ लेखकगण, विद्वान सम्पादक मण्डल आदि जिन्होंने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस प्रकाशन में अपना सौहार्दपूर्ण योगदान देकर संस्थान को गौरवान्वित किया है उसके लिये मैं अपनी ओर से एवं संस्थान की ओर से इन सब का हृदय से आभारी हूं। महोपाध्याय विनयसागरजी का इस पुस्तक के सम्पादन एवं व्यवस्था का कार्यभार संभालने में विशेष सहयोग रहा है एतदर्थ वे धन्यवाद के पात्र हैं। मेरा विश्वास है कि यह पुस्तक साहित्य के क्षेत्र में शोधार्थियों के लिये न केवल पथप्रदर्शक होगी अपितु शोध के क्षेत्र में नये आयाम भी प्रस्तुत करने में समर्थ होगी। दिनांक 28-3-1977 देवेन्द्रराज मेहता, सचिव, प्राकृत-भारती, जयपुर । Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भगवान् महावीर के 2500वें परिनिर्वाण वर्ष के उपलक्ष्य में राज्यस्तर पर गठित राजस्थान राज्य भगवान महावीर 2500वां निर्वाण महोत्सव समिति की साहित्यिक पं.जना के अन्तर्गत यह ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है। ग्रन्थ छः खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड प्राकृत साहित्य से सम्बन्धित है। इसमें चार निबन्ध हैं जो प्राकृत साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों और राजस्थान के प्राकृत साहित्यकारों से सम्बन्धित है। द्वितीय खण्ड संस्कृत साहित्य से सम्बन्धित है। इस खण्ड में पांच निबन्ध हैं जो संस्कृत साहित्य के विकास और प्रवृत्तियों, राजस्थान के संस्कृत साहित्यकारों तथा जैन संस्कृत महाकाव्यों से सम्बन्धित हैं। तृतीय खण्ड अपग्रंश साहित्य से सम्बन्धित है। इसमें चार निबन्ध है जो अपभ्रंश साहित्य की सामान्य पृष्टभूमि, उसके विकास,प्रवृत्तियों और साहित्यकारों से सम्बन्धित है । चतुर्थ खण्ड राजस्थानी साहित्य से सम्बन्धित है। इसमें 9 निबन्ध हैं जो राजस्थानी साहित्य की सामान्य पृष्ठभूमि और पद्य तथा गद्य क्षेत्र के साहित्यकारों से सम्बन्धित है। पंचम खण्ड हिन्दी साहित्य से सम्बन्धित है। इसमें निबन्ध हैं जो हिन्दी जैन साहित्य की सामान्य प्रवत्तियों और पद्य तथा गद्य की विविध विधाओं पर प्रकाश डालते हैं। षष्ठ खण्ड परिशिष्ट खण्ड है। इस खण्ड में लोक साहित्य, ग्रन्थभण्डार, शिलालेख और लेखनकला से सम्बन्धित लेख दिये गये हैं। अन्त में अनुक्रमणिका देकर ग्रन्थ को शोधार्थियों के लिए विशेष उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया गया है। इस ग्रन्थ द्वारा राजस्थान में रचित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और हिन्दी भाषा के जैन साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों और उससे सम्बद्ध रचनाकारों का परिचय देने का विनम्र प्रयास किया गया है। राजस्थान में रचित आधुनिक साहित्य अलग-अलग स्थानों से अलग-अलग व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा प्रकाशित होने से विभिन्न स्थलों पर उपलब्ध है। इस कारण अब तक प्रकाशित समग्र साहित्य का आकलन कर, उसका मूल्यांकन करना किसी एक लेखक के लिए शक्य न होने से संभव है कतिपय ग्रन्थों तथा ग्रन्थकारों का नामोल्लेख होने से रह गया हो।इस प्रकाशन द्वारा राजस्थान में प्रवाहित जैन साहित्य की बहमखी धारा से पाठकों को परिचित कराना हमारा उद्देश्य है। इसका सम्यक् मूल्यांकन तो आगे की सीढ़ी है। प्रन्थ के प्रस्तुतिकरण में हमारी समन्वयात्मक दृष्टि रही है। राजस्थान में प्रचलित जैन समाज की श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के साहित्य और साहित्यकारों के सम्बन्ध में, परम्परा विशेष से सम्बद्ध अधिकारी विद्वानों से निवेदन कर, निबन्ध जुटाने का प्रयत्न किया गया है। निबन्धों में अभिव्यक्त विचार लेखकों के अपने हैं। उसके लिए राज्य समिति या सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं है। विद्वान संतों और लेखकों ने अत्यन्त व्यस्त रहते हुए भी हमारे निवेदन पर जिस अपनत्व के साथ अपने निबन्ध भिजवाकर सहयोग प्रदान किया उसके लिये कृतज्ञता ज्ञापित करना हम अपना परम कर्तव्य मानते हैं। राज्यस्तर पर गठित समिति के अध्यक्ष माननीय श्री हरिदेवजी जोशी, मुख्य मन्त्री, पजस्थान सरकार, समिति के उपाध्यक्ष माननीय श्री चन्दनमलजी बैद, विन मन्त्री, सजस्थान Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरकार और समिति के सचिव माननीय श्री देवेन्द्रराजजी मेहता के हम विशेष प्राभारी हैं जिनके सक्रिय सहयोग और सम्यक निर्देशन से इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ का प्रकाशन सम्भव हो सका। माशा है, राजस्थान के जैन साहित्य के अध्ययन, समीक्षण और मूल्यांकन की दिशा में पह ग्रन्थ एक आधारभत ग्रन्थ सिद्ध होगा और इसके माध्यम से समग्र भारतीय साहित्य की प्रात्मा मौर सांस्कृतिक चेतना को समझने-परखने में मदद मिलेगी। -सम्पादक मण्डल के सदस्य Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका धर्म, साहित्य और संस्कृति : धर्म और साहित्य दोनों संस्कृति के प्रमुख अंग हैं। संस्कृति जन का मस्तिष्क है, धर्म जन का हृदय और धर्म की रसात्मक अनुभूति है साहित्य। जब-जब संस्कृति ने कठोर रूप धारण किया, हिंसा का पथ अपनाया, अपने रूप को भयावह व विकृत बनाने का प्रयत्न किया, तब-तब धर्म ने उसे हृदय का प्यार लुटा कर कोमल बनाया,अहिंसा और करुणा की बरसात कर उसके रक्तानजित पथ को स्नेहपरित और अमृतमय बनाया,संयम, तप और सदाचार से उसके जीवन को सौन्दर्य और शक्ति का वरदान दिया। मनुष्य की मूल समस्या है-आनन्द की खोज । यह प्रानन्द तब तक नहीं मिल सकता जब तक कि मनुष्य भय-मुक्त न हो,पातंक-मुक्त न हो। इस भयमुक्ति के लिये दो शर्ते अावश्यक हैं। प्रथम तो यह कि मनुष्य अपने जीवन को इतना शीलवान, सदाचारी और निर्मल बनाए कि कोई उससे न डरे। द्वितीय यह कि वह अपने में इतना पुरुषार्थ, सामर्थ्य और बल संचित करे कि कोई उसे डरा-धमका न सके। प्रथम शर्त को धर्म पूर्ण करता है और दूसरी को संस्कृति। साहित्य इन्हें संवेदना के स्तर पर कलापूर्ण बनाता है। जैन धर्म और मानव संस्कृति : जैन मान्यता के अनुसार सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्था में वर्तमान अवसर्पिणी के प्रथम तीनों कालों में जीवन अत्यन्त सरल एवं प्राकृतिक था। तथाकथित कल्पवृक्षों से आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाया करती थी। यह अकर्म भूमि, भोग-भूमि का काल था। पर तीसरे काल के अन्तिम पाद में काल चक्र के प्रभाव से इस अवस्था में परिवर्तन आया और मनुष्य कर्मभूमि की ओर अग्रसर हया। उसमें मानव सम्बन्धपरकता का भाव जगा और पारिवारिक व्यवस्थाकुल व्यवस्था-सामने आई। इसके व्यवस्थापक कुलकर या मनु कहलाये जो विकास-क्रम में वौदह हुए। कुलकर व्यवस्था का विकास आगे चलकर समाज संगठन, धर्मसंगठन के रूप में. इया और इसके प्रमुख नेता 24 तीर्थकर तथा गौण नेता 39 अन्य महापुरुष (12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव) हुए जो सब मिलकर त्रिषष्टि शलाका पुरुष कहे जाते हैं। उपर्युक्त पृष्ठभूमि में यह कहा जा सकता है कि जैन दृष्टि से धर्म केवल वैयक्तिक आचरण ही नहीं है, वह सामाजिक आवश्यकता और समाज-कल्याण व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण घटक भी है। जहां वैयक्तिक आचरण को पवित्र और मनुष्य की आंतरिक शक्ति को जागृत करने की दृष्टि से मा, मार्दव, आर्जव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य जैसे मनोभावाधारित धर्मों की व्यवस्था है वहां सामाजिक चेतना को विकसित और सामाजिक संगठन को सुदृढ तथा स्वस्थ बनाने की दृष्टि से ग्राम धर्म, नगर धर्म, राष्ट्र धर्म, कुल धर्म, गण धर्म, संघ धर्म जैसे समाजोन्मुखी धर्मों तथा ग्राम प्थविर, नगर स्थविर, प्रशास्ता स्थविर, कुल स्थविर, गण स्थविर, संघ स्थविर जैसे धर्मनायकों की भी व्यवस्था की गई है। इस बिन्दु पर आकर “जन” और “समाज" परस्पर जुड़ते हैं और धर्म में निवृत्ति-प्रवृत्ति, त्याग-सेवा और ज्ञान-क्रिया का समावेश होता है। संस्कृति का परिष्कार और भगवान महावीर : अन्तिम तीर्थकर महावीर तक आते-आते इस संस्कृति में कई परिवर्तन हुए। संस्कृति के विशाल सागर में विभिन्न विचारधाराओं का संगम हया। पर महावीर के समय इस Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांस्कृतिक संगम का कुत्सित और वीभत्स रूप ही सामने आया। संस्कृति का जो निर्मल और लोक कल्याणकारी रूप था वह अब विकारग्रस्त होकर चन्द व्यक्तियों की ही सम्पत्ति बन गया। धर्म के नाम पर क्रियाकाण्ड का प्रचार बढ़ा। यज्ञ के नाम पर मूक पशुओं की बलि दी जाने लगी। अश्वमेध ही नहीं नरमेध भी होने लगे। वर्णाश्रम व्यवस्था में कई विकृतियां प्रा गई। स्त्री और शूद्र अधम तथा निम्न समझे जाने लगे। उनको आत्म-चिन्तन और सामाजिक-प्रतिष्ठा का कोई अधिकार न रहा। त्यागी-तपस्वी समझे जाने वाले लोग अब लाखों-करोड़ों की संपत्ति के मालिक बन बैठे। भोग और ऐश्वर्य किलकारियां मारने लगा। एक प्रकार का सांस्कृतिक संकट उपस्थित हो गया। इससे मानवता को उबारना आवश्यक था। वर्द्धमान महावीर ने संवेदनशील व्यक्ति की भांति इस गंभीर स्थिति का अनशीलन और परीक्षण किया। बारह वर्षों को कठोर साधना के बाद वे मानवता को इस संकट से उबारने के लिये प्रमत ले आये। उन्होंने घोषणा की-'सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। यज्ञ के नाम पर की गई हिंसा अधर्म है। सच्चा यज्ञ प्रात्मा को पवित्र बनाने में है। इसके लिये क्रोध की बलि दीजिये, मान को मारिये, माया को काटिये और लोभ का उन्मलन कीजिये।' महावीर ने प्राणी-मात्र की रक्षा करने का उद्बोधन दिया। धर्म के इस अहिंसामय रूप ने संस्कृति को अत्यन्त तरल और विस्तृत बना दिया। उसे जनरक्षा (मानव समुदाय) तक सीमित न रखकर समस्त प्राणियों की सुरक्षा का भार भी संभलवा दिया। जैन धर्म में जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्व : यद्यपि यह सही है कि धर्म का मल केन्द्र व्यक्ति होता है क्योंकि धर्म आचरण से प्रकट होता है पर उसका प्रभाव समूह या समाज में प्रतिफलित होता है और इसी परिप्रेक्ष्य में जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना के तत्त्वों को पहचाना जा सकता है। कुछ लोगों की यह धारणा है कि जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना की अवधारणा पश्चिमी जनतंत्र-यूनान के प्राचीन नगर राज्य और कालान्तर में फ्रांस की राज्य क्रान्ति की देन है। पर सर्वथा ऐसा मानना ठीक नहीं। प्राचीन भारतीय राजतन्त्र व्यवस्था में प्राधुनिक इंगलैण्ड की भांति सीमित व वैधानिक राजतन्त्र से युक्त प्रजातंत्रात्मक शासन के बीज विद्यमान थे। जन सभाओं और विशिष्ट आध्यात्मिक ऋषियों द्वारा राजतन्त्र सीमित था। स्वयं भगवान महावीर लिच्छिवीगण राज्य से संबंधित थे। यह अवश्य है कि पश्चिमी जनतन्त्र और भारतीय जनतन्त्र की विकास प्रक्रिया और उद्देश्यों में अन्तर रहा है, उसे इस प्रकार समझा जा सकता है:-- 1. पश्चिम में स्थानीय शासन की उत्पत्ति केन्द्रीय शक्ति से हुई है जबकि भारत में इसकी उत्पत्ति जन-समदाय की शक्ति से हुई है। 2. पाश्चात्य जनतान्त्रिक राज्य पूंजीवाद, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के बल पर फले-फूले हैं । वे अपनी स्वतन्त्रता के लिये तो संघर्ष करते हैं पर दूसरे देशों को राजनैतिक दासता का शिकार बना कर उन्हें स्वशासन के अधिकार से वंचित रखने की साजिश करते हैं। पर भारतीय जनतन्त्र का रास्ता इससे भिन्न है। उसने आर्थिक शोषण और राजनैतिक प्रभुत्व के उद्देश्यों से कभी बाहरी देशों पर आक्रमण नहीं किया। उसकी नीति शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व और अन्तरराष्ट्रीय सहयोग की रही है। 3. पश्चिमी देशों ने पूंजीवादी और साम्यवादी दोनों प्रकार के जनतन्त्रों को स्थापित करने में रक्तपात, हत्याकाण्ड और हिंसक क्रान्ति का सहारा लिया है पर भारतीय जनतन्त्र का विकास लोक-शक्ति और सामूहिक चेतना का फल है। अहिंसक प्रतिरोध और सत्याग्रह उसके मूल प्राधार रहे है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारतीय समाज-व्यवस्था में जनतन्त्र केवल राजनैतिक संदर्भ ही नहीं है। यह एक व्यापक जीवन पद्धति है, एक मानसिक दृष्टिकोण है जिसका संबंध जीवन के धार्मिक, नैतिक, मार्थिक, सामाजिक और राजनैतिक सभी पक्षों से है । इस धरातल पर जब हम चिन्तन करते हैं तो मुख्यतः जैन दर्शन में और अधिकांशतः अन्य भारतीय दर्शनों में भी जनतांत्रिक सामाजिक चेतना के निम्न लिखित मख्य तत्त्व रेखांकित किये जा सकते हैं:-- 1. स्वतन्त्रता 2. समानता 3. लोककल्याण 4. सार्वजनीनता 1. स्वतन्त्रता:-स्वतन्त्रता जनतन्त्र की आत्मा है और जैन दर्शन की मूल भित्ति भी। जैन मान्यता के अनुसार जीव अथवा आत्मा स्वतन्त्र अस्तित्व वाला द्रव्य है। अपने अस्तित्व के लिये न तो यह किसी दूसरे द्रव्य पर आश्रित है और न इस पर आश्रित कोई अन्य द्रव्य है। इस दृष्टि से जीव को प्रभु कहा गया है -जिसका अभिप्राय यह है कि जीव स्वयं ही अपने उत्थान या पतन का उत्तरदायी है। सद प्रवत्त आत्मा ही उसका मित्र है और दुष्प्रवृत्त प्रात्मा ही उसका शत्र है। स्वाधीनता और पराधीनता उसके कर्मों के अधीन है। वह अपनी साधना के द्वारा घाति-प्रघाति सभी प्रकार के कर्मों को नष्ट कर पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकता है। स्वयं परमात्मा बन सकता है। जैन दर्शन में यही जीव का लक्ष्य माना गया है। यहां स्वतन्त्रता के स्थान पर म क्ति शब्द का प्रयोग हया है। इस मक्ति प्राप्ति में जीव की साधना और उसका पुरुषार्थ ही मख्य साधन है। मक्ति-प्राप्ति के लिये स्वयं के आत्म को ही पुरुषार्थ में लगाना होगा। इस प्रकार जीव मात्र की गरिमा, महत्ता और इच्छा शक्ति को जैन दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसीलिये यहां मक्त जीव अर्थात परमात्मा की गणात्मक एकता के साथ-साथ मात्रात्मक अनेकता है। क्योंकि प्रत्येक जीव ईश्वर के सान्निध्य-सामीप्य-लाभ ही प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है, बल्कि स्वयं परमात्मा बनने के लिये क्षमतावान है । फलतः जैन दृष्टि में प्रात्मा ही परमात्मदशा प्राप्त करती है, पर कोई परमात्मा आत्मदशा प्राप्त कर पुनः अवतरित नहीं होता। इस प्रकार व्यक्ति के अस्तित्व के धरातल पर जीव को ईश्वराधीनता और कर्माधीनता दोनों से मक्ति दिलाकर उसकी पूर्ण स्वतन्त्रता की रक्षा की गयी है। कुछ लोगों का कहना है कि महावीर द्वारा प्रतिपादित कर्म सिद्धान्त स्वतन्त्रता का पूरी तौर से अनुभव नहीं कराता। क्योंकि वह एक प्रकार से प्रात्मा को कर्माधीन बना देता है। पर सच बात तो यह है कि महावीर की कर्माधीनता भाग्य द्वारा नियंत्रित न होकर पुरुषार्थ द्वारा संचालित है। महावीर स्पष्ट कहते हैं-'हे प्रात्मन् ! तू स्वयं ही अपना निग्रह कर। ऐसा करने से तु दुखों से मुक्त हो जायेगा।' यह सही है कि प्रात्मा अपने कृत कर्मों को भोगने के लिये बाध्य है पर वह इतनी बाध्य नहीं कि वह उसमें परिवर्तन न ला सके। महावीर की दृष्टि में आत्मा को कर्मबन्ध में जितनी स्वतन्त्रता है, उतनी ही स्वतन्त्रता उसे कर्मफल के भोगने की भी है। आत्मा अपने पूरुषार्थ के बल पर कर्मफल में परिवर्तन ला सकती है। इस संबंध में भगवान महावीर के कर्म-परिवर्तन के निम्नलिखित चार सिद्धान्त विशेष महत्त्वपूर्ण हैं:-- (1) उदीरणा-नियत अवधि से पहले कर्म का उदय में आना। (2) उद्वर्तन-कर्म की अवधि और फल देने की शक्ति में अभिवृद्धि होना। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) अपवर्तन--कर्म की अवधि और फल देने की शक्ति में कमी होना। (4) संक्रमण--एक कर्म प्रकृति का दूसरी कर्म प्रकृति में संक्रमण होना। उक्त सिद्धान्त के आधार पर भगवान महावीर ने प्रतिपादित किया कि मनुष्य अपने पुरुषार्थ के बल से बन्धे हए कर्मों की अवधि को घटा-बढ़ा सकता है और कर्मफल की शक्ति मन्द अथवा तीव्र कर सकता है। इस प्रकार नियत अवधि से पहले कर्म भोगा जा सकता है और तीव्र फल वाला कर्म मन्द फल वाले कर्म के रूप में मन्द फल वाला कर्म तीव्र फल वाले कर्म के रूप में बदला जा सकता है। यही नहीं, पुण्य कर्म के परमाणु को पाप के रूप में और पाप कर्म के परमाण को पुण्य के रूप में संक्रान्त करने की क्षमता भी मनुष्य के स्वयं के पुरुषार्थ में है। निष्कर्ष यह कि महावीर मनुष्य को इस बात की स्वतन्त्रता देते हैं कि यदि वह जागरूक है, अपने पुरुषार्थ के प्रति सच्चा है और विवेक पूर्वक अप्रमत्त भाव से अपने कार्य सम्पादित करता है, तो वह कर्म की अधीनता से मुक्त हो सकता है, परमात्म दशा (पूर्ण स्वतन्त्रता) कोप्राप्त कर सकता है। जैन दर्शन की यह स्वतन्त्रता निरंकुश एकाधिकारवादिता की उपज नहीं है। इसमें दूसरों के अस्तित्व की स्वतन्त्रता की भी पूर्ण रक्षा है। इसी बिन्दु से अहिंसा का सिद्धान्त उभरता है जिसमें जन के प्रति ही नहीं, प्राणी मात्र के प्रति मित्रता और बन्धुत्व का भाव है। यहां जन पर ष्य ही प्राणी नहीं है और मात्र उसकी हत्या ही हिंसा नहीं है। जैन शास्त्रों में प्राण प्रर्थात् जीवन शक्ति के दस भेद बताये गये हैं:-सुनने की शक्ति, देखने की शक्ति, सूंघने की शक्ति, स्वाद लेने की शक्ति, छूने की शक्ति, विचारने की शक्ति, बोलने की शक्ति, गमनागमन की शक्ति, श्वास लेने-छोड़ने की शक्ति और जीवित रहने की शक्ति। इनमें से प्रमत्त योग द्वारा किसी भी प्राण को क्षति पहुंचाना, उस पर प्रतिबन्ध लगाना, उसकी स्वतन्त्रता में बाधा पहुंचाना, हिंसा है। जब हम किसी के स्वतन्त्र चिंतन को बाधित करते हैं, उसके बोलने पर प्रतिबन्ध लगाते हैं और गमनागमन पर रोक लगाते हैं तो प्रकारान्तर से क्रमशः उसके मन, वचन और काया रूप प्राण की हिंसा करते हैं। इसी प्रकार किसी के देखने, सुनने, सुंघने, चखने, छूने आदि पर प्रतिबंध लगाना भी विभिन्न प्राणों की हिंसा है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि स्वतन्त्रता का यह सूक्ष्म, उदात्त चितन ही हमारे संविधान के स्वतन्त्रता संबंधी मौलिक अधिकारों का उत्स रहा है। विचार-जगत में स्वतन्त्रता का बड़ा महत्त्व है। प्रात्मनिर्णय और मताधिकार इसी के परिणाम हैं। कई साम्यवादी देशों में सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता होते हुए भी इच्छा स्वातन्त्रय का यह अधिकार नहीं है। पर जैन दर्शन में और हमारे संविधान में भी विचार स्वातन्त्र्य को सर्वोपरि महत्त्व दिया गया है । जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार जगत में जड़ और चेतन दो पदार्थ हैं। सृष्टि का विकास इन्हीं पर आधारित है। जीव का लक्षण चैतन्यमय कहा गया है। जीव अनन्त हैं और उनमें प्रात्मगत समानता होते हए भी संस्कार, कर्म और बाह्य परिस्थिति आदि अनेक कारणों से उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास में बहत ही अन्तर आ जाता है। इसी कारण सब की पृथक सत्ता है और सब अपने कर्मानुसार फल भोगते हैं। अनन्त जीवों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व होने प्रा के कारण उनके विचारों में विभिन्नता होना स्वाभाविक है। अलग-अलग जीवों की बात छोड़िये, एक ही मनुष्य में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार अलग-अलग विचार उत्पन्न होते रहते हैं। अतः दार्शनिकों के समक्ष सदैव यह एक जटिल प्रश्न बना रहा कि इस विचारगत विषमता में समता कैसे स्थापित की जाये ? Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 I जैन तीर्थंकरों ने और विशेषतः भगवान् महावीर ने इस प्रश्न पर बहुत ही गंभीरतापूर्वक चिन्तन किया और निष्कर्ष रूप में कहा- प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । वह उत्पाद, व्यय और श्रीव्य युक्त है । द्रव्य में उत्पाद और व्यय से होने वाली भवस्थाओं को पर्याय कहा गया गुण कभी नष्ट नहीं होते और न अपने स्वभाव को बदलते हैं किन्तु पर्यायों के द्वारा अवस्था से अस्थान्तर होते हुए सदैव स्थिर बने रहते हैं । जैसे स्वर्ण द्रव्य है । किसी ने उसके कड़े बनवा लिये और फिर उस कड़े से कंकण बनवा लिए तो यह पर्यायों का बदलना कहा जायेगा पर जो स्वर्णत्व गुण है वह हर अवस्था में स्थायी रूप से विद्यमान रहता है। ऐसी स्थिति में किसी वस्तु की एक प्रवस्था को देखकर उसे ही सत्य मान लेना और उस पर अड़े रहना हठवादिता या दुराग्रह है। एकान्त दृष्टि से किसी वस्तु विशेष का समग्र ज्ञान नहीं किया जा सकता । सापेक्ष दृष्टि से, अपेक्षा विशेष से देखने पर ही उसका सही व संपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण के आधार पर भगवान् महावीर ने जीव, जीव, लोक द्रव्य आदि की नित्यता- अनित्यता, द्वैत-अद्वैत, अस्तित्व - नास्तित्व जैसी विकट दार्शनिक पहेलियों को सरलता पूर्वक सुलझाया और समन्वयवाद की आधारभित्ति के रूप में कथन की स्याद्वाद शैली का प्रतिपादन किया । व्यक्ति में इस प्रकार की वैचारिक उदारता का जन्म होता है तब वह अहं, भय, घृणा क्रोध, हिंसा आदि भावों से विरत होकर सरलता, प्रेम, मैत्री, प्रहिंसा और अभय जैसे लोकतिवाही मांगलिक भावों में रमण करने लगता है । उसे विभिन्नता में प्रभिन्नता और अनेकत्व में एकत्त्व के दर्शन होने लगते हैं । महावीर ने स्पष्ट कहा कि प्रत्येक जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है, इसलिये उसकी स्वतन्त्र विचार- चेतना भी है। अतः जैसा तुम सोचते हो एक मात्र वही सत्य नहीं है। दूसरे जो सोचते हैं उसमें भी सत्यांश निहित है। अतः पूर्ण सत्य का साक्षात्कार करने के लिये इतर लोगों के सोचे हुये, अनुभव किये हुए सत्यांशों को भी महत्त्व दो। उन्हें समझो, परखो और उसके आलोक में अपने सत्य का परीक्षण करो। इसमे न केवल तुम्हें उस सत्य का साक्षात्कार होगा वरन् अपनी भूलों के प्रति सुधार करने का अवसर भी मिलेगा । प्रकारान्तर से महावीर का यह चिन्तन जनतान्त्रिक शासन व्यवस्था में स्वस्थ विरोधी पक्ष की श्रावश्यकता और महत्ता प्रतिपादित करता है तथा इस बात की प्रेरणा देता है कि किसी भी तथ्य को भली प्रकार समझने के लिये अपने को विरोध पक्ष की स्थिति में रखकर उस पर चिंतन करो। तब जो सत्य निखरेगा वह निर्मल, निर्विकार और निष्पक्ष होगा । महावीर का यह वैचारिक प्रदार्य और सापेक्ष चितन स्वतन्त्रता का रक्षा कवच है। यह दृष्टिकोण अनेकांत सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित है । 2. समानता :- स्वतन्त्रता की अनुभूति वातावरण और अवसर की समानता पर निर्भर है। यदि समाज में जातिगत वैषम्य और आर्थिक असमानता है तो स्वतन्त्रता के प्रदत्त अधिकारों का भी कोई विशेष उपयोग नहीं । इसलिये महावीर ने स्वतन्त्रता पर जितना बल दिया उतना ही बल समानता पर दिया । उन्हें जो विरक्ति हुई वह केवल जीवन की नश्वरता या सांसारिक असारता को देखकर नहीं, वरन् मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण देखकर वे तिलमिला उठे और उस शोषण को मिटाने के लिये, जीवन के हर स्तर पर समता स्थापित करने के लिये उन्होंने क्रांति की, तीर्थं प्रवर्तन किया। एक ओर, भक्त और भगवान के बीच पनपे धर्मं दलालों को अनावश्यक बताकर, भक्त और भगवान के बीच गुणात्मक संबंध जोड़ा । जन्म के स्थान पर कर्म को प्रतिष्ठित कर गरीबों, दलितों और असहायों को उच्च प्राध्यात्मिक स्थिति प्राप्त करने की कला सिखायी। अपने साधना काल में कठोर प्रभिग्रह धारण कर दासी बनी, हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़ी, तीन दिन से भूखी, मुण्डितकेश राजकुमारी चंदना से प्रहार ग्रहण कर, उच्च क्षत्रिय राजकुल की महारानियों के मुकाबले समाज में निकृष्ट समझी जाने वाली नारी शक्ति की आध्यात्मिक गरिमा और महिमा प्रतिष्ठापित की। जातिवाद Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वर्णवाद के खिलाफ छेड़ी गयी यह सामाजिक क्रांति भारतीय जनतन्त्र की सामाजिक समानता का मुख्य आधार बनी है। यह तथ्य पश्चिम के सभ्य कहलाने वाले तथाकथित जनतान्त्रिक देशों की रंगभेद नीति के विरुद्ध एक चुनौती है। महावीर दूरद्रष्टा, विचारक और अनन्तज्ञानी साधक थे। उन्होंने अनुभव किया कि आर्थिक समानता के बिना समाजिक समानता अधिक समय तक कायम नहीं रह सकती और राजनैतिक स्वाधीनता भी आर्थिक स्वाधीनता के अभाव में कल्याणकारी नहीं बनती। इसलिये महावीर का सारा बल अपरिग्रह भावना पर रहा। एक ओर उन्होंने एक ऐसी साध संस्था खड़ी की जिसके पास रहने को अपना कोई प्रागार नहीं। कल के खाने की आज कोई निश्चित व्यवस्था नहीं, सुरक्षा के लिये जिसके पास कोई साधन-संग्रह नहीं, जो अनगार है, भिक्षुक है, पादविहारी है, निग्रन्थ है, श्रमण है, अपनी श्रम-साधना पर जीता है और दूसरों के कल्याण के लिये समर्पित है उसका सारा जीवन। जिसे समाज से कुछ लेना नहीं, देना ही देना है। दूसरी ओर उन्होंने उपासक संस्था-श्रावक संस्था खडी की जिसके परिग्रह की मर्यादा है। जो अणुब्रती है। श्रावक के बारह व्रतों पर जब हम चिंतन करते हैं तो लगता है कि अहिंसा के समानान्तर ही परिग्रह की मर्यादा और नियमन का विचार चला है। गहस्थ के लिये महावीर यह नहीं कहते कि तुम संग्रह न करो। उनका बल इस बात पर है कि आवश्यकता से अधिक संग्रह मत करो। और जो संग्रह करो उस पर स्वामित्व की भावना मत रखो। पाश्चात्य जनतान्त्रिक देशों में स्वामित्व को नकारा नहीं गया है। वहां संपत्ति को एक स्वामी से छीन कर दूसरे को स्वामी बना देने पर बल है। इस व्यवस्था में ममता ट्टती नहीं, स्वामित्व बना रहता है और जब तक स्वामित्व का भाव है--संघर्ष है, वर्ग भेद है। वर्ग-विहीन समाज रचना के लिये स्वापित्व का विसर्जन जरूरी है। महावीर ने इसलिये परिग्रह को संपत्ति नहीं कहा. उसे मूर्छा या ममत्व भाव कहा है। साध तो नितान्त अपरिग्रही होता है,गहस्थ भी धीरे-धीरे उस ओर बढ़े, यह अपेक्षा है। इसीलिये महावीर ने श्रावक के बारह व्रतों में जो व्यवस्था दी है वह एक प्रकार से स्वैच्छिक स्वामित्व-विसर्जन और परिग्रह-मर्यादा, सीलिंग की व्यवस्था है। आर्थिक विषमता के उन्मूलन के लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति के अर्जन के स्रोत और उपभोग के लक्ष्य मर्यादित और निश्चित हों। बारह व्रतों में तीसरा अस्तेय व्रत इस बात पर बल देता है कि चोरी करना ही वजित नहीं है बल्कि चोर द्वारा चुराई हुई वस्तु को लेना, चोर को प्रेरणा करना, उसे किसी प्रकार की सहायता करना, राज्य नियमों के विरुद्ध प्रवृत्ति करना, झूठा नाप-तोल करना, झूठा दस्तावेज लिखना, भूठी साक्षी देना, वस्तुओं में मिलावट करना, अच्छी वस्तु दिखाकर घटिया दे देना आदि सब पाप हैं। आज की बढ़ती हई चोर-बाजारी, टेक्स चोरी,खाद्य पदार्थों में मिलावट की प्रवृत्ति आदि सब महावीर की दष्टि से व्यक्ति को पाप की ओर ले जाते हैं और समाज में आर्थिक-विषमता के कारण बनते हैं। इस प्रवत्ति को रोकने के लिये पांचवें व्रत में उन्होंने खेत, मकान, सोना-चांदी आदि जेवरात, धन-धान्य, पशु-पक्षी, जमीन-जायदाद आदि को मर्यादित, आज की शब्दावली में इनका सीलिंग करने पर जोर दिया है और इच्छाओं को उत्तरोत्तर नियंत्रित करने की बात कही है। छठे व्रत में व्यापार करने के क्षेत्र को सीमित करने का विधान है। क्षेत्र और दिशा का परिमाण करने से न तो तस्करवृत्ति को पनपने का अवसर मिलता है और न उपनिवेशवादी वृत्ति को बढ़ावा मिलता है। सातवें व्रत में अपने उपभोग में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा करने की व्यवस्था है। यह एक प्रकार का स्वैच्छिक राशनिंग सिस्टम है। इससे व्यक्ति अनावश्यक संग्रह से बचता है और संयमित रहने से साधना की ओर प्रवत्ति बढ़ती है। इसी व्रत में अर्थार्जन के ऐसे स्रोतों से बचते रहने की बात कही गयी है जिनसे हिंसा बढ़ती है, कृषि-उत्पादन को हानि पहुंचती है और असामाजिक तत्त्वों को प्रोत्साहन मिलता है। भगवान महावीर ने ऐसे व्यवसायों की कर्मादान की संज्ञा दी है और उनकी संख्या पन्द्रह Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बतलायी है। आज के संदर्भ में इंगालकम्मे-जंगल में आग लगाना, असईजणपोषणया-प्रसंयति जनों का पोषण करना अर्थात् असामाजिक तावों को पोषण देना, आदि पर रोक का विशेष महत्त्व है। 3. लोक कल्याण:--जैसा कि कहा जा चुका है महावीर ने गृहस्थों के लिये संग्रह का निषेध नहीं किया है बल्कि आवश्यकता से अधिक संग्रह न करने को कहा है। इसके दो फलितार्थ हैं-एक तो यह कि व्यक्ति अपने लिये जितना आवश्यक हो उतना ही उत्पादन करे। दूसरा यह कि अपने लिये जितना आवश्यक हो उतना तो उत्पादन करे ही और दूसरों के लिये जो अावश्यक हो उसका भी उत्पादन करे। यह दूसरा अर्थ ही अभीष्ट है। जैन धर्म पुरुषार्थ प्रधान धर्म है अतः वह व्यक्ति को निष्क्रिय व अकर्मण्य बनाने की शिक्षा नहीं देता। राष्ट्रीय उत्पादन में व्यक्ति की महत्त्वपूर्ण भूमिका को जैन दर्शन स्वीकार करता है पर वह उत्पादन शोषण, जमाखोरी और आर्थिक विषमता का कारण न बने, इसका विवेक रखना आवश्यक है। सरकारी कानून-कायदे तो इस दृष्टि से समय-समय पर बनते ही रहते हैं पर जैन साधना में व्रत-नियम, तप-त्याग और दान-दया के माध्यम से इस पर नियंत्रण रखने का विधान है। तपों में वैयावृत्य अर्थात सेवा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसी सेवा-भाव से धर्म का सामाजिक पक्ष उभरता है। जैन धर्मावलिम्बयों ने शिक्षा, चिकित्सा, छात्रवृत्ति, विधवा सहायता प्रादि के रूप में अनेक ट्रस्ट खड़े कर राष्ट्र की महान सेवा की है। हमारे यहां शास्त्रों में पैसा अर्थात् रुपयों के दान का विशेष महत्त्व नहीं है। यहां विशेष महत्व रहा है--आहारदान , ज्ञानदान, औषधदान और अभयदान का। स्वयं भूखे रह कर दूसरों को भोजन कराना पुण्य का कार्य माना गया है। अनशन अर्थात भूखा रहना, अपने प्राणों के प्रति मोह छोड़ना, प्रथम तप कहा गया है पर दूसरों को भोजन, स्थान, वस्त्र प्रादि देना, उनके प्रति मन से शभ प्रवत्ति करना, वाणी से हित-वचन बोलना और शरीर से शुभ व्यापार करना तथा समाज-सेवियों व लोक-सेवकों का आदर-सत्कार करना भी पुण्य माना गया है। इसके विपरीत किसी का भोजन-पानी से विच्छेद करना 'भत्तपाणवुच्छेए' अतिचार, पाप माना गया है। महावीर ने स्पष्ट कहा है-जैसे जीवित रहने का हमें अधिकार है वैसे ही अन्य प्राणियों को भी। जीवन का विकास संघर्ष पर नहीं सहयोग पर ही आधारित है। जो प्राणी जितना अधिक उन्नत और प्रबुद्ध है, उसमें उसी अनुपात में सहयोग और त्यागवृत्ति का विकास देखा जाता है। मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है। इस नाते दूसरों के प्रति सहयोगी बनना उसका मूल स्वभाव है। अन्तःकरण में सेवा-भाव का उद्रेक तभी होता है जब "प्रात्मवत सर्वभूतेष" जैसा उदात्त विचार शेष सृष्टि के साथ आत्मीय संबंध जोड़ पाता है। इस स्थिति में जो सेवा की जाती है वह एक प्रकार से सहज स्फूर्त सामाजिक दायित्व ही होता है। लोक-कल्याण के लिये अपनी सम्पत्ति विसजित कर देना एक बात है और स्वयं सक्रिय घटक बन कर सेवा कार्यों में जट जाना दूसरी बात है। पहला सेवा का नकारात्मक रूप है जबकि दूसरी में सकारात्मक रूप । इसमें सेवाव्रती 'स्लीपिंग पार्टनर' बन कर नहीं रह सकता, उसे सजग प्रहरी बन कर रहना होता लोक-सेवक में सरलता, महृदयता और संवेदनशीलता का गुण होना आवश्यक है। सेवाव्रती को किसी प्रकार का अहम् न छ पाये और वह सत्तालिप्सु न बन जाये, इस बात की सतर्कता पद-पद पर बरतनी जरूरी है। विनय को, जो धर्म का मूल कहा गया है, उसकी अर्थवत्ता इस संदर्भ में बड़ी गहरी है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक-सेवा के नाम पर अपना स्वार्थ साधने वालों को महावीर ने इस प्रकार चेतावनी दी है: असंविभागी प्रसंगहरुई अप्पमाणभोई । से तारिसए नाराहए वयमिणं ।। अर्थात--जो असंविभागी है-जीवन साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व की सत्ता स्थापित कर दूसरों के प्रकृति प्रदत्त संविभाग को नकारता है, असंग्रहरुचि-जो अपने लिये ही संग्रह करके रखता है और दूसरों के लिये कुछ भी नहीं रखता, अप्रमाण भोजी-मर्यादा से अधिक भोजन एवं जीवन-साधनों का स्वयं उपभोग करता है, वह आराधक नहीं, विराधक है। 4. सार्वजनीनता.-स्वतन्त्रता, समानता और लोककल्याण का भाव सार्वजनीनता (धर्म निरपेक्षता) की भूमि में ही फल-फूल सकता है। धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्म-विमुखता या धर्म-रहितता न होकर असाम्प्रदायिक भावना और सार्वजनीन समभाव से है। हमारे देश में विविध धर्म और धर्मानुयायी हैं। इन विविध धर्मों के अनुयायियों में पारस्परिक सौहार्द, सम्मान और ऐक्य की भावना बनी रहे, सब को अपने-अपने ढंग से उपासना करने और अपने-अपने धर्म का विकास करने का पूर्ण अवसर मिले तथा धर्म के आधार पर किसी के साथ भेद भाव या पक्षपात न हो, इसी दृष्टि से धर्म निरपेक्षता हमारे संविधान का महत्वपूर्ण अंग बना है। धर्म निरपेक्षता की इस अर्थभूमि के अभाव में न स्वतन्त्रता टिक सकती है और न समानता और न लोक कल्याण की भावना पनप सकती है। जैन तीर्थंकरों ने सभ्यता के प्रारम्भ में ही शायद यह तथ्य हदयंगम कर लिया था। इसीलिये उनका सारा चिन्तन धर्म-निरपेक्षता अर्थात सार्वजनीन समभाव के रूप में ही चला। इस संबंध में निम्नलिखित तथ्य विशेष महत्वपूर्ण हैं:-- (1) जैन तीर्थंकरों ने अपने नाम पर धर्म का नामकरण नहीं किया। 'जैन' शब्द, बाद का शब्द है। इसे समण (श्रमण), अर्हत् और निर्ग्रन्थ धर्म कहा गया है। 'श्रमण' शब्द समभाव, श्रमशीलता और वृत्तियों के उपशमन का परिचायक है। अर्हत् शब्द भी गुणवाचक है। जिसने पूर्ण योग्यता-पूर्णता प्राप्त करली है वह है-अर्हत् । जिसने सब प्रकार की ग्रन्थियों से छुटकारा पा लिया है वह है 'निर्ग्रन्थ'। जिन्होंने राग-द्वेष रूप शत्रुनों-पान्तरिक विकारों को जीत लिया है वे 'जिन' कहे गये हैं और उनके अनुयायी जैन। इस प्रकार जैन धर्म किसी विशेष व्यक्ति, सम्प्रदाय या जाति का परिचायक न होकर उन उदात्त जीवन आदर्शों और सार्वजनीन भावों का प्रतीक है जिनमें संसार के सभी प्राणियों के प्रति प्रात्मौपम्य मैत्री-भाव निहित है। (2) जैन धर्म में जो नमस्कार मंत्र है, उसमें किसी तीर्थंकर, प्राचार्य या गुरु का नाम लेकर वन्दना नहीं की गई है। उसमें पंच परमेष्ठियों को नमन किया गया है-णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो पायरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं । अर्थात् जिन्होंने अपने अन्तरंग शन्नों पर विजय प्राप्त करली है, उन अरिहन्तों को नमस्कार हो, जो संसार के जन्ममरण के चक्र से शुद्ध परमात्मा बन गये हैं उन सिद्धों को नमस्कार हो, जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप आदि प्राचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरों से करवाते हैं, उन प्राचार्यों को नमस्कार हो, जो पागमादि ज्ञान के विशिष्ट ब्याख्याता हैं और जिनके सालिध्य में रहकर दूसरे अध्ययन करते हैं, उन उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक में जितने भी सत्पुरुष हैं, उन सभी साधनों को नमस्कार हो, चाहे वे किसी जाति, धर्म, मत या तीर्थ से संबंधित हो। कहना न होगा कि नमस्कार मंत्र का यह गुणनिष्ठ आधार जैन दर्शन की उदारचेता सार्वजनीन भावना का मेरुदण्ड है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) जैन दर्शन ने आत्म-विकास अर्थात मुक्ति को सम्प्रदाय के साथ नहीं बल्कि धर्म के साथ जोड़ा है। महावीर ने कहा-किसी भी परम्परा या सम्प्रदाय में दीक्षित, किसी भी लिंग में स्त्री हो या पुरुष, किसी भी वेश में साधु हो या गृहस्थ, व्यक्ति अपना पूर्ण विकास कर सकता है। उसके लिये यह आवश्यक नहीं कि वह महावीर द्वारा स्थापित धर्म-संघ में ही दीक्षित हो। महावीर ने अश्रुत्वा केवली को जिसने कभी भी धर्म को सुना भी नहीं, परन्तु चित्त की निर्मलता के कारण, केवल ज्ञान की कक्षा तक पहुंचाया है। पन्द्रह प्रकार के सिद्धों में अन्य लिंग और प्रत्येक बूद्ध सिद्धों को जो किसी सम्प्रदाय या धार्मिक परम्परा से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि अपने ज्ञान से प्रबुद्ध होते हैं, सम्मिलित कर महावीर ने साम्प्रदायिकता की निस्सारता सिद्ध कर दी है। वस्तुतः धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्म के सत्य से साक्षात्कार करने की तटस्थ वृत्ति से है। निरपेक्षता अर्थात् अपने लगाव और दूसरों के द्वेष भाव के परे रहने की स्थिति। इसी अर्थ में जैन दर्शन में धर्म की विवेचना करते हुए वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है। जब महावीर से पूछा गया कि आप जिसे नित्य,ध्रुव और शाश्वत धर्म कहते हैं वह कौनसा है ? तब उन्होंने कहाकिसी प्राणी को मत मारो, उपद्रव मत करो, किसी को परिताप न दो और न किसी की स्वतन्त्रता का अपहरण करो। इस द ष्टि से जैन धर्म के तत्व प्रकारान्तर से जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना के ही तत्व हैं। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना से प्रारम्भ से ही अपने तत्कालीन संदर्भो में, सम्पृक्त रहा है। उसकी दृष्टि जनतन्त्रात्मक परिवेश में राजनैतिक क्षितिज तक ही सीमित नहीं रही है। उसने स्वतन्त्रता और समानता जैसे जनतान्त्रिक मल्यों को लोकभूमि में प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह जैसे मूल्यवान भूत्र दिये हैं और वैयक्तिक तथा सामाजिक धरातल पर धर्मसिद्धांतों की मनोविज्ञान और समाजविज्ञान सम्मत व्यवस्था दी है। इससे निश्चय ही सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में सांस्कृतिक स्वराज्य स्थापित करने की दिशा मिलती है। सांस्कृतिक समन्वय और भावनात्मक एकताः जैन धर्म ने सांस्कृतिक समन्वय और एकता की भावना को भी बलवती बनाया । यह समन्वय विचार और आचारदोनों क्षेत्रों में देखने को मिलता है। विचार-समन्वय के लिये अनेकान्त दर्शन की देन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भगवान् महावीर ने इस दर्शन की मूल भावना का विश्लेषण करते हए सांसारिक प्राणियों को बोध दिया--किसी बात को सिद्धान्त को एक तरफ से मत देखो, एक ही तरह उस पर विचार मत करो। तुम जो कहते हो वह सच होगा पर दूसरे जो कहते हैं वह भी सच हो सकता है। इसलिये सुनते ही भड़को मत, वक्ता के दृष्टिकोण से विचार करो। आज संसार में जो तनाव और द्वन्द्व है वह दूसरों के दृष्टिकोण को न समझने या विपर्यय रूप से समझने के कारण है। अगर अनेकान्तवाद के आलोक में सभी व्यक्ति और राष्ट्र चिन्तन करने लग जायें तो झगड़े की जड़ ही न रहे। मानव-संस्कृति के रक्षण और प्रसार में जैन धर्म की यह देन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आचार-समन्वय की दिशा में मुनि-धर्म और गृहस्थ धर्म की व्यवस्था दी है। प्रवृति और निवृत्ति का सामंजस्य किया गया है। ज्ञान और क्रिया का, स्वाध्याय और सामायिक का सन्तुलन इसीलिये आवश्यक माना गया है। मुनिधर्म के लिये महाव्रतों के परिपालन का विधान है। वहां सर्वथा-प्रकारेण हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह के त्याग की बात कही गई है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 गृहस्थ धर्म में अणुवतों की व्यवस्था दी गई है, जहां यथाशक्य इन प्राचार-नियमों का पालन अभिप्रेत है। प्रतिमाधारी श्रावक वानप्रस्थाश्रमी की तरह और साध संन्यासाश्रमी की तरह माना जा सकता है। सांस्कृतिक एकता की दष्टि से जैनधर्म का मल्यांकन करते समय यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि उसने सम्प्रदायवाद, जातिवाद, प्रान्तीयतावाद, आदि सभी मतभेदों को त्याग कर राष्ट्र-देवता को बड़ी उदार और आदर की दृष्टि से देखा है । सामान्यतः धर्म के विकसित होने के कुछ विशिष्ट क्षेत्र होते हैं। उन्हीं दायरों में वह धर्म बन्धा हुया रहता है पर जैन धर्म इस दृष्टि से किसी जनपद या प्रान्त विशेष में ही बन्धा हुआ नहीं रहा। उसने भारत के किसी एक भाग विशेष को ही अपनी श्रद्धा का, साधना का और चिन्तना का क्षेत्र नहीं बनाया। वह सम्पूर्ण राष्ट्र को अपना मानकर चला। धर्म का प्रचार करने वाले विभिन्न तीर्थकरों की जन्मभूमि, दीक्षास्थली, तपोभूमि, निर्वाणस्थली, आदि अलग-अलग रही हैं। भगवान महावीर विदेह (उत्तर विहार) में उत्पन्न हए तो उनका माधना क्षेत्र व निर्वाण स्थल मगध (दक्षिण विहार) रहा। तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म तो वाराणसी में हया पर उनका निर्वाण स्थल बना सम्मेतशिखर। प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव अयोध्या में जन्मे, पर उनकी तपोभूमि रही कैलाश पर्वत और भगवान अरिष्टनेमि का कम व धर्म क्षेत्र रहा गुजरात-सौराष्ट्र । दक्षिण भारत में इसके प्रचार-प्रसार का सम्बन्ध भद्रबाहु से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि 300 ई. पूर्व के लगभग जब उत्तर भारत में द्वादशवर्षीय दुष्काल पड़ा तब उसके निवारणार्थ श्रतकेवली भद्रबाह, चन्द्रगुप्त मौर्य व अन्य मुनियों तथा श्रावकों के साथ कर्नाटक में जाकर कल्वधु (वर्तमान श्रवण बेलगोल) में बसे। लगता है यहां इसके पूर्व भी जैनधर्म का विशेष प्रभाव था। इसी कारण यहां भद्रबाहु को अनुकूलता रही। यहीं से भद्रबाहु ने अपने साथी मुनि विशाख' को तमिल प्रदेश भेजा। वर्ण-व्यवस्था के दुष्परिणाम से पीड़ित तमिलनाडू जैन धर्म के सर्वजाति समभाव सिद्धान्त से अत्यन्त प्रभावित हया और वहां उसका खब प्रचार-प्रसार हुआ। तिरुवल्लुवर का 'ति रुकूरल' तमिलवेद के रूप में समादत हया। इसमें 13 30 कुरलों के माध्यम से धर्म, अर्थ और काम की सम्यक व्याख्या की गई है। ग्रान्ध्रप्रदेश भी जैन धर्म से प्रभावित रहा। प्रसिद्ध प्राचार्य कालक पैठन के राजा के गुरु थे। इस प्रकार देश की चप्पा-चप्पा भूमि इस धर्म की श्रद्धा और शक्ति का प्राधार बनी। जैन धर्म की यह सांस्कृतिक एकता देशगतही नहीं रही। भाषा और साहित्य में भी उसने ममन्वय का यह प्रौदार्य प्रकट किया। जैनाचार्यों ने संस्कृत को ही नहीं अन्य सभी प्रचलित लोक-भाषाओं को अपनाकर उन्हें समचित सम्मान दिया। जहां-जहां भी वे गए वहां-वहां की भाषानों को चाहे वे प्रार्य-परिवार की हों, चाहे द्राविड परिवार की-अपने उपदेश और साहित्य का माध्यम बनाया। इसी उदार प्रवृत्ति के कारण मध्ययुगीन विभिन्न जनपदीय भाषाओं के मूल रूप सुरक्षित रह सके हैं। ग्राज जब भाषा के नाम पर विवाद और मतभेद हैं तब ऐसे समय में जैन धर्म की यह उदार दृष्टि अभिनन्दनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है। माहित्यिक समन्वय की ष्टि से तीर्थंकरों के अतिरिक्त राम और कृष्ण जैसे लोकप्रिय चरित्र-नायकों को जैन साहित्यकारों ने सम्मान का स्थान दिया। ये चरित्र जैनियों के अपने बन कर पाए हैं। यही नहीं, जो पात्र बन्यत्र घृणित और बीभत्स दृष्टि से चित्रित किए गए हैं वे भी यहां उचित सम्मान के अधिकारी बने हैं। इसका कारण शायद यह रहा कि जैन साहित्यकार दूसरों की भावनाओं को किसी प्रकार की टेन नहीं पहुंचाना चाहते थे। यही कारण है कि वासुदेव के शत्रुओं को भी प्रतिवासुदेव का उच्च पद दिया गया है। नाग, यक्ष प्रादि को भी अनार्य न मान कर तीर्थ करों का रक्षक माना है और उन्हें देवालयों में स्थान दिया है। कथा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 प्रबन्धों में जो विभिन्न छन्द और राग-रागिनियां प्रयक्त हुई हैं उनकी तर्जे वैष्णव साहित्य के सामंजस्य को भूचित करती हैं। कई जैनेतर संस्कृत और डिंगल ग्रंथों की लोकभाषाओं में टीकायें लिख कर भी जैन विद्वानों ने इस सांस्कृतिक विनिमय को प्रोत्साहन दिया है। जैन धर्म अपनी समन्वय भावना के कारण ही सगुण और निर्गण दोनों प्रकार की भक्ति पद्धति का आदर कर सका। गोस्वामी तुलसीदास के समय इन दोनों भक्ति धाराओं में जो समन्वय दिखाई पड़ता है उसके बीज जैन भक्तिकाल में प्रारम्भ से मिलते हैं। जैन दर्शन में निराकार प्रात्मा और वीतराग साकार भगवान के स्वरूप में एकता के दर्शन होते हैं। पंचपरमेष्ठी महामन्त्र में मगुण और निर्गुण भक्ति का सुन्दर सामंजस्य है। अर्हन्त मकल परमात्मा हैं, के सशरीर हैं जबकि गिद्ध निराकार हैं। एक ही मंगलाचरण में इस प्रकार का समभाव अन्यत्र दुर्लभ है। जैन धर्म का लोक संग्राहक रूप : धर्म का प्राविभव जब कभी या विषमता में समता, अव्यवस्था में व्यवस्था और अपूर्णता में सम्पूर्णता स्थापित करने के लिये ही हया। अतः यह स्पष्ट है कि इसके मल में वैयक्तिक अभिक्रम अवश्य रहा पर उसका लक्ष्य समष्टिमूलक हित ही रहा है, उसका चिन्तन लोकहित की भमिका पर ही अग्रपर हया है। पर सामान्यत: जब कभी जैन धर्म या श्रमण धर्म के लोक-संग्राहक रूप की चर्चा चलती है तब लोग चप्पी साध लेते हैं। इसका कारण मेरी समझ में यह रहा है कि जैन दर्शन में वैयक्तिक मोक्ष पर बल दिया गया है। पर जब हम जैन दर्शन का सम्पूर्ण संदों में अध्ययन करते हैं तो उसके लोक-संग्राहक रूप का मूल उपादान प्राप्त हो जाता है। लोक-संग्राहक रूप का सबसे बड़ा प्रमाण है लोक-नायकों के जीवन-क्रम की पवित्रता, उनके कार्य-व्यापारों की परिधि और जीवन-लक्ष्य की व्यापकता। जैन धर्म के प्राचीन ग्रन्थों में ऐसे कई उल्लेख आते हैं कि राजा श्रावक धर्म अंगीकार कर, अपनी सीमायों में रहते हए, लोककल्याणकारी प्रवृत्तियों का संचालन एवं प्रसारण करता है। पर काल-प्रवाह के साथ उसका चिन्तन बढ़ता चलता है और वह देश विरति श्रावक से सर्वविरति श्रमण बन जाता है। सांसारिक माया-मोह, गरिवारिक प्रपंच, देह-यासक्ति आदि से विरत होकर वह सच्चा साध, तपस्वी और लोक-सेवक बन जाता है। इस रूप या स्थिति को अपनाते ही उसकी दष्टि अत्यन्त व्यापक और उसका हृदय अत्यन्त उदार बन जाता है। लोक-कल्याण में व्यवधान पैदा करने वाले सारे तत्त्व अब पीछे छूट जाते हैं और वह जिस साधना पर बढ़ता है उसमें न किसी के प्रति राग होता है न द्वेष । वह सच्चे अर्थों में श्रमण है। श्रमण के लिये शमन, समण आदि शब्दों का भी प्रयोग होता है। उनके मूल में भी लोक-संग्राहक वृत्ति काम करती रही है। लोक-संग्राहत वृत्ति का धारक मामान्य पुरुष हो ही नहीं सकता। उसे अपनी साधना से विशिष्ट गुणों को प्राप्त करना पड़ता है, कोधादि कषायों का शमन करना पड़ता है, पांव इंद्रियों और मन को वशवर्ती बनाना पड़ता है, शत्रु-मित्र तथा स्वजन-परिजन की भेद भावना को दूर हटाकर सब में समताभाव नियोजित करना पड़ता है,समस्त प्राणियों के प्रति समभाव की धारणा करनी पड़ती है। तभी उसमें सच्चे श्रमण-भाव का रूप उभरने लगता है। वह विशिष्ट माधना के कारण तीर्थकर तक बन जाता है। ये तीर्थ कर तो लोकोपदेशक ही होते हैं। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 इस महान् साधना को जो साध लेता है वह श्रमण बारह उपमानों से उपमित किया गया है:-- उरग-गिरि-जलण-सागर णहतल-तरुगण-समो य जो होई । भमर-मिय-धरणि-जलरुह रवि-पवण समो य सो समणो ।। अर्थात् जो सर्प, पर्वत, अग्नि, सागर, आकाश, वृक्षपवित, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य, और पवन के समान होता है, वह श्रमण कहलाता है। ये सब उपमायें सामिप्राय दी गई हैं। सर्प की भांति ये साधु भी अपना कोई घर (बिल) नहीं बनाते। पर्वत की भांति ये परीषहों और उपसर्गों की प्रांधी से दोलायमान नहीं होते। अग्नि की भांति ज्ञान रूपी ईन्धन से ये तप्त नहीं होते। समुद्र की भांति अथाह ज्ञान को प्राप्त कर भी ये तीर्थंकर की मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते । अाकाश की भांति ये स्वाश्रयीस्वालम्बी होते हैं, किसी के अवलम्बन पर नहीं टिकते। वृक्ष की भांति समभाव पूर्वक दुःखसुख को सहन करते हैं। भ्रमर की भांति किसी को बिना पीडा पहंचाये शरीर-रक्षण के लिये आहार ग्रहण करते हैं। मृग की भांति पापकारी प्रवृत्तियों के सिंह से दूर रहते हैं। पृथ्वी की भांति, शीत, ताप, छेदन, भेदन अादि कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करते हैं । कमल की भांति वासना के कीचड़ और वैभव के जल से अलिप्त रहते हैं। सूर्य की भांति स्वसाधना एवं लोकोपदेशना के द्वारा अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं। पवन की भांति सर्वत्र अप्रतिबद्ध रूप से विचरण करते हैं। ऐसे श्रमणों का वैयक्तिक स्वार्थ हो ही क्या सकता है ? __ ये श्रमण पूर्ण अहिंसक होते हैं। षट्काय । (पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और वसकाय) जीवों की रक्षा करते हैं। न किसी को मारते हैं, न किसी को मारने की प्रेरणा देते हैं और न जो प्राणियों का वध करते हैं, न उनकी अनुमोदना करते हैं। इनका यह अहिंसा प्रेम अत्यन्त सूक्ष्म और गंभीर होता है। ये अहिंसा के साथ-साथ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के भी उपासक होते हैं। किसी की वस्तु बिना पूछे नहीं उठाते। कामिनी और कंचन के सर्वथा त्यागी होते हैं। पावश्यकता से भी कम वस्तुओं का सेवन करते हैं। संग्रह करना तो इन्होंने सीखा ही नहीं। ये मनसा, वाचा, कर्मणा किसी का वध नहीं करते। हथियार उठाकर किसी अत्याचारी, अन्यायी राजा का नाश नहीं करते, लेकिन इससे उनके लोक संग्रही रूप में कोई कमी नहीं पाती। भावना की दृष्टि से तो उसमें और वैशिष्ट्य आता है। ये श्रमण पापियों को नष्ट कर उनको मौत के घाट नहीं उतारते वरन उन्हें आत्मबोध और उपदेश देकर सही मार्ग पर लाते हैं। ये पापी को मारने में नहीं, उसे सुधारने में विश्वास करते हैं। यही कारण है कि महावीर ने विषदृष्टि सर्प चण्डकौशिक को मारा नहीं वरन् अपने प्राणों को खतरे में डाल कर, उसे उसके अात्मस्वरूप से परिचित कराया। बस फिर क्या था? वह विष से अमत बन गया । लोक-कल्याण की यह प्रक्रिया अत्यन्त सूक्ष्म और गहरी है। इनका लोक-संग्राहक रूप मानव सम्प्रदाय तक ही सीमित नहीं है। ये मानव के तनिक हित के लिये अन्य प्राणियों का बलिदान करना व्यर्थ ही नहीं धर्म के विरुद्ध समझते हैं। इनकी यह लोकसंग्रह की भावना इसलिये जनतन्त्र से आगे बढ़कर प्राणतन्त्र तक पहुंची है। यदि प्रयतना से किसी जीव का वध हो जाता है या प्रमादवश किसी को कष्ट पहंचता है तो ये उन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 सब पापों से दूर हटने के लिये प्रात:-सायं प्रतिक्रमण (प्रायश्चित) करते हैं। ये नंगे पैर पैदल चलते हैं। गांव-गांव और नगर-नगर में विचरण कर नैतिक चेतना और सषप्त पुरुषार्थ को जागत करते हैं। चातुर्मास के अलावा किसी भी स्थान पर नियत-वास नहीं करते। अपने पास केवल इतनी वस्तुयें रखते हैं जिन्हें ये अपने आप उठाकर विचरण कर सकें। भोजन के लिये गृहस्थों के यहां से भिक्षा' लाते हैं। भिक्षा भी जितनी आवश्यकता होती है उतनी ही। दूसरे समय के लिये भोजन का संचय ये नहीं करते। रात्रि में न पानी पीते हैं न कुछ खाते हैं। इनकी दैनिक चर्या भी बड़ी पवित्र होती है। दिन-रात ये स्वाध्याय, मनन-चिन्तन, लेखन और प्रवचन आदि में लगे रहते हैं। सामान्यतः ये प्रतिदिन संसार के प्राणियों को धर्मबोध देकर कल्याण के मार्ग पर अग्रसर करते हैं। इनका समचा जीवन लोक-कल्याण में ही लगा रहता है। इस लोकसेवा के लिये ये किसी से कुछ नहीं लेते। श्रमण धर्म की यह प्राचारनिष्ठ दैनन्दिनचर्या इस बात का प्रबल प्रमाण है कि ये श्रमण सच्चे अर्थों में लोक-रक्षक और लोकसेवी हैं। यदि आपत्काल में अपनी मर्यादानों से तनिक भी इधर-उधर होना पड़ता है तो उसके लिये भी ये दण्ड लेते हैं, व्रत-प्रत्याख्यान करते हैं। इतना ही नहीं जब कभी अपनी साधना में कोई बाधा आती है तो उसकी निव त्ति के लिये परीषह और उपसर्ग आदि की सेवना करते हैं। मैं नहीं कह सकता, इससे अधिक आचरण की पवित्रता, जीवन की निर्मलता और लक्ष्य की सार्वजनीनता और किस लोक-संग्राहक की होगी? सामान्यतः यह कहा जाता है कि जैनधर्म ने संसार को दुःखमूलक बताकर निराशा की भावना फैलाई है, जीवन में संयम और विराग की अधिकता पर बल देकर उसकी अन राग भावना और कला प्रेम को ठित किया है। पर यह कथन साधार नहीं है, भ्रांतिमलक है। यह ठीक है कि जैन धर्म ने संसार को दुःखमूलक माना, पर किसलिये? अखण्ड आनन्द की प्राप्ति के लिये, शाश्वत सुख की उपलब्धि के लिये। यदि जैन धर्म संसार को दु:खपूर्ण मान कर ही रुक जाता, सुख प्राप्ति की खोज नहीं करता, उसके लिये साधना-मार्ग की व्यवस्था नहीं देता तो हम उसे निराशावादी कह सकते थे, पर उसमें तो मानव को महात्मा बनाने की आत्मा को परमात्मा बनाने की आस्था का बीज छिपा हुआ है। देववाद के नाम पर अपने को असह्य और निर्बल समझी जाने वाली जनता को किसने प्रात्म-जागति का सन्देश दिया? किसने उसके हृदय में छिपे हुये पुरुषार्थ को जगाया ? किसने उसे अपने भाग्य का विधाता बनाया ? जैन धर्म की यह विचारधारा युगों बाद आज भी बुद्धिजीवियों की धरोहर बन रही है, संस्कृति को वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान कर रही है। यह कहना भी कि जैन धर्म निरा निवृत्तिमूलक है, ठीक नहीं है। जीवन के विधान पक्ष को भी उसने महत्व दिया है। इस धर्म के उपदेशक तीर्थंकर लौकिक-अलौकिक बैभव के प्रतीक हैं। दैहिक दृष्टि से वे अनन्त बल, अनन्त सौन्दर्य और अनन्त पराक्रम के धनी होते हैं। इन्द्रादि मिलकर उनके पंच कल्याणक महोत्सवों का आयोजन करते हैं। उपदेश देने का उनका स्थान (समवसरण) कलाकृतियों से अलंकृत होता है। जैन धर्म ने जो निवृत्तिमूलक बातें कहीं हैं, वे केवल उच्छृखलता और असंयम को रोकने के लिये ही हैं। जैन धर्म की कलात्मक देन अपने आप में महत्वपूर्ण और अलग से अध्ययन की अपेक्षा रखती है। वास्तुकला के क्षेत्र में विशालकाय कलात्मक मन्दिर, मेरुपर्वत की रचना, नंदीश्वर द्वीप व समवसरण की रचना, मानस्तम्भ, चैत्य, स्तूप आदि उल्लेखनीय हैं। मूर्तिकला में विभिन्न तीर्थंकरों की मूर्तियों को देखा जा सकता है। चित्रकला में भित्तिचित्र, ताडपत्रीय चित्र, काष्ट चित्र, लिपिचित्र, वस्त्र चित्र पाश्चर्य में डालने वाले हैं। इस प्रकार निवृत्ति और Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 प्रवत्ति का समन्वय कर जैन धर्म ने संस्कृति को लचीला बनाया है। उसकी कठोरता को कला की बांह दी है तो उसकी कोमलता को संयम की दृढ़ता। माहित्य-निर्माण के प्रेरक तत्त्व: जैन साहित्य निर्माण लौकिक यग और सम्पदा प्राप्ति के लिए न किया जाकर यात्मशद्धि, मामाजिक जागरण और लोक मंगल की भावना से प्रेरित होकर दिया जाता रहा है। यों तो साहित्य निर्माण में मन्तों और गृहस्थों दोनों का योग रहा है पर साहित्य का शधिकांश भाग मन्तों द्वारा ही निमित रहा है। सन्तों की यात्मानुभूति और लोक सम्पर्कका व्यापक अनुभव इस साहित्य को जीवन्त, प्राणवान और लोकभोग्य बनाये हुए है। तटस्थ वृत्ति और उदार दृष्टिकोण के कारण जीवन के नानाविध पक्षों को स्पर्श करने वाला यह साहित्य केवल भावना के स्तर पर ही निर्मित नहीं हया है, ज्ञान-चेतना के स्तर पर धर्मेतर विषयों से सम्बद्ध, यथा-गणित, वैद्य क, ज्योतिष, स्थापत्य पर भी विपूल परिमाण में साहित्य रचा गया है। साहित्य समाज का दर्पण होता है। उसमें यग विशेष की घटनायें और प्रवत्तियां प्रतिविम्बित होती हैं। जैन साहित्य भी अपने युग के घटना-चक्रों से प्रेरित-प्रभावित रहा है और कि मन्तों का सम्बन्ध उच्च-वर्ग से लेकर सामान्य-वर्ग तक बराबर बना रहता है, इस कारण यह साहित्य केवल आभिजात्य वर्ग की मनोवृत्ति का चितेरा बन कर नहीं रह गया है, इसमें सामान्य जन की आशा-याकांक्षा और लोक-जीवन की चित्त-वृतियां यथार्थ-रूप में चित्रित प्रतिदिन प्रवचन देना जैन सन्तों का मख्य कर्तव्य-कर्म है। प्रवचन रोचक और सरस होने के साथ-साथ श्रोताओं में ग्रौत्सुक्य वृत्ति जनाये रख, तथा गढ़ दार्शनिक-तात्विक सिद्धान्त सहज हृदयंगम हो जायें, इस भावना से जैन सन्तप्रायः कथा-काव्य या चरित-काव्य की सष्टि बराबर करते रहे हैं। अपने शिष्यों और धावकों में नियमित रूप से अध्ययन और स्वाध्याय का क्रम चलता रहे, इस भावना से प्रेरित होकर भी समय-समय पर नये ग्रन्थों की रचनायें होती रही है तथा प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थों पर टीकायें, व्याख्यायें और वचनिकायें लिखी जाती रही है। विभिन्न पर्व तिथियों, धार्मिक उत्सवों, जयन्नियों और विशेष समारोहों पर भी सामयिक साहित्य रचा जाता रहा है। श्रद्धेय महापुरुषों, प्रभावशाली मनि-प्राचायों और विशिष्ट श्रावकों तथा प्रेरणादायी चरितों पर भी इतिहास की संवेदना के धरातल से जीवनी परक साहित्य लिखा जाता रहा है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्राचीन गौरव-गान, पाराध्य के प्रति भक्ति-भाव, सिद्धान्त-निरूपण, व्यावहारिक ज्ञान, चरित्र-गठन, समाज-सुधार, राष्ट्रीय-जागरण, लोकमंगल और विश्वजनीन भावों की स्फरणा पैदा करने की भावना जैन साहित्य निर्माण में मल प्रेरणा और कारक रही है। साहित्य-रक्षण के प्रयत्न : जैन साहित्य के मूल ग्रन्थ आगम हैं जो द्वादशांगी' कहे जाते हैं। जैन मान्यतानुसार तीर्थकर अपनी देशना में जो अभिव्यक्त करते हैं, उनके प्रमुख शिष्य गणधर शासन के हितार्थ अपनी शैली में उन्हें सूत्रबद्ध करते हैं। वे ही बारह अंग प्रत्येक तीर्थकर के शासन-काल में 'द्वादशांगी' सूत्र के रूप में प्रचलित एवं मान्य होते है। 'द्वादशांगी' का 'गणिपिटक' के नाम मे भी उल्लेख किया गया है। इस मान्यता के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी काल के अन्तिम चौबीसवें तीर्थ कर भगवान महावीर द्वारा चविध तीर्थ की स्थापना के दिन जो प्रथम उपदेश इन्द्रभूति आदि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ग्यारह गणधरों को दिया गया, वह "द्वादशांगी" के रूप में सुत्रबद्ध किया गया। बारहवें अंग दृष्टिवाद का तो आज से बहुत समय पहले विच्छेद हो गया। ग्राज जो एकादशांगी उपलब्ध है वह आर्य सुधर्मा की बाचना का ही परिणाम है। समय-समय पर दीर्घकाल के दुभिक्ष आदि देवी-प्रकोप के कारण श्रमण वर्ग एकादशांगी के पाठों का स्मरण, चिन्तन ,मनन आदि नहीं कर सका, परिणाम स्वरूप सूत्रों के अनेक पाठविस्मत होने लगे। अत: अंग शास्त्रों की रक्षा हेतु वीर निर्वाण संवत् 160 में स्थूलभद्र के तत्वावधान में पाटलिपुत्र में प्रथम आगम वाचनाहई। फलस्वरूप विस्मृत पाठों को यथातथ्यरूपेण संकलित कर विनष्ट होने से बचा लिया गया । वीर निर्वाण संवत 830 से 840 के बीच विषम स्थिति होने से फिर पागम-विच्छेद की स्थिति उत्पन्न हो गई प्रतः स्कन्दिलाचार्य के तत्वावधान में मथुरा में उत्तर भारत के श्रमणों की दुसरी वाचना हई, जिसमें जिस-जिस स्थविर को जो-जो श्रुत पाटस्मरण था, उसे सुन-सुनकर प्रागमो के पाठ को सुनिश्चित किया गया। मथुरा में होने के कारण यह वाचना माथरी वाचना के नाम से भी प्रसिद्ध है। ठीक इसी समय नागार्जन सरसोयनागार्जन ने दक्षिणापथ के श्रमणों को एकत्र कर वल्लभी में वाचना की। इसके 150 वर्ष बाद वीर निर्वाण संवत् 980 में देवद्धि क्षमा श्रमण के तत्वावधान म वल्लभी में तीसरी वाचनाहई जिसमें शास्त्र लिपिबद्ध किये गये। कहा जाता है कि समय की विषमता. मानसिक दुर्वलता औरधा की मन्दता श्रादि कारणों से जब सूत्रार्थ का ग्रहण एवं परावर्तन कम हो गया, तो देवद्धि ने शास्त्रों को लिपिबद्ध करने का निर्णय किया। इसके पूर्व सामान्यतः शास्त्र श्रुति परम्परा से ही सुरक्षित थे। देवद्धि क्षमाश्रमण के प्रत्यनों से ही शास्त्र पहली बार व्यवस्थित रूप में लिपिबद्ध किये गये। दिगम्बर परम्परा की मान्यता के अनसार वीर निर्वाण संवत 683 में ही सम्पूर्ण द्वादशांगी बिलुप्त हो गई। जैन धर्म में स्वाध्याय को प्राभ्यन्तर तप का अंग माना गया है। स्वाध्याय के लिए ग्रन्थों का होना आवश्यक है। अत: नये-नये ग्रन्थों की रचना के साथ-साथ उनकी सुरक्षा करना भी धर्म का महत्त्वपूर्ण अंग बन गया। मुद्रण के आविष्कार से पूर्व ग्रन्थ पांडुलिपियों के रूप में ही सुरक्षित रहते थे। उनकी सुरक्षा के लिए सन्तों की प्रेरणा से विभिन्न स्थानों पर ज्ञान भण्डार स्थापित किये जाते रहे। आज जो कुछ प्राचीन और मध्ययुगीन साहित्य उपलब्ध है, वह इन्हीं ज्ञान भण्डारों की देन है। महत्वपूर्ण ग्रन्थों की एक से अधिक प्रतिलिपियां करायी जाती थीं। ग्रन्थों का यह प्रतिलिपिकरण कार्य श्रुत-सेवा का अंग बन गया था। विशेष धार्मिक अवसरों पर यथा श्रुत-पंचमी, ज्ञान-पंचमी पर महत्वपूर्ण ग्रन्थों की प्रतिलिपियां पूर्ण कर आचार्यों और ज्ञान भण्डारों को समर्पित की जाती थी। प्रतिलिपिकरण का यह कार्य सन्तों और सतियों द्वारा भी सम्पन्न होता रहा । साहित्य-रक्षण में जैन समाज की बड़ी उदार दृष्टि रही है। गणग्राहक होने से जहां भी जीवन-उन्नायक सामग्री मिलती, जैन पंत उन्हें लिख लेते। इस प्रकार एक ही गुटके में विभिन्न लेखकों और विविध विषयों की ज्ञान वर्धक, प्रात्मोत्कर्षक, जीवनोपयोगी सामग्री संचित हो जाती। ऐसे अनेक गटके आज भी विभिन्न जान भण्डारों में संगहीत हैं। जैन सन्त अपने प्रवचनोंग "ामान्यत: नैतिक शिक्षण के माध्यम से, सही ढंग से जीने की कला सिखाते हैं। यही कारण है कि उनके प्रवचनों में जैन कथाओं के साथ-साथ अन्य धमो तथ लोक-जीवन की विविध कथायें, हान्त और उदाहरण यथाप्रसंग आते रहते है। ठीक यही उदार भावना ग्रन्थों के संरक्षण और प्रतिलिपिकरण में रही है। इसका सूखद परिणाम यह Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 हा कि जैन ज्ञान भण्डारों में धर्म तथा धर्मेत्तर विषयों के भी कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ बड़ी संख्या में सुरक्षित मिलते हैं। राजस्थान इस दृष्टि से सर्वाधिक मूल्यवान प्रदेश है। हिन्दी के आदिकाल की अधिकांश सामग्री यहां के जैन ज्ञान भण्डारों से ही प्राप्त हई है। जैन साहित्य का महत्त्व : जैन साहित्य का निर्माण यद्यपि आध्यात्मिक भावना से प्रेरित होकर किया गया है पर वह वर्तमान सामाजिक जीवन से कटा हुआ नहीं है। जैन साहित्य के निर्माता जन सामान्य के अधिक निकट होने के कारण समसामयिक घटनाओं, धारणाओं और विचारणाओं को यथार्थ अभिव्यक्ति दे पाये हैं। इस दृष्टि से जैन साहित्य का महत्व केवल व्यक्ति के नैतिक सम्बन्धों की दृष्टि से ही नहीं है वरन सामाजिक-सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से भी है। आज हमें अपने देश का जो इतिहास पढ़ने को मिलता है वह मुख्यतः राजा-महाराजाओं और सम्राटों के वंशानुक्रम का इतिहास है। उसमें राजनैतिक घटना-चक्रों, युद्धों और मंधियों की प्रमुखता है। उसके समानान्तर चलने वाले धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों को विशेष महत्व नहीं दिया गया है और उससे सम्बद्ध स्रोतों का इतिहास लेखन में सावधानीपूर्वक बहुत कम उपयोग किया गया है। जैन साहित्य इस दष्टि से अत्यन्त मुल्यवान है। जैन सन्त ग्रामानुग्राम पादविहारी होने के कारण क्षेत्र-विशेष में घटित होने वाली छोटी सी छोटी घटना को भी सत्य रूप में लिखने के अभ्यासी रहे हैं। समाज के विभिन्न वर्गों से निकटता का सम्पर्क होने के कारण वे तत्कालीन जन-जीवन की चिन्ताधारा को सही परिप्रेक्ष्य में समझने और पकड़ने में सफल रहे हैं। इस प्रक्रिया से गुजरने के कारण उनके साहित्य में देश के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास-लेखन की प्रचुर सामग्री बिखरी पड़ी है। इतिहास-लेखन में जिस तटस्थ वृत्ति, व्यापक जीवनानुभति और प्रामाणिकता की अपेक्षा होती है, वह जैन सन्तों में सहज रूप से प्राप्य है। वे सच्चे अर्थों में लोक-प्रतिनिधि हैं। न उन्हें किसी के प्रति लगाव है न दुराव । निन्दा और स्तुति से परे जीवन की जो सहज प्रकृति और संस्कृति है, उसे अभिव्यंजित करने में ही ये लगे रहे। इनका साहित्य एक ऐसा निर्मल दर्पण है जिसमें हमारे विविध प्राचार-व्यवहार, सिद्धान्त-संस्कार, रीति-नीति, वाणिज्य-व्यवसाय, धर्म-कर्म, शिल्पकला, पर्व-उत्सव, तौर-तरीके, नियम-कानून आदि यथारूप प्रतिबिम्बित हैं । जहां तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन को जानने और समझने का जैन साहित्य सच्चा बेरोमीटर है, वहां जीवन की पवित्रता, नैतिक-मर्यादा और उदात्त जीवन-आदर्शों का व्याख्याता होने के कारण यह साहित्य समाज के लिए सच्चा पथप्रणेता और दीपक भी है। इसका अध्यता निराशा में प्राशा का सम्बल पाकर, अन्धकार से प्रकाश की ओर चरण बढ़ाता है। काल को कला में, मत्य को मंगल में और उष्मा को प्रकाश में परिणत करने की क्षमता हैइस साहित्य में । जैन साहित्य का भाषा शास्त्र के विकासात्मक अध्ययन की दष्टि से विशेष महत्त्व है। भाषा की सहजता और लोक भूमि की पकड़ के कारण इस साहित्य में जनपदीय भाषाओं के मूल रूप सुरक्षित हैं। इनके आधार पर भारतीय भाषाओं के ऐतिहासिक विकास और पारस्परिक सांस्कृतिक एकता के सूत्र आसानी से पकड़े जा सकते हैं । जैन साहित्यकार मख्यत: प्रात्मधर्मिता के उदगाता होकर भी प्रयोगधर्मी रहे हैं। अपने प्रयोग में क्रान्तिवाही होकर भी वे अपनी मिट्टी और जलवायु से जुड़े हुए हैं। अतः उनके साहित्य Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 में भारतीय अध्यात्म-धारा की प्रवहमानता देखी जा सकती है। इस दृष्टि से भारतीय साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों और धाराम्रों को इससे पुष्टता और गति मिली है। विभिन्न भाषाओं के साहित्य इतिहासों को भी जैन साहित्य के कथ्य और शिल्प ने काफी दूर तक प्रभावित किया है। हिन्दी साहित्य की आध्यात्मिक चेतना को आज तक जागृत और क्रमबद्ध रखने में जैन साहित्य की दार्शनिक संवेदना की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । जैन साहित्य की विशेषताएं : ऊपर हमने जैनदर्शन के जिन सामाजिक चेतना, सांस्कृतिक समन्वय और लोक-संग्राहक रूप के तत्त्वों की चर्चा की है, वे ही प्रकारान्तर से जैन साहित्य की वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार करते हैं अतः यहां जैन साहित्य की विचार भूमि पर विचार न करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख किया जाता है- जैन साहित्य विविध और विशाल है । सामान्यतः यह माना जाता है कि जैन साहित्य में निर्वेद भाव को ही अनेक रूपों और प्रकारों में चित्रित किया गया है । यह सच है कि जैन साहित्य का मूल स्वर शान्त रसात्मक है पर जीवन के अन्य पक्षों और सार्वजनीन विषयों की ओर से उसने कभी मुख नहीं मोड़ा है। यही कारण है कि आपको जितना वैविध्य यहां मिलेगा, कदाचित् अन्यत्र नहीं । एक ही कवि ने शृंगार की पिचकारी भी छोड़ी है और भक्ति का राग भी अलापा है । वीरता का प्रोजपूर्ण वर्णन भी किया है और हृदय को विगलित कर देने वाली करुणा की बरसात भी की है । साहित्य के रचनात्मक पक्ष से प्रार्गे बढ़कर उसने उसके बोधात्मक पक्ष को भी सम्पन्न बनाया है । व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक, मन्त्र-तन्त्र, इतिहास, भूगोल, दर्शन, राजनीति श्रादि वाङ्गमय के विविध अंग उसकी प्रतिभा का स्पर्श पा कर चमक उठे हैं । विषय की दृष्टि से सम्पूर्ण जैन साहित्य दो भागों में विभक्त किया जा सकता है (1) गम साहित्य और ( 2 ) श्रागमेतर साहित्य । श्रागम साहित्य के दो प्रकार हैं-अर्थ श्रागम और सूत्र श्रागम । तीर्थंकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट वाणी अर्थागम है। तीर्थंकरों के प्रवचन के आधार पर गणधरों द्वारा रचित साहित्य सूत्रागम है । ये श्रागम आचार्यों के लिये प्रक्षय ज्ञानभण्डार होने से गणिपिटक तथा संख्या में बारह होने से 'द्वादशांगी' नाम से भी अभिहित किये गये हैं । प्रेरणा की अपेक्षा से ये अंग-प्रविष्ट कहलाते हैं। द्वादशांगी के अतिरिक्त जो अन्य उपांग छेद, मूल नौर मावश्यक हैं, वे पूर्वधर स्थविरों द्वारा रचे गये हैं और अनंग प्रविष्ट कहलाते हैं । श्रागमेतर साहित्य के रचयिता जैन श्राचार्य, विद्वान्, सन्त आदि हैं । इसमें गद्य और पद्य के माध्यम से जीवनोपयोगी सभी विषयों पर प्रकाश डाला गया है। यह वैविध्यपूर्ण जैन साहित्य अत्यन्त विशाल है । हिन्दी साहित्य के श्रादिकाल का अधिकांश भाग तो इसी से सम्पन्न बना है । साहित्य निर्माण की यह प्रक्रिया आज तक प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी श्रादि भाषाओं में अनवरत रूप से जारी है । जैन साहित्य की यह विविधता विषय तक ही सीमित न रही। उसने रूप और शैली में भी अपना कौशल प्रकट किया । काव्य रूपों के सम्बन्ध में जैन कवियों की दृष्टि बड़ी उदार रही है। उन्होंने प्रचलित शास्त्रीय रूपों को स्वीकार करते हुए भी लोकभाषा के काव्यरूपों में व्यापकता श्रौर सहजता का रंग भरा । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 जैन धर्म जन्म से ही रूढ़िबद्धता के खिलाफ लड़ता रहा। उसे न विचार में रूढ़ परम्परायें मान्य हो सकीं और न आचार में। साहित्य और कला के क्षेत्र में भी जो बंधी-बंधायी परिपाटी चल रही थी, वह उसके प्रतिरोध के आगे न टिक सकी। उसने उसके शास्त्रीय बन्धन काट दिये । इसी का एक परिणाम यह हुआ कि जन तीर्थंकरों ने अपनी देशना तत्कालीन जन भाषा प्राकृत में दी और जब प्राकृत भी शास्त्रीयता के कटघरे में कैद हो गयी तो जैन आचार्यो ने श्रपभ्रंश में अपनी रचनायें लिखीं । आज विभिन्न प्रादेशिक भाषात्रों के जो मूल रूप सुरक्षित रह सकें हैं, उनके मूल में जैन साहित्यकारों की यह दृष्टि ही मुख्य रही कि वे हमेशा जनपदीय भाषाओं को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते रहे । भाषा के क्षेत्र में ही नहीं, छन्द और संगीत के क्षेत्र में भी यह सहजता देखने को मिलती है । शास्त्रीय छन्दों के अतिरिक्त जैन कवियों ने लोकरुचि को ध्यान में रखकर कई नये छन्द निर्मित किये और उनमें अपनी रचनाएं लिखीं। इनके ये छन्द प्रधानतः गेय रहे हैं। संगीत को शास्त्रीयता करने के लिए इन कवियों ने विभिन्न लोक- देशियों को अपनाया । प्रयुक्त ढालों में जो त हैं, वे एक प्रकर की लोक-देशियां है। इनके प्रयोग से भारत का पुरातन लोक संगीत सुरक्षित रह सका । मुक्त जैन कवियों ने काव्य रूपों की परम्परा को संकीर्ण परिधि से बाहर निकाल कर व्यापकता का मुक्त क्षेत्र प्रदान किया। प्राचार्यों द्वारा प्रतिपादित प्रबन्ध-मुक्तक की चलती आई परम्परा इन कवियों ने विभिन्न रूपों में विकसित कर, काव्यशास्त्रीय जगत में एक क्रान्ति सी मचा दी । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इन कवियों ने प्रबन्ध और मुक्तक के बीच काव्य रूपों के कई नये स्तर निर्मित किये । जैन कवियों ने नवीन काव्य रूपों के निर्माण के साथ-साथ प्रचलित काव्य रूपों को नयी भावभूमि और मौलिक प्रर्थवत्ता भी दी। इन सब में उनकी व्यापक उदार दृष्टि ही काम करती रही है । उदाहरण के लिए, वेलि, बारहमासा, विवाहलो, रासो, चौपाई, सन्धि आदि काव्यरूपों के स्वरूप का अध्ययन किया जा सकता है। 'वेलि' संज्ञक काव्य डिंगल शैली में सामान्यतः वेलियो छन्द में ही लिखा गया है, पर जैन कवियों ने वेलि काव्य को छन्द विशेष की इस सीमा से बाहर निकाल कर वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टि से व्यापकता प्रदान की । 'बारहमासा' काव्य ऋतुकाव्य रहा है, जिसमें नायिका एक 2 माह के क्रम से अपना विरह, प्रकृति के विभिन्न उपादानों के माध्यम व्यक्त करती है। जैन कवियों ने 'बारहमासा' की इस विरह-निवेदन प्रणाली को आध्यात्मिक रूप देकर इसे शृंगार क्षेत्र से बाहर निकाल कर, भक्ति और वैराग्य के क्षेत्र तक आगे बढ़ाया । 'विवाहलो' संज्ञक काव्य में सामान्यतः नायक-नायिका के विवाह का वर्णन रहता है जिसे 'व्याहलो' भी कहा जाता है । जैन कवियों ने इस 'विवाहलो' संज्ञक काव्य को भी आध्यात्मिक रूप दिया है । इसमें नायक का किसी स्त्री से परिणय न दिखाकर संयमश्री श्रीर दीक्षाकुमारी जैसी मू भावनाओं को परिणय के बन्धन में बांधा गया है। 'रासो' 'सन्धि' और 'चौपाई' जैसे काव्य रूपों को भी इस प्रकार का भाव-बोध दिया । 'रासो' यहां केवल युद्धपरक वीर काव्य का व्यंजक न रहकर प्रेमपरक गेय काव्य का प्रतीक बन गया । 'सन्धि' शब्द अपभ्रंश महाकाव्य के सर्ग का वाचक न रहकर विशिष्ट काव्य-विधा का ही प्रतीक बन गया। 'चौपाई' संज्ञक काव्य चौपाई छन्द में ही बंधा न रहकर वह जीवन की व्यापक चित्रण क्षमता का प्रतीक बन कर छन्द की रूढ कारा से मुक्त हो गया । उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि जैन कवियों ने एक ओर काव्यरूपों की परम्परा के धरातल को व्यापकता दी तो दूसरी ओर उनको बहिरंग से अंतरंग की ओर तथा स्थूल से सूक्ष्म की ओर खींचा। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 यहां यह भी स्मरणीय है कि जैन कवियों ने केवल पद्य के क्षेत्र में ही नवीन काव्यरूप खड़े नहीं किये वरन् गद्य-क्षेत्र में भी कई नवीन काव्य-रूपों की सृष्टि की। यह सृष्टि इसलिए मौर भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसके द्वारा हिन्दी गद्य का प्राचीन इतिहास प्रकट होता है। हिन्दी के प्राचीन ऐतिहासिक और कलात्मक गद्य के विकास में इन काव्य-रूपों की देन बड़ी महत्त्वपूर्ण है। जैन कवि सामान्यतः सन्त रहे हैं। व्याख्यान और प्रवचन देना उनके दैनिक प्राचार का प्रमख अंग है। दर्शन जैसे जटिल और गढ विषयों को समझाने के लिए वे कवि सन्त से साहित्यकार बने। धर्म प्रचार की दृष्टि से इन्होंने अपनी बात को लोकमानस तक पहुंचाने के लिए काव्य और संगीत का सहारा लिया तथा अपनी परम्परा को सुरक्षित रखने व शारत्र-विवेचना के लिए प्रमखतः ऐतिहासिक और टीका ग्रन्थों का सहारा लिया। एक का मुख्यतः माध्यम बना पद्य और दूसरे का गद्य । फलतः दोनों क्षेत्रों में कई काव्य-रूपों का सजन और विकास हया। पद्य के सौ से अधिक काव्यरूप देखने को मिलते हैं। सूविधा की दष्टि से इनके चार वर्ग किये जा सकते हैं -चरित्र काव्य, उत्सव काव्य, नीतिकाव्य, और स्तुति काव्य। चरित. काव्य में सामान्यतः किसी धार्मिक पुरुष, तीर्थंकर आदि की कथा कही गई है। ये काव्य, रास, चौपाई, ढाल, पवाड़ा, संधि , चर्चरी, प्रबन्ध, चरित, सम्बन्ध, आख्यानक, कथा आदि रूपों में लिखे गये हैं। उत्सव काव्य विभिन्न पर्वो और ऋतु विशेष के बदलते हुए वातावरण के उल्लास और विनोद को चित्रित करते हैं। फागु, धमाल, बारहमासा, विवाहलो, धवल, मंगल आदि काव्यरूप इसी प्रकार के हैं। इनमें सामान्यतः लौकिक रीति-नीति को माध्यम बनाकर उनके लोकोत्तर रूप को ध्वनित किया गया है। नीति-काव्य जीवनोपयोगी उपदेशों से सम्बन्धित है। इनमें सदाचार-पालन, कषाय-त्याग, व्यसन-त्याग, ब्रह्मचर्य, व्रत, पच्चक्खाण, भावना, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, दान, दया, संयम आदि का माहात्म्य तथा प्रभाव वर्णित है। संवाद, कक्का, मातका, बावनी. छत्तीसी, कुलक, हीयाली आदि काव्यरूप इसी प्रकार के हैं। स्तुतिकाव्य महापुरुषों और तीर्थंकरों की स्तुति से सम्बन्धित हैं। स्तुति, स्तवन, स्तोत्र, सज्झाय, विनति, नमस्कार, चौबीसी, बीसी आदि काव्यरूप स्तवनात्मक ही हैं। गद्य साहित्य के भी स्थूल रूप से दो भाग किये जा सकते हैं। मौलिक गद्य-सृजन और टीका, अनुवाद प्रादि । मौलिक गद्य सृजन धार्मिक, ऐतिहासिक, कलात्मक आदि विविध रूपों में मिलता है। धार्मिक गद्य में सामान्यतः कथात्मक और तात्विक गद्य के ही दर्शन होते हैं। ऐतिहासिक गद्य गुर्वावली, पट्टावली, वंशावली, उत्पत्तिग्रन्थ, दफ्तर बही, टिप्पण आदि रूपों में लिखा गया। इन रूपों में इतिहास-धर्म की पूरी-पूरी रक्षा करने का प्रयत्न किया गया है। प्राचार्यो आदि की प्रशस्ति यहां अवश्य है पर वह ऐतिहासिक तथ्यों की अवहेलना नहीं करती। कलात्मक गद्य वचनिका, दवावैत, वात, सिलोका, वर्णक, संस्मरण आदि रूपों में लिखा गया । अनुप्रासात्मक झंकारमयी शैली और अन्ततकात्मकता इस गद्य की अपनी विशेषता है। प्रागमों में निहित दर्शन और तत्व को जनोपयोगी बनाने की दृष्टि से प्रारम्भ में नियुक्तियां और भाष्य लिखे गये। पर ये पद्य में थे। बाद में चलकर इन्हीं पर चूर्णियां लिखी गईं। ये गद्य में थीं। नियुक्ति, भाष्य और चणि साहित्य प्राकृत अथवा प्राकृत-संस्कृत मिश्रित में ही मिलता है। आगे चलकर टीकायग आता है। ये टीकाएं आगमों पर ही नहीं लिखी गईं वरन् नियुक्तियों और भाष्यों पर भी लिखी गई। ये टीकाएं प्रारम्भ में संस्कृत में और बाद में लोक-कल्याण की भावना से सामान्यत: पुरानी हिन्दी में लिखी मिलती हैं। इनके दो रूप विशेष प्रचलित है। टब्बा और बालावबोध । टब्बा संक्षिप्त रूप है जिसमें शब्दों के अर्थ ऊपर, नीचे या पार्श्व में लिख दिये जाते हैं पर बालावबोध में व्याख्यात्मक समीक्षा के दर्शन होते हैं। यहां निहित सिद्धान्त को कथा और दृष्टान्त दे-देकर इस प्रकार समझाया जाता है कि बालक जैसा मन्द बुद्धि वाला भी उसके सार को ग्रहण कर सके। पद्य और गद्य के ये विभिन्न साहित्य रूप जैन साहित्य की विशिष्ट देन हैं। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 जैन साहित्यकार सामान्यतः साधक और सन्त रहे हैं। साहित्य उनके लिए विशुद्ध कला की वस्तु कभी नहीं रहा, वह धार्मिक आचार की पवित्रता और साधना का एक अंग बन कर आया है। यही कारण है कि अभिव्यक्ति में सरलता, सुबोधता और सहजता का सदा आग्रह रहा है। जब अपभ्रंश से हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती आदि भाषाएं विकसित हुई तो जैन साहित्यकार अपनी बात इन जनपदीय भाषाओं में सहज भाव से कहने लगे। यह भाषागत उदारता उनकी प्रतिभा पर आवरण नहीं डालती वरन भाषाओं के ऐतिहासिक विकासक्रम को सुरक्षित रखे हुए है। जैन साहित्यकार साहित्य को कलाबाजी नहीं समझते। वे उसे अकृत्रिम रूप से हृदय को प्रभावित करने वाली प्रानन्दमयी कला के रूप में देखते हैं। जहां उन्होंने लोक भाषा का प्रयोग किया वहां भाषा को सशक्त बनाने वाले अधिकांश उपकरण भी लोक-जीवन से ही चने हैं। छन्दों में तो इतना वैविध्य है कि सभी धर्मों, परम्पराओं और रीति-रिवाजों से वे सीधे खींचे चले आ रहे हैं। ढालों के रूप में, जो देशियां अपनाई गई हैं, वे इसकी प्रतीक हैं। पर इससे यह न समझा जाये कि उनका काव्य-शास्त्रीय ज्ञान अपूर्ण था या बिल्कुल ही नहीं था। ऐसे कवि भी जन-जगत् में कई हो गये हैं जो शास्त्रीय परम्परा में सर्वोच्च ठहरते हैं, आलंकारिक चमत्कारिता, शब्दक्रीड़ा और छन्दशास्त्रीय मर्यादा-पालन में जो होड़ लेते प्रतीतहोते हैं, पर यह प्रवृत्ति जैन-साहित्य की सामान्य प्रवृत्ति नहीं है। जैन साहित्य में जो नायक आये हैं, उनके दो रूप हैं-मूर्त और अमूर्त। मूर्त नायक मानव हैं, अमूर्त नायक मनोवृत्ति विशेष । मूर्त नायक साधारण मानव कम, असाधारण मानव अधिक हैं। यह असाधारणता आरोपित नहीं, अर्जित है। अपने पुरुषार्थ, शक्ति और साधना के बल पर ही ये साधारण मानव विशिष्ट श्रेणी में पहुंच गये हैं। ये पात्र सामान्यतः संस्कारवश या किसी निमित्त कारण से विरक्त हो जाते हैं और प्रव्रज्या अंगीकार कर लेते हैं। दीक्षित होने के बाद पूर्व जन्म के कर्म उदित होकर कभी उपसर्ग बनकर, कभी परीषह बनकर सामने आते हैं पर ये अपनी साधना से विचलित नहीं होते। परीक्षा के कठोर प्राघात इनकी आत्मा को और अधिक मजबूत तथा इनकी साधना को और अधिक तेजस्वी बना देते हैं। प्रतिनायक परास्त होते हैं, पर अन्त तक दुष्ट बनकर नहीं रहते। उनके जीवन में भी परिवर्तन पाता है और वे नायक के व्यक्तित्व की प्रेरक किरण का स्पर्श पाकर साधना पथ पर चल पड़ते हैं। जैन साहित्य के मूल में आदर्शवादिता है। वह संघर्ष में नहीं मंगल में विश्वास करता है। यहां नायक का अन्त दुखद मृत्यु में नहीं होता। उसे कथा के अन्त में प्राध्यात्मिक वैभव से सम्पन्न अनन्तबल, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्त सौन्दर्य का धारक बताया गया है। जैन साहित्य में यों तो सभी रस यथावसर अभिव्यंजित हुए हैं पर अंगीरस शान्त रस ही है। प्रायः प्रत्येक कथा-काव्य का अन्त शान्त रसात्मक ही है। इतना सब कुछ होते हये भी जैन साहित्य में शृंगार रस के बड़े भावपूर्ण स्थल और मार्मिक प्रसंग भी देखने को मिलते हैं। विशेषकर विप्रलंभ शृंगार के जो चित्र हैं वे बड़े मर्मस्पर्शी और हृदय को गद्गद् करने वाले हैं। मिलन के राशि-राशि चित्र वहां देखने को मिलते हैं वहां कवि 'संयमश्री के विवाह की रचना करता है। यहां जो शृंगार है वह रीतिकालीन कवियों के भाव सौंदर्य से तुलना में किसी प्रकार कम नहीं है, पर उसमें मन को सुलाने वाली मादकता नहीं वरन् आत्मा को जागृत करने वाली मनुहार है। शृंगार की यह धारा आवेगमयी बनकर, नायक को शान्त रस के समुद्र की गहराई में बहुत दूर तक पैठा देती है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 राजस्थान की धार्मिक पृष्ठभूमि : राजस्थान वीर-भूमि होने के साथ-साथ धर्म-भूमि भी है। शक्ति और भक्ति का सामंजस्य इस प्रदेश की मूल सांस्कृतिक विशेषता है। यहां के वीर भक्तिभावना से प्रेरित होकर अपनी अद्भुत श का परिचय देते हये प्रात्मोत्सर्ग की ओर बढ़ते रहे, तो यहां के भक्त अपने पुरुषार्थ, साधना और सामर्थ्य के बल पर धर्म को सतेज करते रहे। राजस्थान में उदार मानववाद के धरातल पर वैदिक, वैष्णव, शैव, शाक्त , जैन, इस्लाम, प्रादि सभी धर्म अपनी-अपनी रंगत के साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में फलते-फूलते रहे। यहां की प्राकृतिक स्थिति और जलवायु ने जीवन के प्रति निस्पृहता और अनुरक्ति, कठोरता और कोमलता, संयमशीलता और सरसता का समानान्तर पाठ पढ़ाया। यह जीवन-दृष्टि यहां के धर्म, साहित्य, संगीत और कला में स्पष्ट प्रतिबिम्बित है। प्रारम्भ से ही राजस्थान के जन-जीवन पर धर्म का व्यापक प्रभाव रहा है। प्राचीनकाल से ही यहां यज्ञ की वैदिक परम्परा विद्यमान रही है। दूसरी शताब्दी ईसा के घोसुण्डी शिलालेख में अश्वमेध यज्ञ के सम्पादन का उल्लेख मिलता है। पौराणिक धर्म के अन्तर्गत विष्ण, शिव, दुर्गा, ब्रह्मा, गणेश, सूर्य प्रादि देवी-देवताओं की आराधना के लिये चित्तौड़, ओसियां, पुष्कर, आहड़, भीनमाल आदि नगरों में समय-समय पर अनेक मन्दिरों का निर्माण हुआ। ध्यान देने की बात यह है कि यद्यपि यहां विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना प्रचलित रही तथापि धार्मिक सहिष्णुता की भावना को इससे कोई ठेस नहीं पहुंची। धार्मिक सहिष्णुता की यह भावमा प्रतिहार काल में हिन्दू देवताओं की मूर्तियों के निर्माण में अभिव्यक्त हुई है। बघेरा तथा बेदला से प्राप्त हरिहर की मूर्ति, हर्ष से प्राप्त तीन मुख वाले सूर्य की मूर्ति, झालावाड़ से प्राप्त सूर्यनारायण की मूर्ति, आम्बानेरी से प्राप्त अर्द्धनारीश्वर की मूर्ति और अजमेर म्यूजियम में उपलब्ध विष्णु तथा त्रिपुरुष की त्रिमूर्ति धर्म की समन्वयात्मक प्रवृत्ति की सुन्दर प्रतीक है। राजस्थान में प्राचीन काल से शैव मत का व्यापक प्रसार रहा है। पाशुपत, कापालिक, लकुलीश आदि अनेक शैव सम्प्रदाय राजस्थान में प्रचलित रहे हैं। राजस्थान में शिव की उपासना अनेक नामों से की जाती रही है, यथा एकलिंग, समिधेश्वर, अचलेश्वर, शम्भू, भवानीपति, पिनाकिन, चन्द्रचूडामणि आदि। मेवाड़ के महाराणाओं ने श्री एकलिंगजी को ही राज्य का स्वामी माना और स्वयं उनके दीवान बनकर रहे। नाथ सम्प्रदाय का जोधपुर क्षेत्र में विशेष प्रभाव और सम्मान रहा है। राजस्थान में कई स्थलों पर उनके अखाड़े हैं। राजस्थान में वैष्णव धर्म का प्राचीनतम उल्लेख दूसरी शताब्दी ई. पूर्व के घोसुण्डी अभिलेख में मिलता है। इस मत के अन्तर्गत कृष्णलीला से संबंधित दृश्य उत्कीर्ण मिलते हैं। कृष्ण लीला में कृष्ण चरित से संबंधित कई पाख्यान तक्षण-कला के माध्यम से भी व्यक्त हुये हैं। कृष्ण भक्ति के साथ राम भक्ति भी राजस्थान में समादृत हुई है। मेवाड़ के महाराणा तो राम से अपना वंशक्रम निर्धारित करते हैं। राजस्थान में शक्ति के रूप में देवी की उपासना का भी प्रचलन रहा है। शक्ति की अाराधना, शौर्य, क्रोध और करुणा की भावना से जुड़ी हुई है। अतएव शक्ति की मातृदेवी, लक्ष्मी, सरस्वती, महिषासुरमर्दिनी, दुर्गा, पार्वती, अम्बिका, काली, सच्चिका आदि रूप में स्तुति की गई है। राजस्थान के कई राजवंश शक्ति को कुलदेवी के रूप में पूजते रहे हैं। बीकानेर के राज परिवार ने करणी माता को, जोधपुर राज परिवार ने नागणेचीणीको, सीसोदिया नरेश ने बाणमाता को और कछवाहों ने अन्नपूर्णा को कूलदेवी स्वीकृत किया है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 राजस्थान इस्लाम धर्म के प्रभाव से भी अछूता नहीं रहा। यहां 12वीं शती से इसका विशेष प्रसार हया। अजमेर इसका मख्य केन्द्र बना और यहीं से जालौर, नागौर, मांडल, चित्तौड़ आदि स्थानों में यह फैला। राजस्थान में इसके प्रचारक संतों में मुइनुद्दीन चिश्ती प्रमुख थे। सम्पूर्ण भारत में मध्ययुग में धर्मसुधार आन्दोलन की जो लहर फैली, उससे राजस्थान भी प्रभावित हुआ और रूढ़िवाद, बाह्य आडम्बर तथा जड़ पूजा के खिलाफ क्रांति चेतना मुखरित हो उठी। इस नई धार्मिक चेतना ने एक अोर गोगाजी, पाबजी, तेजाजी जैसे लोकदेवों को अपने प्रतिज्ञापालन, आत्मबलिदान तथा सदाचारनिष्ठ सादगीमय जीवन के कारण सम्मान प्रदान किया तो दूसरी ओर जाम्भोजी, जसनाथजी, दादूजी जैसे विशिष्ट संत पुरुषों को प्रकट किया जिन्होंने धर्म को बाद्याचार से प्रात्मशद्धि और आन्तरिक पवित्रता की ओर मोड़ा। इन संतों ने प्रात्म-साधना और प्रात्म-कल्याण के सिद्धांतों की व्याख्या बोल-चाल की भाषा में की। राजस्थान में पनपने वाले ऐसे मख्य जैनेतर संत सम्प्रदायों की तालिका इस प्रकार है:-- नाम प्रवर्तक समय प्रधान स्थल विक्रम संवत् 1. विश्नोई सम्प्रदाय जांभोजी 1508-93 मुकाम (बीकानेर) 2. जसनाथी सम्प्रदाय जसनाथजी 1539-63 कतरियासर (बीकानेर) 3. निरंजनी सम्प्रदाय हरिदासजी 1512-95 डीडवाना (नागौर) 4. लाल पंथ लालदासजी 1597-1705 नगला (अलवर) 5. दादू पंथ या ब्रह्म दादू 1601-6) नराणा (जयपुर) सम्प्रदाय 6. रामस्नेही: दरियावजी 1733-1815 रैण (नागौर) रणशाखा 7. रामस्नेही : हरिरामदासजी __1754-1835 सीथल (बीकानेर) सीथल शाखा 8. रामस्नेही : रामदासजी 1783-1855 खेड़ापा (जोधपुर) खंडापा शाखा 9. रामस्नेही: रामचरणदासजी __1776-1855 शाहपुरा (भीलवाड़ा) शाहपुरा शाखा 10. चरणदासजी सम्प्रदाय चरणदासजी 1760-1839 डेहरा (अलवर) 11. जहरि सम्प्रदाय तारणदासजी 1822-1932 रतनगढ़ 12. अलखिया लालगिरि 1860-1925 बीकानेर सम्प्रदाय 13. गूदड़ पंथ संतदासजी -1822 दांतड़ा (मेवाड़) 14. भाव पंथ भावजी 1771-1801 साबमा (डूंगरपुर) 15. आईपथ पाईमाता 1472-1561 बिलाड़ा (जोधपुर) 16. नवल पंथ नवलनाथजी 1840-1965 जोधपुर Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 राजस्थान में जैन धर्म : उपर्युक्त धार्मिक पृष्ठभूमि के समानान्तर ही प्रारम्भ से राजस्थान में जैन धर्म प्रभावी रहा है। भगवान् महावीर के जीवनकाल में ही राजस्थान के कुछ भागों में जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार का ज्ञान परवर्ती जैन साहित्य से होता है। महावीर के मामा एवं लिच्छवी गणतन्त्र के प्रमुख चेटक की ज्येष्ठ पुत्री प्रभावती सिन्धु सौवीर के शासक उदायन को ब्याई गई थी । उदायन जैनमतावलम्बी हो गया था। 'भगवती सूत्र' के अनुसार उसने अपने भाणेज केशी को राज्य देकर अन्तिम समय में श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली थी। सामान्यतः सौवीर प्रदेश के अन्तर्गत जैसलमेर और कच्छ के हिस्से भी माने जाते हैं। भीनमाल के 1276 ई. के एक अभिलेख से विदित होता है कि महावीर स्वामी स्वयं श्रीमाल नगर पधारे थे । आबूरोड़ से 8 किलोमीटर पश्चिम में मु'गस्थल से प्राप्त 1369 ईस्वी के शिलालेख से पता चलता है कि भगवान् महावीर स्वामी स्वयं अर्बुद भूमि पधारे थे, पर ये विवरण बहुत बाद के हैं, अतः इनकी सत्यता संदिग्ध है। राजस्थान में जैनधर्म के प्रसार का सर्वाधिक ठोस प्रमाण ईसा से पूर्व 5वीं शताब्दी का बड़ली शिलालेख माना जाता है जिसमें वीर निर्वाण संवत् के 84वें वर्ष का तथा चित्तौड़ के समीप स्थित माझमिका ( माध्यमिका) का उल्लेख है । माझमिका जैन धर्म का प्राचीन केन्द्र रही है जहां जैन श्रमण संघ की माध्यमिका शाखा की स्थापना सुहस्ती के द्वितीय शिष्य प्रियग्रन्थ की थी। मौर्य युग में चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म के प्रसार के लिये कई प्रयत्न किये । अशोक केपी राजा सम्प्रति ने जैन धर्म के उन्नयन एवं विकास में महत्त्वपूर्ण योग दिया । कहा जाता है कि उसने राजस्थान में कई जैन मन्दिर बनवाये और वीर निर्वाण संवत् 203 में आर्य सुहस्ती के द्वारा घाणी में पद्मप्रभु की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायी थी । विक्रम की दूसरी शती में बने मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से अति प्राचीन स्तूप और जैन मन्दिरों के ध्वंसावशेष मिले हैं जिनसे ज्ञात होता है कि राजस्थान में उस समय जैन धर्म का अस्तित्व था । केशोरायपाटन में गुप्तकालीन एक जैन मन्दिर के अवशेष से, सिरोही क्षेत्र के बसन्तगढ़ में प्राप्त भगवान् ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा से जोधपुर क्षेत्र के प्रोसियां के महावीर मन्दिर के शिलालेख से, कोटा की समीपवर्ती जैन गुफाओं से, उदयपुर के पास स्थित आयड़ के पार्श्वनाथ मन्दिर और जैसलमेर के लोदरवा स्थित जिनेश्वरसूरि की प्रेरणा से निर्मित पार्श्वनाथ के मन्दिर से यह स्पष्ट होता है कि राजस्थान में जैन धर्म का प्रचार ही नहीं था, वरन् सभी क्षेत्रों में उसका अच्छा प्रभाव भी था। अजमेर क्षेत्र में भी जैन धर्म का व्यापक प्रभाव रहा। पृथ्वीराज चौहान प्रथम ने बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रणथम्भौर के जैन मन्दिर पर स्वर्ण कलश चढ़ाये थे। यहां के राजा अर्णोराज के मन में श्री जिनदत्तसूरि के प्रति विशेष सम्मान का भाव था । जिनदत्त - सूरि मरुधरा के कल्पवृक्ष माने गये हैं । इनका स्वर्गवास अजमेर में हुआ। इनके निधन के उपरान्त इनकी पुण्य स्मृति में राजस्थान में स्थान-स्थान पर दादाबाड़ियों का निर्माण हुआ । कुमारपाल के समय में हेमचन्द्र की प्रेरणा से जैन धर्म का विशेष प्रचार हुआ। आब के जैन मन्दिर, जो अपनी स्थापत्यकला के लिये विश्व विख्यात हैं, इसी काल में बने । पन्द्रहवीं शती में निर्मित राणकपुर का जैन मन्दिर भी भव्य और दर्शनीय है। जयपुर क्षेत्रीय श्री महावीरजी श्रौर उदयपुर क्षेत्रीय श्री केसरियानाथजी के मन्दिरों ने जैन धर्म की प्रभावना में महत्त्वपूर्ण योग दिया है। ये तीर्थस्थल सभी धर्मों व वर्गों के लिये श्रद्धा केन्द्र बने हुये हैं। इस क्षेत्र के मीणा और गुजर लोग भगवान महावीर और ऋषभदेव को अपना परम आराध्य मानते हैं। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 • यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि महावीर के निर्वाण के लगभग 600 वर्ष बाद जैन धर्म दो मतों में विभक्त हो गया - दिगम्बर और श्वेताम्बर । जो मत साधुओं की नग्नता का पक्षधर था और उसे ही महावीर का मूल प्राचार मानता था, वह दिगम्बर कहलाया । यह मूल संघ नाम से भी जाना जाता है और जो मत साधुओं के वस्त्र-पान का समर्थन करता था वह श्वेताम्बर कहलाया । आगे चलकर दिगम्बर सम्प्रदाय कई संघों में विभक्त हो गया। जिनमें मुख्य हैं: -- दाविड़ संघ, काष्ठ संघ और माथुर संघ । कालान्तर में शुद्धाचारी, तपस्वी दिगम्बर मुनियों की संख्या कम हो गई और एक नये भट्टारक वर्ग का उदय हुआ जिसकी साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सेवायें रही हैं । जब भट्टारकों में शिथिलाचार पनपा तो उसके विरुद्ध सत्रहवीं शती में एक नये पंथ का उदय हुआ जो तेरहपंथ कहलाया । इस पथ में टोडरमल जैसे दार्शनिक विद्वान् हुए। श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी आगे चल कर दो भागों में बंट गया - चैत्यवासी और वनवासी। चैत्यवासी उग्रविहार छोड़कर मन्दिरों में रहने लगे । कालान्तर में श्वेताम्बर सम्प्रदाय कई गच्छों में विभक्त हो गया। संख्या 84 कही जाती है। इनमें खरतरगच्छ और तपागच्छ प्रमुख हैं। कहा जाता है कि वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने गुजरात हलपुर पट्टण के राजा दुर्लभराज की सभा में सन् 1017 ई. में जब चैत्यवासियों को परास्त किया तो राजा ने उन्हें 'खरतर' नाम दिया और इस प्रकार 'खरतरगच्छ' नाम चल पड़ा । तपागच्छ के संस्थापक श्री जगतचन्द्र सूरि माने जाते हैं । सन् 1228 ई. में इन्होंने उग्रतप किया । इस उपलक्ष्य में मेवाड़ के महाराणा जैत्रसिंह ने इन्हें 'तपा' उपाधि से विभूषित किया। तब से यह गच्छ 'तपागच्छ' नाम से प्रसिद्ध हुआ । खरतरगच्छ और तपागच्छ दोनों ही मूर्ति पूजा में विश्वास करते हैं । चौदहवीं - पन्द्रहवीं शती में संतों ने धर्म के नाम पर पनपने वाले बाह्य श्राडम्बर का विरोध किया, इससे भगवान् की निराकार उपासना को बल मिला । श्वेताम्बर परम्परा में स्थानकवासी और तेरापंथी श्रमूर्तिपूजक हैं। ये मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते । स्थानकवासियों का संबंध गुजरात की लोंकागच्छ परम्परा से रहा है। राजस्थान में यह परम्परा शीघ्र ही फैल गयी और जालौर, सिरोही, जैतारण, नागौर, बीकानेर आदि स्थानों पर इसकी गद्दियां प्रतिष्ठापित हो गयीं । इस परम्परा में जब आडम्बर बढ़ा तब जीवराजजी, हरजी, धनाजी, पृथ्वीचन्द्र जी, मनोहरजी आदि पूज्य मुनियों ने तपत्यागमूलक सद्धर्म का प्रचार किया । स्थानकवासी परम्परा बाईस सम्प्रदाय के नाम से भी प्रसिद्ध है । श्वेताम्बर तेरापंथ के मूल संस्थापक आचार्य भिक्षु हैं । यह पंथ सैद्धांतिक मतभेद के कारण संवत् 1817 में स्थानकवासी परम्परा से अलग हुआ । इस पंथ के चौथे प्राचार्य, जो जयाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हैं, राजस्थानी के महान् साहित्यकार थे। इन्होंने तेरापंथ के लिये कुछ मर्यादायें निश्चित कर मर्यादा महोत्सव का सूत्रपात किया। नवम् श्राचार्य श्री तुलसीगणी हैं जिन्होंने अणुव्रत प्रांदोलन के माध्यम से दिशा में विशेष पहल की है। इस पंथ के वर्तमान नैतिक जागरण की राजस्थान में जैन धर्म के विकास और प्रसार में इन सभी जैन मतों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । जैन धर्म के विभिन्न प्राचार्यों, संतों और श्रावकों का जन साधारण के साथ ही नहीं वरन यहां के राजा-महाराजाओं के साथ भी घनिष्ठ संबंध रहा है। प्रभावशाली जैन श्रावक यहां प्रधान, दीवान, सेनापति, सलाहकार और किलेदार जैसे विशिष्ट उच्च पदों पर सैंकड़ों की संख्या में रहे हैं । 1 उदयपुर क्षेत्र के नवलखा रामदेव, नवलखा सहणपाल, कर्माशाह, भामा 1. इस संबंध में डा. देव कोठारी का 'देशी रियासतों के शासन प्रबन्ध में जैनियों का सैनिक व राजनीतिक योगदान' लेख विशेष रूप से पठनीय है। 'जिनवाणी' का 'जैन संस्कृति और राजस्थान' विशेषांक, पृ. 307 से 331। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 शाह क्रमशः महाराणा लाखा, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा और महाराणा प्रताप के समय में प्रधान एवं दीवान थे। कुम्भलगढ़ के किलेदार आसाशाह ने बालक राजकुमार उदयसिंह का गप्त रूप से पालन-पोषण कर अपने अदम्य साहस और स्वामिभक्ति का परिचय दिया था। बीकानेर के बच्छराज, कर्मचन्द्र बच्छावत, महाराव हिन्दूमल क्रमशः राव बीका, महाराजा रायसिंह एवं महाराजा रत्नसिंह के समय में दीवान थे। बीकानेर के महाराजा रायसिंह, कर्णसिंह, और सूरतसिंह ने क्रमशः जैनाचार्य जिनचन्द्रसूरि,धर्मवर्धन व ज्ञानसारजी को बड़ा सम्मान दिया। जोधपुर राज्य के प्रधान व दीवानों में भण्डारी नराजी, भण्डारी मानाजी, मूणोत नैणसी की सेवायें क्रमशः राव जोधा, मोटाराजा उदयसिंह व महाराजा जसवंतसिंह के शासनकाल में विशेष महत्त्वपूर्ण रहीं। जयपुर राज्य के जैन दीवानों की लम्बी परम्परा रही है। 1 इनमें मुख्य हैं-संघी मोहनदास, रामचन्द्र छाबड़ा, संघी हुक्मचन्द, संघी झू थाराम,श्योजीराम,अमरचन्द, राव कृपाराम पांडया, बालचन्द्र छाबड़ा, रायचन्द छाबड़ा, विजैराम तोतूका, नथमल गोलेछा पादि। इन सभी वीर मन्त्रियों ने अपने प्रभाव से न केवल जैन मन्दिरों का निर्माण या जीर्णोद्धार ही करवाया वरन् जनकल्याणकारी विभिन्न प्रवृत्तियों के विकास एवं संचालन में योग दिया और देश की रक्षा व प्रगति के लिये संघर्ष किया। स्वतन्त्रता के बाद राजस्थान के नव निर्माण की सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रवृत्तियों में जैन धर्मावलम्बियों की महत्त्वपूर्ण मावलाम्बया का महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। विभिन्न लोकोपकारी संस्थानों और ट्रस्टों द्वारा लोगों को यथाशक्य सहायता दी जाती है। मानव समाज में प्रचलित कुव्यसनों को मिटाकर सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देने वाली वीरवालधर्मपाल प्रवत्ति का रचनात्मक कार्यक्रम अहिंसक समाज रचना की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। व्यावहारिक शिक्षण के साथ-साथ नैतिक शिक्षण के लिये कई जैन शिक्षण संस्थायें, स्वाध्याय मंडल और छात्रावास कार्यरत हैं। जन स्वास्थ्य के सुधार की दिशा में विभिन्न क्षेत्रों में कई अस्पताल और औषधालय खोले गये हैं जहां रोगियों को निःशुल्क तथा रियायती दरों पर चिकित्सा सुविधा प्रदान की जाती है। जैन साधु और साध्विाँ वर्षा ऋतु के चार महिनों में पद-यात्रा नहीं करते हैं। इस काल में विशेषतः तप, त्याग, प्रत्याख्यान, संघ-यात्रा,तीर्थ-यात्रा, मुनि-दर्शन, उपवास, प्रायम्बिल, मासखमण, संवत्सरी, क्षमापर्व जैसे विविध उपासना प्रकारों द्वारा प्राध्यात्मिक जागति के विविध कार्यक्रम बनाये जाते हैं। इससे व्यक्तिगत जीवन निर्मल, स्वस्थ और उदार बनता है तथा सामाजिक जीवन में बंधत्व, मैत्री, वात्सल्य जैसे भावों की वृद्धि होती है। कल मिलाकर कहा जा सकता है कि जैन धर्म की दृष्टि राजस्थान के सर्वांगीण विकास पर रही है। उसने मानव जीवन की भौतिक सफलता को ही मुख्य नहीं माना, उसका बल रहा मानव जीवन की सार्थकता और प्रात्मशुद्धि पर । राजस्थान का जैन साहित्य : ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट है कि धार्मिक भावना ने राजस्थान के साहित्य, संस्कृति और कला को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। वस्तुतः धार्मिक अनुभूति कोई संकीर्ण मनोवत्ति नहीं है। वह एक नैतिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक वृत्ति है जो मानवता के अस्तित्व के साथ जुड़ी हुई है। जब यह वृत्ति सर्जनात्मक स्तर पर रसमय बनकर मानवमन के रमों को 1. इस संबंध में पं. भंवरलाल जैन का 'जयपुर के जैन दीवान लेख पठनीय है। 'जिनवाणी' का __ 'जैन संस्कृति और राजस्थान' विशेषांक, पृष्ठ 332 से 3391 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छूती है, तब साहित्य और कला की सृष्टि होती है। इस बिन्दु पर पाकर धार्मिक मूल्य और कलात्मक मूल्यों में विशेष अन्तर नहीं रहता। साहित्यकार कल्पना का आश्रय अवश्य लेता है पर वह मात्र कल्पनाजीवी बनकर जीवित नहीं रह सकता। चूंकि सामान्य लोगों से वह अधिक संवेदनशील और क्रांतिद्रष्टा होता है अत: उसकी विवेक शक्ति संक्रमण काल में जनता के मनोबल को थामे रखने में विशेष सहायक बनती है और संकटकाल में सांस्कृतिक तत्वों को नष्ट होने से बचाती है। जब राष्ट्रीयता राजनीति के स्तर पर सीमित हो जाती है और उसकी सांस्कृतिक चेतना मन्द पड जाती है तब राष्ट्रीयता को सार्वजनीन नैतिक उत्कर्ष का दार्शनिक आधार संत साहित्यकार ही दे पाते हैं। वे ही राष्ट्र की आत्मा को, उसकी जीवनशक्ति को, ऊर्जा को सतेज बनाये रखने में समर्थ होते हैं। भगवान महावीर और उनके बाद के प्रभावक प्राचार्यों ने यह भमिका निभायी। मध्ययुग में जब विदेशी आक्रमणकारियों से हम राजनैतिक दृष्टि से परास्त हो गये तब भी इन संतों और प्राचार्यों ने भक्ति, धर्म और साहित्य के धरातल से सांस्कृतिक प्रांदोलन की प्रक्रिया जारी रखी। माधुनिक युग में जब अंग्रेजी शासन का दमन चक्र चला तब भी राष्ट्र के स्वतन्थ्य-भाव को इन संतो ने धार्मिक व सांस्कृतिक स्तर पर बुलंद रखा। अहिसा. सत्याग्रह, स्वदेशीपन, लोकसेवा, सहअस्तित्व जसे मूल्यों और आदर्शों के समाजीकरण में इन संतों का विशेष योगदान रहा है। राजस्थान में जो जैन साहित्य रचा गया है, वह कथ्य और शिल्प दोनों ही द ष्टियों से बहरंगी व बहुआयामी है। अब तक जो कुछ प्रकाश में आ पाया है उससे अधिक भाग अब भी पाण्ड लिपियों के रूप में विभिन्न ज्ञान भण्डारों में बन्द है। विभिन्न मतों के प्राचार्यों व संतों ने अपने-अपने प्रभाव-क्षेत्र के लोगों के स्वभाव व देशकाल को ध्यान में रखकर वैविध्यपूर्ण साहित्य की रचना की है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और हिन्दी सभी भाषाओं में विपुल परिमाण में यह साहित्य रचा गया है। रूप और शैली की दृष्टि से विविधता होने पर भी इसकी अपील में एकोहे श्यता है। वह प्राणिमात्र को मैत्री के सूत्र में पिरोती है, समता और सहिष्णुता का संदेश देती है। स्वतन्त्रता के बाद राजस्थान के जैन साहित्य के लेखन और प्रकाशन में विशेष मोड़ पाया। रूपात्मक दृष्टि से प्राचीन व मध्ययुगीन काव्य रूपों के स्थान पर उपन्यास, कहानी जैसे नवीन रूप अपनाये गये। इस युग की एक प्रमुख प्रवृत्ति शोध एवं समीक्षात्मक ग्रंथों की उभरी। विश्वविद्यालयों में साहित्य, इतिहास, दर्शन विषयों से संबद्ध कई जैन शोध ग्रन्थ लिखे गये, तो स्वतन्त्र रूप से पाण्डुलिपियों के सूचीकरण, प्राचीन साहित्यक और दार्शनिक ग्रन्थों के सम्पादन, समीक्षण और विवेचन के रूप में शोध प्रवृत्ति का क्षेत्र विस्तृत हुआ। भगवान महावीर के 2500वें निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष्य में कई संस्थानों और व्यक्तियों द्वारा भगवान् महावीर के जीवनदर्शन और जैन धर्म-दर्शन से संबद्ध कई स्तरीय और सुगम-सुबोध पुस्तकें,पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक और स्मारिकायें प्रकाशित हुई हैं। स्थानाभाव से उन सबकी चर्चा करना यहां संभव नहीं है। राज्य सरकार के सहयोग से राजस्थान विश्वविद्यालय में और अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संघ तथा राज्य सरकार के विशेष अनुदान से उदयपुर विश्वविद्यालय में प्राकृत एवं जन विद्या विभाग की स्थापना से जैन साहित्य के अध्ययन अध्यापन एवं अन संधान को विशेष गति मिलेमी और विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से राष्ट्र की भावात्मक एकता पृष्ट होगी। यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण वर्ष के अवसर पर राज्य स्तर पर गठित समिति की साहित्यिक योजना के अन्तर्गत यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 किया जा रहा है। इस ग्रन्थ में राजस्थान के प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी व हिन्दी भाषा के जैन साहित्य की प्रवृत्तियों और साहित्यकारों का, विद्वान् मुनियों और लेखकों द्वारा जो परिचय, समीक्षण और मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है उससे प्राचीन काल से अद्यावधि तक अनवरत रूप से प्रवहमान साहित्य-साधना की विभिन्न धाराओं और विच्छित्तियों से साक्षास्कार ही नहीं होता वरन राजस्थान की धार्मिक, सांस्कृतिक चेतना को समझने में भी मदद मिलती है। डॉ. नरेन्द्र भानावत प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर । सी-235-ए, तिलकनगर, जयपुर-4 Page #37 --------------------------------------------------------------------------  Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. 4. 5. 1. संस्कृत जैन साहित्य 1. संस्कृत साहित्य : विकास एवं प्रवृत्तियां मुनि श्री नथमल 2. संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार 3. संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार 4. संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार जैन संस्कृत महाकाव्य 3. विषय-दर्शन प्राकृत जैन साहित्य प्राकृत साहित्य : एक सर्वेक्षण राजस्थान का प्राकृत-साहित्य राजस्थान के प्राकृत साहित्यकार राजस्थान के प्राकृत साहित्यकार 4. 2. अपभ्रंश साहित्य : विकास एवं प्रवृत्तियाँ अपभ्रंश के साहित्यकार अपभ्रंश साहित्य के प्राचार्य 3. अपभ्रंश साहित्यः सामान्य परिचय डॉ. भागचन्द्र जैन भास्कर डॉ. प्रेम सुमन जैन देवेन्द्र मुनि शास्त्री डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 1. राजस्थानी साहित्य का सामान्य परिचय ( पृष्ठभूमि) 2. राजस्थानी पद्य साहित्यकार राजस्थानी कवि अपभ्रंश जैन साहित्य महोपाध्याय विनयसागर मुनि गुलाबचन्द्र, 'निर्मोही' डॉ. कस्तुरचन्द कासलीवाल डॉ. सत्यव्रत डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन डॉ. राजाराम जैन डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल राजस्थानी जैन साहित्य डॉ. हीरालाल माहेश्वरी अगरचन्द नाहटा डॉ. नरेन्द्र भानावत डॉ. (श्रीमती) शान्ता भानावत 188777 39 47 55 62 84 95 117 127 132 144 152 163 168 180 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी कनकश्री 199 203 डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल डॉ. गंगाराम गर्ग 216 4. राजस्थानी पद्य साहित्यकार 5. राजस्थानी पद्य साहित्यकार . 6. राजस्थानी पद्य साहित्यकार 7. राजस्थानी जैन गद्य की परम्परा 8. राजस्थानी गद्य साहित्यकार 9. राजस्थानी गद्य साहित्यकार अगरचन्द नाहटा 226 234 डॉ. देव कोठारी डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल 247 257 269 हिन्दी जैन साहित्य 1. हिन्दी जैन साहित्य की प्रवृत्तियां डॉ. नरेन्द्र भानावत 2. हिन्दी जैन साहित्य और साहित्यकार अगरचन्द नाहटा म. विनयसागर 3. हिन्दी जैन कवि डॉ. इन्दरराज वैद 4. हिन्दी जैन काव्य डॉ. मूलचन्द सेठिया 5. हिन्दी पद्य साहित्य एवं साहित्यकार पं. भंवरलाल न्यायतीर्थ 6. हिन्दी जैन गद्य साहित्य डॉ. शान्ता भानावत 299 308 316 324 7. हिन्दी जैन गद्य साहित्य मुनि श्रीचन्द 'कमल' 340 पं.अनपचन्द न्यायतीर्थ 357 8. हिन्दी जैन गद्य साहित्य 9. जैन कथा साहित्य की प्रवृत्तियां श्री महावीर कोटिया 363 प्रथम परिशिष्ट 1. राजस्थान का जैन लोक साहित्य डॉ. महेन्द्र भानावत 369 2. राजस्थान के जैन ग्रन्थ संग्रहालय डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 373 3. राजस्थान के जैन शिलालेख रामवल्लभ सोमानी 385 4. जैन लेखन कला भंवरलाल नाहटा 392 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिशिष्ट 1. ग्रन्थ-नामानुक्रमणी 2. विशिष्ट व्यक्ति एवं ग्रन्थकार नामानुक्रमणी 3. ग्राम-नगर नामानुक्रमणी 3 म. विनयसागर म. विनयसागर म. विनयसागर 427 467 489 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निबन्धों के मनीषी लेखक 1. मुनि श्री नथमल शोधपूर्ण अनेकों ग्रन्थों के लेखक, अनुवादक, सम्पादक, आशुकवि तथा तेरापंथी सम्प्रदाय के प्रमुख विद्वान् 2. श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री शोधपूर्ण विविध ग्रन्थों के लेखक, अनुवादक, सम्पादक तथा स्थानकवासी सम्प्रदाय के प्रख्यात विद्वान् 3. मुनि श्री गुलाबचन्द 'निर्मोही' तेरापन्थ सम्प्रदाय के विद्वान मुनि 4. मुनि श्री चन्द 'कमल' तेरापन्थ सम्प्रदाय के विद्वान् मुनि 5. साध्वी कनकधी तेरापन्थ सम्प्रदाय की विदूषी साध्वी 6. डॉ. भागचन्द्र जैन भास्कर अध्यक्ष, पाली-प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर (महाराष्ट्र) 7. डॉ. प्रेम सुमन जैन प्राध्यापक, प्राकृत (संस्कृत-विभाग), उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर (राजस्थान) 8. डॉ. कस्तुरचन्द कासलीवाल अध्यक्ष, साहित्य शोध विभाग, महावीर भवन, चौड़ा रास्ता जयपुर (राजस्थान) 9. म. विनय सागर, साहित्यमहोपाध्याय प्रकाशन एवं शोध अधिकारी, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, रामचन्द्रजी का मन्दिर, एस. डी. बाजार, जयपुर-2 (राजस्थान) 10. डॉ. सत्यव्रत अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, गवर्नमेन्ट कालेज, श्री गंगानगर (राजस्थान) 11. डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन प्रोफेसर, हिन्दी मध्य प्रदेश शासन शिक्षा सेवा, 44. उषानगर, इन्दौर (मध्य प्रदेश) 12. डॉ. राजाराम जैन । महाजन टोली नं. 2, आरा (विहार) 13. डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नीमच (मध्य प्रदेश) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 15. श्री अगरचन्द नाहटा 16. 17. 18. डॉ. गंगाराम गर्ग 22. 23. डॉ. हीरालाल माहेश्वरी प्राध्यापक, हिन्दी साहित्य विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर (राजस्थान ) 19. डॉ. देव कोठारी 24. अध्यक्ष, अभय जैन ग्रन्थालय, नाहटों की गवाड़, बीकानेर (राजस्थान ) 26. डॉ नरेन्द्र भानावत प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर (राजस्थान ) 20. डॉ. 27. डॉ. श्रीमती शान्ता भानावत प्राध्यापिका, वीर बालिका महाविद्यालय, कुंदीगर भैरों का रास्ता, जयपुर (राजस्थान) 21. डॉ. इन्दरराज वैद 28. 5 प्रवक्ता, हिन्दी राजकीय महाविद्यालय, करौली ( राजस्थान ) उपनिदेशक, साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर (राजस्थान) • हुकमचन्द भारिल्ल संयुक्त मन्त्री, पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-4 बापूनगर, जयपुर कार्यक्रम अधिकारी, श्राकाशवाणी, मद्रास (तमिलनाड) 25. श्री महावीर कोटिया डॉ. मूलचन्द सेठिया प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर (राजस्थान ) पं. भंवरलाल न्यायतीर्थ सम्पादक, वीरवाणी, मणिहारों का रास्ता, जयपुर (राजस्थान ) पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ साहित्य शोध विभाग, महावीर भवन, चौड़ा रास्ता, जयपुर (राजस्थान ) (राज.) स्नातकोत्तर हिन्दी अध्यापक, केन्द्रीय विद्यालय, जयपुर (राजस्थान ) डॉ. महेन्द्र भानावत उपनिदेशक, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर (राजस्थान ) श्री रामवल्लभ सोमाणी, की गली, कल्याण जी का रास्ता, चांदपोल, जयपुर । श्री भंवरलाल नाहटा संपादक, कुशलनिर्देश, 4- जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता- 7 Page #43 --------------------------------------------------------------------------  Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत जैन साहित्य Page #45 --------------------------------------------------------------------------  Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत साहित्य : एक सर्वेक्षण : 1 डॉ. भागचन्द्र जैन भास्कर प्रत्येक भाषा और साहित्य संस्कृति की निर्माण-प्रक्रिया के विविध रूप संन्निहित रहते हैं। ये रूप कुछ तो परम्परागत होते है और कुछ समय के साथ परिवर्तित होते चले जाते हैं। प्राकृत भाषा और साहित्य भी इस तथ्य से बाहर नहीं गया। वह भी समय की सूक्ष्म गति के साथ प्रवाहित होता रहा और जनसाहित्य तथा जनमानस को प्रभावित करता रहा। संकीर्णता के दायरे से हटकर व्यापक और निमुक्त क्षेत्र में ही वह सदव कार्यरत यह लिखना यहां अप्रासंगिक नहीं होगा कि प्राकृत मूलतः जनभाषा रही है और म. महावीर ने उसो का अपने सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाया था। ये सिद्धान्त जब लिपिबद्ध होने लगे तब तक स्वभावतः भाषा के प्रवाह में कुछ मोड़ पाये और संकलित साहित्य उससे अप्रभावित नहीं रह सका। समकालीन अथवा उत्तरकालीन घटनाओं के समावेश में भी कोई एकमत नहीं हो सका । किसी ने सहमति दी और कोई उसकी स्थिति से सहमत नहीं हो सका। फलतः पाठान्तरों और मतमतान्तरों का जन्म हुआ। भाषा और सिद्धान्तों के विकास की यही अमिट कहानी है। समूचे प्राकृत साहित्य का सर्वेक्षण करने पर यह तथ्य और कथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है। प्राकृत भाषा के कतिपय तत्व यद्यपि वैदिक और वैदिकोतर साहित्य में उपलब्ध होते हैं पर उसका साहित्य लगभग 2500 वर्ष प्राचीन हो माना जा सकता है। भगवान पार्श्वनाथ और महावीर के पहले विद्यमान प्रागमिक साहित्य-परम्परा का उल्लेख 'पूर्व' शब्द से अवश्य हया है पर ग्राज वह साहित्य-परम्परा उपलब्ध नहीं है। फिर भी इसी परम्परा से वर्तमान में उपलब्ध प्राकृत साहित्य की उत्पत्ति मानी जा सकती है। प्राकृत भाषा का अधिकांश साहित्य जैन धर्म और संस्कृति से संबद्ध है। उसकी मूल परम्परा श्रुत अथवा आगम के नाम से व्यवहृत हुई है और एक लम्बे समय तक श्रुति-परम्परा के माध्यम से सुरक्षित रही। संगीतियों अथवा वाचनाओं के माध्यम से यद्यपि इस आगमपरम्परा का संकलन किया जाता रहा है पर समय और आवश्यकता के अनुसार चिन्तन के प्रवाह को रोका नहीं जा सका। फलत: उसमें हीनाधिकता होती रही। प्राकृत जन साहित्य के सन्दर्भ में जब हम विचार करते हैं तो हमारा ध्यान जैन धर्म क प्राचीन इतिहास की ओर चला जाता है जो वैदिक काल किंवा उससे भी प्राचीनतर माना जा सकता है। उस काल के प्राकृत जैन साहित्य को “पूर्व" संज्ञा से अभिहित किया गया है जिसकी संख्या चौदह है-उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद,प्रात्मप्रवाद, कर्मप्रवाद,प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। आज जो साहित्य उपलब्ध है वह भगवान् महावीर रूपी हिमाचल से निकली वागगंगा है जिसमें अवगाहनकर गणधरों और प्राचार्यों ने विविध प्रकार के साहित्य की रचना की। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरकाल में यह साहित्य दो परम्पराओं में विभक्त हो गया-~ दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर परम्परा । दिगम्बर परम्परा के अनुसार प्रागम साहित्य दो प्रकार का है--अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । अंग-प्रविष्ट में बारह ग्रन्थों का समावेश है-पाचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तःकृद्दशांग, अनुत्तरोपपातिक दशांग, प्रश्नव्याकरण और दष्टिवाद । दृष्टिवाद के पांच भेद किये गये हैं--परिकर्म, सूत्र,प्रथमानुयोग, पूर्वगत मोर चलिका । पूर्वगत केही उत्पाद आदि पूर्वोक्त चौदह भेद है। इन अंगों के आधार पर रचित ग्रन्थ अंगबाह्य कहलाते हैं जिनकी संख्या चौदह है--सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवं कालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका। दिगम्बर परम्परा इन अंगप्रविष्ट पौर अंगबाह्य ग्रन्थों को विलुप्त हुआ मानती है। उसके अनुसार भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के 162 वर्ष पश्चात् अंग ग्रन्थ क्रमशः विच्छिन्न होने लग। मात्र दृष्टिवाद के अन्तर्गत आये द्वितीय पूर्व अग्रायणी के कुछ अधिकारों का ज्ञान प्राचार्यधर सेन के पास शेष था जिसे उन्होंने प्राचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को दिया। उसी के आधार पर उन्होंने षटखण्डागम जैसे विशालकाय ग्रन्थ का निर्माण किया। श्वेताम्बर परम्परा में ये अंगप्रविष्ट और अग बाह्य ग्रन्थ अभी भी उपलब्ध है। अंगबाह्य ग्रन्थों के सामायिक आदि प्रथम छह ग्रन्थों का अन्तर्भाव आवश्यक सूत्र में एवं कल्प, व्यवहार और निशीथ आदि सूत्रों में हो गया। मंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ग्रन्थों के आधार पर जो ग्रन्थ लिखे गय उन्हें चार विभागों में विभाजित किया गया है-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानु योग और चरणानुयोग । प्रथमानुयोग में ऐसे ग्रन्थों का समावेश होता है जिसमें पुराणों, चरितों और प्राख्यायिकामों के माध्यम से सैद्धान्तिक तत्व प्रस्तुत किये जाते हैं। करणानुयोग में ज्योतिष और गणित के साथ ही लोकों, सागरों, द्वीपों, पर्वतों, नदियों आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है । सर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थ इस विभाग के अन्तर्गत पाते हैं। जिन ग्रन्थों में जीव, कर्म, नय, स्याद्वाद आदि दार्शनिक सिद्धान्तों पर विचार किया जाता है वे द्रव्यानयोग की सीमा में आते हैं। ऐसे ग्रन्थों में षट्खण्डागम, प्रवचनसार,पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थों का समावेश होता है। चरणानुयोग में मुनियों और गृहस्थों के नियमोपनियमों का विधान रहता है। कन्दकुन्दाचार्य के नियमसार, रयणसार, वट्टकर का मलाचार, शिवार्य की भगवती माराधना पादि ग्रन्थ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। हमा सम्पूर्ण श्रुत के ज्ञाता नियुक्तिकार भद्रबाहु से भिन्न प्राचार्य भद्रबाहु थे जिन्हें श्रुत केवली कहा गया है। भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के लगभग 150 वर्ष बाद तित्थोगालीपइन्ना के अनुसार उत्तर भारत में एक द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष पड़ा जिसके परिणाम स्वरूप संघ भेद का सूत्रपात ल में अस्तव्यस्त हए श्रुतज्ञान को व्यवस्थित करने के लिए थोडे समय बाद ही पाटली-पुत्र में एक संगीति अथवा वाचना हुई जिसमें ग्यारह अंगों को व्यवस्थित किया जा सका। बारहवें अंग ग दृष्टिवाद के ज्ञाता मात्र भद्रबाहु थे जो बारह वर्ष की महाप्राण नामक योगसाधना के लिये नेपाल चले गये थे। संघ की ओर से उसके अध्ययन के लिये कुछ साधनों को उनके पास भेजा गया जिनमें स्थूलभद्र ही सक्षम ग्राहक सिद्ध हो सके। वे मात्र दश पूर्वो का साथ अध्ययन कर सके और शेष चार पूर्व मूलमान उन्हें (वाचनाभद से) मिल सके, प्रर्थतः नहीं। धीरे-धीरे काल-प्रभाव से दशपूर्वो का भी लोप होता गया। अन्त में भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के लगभग 1000 (980) वर्ष बाद बलभी में प्राचाय देवधिगणि क्षमाश्रमण क नतत्व में परिषद् की संयोजना हई जिसमें उपलब्ध-पागमों को लिपिबद्ध कर स्थिर किया गया। प्राज जो प्राकृत आगम उपलब्ध हैं व इसी याचना के परिणाम है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतनी लम्बी अवधि में श्रागमों के स्वरूप में परिवर्तन होना स्वाभाविक है । दिगम्बद सम्प्रदाय ने इस परिवर्तन को देखकर ही सम्भवतः इन प्रागमों को "लुप्त" कह दिया पर श्वेताम्बर परम्परा में वे अब भी सुरक्षित हैं । यहां हम सुविधा की दृष्टि से प्राकृत जैन साहित्य को निम्न भागों में विभक्त कर सकते 1. 2. 5. 3 श्रागम साहित्य आगमिक व्याख्या साहित्य 3. कर्म साहित्य 4. सिद्धान्त साहित्य आचार साहित्य 6. विधिविधान और भक्ति साहित्य 7. पौराणिक और ऐतिहासिक साहित्य कथा साहित्य 9. लाक्षणिक साहित्य 8 1. आगम साहित्य प्राकृत जैनागम साहित्य की दो परम्पराओं से हम परिचित ही हैं । दिगम्बर न तो उसे लुप्त मानती है परन्तु श्वेताम्बर परम्परा में उसे अंग, उपांग, मूलसूत्र, छेदसूत्र और प्रकीर्णक के रूप में विभक्त किया गया है । इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :-- क. अंग साहित्य :-- प्रंग साहित्य के पूर्वोक्त बारह भेद हैं --- 1. यात्रासंग : यह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में 'सत्य परिण्णा' आदि नव अध्ययन हैं और द्वितीय स्कन्ध में पांच । द्वितीय श्रुतस्कन्ध चूलिका के रूप में लिखा गया है जिनकी संख्या पांच है। चार चूलिकायें आचारांग में और पंचम विस्तृत होने कारण पृथक् रूप में निशीथ सूत्र के नाम से निबद्ध है । यह भाग प्रथम् श्रुतस्कन्ध के उत्तरकाल का है। इस ग्रन्थ में गद्य और पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है । इसमें मुनियों के आचार-विचार का विशेष वर्णन है। महावीर की चर्या का भी विस्तृत उल्लेख हुआ है। 2. सूयगडांग : - इसमें स्वसमय और परसमय का विवेचन है। इसे दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त किया गया है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में 16 अध्ययन है-- समय, वैयालिय Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्ग, स्त्रीपरिज्ञा, नरक विभक्ति, वीरस्तव, कुशील, वीर्य, धर्म, समाधि, मार्ग, समवशरण, याथातथ्य, ग्रन्थ पादान, गाथा और ब्राह्मण श्रमण निर्ग्रन्थ । द्वितीय धृतर कन्ध में सात अध्ययन हैं-पुण्डरीक, क्रियास्थान, आहारपरिज्ञा, प्रत्याख्यान क्रिया, अचारश्रुत, अर्द्धकीय तथा नालन्दीय । प्रथम श्रुतस्कन्ध के विषय को ही यहां विस्तार से कहा गया है। अतः नियुक्तिकार ने इसे “महा अध्ययन" की संज्ञा दी है। इस अंग में मलतः क्रियावाद, प्रक्रियावाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद आदि मतों का प्रस्थापन और उसका खण्डन किया गया है। 3. ठाणांग :--इसमें दस अध्ययन है और 783 सूत्र है जिनमें अंगुत्तरनिकाय के समान एक से लेकर दस संख्या तक संख्याक्रम के अनुसार जैन सिद्धान्त पर आधारित वस्तु संख्याओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है। यहां भगवान महावीर की उत्तरकालीन परम्पराओं को भी स्थान मिला है। जैसे नवें अध्ययन के तृतीय उद्देशक में महावीर के 9 गुणों का उल्लेख है। सात निन्ड्वों का भी उल्लेख है--जमालि, तिष्यगप्त, आषाढ, अश्वमित्र, गग, रोहगुप्त और गोष्ठमाहिल। इनमें प्रथम दो के अतिरिक्त सभी निन्हवों की उत्पत्ति महावीर के बाद ही हई। प्रव्रज्या, स्थविर, लेखन-पद्धति प्रादि से संबद्ध सामग्री की दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। 4. समवायांग:--इसमें कुल 275 सत्र है जिनमें ठाणांग के समान संख्या-क्रम से निश्चित वस्तुओं का निरूपण किया गया है। यद्यपि कोई क्रम तो नहीं पर उसी का प्राधार लेकर संख्या-क्रम सहन. दश सहस्र और कोटा-कोटि तक पहुंचा है। ठाणांग क समान यहां भी महावीर के बाद की घटनाओं का उल्लेख मिलता है। उदाहरणतः 100 वें सत्र में गणधर इन्द्रभूति और सूधर्मा के निर्माण से संबद्ध घटना। ठाणांग और समवायांग की एक विशिष्ट शैली है जिसके कारण इनके प्रकरणों में एक सत्रता के स्थान पर विषय-वैविध्य अधिक दिखाई देता है। इसमें भौगोलिक और सांस्कृतिक सामग्री भरी हुई है। 5. विवाहपण्णत्ति:--ग्रन्थ की विशालता और उपयोगिता के कारण इसे भगवतीसूत्र भी कहा जाता है। इसमें गणधर गौतम के प्रश्न और महावीर के उत्तर निबद्ध है । अधिकांश प्रश्न स्वर्ग, नरक, चन्द्र, सूर्य, आदि से सम्बद्ध है । इसमें 41 शतक हैं जिनमें 837 सूत्र है। प्रथम शतक अधिक महत्वपूर्ण है। आगे के शतक इसी की व्याख्या करते हुए दिखाई देते हैं। यहां मक्खली गौसाल का विस्तृत चरित्र भी मिलता है । बुद्ध को छोडकर पार्श्वनाथ पौर महावीर के समकालीन आचार्य और परिव्राजक, पार्श्वनाथ और महावीर का परम्पराभेद, स्वप्नप्रकार, जवणिज (यापनीय) संघ और वैशाली में हुए दो महायुद्ध, वनस्पतिशास्त्र, जीव प्रकार प्रादि के विषय में यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण जानकारी देता है। इसमें देवर्धिगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित नन्दिसत्र का भी उल्लेख है जिससे स्पष्ट है कि इस महाग्रन्थ में महावीर के बाद की सगभग एक हजार वर्ष की प्राचीन परम्पराओं का संकलन है । नायाधम्मकहानो :-इसमें भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट लोकप्रचलित धमंकथाओं का निबन्धन है जिसमें संयम, तप, त्याग प्रादि का महत्व बताया गया है। इस ग्रन्थ में दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में नीति-कथाओं से संबद्ध उन्नीस अध्ययन हैं और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों में धर्मकथायें संकलित हैं। शैली रोचक और प्राकर्षक है। इसमें मेघकुमार, धन्ना और विजय चोर, सागरदत्त और जिनदत्त, कच्छप और श्रृगाल, शैलक मुनि और शुक परिव्राजक, तुंब रोहिणी, मल्ली, भाकंदी, दुर्दर, अमात्य तमलि, द्रोपदी, पुण्डरीक कुण्डरीक, गजसुकुमाल, नंदमणियार आदि की कथायें संकलित है। ये कथायें घटना प्रधान तथा नाटकीय तत्वों से प्रापूर है । सांस्कृतिक महत्व की सामग्री भी इसमें सन्निहित है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. उवासगदसामो:-इसमें दस अध्ययन हैं जिसमें क्रमशः प्रानन्द, कामदेव चुलिनीप्रिय, सुरादेव, चुल्लशतक, कुण्डकौलिक, सद्दालपुत्र, महाशतक, नंदिनीपिता और सालतियापिता इन दस उपासकों का चरित्र-चित्रण है। इन श्रावकों को पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन बारह अणुव्रतों का निरतिचार पूर्वक पालन करते हुए धर्मार्थसाधना में तत्पर बताया है। इसे आचारांग का परिपूरक ग्रन्थ कहा जा सकता है। 8. अंतगडदसाप्रो :-इस अंग में ऐसे स्त्री-पुरुषों का वर्णन है जिन्होंने संसार का अन्त कर निर्वाण प्राप्त किया है। इसमें आठ वर्ग है। हर वर्ग किसी न किसी मुमुक्षु से संबद्ध है। यहां गौतम, समुद्र, सागर, गम्भीर, गज तुकुमाल, कृष्ण, पद्मावती, अर्जुनमाली, अतिमुक्त आदि महानुभावों का चरित्र-चित्रण उपलब्ध है। पौराणिक और चरितकाव्यों के लिये ये कथानक बीजभूत माने जा सकते हैं। 9. अणुसरोववाइयदसानो :---इस ग्रन्थ में ऐसे महापुरुषों का वर्णन है जो अपने तप और संयम से अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए। उसके बाद वे मुक्तिगामी होते हैं। यह अंग तीन वर्गों में विभक्त हैं। प्रथम वर्ग में 10, द्वितीय वर्ग में 13 और तृतीय वर्ग में 10 अध्ययन हैं। जालि, महाजालि, अभयकुमार आदि दस राजकुमारों का प्रथम वर्ग में, दघिसन, महाँसन, सिहसेन आदि तेरह राजकुमारों का द्वितीय वर्ग म और धन्य कुमार, रामपुत्र, बेहल्ल आदि दस राजकुमारों का भोगमय और तपोमय जीवन का चित्रण मिलता है। 10. पण्हवागरणं :-इसम प्रश्नोत्तर के माध्यम से परसमय (जनेतरमत) का खण्डन कर स्वसमय की स्थापना की है। इसके दो भाग हैं। प्रथम भाग में हिंसादिक पाप रूप पाश्रवों का और द्वितीय भाग में अहिंसादि पांच व्रत-रूप संवर-द्वारों का वर्णन किया गया है। इसी सन्दर्भ में मन्त्र-तन्त्र और चमत्कारिक विद्याओं का भी वणन किया गया है। संभवत: यह ग्रन्थ उत्तरकालीन है। ___11. विवागसुयं :--इस ग्रन्थ में शुभाशुभ कर्मों का फल दिखाने के लिये बीस कथाओं का आलेखन किया गया है। इन कथानों में मुगापुत्र, नन्दिषेण आदि की जीवन गाथायें अशुभ कम के फल को और सुबाहु, भद्रनन्दी आदि की जीवन गाथायें शुभकम के फल को व्यक्त करती हैं। प्रसंगवशात् यहां हम विभिन्न घातक रोगों के वर्णन भी पाते हैं। वर्णन क्रम से पता चलता है कि यह ग्रन्थ भी उत्तरकालीन होना चाहिये। 12. दिट्ठिवाय :--श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यह ग्रन्थ लुप्त हो गया है जब कि दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम आदि प्रागमिक ग्रन्थ इसी के भद प्रभेद पर आधारित रहे हैं। समवायांग में इसके पांच विभाग किये गये है - परिकम, सूत्र , पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका । इसमें विभिन्न दर्शनों की चर्चा रही होगी। पूर्वगत विभाग के उत्पादपूर्व आदि चौदह भेद हैं। अनुयोग भी दो प्रकार के हैं। प्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग । चूलिकायें कहीं बत्तीस और कही पांच बताई गई हैं। उनका सम्बन्ध मन्त्र-तन्त्रादि से रहा होगा। ____ख. उपांग साहित्य :-वैदिक अंगोपांगों के समान जैनागम के भी उपयुक्त बारह अंगों के बारह उपांग माने जाते हैं। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो उपांगों के क्रम का अंगों के क्रम से कोई सम्बन्ध नहीं बैठता है। लगभग 12वीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में अंगों के साथ उपांगों का वर्णन भी नहीं पाता। इसलिये इन्हें उत्तरकालीन माना जाना चाहिये। ये उपांग इस प्रकार है :-- Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. उववाइय में 43 सूत्र है और उनमें साधकों का पुनर्जन्म कहां-कहां होता है इसका वर्णन किया गया है। इसमें 72 कलाओं और विभिन्न परिवाजकों का वर्णन मिलता है। 2. रायपसणिय में 217 सूत्र है। प्रथम भाग में सूर्याभदेव का वर्णन है। और द्वितीय भाग में केशी और प्रदेशी के बीच जीव-अजीव विषयक संवाद का वर्णन है। इसमें दर्शन, स्थापत्य, संगीत और नाट्यकला की विशिष्ट सामग्री सन्निहित है। 3. जीवाभिगम में प्रकरण और 272 सूत्र है जिनमें जीव और अजीव के भेदप्रभेदों का विस्तृत वर्णन किया गया है। टीकाकार मलयगिरि ने इसे ठाणांग का उपांग माना है। इसमें अस्त्र, वस्त्र, धातु, भवन आदि के प्रकार दिय गये हैं। ___4. पण्णवणा में 349 सूत्र है और उनमें जीव से संबंध रखने वाले 36 पदों का प्रतिपादन है--प्रज्ञापना, स्थान, योनि, भाषा, कषाय, इन्द्रिय, लेश्या प्रादि । इसके कर्ता प्राय श्यामाचार्य है जो महावीर परिनिर्वाण के 376 वर्ष बाद अवस्थित थे। इसे समवायाग सूत्र का उपांग माना गया है। वक्ष, तण, औषधियां, पंचन्द्रियजीव, मनुष्य, साद पच्चीस प्रार्यदेशों आदि का वर्णन मिलता है। 5. सूरपण्णति में 20 पाहुड, और 108 सत्र है जिनमें सूर्य, चन्द्र पौर नक्षत्रों की गति आदि का वर्णन मिलता है। इस पर भद्रबाह ने नियुक्ति और मलयगिरि ने टीका लिखी 6. जम्बदीवपण्णति दो भागों में विभाजित है --पूर्वाधं और उत्तराधं । पूर्वार्ध में चार और उत्तरार्ध में तीन वक्षस्कार (परिच्छेद) हैं तथा कुल 176 सूत्र हैं, जिनमें जम्बुद्वीप, भरतक्षेत्र, नदी, पर्वत, कुलकर प्रादि का वर्णन है। यह नायाधम्मकहानो का उपांग माना जाता है। 7. चन्दपण्णत्ति में बीस प्राभूत हैं और उनमें चन्द्र की गति आदि का विस्तृत विवेचन मिलता है। इसे उवासगदसाम्रो का उपांग माना जाता है। 8. निरयावलिया अथवा कप्पिया में दस अध्ययन है जिनमें काल, सुकाल, महाकाल, कण्ह, सुकण्ह, महाकण्ह, वीरकण्ह, रामकण्ह, पिउसेणकण्ह और महासणकण्ह का वर्णन है। 9. कप्पावडिसिया में दस अध्ययन हैं जिनमें पउम, महापउम, भद्द, सुभद्द, पउमभद्द, पउमसेण, पउमगुम्म, नलिणि गम्म, आणंद व नन्दण का वर्णन है ! 10. पुस्फिया में भी दस अध्ययन हैं जिनमें चन्द, सूर, सुक्क, बहुपुत्तिया, पुन्नमद, मणिमह, दत्त, सिव, बल और प्रणाढिय का वर्णन है। 11. पुष्फचूला में भी दस अध्ययन है--सिरि, हिरि, घिति, कित्ति, बुद्धि, लच्छी इलादेवी, सुरादेवी, रसदेवी और गन्ध देवी । 12. वहिदसाओ में बारह अध्ययन है-निसढ, माअनि, वह, वण्ह, पगता, जत्ती, दसरह, दढरह, महाषण, सत्तधणू, दसधणू और सयधणू । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये आंग सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व के है। पाठवे उपांग से लेकर बारह उपांग तक को समग्र रूप में निरयावलियामो भी कहा गया है। ग. मूलसूत्र : डा. शुबिंग के अनुसार इन में साधु जीवन के मूलभूत नियमो का उपदेश गभित है इसलिये इन्हें मलसत्र कहा जाता है। उपांगों के समान मूलसनों का भी इस नाम से उल्लेख प्राचीन आगमों में नहीं मिलता। इनकी म लसूत्रों की संख्या में भी मतभेद है। कोई इनकी संख्या तीन मानता है-उत्तराध्ययन, मावश्यक मोर दसवैकालिक, और कुछ विद्वानों ने पिण्डनियुक्ति और ओघनिर्य क्ति दोनों में से एक को सम्मिलित कर उनकी संख्या चार कर दी है। 1. उत्तरज्झयण-भाषा भोर विषय की दृष्टि से प्राचीन माना जाता है। इसकी तुलना पालि त्रिपिटक के सुत्तनिपात, धम्मपद आदि ग्रन्थों से की गई है। इसका अध्ययन आचारांगादि के अध्ययन के बाद किया जाता था। यह भी संभव है कि इसकी रचना उत्तरफाल में हुई हो। उत्तराध्ययन में 36 अध्ययन हैं जिनमें नैतिक, सैद्धान्तिक और कथा का समावश किया गया है। इनमें कुछ जिनभाषित हैं, कुछ प्रत्येक बुद्धों द्वारा प्ररूपित है और कुछ संवाद रूप में कहे गये हैं। 2. श्रावस्सय में छः नित्य क्रियाओं का छ: अध्यायों में वर्णन है--सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । 3. बसवेयालिय के रचयिता आर्य शयंभव है । उन्होंने इसकी रचना अपने पुत्र के लिये की थी। विकाल अर्थात् सन्ध्या में पढ़े जाने के कारण इसे दशवयालिय कहा जाता है। यह दस अध्यायों में विभक्त है जिनमें मुनि-प्राचार का वर्णन किया गया है। 4. पिण्डनियुक्ति में पाठ अधिकार और 671 गाथायें हैं जिनमें उद्गम, उत्पादन, एषणा प्रादि दोषों का प्ररूपण किया गया है। इसके रचयिता भद्रबाहु माने जाते हैं। 5. मोधनियुक्ति में 8 11 गाथायें हैं जिनमें प्रतिलखन, पिण्ड, उपाधिनिरूपण अनायतनवर्णन, प्रतिसेवना, मालोचना और विशुद्धि का निरूपण है । घ. छेदसूत्रः श्रमण धर्म के प्राचार-विचार को समझने की दृष्टि से छेदसूत्रों का विशिष्ट महत्व है। इनमें उत्सर्ग (सामान्य विधान), अपवाद,दोष और प्रायश्चित विधानों का वर्णन किया गया है । छदसूत्रों की संख्या 6 है---दसासुयक्खंध, बृहत्कल्प, ववहार, निसीह, महानिसीह, और पंचकप्प अथवा जीतकप्प । 1. दसासूयक्खंध अथवा प्राचारदसा में दस अध्ययन हैं। उनम क्रमश: असमाधि के कारण, शवलदोष (हस्तकम मथुन आदि), आशातना (अवज्ञा), गणिसम्पदा, चित्तसमाधि, उपासक प्रतिमा, भिक्षु प्रतिमा, पयू षणा कल्प, मोहनीयस्थान और मायातिस्थान (निदान) का वर्णन मिलता है। महावीर के जीवन-चरित की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। इसके रचयिता नियुक्तिकार से भिन्न प्राचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। 2. बृहत्कल्प में छ: उद्देश्य हैं जिनमें भिक्षु-भिक्षुणियों के निवास, विहार, आहार। प्रासन मादि से सम्बद्ध विविध नियमों का विधान किया गया है। इसके भी रचयिता भद्रबाहु माने गये हैं। यह ग्रन्थ गद्य में लिखा गया है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . व्यवहार में इस उद्देश और 300 सूत्र हैं। उनमें माहार, विहार, वैश्यावृत्ति, साधु-साध्वी का पारस्परिक व्यवहार, गृहगमन, दीक्षाविधान प्रादि विषयों पर सांगोपांग चर्चा की गई है। इस ग्रन्थ क भी कर्ता भद्रबाहु मान गये हैं। 4. निसीह में बीस उद्देश और लगभग 1500 सूत्र हैं। इनमें गुरमासिक, लघुमासिक, गुरुचातुर्मासिक, लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त से संबद्ध क्रियाओं का वर्णन है। 5. महानिसीह में छः अध्ययन और दो चुलाएं हैं जिनका परिमाण लगभग 4554 श्लोक है। भाषा और विषय की दृष्टि से यह ग्रन्थ अधिक प्राचीन नहीं जान पडता। विनष्ट महानिसीय हरिभद्रसूरि ने संशोधित किया और सिद्धसेन तथा जिनदास गणि ने उसे मान्य किया। कर्मविपाक, तान्त्रिक-प्रयोग, संघस्वरूप आदि पर विस्तार से यहां चर्चा की गई है। 6. जीतकप्प की रचना जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 103 गाथाओं में की। इसमें प्रात्मा की विशुद्धि के लिए जीत अर्थात् प्रायश्चित का विधान है। इसमें आलोचना, प्रतिकमण उभय, विव क, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल अनवस्थाप्य और पारा च. चुलिका सूत्रः--चूलिकायें ग्रन्थ के परिशिष्ट के रूप में मानी गई हैं। इनमें ऐसे विषयों का समावेश किया गया है जिन्हें प्राचार्य अन्य किसी ग्रन्थ प्रकार में सम्मिलित नहीं कर सके। नन्दी और अनुयोगद्वार की गणना चूलिका पत्रों में की जाती है। ये सूत्र अपेक्षाकृत अर्वाचीन है। नन्दीसूत्र गद्य-पद्य में लिखा गया है। इसमें 90 गाथायें और 59 गद्यसूत्र हैं। इसका कुल परिमाण लगभग 700 श्लोक होगा । इसके रचयिता दूष्यगणि के शिष्य देववाचक माने जाते हैं जो देवधिगणि क्षमाश्रमण से भिन्न है। इसमें पांच ज्ञानों का वर्णन विस्तार से किया गया है। स्थविरावली और श्रुतज्ञान के भद-प्रभेद की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। अनुयोगद्वार में निक्षप पद्धति से जैनधर्म के मूलभूत विषयों का प्राख्यान किया गया है। इसके रचयिता आर्य रक्षित माने जाते हैं । इसमें नय, निक्षेप, प्रमाण, अनुगम प्रादि का विस्तृत वर्णन है। ग्रन्थमान लगभग 2000 श्लोक प्रमाण हैं। इसमें अधिकांशतः गद्य भाग है। छ. प्रकीर्णकः--इस विभाग में ऐसे ग्रन्थ सम्मिलित किये गये है जिनकी रचना तीर्थंकरों द्वारा प्रवदित उपदेश के आधार पर प्राचार्यों ने की है। ऐसे आगमिक ग्रन्थों की संख्या बगभग 14000 मानी गई है परन्तु वल्लभी वाचना के समय निम्नलिखित दस ग्रन्थों का ही समावेश किया गया है--च उसरण, पाउरपच्चक्खाण, महापच्चक्खाण, भत्तपइण्णा, तंदुलवयालिय, संथारक, गच्छायार, गणिविज्जा, देविदथय, और मरणसमाहि (चउसरण में 63 गाथाय हैं) जिनमें अरिहंत, सिद्ध, साधु, एवं केवलिकथित धर्म को शरण माना गया है। इसे वीरभद्र कृत माना जाता है। पाउरपच्चक्खाण में वीरभद्र ने 70 गाथाओं में बालमरण पीर पण्डितमरण का व्याख्यान किया है। महापच्चक्खाण में 142 गाथायें हैं जिनम व्रतों और पाराधनाओं पर प्रकाश डाला गया है। भत्तपइण्णा में 17 गाथायें हैं जिनमें वीरभद्र ने भक्तपरिज्ञा. इंगिनी और पादोपगमन रूप मरण-भेदों के स्वरूप का विवेचन किया है। तंदुलवयालिय में 139 गाथायें हैं और उनमें गर्भावस्था, स्त्रीस्वभाव तथा संसार का चित्रण किया गया है। संथारक में 123 गाथायें हैं जिनमें मृत्युशय्या का वर्णन है। गच्छायार में 130 गाथाय हैं जिनमें गच्छ में रहने वाले साधु-साध्वियों के प्राचार का वर्णन है। गणिविज्जा में 80 गाथायें हैं जिनमें दिवस, तिथि, नक्षत्र, करण, महर्त प्रादि का वर्णन है। देविदथय (307 गा.) में देवेन्द्र की स्तुति है । मरणसमाहि (663 गा.) में प्राराधना, पाराधक, पालोचना, संलेखन, क्षमायापन आदि पर विवेचन किया गया है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a इन प्रकीर्णकों के अतिरिक्त तित्थुगालिय, अजीवकप्प, सिद्धपाहुड, पाराहण पगास, दीवसायरपण्णति, जोइसकरंडक, अंगविज्जा, पिंडविसोहि, तिहिपइण्णग, सारावलि, पज्जंताराहणा, जीवविभत्ति, कवच-पकरण और जोगिपाहुड ग्रन्थों को भी प्रकीर्णक श्रेणी में सम्मिलित किया जाता है । 2. आगमिक व्याख्या साहित्य उपर्यत अर्धमागधी प्रागम साहित्य पर यथासमय निर्यक्ति.भाष्य चणि टीका.विवरण: वृत्ति, प्रवचूणि, पंजिका एवं व्याख्या रूप में विपुलसाहित्य की रचना हुई है। इनमें प्राचार्यों न आगमगत दुर्बोध स्थलों को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। इस विधा में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टोका साहित्य विशेष उल्लेखनीय है। क. नियुक्ति साहित्यः-जिस प्रकार यास्क ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिये निरुक्त की रचना की उसी प्रकार आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) ने आगमिक शब्दों की व्याख्या के लिये नियुक्तियों का निर्माण किया है। ये नियुक्तियां निम्नलिखित दस ग्रन्थों पर लिखी गई है-आवश्यक, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, दशाश्रुतस्कन्ध वृहत्कल्प, व्यवहार, सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित । इनमें अन्तिम दो नियुक्तियां उपलब्ध नहीं हैं। इन नियुक्तियों की रचना प्राकृत पद्यों में हुई है । बीच-बीच में कथाओं और दृष्टान्तों को भी नियोजित किया गया है। सभी नियुक्तियों की रचना निक्षेप पद्धति म हई है। इस पद्धति में शब्दों के अप्रासंगिक अर्थों को छोड कर प्रासंगिक अर्थों का निश्चय किया गया है। आवश्यकनियुक्ति में छः अध्ययन हैं :-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । इसमें सप्त निन्हव तथा भगवान् ऋषभदेव और महावीर के चरित्न पालेखन हा है। इस निर्यक्ति पर जिनभद्र,जिनदासगणि, हरिभद्र, कोट्याचार्य, मलयगिरि मलधारी हेमचन्द्र, माणिक्यशेखर आदि प्राचार्यों ने व्याख्या ग्रन्थ लिखें। इसमें लगभग 1650 गाथायें है । दशवकालिक नियुक्ति ( 341 गा.) में दश, काल आदि शब्दों का निक्षेप पद्धति से विचार हुआ है। उत्तराध्ययन नियुक्ति (607 गा.) में विविध धार्मिक और लौकिक कथाओं द्वारा सूत्रार्थ को स्पष्ट किया गया है। प्राचारांग नियुक्ति (347 गा.) में प्राचार, अंग ब्रह्म चरण आदि शब्दों का अर्थ निर्धारण किया गया है। सूत्रकृतांग नियुक्ति (205 गा.) में मत मतान्तरों का वर्णन है । दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति में समाधि, स्थान, दक्ष, श्रृंत आदि का वर्णन है । वृहत्कल्प नियुक्ति (559 गा.) और व्यवहार नियुक्ति भाष्य मिश्रित अवस्था में उपलब्ध होती है। इनके अतिरिक्त पिण्डनियुक्ति, प्रोधनियुक्ति, पंचकल्प-नियुक्ति, निशीथ-नियुक्ति, और संसक्तनियुक्ति भी मिलती है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से इन नियुक्तियों का विशेष महत्व है। ख. भाष्य साहित्य:-नियुक्तियों में प्रच्छन्न गूढ विषय को स्पष्ट करने के लिए भाष्य लिखे गये। जिन पागम ग्रन्थों पर भाष्य मिलते हैं वे हैं-आवश्यक, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, बृहत्कल्प, पंचकल्प, व्यवहार, निशीथ, जीतकल्प,अोधनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति । ये सभी भाष्य पद्यबद्ध प्राकृत में हैं। आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य मिलते हैं-मूलभाष्य, भाष्य और विशेषावश्यकभाष्य । विशेषावश्यकभाष्य आवश्यकसूत्र के मान प्रथम अध्ययन सामायिक पर लिखा गया है फिर भी उसमें 3603 गाथायें हैं। इसमें प्राचार्य जिनभद्र (लगभग विक्रम संवत 650-660) ने जैन ज्ञान और तत्वमीमांसा की दृष्टि से सामग्री को संकलित किया है। योग, मंगल,पंचज्ञान, सामायिक, निक्षप, अनुयोग, गणधरवाद, मात्मा और कर्म,प्रष्ट निन्हव, प्रायश्चित्त विधान प्रादि का विस्तृत विवेचन मिलता है। जिनभद्र का ही दूसरा भाष्य जीतकल्प (103 गा.) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 पर है जिसमें प्रायश्चितों का वर्णन है । इसी पर एक स्वोपज्ञभाष्य (2606 गाथायें) भी मिलता है जिसम बृहत्कल्प, लघुभाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्प महाभाष्य, पिण्डनियुक्ति आदि की गाथायें शब्दशः उद्धृत हैं । बृहत्कल्प लघुभाष्य के रचयिता संघदासगणि क्षमाश्रमण जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं जिन्होंने इस छ: उद्देश्यों और 6490 गाथाओं में पूरा किया है। इसमें जिनकल्पिक और स्थविर कल्पिक साधु-साध्वियों के आहार, विहार, निवास आदि का सूक्ष्म वर्णन किया गया है। सांस्कृतिक सामग्री से यह ग्रन्थ भरा हुआ है। इन्हीं प्राचार्य का पंचकल्प महाभाष्य (2665 गाथायें) भी मिलता है । बृहत्कल्प लघु-भाष्य के समान बृहत्कल्प वृहद्भाष्य भी लिखा गया है पर दुर्भाग्य से - अभी तक वह अपूर्ण ही अलब्ध है । इस संदर्भ में व्यवहारभाष्य (दस उद्देश), अोपनियुक्ति लधुभाष्य (322 गा.), प्रोपनियुक्त बृहद्भाष्य (2517 गा.) और पिण्डनियुक्ति भाष्य (46 गा.) भी उल्लेखनीय हैं । ग. चूणि साहित्यः--पागम साहित्य पर नियुवितयों और भाष्यों के अतिरिक्त चूर्णियों की भी रचना हुई है । पर वे पद्य में न होकर गद्य में हैं और शुद्ध प्राकृत भाषा में न होकर प्राकृत संस्कृत मिश्रित हैं । सामान्यतः यहां संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत का प्रयोग अधिक हुआ है। चणि कारों में जिनदासगणि महत्तर और सिद्धसेनसरि अग्रगण्य हैं । जिनदासगणि महत्तर (लगभग सं. 650-750) ने नन्दी, अनुयोगद्वार, पावश्यक, दशव कालिक, उत्तराध्ययन,प्राचारांग, सूत्रकृतांग, बृहत्कल्प, व्याख्याप्रज्ञप्ति, निशीथ और दशाश्रु तस्कन्ध पर चूणियां लिखी हैं तथा जीतकल्प चूणि के कर्ता सिद्धसेनसूरि (वि. सं. 1227) हैं । इनके अतिरिक्त जीवाभिगम, महानिशीथ, व्यवहार, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति प्रादि ग्रन्थों पर भी चूणियां लिखी गई हैं । इन चूर्णियों में सांस्कृतिक तथा कथात्मक सामग्री भरी हुई है। घ. टीका साहित्यः--पागम को और भी स्पष्ट करने के लिये टीकाय लिखी गई है। इनको भाषा प्रधानतः संस्कृत है पर कथाभाग अधिकांशतःप्राकृत में मिलता है। आवश्यक, दशवकालिक, नन्दी और अनयोगद्वार पर हरिभद्रसूरि (लगभग 700-770 ई.) की, प्राचारांग और सूत्रकृतांग पर शीलाचार्य (वि. सं. लगभग 900-1000) की, अंग सूत्रों पर अभयदेवसूरि की, अनेक आगमों पर मलयगिरि की, उत्तराध्ययन पर शिष्यहिता टीका शान्तिसरि ( 11वीं शती) की तथा सुखबाधा टीका देवेन्द्रगणि नेमिचन्द्र की विशेष उल्लेखनीय है। संस्कृत टीकाओं में विवरणों और तयों की तो एक लम्बी संख्या है जिसका उल्लेख करता यहां अप्रासंगिक होगा। 3. कर्म साहित्य पूर्वोक्त प्रागम साहित्य अर्धमागधी प्राकृत में लिखा गया है । इसे परम्परानुसार श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्वीकार करता है परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय किन्हीं कारणोंवश उसे लुप्त हुअा मानता है । उसके अनुसार प्रांशिक ज्ञान मुनि-परम्परा में सुरक्षित रहा । उसी के आधार पर प्राचाय धरसेन के सान्निध्य में षट्खण्डागम की रचना हुई। षट्खण्डागम दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के अन्तर्गत अग्रायणी नामक द्वितीय पूर्व के चयन-लब्धि नामक पांचवें अधिकार के चतुर्थ पाहुड (प्राभृत)कर्मप्रकृति पर आधारित है । इसलिय इसे कर्मप्राभृत भी कहा जाता है । इसके प्रारम्भिक भाग सत्प्ररूपणा के रचयिता पुष्पदन्त हैं और शेष भाग को प्राचार्य भूतबलि' ने लिखा है । इनका समय महावीर निर्वाण के 600-700 वर्ष बाद माना जाता है ।। सत्प्ररूपणा में 177 सूत्र है । शेष ग्रन्थ 6000 सूत्रों में रचित है । कर्मप्राभृत के छः खण्ड है-जीवट्ठाण (2375 सूत्र), खुद्दाबन्ध (1582 सूत्र), बन्धसामित्तविचय (324 सूत्र), वेदना (144 सूत्र), वग्गणा (962 सूत्र) और टिप्पणी:-1. षट्खण्डागम, पुस्तक 1, प्रस्तावना पु. 21-31. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबन्ध (सात अधिकार)। इनमें कर्म और उनकी विविध प्रकृतियों का विस्तृत विवेचन मिलता है । इस पर निम्नलिखित टीकायें लिखी गई हैं । इन टीकात्रों में धवला टीका को छोड़कर शेष सभी अनुपलब्ध हैं । इनकी भाषा शौरसेनी प्राकृत है :-- (1) प्रथम तीन खण्डों पर कुन्दकुन्दाचार्य की प्राकृत टीका (12000 श्लोक) प्रथम पांच खण्डों पर शास्त्रकुण्डकृत पद्धति नामक प्राकृत-संस्कृत कन्नड मिश्रित टीका (12000 श्लोक परिमाण) (3) छठे खण्ड पर तुम्बूलाचार्यकृत प्राकृत पंजिका (6000 श्लोक) (4) वीरसेन (816 ई.) की प्राकृत संस्कृत मिश्रित टीका (72000 श्लोक) दृष्टिवाद के ही ज्ञानप्रवाद नामक पांचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के पेज्जदोस नामक तृतीय प्राभूत से कषायप्राभृत (कसाय पाहुड) की उत्पत्ति हई । इसे पेज्जदोसपाहुड भी कहा गया है । आचार्य गुणधर ने इसकी रचना भगवान महावीर के परिनिर्वाण के 683 वर्ष बाद की । इसमें 1600 पद, 180 किंवा 233 गाथायें और 15 अर्थाधिकार है । इस पर यति वृषभ ने विक्रम की छठी शती में छः हजार श्लोक प्रमाण चणिसूत्र लिखा । उस पर वीरसेन ने सन् 874 में बीस हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिखी। इस अधरी टीका को उनके शिष्य जयसेन (जिनसेन) ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका और लिखकर ग्रन्थ समाप्त किया । इनके अतिरिक्त उच्चारणाचार्यकृत उच्चारणवत्ति, शामकूण्डकृत पद्धति टीका, तुम्बुलाचार्य कृत चुडामणिव्याख्या तथा बप्पदेवगुरुकृत व्याख्याप्रजप्ति वत्ति नामक टीकाओं का उल्लख मिलता है पर आज वे उपलब्ध नहीं हैं। इन सभी टीका ग्रन्थों में कर्म की विविध व्याख्या की गई है । इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने विक्रम की 11वीं शती में गोमट्टसार की रचना की । वे चामुण्डराय के गुरु थे जिन्हें गोमट्टराय भी कहा जाता था । गोमटसार के दो भाग हैं-जीवकाण्ड733 गाथायें और कर्मकाण्ड (972 गा.) । जीवकाण्ड में जीव, स्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्धस्वामी और वेदना इन पांच विषयों का विवेचन है । कर्मकाण्ड में कर्म के भेद-प्रभेदों की व्याख्या की गई है । इसी लेखक की लब्धिसार (261 गा.) नामक एक और रचना मिलती है। लगभग पाठवीं शती में लिखी किसी अज्ञात विद्वान् की पञ्चसंग्रह (1304 गा.) नामक कृति भी उपलब्ध है । इसमें कर्मस्तव आदि पांच प्रकरण है । प्रायः ये सभी ग्रन्थ शौरसैनी प्राकृत में लिखे गये हैं । प्राचार्य कुन्दकुन्द, वट्टकर और शिवार्य के साहित्य को इसमें और जोड दिया जाय तो यह समूचा साहित्य दिगम्बर सम्प्रदाय का पागम साहित्य कहा जा सकता है । इन ग्रन्थों के अतिरिक्त शिवशर्मसूरि (वि. की पांचवीं शती) की कर्मप्रकृति (475 गा.); उस पर किसी अज्ञात विद्वान की सात हजार श्लोक प्रमाण चर्णि, वीरशखरविजय का ठिइबन्ध (876 गा.) तथा खवग सेढी और चन्द्रषिमहत्तर का पंचसंग्रह (1000 गा.) विशिष्ट कर्म-ग्रन्थ है । गर्षि (वि. की 1 वीं शती) का कर्मविपाक, अज्ञात कवि का कर्मस्तव और बन्धस्वामित्व, जिनवल्लभ गणि की षडशीति, शिवशर्मसरि का शतक और अज्ञात कवि की सप्ततिका ये प्राचीन षट कर्म ग्रन्थ कहे जाते हैं। जिनवल्लभगणि (वि.की 12वीं ( शती) का सार्धशतक (155 गा.) भी स्मरणीय है। देवेन्द्रसूरि ( 13वीं शती) के कर्मविपाक 60 गा.), कर्मस्तव ( 3 4 गा.), बन्धस्वामित्व ( 24 गा.), षडशीति ( 86 गा.) और शतक 100 गा.), इन पांच ग्रन्थों को व्यकर्मग्रन्थ कहा जाता है । जिनभद्रगणि की विशेषणवति... Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयविमलगणि (वि. सं. 1623) का भावप्रकरण (30 गा.), हर्षकुल गणि (16वीं शती) का बन्धोदयसत्ता प्रकरण (24 गा.) ग्रन्थ भी यहां उल्लेखनीय हैं । ___4. सिद्धान्त साहित्य कर्मसाहित्य के अतिरिक्त कुछ और ग्रन्थ है जिन्हें हम मागम के अन्तर्गत रख सकते है। इन ग्रन्थों में प्राचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शती) के पवयणसार (275 गा.), समयसार (415 गा.), नियमसार (181 गा.), पंचत्थिकाय-संगहसुत्त (173 गा.), देवणपाहुड (36 गा.), चारित्तपाहुड (44 गा.), सुत्तपाहुड (27 गा.), बोषपाहुड (62 गा.), भावपाहुड (166 गा.), मोक्खपाहुड (106 गा.), लिंगपाहुड (22 गा.) और सीलपाहुड (40 गा.) प्रधान ग्रन्थ हैं। इनमें निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा की विशुद्धावस्था को प्राप्त करने का मार्ग बताया गया है। इनकी भाषा शौरस नी है। अनेकान्त का सम्यक विवेचन करने वालों में आचार्य सिद्धसेन (5-6वीं शती) शीर्षस्थ है। जिन्होंने सम्मइसुत्च (167 गा.) लिखकर प्राकृत में दार्शनिक ग्रन्थ लिखने का मार्ग प्रशस्त किया। यह ग्रन्थ तीन खण्डों में विभवत है-नय, उपयोग और अनेकान्तवाद। अभयदेव ने इस पर 25000 श्लोक प्रमाण तत्वबोध-विद्यायिनी नामक टीका लिखी। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। इसी प्रकार प्राचार्य देवसेन का लघुनय चक्र (81 गा.) और माइल घक्ल का वृहन्नयचक्र (423 गा.) भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। किसी अज्ञात कवि का जीवसमास (286 गा.); शान्तिसूरि (11वीं शती) का जीवविवार (51 गा.), अभयदेवसूरि की पण्णवणा-तइयपयसंगहणी (133 गा.), अज्ञातकवि की जीवाजीवाभिगमसंगहणी (223 गा.), जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का समयखित्तसमास (637 गा.), रत्नशेखरसूरि की क्षेत्रविचारणा (377 गा.), नेमिचन्द्रसूरि का पवयणसारुखार (1599 गा.); सोमतिलकसूरि (वि. सं. 1373) का सतरिसयठाण पयरण (359 गा.); देवसूरि का जीवाणुसासण (323 गा.) आदि रचनाओं में सप्त तत्वों का सांगोपांग विवेचन मिलता है। धर्मोपदेशात्मक साहित्य भी प्राकत में प्रचर मात्रा में मिलता है। जीवन-साधना की दृष्टि से यह साहित्य लिखा गया है । धर्मदास गणि (लगभग 8 वीं शती) की उवएसमाला(542 गा.), हरिभद्रसूरि का उवएसपद ( 1039 गा.) एवं संबोहपयरण (150 गा.),हेमचन्द्र सूरि की पुष्पमाला (50 5 गा.) व भवभावणा (531 गा.), महेन्द्रप्रभूसूरि (सं. 1436) की उवएस चितामणि (415 गा.), जिनदत्तसूरि (1231) का विवेकविलास (1323 गा.); शुभवर्धनगणि (सं. 1552) की वद्धमाणदेसना (3163गा.), लक्ष्मीवल्लभगणि का वैराग्यरसायनप्रकरण (102 गा.); पद्मनन्दमुनि का धम्मरसायण (193 गा.) तथा जयवल्लभ का वज्जालग्ग (1330 गा.) भादि ग्रन्थ मुख्य हैं। इन कृतियों में जैनधर्म, सिद्धांत और तत्वों का उपदेश दिया गया है और आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से व्रतादि का महत्व बताया गया है । ये सभी कृतियां जैन महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गई हैं और पश्चिम के जैन साहित्यकारों ने अर्धमागधो के बाद इसी भाषा को माध्यम बनाया । 'यश्रुति' इसकी विशषता है । प्राचार्यों ने योग और बारह भावनाओं सम्बन्धी साहित्य भी प्राकृत में लिखा है। इसका अधिकांश साहित्य यद्यपि संस्कृत में मिलता है पर प्राकृत भी उससे अछता नहीं रहा। हरिभद्र सूरि का झाणज्झयण (106 गा.), कुमार कार्तिकेय का बारसानुवेक्खा (489गा.), ड देवचन्द्र का गुणट्ठाणसय (107 गा.) उल्लेखनीय है । इन ग्रन्थों में यम, नियम आदि क माध्यम से मुक्तिमार्ग-प्राप्ति को निर्दिष्ट किया गया है । प्राचीन भारतीय योगसाधना को किस प्रकार विशुद्ध प्राध्यात्मिक साधना का माध्यम बनाया जा सकता है इसका निदर्शन इन प्राचार्यों ने इन कृतियों में बड़ी सफलतापूर्वक किया है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. आचार साहित्य आचार साहित्य में सागार और अनगार के व्रतों और नियमों का विधान रहता है । वट्टकेर (लगभग 3री शती) का मलाचार (1552 गा.), शिवार्य (लगभग तुतीय शती) का भगवा पाराहणा (2166 गा.) और वसुनन्दी (13वीं शती) का उवासयाज्झयण (546 गा.) शौरसेनी प्राकृत में लिखे कुछ विशिष्ट ग्रन्थ हैं जिनमें मुनियों और श्रावकों के प्राचारविचार का विस्तृत वर्णन है। इसी तरह हरिभद्रसूरि के पंचवत्थुग (1714 गा.), पंचासग ( 950 गा. ), सावयपण्णत्ति (405 गा.) और सावयधम्मविहि (120 गा.), प्रद्युम्नसूरि की मूलसिद्धि (252 गा.), वीरभद्र (सं. 1078) की आराहणापडाया (990 गा.), देवेन्द्रसूरि की सड़ददिण किञ्च (344 गा.) आदि जैन महाराष्ट्री में लिखे प्रमुख ग्रन्थ हैं। इनमें मुनि और श्रावकों की दिनचर्या, नियम, उपनियम, दर्शन, प्रायश्चित आदि की व्यवस्था विधि बताई गई है। इन ग्रन्थों पर अनेक टीकार्य भी मिलती है। _6. विधि-विधान और भक्तिमूलक साहित्य प्राकृत में एसा साहित्य भी उपलब्ध होता है जिसमें प्राचार्यों ने भक्ति, पूजा प्रतिष्ठा, यज्ञ, मन्त्र , तन्त्र, पर्व, तीर्थ आदि का वर्णन किया है। कुन्दकुन्द की सिद्ध भक्ति (12 गा.), सुदत्ति, चरित्तभत्ति, (10 गा.) अणगारभत्ति, (23 गा.), पायरियभत्ति, (10 गा.), पंवगुरुभत्ति, (7 गा.), तित्थयरभत्ति,(8 गा.) और निव्वाणभत्ति, (26 गा.) विशेष महत्वपूर्ण हैं। यशोदेवसूरि का पच्चक्खाणसरुव (329 गा.); श्रीचन्द्रसूरि की अणट्ठाणविहि, जिनवल्लभगणि की पडिक्कमणसमायारी (40 गा.),पोसहविहिपयरण (11 और जिनप्रभसूरि (वि. सं. 1363) की विहिमगप्पवा (3575 गा.) इस संदर्भ में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। धनपाल की ऋषभपंचासिका (50 गा.), भद्रबाहु का उपसग्गहरस्तोत्र (20 गा.), नन्दिषेण का अजियसं तिथय, देवेन्द्रसूरि का शास्वतचंत्यस्तव, धर्मघोषसूरि (14वीं शती) का भवस्त्रोत्र, किसी अज्ञात कवि का निर्वाणकाण्ड (21 गा.) तथा योगन्द्रदेव (छठी शती) का निजात्माष्टक प्रसिद्ध स्तोत्र है इन स्तोत्रों में दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ ही काव्यात्मक तत्वों का विशेष ध्यान रखा गया है। 7. पौराणिक और ऐतिहासिक काव्य साहित्य जैन धर्म में 63 शलाका महापुरुष हुए है जिनका जीवन-चरित्न कवियों ने अपनी लेखनी में उतारा है। इन काव्यों का स्रोत आगम साहित्य है । इन्हें प्रबन्ध काव्य की कोटि में रखा जा सकता है। इनमें कवियों ने धर्मोपदेश, कर्मफल, अवान्तरकथायें, स्तुति दर्शन, काव्य और संस्कृति को समाहित किया है। साधारणतया सभी काव्य शान्तरसनिवर्ती हैं। इनमें महाकाव्य के प्रायः सभी लक्षण घटित होते हैं। लोकतत्वों का भी समावेश यहां हुआ है। पउमचरिय (8351 गा.) पौराणिक महाकाव्यों में प्राचीनतम कृति है। जिसकी रचना विमलसरिने वि.सं.530 में की। कवि ने यहां रामचरित को यथार्थवादि भूमिका पर खड़े होकर लिखा है। उसमें उन्होंने अतार्किक और बेसिर-पर की बातों को स्थान नहीं दिया है। सभी प्रकार के गुण, अलंकार, रस और छन्दों का भी उपयोग किया गया है। . गप्त वाकाटक युग की संस्कृति भी इसमें पर्याप्त मिलती है। महाराष्ट्री प्राकृत का परिमाजित रूप यहां विद्यमान है। कहीं-कहीं अपभ्रंश का भी प्रभाव दिखाई देता है। इसी तरह भवनतगसूरि का सीताचरित्र (465 गा.) भी है। ____ सम्भवतः शीलांकाचार्य से भिन्न शीलाचार्य (वि. सं. 925) का चउपन्नमहा पुरिसचरिय (10800 श्लोक प्रमाण), भद्रेश्वरसूरि (12 वीं शती) रचित कहावली तथा, Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. आम्रकवि (10वीं शती) का चउप्पन महापुरिस चरिय (103 अधिकार), सोमप्रभाचार्य, (सं 1199) का सुमईनाहचरिय (9621 श्लोक परिमाण), लक्ष्मणगणि (सं. 1199) का सुपासनाहचरिय (8000 गा.), नेमिचन्द्रसूरि (सं. 1216) का अनंतनाहचरिय (1200 गा.), श्रीचन्द्र सूरि (सं. 1199) का मुनिसुव्धयसामिचरिय (10994 गा.) तथा गुण चन्द्रसूरि (सं. 1139) और नेमिचन्द्रसूरि (12वीं शती) के महावीर चरित्र (क्रमशः 12025 और 2385 श्लोक प्रमाण) काव्य विशेष उल्लेखनीय हैं। ये ग्रन्थ प्रायः पद्यबद्ध हैं। कथावस्तु की सजीवता व चरित्र-चित्रण की मार्मिकता यहां स्पष्टतः दिखाई देती है। द्वादश चक्रवर्तियों तथा अन्य शलाका पुरुषों पर भी प्राकृत रचनायें उपलब्ध हैं । श्रीचन्द्रसूरि (सं. 1214) का संणकुमार चरिय (8127 श्लोक प्रमाण), संघदासगणि और धर्मदासगणि (लगभग 5वीं शती) का वसूदेवहिण्डी (दो खण्ड) तथा गुणपालमनि का जम्बूचरिय (15 उद्देश्य) इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं । इन काव्यों में जैन धर्म, इतिहास और संस्कृति पर प्रकाश डालने वाले अनेक स्थल है । लिखे ग भगवान महावीर के बाद होने वाले अन्य प्राचार्यों और साधकों पर भी प्राकृत काव्य सूरि (सं. 1261) का प्रत्येकबुद्धचरित (6050 श्लोक प्रमाण) उनमें प्रमुख है । इसके अतिरिक्त कुछ और पौराणिक काव्य मिलते है जो आचार्यों के चरित्र पर आधारित है जैसे कालकाचार्य कथा आदि । जनाचार्यों ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कतिपय प्राकृत काव्य लिखे हैं । कहीं राजा, मन्त्री अथवा श्रेष्ठी नायक हैं तो कहीं सन्त, महात्मा के जीवन को काव्य के लिये चुना गया है। उनकी दिग्विजय, संघयात्रायें तथा अन्य प्रासंगिक वर्णनों में अतिशयोक्तियां भी झलकती हैं। वहां काल्पनिक चित्रण भी उभरकर सामने आये हैं। ऐसे स्थलों पर इतिहासवेत्ता को पूरी सावधानी के साथ सामग्री का चयन करना अपेक्षित है। हेमचन्द्रसूरि का द्वयाश्रय महाकाव्य चालुक्यवंशीय कुमारपाल महाराजा के चरित का ऐसा ही चित्रण करता है । इस ग्रन्थ को पढ़कर भट्टिकाव्य, राजतरंगिणी तथा विक्रमांकदेव चरित्र जैसे ग्रन्थ स्मृति पथ में पाने लगते हैं। इतिहास के निर्माण में प्रशस्तियों और अभिलेखों का भी महत्व होता है। श्रीचन्द्रसूरि के मुनिसुव्वयसामिचरिय (सं. 1193) की 100 गाथाओं की प्रशस्ति में संघ शाकम्भरी नरेश पृथ्वीराज, सौराष्ट्र नरेश बंगार आदि का वर्णन है । साहित्य जहां मौन हो जाता है वहां अभिलेख बात करने लगते हैं। प्राकृत में लिखे प्राचीनतम अभिलेख के रूप में बारली (अजमेर से 38 मील दूर) में प्राप्त पाषाण खण्ड पर खुदी चार पंक्तियां हैं जिनमें वीर निर्वाण संवत् 84 उत्कीर्ण है। अशोक के लेख इसके बाद के हैं। उनमें भी प्राकृत रूप दिखाई देते है। सम्राट खारवेल का हाथी गुफा शिलालेख, मथुरा और धमोसा से प्राप्त शिलालेख तथा घटियाल (जोधपुर) का शिलालेख (सं.918) इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है । कई मूर्ति लेख भी प्राकृत में मिलते हैं । नाटकों का समावेश दश्यकाव्य के रूप में होता है। इसमें संवाद, संगीत, नृत्य और अभिनय संन्निहित होता है। संस्कृत नाटकों में साधारणतः स्त्रियां, विदूषक तथा निम्नवर्ग के किंकर, धूर्त, विट, भूत, पिशाच आदि अधिकांश पात्र प्राकृत ही बोलते हैं । पूर्णतया प्राकृत में लिखा नाटक अभी तक उपलब्ध नहीं हआ। नयचन्द्रसूरि की सड़क कृति नयमंजरी अवश्य मिली है जो कर्पूरमंजरी के अनुकरण पर लिधी गई है। इसमें प्राकृत के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 8. कथा साहित्य जैनाचार्यों ने प्राकृत भाषा में विपुल कथा साहित्य का निर्माण किया है । उनका मुख्य उद्देश्य कर्म, दर्शन, संयम, तप, चरित्र, दान आदि को महत्व को स्पष्ट करना रहा है । श्रागम साहित्य इन कथाओं का मूल स्रोत है । आधुनिक कथाओं क े समान यहां वस्तु, पात्र, संवाद, इ शकाल, शैली और उद्देश्य के रूप में कथा के अंग भी मिलते हैं । नियुक्त, भाष्य, चूर्ण, टीका आदि ग्रन्थों में उपलब्ध कथायें उत्तर कालीन विकास को इंगित करती है । यहां अपेक्षा कृत सरसता और स्पष्टता अधिक दिखाई देती है । समूचे प्राकृत साहित्य को अनेक प्रकार से विभाजित किया गया हूँ । आगमों में कथा, विकथा और कथा ये तीन भेद किये गये हैं । कथा में लोककल्याण का हेतु गर्मित होता है । शेष त्याज्य है । विषय की दृष्टि से चार भेद हैं-प्रक्षेपणी, अर्थ, काम और मिश्रकथा | धर्मकथा के भी चार भेद हैं-प्रक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी । जैनाचार्यों ने इसी प्रकार को अधिक अपनाया है । पात्रों के आधार पर उन्हें दिव्य, मानुष और मिश्रकथाओं के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है ।" तीसरा वर्गीकरण भाषा की दृष्टि से हुआ है – संस्कृत, प्राकृत, और मिश्र । उद्योतनसूरि ने शैली की दृष्टि से इसके पांच भेद किये हैं. सकल कथा, खण्ड कथा, उल्लाप कथा, परिहास कथा और संकीर्ण कथा । प्राकृत साहित्य में में मिश्रकथायें अधिक मिलती हैं । इन सभी कथा-ग्रन्थों का परिचय देना यहां सरल नहीं । इसलिए विशिष्ट ग्रन्थों काही उल्लेख किया जा रहा है । Am कथा संग्रह: - जैनाचार्यों ने कुछ ऐसी धर्मकथाओं का संग्रह किया है जो साहित्यकार के लिये सदैव उपजीव्य रहा है । धर्मदासगण ( 10वीं शती) के उपदेशमाला प्रकरण ( (542 गा.) में 310 कथानकों का नामोल्लेख है और टीकाओं में उनका चरित्र संग्रह है । जयसिंहसूरि (वि सं. 915 ) का धर्मोपदेशमाला विवरण ( 159 कथायें ), देवभद्रसूरि ( सं. 1108) का कहारयणकास (12300 श्लोक प्रमाण और 50 कथायें ), देवेन्द्रगणि (सं. 1129) का अक्खाण्यमणिकोस ( 127 कथानक ) आदि महत्वपूर्ण कथा संग्रह है जिनमें धर्म के विभिन्न आयामों पर कथानकों क े माध्यम से दृष्टांत प्रस्तुत किये गये हैं । ये सर्वसाधारण के लिए बहुत उपयोगी हैं । उपर्युक्त कथानकों अथवा लोककथाओं का आश्रय लेकर कुछ स्वतन्त्र कथा साहित्य का भी निर्माण किया गया है जिनमें धर्माराधना के विविध पक्षों की प्रस्तुति मिलती है । उदाहरणतः हरिभद्रसूरि (सं. 717-827) की समराइच्च कहा ऐसा ही ग्रन्थ है जिसमें महाराष्ट्रीय प्राकृत गद्य में 9 प्रकरण है और उनमें समरादित्य और गिरिसैन के 9 भवों का सुन्दर वर्णन है । इसी कवि का धूर्ताख्यान ( 480 गा.) भी अपन े ढंग की एक निराली कृति है जिसमें हास्य और व्यंग्यपूर्ण मनोरंजक कथायें निबद्ध हैं । जयराम की प्राकृत धम्मपरिक्खा भी इसी शैली में रची गई उत्तम कृति है । यशोधर और श्रीपाल के कथानक प्राचार्यों को बड़े रुचिकर प्रतीत हुए । सिरिवालकहा (1342 गा. ) को रत्नशेखरसूरि ने संकलित किया और हेमचन्द्र साधु (सं. 1428) 1. दशवैकालिक गा. 188; समराइच्च कहा- पृ. 2 2. समराइच्चकहा- पृ. 21 3. लीलावईकहा- 36, 4. कुवलयमाला - 4ui Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ने उसे लिपिबद्ध किया । सुकौशल, सुकुमाल और जिनदत्त के चरित भी लेखकों के लिए उपजीव्य कथानक रहे हैं । कतिपय रचनायें नारीपात्र प्रधान हैं । पादलिप्तसूरि रचित तरंगवई कहा इसी प्रकार की रचना है । यह अपने मलरूप में उपलब्ध नहीं पर नेमिचन्द्रगणि ने इसी को तरंगलोला के नाम से संक्षिप्त रूपान्तरितं कथाओं (1642 गा. ) में प्रस्तुत किया है । उद्योतनसूरि (सं. 835 ) की कुवलयमाला ( 13000 श्लोक प्रमाण ) महाराष्ट्री प्राकृत में गद्य-पद्य मय चम्पूशैली में लिखी इसी प्रकार की अनुपम कृति है जिसे हम महाकाव्य कह सकते हैं । गुणपाल मुनि (सं. 1264) का इसिदत्ताचरिय ( 1550 ग्रन्थान प्रमाण), घनश्वरसूरि (सं. 1095) का सुरसुन्दरी चरिय (4001 गा.), देवेन्द्रसूरि (सं. 1323) का सुदंस गाचरिय (4002 गा.) आदि रचनायें भी यहां उल्लेखनीय हैं । इनमें नारी में प्राप्त भाव सुन्दर विश्लेषण मिलता है । कुछ कथाग्रन्थ ऐसे भी रचे गये हैं जिनका विशेष सम्बन्ध किसी पर्व, पूजा अथवा तो से रहा है। ऐसे ग्रन्थों में श्रतपञ्चमी के माहात्म्य को प्रदर्शित करने वाला "नागपंचमी कहाओ " ग्रन्थ सर्व प्रथम उल्लेखनीय है । इसमें 10 कथायें और 2804 गाथायें हैं । इन कथाओं में भविस्सयत कहानी उत्तरकालीन प्राचार्यों को विशेष प्रभावित किया है। इसके अतिरिक्त एकादशीव्रत कथा ( 137 गा. ) आदि ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं । 9. लाक्षणिक साहित्य लाक्षणिक साहित्य से हमारा तात्पर्य है - व्याकरण, कोश, छन्द, ज्योतिष-निमित्त, शिल्पादि विद्यायें । इन सभी विद्याओं पर प्राकृत रचनायें मिलती हैं | अणुयोगदारसुत आदि प्राकृत आगम साहित्य में व्याकरण के कुछ सिद्धान्त परिलक्षित होते हैं पर श्राश्चर्य की बात है कि अभी तक प्राकृत भाषा में लिखा कोई भी प्राकृत व्याकरण उपलब्ध नहीं हुआ । समन्तभद्र, वीरसेन और देवेन्द्रसूरि के प्राकृत व्याकरणों का उल्लेख अवश्य मिलता है। पर अभी तक वे प्रकाश में नहीं आ पाये । संभव है, वे ग्रन्थ प्राकृत में लिखे गये हों । संस्कृत भाषा में लिखे गये प्राकृत व्याकरणों में चण्ड का स्ववृत्तिसहित प्राकृत व्याकरण ( 99 अथवा 103 सूत्र), हेमचन्द्रसूरि का सिद्धहमचन्द्र शब्दानुशासन (1119 सूत्र ), त्रिविक्रम ( 13वीं शती) का प्राकृत शब्दानुशासन ( 1036 सूत्र ) आदि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं । इन ग्रन्थों में प्राकृत और अपभ्रंश के व्याकरण विषयक नियमोपनियमो का सुन्दर वर्णन मिलता हूँ । कोश की भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कोश की भी आवश्यकता होती है । दृष्टि से नियुक्तियों का विशेष महत्व है । उसमें एक-एक शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थों को प्रस्तुत किया गया है । प्राकृतकोशकला के उद्भव और विकास की दृष्टि से उनका समझना आवश्यक है । हेमचन्द्र की देशी नाममाला (783 गा. ) में 397 देशज शब्दों का संकलन किया गया है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से विशेष उपयोगी है। इसके अतिरिक्त धनपाल (सं. 1029) का पाइय लच्छीनाममाला ( 279 गा), विजयराजेन्द्रसूरि (सं. 1960 ) का अभिधान राजेन्द्रकोश (चार लाख श्लोक प्रमाण) और हरगोविन्ददास विक्रमचन्द सेठ का पाइय सद्दमहण्णवो (प्राकृत हिन्दी) कोश भी यहां उल्लेखनीय है । संवेदनशीलता जाग्रत करने कराने के लिए छन्द का प्रयोग हुआ है । नंदिताडढ ( लगभग 10वीं शती) का गाहालक्खण ( 96 गा.) और रत्नशेखरसूरि ( 15 वीं शती) का छन्द: कोश (74 गा.) उल्लेखनीय प्राकृत छन्द गन्थ है । गणित क क्षेत्र में महावीराचार्य का गणितसार संग्रह और भास्कराचार्य की लीलावती प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इन दोनों का आधार लेकर इनमें श्रालेखित विषयों का ठक्कर फेरु ( 13वीं Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 शती) ने गणितसार कौमुदी नामक ग्रन्थ लिखा। उनके अन्य ग्रन्थ है-रत्न-परीक्षा (132 गा.), द्रव्यपरीक्षा (149 गा.), धातूपति (57 गा.), भूगर्भप्रकाश आदि। यहां यतिवृषभ (छठी शती)की तिलायपण्णत्ति का भी उल्लेख किया जा सकता है जिसमें लेखक ने जैन मान्यतानुसार त्रिलाक सम्बन्धी विषय को उपस्थित किया है। यह अठारह हजार श्लोक प्रमाण ग्रन्थ है। ज्योतिष विषयक ग्रन्थों में सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि अंगबाह्म ग्रन्यों के अतिरिक्त ककर फेरु का ज्योतिषसार (98. गा.), हरिभद्रसूरि को लग्गद्धि (133 गा.), रत्नशेखर सूरि (15वीं शता) को दिगसुद्धि (144 गा.), हीरकलश (सं. 1621) का ज्योतिस्सार आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। निमित्तशास्त्र में भौम, उत्पात, स्वप्न अंग अन्तरिक्ष, स्वर, लक्षण, व्यजन आदि निमित्तों का अध्ययन किया गया है। किसी अज्ञात कवि का जयपाहुड (378 गा.). धरसेन का जोणिपाहड, ऋषिपुत्र का निमितशास्त्र (187 गा.), दुर्गदेव (सं. 1089) का रिसमुच्चय (261 गा.) आदि रचनाएं प्रमुख हैं। अंगविज्जा एक अज्ञात कर्तृक रचना है जिसमें 60 अध्यायों में शुभाशुभ निमित्तों का वर्णन किया गया है । कुमाणकालान यह ग्रन्थ सांस्कृतिक सामग्री से भरा हुआ है । करलक्णण (61 गा.) भी किसी अज्ञात कवि की रचना है। जिसमें हाथ के लक्षण, रेखाओं आदि का वर्णन है। वास्तु-शिल्प शास्त्र के रूप में ठक्कर फरु का वास्तूसार (280 गा.) प्रतिष्ठित ग्रन्थ है जिसमें भूमिपरोक्षा, भूमिशोधन आदि पर विवेचन किया गया है। इसी कवि की एक अन्य कृति रत्नपरीक्षा (132 मा.) पद्मराग, मुक्ता, विद्रुम आदि 16 प्रकार के रत्नों की उत्पत्ति स्थान, आकार, वर्ण, गुण, दोष आदि पर विचार किया गया है। उन्हों की द्रव्यपरीक्षा (149 गा.) में सिक्का के मल्य, तौल, नाम आदि पर तथा धातुत्पति (57 गा.) में पीतल, तांबा आदि धातुनों पर तथा भूगर्भप्रकाश में ताम्र, स्वर्ण आदि द्रब्ध वाली पृथ्वी की विशेषताओं पर विशद प्रकाश डाला गया है। ये सभी ग्रन्थ वि. सं. 1372-75 के बीच लिखे गये हैं। इस प्रकार प्राकृत साहित्य के सर्वेक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने उसकी हर विधा को समृद्ध किया है। प्रस्तुत निबन्ध में स्थानाभाव के कारण सभी का उल्लेख करना तो सम्भव नहीं हो सका, परन्तु इतना ता अवश्य कहा जा सकता है कि प्राकृत जैन साहित्य लगभग पच्चीस सो वर्षों से साहित्य के हर क्षेत्र का अपने यागदान से हरा भरा करता पा रहा है। प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्थति का हर प्रांगण प्राकृत साहित्य का ऋणी है। उसने लाकभाषा और लोक-जीवन को अंगीकार कर उनकी समस्याओं के समाधान की दिशा में आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत किया। इतना ही नहीं, आधुनिक साहित्य के लिए भी वह उपजीव्य बना। प्रेमाख्यानक काव्यों के विकास में प्रात जैन कथा साहित्य को भुलाया नहीं जा सकता। संस्कृत चम्पू और चरित काव्य के प्रेरक प्रापत ग्रन्थ ही हैं। काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का सरस प्रतिपादन भी यहां हमा है। दर्शन और सिद्धान्तों से लेकर भाषाविज्ञान, व्याकरण और इतिहास तक सब कुछ प्राकृत जैन साहित्य में निबद्ध है। उसके समूचे योगदान का मूल्यांकन अभी शेष है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान का प्राकृत-साहित्य ; 2 -~-डॉ.प्रेमसुमन जैन राजस्थान की साहित्यिक समृद्धि में प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत भाषा की रचनाओं का महत्वपूर्ण योग है। प्राचीन ग्रन्थों की प्रशस्तियां, लेख, पट्टावलियां आदि के उल्लेख एवं राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध इन भाषाओं के ग्रन्थ इस बात के साक्षी हैं कि जैनाचार्यों ने अपना अधिकांश समय राजस्थान के सांस्कृतिक विकास में व्यतीत किया है12 प्राकृत भाषा में लिखे गये ग्रन्थों का सर्वेक्षण व मूल्यांकन राजस्थान के जैनाचार्यों की इस थाती को और स्पष्ट करता है। राजस्थान की इस साहित्यिक सम्पदा का एक प्रामाणिक इतिहास प्राधमिक शैली में लिखा जाना नितान्त अपेक्षित है। प्राकृत साहित्य के साहित्यकारों एवं उनकी रचनाओं को राजस्थान से सम्बन्धित बतलाने में जिस आधारभूत सामग्री का उपयोग किया जा सकता है वह है-(1) ग्रन्थों की प्रशस्तियां व वृत्तियों में राजस्थान के नगरों व मन्दिरों का उल्लेख, (2) रचनाकारों के गच्छ व गुरु परम्परा का राजस्थान से संबंध, (3) प्रतिमालेखों, अभिलेखों व पट्टावलियों में ग्रन्थ व ग्रन्थकार से संबंधित उल्लेख तथा (4) राजस्थान की प्रसिद्ध जातियों व राजवंशों से ग्रन्थकारों का संबंध पादि। इन तथ्यों के अतिरिक्त गुजरात, मालवा एवं दिल्ली के प्राचीन इतिहास मादि में भी राजस्थान के रचनाकारों व प्राचार्यों का परिचय यत्र-तन्त्र उपलब्ध हो जाता है। दूसरी बात यह है कि जैन प्राचार्यों के भ्रमणशील होने के कारण बहुत से गुजरात आदि के ग्रन्थकारों ने भी राजस्थान में रचनायें की हैं तथा उन्हें सुरक्षित रखा है। इस तरह के सभी प्रमाणों के आधार पर राजस्थान के प्राकृत-साहित्य का मूल्यांकन किया जा सकता है। राजस्थान की साहित्यिक परम्परा यह कह पाना कठिन है कि राजस्थान में सर्व प्रथम किस भाषा में और कौन-सा ग्रन्थ लिखा गया? इसके उत्तर के लिये अनुश्रुति और उपलब्ध प्रमाणों को जांचना होगा। राज. स्थान में ऐसी मनुश्रति है कि प्राचीन समय में इस प्रदेश में सरस्वती नदी बहती थी, जिसके किनारे बैठकर कभी मुनियों ने वेद की रचनायें एवं अन्य ग्रन्थ लिखे थे। इस मिय को प्रमाणित करना 1. द्रष्टव्य-लेखक का निबन्ध-"राजस्थान में अपभ्रंश और जैन संस्कृत साहित्य" -जन सस्कृति और राजस्थान । 2. जन, कैलाशचन्द्र,-"जैनिज्म इन राजस्थान" । . शर्मा, दशरथ, "राजस्थान ध्र द एजेज', बीकानेर, 1971 । - द्रष्टव्य-देसाई मोहनलाल दलीचन्द-"जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास- 19331 .. नाहटा अगरचन्द-"राजस्थानी साहित्य की गौरवपूर्ण परम्परा" 1967 । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 कठिन है। पुनरपि सरस्वती नदी का उल्लेख राजस्थान में प्रारम्भ से ही साहित्य रचे जाने का प्रतीक है। यही बात राजस्थान में उपलब्ध प्रारम्भिक साहित्य से फलित होती है। . संस्कृत व प्राकृत की रचनाओं में महाकवि माघ का "शिशुपालवध", प्राचार्य हरिभद्रभूरि का "धूर्ताख्यान" व उद्योतनमूरि की "कुवलयमालाकहा" ऐसी प्रारम्भिक रचनाएं है जिनमें उनके कर्ता के साथ-साथ उनके रचना-स्थलों और समय का भी उल्लेख है। ये सभी रचनाएं पाठवीं शताब्दी की है और काव्य तथा शैली की दृष्टि से पर्याप्त प्रोढ है । अतः इनके सृजन के पीछे राजस्थान में साहित्यिक विकास की एक सुदृढ पष्ठभूमि होनी चाहिये। यह अनुमान किया जा सकता है कि राजस्थान में 4-5वीं शताब्दी में ग्रन्थ लिखना प्रारम्भ हो गया होगा। क्योंकि इस युग में देश में विपुल साहित्य रचा जा रहा था। राजस्थान के तत्कालीन मंगरों में रहने वाले साहित्यकार इसमें पीछे नहीं रहे होंगे। जन-साहित्य की दृष्टि से यह युग प्रागर्मी पर भाष्य प्रादि लिखे जाने का था। जनाचार्य अपनी टीकामों में प्राकृत का प्रयोग अधिक कर रहे थे। प्राक्त में लौकिक काव्य आदि भी लिखे जा रहे थे। अतः सम्भव है कि किसी जैनाचार्य ने राजस्थान में विचरण करते हुये प्राकृत में ग्रन्थ रचना की हो। जैनागम के प्रसिद्ध टीकाकारों का प्रामाणिक परिचय उपलब्ध होने पर भी संभव है कि गुप्तयुग में राजस्थान में रचित्त विसी प्राप्त ग्रन्थ का पता चल सके। गप्त यग में रचित ऐसी कुछ प्राकृत रचनामों ने ही पाठवीं शताब्दी की प्राकृत रचनाओं के निर्माण में भूमिका प्रदान की होगी। राजस्थान में गुप्तयुग के जमाचार्यों में प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर एवं एलाचार्य का चित्तौड़गढ़ से संबंध बतलाया जाता है। सिद्धसेन दिवाकर 5वीं शताब्दी के बहुप्रज्ञ विद्वान् थे। प्रभावकचरित और प्रबन्धकोश में सिद्धसेन की चित्तौड़गढ़ यात्रा के उल्लेख प्राप्त हैं। करकी पदवीं उन्हें चित्तौडगढ महीप्राप्त हई थी।2 प्रतः बहत संभव है कि सिद्धसेन की साहित्य-रचना का क्षेत्र मेवार का प्रदेश रहा हो। प्राकृत में लिखा हुआ उनका 'सन्मतितक' मामक ग्रन्थ राजस्थान के साहित्यकार की प्रथम प्राकृत रचना मानी जा सकती है। दिगम्बर आचार्यों की परम्परा में एलाचार्य को 7वीं शताब्दी का विद्वान माना जाता है। कुछ विद्वान् एलाचार्य को कुन्दकुन्द से अभिन्न मानते हैं। किन्तु एक एलाचार्य कुन्दकुन्द के बाद में भी हये हैं। इन्द्रनंदिकृत "श्रुतावतार" से ज्ञात होता है कि एलाचार्य चित्रकूट (चित्तौड़गढ़) में निवास करते थे। वे न शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान् थे। उनके पास प्रसिद्ध 1. मेहता, मोहनलाल-मागमिक व्यास्याएं, "जन साहित्य" का बृहद इतिहास भाग, 3, 19671 2. संघवी, सुखलाल-"सन्मतिप्रकरण" प्रस्तावना, 1963 । 3. मुख्तार, जुगलकिशोर, "पुरातन अन वाक्य-सूचि", प्रस्तावना । 4. काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमान लाचार्यों बभूव सिद्धान्त तत्वज्ञः ॥1761 तस्य समीपे सकलं सिदान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः। उपरितमनिबन्धानवाधिकारामष्टं सिलेव ॥77m -श्रावतार Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान वीरसेन ने शास्त्रों का अध्ययन किया था। प्रतः एलाचार्य की उपस्थिति में विचार गुप्तयुग में साहित्य - साधना और विद्या का केन्द्र बन गया था। राजस्थान के प्राकृत के प्रारम्भिक साहित्यकारों व विद्वानों में सिद्धसेन के बाद एलाचार्य को स्मरण किया जा सकता है. जिनके शिष्य वीरसेन ने पाठवीं शताब्दी में प्राकृत की महत्वपूर्ण रचना 'धवला' टीका के रूप में की है। प्राकृत साहित्य का क्रमिक विकास राजस्थान में प्रारत-साहित्य पाठवीं शताब्दी में पर्याप्त समद्ध हो चुका था। इस शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वान प्राचार्य हरिभद्रसरि, उद्योतनसरि, पद्मनन्दि तथा प्राचार्य वीरसेन है। प्राचार्य हरिभद्र का जन्म चित्तौड मेंहा था। ये जन्म से ब्राह्मण थे तथा राजा जितारि के पुरोहित । जैन दीक्षा ग्रहण करने के बाद हरिभद्रसरिने जन वाडमय की अपूर्व सेवा की है। इन्होंने प्राचीन पागमों पर टीकाएं एवं स्वतन्त्र मौलिक ग्रन्थ भी लिखे हैं। दर्शन व साहित्य विषय पर आपकी विभिन्न रचनाओं में प्राकृत के निम्न ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध है--समराइच्चकहा, घाख्यान, उपदेशपद, धम्मसंगहणी,योगशतक,संबोहपगरण आदि। हरिभद्रसरि ने न केवल अपने मौलिक प्राकृत ग्रन्थों द्वारा अपितु टीकाग्रन्थों में प्राप्त के प्रयोग द्वारा भी राजस्थान में प्राकृत के प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दिया है। हरिभद्रसूरि का समय ई. सन् । 700-170 माना जाता है। उद्योतनसरि, हरिभद्रसरि के शिष्य थे। उन्होंने सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन हरिभद्रसूरि से किया था। उद्योतनसरि ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कुवलयमालाकहा' द्वारा राजस्थान में प्राकृत-कथा साहित्य को एक नया मोड़ दिया। उनकी यह कृति भारतीय साहित्य में चम्पू विद्या का प्रथम निदर्शन है ।3 ई. सन 719 में जालौर में कुवलयमाला की रचना हुई थी। उदद्योतनसूरि ने इस ग्रन्थ द्वारा प्राकृत कथा साहित्य का प्रतिनिधित्व विया है। इसी शताब्दी में प्राचार्य वीरसेन ए है। इनके जन्म स्थान के संबंध में मतभेद हैं। किन्तु इनका अध्ययन केन्द्र चित्तोड था। प्राकत के ये प्रकाण्ड पण्डित थे। प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ षटखण्डागम पर इन्होंने 'धवला'नाम की टीका लिखी है, जो 72 हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत व संस्कृत में हैं। वीरसेन की विद्वत्ता व पाण्डित्य की प्रशंसा उत्तरवर्ती अनेक कवियों ने इस शताब्दी के प्राप्त रचनाकारों में पदभनन्दि का महत्वपूर्ण स्थान है। ये वीरनन्दि की शाखा में बालमन्दि के शिष्य थे। वि.सं. 805 में मेवाड राज्य के बारानगर में आपका जन्म हुमाया। पद्मनन्दि की 'पंचविंशति', 'जम्बद्वीपपण्णत्ति' तथा 'धम्मरसायण' प्राकृत 1. जीवनी के लिये द्रष्टव्य-संध्वी 'समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र' 1963 । 2. द्रष्टव्य-शास्त्री, नेमिचन्द्र, 'हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का मालोचनात्मक परि शीलन । 3. उपाध्ये, ए. एन.--'कुवलयमालाकहा-भूमिका । 4. लेखक का प्रबंध-'कुवलयामालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन' 1975 । 5. जैन, ज्योतिप्रसाद, राजस्थान के सबसे प्राचीन साहित्यकार-वीरवाणी, अप्रैल, 1966 । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 की महत्वपूर्ण रचनायें है। इन रचनाओं का धर्म-दर्शन के क्षेत्र में काफी प्रभाव रहा है। इस प्रकार पाठवीं शताब्दी के इन चारों प्राकृत साहित्यकारों ने राजस्थान में प्राकृत-साहित्य को पर्याप्त समद्ध किया है। पूर्व मध्य युग राजस्थान में 9-10वीं शताब्दी में प्राकृत के अधिक साहित्यकार नहीं हुये। यह संस्कृत भाषा में पाण्डित्य-प्रदर्शन का युग था। सिषि की 'उपमितिभवप्रपंचकया' इसका प्रमुख उदाहरण है। यद्यपि इस युग के टीकाकारों ने प्राकृत का प्रयोग अपनी रचनामों में किया है। 9वीं शताब्दी के प्राकृत रचनाकारों में जयसिंहसरि प्रमख है। इन्होंने 'धर्मोपदेशमाला' पर 5778 श्लोक प्रमाण एक विवरण लिखा है, जो वि.सं. 915 में नागौर में पूर्ण हुअा था। इसमें 156 कथायें प्राकृत में दी गयी है।2 ग्यारहवीं शताब्दी में राजस्थान में प्राकत-साहित्य की पर्याप्त समृद्धि हुई है। जिनेश्वरसूरि इस समय के प्रभावशाली आचार्य थे। इनका कार्य-क्षेत्र गुजरात, मालवा, मेवाड और मारवाड़ रहा है। इन्होंने मारवाड़ के डिण्डवानक गांव में प्राकृत में 'कथाकोष-प्रकरण' की रचना की थी। वि. सं. 1086 में जालौर में 'चैत्यवन्दन विवरण' इन्होंने लिखा था। इनके अतिरिक्त भी 2-3 रचनाएं और इनकी प्राकृत में हैं।3 इसी शताब्दी में धनश्वरसूरि ने चन्द्रावती (प्राबू) में 'सुरसुन्दरीचरिय' प्राकृत में लिखा। दुर्गदेव ने कुंभनगर (भरतपुर) में 'रिट्ठसमुच्चय' ग्रन्थ की रचना प्राक्त में की 14 बुद्धिसागर ने जालौर में पंचग्रन्थी' ग्रन्थ प्राकृत में रचा। महेश्वरसूरि की ज्ञानपंचमीकहा भी इसी शताब्दी की रचना है। इस शताब्दी के प्रसिद्ध व वि धनपाल का भी राजस्थान (सांचौर) से संबंध रहा है, जिन्होंने प्रात में पाइयलच्छीनाममाला' ग्रन्थ की रचना की है।5 ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में प्रावत साहित्य को समृद्ध करने वालों में न मिचन्द्रसूरि का प्रमुख स्थान है। प्राचार्य पद प्राप्त करने के पूर्व इनका नाम देवेन्द्रगणि था। इन्होंने कई प्राकृत ग्रन्थ लिखे हैं। वि. सं. 1129 में इन्होंने उत्तराध्ययन की सुखबोध टीका लिखी, जिसमें कई प्राकृत कथायें हैं। वि. सं. 1140 में इन्होंने प्राकृत में 'महावीर चरियं' लिखा। तथा 1. शास्त्री नेमिचन्द-प्राकृत भाषा और साहित्य का पालोचनात्मक इतिहास, पृ. 2391 2. मेहता, मोहनलाल, 'जन साहित्य का वृहद् इतिहास,' भाग 4, पृ. 1961 3. मुनि जिनविजय, 'कथाकोष प्रकरण', भूमिका। 4. शाह, अम्बालाल प्रे. 'जन साहित्य का बृहद् इतिहास' भाग 5 (लाक्षणिक साहित्य) पृ. 2021 5. 'सत्यपुरीयमंडन-महावीरोत्साह' में उल्लेख । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगभग वि. सं. 1122-1140 के बीच में इन्होंने 'रयणचूडरायचरियं' की रचना की । ग्रन्थ डिडिल व सन्निवेश में प्रारम्भ कर उन्होंने चड्डावलिपुरी में इस पूरा किया था ।। होता है कि चन्द्रसूरि का कार्यक्षेत्र गुजरात एवं राजस्थान दोनों था 12 22 मध्य युग आचार्य हेमचन्द्र 11-12 वीं शताब्दी के बहुश्रुत विद्वान् थे । प्राकृत-साहित्य के क्षेत्र में भी उनका पूर्व योगदान है । किन्तु उनका कार्यक्षेत्र गुजरात ही रहा है । राजस्थान में भ्रमण कर उन्होंने प्राकृत में किसी ग्रन्थ की रचना की हो ऐसा उल्लेख प्राप्त नहीं है । 3 श्रतः हेमचन्द्राचार्य की प्राकृत रचनाओं को यहां सम्मिलित नहीं किया है । यह प्रतीत राजस्थान में बारहवीं शताब्दी में भी अनेक प्राकृत ग्रन्थ लिखे गये हैं । खरतरगच्छ के प्राचार्यों ने जैन साहित्य की पूर्व सेवा की है। अभयदेवसूरि नवांगीवृत्तिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं । इनकी 30 रचनाओं में से 19 रचनायें प्राकृत की हैं । आपका राजस्थान व गुजरात में विचरण होता रहता था। जिनवल्लभसूरि की 17 रचनाएं प्राकृत में उपलब्ध हैं। वि. सं. 1167 में इन्हें चित्तौड़ में आचार्य पद मिला था । नागौर, मरुकोट, विक्रमपुर श्रादि में आपने साहित्य-सृजन किया है 14 जिनदत्तसूरि का कार्यक्षेत्र राजस्थान भी था । इमकी 10-12 रचनायें प्राकृत में उपलब्ध हैं 15 जिनचन्द्रसूरि ने जालौर में 'संवेग रंगशाला' प्राकृतग्रन्थ लिखा था । लक्ष्मणगणिनो ई. सन् 1142 में माण्डलगढ़ में 'सुपासनाहचरियं' की रचना की थी। वर्द्धमानसूर का 'आदिनाथ चरित' इस शताब्दी की प्रमुख रचना है। मड़ता में मधारी हेमचन्द्रसूरि ने भवभावना ( उपदेशमाला ) की रचना की थी । यह इनकी प्रसिद्ध प्राकृत रचना है 17 गुणचन्द्रमणि इस शताब्दी के प्रमुख रचनाकार है । 'कहारयणकोस' और 'पासनाहचरियं' इनकी प्रसिद्ध प्राकृत रचनायें हैं । तेरहवीं शताब्दी के बाद राजस्थान और गुजरात में राजस्थानी व गुजराती भाषा का विकास प्रारम्भ हो गया था । अतः प्राकृत अपभ्रंश की अपेक्षा प्रादेशिक भाषाओं में साहित्य लिखा जाने लगा था। फिर भी प्राकृत की रचनायें राजस्थान में लिखी जाती रहीं । भिन्नमाल कुल में उत्पन्न श्रास कवि ने वि. सं. 1248 में 'विवेगमंजरी' नामक प्राकृत ग्रन्थ लिखा । देवेन्द्रसूरि ने आबू क्षेत्र में विचरण करते हुये 'सुदंसणाचरियं' एवं ' कण्हचरियं' नामक 1. डिडिलवनिवेसे पारद्धा संटिठएण सम्मत्ता । चड्डावल्लिपुरीए एसा फग्गणचउम्मासे ॥22॥ 2. देसाई - जं. सा. सं. इ. 3. बांठिया, कस्तूरमल, 'हेमचन्द्राचार्य जीवन चरित' 1967 | 4. 'मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि स्मृति ग्रन्थ, पृ. 201 माहटा: 'दादा जिनदत्तसूरि' । 6. देसाई - जं. सा. सं. इ., पृ. 2751 7. जैन, जगदीशचन्द्र, 'प्राकृत साहित्य का इतिहास' पू. 5051 5. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत ग्रन्थों की रचना की।1. मरुकोट के निवासी नेमिचन्द्र भण्डारी ने इस शताब्दी में 'षष्टिशतक' नामक प्राकृत ग्रन्थ लिखा । ये भण्डारी गृहस्थ लेखक थे। खरतरगच्छ के जैनाचार्यों से प्रभावित थे। चौदहवीं शताब्दी के प्राकृत ग्रन्थकारों में ठक्कर फेरु का महत्वपूर्ण स्थान है। ठक्कर फेर कलश श्रेष्ठी के पौत्र ओर चन्द्र श्रावक के पुत्र थे। वधंधकुल में हये थे और कन्नाणपुर में रहते थे। दिल्ली में बादशाह अलाउद्दीन के यहां ये खजांची रहे हैं 13 इनके वंश आदि के आधार पर इन्हें राजस्थान का स्वीकार किया जा सकता है। ठकर फेरु ने अनेक लाक्षणिक ग्रन्थों की रचना की है। इनके वास्तुसार', 'गणितसार की मुदी', 'ज्योतिस्सार' आदि ग्रन्थ प्राकृत में है। ___15-16वीं शताब्दी में भी राजस्थान में प्राकृत की रचनायें लिखी जाती रही हैं। जिमभद्रसूरि, (कुंभलमेर), नवरंग (वीरमपुर), मुनिसुन्दर (सिरोही), जिनहर्षगणि (चित्तौड़), राजमल्ल (नागौर), जयसोम (जोधपुर) आदि अनेक जैनाचार्यों ने इस शताब्दी में महत्वपूर्ण रचनायें लिखी हैं। जिनसत्तरि, विधिकन्दली, अंगलसतरी, रयणसेहर कहा, छंदोविद्या आदि प्रात रचनायें उनमें प्रमुख हैं। दिवाकरदास की 'गाथाकोष सप्तशती', हीरकलश का 'ज्यातिषसार', शुभचन्द्रसूरि का 'चिन्तामणिव्याकरण', साधुरंग की 'कर्म विचारसार प्रकरण' आदि 17वीं शताब्दी की प्राकृत रचनायें हैं।4 मेघविजय उपाध्याय एवं उपाध्याय यशोविजय आदि ने 18वीं शताब्दी में भी प्राकृत के ग्रन्थ लिखे हैं। किन्तु 15वीं शताब्दी के बाद राजस्थान में प्रात-साहित्य की वह समृद्धि नहीं रही जो मध्ययुग के पूर्व में थी। प्राकृत रचनामों के विषय राजस्थान की इन प्राकृत र वनाओं में विषय को विविधता है। भारतीय साहित्य की शायद ही ऐसी कोई विधाडो जा राजस्थान के इन प्राकृत साहित्यकारों की लेखनी से अछाती रही हो। काव्य, कथा, चरित, चम्प, कोश, व्याकरण, छंद, अलंकार प्रादि अनेक विषयों की प्राकृत रचनाएं यहां उपलब्ध हैं। धर्म व दर्शन को प्रतिपादित करने वाली भी सैकड़ों रचनाएं प्राकृत में लिखी गई है। व्यंग्य-हास्य एवं नैतिक आदर्शों को प्रतिपादित करने वाले प्राकृत ग्रन्थों की कमी नहीं है। राजस्थान में विकसित प्राकृत को शताधिक रचनामों में से कुछ प्रतिनिधि ग्रन्थों का सक्षिप्त मूल्यांकन यहां प्रस्तुत है । 1. कथा-ग्रन्थ: प्राकृत में कथा-साहित्य सबसे अधिक समृद्ध है। पहली शताब्दी से प्राकृत कथाओं की रचना प्रारम्भ हो गयी थी। राजस्थान में प्राचार्य हरिभद्र का प्राकृत कथा साहित्य पर्याप्त - - - - - - - - - - - 1. जैन, प्रा. सा. इ., पु. 5611 2. मेहता, जे. सा. ब. इ., भाग 4, पृ. 211। 2. शाह, ज. सा. बु..भाग 5, पृ. 242 । • दष्टव्य-शाह, ज. सा, बु. इ., भाग 51 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समृद्ध है। 'समराइच्वकहा' एव धूताख्यान' के अतिरिक्त उन्होंने अपने टीका ग्रन्थों में भी अनेक प्राकृत कथाओं का प्रणयन किया है। समराइञ्चकहा यह ग्रन्थ प्राकृत कथाओं की अनेक विशेषताओं से युक्त है। इसमें उज्जैन के राजकुमार समरादित्य के नी भवों की कथा वणित है। पूर्व जन्म में समरादित्य गुणसेन था और उसका मित्र था-अग्निशर्मा। किन्हीं कारणों से अग्नि शर्मा ने गुण शर्मा को अपना अपमान करने वाला मान लिया । अतः वह उससे निरन्तर बदला लेने की योजना बनाता रहा। यह प्रतिशोध की भावना इन दानों व्यक्तियों के नौ जन्मों तक चलती रही। हरिभद्र नं कथा में इतना कौतूहल बनाये रखा है कि पाठक कथा पड़त समय प्रात्मविभार हो उठता है। प्रमुख कथा की अनेक अवान्तर कथाए विभिन्न विषयों पर प्रकाश डालती हैं। वस्तुतः यह कथा सदाचारी एवं दुराचारी व्यक्तियों के जीवन-संघर्ष की कथा है । देश, काल और वातावरण के अनुसार जन-जीवन से अनेक पात्र इस कथा में उभर कर सामने आते।। उनके चरित्र विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करते है। कथाकार ने इसमें अनेक प्रतीकों का प्रयाग किया है। काव्यात्मक दृष्टि से इस कथा में अनेक मनोरम चित्र हैं। बाणभट्ट की 'कादम्बरी' ने जा स्थान संस्कृत में पाया है 'समराइच्चकहा' का साहित्यिक दृष्टि से वही स्थान प्राकृत-साहित्य में है। 'समराइचकहा' प्राचीन भारत के सांस्कृतिक जीवन का जीता-जागता उदाहरण है। समाज,धर्म, शिक्षा, कला आदि अनेक विषयों की प्रभूत सामग्री इसमें उपलब्ध है। विदेशों से समुद्रयाना के कई प्रसग इसमें वर्णित है। प्राकृत में गद्य एवं पद्य में लिखी हुई यह कथा मानवजीवन के उस चरम लक्ष्य का भी निरूपण करती है, जा व्यक्ति को इस संसार के पुनरागमन सं मुक्ति दिलाता है। इस संबंध में मधुबिन्दु का दृष्टांत बड़े सुन्दर ढंग से इस कथा में प्रस्तुत किया गया है । लघुकथायें हरिभद्र ने अपनी दशवकालिक टीका में तीस एवं उपदेशपद में लगभग 70 प्राकृत कथायें दी है। इनमें से कुछ कथायें घटना-प्रधान तथा कुछ चरित्र-प्रधान है। कुछ कथाओं में बुद्धि का चमत्कार है ता कुछ कथायें पाठकों का स्वस्थ मनोरंजन करती हैं। नीति एवं उपदेश-प्रधान कथायें भी हरिभद्र ने लिखी है। बुद्धि चमत्कार की एक लघु कथा द्रष्टव्य है-- कोई एक गाड़ीवान अपनी गाड़ी में अनाज भरकर एवं गाड़ी में तीतर का पिंजड़ा बांधकर शहर में अनाज बेचने आया। शहर के ठग ने उससे तीतर के दाम पूछे। गाड़ीवान ने सहजभाव से कहा---'दो कर्षापण'। ठग न इस सौदे का गवाह बनाकर वह तीतर का पिंजड़ा अनाज से भरी गाड़ी समेत दा कर्षापण में खरीद लिया। गाड़ीवान बलों को लेकर गांव लौटने लगा। तभी शहर के एक सज्जन व्यक्ति ने उसे एक उपाय बताया। तदनुसार वह गाड़ीवान अपने 1. शास्त्री, हरिभद्र की प्राकृत कथामों का भाचोचनात्मक परिणीवन, वैशाली । . बाबी, पा, गा, पाक, पृ. 426। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैलों को लेकर फिर उस ठग के पास गया और बोला--'आप इन बों को खरीद लो। इनके बदले मुझे दो पाली सत्तु दे दो। किन्तु वह सत्तु आपकी भार्या के द्वारा ही लूंगा।' दस सौदे का भी गवाह बनाकर गाड़ीवान की बात इसलिये मान ली कि दो पाली सत्त में बैल मिल जायेंगे। किन्तु जब उसकी भार्या गाडीवान को सत्तु दने आयी तो गाडीवान 'वाला दाथ पकड कर अपने घर ले जाने लगा। ठग के द्वारा विरोध करना वान ने कहा कि तुम पिजड़े की कीमत देकर जब मेरी पूरी गाड़ी ले सकते हो तो मैं भी जो सत्त को लिये हुये है ऐसी तुम्हारी पत्नी को ले जाता हूं । इस तरह के अनेक कथानक हरिभद्र के प्राकृत साहित्य में उपलब्ध हैं। उन्होंने न केवल लोकभाषा को आगे बढ़ाया है, अपितु लोक-जीवन को भी अपने ग्रन्थों में प्रतिपादित किया है। हरिभद्र की प्राकृत कथाप्रो की ये प्रवृत्तियां उत्तरवर्ती प्राकृत कथा-ग्रन्थों में भी परिलक्षित हाती है । ज्ञानपंचमीकहा मदेश्वरसरि सज्जन उपाध्याय के शिष्य थे। इनका राजस्थान से क्या संबंध था वह इनकी कृतियों से स्पष्ट नहीं होता। इस नाम के आठ प्राचार्य हुये हैं। इनकी गरुपरम्परा राजस्थान में विकसित हुई है। इनका यह 'ज्ञानपंचमीकहा' ग्रन्थ भी राजस्थान में पर्याप्त प्रसिद्ध रहा है। संभवतः वि. सं. 1109 के पूर्व इस ग्रन्थ की रचना हो चुकी थी । ज्ञानपंचमीकहा में श्रुतपंचमीव्रत का महात्म्य प्रतिपादित किया गया है । यह व्रत सुख-समद्धि को देने वाला है यह बात कथा म कही गयी है। कथा के नायक भविष्यदत्त के विदेश चले जाने पर उसकी मां कमलश्री श्रुतपंचमी व्रत करती है। फलस्वरूप भविष्यदत्त सकुशल अपार सम्पत्ति के साथ घर लौटता है। इस मुख्य कथा के साथ इस ग्रन्थ में अन्य नौ अवान्तर कथाय और हैं। इनमें सत् और असत् प्रवृत्तियों वाले व्यक्तियों के चारितिक संघर्ष को सुन्दर ढंग से निरूपित किया गया है। कथाओं में पौराणिक पुट स्पष्ट नजर आता है। लोकोक्तियों का अच्छा प्रयोग हुआ है। यथा "माइ गडेण चिय तस्स विसं दिज्जए कि व।" (जो गुड़ देने से मरता है उसे विष देने से क्या ?) निर्वाण लीलावतीकथा इस कथा ग्रन्थ के रचयिता जिनेश्वरसूरि राजस्थान के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। गुजरात में भी मापने ग्रन्थ लिख है। इस ग्रन्थ की रचना वि. सं. 1090 के लगभग आशापल्ली नामक स्थान में हुई थी। यह पूरी कथा प्राकृत पद्यों में लिखी गयी थी जो इस समा उपलब्ध नहीं है। इस प्राकृत ग्रन्थ का संस्कृत भाषान्तर उपलब्ध है। इससे पता चलता है कि मल प्राकृत ग्रन्थ में 1. देशाई-ज. सा. सं. इ. अनु क्रमणिका, प. 861 । 2. जैन, प्रा. सा. इ., पृ. 440 । 3. मुनि जिनविजय 'कथाकोषप्रकरण' की भूमिका । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा आदि विकारों के जन्म-जन्मान्तरों में प्राप्त होने वाले फलों का वर्णन है। इस ग्रन्थ में काव्य तथा कथा तत्व की अपेक्षा उपदेश तत्व की प्रधानता है। इस समय तक प्राकृत कथाओं का इतना अधिक प्रचार हो चुका था कि स्वतन्त्र कथा ग्रन्थों के साथ-साथ प्राकृत को कथाओं के कोष-ग्रन्थ भी राजस्थान में लिखे जाने लगे थे। निर्वाणलीलावतीकथा के लेखक का ही 'कथाकोष-प्रकरण' नामक ग्रन्थ प्राकृत में उपलब्ध है। कथाकोष-प्रकरण यह ग्रन्थ कहारयणकोस' नाम से भी प्रसिद्ध है। इसके मूल में 30 गाथाएं है, जिनकी व्याख्या करने में जिनश्वरसूरि ने 36 मुख्य एवं 4-5 अवान्तर कथाएं प्राकृत में निबर की हैं। यह ग्रन्थ वि. सं. 1108 में मारवाड़ के डिण्डिवानक नामक गांव के श्रावकों के अनुरोध पर लिखा गया है । लेखक ने सरस कथाओं को सुबाध प्राकृत गद्य में प्रस्तुत किया है। यत्र-तन संस्कृतअपभ्रंश के पद्य भी उपलब्ध हैं। इस ग्रन्थ में संग्रहीत कथाओं में तत्कालीन सामाजिक स्थिति, जन-स्वाभाव, राजतन्त्र एवं धार्मिक संगठनों का सुन्दर चित्रण हुआ है। नीतिकथाओं का ये कथाएं प्रतिनिधित्व करती है। संगीतकला आदि के महत्वपूर्ण सन्दर्भ इस ग्रन्थ में हैं। कहारयणकोस इस कथा-कोष के रचयिता गणचन्द्रगणि हैं , जो जिनेश्वरसूरि की शिष्य-परम्परा में सुमतिवाचक के शिष्य थे। खरतरगच्छ के इन प्राचार्यो का कार्य-क्षेत्र राजस्थान रहा है । अतः गुणचन्द्रगणि (देवभद्रसूरि) का भी राजस्थान से सम्बन्ध माना जा सकता है। यद्यपि इनकी रचनाएं गुजरात में अधिक लिखी गयी है। कहारयणकोस की रचना वि. सं. 1158 में भरुकच्छ नगर के मुनिसुव्रत चैत्यालय में की गयी थी। इस ग्रन्थ में कुल 50 कथाएं हैं। सभी कथाएं रोचक एवं जीवन के प्रादर्श को उपस्थित करने वाली है । इनमें विभिन्न प्रकार के चरित्न है, जा लेखक की सृजनात्मक प्रतिभा के द्योतक है। यह ग्रन्थ तत्कालीन संस्कृति का भी परिचायक है। प्राकृत गद्य-पद्य में इसे लिखा गया है। अपभ्रंश एवं संस्कृत का प्रयोग भी यत्न-तनहा है। आख्यानमणिकोश उसके रचयिता नमिचन्द्रसूरि है। इनके अन्य ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि ये राजस्थान व गजरात में विचरण करते थे। प्राबू के निकट चन्द्रावती में भी इन्होंने ग्रन्थ लिखे हैं । इस आख्यानमणिकोश में धर्म के विभिन्न अंगों को हृदयंगम कराने वाला उपद५ प्रद 146 लध् कथाएं संकलित है। आम्रदेवसूरिन ई. सं. 1134 में इस ग्रन्थ पर टीका लिखा है। मूल ग्रन्थ एवं टीका दोनों प्राकृत में है। इस ग्रन्थ की कथाए मानव-स्वभाव के विभिन्न रूपों को उपस्थित करती है। उपकोश और तपस्वी का पाख्यान व्यक्ति के मानसिक द्वन्द्व का अच्छा चित्र उपस्थित करता है। कई 1. मुनि जिनविजय, क. प्र. भूमिका । 2. जैन, प्रा. सा. इ., पृ., 448 । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 आख्यान परीकथा के तत्वों से समाहित हैं ।। सुभाषितों का ग्रन्थ में अच्छा प्रयोग हुआ है। यथा उप्पयउ गयणमग्गजउ कसिणत्तण पयासेउ ।। तह वि हु गोब्बर ईडो न पायए भमरचनियाई ॥ रयणसेहरीकहा यह कथा ग्रन्थ 15 वीं शताब्दी में जिनहर्षसूरि द्वारा चित्तौड़ में लिखा गया था । नहर्ष संस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनकी यह कथा प्राकृत कथा साहित्य की सुन्दर प्रेम कथा है। जायसीकृत पद्मावत का इसे पूर्व रूप कह सकते हैं । __ कथा का नायक रत्नशेखर रत्नपुर का रहने वाला है । उसके मन्त्री का नाम मतिस.गर है। एक बार राजा किन्नर-दम्पति के वार्तालाप में सिंहलद्वीप की राजकुमारी रत्नावली की प्रशंसा सुनता है। उसे पाने के लिए व्याकुल हो उठता है। उसका मन्त्री मतिसागर जोगिनी का रूप धारणकर रत्नावली के पास जाता है। उसे वर-प्राप्ति का उपाय बतलाते हए कहता है कि तुम्हारे यहां के कामदेव के मन्दिर में जो तुम्हारे मार्ग का रोकेगा वही तुम्हारा पति होगा। मन्त्री लौटकर रत्नशेखर को रत्नावलि के पास ले जाता है। उनका कामदेव मन्दिर में मिलन होने के बाद विवाह हो जाता है। राजा रत्नशखर अपने नगर में लौटकर पर्व के दिनों में ब्रह्मचर्य का पालन करता है। इससे उसके लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं। इस तरह यह कथा मानव प्रेम के सात्विक स्वरूप को उपस्थित करती है। इसमें काम के स्थान पर प्रेम को प्रधानता दी गयी है, जो जीवन में अपूर्व आनन्द का संचार करता है। इस कथा में एक उपन्यास के समस्त तत्व और गुण विद्यमान हैं। कथा में गद्य व पद्य दोनों का प्रयोग सरस शैली में हुग्रा है। ग्रन्थ में कई सूक्तियां प्रयुक्त हुई हैं। यथा वर-कन्या का उचित संयोग मिलना लोक में दुर्लभ है“वरकन्ना संजोगी अणुसरिसो दुल्लहो लोए" जिसके घर में युवा कन्या हो उसे सैंकड़ों चिन्ताएं रहती है"चिंता सहस्स भरिप्रो पुरिसो सब्वोवि होइ अणुवरयं । जुव्वण-भर-भरिअंगी जस्स घरे वहए कन्ना ।" विरह का दुख बड़ा कठिन है"दिण जायइ जणवत्तणी पुण रत्तडी न जाई" । 1. शास्त्री, प्रा. सा. प्रा. इ. पृ. 503 । 2. वही पृ. 510। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 इस तरह राजस्थान के प्राति-प्रन्थों में कथाग्रन्थों की अधिकता है । भारतीय कथा-साहित्य प्रात की इन कथाओं से प्रभावित हया है। इन कथानों के अनेक अभिप्राय अन्य भाषाओं की कथाओं में उपलब्ध होते हैं ।। प्राकृत की ये कथाएं धर्म और नैतिक आदर्शों से जुड़ी हुई है। यद्यपि इनमें काव्य तत्वों की कमी नहीं है। 2. प्राकृत चम्पू-काव्य: प्राकृत साहित्य में पद्य एवं गद्य की स्वतन्त्र रचनाएं उपलब्ध है। कथा एवं चरित ग्रन्थों में पद्य एवं गद्य की मिश्रित शैली भी प्रयुक्त हुई है। किन्तु भारतीय साहित्य में जिसे चम्पू विधा के नाम से जाना गया है, उसका प्रतिनिधित्व प्राकृत में उद्योतनसूरि की कुवलयमाला कहा ही करती है। संस्थत एवं प्राकृत के अन्य चम्पू काव्य कुवलयमाला के बाद ही लिखे गये हैं। कुवलयमालाकहा आचार्य उद्योतनसूरि 8वीं शताब्दी के बहुश्रुत विद्वान थे। उनकी एक मात्र कृति कुवलयमाला हा उनके पाण्डित्य एवं सर्वतोमुखी प्रतिभा का निष्कर्ष है। उद्योतनरि ने न केवल सिद्धान्त-ग्रन्थों का महन अध्ययन और मनन किया था, अपितु भारतीय साहित्य की परम्परा और विधानों के भी वे ज्ञाता थे। सिद्धान्त, साहित्य और लोक-संस्,ति के सुन्दरसामंजस्य का प्रतिफल है--उनकी कुवलयमालाकहा । कुवलयमाला की रचना जाबालिपुर (जालौर) में वि. सं. 835 ई. सम् 179 में हुई थी। उद्योतनसूरि ने वहां के ऋषभ जिनेश्वर के मन्दिर के उपासरे में बैठकर इस ग्रन्थ को लिखा था। उस समय रणहस्तिन् वत्सराज का वहां राज्य था। इस तरह इतनी प्रामाणिक सूचनाएं इस ग्रंथ में होने से इसकी साँस्कृतिक सामग्री भी महत्वपूर्ण होगयी है। उद्योतनसूरि ने इस ग्रन्थ में क्रोध, मान, माया, लोभ एवं मोह जैसे विकारों को पात्रों के रूप में उपस्थित किया है। इन पांचों की प्रमुख कथाओं के साथ कुवलयचन्द्र और कुवलयमाला के परिणय, दीक्षा ग्रादि की कथा भी इसमें वर्णित है। कुल 27 अवान्तर प्राकृत कथाएं इसमें हैं। भारतीय लोक-कथाओं का प्रतिनिधित्व कुवलयमाला की कथाओं द्वारा होता है। कवलयमालाकहा राजस्थान की प्राकृत रचनाओं में कई दष्टियों से महत्वपूर्ण है। इसमें प्रथम बार कथा के भेद-प्रभेदों में संकीर्ण कथा के स्वरूप का परिचय दिया गया है, जिसका उदाहरण यह कृति स्वयं है। क्रोध आदि अमूर्त भावों को प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने से कुवलयमाला को भारतीय रूपकात्मक काव्य-परम्परा की जननी कहा जा सकता 1. लेखक का निबन्ध--'पालि-प्राकृत कथाओं के अभिप्राय-"एक अध्ययन" ---राजस्थान भारती, भाग 11, अंक 1-3 2. जावालिउरं अट्ठावयं व अह विरइया तण । -णिम्मविया बोहिकरी भव्वाण होउ सव्वाणं ।।। -कुव. 282, 21-23 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसकी कथावस्तु कर्मफल, पुनर्जन्म एवं मूल वत्तियों के परिशोधन जैसी सांस्कृतिक विचारधाराओं पर आधारित है। पाठवीं शताब्दी के सामाजिक-जीवन का यथार्थ चित्र इस कृति में समाहित है। समाज की समृद्धि तत्कालीन व्यापार एवं वाणिज्य के विस्तार पर आधारित थी, जिसका सूक्ष्म विवेचन इसमें हुआ है। 1 ___ इस कृति की अप्रतिम उपयोगिता इसकी भाषागत समृद्धि के कारण है । 2 संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं पैशाची के स्वरूप को सोदाहरण इसमें प्रस्तुत किया गया है। 18 देशों (प्रान्तों) की भाषा के नमूने पहली बार इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किये गये है। न केवल भाषा अपितु प्रत्येक प्रान्त के लोगों की पहिवान एवं उनके स्वभाव प्रादि का वर्णन भी कुव. में अपना महत्व रखता है। मारवाड के व्यापारियों का वर्णन करते हए कवि कहता है कि मारुक लोग बांके, सुस्त, जड़ बद्धिवाले, अधिक भोजन करने वाले तथा कठोर एवं मोटे अंगों वाले थे। वे "अप्पां-तुप्पां' (हम तुम) जैसे शब्दों का उच्चारण कर रहे थे। यथा-- बंके जडे या जड्डे बह-भोइ कठिण-पीण-सूणंगे । "अप्पा तुप्पां" भणिरे ग्रह पेच्छइ मारुए तत्तो ॥ (कुव. 153-3) आठवीं शताब्दी के धार्मिक-जगत् का वैविध्यपूर्ण चित्र कुव. में उपस्थित किया गया है । उस समय के 32 मत-मतान्तरों की व्याख्या उद्योतनसरि ने जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में की है । शिक्षा एवं कला के क्षेत्र में उस समय के शिक्षण-संस्थान कितने महत्वपूर्ण थे, इसकी जानकारी भी इस ग्रन्थ में मिलती है। 3 कूवनयमलान केवल सांस्कृतिक अपितु काव्यामक दृष्टि से भी एक उत्कृष्ट कृति है। गद्य एवं पय में निबद्ध कई वर्णन बड़े मनोहारी हैं। संध्यावर्णन एवं लक्ष्मी वर्णन इसके प्रसिद्ध है। लक्ष्मी और नारी के स्वभावों का सुन्दर चित्रण निम्न' गाथा में द्रष्टव्य है प्रालिंगियं पि मंचइ लच्छी पुरिसं ति साहस-विहणं । गोत्त-क्खलण-विलक्खा णियव्व दइया ण संदेहो ।। (कुव. 66-19) कुव. में अनेक नीति-वाक्यों का प्रयोग हया है। कुछ सूक्तियां बड़ी सटीक हैं। यथा-- "मा अप्पय पसंसह जइ वि जसं इच्छसे विमलं ।” ( 43-32) (यदि विमल यश की आकांक्षा है तो अपनी प्रशंसा मत करो) "ज कुंभारी सूया लोहारी किं धयं पियउ" (कुम्हारी (स्त्री) के प्रसूता होने पर लुहारिन (स्त्री) को घी पिलाने से क्या ) 1. जैन, प्रेम सुमन-"कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन" वैशाली 1975 2. उपाध्ये, ए. एन., कुवलयमाला, इण्ट्रोडक्शन 3. जामखेडकर, कुवलयमालाकहा : ए कल्चरल स्टडी, नागपुर, 1974 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 चम्पूविधा में कुवलयमालाकहा के अतिरिक्त कोई अन्य स्वतन्त्र रचना प्राकृत में नहीं है । यद्यपि गद्य-पद्य में कई प्राकृत चरित्र ग्रन्थ लिखे गये हैं। 1 3. व्यंग्य कथा-धूर्ताख्यान - . राजस्थान में रचित प्राकृत साहित्य में 'घूर्ताख्यान' व्यंगोपहास शैली में लिखी गयी अनूठी रचना है। प्राचार्य हरिभद्र ने इसे चित्तौड में लिखा था। 2 समराइच्चकहा में हरिभद्र न काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन किया है तो धूर्ताख्यान में वे एक कुशल उपदेशक के रूप में प्रगट हुए हैं। इस कथा में हरिभद्र ने पुराणों और रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों में पायी जाने वाली कथाओं की अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक और अबौद्धिक मान्यताओं तथा प्रवत्तियों का कथा के माध्यम से निराकरण किया है। धूर्ताख्यान का कथानक सरल है। यह पांच धूर्तशिरोमणि मूलश्री, कंडरीक, एलाषाढ, शश और खंडयाणा की कथा है। चार पुरुष और एक नारी खंडयाणा इस कथा के मूल संवाहक है। इनमें से प्रत्येक धूर्त असंभव और काल्पनिक अपनी कथा कहता है। दूसरे धूर्त उसकी कथा को प्राचीन ग्रन्थों के उदाहरण देकर सही सिद्ध कर देते हैं। अन्त में खंडयाणा अपना अनुभव सुमाती है तरुण अवस्था में में अत्यन्त रूपवती थी । एक बार में ऋतु-स्नान करके मंडप में सो रही थी। तभी मेरे लावण्य से विस्मित होकर पवन ने मेरा उपभोग किया । उससे तुरन्त ही मुझे एक पुत्र उत्पन्न हुआ और वह मुझसे पूछकर कहीं चला गया। यदि मेरा उक्त कथन असत्य है तो आप चारों लोग हमारे भोजन का प्रबन्ध करें और यदि मेरा अनभव सत्य है तो इस संसार में कोई भी स्त्री अपुत्रवती न होनी चाहिये। क्योंकि पवन (हवा) के समागम से सबको पुत्र हो सकता है । मूल श्री नामक धूर्त ने खंडयाणा के इस कथन का समर्थन महाभारत आदि के उद्धरण देकर किया। हरिभद्र जैन परम्परा को मानने वाले थे। अतः उन्होंने वैदिक परम्परा में प्रचलित काल्पनिक कथाओं एवं अबौद्धिक धारणाओं का निरसन करना चाहा है। कथाकार ने स्वयं इन मान्यताओं पर सीधा प्रहार न कर कथा के पात्रों द्वारा व्यंग शैली में उनकी निस्सारता उपस्थित की है। सृष्टि की उत्पत्ति, प्रलय,ब्रह्मा-विष्ण-महेश की अस्वाभाविक कल्पना, अग्नि आदि का वीर्यपान, ऋषियों की काल्पनिक कार्य-प्रणाली, अन्धविश्वास आदि अनेक मान्यताओं का खण्डन इस प्रन्थ द्वारा इना है। किन्तु शैली इस प्रकार की है कि पाठक ग्रन्थ को उपन्यास जैसी रुचि से पढ सकता है। सर्वत्र कौतूहल बना रहता है। हास्य-व्यंग की इस अन पम कृति से प्राचार्य हरिभद्र की मौलिक कथा-शैली परिलक्षित होती है। धाख्यान की इस शैली ने आगे चलकर धर्मपरीक्षा जैसी महत्वपूर्ण विधा को विकसित किया है । 1. शास्त्री, प्रा. सा. आ. ह., पृ. 3371 2. चित्तउडदुग्ग सिरीसंठिएहिं सम्मत्तराय रत्तेहि । ___ सुचरित्र समूह सहिया कहिया एसा कहा मुवरा।। 3. उपाध्ये, 'धूर्ताख्यान' भूमिका । 4. द्रष्टव्य लेखक का निबन्ध--'कुवलयमाला में धम्मपरीक्खा अभिप्राय --जैन सिद्धान्त भास्कर, 1975 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. चरित - काव्यः -- 31 प्राकृत काव्यों में कथा -ग्रन्थों के अतिरिक्त चरित्र ग्रन्थ भी लिखे गये हैं । चरित्र काव्यों के मूल स्रोत जैन आगम ग्रन्थ हैं । उनके प्रमुख महापुरुषों के चरित्रों को लेकर इन काव्य-ग्रन्थों की रचना की है। प्राकृत के चरित्र - काव्यों में कथा एवं नीति दोनों साथ-साथ चलती है । प्रमुख चरित्रों के अतिरिक्त जन-जीवन के व्यक्तियों को भी चरित्र इन ग्रंथों में सम्मिलित हैं। राजस्थान प्राकृत साहित्यकारों ने 10-15 चरित्र ग्रन्थों की रचना विभिन्न स्थानों में की है । कुछ प्रमुख चरितकाव्यों का परिचय द्रष्टव्य है । सिरिविजयचंद केवलिचरिय श्री अभयदेवसूरि के शिष्य चन्द्रप्रभ महत्तर न े वि. सं. 1127 में देवावड नगर में वीरदेव के अनरोध पर इस चरित की रचना की थी । विजयचन्द्र के केवलज्ञान की प्राप्ति तक की कथा लेखक को अपनी कल्पना शक्ति से प्रसूत हुई है तथा बाद में जिनपूजा के महात्म्य का प्रतिपादन किया गया है । जितेन्द्र देव की पूजा जिन द्रव्यों से करनी चाहिए उन सबके सम्बन्ध में एक-एक कथा इस चरित काव्य में है । कथाओं का स्वतन्त्र महत्व भी है। वस्तुतः भक्ति मार्ग का प्रतिपादन आलंकारिक भाषा में कथाओं के माध्यम से इस चरित ग्रन्थ में किया गया है । सुरसुन्दरीचरियं सूर के शिष्य साधु धनेश्वर ने वि. सं. 1095 में चड्डावलि ( आबू ) नामक स्थान में इस ग्रन्थ की रचना की थी । यह एक प्रेमकथा है। सुरसुन्दरी और मकरकेतु की इस प्रणय- कथा को कवि न े इतने सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है कि धार्मिक वर्णनों का बोझ ही प्रतीत नहीं होता । सारी कथा, नायिका को चारों और घूमती है । चरितों के मनोवैज्ञानिक विकास को प्रस्तुत करने में तथा काव्यात्मक वर्णनों की छटा दिखाने में धनेश्वरसूरि को पूर्ण सफलता मिली है । विरह से संतप्त हुए पुरुष की उपमा कवि ने भाड में भूजे जाते हुए चने के साथ दी है- 'भट्ठियो विय सयणीये कीस तडफडसि' एक स्थान में कहा गया है कि राग क े न होने से सुख एवं रागयुक्त होने से दु:ख प्राप्त होता है- 1. शास्त्री, प्रा. सा. इ., पृ. 308-101 2. देयrasवरनयरे रिसहजिणंदस्स मंदिरे रइयं । नियवीरदेव सीसस्स साहुणो तस्स वयणेणं । -- प्रशस्ति, 151 3. चड्डावलिपुरिट्टियो स गुरुणो प्राणाए पाढंतरा । कासी विक्कम-वच्छरम्मि य गए बाणंक सुन्नोडुये ॥ मासे भट् गुरुम्म कसिणो वीया धणिट्ठादिने ॥ सु. च. 16-250-51 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 तावच्चिय परमसहं जाव न रागो मणम्मि उच्छरइ । हंदि!सरागम्मि मण दुक्खसहस्साईपविसति ।। इस चरित-काव्य की भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव है। समस्त काव्य प्रौढ एवं उदारत्त शैली में लिखा गया है। रयणचूडारायचरियं इसके रचियता आचार्य नेमिचन्द्र है । इन्होंने इस काव्य को गुजरात एवं राजस्थान दोनों प्रदेशों में भ्रमण करते हुये पूरा किया था। प्राकृत गद्य में रचित यह धर्मप्रधान कथा है । इस चरित-काव्य मे नायक रत्नचूड का सम्पूर्ण चरित वर्णित है। उसके चरित का विकास किस क्रम से हुया है, इसका काव्यात्मक वर्णन इस ग्रन्थ में है । मनोभावों का यहां सुन्दर चित्रण किया गया है। घटनाक्रम में पूर्वजन्म की घटनाएं वर्तमान जीवन के चरित का स्फोटन करती है। अवान्तर कथाओं का संयोजन भी सुन्दर ढंग से हुआ है। इस कथा में नायक ने जो नायिका को पत्र लिखा है, वह बहुत मार्मिक है।2 काव्य के वस्तु वर्णन प्रशंसनीय हैं। सुदंसणाचरिय यह चरितकाव्य देवेन्द्रसूरि का लिखा हुआ है। इन्होंने अर्ब दगिरि पर सूरिपद प्राप्त किया था। अतः राजस्थान प्रापका कार्यक्षेत्र रहा होगा। इस ग्रन्थ में सुदर्शना राजकुमारी के जीवन की कथा है । वह अनेक विधाओं व कलाओं में पारंगत होकर श्रमणधर्म में दीक्षित होती है । अवान्तर कथाओं द्वारा उसके जीवन के विकास को उठाया गया है। शील की काव्य में प्रतिष्ठा है। कवि जीवन की तीन विडम्बनामों को गिनाता है तक्क विहूणो विज्जो, लक्खणहीणो य पंडिनो लोए। भावविहूणो धम्म) तिण्णिवि गरुइ विडम्बणया ॥ अंजनासुन्दरी चरित राजस्थान में केवल पुरुष कवियों ने ही नहीं, अपितु साध्वियों ने भी प्राकृत में रचनाएं लिखी है। जिनश्वरसूरि की शिष्या गुणसमृद्धि महत्तरा ने प्राकृत में अंजनासुन्दरी चरित की रचना की थी। इस ग्रन्थ की रचना जैसलमेर में हुई थी। 504 श्लोक प्रमाण इस ग्रन्थ में महसती अंजना का जीवन-चरित सरस शैली में वर्णित है। 1. डिडिलवनिवेसे पारद्धा संहिएण सम्पत्ता । चड्डावल्लिपुरीए एसा फग्गुंणचउम्भासे ॥ र. च., प्रशस्ति, 22 2. शास्त्री, प्रा. सा. आ. इ., पृ. 348 3. जैन, प्रा. सा. इ., पृ. 561 4. देशाई, जै. सा. सं. इ., पृ. 438 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 गणधरसाद्धशतक ___ इसके रचयिता जिनदत्तसूरि राजस्थान के प्रभावशाली साहित्यकार है । इनको चित्तोड़ में वि. सं. 1169 में प्राचार्यपद मिला तथा अजमेर में वि. स. 1211 में इनका अवसाम हुआ। इनकी 9-10 रचनाएं प्राकृत में हैं। गणधरसार्द्धशतक उनमें से एक है। भगवान् महावीर से लेकर जिनवल्लभसूरि तक के प्राचार्यों का गुणानवाद इस कृति में है।। यद्यपि चरित एवं काव्य की दृष्टि से यह कृति प्रौढ़ नहीं है, किन्तु इसकी ऐतिहासिक उपयोगिता है। इन चरितग्रन्थों के अतिरिक्त प्राकृत में और भी चरितकाव्य पाये जाते हैं जिनकी रचना गुजरात एवं राजस्थान के जैनाचार्यों ने की है । देवेन्द्रसूरि का कण्हचरियं, नेमिचन्द्र वृत महावीरचरियं, शांतिसूरिक्त पृथ्वीचन्द्र चरित, जिनमाणिक्यकृत कूर्मापुत्रचरित प्रादि उनमें प्रमुख हैं। 5. धार्मिक व दार्शनिक ग्रन्थः-- वैसे तो जैनाचार्यों द्वारा रचित सभी ग्रन्थों में धर्म व दर्शन का समावेश होता है। काव्य, चरित, कथा श्रादि ग्रन्थों में अध्यात्म की बात कही जाती है। किन्तु प्राकृत के इन ग्रन्थकारों ने कुछ ग्रन्थ धर्म व दर्शन के लिए प्रतिपादन के लिए ही लिखे हैं। प्रागमिक टीका आदि ग्रन्थों के अतरिक्त इस क्षेत्र के निम्न ग्रन्थ प्राकृत की महत्वपूर्ण उपलब्धि कहे जा सकते हैं। सम्मइसुत्त प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर का'सम्मइसूत्त' प्राकृत भाषा में लिखा गया दर्शन का पहला ग्रन्थ है। इसमें नय, ज्ञान, दर्शन आदि का संक्षप विवेचन है। अर्थ की जानकारी नय ज्ञान से ही हो सकती है, इस बात को प्राचार्य ने जोर देकर कहा है। यह ग्रन्थ श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्परा में मान्य है। 5-6 वीं शताब्दी में लिखा गया यह ग्रन्थ हो सकता है, राजस्थान का प्रथम प्राकृत ग्रन्थ हो । योगशतक पाठवीं शताब्दी में प्राचार्य हरिभद्र ने राजस्थान में धर्म व दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थों का प्राकत में प्रणयन किया है। उनमें योगशतक (जोगसयग) प्रमुख है। इस ग्रन्थ में योग का लक्षण योगी का स्वरूप, आत्मा-कर्म का सम्बन्ध, योग की सिद्धि आदि अनेक दार्शनिक तथ्यों को निरूपण है। 1. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि स्मृतिग्रन्थ, पृ. 23 2. संघवी, सुखलाल द्वारा सम्पादित एवं ज्ञानोदय ट्रस्ट अहमदाबाद से 1963 1 प्रकाशित । ३. मेहता, जै. सा. बृ. इ., भाग 4, पृ. 234 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 धर्मोपदेशमाला-विवरण इसकी रचना जयसिंहसूरि ने वि. सं. 915 में नागौर में की थी। गद्य-पद्य मिश्रित इस ग्रन्थ मै कवि ने धार्मिक तत्वज्ञान को प्रस्तुत करने के लिए कथाएं प्रस्तुत की है। दान, शील, तप की प्रतिष्ठा इन कथाओं के द्वारा होती है। भव-भावना मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने वि. सं. 1170 में मेड़ता और छत्रपल्ली में रहकर भवभावना (उपदेशमाला) और उस पर स्वापज्ञवृत्ति की रचना की थी। ग्रन्थ में 531 गाथाओं में -12 भावनाओं का वर्णन है । वृत्ति में अनेक प्रात कथाए गंफित है। सांस्कृतिक इति से उनका बड़ा महत्व है। अनेक सुभाषित इस ग्रन्थ में उपलब्ध है। विपत्ति के आने के पहिलेही उसका उपाय साचना चाहिये। घर में आग लगने पर काई कुंपा नहीं खोद सकता। यथा पढमं पि पावयाणं चितयव्वो नरेण पडियारो । नहि गेहम्मि पलिते अवडं खणिउ तरइ कोई ।। हेमचन्द्रसूरि की दूसरी महत्वपूर्ण रचना उपदेशमाला या पुष्पमाला है। इसमें शास्त्रों के अनसार विविध दृष्टान्तो द्वारा कर्मों के क्षय का उपाय प्रतिपादित किया गया है। तप माहिर स्वरूप एव इन्द्रिय-निग्रह सम्बन्धी विशेष जानकारी इसमें दी गयी है। संवेगरंगशाला इसके रचयिता जिनचन्द्रसूरि राजस्थान के प्रसिद्ध विद्वान् थे। उन्होंने शान्तरस से भरपर इस संवेगरंगशाला की रचना वि. सं. 1125 में की थी। इसमें दस हजार तिरेपन गाथानों संवेगभाव की महत्ता प्रगट की गयी है।4 कहा गया है कि जिसके संवेगभाव नहीं है उसकी बाको सब तपस्या आदि भूसे के समान निस्सार है-- 'जइनो संवेगरसा ता तं तुसखंडणं सव्वं ।' विवेकमंजरी महाकवि श्रावक पासड़ ने वि. सं. 1248 में विव कमंजरी की रचना की थी। इस ग्रन्थ में विवक की महिमा बतलायी गयी है तथा मन की शुद्धि की प्रेरणा दी गयी है। इसमें 12 भावनाओं का भी वर्णन है। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने अपने पुत्र शोक में अभयदेवसरि के उपदे से की थी। - 1. नाहटा, रा. सा. गो. प. पृ., 17 2. जैन, प्रा. सा. इ., पृ. 505 3 जैन, प्रा. सा. इ., पृ. 514-15 4. गांधी, लालचन्द भगवान,-'संवेगरंगशाला आराधना' -म. जिन. स्मृतिग्रन्थ, पृ. 14-15 5. मेहता-जं. सा. बृ. इ., भाग 4, पृ. 216 6. देसाई-ज. सा. सं. इ, पृ. 3389 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टिशत 35 इसके रचयिता नेमिचन्द्र भण्डारी मारवाड के मरोट गांव के निवासी थे । उन्होंने 161 गाथाओं में इस ग्रन्थ की रचना की है। इस रचना में जैन गृहस्थ व साधु के शिथिल प्राचार की कठोर आलोचना की गयी है । इसमें सद्गुरु एवं सदाचार के स्वरूप का भी प्रतिपादन है । विवेकविलास इस कृति के रचयिता जिनदत्तसूरि हैं । इन्होंने जाबालिपुर के राजा उदयसिंह की क 'पुत्र धनपाल के संतोष के लिए इस ग्रन्थ को लिखा था । 2 इस ग्रन्थ के 12 उल्लासों में मानव जीवन को नंतिक और धार्मिक बनान के लिए सामान्य नियमों का प्रतिपादन है । igator संग्रह आचार्य वीरनंदि के शिष्य पद्मनंदि ने इस ग्रन्थ की रचना वारांनगर ( कोटा ) में की थी । इसका रचनाकाल 11वीं शताब्दी होना चाहिए । इस ग्रन्थ में 2389 गाथाएं हैं, जिनमें जैन भूगोल के परिचय के साथ ही भगवान् महावीर के बाद की आचार्य परम्परा दी गयी है । पद्म'माय' नाम का एक और प्राकृत ग्रन्थ उपलब्ध है। इसमें 193 गाथाओं में धर्म का प्रतिपादन किया गया है । 4 इनके अतिरिक्त अन्य धार्मिक ग्रन्थ भी प्राकृत में राजस्थान में लिखे गये हैं । ये परिमाण छोटे और किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही लिखे जाते थे । जीवसत्तरी, अंगु लसत्तरि, प्रवचनपरीक्षा, द्वादशकुलक, कर्म विचार-प्रकरण, चैत्यवन्दनकुलक, विशिका, संदेह दोलावलि, अवस्थाकुलक आदि इसी प्रकार की धार्मिक रवनाए हैं। भाषा एवं विषय की दृष्टि से इनका अपना महत्व है । 6. लाक्षणिक ग्रन्थः --- राजस्थान के प्राकृत साहित्यकारों ने काव्य एवं धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त कोश, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष आदि पर भी प्राकृत में ग्रन्थ लिख हैं। इससे प्रतीत होता है कि जैनाचार्य जीवनोपयोगी प्रत्येक विषय पर प्राकृत में ग्रन्थ लिखते थे । लोकभाषा के विकास में उनका यह अपूर्व योगदान है । पाइयलच्छी नाममाला धनपाल ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश इन तीनों भाषाओं में रचनाएं लिखी हैं । उनकी 'पाइयलच्छी नाममाला' प्राकृत का प्रसिद्ध कोश ग्रन्थ है । इसकी रचना उन्होंने अपनी छोटी 1. मेहता, जै. सा. बृ. इ., भाग 4, पु. 211 2. वही, पृ. 217 3. प्रेमी, नाथूराम, जैन साहित्य और इतिहास, पृ. 259 4. जैन प्रा.सा. इ., पृ. 315-16 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 बहिन सुन्दरी के लिए वि. सं. 1059 में की थी। इस ग्रन्थ में 279 गाथाएं हैं जिनमें 998 प्राकृत शब्दों के पर्याय दिये गये हैं। इस कोश में प्राकृत शब्द तथा देशी शब्द भी संग्रहीत हैं। ग्रमर के लिए भसल, इंदिदर, धुअगाय जैसे देशी शब्दों का इसमें प्रयोग है। सुन्दर के लिए 'लळं' तथा पालसी के लिए 'मट्ठ' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। रिट्ठसमुच्चय 'रिट्ठसमुच्चय' के कर्ता प्राचार्य दुर्गदेव दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वान् थे। इन्होंने वि. सं. 1089 में कुम्भनगर (कुंभेरगढ, भरतपुर) में इस ग्रन्थ को समाप्त किया था। यह ग्रन्थ उन्होंने 'मरणकरंडिया' नामक ग्रन्थ के आधार पर लिखा है, जिसमें मरण-सूचक अनिष्ट चिन्हों ) का विवेचन है। ग्रन्थ में कुल 261 प्राकृत गाथाएं हैं। पिंडस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ये तीन प्रकार के रिष्ट इस ग्रन्थ में बताये गये हैं। ग्रन्थ में स्वप्न विषयक जानकारी भी दी गयी है तथा विभिन्न प्रश्नों द्वारा भी व्यक्ति के मरण की सूचना प्राप्त करने का इसमें विधान है।' (रिष्टो अर्घकाण्ड दुर्गदेव ने अग्धकंड' नाम का एक ग्रन्थ प्राकृत में लिखा है। इस ग्रन्थ से यह पता लगाया जा सकता है कि कौन-सी वस्तु खरीदने से और कौन-सी वस्तु बेचने से लाभ हो सकता है। इस ग्रन्थ का सम्बन्ध ज्योतिष से है। ज्योतिषसार हीरकलश 16वीं शताब्दी के विद्वान्थे । बीकानेर एवं जोधपुर राज्य में इनका विचरण अधिक हुआहै। नागौर के डेह नामक स्थान में इनका देहान्त हुआ था 14 इन्होंने वि. सं. 1621 में 'ज्योतिस्सार' की रचना प्राकृत में की थी। इसमें दो प्रकरण है। इस ग्रन्थ की प्रति बम्बई के माणिकचन्द्र भण्डार में है। इस प्राकृत ग्रन्थ का सार होरकलश ने राजस्थानी भाषा के 'ज्योतिषहीर' नामक ग्रन्थ में दिया है। औदार्यचिन्तामणि व्याकरण इसके रचयिता मनि श्रुतसागर है। ये उभय भाषा चक्रवर्ती यादि उपाधियों से विभ षित एवं विधानंदि के शिष्य थे। वि. सं. 1575 में इन्होंन 'पौदार्यचिन्तामणि व्याकरण 1. शास्त्री, प्रा. सा. पा. इ., पृ. 537-38 2. शाह, ज. सा. बृ. इ. भाग 5, पृ. 202-203 3. वही, पृ. 222 नाहटा, 'राजस्थानी भाषा के एक बड़े कवि हीरकलश' -शोधपंजिका वर्ष 7, ग्रंक 4 5. शाह, ज.सा.ब.इ. भाग 5, पृ. 186 6. साराभाई नबाब, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित । 7. शाह, ज. सा. बृ. इ., भाग 5, पृ. 74 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 की रचना की थी । इसकी पूर्ण पाण्डुलिपि प्राप्त है । अध्याय हैं । प्रायः हेमचन्द्र और त्रिविक्रम के प्राकृत व्याकरणों चिन्तामणि व्याकरण इसमें प्राकृत भाषा विषयक छह का इसमें अनुसरण किया गया है । भट्टारक शुभचन्द्रसूरि ने वि. सं. 1605 में इस ग्रन्थ की रचना की थी । इसमें कुल 1224 सूत्र हैं । हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण का इसमें अनुसरण किया गया है । इस ग्रन्थ पर लेखक की स्वोपज्ञवृत्ति भी है । 3 छंदोविद्या कवि राजमल्ल ने 16 वीं शताब्दी म 'छंदोविद्या' की रचना राजा भारमल्ल के लिये की थी । भारमल्ल श्रीमालवंश का एवं नागौर का संधाधिपति था । अतः राजमल्ल भी राजस्थान से सम्बन्धित रहे होंगे । राजमल्ल का छंदोविद्या नामक ग्रन्थ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी में निबद्ध है । प्राकृत अपभ्रंश का इसमें अधिक प्रयोग हुआ है । यह ग्रन्थ छन्दशास्त्र के साथ ही ऐतिहासिक घटनाओं की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है । छंदकोश 7. छंदकोश के रचयिता रत्नशेखरसूरि 15 वीं शताब्दी के विद्वान् थे । नागपुरीयतपागच्छ से था । अतः इनका कार्यक्षेत्र भी राजस्थान हो सकता है । 74 पद्य हैं। 46 पद्य अपभ्रंश में एवं शेष प्राकृत में हैं । कई प्राकृत छंदों का लक्षण इस ग्रन्थ में दिया गया है। 5 इनका सम्बन्ध छंदकोश में कुल प्राकृत के शिलालेख :--- राजस्थान में प्राकृत भाषा का प्रचार धर्म-प्रभावना एवं साहित्य तक ही सीमित नहीं था अपितु प्राकृत में शिलालेख आदि भी यहां लिखे जाते थे । जोधपुर से 20 मील उत्तर की ओर घटयाल नाम के गांव में कक्कुक का एक प्राकृत शिलालेख उत्कीर्ण है । यह शिलालेख वि. सं. 918 में लिखाया गया था । इसमें जैन मंदिर प्रादि बनवान े का उल्लेख है । 23 गाथाओं में यह शिलालेख है 16 इससे ज्ञात होता है कि कक्कुक प्रतिहार राजा ने अपने सदाचरण से मारवाड, माडवल्ल तमणी एवं गुजरात आदि के लोगों को अनुरक्त कर रखा था । यथा मरु माडवल्ल-तमणी परिका-मज्जगुज्जरत्तासु । जणि जेन जणाणं सच्चरित्रगुणेहि प्रणुदाहो ॥16 ॥ 1. ए नलस् आफ भंडारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट भाग 13, पृ. 52-53 1 शाह, वही, पृ. 74 1 2. 3. उपाध्ये, ए. एन. ए. भ. प्रो. रि. इ., वही, पृ. 46-521 4. शाह, वही, पृ. 138 1 5. शाह, वही, पृ. 149 | 6. मूल प्राकृत एवं हिन्दी अनुवाद के लिए द्रष्टव्य-शास्त्री, प्रा. सा. श्री. इ., पृ. 255-570 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. आधुनिक प्राकृत-साहित्य: राजस्थान में प्राकृत ग्रन्थों के लेखन का कार्य वर्तमान युग में भी चल रहा है। प्राचीन प्राकृत ग्रन्थों का सम्पादन, अनुवाद, प्रकाशन आदि कार्यों के अतिरिक्त जैन मुनि स्वतन्त्र प्राकृत रचनाएं भी लिखते हैं। गुजरात में विहार करते हुए मूर्तिपूजक आचार्य विजयकस्तूरसूरि ने वि. सं. 2027 में 'पाइयबिन्नाणकहा' नामक पुस्तक प्राकृत में लिखी है । इसके दो भागों में प्राकृत की 108 कथाएं लिखी गयो हैं। आधुनिक शैली में लिखी गई ये कथाएं सरल और सुबोध हैं। तेरापन्थ सम्प्रदाय के मनियों ने भी प्राकृत में रचनाएं लिखी हैं। श्री चन्दनमुनि ने बीदासर, चूरू आदि स्थानों में भ्रमण करते हुए प्राकृत में 'रयणवाल कहा' 'जयचरिअं' एवं 'णीईधम्म-सुत्तीया' ग्रन्थों की रचना की है। इनमें रवणवालकहा बहुत सुन्दर और आधुनिक कथा ग्रन्थ है। वर्षाकाल का वर्णन करते हुए कवि कहता है समत्य-जीवलोअ-तत्तिणिवारयो, णाणाविह तरु-लया-पुष्फ-फल-गुम्म-विचित्त-तणोसहिउप्पायगो, णिउजल-पएसेगजीवणाहारो, हालिएहिं अणिमिसदिट्ठीए दिट्ठिा चिरं विहीरियो उभूमो पाउसिनो कालो (र. क. पृ. 68) मुनि श्री नथमल जी ने 'तुलसीमंजरी' के नाम से प्राकृत व्याकरण प्रक्रिया की भी रचना की है जो कि अभी तक अप्रकाशित है : 9. राजस्थान के ग्रन्थ-भण्डारों में प्राकृत ग्रन्थ: राजस्थान के प्राकृत साहित्य का सम्पूर्ण परिचय तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक यहां के ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध प्राकृत ग्रन्थों का विवेचनात्मक विवरण प्रस्तुत न किया जाय। ग्रन्थ-भण्डारों की जो सूचियां प्रकाशित है उनसे तथा ग्रन्थ-भण्डारों के अवलोकन से इस प्रदेश के प्राकृत ग्रन्थों का परिचय तैयार किया जा सकता है। तभी ज्ञात होगा कि राजस्थान के मुनियों,श्रावकों, राजाओं आदि ने प्राकृत साहित्य के विकास में कितना योगदान किया है। 1. नेमिविज्ञान कस्तूरसूरि ज्ञान मंदिर, गोपीपुरा, सूरत से प्रकाशित । 2. भगवत प्रसाद रणछोड़दास, पटेल सोसायटी (शाहीबाग) अहमदाबाद से प्रकाशित Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के प्राकृत साहित्यकार : ३ - देवेन्द्र मुनि शास्त्री आचार्य हरिभद्र हरिभद्रसूरि राजस्थान के एक ज्योतिर्धर नक्षत्र थे। उनकी प्रबल प्रतिभा से भारतीय साहित्य जगमगा रहा है। उनके जीवन के सम्बन्ध में सर्वप्रथम उल्लेख " कहावली" में प्राप्त होता है । इतिहासविज्ञ उसे विक्रम की बारहवीं शती के आसपास की रचना मानते हैं । उसमें हरिभद्र की जन्म-स्थली के सम्बन्ध में "पिबंगुई बंभपुणी " ऐसा वाक्य मिलता है, जबकि अन्य अनेक स्थलों पर चित्तौड़- चित्रकूट का स्पष्ट उल्लेख है । पण्डित प्रवर श्री सुखलालजी का अभिमत है कि बम्भपुणी ब्रह्मपुरी चित्तौड का ही एक विभाग रहा होगा, अथवा चित्तौड़ के सन्निकट का कोई कस्बा होगा । उनके माता का नाम गंगा और पिता का नाम शंकरभट्ट था । सुमतिगणी न् “गणवर सार्वशतक" में हरिभद्र को जाति ब्राह्मण बताई है । प्रभावक चरित्र में उन्हें पुरोहित कहा गया है ।" आचार्य हरिभद्र के समय के सम्बन्ध में विद्वानों में विभिन्न मत थे । किन्तु पुरातत्ववेत्ता मुनि श्री जिनविजय जी ने प्रबल प्रमाणों से यह सिद्ध कर दिया कि वीर सं. 757 से 827 तक उनका जीवन काल है । अब इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं रहा है। उन्होंने व्याकरण, न्याय, दर्शन और धर्मशास्त्र का गम्भीर अध्ययन कहां पर किया था इसका उल्लेख 1. पाटण संघवी के पाड़े के जैन भण्डार की वि. सं. 1497 की लिखित ताडपत्रीय पोथी खण्ड 2, पत्र 300 1 2. (क) उपदेश पद, श्री मुनिचन्द्रसूरि की टीका वि. सं. 1174 | (ख) गणघर सार्घशतक श्री सुमतिगणि कृत वत्ति । (ग) प्रभावक चरित्र 9 श्रृंग (वि. सं. 1334) (घ) राजशेखर कृत प्रबन्धकोष वि. सं. 1405, पृ.601 3. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पु. 6 । 4. संकरो नाम भटो, तस्स गंगा नाम भट्टिणी । तीस हरिभद्दो नाम पंडियो पुत्तो । काली पत्र 300 1 5. एवं सो पंडितगव्व मुव्वहमाणो हरिभद्दो नाम माहणो । 6. प्रभावक चरित्र शुंग 9, श्लोक 8 । 7. जंब साहित्य संशोधक वर्ष 1 अंक 11 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौं मिलता है। एक बार चित्तौड़ के मार्ग से जा रहेथं उनके कर्ण-कुहरों में एक गाथा 1 गाथा प्राकृत-भाषा की थी, संक्षिप्त और सकत-पूर्ण अर्थ लिए हुए थी अतः उसका मर्म उनकी समझ में नहीं आया। उनने गाथा का पाठ करने वाली साध्वी से उस गाथा के अर्थ को जानने की जिज्ञासा व्यक्त की। साध्वी ने अपने गुरु जिनदत्त का परिचय कराया। प्राकृत साहित्य का और जैन-परम्परा का प्रामाणिक व गम्भीर अभ्यास करन के लिये उन्होंन प्राचार्य के पास जैनेन्द्रीदीक्षा ग्रहण की और उस साध्वी के प्रति अपने हृदय का अनन्त श्रद्धा को उसका धर्मपत अपनेप्रापको बताकर व्यक्त की है। वे गृहस्थाश्रम में संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। श्रमण बनने पर प्राकृत भाषा का भी गहराई से अध्ययन किया। उन्होंने दशर्वकालिक,आवश्यक नदी प्रनयोगटार. पन्नवणा, अधिनियं क्ति, चैत्यवन्दन, जम्बुद्वीप-प्रज्ञप्ति. जीवाभिगमन नियंक्ति प्रादि आगमों पर संस्कृत भाषा में टीकाएं लिखीं। आगम साहित्य के प्रथम टीकाकार उन्होंने प्राकृत भाषा में विपुल साहित्य का सृजन किया है। संस्कृत भाषा के समान उनका प्राकृत भाषा पर भी पूर्ण अधिकार था। उन्होंने धर्म, दर्शन, योग तथा ज्योतिष और स्तुति प्रजाति सभी विषयों में प्राकृत भाषा में ग्रन्थ लिखे हैं। जैसे उपदेश पद, पंचवस्त. पंचाशक. बीस SAME IS-धर्म-विधि प्रकरण, सम्बोध प्रकरण, धर्मसंग्रहणी, योग विशिका, योगशतक, धूर्ताख्यान, समराइच्च कहा, लग्नशुद्धि, लग्न कुण्डलियां आदि । समराहच्चकहा, प्राकृत भाषा की एक सर्वश्रेष्ठ कृति है। जो स्थान संस्कृत साहित्य में कादम्बरी का है बही स्थान प्राकृत साहित्य में समराइच्चकहा का है। यह जैन महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गई है, अनेक स्थलों पर शौरसेनी भाषा का भी प्रभाव है। वृत्तक्खाण' हरिभद्र की दूसरी उल्लेखनीय रचना है। निशीथ चणि की पीठिका में धर्ताख्यान की कथाएं संक्षेप में मिलती हैं। जिनदासगणि महत्तर ने वहां यह सूचित किया है कि विशेष जिज्ञासु धुताक्खान देखें। इससे यह स्पष्ट है कि जिनदासगणि के सामने धूताक्खाण की कोई प्राचीन रचना रही होगी जो अाज अनुपलब्ध है। प्राचार्य हरिभद्र ने निशीयचूणि के आधार से प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ में पुराणां में वर्णित अतिरंजित कथानों पर करारे व्यंग करते हए उसकी सार्थकता सिद्ध की है। भारतीय कथा-साहित्य में शैली की दष्टि से प्रस्तुत कथा का मूर्धन्य स्थान है। लाक्षणिक शैली में इस प्रकार की अन्य कोई भी रचना उपलब्ध नहीं होती। यह साधिकार कहा जा सकता है, व्यंगोपहास की इतनी श्रेष्ठ र वना अन्य किसी भी भाषा में नहीं है। धूर्तों का व्यंग प्रहार ध्वंसात्मक नहीं अपितु निर्माणात्मक है। कहा जाता है कि आचार्य हरिभद्र ने 1444 ग्रन्थों को रचना की थी किन्तु वे सभी ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। डा. हर्मन जैकोबी, लायमान विन्तनित्स, प्रो. सुवाली ओर शब्रिग प्रभति अनेक पाश्चात्य विचारकों ने हरिभद्र के ग्रन्थों का सम्पादन और अनुवाद भी किया है। और उनके सम्बन्ध में प्रकाश भी डाला है जिससे भी उनकी महानता का सहज ही पता लग सकता है। 1. चक्किदुंग हरि-पणगं, पणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की, केसव दुचक्की _केसी अचक्की अ॥ आवश्यक निर्य क्त गाथा 4211 2. धमतो याकिनीमहत्तरासूनुः । 3. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्या भवन बम्बई से प्रकाशित । .. देखिय, डा. हर्मन जैकोबी ने समराइच्च कहा का सम्पादन किया। सुवाली ने योगदृष्टि समुच्चय, योग बिन्दु, लोकतत्वनिर्णय एवं षड्दर्शन समुच्चय का सम्पादन किया पौर लोकतत्व निर्णय का इटालियन में अनुवाद भी।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्योतनसूरि उद्योतन सूरि श्वेताम्बर परम्पराक एक विशिष्ट मेधावी सन्त थे। उनका जीवनवृत्त विस्तार से नहीं मिलता। उन्होंने वीरभद्रसूरि से सिद्धान्त की शिक्षा प्राप्त की थी और हरिभद्रसूरि से युक्तिशास्त्र की। कुवलयमाला प्राकृत साहित्य का उनका एक अनुपम ग्रन्थ है। गद्यपद्य मिश्रित महाराष्ट्री प्राकृत की यह प्रसाद-पूर्ण रचना चम्पू शैली में लिखी गई है। महाराष्ट्री प्राकृत के साथ इसमें पंशाची, अपभ्रश व देशी भाषाओं के साथ कहीं-कहीं पर संस्कृत भाषा का भी प्रयोग हया है। प्रेम और श्रगार के साथ वैराग्य का भी सुन्दर प्रयोग हा है। सुभाषित. मार्मिक प्रश्नोत्तर,प्रहेलिका आदि भी यत्र-तत्र दिखलाई देती हैं जिससे लेखक के विशाल अध्ययन व सूक्ष्म दृष्टि का पता लगता है। ग्रन्थ पर बाण की कादम्बरी, त्रिविक्रम की दमयन्ती कथा, और हरिभद्रसूरि के समराइच्च कहा का स्पष्ट प्रभाव है। प्रस्तुत ग्रन्थ ईस्वी सन् 779 में जाबालिपुर जिसका वर्तमान में नाम जालौर है, में पूर्ण किया गया था । जिन श्वरसूरि जिन श्वरसूरि के नाम से जन-सम्प्रदाय में अनेक आचार्य हुए है। प्रस्तुत आचार्य का उल्लेख धनेश्वरसूरि , अभयदेव' और गुणचन्द्र ने युगप्रधान के रूप में किया है। जिनेश्वरसूरि का मुख्य रूप से विहार स्थल राजस्थान, मालवा और गजरात रहा है। इन्होंने संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में रचना की। उसमें हरिभद्र कृत अष्टक पर वृत्ति, पलिंगी प्रकरण, वोरचरित्र, निर्वाण-लीलावती कथा, षट्-स्थानक प्रकरण, और कहाणय-कोस मुख्य हैं। कहाणय कोस में तीस गाथायें हैं और प्राकृत में टीका है, जिसमें छत्तीस प्रमुख कथाएं है। कथाओं में उस युग की समाज, राजनीति और आचार-विचार का सरस चित्रण किया गया है। समास युक्त पदावली, अनावश्यक शब्दाडम्बर और अलंकारों की भरमार नहीं है। कहीं-कहीं पर अपभ्रंश भाषा का भी प्रयोग हुआ है। उनकी निर्वाण लीलावती कथा भी प्राकृत भाषा की श्रेष्ठ रचना है। उन्होंने यह कथा सं. 1082 और सं. 1095 के मध्य में बनाई है। पदलालित्य, श्लेष और अलंकारों से यह विभूषित है। प्रस्तुत ग्रन्थ का जिनरत्नसूरि रचित संस्कृत श्लोकबद्ध भाषान्तर जैसलमेर के भण्डार में उपलब्ध हुआ है । मूल कृति अभी तक अनुपलब्ध है । प्राकृत भाषा में उनकी एक अन्य रचना 'गाथा कोस' भी मिलती है। 1. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्या भवन, बम्बई वि. सं. 2005 सं. मुनि विजय जी। 2. तुंगमलंघ जिण-भवण-महाहरं सावयाउल विसमं । जावालिउरं अठ्ठावयं व अह अत्थि पुहईए। कवलयमाला प्रशस्ति पृष्ठ 282 प्रकाशक-सिंधी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्याभ वन, बम्बई वि. सं. 2005 स. मुनि जिनविजय जी । 3. सुरसुन्दरी चरित्न की अंतिम प्रशस्ति गा. 240 से 248 4. भगवती, ज्ञाता, समवायांग, स्थानांग औपपातिक की वृतियों में प्रशस्तियां 5. महावीर चरित्र प्रशस्ति । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महेश्वरसूरि 42 महेश्वरसूरि प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । वे संस्कृत - प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे । इनका समय ई. सन् 1052 से पूर्व माना गया है । " णाण पंचमी कहा " | इनकी एक महत्वपूर्ण रचना है । इसमें देशी शब्दों का अभाव है । भाषा में लालित्य है । यह प्राकृत भाषा का श्रेष्ठ काव्य है । महेश्वरसूरि सज्जन उपाध्याय के शिष्य थे । 2 जिनचन्द्रसूरि जिनचन्द्र जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे । अपने लघु गुरुबन्धु अभयदेव की अभ्यर्थना को सन्मान देकर 'संवेग रंगशाला' नामक ग्रन्थ की रचना की । रचना का समय वि. सं. 1125 है । नवांगी टीकाकार अभयदेव के शिष्य जिन-वल्लभसूरि ने प्रस्तुत ग्रन्थ का संशोधन किया। सवेगभाव का प्रतिपादन करना ही ग्रन्थ का उद्देश्य रहा है । ग्रन्थ में सर्वत्र शान्त रस छलक रहा है । जनप्रभसूर जिनप्रभसूरि विलक्षण प्रतिभा के धनी आचार्य थे । उन्होंने 1326 में जंन दीक्षा ग्रहण की और प्राचार्य जिनसिंह ने उन्हें योग्य समझ कर 1341 में आचार्य पद प्रदान किया । दिल्ली का सुल्तान मोहम्मद तुगलक बादशाह इनकी विद्वत्ता और इनके चमत्कारपूर्ण कृत्यों से अत्यधिक प्रभावित था । इनके जीवन की अनेक चमत्कारपूर्ण घटनायें प्रसिद्ध हैं । कातन्त्र विभ्रमवृत्ति, श्रेणिक चरित्र-द्वयाश्रय काव्य विधिमार्गप्रपा आदि अनेक ग्रन्थ बनाये | विविधतीर्थकल्प प्राकृत साहित्य का एक सुन्दर ग्रन्थ है । श्रीयुत अगरचन्द् भिमत है कि 700 स्तोत्र भी इन्होंने बनाये । वे स्तोत्र संस्कृत, प्राकृत, देश्य भाषा के अतिरिक्त फारसी भाषा में भी लिखे हैं । वर्तमान में इनके 75 स्तोत्र उपलब्ध होते हैं । नेमिचन्द्रसूरिः नेमिचन्द्रसूरि वृहद्गच्छीय उद्योतनसूरि के प्रशिष्य थे और प्राम्रदेवसूरि के शिष्य थे । प्राचार्य पद प्राप्त करने के पूर्व इनका नाम देवेन्द्रगणि था । महावीर चरिय उनकी पद्यबद्ध रचना है । वि. स. 1141 में उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की । इसके अतिरिक्त "अक्खाण मणिकोस" (मूल), उत्तराध्ययन की संस्कृत टीका, आत्मबोध कुलक प्रभूत्ति इनकी रचनाएं प्राप्त होती हैं । 1. सम्पादक डा. अमृतलाल सबचन्द गोपाणी, प्रकाशक- सिंधी जैन ग्रन्थमाला बम्बई सन् 1949 2. दोपक्खुज्जोयकरो दोसासंगेण वज्जिनो श्रमश्र । सिरि संज्जण उज्जाश्रा प्रउव्वचंदुव्व प्रक्खत्यो || सीसेण तस्स कहिया दस वि कहाणा इमे उ पंचमिए । सूरि महेसरएण भवियाण बोहणट्ठाए ॥ णाण. 3. सिंधी जैन ग्रन्थमाला, बम्बई से प्रकाशित | 101496-497 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 गुणपाल मुनि मनिये श्वेताम्बर परम्परा के नाइलगच्छीय वीरभद्रसुरि के शिष्य अथवा प्रशिष्य थे। जंबचरिय-1 उनकी श्रेष्ठ रचना है । ग्रन्थ को रचना कब को इसका संकेत ग्रन्थकार ने नहीं किया है, पर ग्रन्थ के सम्पादक मुनि श्री जिनविजयजी का यह अभिमत है कि ग्रन्थ ग्यारहवीं शताब्दी में या उससे पूर्व लिखा गया है। जैसलमेर के भण्डार से जो प्रति उपलब्ध हुई है वह प्रति 14 वीं शताब्दी के आसपास की लिखी हुई है। जम्बुचरियं की भाषा सरल और सुबोध है। सम्पूर्ण ग्रंथ गद्य-पद्य मिश्रित है। इस पर 'कुवलयमाला' ग्रन्थ का स्पष्ट प्रभाव है। यह एक ऐतिहासिक सत्य तथ्य है कि कुवलय-माला के रचयिता उदद्योतनसरिने सिद्धान्तों का अध्ययन वीरभद्र नाम के प्राचार्य के पास किया था। उन्होने वीरभद्र के लिए लिखा दिन्न जहिच्छ-फलो अवरों कप्परूक्खोव्व' । गण-पाल ने अपने गुरु प्रद्युम्नसूरि को वीरभद्र का शिष्य बतलाया ह। गुणपाल ने भी परिचिंतिय दिन्न फलो प्रासी सो कप्परुक्खो' ऐसा लिखा है। जो उद्द्योतनसूरि के वाक्य-प्रयोग के साथ मेल खाता है। इससे यह स्पष्ट है कि उद्द्योतनसूरि के सिद्धान्त-गुरु वीरभद्राचार्य और गुणपाल मुनि के प्रगुरु वीरभद्रसूरि ये दोनों एक ही व्यक्ति होंगे। यदि ऐसा ही है तो गुणपाल मुनि का अस्तित्व विक्रम की 9 वीं शताब्दी के आस-पास है। - गुणपाल मुनि की दूसरी रचना 'रिसिदता चरिय' है। जिसकी अपूण प्रति भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर, पूना में है। समयसुन्दर गणिः समयसुन्दर गणि ये एक वरिष्ठ मेघावी सन्त थे। तक, व्याकरण, साहित्य के ये गंभीर विद्वान थे उनकी अदभत प्रतिभा कोदेखकर बडे-बडे विद्वानों की अंगली भी दातों तले लग जाती थी। सं. 1649 की एक घटना है। बादशाह अकबर ने काशमीर पर विजय वैजयन्ती फहराने के लिए प्रस्थान किया। प्रस्थान के। शिष्ट विद्वानों को एक सभा हुई। समयसुन्दर जो ने उस समय विद्वानों के समक्ष एक अदभत ग्रन्थ उपस्थित किया। उस ग्रन्थ के सामने प्राज-दिन तक कोई भी ग्रन्थ ठहर नहीं सका है। "राजानो ददते सोख्यम्' इस संस्कृत वाक्य के आठ अक्षरहै और एक-एक अक्षर के एक-एक लाख अर्थ किये गये हैं। बादशाह अकबर और सभी विद्वान् प्रतिभा के इस अनठे चमत्कार को देखकर नतमस्तक हो गये। अकबर काश्मीर विजय कर लोटा तो अनेक आचार्यों एवं साधनों का उसने सन्मान किया। उनमें एक समयसुन्दर जी भो थे, उन्हें वाचक पद प्रदान किया गया। उन्होंने विक्रम सं. 1686 (ई. सन् 1629) में गाथा सहस्रा ग्रन्थ का संग्रह किया। इस ग्रन्थ पर एक टिप्पण भोई पर उसके कर्ता का नाम ज्ञात नहीं हो सका हैं। इसमें प्राचार्य के छतीस गण, साधनों केगण,जिनकल्पिक के उपकरण, यति-दिनचर्या, साढ पच्चीस आर्यदेश, ध्याता का स्वरुप, प्राणायाम, बत्तीस प्रकार के नाटक, सोलह श्रृंगार, शकुन और ज्योतिष आदि विषयों का सुन्दर संग्रह है। महानिशीथ, व्यवहारभाष्य, पुष्पमालावृत्ति प्रादि के साथ ही महाभारत, मनुस्मृति आदि संस्कृत के उद्धृत किये गये हैं। 1. सिंधी जैन ग्रन्थमाला.बम्बई से प्रकाशित । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठक्कुर फेरु ठक्कुर फेरु ये राजस्थान के कन्नाणा के निवासी श्वेताम्बर श्रावक थे । ये श्रीमालवंश hatter (कुल) गोतीय श्रेष्ठि कालिय या कलश के पुत्र थे। इनकी सर्वप्रथम रचना युगप्रधान चतुष्पदिका है, जो सं. 1347 में वाचनाचार्य राजशेखर के समीप अपने निवास स्थान नाणा में बनाई थी । इन्होंने अपनी कृतियों के प्रतं में अपने आपको "परमजंन" और जिणंदपय-भत्तों, लिख कर अपना कट्टर जैनत्व बताने का प्रयास किया है । "रत्न- परीक्षा" में अपने पुत्र का नाम 'हमपाल' लिखा है जिसके लिए प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की गई है । इनके भाई का नाम ज्ञात नहीं हो सका है । 44 दिल्लीपति सुरताण अलाउद्दीन खिलजी के राज्याधिकारी या मंत्रि-मण्डल में होने से इनको बाद में अधिक समय दिल्ली में रहना पडा । इन्होंने 'द्रव्य परीक्षा' दिल्ली की टक्साल के अनुभव के आधार पर लिखी 'गणित-सार' में उस युग की राजनीति पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। गणित प्रश्नावली से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये शाही दरबार में उच्च पदासीन व्यक्ति थे । इनकी सात रचनायें प्राप्त होती हैं जो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। जिनका सम्पादन मुनि श्री जिनविजयजी न "रत्न परीक्षा दिसप्त ग्रन्थ संग्रह' के नाम से किया है । 'युग प्रधान चतुष्पदिक' तत्कालीन लोक भाषा चोपाई व छप्पय में रची गई हैं और शेष सभी रचनाएं प्राकृत में हैं । भाषा सरल व सरस है । उस पर अपभ्रंश का प्रभाव है । जयसिंहसूर 'धर्मोपदेशमाला विवरण' 2 यह जयसिंहसूरि की एक महत्वपूर्ण कृति है जो गद्य-पद्य मिश्रित हूँ । यह ग्रन्थ नागौर में बनाया गया था । 3 वाचक कल्याणतिलक वाचक कल्याणतिलक ने छप्पन गाथाओं में कालकाचार्य की कथा लिखी है । 4 हीरकलश मुनि ही कलश मुनि ने सं. 1621 में 'जोइस हीर' ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ ज्योतिष की गहराई को प्रकट करता है 15 1. प्रकाशक राजस्थान प्राय विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर प्रकाशक सिंघी जैन ग्रन्थ माला, बम्बई नाउर - जिणायतणे समाणिय विवरण एव । धर्मोपदेशमाला प्रशस्ति 29 प ष्ठ 230 4. तीर्थंकर वर्ष 4, अंक 1 मई, 1974 2. 3. 5. मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रन्थ 'जोई सहीरा' महत्वपूर्ण खरतरगच्छीय ज्योतिष ग्रन्थ । लेख, पृष्ठ 95 1 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानदेवरि 45 मानदेवसूरि का जन्म नाडोल में हुआ । उनके पिता का नाम घनेश्वर और माता का नाम धारणी था । इन्होंने 'तिजयपहुत' नामक स्तोत्र की रचना की। 1 नेमिचन्द्र भण्डारी नेमिचन्द्र भण्डारी ने प्राकृत भाषा में 'षष्टिशतक प्रकरण' जिनवल्लभसूरि गुणवर्णन एवं पार्श्वनाथ स्तोत्र आदि रचनाएं बनाई हैं । 2 राजेन्द्रसूरि श्री राजेन्द्रसूरि ने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' और अन्य अनेक ग्रन्थों का सम्पादन - लेखन किया है । स्थानकवासी मुनि राजस्थान के स्थानकवासी जैन श्रमणों ने भी प्राकृत भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचनाएं की हैं किन्तु साधनाभाव से उन सभी ग्रन्थकारों का परिचय देना सम्भव नहीं है । श्रमण हजारीमल जिनकी जन्मस्थली मेवाड़ थी उन्होंने 'साहुगुणमाला' ग्रन्थ की रचना की थी । जयमल सम्प्रदाय के मुनि श्री चं नमल जी ने श्रीमद्गीता का प्राकृत में अनुवाद किया था। पं. मुनि लालचन्द जी 'श्रमण लाल" ने भी प्राकृत में अनेक स्तोत्र आदि बनाए हैं। पं. फूलचन्द जी. म. पुष्कभिक्खु ने सुतागमं का सम्पादन किया और अनेक लख आदि प्राकृत में लिख राजस्थान केसरी पुष्कर मुनिजी ने भी प्राकृत भाषा में निबन्ध और स्तोत्र लिखे हैं । ह | पा श्राचार्य घासीलाल जी म. एक प्रतिभा सम्पन्न सन्त - रत्न थे । उनका जन्म सं. 1941 में जसवन्तगढ़ मेवाड़ में हुआ । उनकी मां का नाम विमला बाई और पिता का नाम प्रभुदत जवाहराचार्य के पास आती दीक्षा ग्रहण की । आपने आगमों पर संस्कृत भाषा में टीकाएं लिखी और शिवकोश, नानार्थ उदयसागर कोश, श्रीलालनाममाला कोश, आर्हत व्याकरण, श्रत लघु व्याकरण, ग्रार्हत सिद्धान्त व्याकरण, शांति-सिन्धु महाकाव्य, लोकाशाह महाकाव्य, जैनागमतत्वदीपिका, वृत्तबोध, तत्वप्रदीप, सूक्तिसंग्रह, गृहस्थ कल्पतरु, पूज्य श्रीलालकाव्य, नागाम्बरमज्जरी, लवजी-मुनि काव्य, नव स्मरण, कल्याणमंगल स्तोत्र, वर्धमान स्तोत आदि संस्कृत भाषा में मौलिक ग्रन्थों का निर्माण किया और तत्वार्थसूत्र, कल्पसूत्र और प्राकृत व्याकरण आदि अन ेक ग्रन्थ प्राकृत भाषा में भी लिखे हैं । 26. प्रभावक चरित्र भाषान्तर पृष्ठ 187, प्र. प्रात्मानन्द जैनसभा, भावनगर वि. सं. 1987 में प्रकाशित । (ख) जैन परम्परा नो इतिहास, भाग 1 पृष्ठ 359 से 361 | 27. मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दि स्मृति ग्रन्थ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रापंथी मुनि तेरापंथ सम्प्रदाय के अनेक आधुनिक मुनियों ने भी प्राकृत भाषा में लिखा है। 'रयणवालकहा' प. चन्दन मुनि जी की एक श्रेष्ठ रचना है । राजस्थानी जैन श्वेताम्बर परम्परा के श्रमणों ने जितना साहित्य लिखा है उतना आज उपलब्ध नहीं है। कुछ तो मुस्लिमयुग के धर्मान्ध शासकों ने जन शास्त्र-भण्डारों को नष्ट कर दिया और कुछ हमारी लापरवाही से हजारों ग्रन्थ चूहों, दीमक एवं शीलन से नष्ट हो गये । तथापि जो कुछ अवशिष्ट हैं उन ग्रन्थों को आधनिक दृष्टि से सम्पादन कर प्रकाशित किये जाये मोर ग्रन्थ-भण्डारों की सूचियां भी प्रकाशित की जाये तो अनेक अज्ञात महान साहित्यकारों का सहज रूप से पता लग सकता है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के प्राकृत साहित्यकार: 4 -डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल प्राचार्य धरसेन प्राचार्य धरसेन प्राकृत भाषा के महान् ज्ञाता थे। प्राकृत के प्रसिद्ध ग्रंथ 'धवला' में नको अष्टांग महानिमित्त के पारगामी, प्रवचनवत्सल तथा मंगश्रुत के रक्षक के रूप में स्मरण केया है। सौराष्ट्र देश की गिरनगर की चन्द्रगुफा में निवास करते थे और वहीं से राजस्थान के प्रदेशों में भी विहार करते थे। नारायणा (जयपुर) के जैन मन्दिर में प्राचार्य धरसेन के संवत् 1083 (सन् 1029) के चरण-चिन्ह अाज भी सुरक्षित रूप से विराजमान हैं। इसलिये राजस्थान एसे महान आचार्य पर गौरवान्वित है । प्राचार्य धरसेन के चरणों में बैठकर ही आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि ने प्राकृत भाषा का एवं सिद्धान्त का अध्ययन किया। वास्तव में वे सफल शिक्षक एवं प्राचार्य थे। दिगम्बर परम्परा में आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने भगवान महावीर क पश्चात् सर्व प्रथम षट खण्डागम की रचना की और ज्ञान को विलुप्त होने से बचाया। इस महान कार्य में प्राचार्य घरसेन का सर्वाधिक योगदान रहा। घरसेन की प्राकृत-कृति 'योनि-पाहुड' की एक मात्र पाण्डुलिपि रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना के शास्त्र भण्डार में बतलाई जाती है। आचार्य धरसेन का समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है। प्राचार्य वीरसेन प्राचार्य वीरसेन जैन-सिद्धान्त के . पारंगत विद्वान थे, इसके साथ ही गणित, न्याय, ज्योतिष एवं व्याकरण आदि विषयों का भी उन्हें तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त था। आदिपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन जैसे उच्चस्तरीय विद्वान इनके शिष्य थे। प्राचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण एवं घवला प्रशस्ति में इनका 'कवि-वन्दारक' उपाधि के साथ स्तवन किया है। आचार्य वीरसेन एलाचार्य के शिष्य थे। डा.हीरालाल जैन का अनुमान है कि एलाचार्य इनके विद्यागुरु थे। इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार से ज्ञात होता है कि एलाचार्य चित्रकूट (चित्तौर) में निवास करते थे और चित्तौड़ में रहकर ही आचार्य वीरसेन ने एलाचार्य से सिद्धान्त-ग्रन्थों का अध्ययन किया था। इसी कारण वीरसेन जैसे प्राचार्य पर राजस्थान को गर्व है। शिक्षा-समाप्ति के पश्चात् आचार्य वीरसेन चित्तौड़ से बाटग्राम (बडोदा) चले गये और वहां पानतन्द्र द्वारा बनवाये हुय जिनालय में रहने लगे। इसी मन्दिर में इन्होंने 72000 श्लोक प्रमाण षट्खण्डागम, की घक्ला टीका लिखी। धवला टीका समाप्ति के पश्चात प्राचार्य वीरसेन ने कषाय प्राभूत पर 'जयघवला' टीका प्रारम्भ की और 20000 श्लोक प्रमाण टीका लिखे जाने के उपरान्त आचार्य वीरसेन का स्वर्गवास हो गया। पश्चात् उनके शिष्य प्राचार्य जिनसेन ने अवशिष्ट जयघवला टीका 40000 श्लोक प्रमाण लिखकर पूर्ण की। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य वीरसेन के समय के संबंध में कोई विवाद नहीं है क्योंकि उनके शिष्य आचार्य जिनसेन ने जयधवला टीका को शक संवत 156 की फाल्गुन शुक्ला दशमी के दिन पूर्ण किया था। इसलिये वीरसेन का समय इस संवत के पूर्व ही होना चाहिये। डा. हीरालाल जन ने धवला टीका का समाप्तिकाल शक संवत् 738सिद्व किया है। इसलिय वीरसेन 9वीं शताब्दी (ईस्वी सन् 816) के विद्वान थे। घवला टीका :-"षटखण्डागम" पर 72000 श्लोक प्रमाण प्राकृत-संस्कृत मिश्रित भाषा में मणि-प्रवाल न्याय से धवला टीका लिखी गई है। यह षटखण्डागम के अन्य पांच खण्डों की सबसे महत्वपूर्ण टीका है। टीका प्रमेय बहुल है तथा टीका होने पर भी यह एक स्वतंत्र सिद्धान्त ग्रंथ है । टीका की प्राकृत भाषा प्रौढ मुहावरेदार एवं विषय के अनुसार संस्कृत की तर्क शैली से प्रभावित है। पं. परमानन्द शास्त्री के शब्दों में इसमें प्राकृत गद्य का निखरा हया स्वच्छ रूप वर्तमान है। सन्धि और समास का यथास्थान प्रयोग हुआ है और दार्शनिक शैली में गम्भीर विषयों को प्रस्तुत किया गया है । टीका में केवल षटखण्डागम के सूत्रों का ही मर्म उद्घाटित नहीं किया गया किन्तु कर्म-सिद्धान्त का भी विस्तृत विवेचन किया गया है। आचार्य वीरसेन गणित-शास्त्र के महान विद्वान थे इसलिये इन्होंने वृत्त, व्यास, परिधि, सूची व्यास, घन, अर्द्धच्छद घातांक, वलय व्यास और चाप आदि गणित की अनेक प्रक्रियाओं का महत्वपूर्ण विवेचन किया है। गणित के अतिरिक्त टीकाकार ने ज्योतिष और निमित्त संबंधी प्राचीन मान्यताओं का भी स्पष्ट वर्णन किया है। षटखण्डागम का वर्ण्य विषय 'जीवट्ठाण' खद्धाबंध, बंध-सामित्तविचय, वेयणा, वग्गणा और महाबंध है। इन्हीं का प्राचार्य वीरसेन ने अपनी धवलाटीका में विस्तृत वर्णन किया है। प्राचार्य देवसेन देवसेन नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं जिनकी गुरु परम्परा एवं समय भिन्न-भिन्न हैं प्रस्तुत आचार्य देवसेन प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान थे। मालवा की धारा नगरी इनका प्रमुख साहित्यिक केन्द्र था लेकिन राजस्थान में भी ये प्रायः बिहार करते रहते थे और जन-जन में ससाहित्य और सद्धर्म का प्रचार किया करते थे। ये 10वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के विद्वान् थे। देवसेन क्रान्तिकारी विद्वान् थे। ये दर्शन एवं सिद्धान्त के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इतिहास से उन्हें रुचि थी तथा देश एवं समाज में व्याप्त बुराइयों की निन्दा करने में यह कभी पीछे नहीं रहते थे। पं. नाथूराम प्रेमी न इनकी चार कृतियां स्वीकार की हैं जिनके नाम है-दर्शनसार भावसंग्रह. तत्वसार, और नयचक्र । डा. नेमीचन्द शास्त्री ने उक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त, आराधनासार एवं आलापपद्धति इनकी और रचना स्वीकार की है। इन रचनाओं का सामान्य परिचय निम्नप्रकार है ___ 1. दर्शनसार:-यह कवि की एक मात्र कृति है जिसमें कृति का रचनाकाल दिया हुआ है। कवि ने इसे संवत 997 माघ शुक्ला दशमी के दिन समाप्त की थी। यह एक समीक्षात्मक कृति है जिसमें विभिन्न दार्शनिक मतों के प्रवतक के रूप में ऋषभदेव के पौत्र मारीचि को माना है। इसके पश्चात् द्रविड संघ, यापनीय संघ, काष्ठा संघ, माथुर संघ तथा भिल्ल्ल संघ की उत्पत्ति एव उनकी (वसेन क अक्खड स्वभाव का पता चलता है। इन्होंने अन्तिम गाथा में अपनी स्पष्टता व्यक्त करते हये लिखा है रूसउ तूसउ लोमो सच्चं अक्खंतयस्स साहुस्स । किंजय-मए साठी विवज्जियव्वा परिदेण । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य कहने वाले साधु से कोई रुष्ट हो, चाहे सन्तुष्ट हो, इसको चिन्ता नहीं। क्या राजा को यूका (जुओं) के भय से वस्त्र पहिनना छोड़ देना चाहिए? कभी नहीं। . दर्शनसार में गाथाओं की संख्या 51 है। 2. भावसंग्रहः-यह प्राकृत भाषा का विशाल ग्रंथ है जिसमें 101 गाथायें है । इसमें चौदह गुणस्थानों को आधार बनाकर विविध विषयों का प्रतिपादन किया गया है। देवसेन ने अपने समय में फैले हुए अंधविश्वास, रूढिवाद पर काफी प्रकाश डाला है। वह लिखता है कि यदि जल स्नान से समस्त पापों का क्षालन संभव हो तो नदी, समुद्र और तालाबों में रहने वाले जलचर जीवों को कभी का स्वर्ग मिल गया होता। इसी तरह जो श्राद्ध द्वारा पितरों की तप्ति मानता है वह भ्रम में है। किसी के भोजन से किसी की तृप्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार अन्य दर्शनों की प्राचार्य देवसेन ने अच्छी समीक्षा की है। गाथाओं की भाषा अत्यधिक मधुर है। 3. आराधनासार:-प्रस्तुत कृति में प्राकृत गाथानों की संख्या 115 है। इनमें सम्यक् दर्शने, सम्पज्ञान एवं सम्यक् चारित्न तथा तप रूम चारों आराधनाओं का अच्छा वर्णन दिया गया है। विषय विवेचन की अच्छी शैली है। यह एक उद्बोधनात्मक कृति है जिसमें इस आत्मा से अपने स्वभाव में निरत रहने को कहा है। जनता वृद्धावस्था नहीं पाती है, इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती है आयुरूपी जल समाप्त नहीं होता है तब तक आत्म कल्याण के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। जो व्यक्ति यह सोचता रहता है कि अभी तो युवावस्था है, विषय सुख भोगने के दिन है वह वृद्धावस्था आने पर कुछ नहीं कर सकता है : जर वाग्विणी ण चंपइ, जाम ण विमलाइ इंति अक्खाई। . बद्धि जाम ण णासइ, आउजलं जाम ण परिगलाई। जा उज्जमो ण वियलइ, संजम-तव-गाण-झाण जोएसु । तावरिहो सो पुरिसी, उत्तम ठाणस्स संभवई । प्राचार्य देवसेन ने आगे कहा है कि मन को वश में करने की शिक्षा देनी चाहिये। जिसका मन वशीभत है वही रागद्वेष को नाश कर सकता है और रा-द्वेष के नाश क प्राप्ति होती है। सिक्खह मगवसियरणं सवतीहूएण जैण मणुपाणं । णासंति रायदोसे तेसि णासे समो परमो ।। 6 411 4. तत्वसार:-पह प्राचार्य देवसेन की चतुर्य-कुति है। यह ए लवु आध्यात्मिक रचना है जिसकी गाथा संख्या 14 है। कवि ने बतलाया है कि जिसके न कोव है, न मान है, न माया है और न लोभ है, न शल्य है और न लेश्या है, जो जन्म-मृत्यु से रहित है वही निरंजन मात्मा है : जस्स ण कोहो माणो माया लोहों ण सल्ल लेस्सायो। जाइ जरा मरण चिय णिरंजगो सो अहं मणिप्रो। 5. नयचक्र:-यह कवि की पांचवीं कृति है जिसमें उसने प्रात गाथाओं में नयों का मूत रुप में बढ़त सन्दर वर्णन किया है। नयों के मजरूप से दो भेद है:--एक धाथि और दसरा पर्यायार्थिक। सर्वप्रथम आचार्य श्री ने लिखा है कि जो नय-दृष्टि से विहीन है उन्हें वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं होतो: Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -50 जो णयदिदि-विहीणा ताण ण वत्थु सरूव उपलब्दि । वत्थु-सहाव-विहूणा सम्मादिटठी कहं हुंति ॥ प्राचार्य देवसेन की एक और कृति पालाप-पद्धति है जो संस्कृत भाषा की कृति है और जिसम गुण, पर्याय, स्वभाव, प्रमाण, तप, गुणव्युत्पत्ति, प्रमाण का कथन, निक्षप की व्यत्पत्ति तथा तप के मेदों की व्युत्पत्ति का वर्णन मिलता है। इस प्रकार यद्यपि देवसेन की भावसंग्रह को छोड़कर सभी लघु रचनायें हैं किन्तु भाषा, विषय एवं शैली की दृष्टि से वे सभी उत्कृष्ट रचनायें हैं। कवि ने थोड़े से शब्दों में अधिक से अधिक विषय-प्रतिपादन का प्रयास किया है और इसमें वह पूर्ण सफल भी हुआ है। मुनि नेमिचन्द्र ___ 'नेमिचन्द्र' नाम वाले अनेक प्राचार्य हो गये हैं। अब तक विद्वानों की यह धारणा थी कि गोम्मटसार, त्रिलोकसार, लब्धिसार तथा क्षपणासार के कर्ता प्राचार्य नेमिचन्द्र और द्रव्यसंग्रह क कर्ता नमिचन्द्र एक ही प्राचार्य हैं जो सिद्धान्ताचार्य की उपाधि से प्रसिद्ध हैं। किन्तु गत कुछ वर्षों में विद्वानों द्वारा की गयी खोज के आधार पर यह मान लियागया है कि द्रव्य-संग्रह एवं वहद-द्रव्यसंग्रह के कर्ता दूसरे नेमिचन्द्र हैं जिन्हें सिद्धान्तिदेव या नमिचन्द्र मनि कहा गया है। इसी तरह का उल्लेख वहद द्रव्यसंग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेव ने ग्रंथ के परिचय में लिखा है। जिसके अनुसार द्रव्य-संग्रह धारा नगरी के स्वामी मण्डलेश्वर श्रीपाल के प्राश्रम नामक नगर में 20वें तीर्थकर निसुव्रतनाथ के चैत्यालय में भाण्डागार आदि अनेक नियोगों के अधिकारी सोमा नामक राजश्रेष्ठि के पठनार्थ लिखा गया था। यह प्राश्रम नगर 'प्राशारम्भ पट्टण' आश्रम पत्तन 'पट्टण' और पुटभेदन के नाम से उल्लिखित है। राजस्थान में बूंदी नगर से लगभग नौ मील की दूरी पर चम्बल नदी के तट पर केशोरायपाटन नाम का प्राचीन नगर है। इसे केशवराय पाटन, पाटन केशवराय भी कहते हैं। अपनी प्राकृतिक रम्यता के कारण यह स्थान आश्रमभूमि (तपोवन) के उपयुक्त होने के कारण आश्रम कहलाने का अधिकारी है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डॉ. दशरथ शर्मा भी इस मत से सहमत है कि केशवराय पाटन ही पहिले पाश्रम नगर के नाम से प्रसिद्ध था। प्राचीन काल में यह नगर राजा भोजदेव के परमार साम्राज्य के अन्तर्गत रहा था। केशवराय पाटन में एक प्राचीन दिगम्बर जैन मन्दिर है जिसमें 12 वीं शताब्दी की प्राचीन एवं कलापूर्ण भूर्तियां हैं। मन्दिर में जो भूमिगत चैत्यालय हैं उससे पता चलता है कि स्थल रहा था। प्रस्तुत नेमिचन्द्र मनि की भी यही भूमि साधना-स्थल रही थी और यहीं पर उन्होंने लघु द्रव्य-संग्रह एवं वृहद द्रव्य-संग्रह की रचना की थी, इसमें सन्देह को कोई स्थान नहीं है। उक्त दोनों रचनायें ही जैन समाज में अत्यधिक लोकप्रिय रही हैं। वृहद् द्रव्य-संग्रह के पठन-पाठन का सर्वाधिक प्रचार है । लघु द्रव्य-संग्रह में कुल 25 गाथाय हैं। ग्यारह गाथाओं में द्रव्यों का, पांच गाथाघों में तत्वों और पदार्थों का तथा दो गाथाओं में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का कथन किया गया है। बृहद् द्रव्य-संग्रह में 58 गाथाएं है । इसमें तीन अधिकार है। इनम जीवद्रव्य, अजीवद्रव्य, पाव, बंध, संपर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वों का सुन्दर वर्णन किया गया है। जीव द्रव्य को जीव, उपयोगमय, अमूर्तिक, कर्ता, स्वदेहपरिमाण, भोक्ता, संसारी और स्वभाव से उर्ध्वगमन करने वाला बतलाया है । द्विविध मोक्षमार्ग का कथन करते हुए सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्न का लक्षण बतलाते हुए ध्यान का अभ्यास करन पर जोर दिया Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है क्योंकि ध्यान ही मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन है। ग्रंथकार ने यह भी बतलाया है कि तप, श्रुत एवं व्रतों का धारी आत्मा ही ध्यान करने में समर्थ है। इसलिये जीवन में तप की आराधना करनी चाहिये, श्रुत का अभ्यास करना चाहिये तथा व्रतों को धारण करना चाहिये। इस प्रकार नेमिचन्द्र मुनि ने अपनी इस कृति में जन-दर्शन के सभी प्रमुख तत्वों का कथन कर दिया है । प्राचार्य पदमनन्दि पद्मनन्दि नाम के 9 से भी अधिक प्राचार्य एवं भट्टारक हो गये हैं जिनका उल्लेख विभिन्न ग्रन्थों, शिलालेखों एवं मतिलेखों में मिलता है। लेकिन वीरनन्दि के प्रशिष्य एवं बालनन्दि के शिष्य आचार्य पदमनन्दि उन सबसे भिन्न है। ये राजस्थानी विद्वान् थे और बारा नगर इनका प्रमुख साहित्यिक केन्द्र था। पदमनन्दि ने अपने प्रमुख ग्रंथ जम्बूदीवपणती में बारां नगर का विस्तृत वर्णन किया है। वह नगर उस समय पुष्करणी बावड़ी, सुन्दर भवनों, नानाजनों से संकीर्ण और धन्यधान्य से समाकुल, जिन मन्दिरों से विभूषित तथा सम्यकदृष्टिजनों भार मान-मणों के समहों से मंडित था। पदमनन्दिके समय बारांनगर का शक्तिभपाल शासक था। वह राजा शील-सम्पन्न, अनवरत दानशील, शासन वत्सल, धीर, नानागग कलित, नरपति संपूजित तथा कलाकुशल एवं नरोत्तम था । राजपूताने के इतिहास में गहिलोतवंशी राजा नरवाहन के पत्र शालिवाहन के उत्तराधिकारी शक्तिकमार का उल्लेख मिलता है। पं. नाथूराम प्रेमी ने बारां की भट्टारक गादी के आधार पर पदमनन्दि का समय विक्रम संवत1100 के लाभग माना है। पद्मनन्दि प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान थे। जैन-दर्शन तथा तीनों लोकों की स्थिति का उन्हें अच्छा ज्ञान प्राप्त था। अपने समय के वे प्रभावशाली प्राचार्य एवं भट्टारर थे तथा अनक शिष्य-प्रशिष्यों के स्वामी थे। उस समय प्राकृत के पठन-पाठन का अच्छा प्रचार था। राजस्थान एवं मालवा उनकी गतिविधियों का प्रमख केन्द्र था। पदमनन्दि की प्राकृत भाषा की दो कृतियां उपलब्ध होती है जिनमें एक, जम्बूदीवपणती, तथा दूसरी धम्मरसायन है । जम्बदीवपण्णत्ती, एक विशालकाय कृति है जिसमें 2427 गाथाएं हैं जो 93 अधिकारों में विभक्त हैं। ग्रंथ का विषय मध्यलोक के मध्यवर्ती जम्बद्वीप का विस्तत वर्णन है और वह वर्णन जम्बूद्वीप के भरत, ऐरावत, महाविदेह क्षेत्रों, हिमवान आदि पर्वतों, गंगा सिन्धवादि नदियों, पद्म महापदम आदि सरोवरों, लव गादि समद्रों. काल के उत्पसर्पिणी अवसर्पिगो प्रादि भेद प्रभेदों तथा उनसे होने वाले काल परिवर्तनों तथा ज्योतिष पटलों से संबंधित है। वास्तव में यह ग्रंथ प्राचीन भूगोल खगोल का अच्छा वर्णन प्रस्तुत करता है। माचार्य पद्मनन्दि की दूसरी रचना धम्मरसायग है जिसमें 193 गाथायें हैं। भाषा एवं शंली की दृष्टि से यह ग्रथ अत्यधिक सरल एवं सरस है। इसमें धर्म को ही परम रसायण माना गया है। यही वह भीषधि है जिसके सेवन से जन्म-मरण एवं दुःख का नाश होता है । धर्म की महिमा बतलाते हुए ग्रंथ में कहा है कि धर्म ही त्रिलोकबन्धु है तथा तीन लोकों में धर्म ही एक मान शरण है। धर्म के पान से यह मनुष्य तीनों लोकों का पार कर सकता है। धम्मो तिलोयबन्ध धम्मो सरणं हवे तिहुयणस्स । धम्मेण पूयणीप्रो, होइ णरो सव्वलोयस्स ।। भट्टारक जिनचन्द्र भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य भट्टारक जिनचन्द्र 16 वीं शताब्दी के प्रसिद्ध दि. जैन सन्त थे। इन्होंने सारे राजस्थान में विहार करके जन-साहित्य एव संस्कृति के Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। मूलाचार को एक प्रशस्ति में भट्टारक जिनचन्द्र की निम्न शब्दों में प्रशंसा की गई है : तदीयपटाम्बरभानुमाली क्षमादिनानागुणरत्नशाली । भटटारक-श्रीजिनचन्द्रनामा सैद्धान्तिकान द्वान्तिकानां भुवि योऽस्ति सीमा । जिनचन्द्र की साहित्य के प्रति अपूर्व श्रद्धा थी। वे प्राचीन ग्रन्थों की नयी-नयी प्रतियां लिखवा कर शास्त्र-भण्डारों में विराजमान करवाते थे तथा जनता को प्राचीन ग्रन्यों के संरक्षण की प्रेरणा देते थे। पं. मेधावी उनका एक प्रमुख शिष्य था जो संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् था । उसने अपने गरु की प्रशंसा करते हए लिखा है कि जिनचन्द्र का जन्म समद्र में से चन्द्रमा के जन्म के समान हया था। वे अपने समय के सभी जैन सन्तों के अग्रणी थे। वे स्याद्वाद रूपी आकाश के हार थे तथा अपने प्रवचनों से सब श्रोताओं के हृदयों का प्रसन्न करने वाले थे। वे षटदर्शनों के निष्णात विद्वान् थे। __ भ. जिनचन्द्र की अब तक जो दो हतियां उपलब्ध हुई है उनमें एक संस्कृत एवं एक प्राकृत की रचना है। जिन चतुर्विशति स्तोत्र संस्कृत की रचना है तथा सिद्धान्तसार प्राकृत भाषा में निबद्ध है। सिद्धान्तसार में 79 गाथाएं है। इनमें जोव समास, गुस्थान, संज्ञा, पर्याप्ति, मरण एवं मार्गणाओं का वर्णन किया गया है। इसकी 78 वीं गाथा में भट्टारक जिनचन्द्र ने अपने नाम का उल्लेख किया है। i. चैनसुखदास न्यायतीर्थ 20 वीं शदी के विद्वानों में पं. चैनसखदास न्यायतीर्थ का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। इनका जन्म 22 जनवरी सन् 1899 में भादवा ग्राम में हुश्रा तथा मृत्यु जयपुर नगर मं 26 जनवरी सन् 1969 महुई। पडित जो प्राकुत, संस्कृत एवं हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान पे। वे कवि थे, लेखक थे तथा जैन-दर्शन के प्रकाण्ड व्याख्याता थे। इनको प्रमुख रचनाओं में जैन दर्शनसार, भावना-विवेक, पावन-प्रवाह के नाम उल्लेखनीय हैं। अर्हत प्रवचन इनको सम्पादित कृति है जिसमें विभिन्न प्राकृत-ग्रंथों में से जीवन को स्पर्श करने वाली एवं जनापयोगी 500 से भी अधिक गाथाओं का संकलन किया गया है। इसमें जीव और प्रात्मा, कर्म, गगथान, सम्यकदर्शन, भाव, मन-इन्द्रियों कषाय विजय, श्रावक, प्रात्म-प्रशंसा, परनिन्दा, शाल गति, भक्ति, धर्म, वैराग्य, श्रमग, तप, शुद्धापयोगी प्रात्मा आदि विभिन्न विषयों का अच्छा वर्णन हुआ है। पंडित जी का यह संकलन प्रात्मोदय ग्रंथमाला जयपुर से सन् 1962 में काशित हो चुका है। डा. नेमिचन्द्र शास्त्री डा. नमिचन्द्र शास्त्री का अभी डेढ़ वर्ष पूर्व ही 10 जनवरी, 1974 को स्वर्गवास हा तथा वे अपने जीवन के यशस्वी 59 वर्ष पूर्ण करके चिरनिन्द्रा में समा गये। वे राजस्थानी विद्वान थे और घोलपुर में पौष कृष्णा 12 को संवत् 1972 को इनका जन्म हा था। वे पाच्य विद्याओं के प्रकाण्ड विद्वान् थे तथा प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत एवं हिन्दी भाषा पर इनका पूर्ण अधिकार था। इनकी अब तक 37 से भी अधिक रचनायें प्रकाशित हो चको है। शास्त्री जी प्राकृत भाषा के विशेष प्रेमी थे। इन्होंने अपनी पी.एच. डी. को उपाधि 'हरिभद्र के प्राकृत कथा-साहित्य का पालाचनात्मक अध्ययन" विषय पर प्राप्त को थो । सके पश्चात वे प्राकृत के प्रचार-प्रसार में लग गये और आरा जैन कॉलेज में शिक्षण कार्य करते Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53 हए उन्होंने हजारों छात्रों को प्राकृत भाषा का बोध ही नहीं कराया किन्तु पचासों विद्यापियों को प्राकृत में निष्णात भी बना दिया । शास्त्रीजी ने प्राकृत भाषा और साहित्य का मालोचनात्मक इतिहास लिखकर प्राकृत-जगत् में एक महान कार्य किया। यही नहीं अभिनव प्राकृत व्याकरण' लिख कर प्राकृत प्रेमियों के लिये उसके पठन-पाठन को सरल बना दिया। शास्त्री जी न 'प्राकृत-प्रबोध' के माध्यम से प्राकृत-पाठों का सुन्दर संकलन उपस्थित किमा डा.शास्त्री जी ने अपने विद्यार्थियों की सुविधा के लिये पाइय-पज्ज-संग्रहों' एवं 'पाइय-गज्ज- संग्रहों इस प्रकार प्राकृत गद्य और पद्य के अलग-अलग संकलन निकाले जिससे विहार में प्राकृतभाषा के पठन-पाठन का अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हई । जीवन के अन्तिम वर्ष में 'तीर्थकर महावीर एव उनकी प्राचार्य-परम्परा' के चार भागों में जैनाचार्यों द्वारा निबद्ध साहित्य की अत्यधिक सुन्दर रूपरेखा प्रस्तुत की। इस महान कृति में प्राकृत भाषा के प्राचार्यों एवं उनकी कृतियों का विशद विवेचन किया गया है। वास्तव में गत सैकड़ों वर्षों में राजस्थान में प्राकृत भाषा का इतना प्रकाण्ड विद्वान् तथा प्रात साहित्य का अनन्य भक्त नहीं हुआ। एसे विद्वान् से सारा साहित्य-जगत गौरवान्वित है उक्त आचार्यों, मुनियों एवं विद्वानों के अतिरिक्त राजस्थान में और भी पचासों साहित्य-सेवी हो गये हैं। जिन्होंने जन्मभर प्राकृत-साहित्य की सेवा ही नहीं की किंतु उस भाषा क ग्रंथों का हिन्दी एवं संस्कृत में टीकायें करक जन साधारण को उनक पठन-पाठन एवं स्वाध्याय की पूर्ण सुविधा प्रदान की। ऐसे विद्वानों में प्राचार्य अमृतचन्द्र, पं. राजम महा पंडित टोडरमल, प. जयचन्द छाबड़ा जसे विद्वानों के माम उल्लेखनीय है। Page #99 --------------------------------------------------------------------------  Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत जैन साहित्य Page #101 --------------------------------------------------------------------------  Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य : विकास एवं प्रवृत्तियाँ 1. -मुनि श्री नथमल भगवान महावीर के यग में संस्कृत पंडितों की भाषा बन गई थी। भाषा के आधार पर दो वर्ग स्थापित हो गये थे-एक वर्ग उन पंडितों का था, जो संस्कृतविदों को ही तत्वद्रष्टा मानते थे और संस्कृत नहीं जानने वालों की बुद्धि पर अपना अधिकार किये हुए थे। दूसरा वर्म उन लोगों काथा, जो यह मानते थे कि संस्कृतविद् ही तत्व की व्याख्या कर सकते हैं । __ भगवान् महावीर ने अनुभव किया कि सत्य को खोजने की क्षमता हर व्यक्ति में है । उस पर भाषा का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता । जिसका चित्त राग-द्वेष शून्य है, वह संस्कृत विद् न होने पर भी सत्य को उपलब्ध हो जाता है औ नहीं होता है, वह संस्कृतविद् होने पर भी सत्य को उपलब्ध नहीं होता । सत्य और भाषा का गठबन्धन नहीं है-इस सिद्धांत के प्रतिपादन के लिये भगवान महावीर ने जनभाषा प्राकृत को सत्य-निरूपण का माध्यम बनाया । भगवान महावीर ने प्राकृत में उपदेश किया। उनके प्रमुख शिष्य गौतम आदि गणधरों ने उसका प्राकृत में ही गंफन किया। उनके निर्वाण की पंचम शताबदी तक धर्मोपदेश तथा ग्रंथ-रचना में प्राकृत का ही उपयोग होता रहा । निर्वाण की छठी शताब्दी में फिर संस्कृत का स्वर गुंजित हुआ । आर्य रक्षित ने संस्कृत और प्राकृत दोनों को ऋषि भाषा कहा। उनकी यह ध्वनि स्थानांग के स्वरमण्डल में भी प्रतिध्वनित हई । उमास्वाति (स्वामी) ने मोक्षशास्त्र (तत्वार्थसूत्र) का संस्कृत में प्रणयन किया । उनका अस्तित्वकाल विक्रम की तीसरी से पांचवी शताब्दी के मध्य माना जाता है । जैन परम्परा में इसी कालावधि में संस्कृत युग प्रारम्भ हुआ । जैन आचार्यों ने प्राकृत को तिलाञ्जलि नहीं दी । प्राकृत में ग्रंथ-रचना का कार्य अनवरत चलता रहा । भगवन् महावीर ने लोक-भाषा के प्रति जो दृष्टिकोण निर्मित किया था, उसे विस्मत नहीं किया गया और संस्कृत के अव्येताओं में जो पांडित्य-प्रदर्शन भावना थी, उसे मी स्मति में रखा गया। फिर भी दर्शन-यग की स्थापना के काल में जैन दर्शन को प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से संस्कृत की अनिवार्यता अनुभव की । सिद्धर्षि ने जैन लेखकों की इस अनुभूति को स्पष्ट अभि व्यक्ति दी है । उन्होंने लिखा है : संस्कृता प्राकृता चेति, भाषे प्राधान्यमहंतः । तत्रापि संस्कृता तावद्, दुर्विदग्ध हदि स्थिता ॥ बालानामपि सदबोध-कारिणी कर्णपेशला । तथापि प्राकृता भाषा, न तेषामभिभाषते ॥ उपाये सति कर्त्तव्यं, सर्वेषां चित्तरञ्जनम् । अतस्तदनुरोधेन, संस्कृतेयं करिष्यते ॥ - 1. आर्यरक्षित का जन्म काल: ईस्वी पूर्व 4 (वि.सं. 52), दीक्षा ई. स. 18 (वि. सं. 74), युगप्रधान ई. स. 58 (वि. सं. 114), स्वर्गवास ई. स. 71 (वि. सं. 127) । 2. अणुओग हाराई, स्वरमण्डल: सक्कयं पागयं चेव, पसत्यं इसिभासियं । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "संस्कृत और प्राकृत--ये दो प्रधान भाषाएं हैं । संस्कृत दुर्विदग्ध-पंडितमानी जनों के हृदय में बसी हई है। प्राकृत भाषा जन साधारण को प्रकाश देने वाली और श्रुति-मधर है, फिर भी उन्हें वह अच्छी नहीं लगती। मेरे सामने संस्कृतप्रिय जनों के चित्तरंजन का उपाय है। इसलिये उनके अनुरोध से मैं प्रस्तुत कथा को संस्कृत भाषा में लिख गुप्त साम्राज्य-काल में संस्कृत का प्रभाव बहुत बढ गया । जैन और बौद्ध परम्पराओं में भी संस्कृत भाषा प्रमुख हो गई । उत्तर भारत में गुजरात और राजस्थान दोनों जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र रहे । इन दोनों में जैन मुनि स्थान-स्थान पर विहार करते थे। उनकी साहित्य-साधना भी प्रचुर मात्रा में हुई । राजस्थान की जैन परम्परा में संस्कृत-साहित्य के प्रथम निर्माता हरिभद्रसूरि हैं । उनका अस्तित्व-काल विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी (757-857) है। उन्हें प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं पर समान अधिकार प्राप्त था। उनकी लेखनी दोनों भाषाओं पर समान रूप से चली। उनकी प्राकृत रचनाएं जितनी विपुल संख्या में और जितनी महत्वपूर्ण हैं, उतनी ही महत्वपूर्ण और उतनी ही विपुल संख्या में उनकी संस्कृत रचनाएं हैं। उन्होंने धर्म, योग, दर्शन, न्याय, अनेकान्त, आचार, अहिंसा आदि अनेक विषयों पर लिखा। आगम सूत्रों पर अनेक विशाल व्याख्या ग्रन्थ लिखे । . जैन दर्शन ने सत्य की व्याख्या नय-पद्धति से की। तीर्थकर का कोई भी वचन नयपन्य नहीं है-इस उक्ति की प्रतिध्वनि यह है कि कोई भी वचन निरपेक्ष नहीं है। प्रत्येक वचन को नयदष्टि से ही समझा जा सकता है। सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र ने अनेकान्त और नयवाद को दार्शनिक धरातल पर प्रस्फुटित किया । उसके पल्लवनकारों में हरिभद्रसूरि का एक प्रमुख व्यक्तित्व है । उन्होंने संस्कृत साहित्य को कल्पना और अलंकार की कसौटी से कसे हए कवित्व तथा तर्कवाद और निराकरण प्रधान शैली से परिपूष्ट ताकिकता से ऊपर उठाकर स्वतन्त्र चिन्तन और समन्वय की भूमिका पर प्रतिष्ठित किया। उनके लोकतत्वनिर्णय नामक ग्रन्थ में स्वतंत्र चिन्तन की ऐसी चिरंतन व्याख्या हुई है, जिसे कालातीत कहा जा सकता है । उन्होंने लिखा है :-- मातृमोदकवद् बालाः, ये गुण्हन्त्यविचारितम् । ते पश्चात् परितप्यन्ते, सुवर्णग्राहको यथा ॥1 मां के द्वारा दिये हए मोदक को बिना किसी विचार के ले लेने वाले बालक की भांति बिना विचार किए दूसरे के विचार को स्वीकार करने वाला वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे बिना परीक्षा किए स्वर्ण को खरीदने वाला पछताता है । सुनने के लिये कान है। विचारणा के लिये वाणी और बुद्धि है । फिर भी जो व्यक्ति श्रुत विषय पर चिन्तन नहीं करता, वह कर्तव्य को कैसे प्राप्त हो सकता है :-- श्रोतव्ये च कृती कर्णो, वाम्बुद्धिश्च विचारणे । । यः श्रुतं न विचारत, स कार्य विन्दते कथम् ? ॥ 1. लोकतत्वनिर्णय, 19 2. लोकतत्वनिर्णय, 20 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-युग में श्रद्धा पर बहुत बल दिया गया । ईश्वरीय प्रादशों और प्राप्त-वचनों पर संदेह नहीं किया जा सकता। इस मान्यता ने चिन्तन की धारा को क्षीण बना दिया था। अधिकांश लोग किसी व्यक्ति की पाणी या ग्रन्थ को बिना किसी चिन्तन के स्वीकार कर लेते थे । इस परम्परा ने रूढिवाद की जडें बहत सुदढ बना दी थीं। उन्हें तोडना श्रम-साध्य था। वैसे वातावरण में दूसरों पर भरोसा कर चलने को बुरा कहने वाले के लिये अच्छा नहीं था। फिर भी कहा गया :-- हठो हठे यद्वदभिप्लुतः स्यात्, नौ वि बद्धा च यथा समुद्रे । तथा पर-प्रत्ययमात्रदक्ष:, लोकः प्रमादाम्भसि बाम्म्रमीति ॥ 'जो व्यक्ति दूसरों की वाणी का अनुसरण करने में ही दक्ष है, वह प्रमाद के जल म वैसे ही भ्रमण करता है, जैसे जलकुंभी का पौधा दुसरे पौधे के पीछे-पीछे बहता है और जैसे नाव से बंधी हुई नाव उसके पीछे-पीछे चलती है।' हरिभद्रसूरि को समन्वय का पुरोधा और उनकी रचनाओं को समन्वय की संहिता कहा जा सकता है। जब सम्प्रदायों में अपने-अपने इष्टदेव के नाम की महिमा गाई जा रही थी, उस समय यह स्वर कितना महत्वपूर्ण था :-- यस्य निखिलाश्च दोषाः न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । ब्रह मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ 'जिसके समस्त दोष नष्ट हो चुके हैं, सब गुण प्रकट हो गये है, उसे मेरा नमस्कार है, फिर वह ब्रह मा हो या विष्णु, महादेव हो या जिन ।' हरिभद्रसूरि ने योग की विविध परम्पराओं का समन्वय कर जैन योग-पद्धति को नया रूप प्रदान किया था । 'योगविशिका' प्राकृत में लिखित है। संस्कृत में उनकी दो महत्वपूर्ण कृतिया है 'योगदष्टिसमुच्चय' और 'योगबिन्दु'। उनमें जैन योग और पतंजलि की योग-पद्धति का तुलनात्मक अध्ययन बहुत सूक्ष्म मति से किया गया है । अनेकान्त-दृष्टि प्राप्त होने पर सांप्रदायिक अभिनिवेश समाप्त हो जाता है । विक्रम को आठवीं शती में संस्कृत-साहित्य की जो धारा प्रवाहित हुईं, वह वर्तमान शती तक अविच्छिन्न रूप में प्रवाहित है। वह कभी विशाल हुई है और कभी क्षीण, पर उसका अस्तित्व निरन्तरित रहा है । जैन परम्परा के संस्कृत-साहित्य पर अभी कोई व्यवस्थित कार्य नहीं हुआ है । लेखक, लेखनस्थान, लेखन-काल ये सब अभी निर्णय की प्रतीक्षा में हैं । अब तक 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' इस शीर्षक से जितने प्रबन्ध लिखे गए हैं, वे या तो जैन परम्परा के संस्कृत-साहित्य का स्पर्श नहीं करते या दो चार प्रसिद्ध ग्रन्थों का विवरण प्रस्तुत कर विषय को सम्पन्न कर देते हैं । जैन विद्वान् भी इस कार्य के प्रति उदासीन रहे हैं । इन दिनों कुछ ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, पर वे अपेक्षा के अनुरूप शोधपूर्ण और वैज्ञानिक पद्धति से लिखित नहीं हैं। मैं इस अपेक्षा को इसलिये प्रस्तुत कर रहा है कि जैन परम्परा के 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' इस विषय का एक महाग्रन्थ आधुनिक शैली में तैयार किया जाए । मैं नहीं मानता। कि इस लघकाय निबन्ध में मैं राजस्थान के जैन लेखकों की सभी संस्कृत रचनाओं के साथ न्याय कर सकूँगा। 1. लोकतत्वनिर्णय, 14 लोकतत्वनिर्णय, 20 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 हरिभद्रसूरि की रचनाओं के बाद सिद्धर्षि की महान् कृति 'उपमितिभवप्रपंच' कथा है। यह वि. सं. 906 (ई. सं. 962) में लिखी गई थी । शैली की दृष्टि से यह एक अपूर्व ग्रन्थ है। इसमें काल्पनिक पात्रों के माध्यम से धर्म के विराट् स्वरूप को रूपायित किया गया है । डा. हीरालाल जैन ने लिखा है-'इसे पढते हुए अंग्रेजी की जान बनयन कृत 'पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस का स्मरण हो आता है, जिसमें रूपक की रोति से धर्मवृद्धि और उसमें आने वाली विघ्नबाधाओं की कथा कही गई है।। सिद्धर्षि ने उपद शमाला की टीका लिखी, कछ अन्य ग्रंप भी लिखे। पर मैं केवल उन्हीं ग्रन्थों का नामोल्लेख करना अपेक्षित समझता हूं, जिनका विधा और वर्ण्य विषय की दृष्टि से वैशिष्टय है । विषा और प्रेरक तत्व देश, काल, मान्यताएं, परिस्थितियां, लोकमानस, लोक-कल्याण, जनप्रतिबोध, शिक्षा और उद्देश्य ये लेखन के प्रेरक तत्व होते हैं । लेखन की विधाएं प्रेरक तत्वों के आधार पर बनती हैं । जैन लेखकों ने अनेक प्रेरणाओं से संस्कृत साहित्य लिखा और अनेक विधाओं में लिखा । धर्म प्रचार के उद्देश्य से धार्मिक और दार्शनिक ग्रन्थ लिखे गए । अपने अभ्युपगम की स्थापना और प्रतिपक्ष-निरसन के लिये तर्क-प्रधान न्यायशास्त्रों की रचना हई । जनप्रतिबोध और शिक्षा के उद्देश्य से कथा-ग्रन्थों का प्रणयन हआ । लोक-कल्याण की दृष्टि से आयर्वेद, ज्योतिष के ग्रन्थ निर्मित हुए । देश, काल और लोकमानस को ध्यान में रखकर जैन लेखकों ने प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत भाषा को भी महत्व दिया । प्राकृत युग (विक्रम की तीसरी शती तक) में जैन लेखकों ने केवल प्राकृत में लिखा । प्राकृत-संस्कृत-मिश्रित युग (विक्रम की चौथी शती से आठवीं शती के पूर्वार्द्ध तक) में अधिकांश रचनाएं प्राकृत में हुई और कुछ-कुछ संस्कृत में भी । विक्रम की पांचवीं से सातवीं शती के मध्य लिखित आगम-चूर्णियों में मिश्रित भाषा का प्रयोग मिलता है--प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत के वाक्य भी प्रयक्त हैं। आठवीं शती के उत्तरार्ध में हरिभद्रसूरि ने प्रथम बार आगम की व्याख्या संस्कृत में लिखी। विक्रम की ग्यारहवीं शती के उत्तरवर्ती संस्कृत-प्राकृत-मिश्रित युग में आगमों की अधिकांश व्याख्याएं संस्कृत में ही लिखी गई। अन्य साहित्य भी अधिकमात्रा में संस्कृत में ही लिखा गया और अनेक विधाओं में लिखा गया। गजरात, मालवा (मध्यप्रदेश) और दक्षिण भारत में लिखा गया और राजस्थान में भी लिखा गया। आयुर्वेद आयुर्वेद का सम्बन्ध जीवन से है । जीवन का संबन्ध स्वास्थ्य से है। स्वास्थ्य का संबन्ध हित-मित आहार से है । हित-मित आहार करते हुए भी यदि रोग उत्पन्न हो जाय तो चिकित्सा की अपेक्षा होती है । जैन विद्वानों ने इस अपेक्षा की भी यथासम्भव पूर्ति की है । उन्होंने राजस्थानी में आयुर्वेद के विषय में प्रचुर साहित्य लिखा । कुछ ग्रंथ संस्कृत में भी लिखे । हर्षकीतिमूरि (विक्रम की 17 वीं शती) का योगचिन्तामणि और यति हस्तिरुचि विक्रम की 18वीं शती) का वैद्य वल्लभ दोनों प्रसिद्ध ग्रन्थ है। ये चिकित्सा-क्षेत्र में बहुत प्रचलित रहे हैं । इन पर अनेक व्याख्याएं लिखी गई। _1. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. 174 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 ज्योतिष विक्रम की आठवीं शती से जैन मुनियों और यतियों ने ज्योतिष के ग्रन्थ लिखने शुरू किए। यह क्रम 19 वीं शती तक चला। नरचन्द्रसरि ने वि. सं. 1280 में ज्यो (नारचन्द्र ज्योतिष) नामक ग्रन्थ की रचना की । उपाध्याय नरचन्द्र ने विक्रम की चौदहवीं शती में बेडा जातकवृत्ति, प्रश्नशतक, प्रश्न चतुर्विंशतिका आदि अनेक ग्रन्थ लिखे । डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने इनके ग्रन्थों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है--'बेडा जातकवृत्ति में लग्न और चन्द्रमा से ही समस्त फलों का विचार किया गया है । यह जातक-ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है । प्रश्नचतुवशितिका के प्रारम्भ में ज्योतिष का महत्वपूर्ण गणित लिखा है । ग्रन्थ अत्यन्त गूढ और रहस्यपूर्ण है ।। उपाध्याय मेघविजय ने विक्रमी के अठारहवीं शती के पर्वार्ध में वर्ष प्रबोध, रमलशास्त्र, हस्त-संजीवन आदि अनेक ग्रन्थ लिखे। डॉ. नेमिचद्र शास्त्री के अनुसार इनके फलित ग्रन्थों को देखने से संहिता और मद्रिक शास्त्र से बंधी प्रकाण्ड विद्वत्ता का पता सहज में लग जाता मध्य युग में जैन उपाश्रय शिक्षा, चिकित्सा और ज्योतिष के केन्द्र बन गए थे। जैसेजैसे जन-सम्पर्क बढा वैसे-वैसे लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियां और तद्विषयक साहित्य की मात्रा बढी। स्तोत्र समूचा उत्तर भारत भक्ति की लहर से आप्लावित हो रहा था। ईश्वर और गुरु की स्तुति ही धर्म की प्रधान अंग बन रही थी। जैन धर्म भी उस धारा से अप्रभावित नहीं था। इन बारह सौ वर्षों में विपुल मात्रा में स्तोत्र रचे गए। स्तोत्र के पाठ की प्रवृत्ति भी विकसित की गई। संस्कृत नहीं जानने वाले भी स्तोत्र का पाठ करते थे। इसके साथ श्रद्धा और विघ्नविलय की भावना दोनों जुडी हुई थीं। स्तोत्रों के साथ मन्त्र-ग्रन्थों का भी निर्माण हुआ। ऐहिक सिद्धि के लिए मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र तीनों का प्रयोग होता था। फलतः तीनों विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना हुई। यात्रा ग्रन्थ जिनप्रभसूरि ने वि. सं. 1389 (ई. सं. 1332) म विविध-तीर्थ-कल्प नामक ग्रन्थ का निर्माण किया। तीर्थ-यात्रा में जो देखा, उसका सजीव वर्णन हआ है। उसमें भक्ति, इतिहास और चरित तीनों एक साथ मिलते हैं । महाकाव्य और काव्य जन-साधारण में संस्कृत का ज्ञान नहीं था। फिर भी उसमें संस्कृत और संस्कृत के प्रति सम्मान का भाव था। कुछ लोग सहृदय थे, वे काव्य के मर्म को समझते थे। काव्य 1. भारतीय ज्योतिष, प. 102, संस्करण छठा । 2. भारतीय ज्योतिष, पृ. 109, संस्करण छठा । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 चक्ति दुर्लभ मानी जाती थी। राजस्थान के जैन कवियों ने केवल काव्यों की ही रचना नहीं की, उनमें कुछ प्रयोग भी किए। उदाहरण के लिए महोपाध्याय समयसुन्दर की अष्टलक्षी, जिनप्रभसूरि के याश्रय काव्य और उपाध्याय मेघविजय के सप्तसन्धान काव्य को प्रस्तुत किया बा सकता है। अष्टलक्षी वि. सं. 1649 की रचना है। उसमें 'राजा नो ददते सौख्यम्' इन आठ अक्षरों के आठ लाख अर्थ किए गए हैं। महाकवि धनंजय (ग्यारहवीं शती) का द्विसन्धान काव्य तथा आचार्य हेमचन्द्र का दयाश्रय काव्य प्रतिष्ठित हो चुका था। विक्रम की चौदहवीं शती में जिनप्रभसरि ने श्रेणिक ड्याश्रय काव्य लिखा। उसमें कातन्त्र व्याकरण की दुर्गसिंह कृत वृत्ति के उदाहरण और ममधपति श्रेणिक का जीवन चरित--दोनों एक साथ चलते हैं । विक्रम की अठारहवीं शती में उपाध्याय मेघविजय ने सप्तसंधान काव्य का निर्माण किया। उस में ऋषभ, शान्तिनाथ, अरिष्टनेमि, पाव और महावीर इन पांच तीर्थकरों तथा राम और कृष्ण के चरित निबद्ध हैं। विक्रम की तेरहवीं शती में सोमप्रभाचार्य ने सूक्ति-मुक्तावली की रचना की । यह सुभाषित-सूक्त होने के साथ-साथ प्रांजल भाषा, प्रसाद-गुण-सम्पन्न पदावली और कलात्मक कति है। इनकी श्रृंमार-वैराग्य-तरंगिणी भी एक महत्वपूर्ण कृति है। सूक्ति-मुक्तावली का दूसरा नाम सिन्दूरप्रकर है। इस पर अनेक व्याख्याएं लिखी गई। इसका अनुसरण कर कर्पूर प्रकर, कस्तूरी प्रकर, हिंगुल प्रकर आदि अनेक सूक्ति-ग्रन्थों का सृजन हुआ। विक्रम की सातवीं शती तक जैन लेखक धर्म, दर्शन, न्याय, गणित, ज्योतिष, भूगोल खगोल, जीवन-चरित और कथा मुख्यतः इन विषयों पर ही लिखते रहे। विक्रम की आठवीं शती से लेखन की धाराएं विकसित होने लगीं। उसमें सामाजिकराजनीतिक परिवर्तन, साम्प्रदायिक प्रतिस्पर्धा और संघर्ष, लोक-संग्रह के प्रति झकाव, जन शासन के अस्तित्व की सुरक्षा, शक्ति-प्रयोग, शक्ति-साधना, चमत्कार-प्रदर्शन, जनता को आकर्षित करने का प्रयत्न, बाहयाचार पर अतिरिक्त बल प्रादि अनेक कारण बने। बौद्ध कवि अश्वघोष का बुद्धचरित ख्याति बहत पा चका था । महाकवि कालिदास, माघ और भारवि के काव्य प्रसिद्धि के शिखर पर थे। उस समय जैन कवियों में भी संस्कृतभाषा में काव्य लिखने की मनोवृत्ति विकसित हुई। राजस्थान के जैन लेखक भी इस प्रवृत्ति में पीछे नहीं रहे । महाकाव्यों की श्रृंखला में भी अनेक काव्यों की रचना हुई उनमें भरत-वाहबलि-महाकाव्य का उल्लेख अनिवार्य है। जैनेतर ग्रन्थों पर टीकाएं जैन आचार्यों और विद्वानों को उदारता का दष्टिकोण विरासत में प्राप्त था। उन्होंने उसका उपयोग साहित्य की दिशा में भी किया। जैन लेखकों ने बौद्ध और वैदिक साहित्य प अनेक व्याख्याएं लिखीं। राजस्थान के जैन लेखक इसमें अग्रणी रहे हैं । हरिभद्रसरि बौद्ध विद्वान दिङनाग (ईसा की पांचवीं शती) के न्याय-प्रवेश पर टिका लिखी। पाव दे गणि (अपर नाम श्रीचन्द्रसूरि) ने विक्रम की बारहवीं शती में न्याय प्रवेश पर पंजिका लिखी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81 बौद्ध आचार्य धर्मदास के विदग्धमुखमण्डन पर जिनप्रभसूरि ने एक व्याख्या लिखी । खरतर-गच्छीय जिनराजसरि ने विक्रम की सतरहवीं शती में नषध-चरित पर टीका विक्रम की पन्द्रहवीं शती में वैराट के अंचल-गन्छीय श्रावक वाडव ने कुमार-संभव, मेघदूत, रघुवंश, माघ आदि काव्यों पर अवचूरि विधा की व्याख्याएं निर्मित की। सिंहावलोकन राजस्थान में संस्कृत की सरिता प्रवाहित हुई, उसमें जैन आचार्य आदि-स्रोत रहे हैं। ईसा की सातवीं शती में महाकवि माघ (भीनमाल प्रदेश) अपनी काव्य-शक्ति से राजस्थान की मरुधरा को अभिषिक्त कर रहे थे तो दूसरी ओर हरिभद्रसूरि (चित्तौड) अपनी बहुमुखी प्रतिभा से मरुधरा के कण-कण को प्राणवान बना रहे थे। इसके उत्तरकाल में भी जैन लेखकों की लेखनी सभी दिशाओं में अनवरत चली। वह आज भी गतिशील है। वर्तमान शती में राजस्थान में विहार करने वाले जैन आचार्यों, साधु-साध्वियों और लेखकों ने अनेक ग्रन्थों, काव्यों, और महाकाव्यों की रचना की है। संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्तियां भी प्रचलित है। प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश आज प्रचलित भाषाएं नहीं हैं फिर भी ये बहत समृद्ध भाषाएं हैं। वर्तमान की भाषा का प्रयोग करते हुए भी इनका मूल्य विस्मृत न करनाजैन परम्परा का यह चिरन्तन-सूत्र आज भी उसकी स्मृति में है। संस्कृत के विकास और उसकी प्रवृत्ति के पीछे भी वह सर्वत्र प्राणवान् रहा है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार: 2 - म. विनयसागर, साहित्य महोपाध्याय भारतीय संस्कृत-साहित्य के संवर्धन एवं संरक्षण में जैन श्रमण परम्परा ने अभूतपूर्व कार्य किया है । जैन श्रमण सार्वदेशीय विद्वान् एवं भाषाविद् होते हैं । यह श्रमण-यतिवर्ग अपने धर्म - आचार परम्परा के अनुसार सर्वदा विचरणशील रहा करता है । पादभ्रमण करता हुआ एक स्थान से दूसरे स्थान, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश अर्थात सारे भारत में प्रवास करता रहता है । इस वर्ग के लिये एक प्रदेश विशेष का बन्धन नहीं होता है । प्रवासकाल में इन श्रमणों-मुनियों के मुख्यतया दो कार्य होते हैं:- 1. अध्ययन अध्यापन के साथ स्वतन्त्र लेखन, ग्रन्थनिर्माण और प्राचीन ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करना । 2. लोकभाषा में धर्म-प्रचार करना, उपदेश देकर शास्त्र लिखवाना, ज्ञान भण्डार स्थापित करवाना, मन्दिर मूर्तियों का निर्माण, प्रतिष्ठा, प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाना और संघ के साथ तीर्थयात्रा करना । इन कार्य-कलापों के द्वारा इस वर्ग ने सरस्वती की उपासना के साथ-साथ भारतीय स्थापत्य कला, मूर्तिकला, चित्रकला का भी संवर्धन और रक्षण किया है, जो आज भी प्रत्यक्ष है । इस राजस्थान प्रदेश - मरुधरा ने ऐसे सहस्रों नर-रत्न श्रमणों को पैदा किया है जिन्होंने अपने कृतित्व के माध्यम से इस क्षरदेह को अक्षरत्व- श्रमरत्व प्रदान करने में सफलता प्राप्त की है। राजस्थान में उत्पन्न हुए जैन श्वेताम्बर संस्कृत - साहित्यकारों का एवं राजस्थान में विचरण करते हुये श्रमण लेखकों का यदि परिचय व्यक्तित्व एवं कृतित्व के साथ लिखा जाय तो कई ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं, जो इस निबन्ध में संभव नहीं है । अतएव निबन्ध को दो विभागों में विभक्त किया जा रहा है- 1. राजस्थान के जैन संस्कृत-साहित्यकार, और 2. राजस्थान में रचित संस्कृत-साहित्य की सूची । 1. राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार अन्तः साक्ष्य प्रमाणों के द्वारा अथवा उनके द्वारा रचित ग्रन्थों की भाषा के आलोक में जिनकी जन्मभूमि निवास या साहित्यिक कार्यक्षेत्र राजस्थान प्रदेश निश्चित है और जिन्होंने देववाणी में रचनायें की हैं उनमें से प्रमुख प्रमुख कतिपय साहित्यकारों का सामान्य परिचय इस विभाग में दे रहा हूं । हरिभद्रसूरि1 रे -- समय 757 से 857 चित्रकूट (चित्तौड ) समर्थ विद्वान् एवं राजपुरोहित । जाति ब्राह्मण । साध्वी याकिनी महत्तरा से प्रतिबोधित होकर जिनदत्तसूरि के पास दीक्षा । भवविरहांक विशेषण या उपनाम । महान् सिद्धान्तकार, दार्शनिक, विचारक, महाकवि एवं सर्वश्रेष्ठ टीकाकार । श्वेताम्बर परम्परा इनको आप्तपुरुष और इनके वचनों को आप्तवचनों की कोटि में स्थान देती आई है । परम्परानुसार इनके द्वारा रचित 1444 ग्रन्थ माने जाते हैं । वर्तमान में प्राप्त ग्रन्थों में से कतिपय विशिष्ट ग्रन्थ निम्न हैं:-- अनुयोगद्वार सूत्र टीका, आवश्यक सूत्र वृहद्वृत्ति, आवश्यक निर्युक्ति टीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र टोका, जीवाभिगम सूत्र लघुवृत्ति, तत्वार्थसूत्र टीका, दशवैकालिक सूत्र टीका, नन्दी सूत्र टीका, पिण्डनिर्युक्ति टीका, प्रज्ञापना सूत्र प्रदेशव्याख्या, ललितविस्तारा - चैत्थवन्दन सूत्र वृत्ति आदि आगमिक टीका ग्रन्थ । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 अनेकान्तवाद प्रवेश, अनेकान्तजयपताका, दिङ् नागकृतं न्यायप्रवेश सूत्र टीका, न्यायविनिश्चय, न्यायावतार टीका, लोकतत्वनिर्णय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, सर्वज्ञसिद्धिप्रकरण आदि न्याय-दर्शन के मौलिक एवं टीका ग्रन्थ । योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक, योगविंशिका आदि योगशास्त्र के ग्रन्थ । उपदेशपद, पञ्चाशक आदि प्रकरण ग्रन्थ और समराइच्चकहा आदि काव्य प्राकृत भाषा में है। 2. सिद्धर्षिसूरि--समय 10वीं शती । निर्वृत्तिकुलीय श्री दुर्गस्वामी के शिष्य । दुर्गस्वामी का स्वर्गवास भिन्नमाल में हुआ था। दीक्षा दाता गर्गस्वामी । आगम, न्याय-दर्शन और सिद्धान्तों के मूर्धन्य विद्वान् । निम्न रचनायें प्राप्त हैं। उपमितिभवप्रपञ्चकथा र.सं.962 भिन्नमाल, चन्द्रकेवली चरित्र र.सं.974, उपदेशमाला वृहदवृत्ति एवं लघुवृत्ति, न्यायावतार टीका । उपमितिमवप्रपञ्च कथा एक विशाल एवं श्रेष्ठतम महारूपक ग्रन्थ है। यह समस्त भारतीय भाषाओं में ही नहीं, 3 व-साहित्य में प्राचीनतम और मौलिक रूपक उपन्यास है। 3. जिनेश्वरसूरि--समय लगभग 1050 से 1110 । मध्यदेश निवासी कृष्ण के पुत्र । दीक्षा से पूर्व नाम श्रीधर । धारानगरी में दीक्षा । गरु वर्धमानमूरि। खरतरगच्छ के संस्थापक प्रथम आचार्य । सं. 1066-1078 के मध्य में अणहिलपुरपत्तन में महाराजा दुर्लभराज की अध्यक्षता में चैत्यवासी सूराचार्य प्रति प्रमख आचार्यों के साथ शास्त्रार्थ। शास्त्रार्थ म विजय और खरतर विरुद प्राप्ति। काय क्षत्र राजस्थान एवं गुजरात। प्रमख रचनायें प्रमालक्ष्म स्वोपज्ञ टीका सह र. सं 1080 जालोर, अष्टक प्रकरण टीका सं. 1080 जालोर, कथाकोष प्रकरण स्वोपज्ञ टीका सह र. सं. 1108 डीडवाणा, निर्वाणलीलावती कथा (अप्राप्त) आदि अन्य 7 ग्रन्थ प्राकृत भाषा में हैं। प्रमालक्ष्म जैन दर्शन प्रतिपादक आद्यग्रन्थ है । 4. बुद्धिसागरसूरि---पूर्वोक्त जिनेश्वरसूरि के लघुभ्राता। दीक्षा-पूर्व नाम श्रीपति । प्रमुख रचना है पञ्चग्रन्थी व्याकरण अपरनाम बुद्धिसागर व्याकरण र. सं. 1080 जालौर । यह श्वेताम्बर समाज का सर्वप्रथम एवं मौलिक व्याकरण ग्रन्थ है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी इस व्याकरण का अपने व्याकरण सिद्धहेमशब्दानुशासन और टीका ग्रन्थों में उपयोग किया है। वर्द्धमानसरि रचित मनोरमा चरित्र प्रशस्ति (र. सं. 1140) के अनुसार बुद्धिसागरसूरि ने छन्दः शास्त्र, निघण्टु (कोष), काव्य, नाटक, कथा, प्रबन्ध आदि अनेक विषयों के ग्रन्थों की रचना की थी, किन्तु वे सब ग्रन्थ आज अप्राप्त हैं। 5. जिनवल्लभसूरि---समय लगभग 1090 से 1167। खरतरगच्छ । मूलतः कर्चपुरगच्छीय जिनेश्वरसूरि के शिष्य । नवांगटीकाकार अभयदेवसूरि के पास श्रताम्यास और उपसम्पदा। चित्तौड में देवभद्राचार्य द्वारा 1167 आषाढ में आचार्य पद प्रदान कर "अभयदेवसरि के पटट पर स्थापन । 1167 कार्तिक मास, चित्तौड में ही स्वर्गवास । कार्यक्षेत्र चित्तौड आदि राजस्थान, गुजरात और पंजाब । आगम-सिद्धान्त, साहित्यशास्त्र और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान् । प्रमुख रचनायें हैं:-- 1. विशेष परिचय के लिये लेखक की 'वल्लभ-भारती' देखें। विशेष परिचय के लिये देखें, वल्लभ-भारती। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशिक्षा प्रकरण, संघपट्टक, श्रृंगारशतक, प्रश्नोत्तरे कषष्टिशतकाव्य, अष्ट सप्ततिका अपरनाम चित्रकूटीय वीर चैत्यप्रशस्ति ( 1163) एवं भावारिवारण स्तोत्रादि अनेकों स्तोत्र । 64 सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार, आगमिक वस्तुविचारसार, पिण्डविशुद्धि, स्वप्नस तिका, द्वादशकुलक एवं कतिपय स्तोत्र प्राकृत भाषा में हैं । 6. जिनपतिसूरि--- -- समय 1210-1277 । खरतरगच्छ 1 गुरु मणिधारी जिनचन्द्रसूरि । जन्म 1210 विक्रमपुर ( बीकमपुर, जैसलमेर के निकट ) | माता-पिता माल्हू गोत्रीय यशोवर्धन एवं सूहवदेवी । दीक्षा 1217 | दीक्षानाम नरपति । आचार्य पद 1223 | स्वर्गवास 1277 । मुख्यकार्य 1228 आशिका में नृपति भीमसिंह के समक्ष महाप्रामाणिक दिगम्बर विद्वान् के साथ शास्त्रार्थ में विजय, 1239अजमेर में अन्तिम हिन्दू सम्रट् पृथ्वीराज चौहान की सभा में पद्यप्रभ के साथ शास्त्रार्थ में विजय, और प्रद्युम्नाचार्य के साथ हुए शास्त्रार्थ में विजय । प्रमुख रचनायें हैं :-- संघपट्टक वृहद्वृत्ति, पञ्चलिंगी प्रकरण टीका, प्रबोधोदय वादस्थल और कतिपय स्तोत्र | 7. अतिसूरि । जिनपालोपाध्याय -- समय 1217 से 1311 । खरतरगच्छ । गुरु जिनदीक्षा 1225 पुष्कर । वाचनाचार्य 1251 कुहियपग्राम । उपाध्याय पद 1269 जालोर । 1311 पालनपुर में स्वर्गवास । 1273 बृहद्वार में नगरकोट्टीय राजाधिराज पृथ्वीचन्द्र की सभा में काश्मीरी पण्डित मनोदानन्द के साथ शास्त्रार्थ में विजय । चन्द्रतिलकोपाध्याय श्रौर प्रबोधचन्द्रगणि के विद्यागुरु । स्वदर्शन के साथ न्याय, अलंकार, साहित्य-शास्त्र के प्रौढ विद्वान् एवं सफल टीकाकार | प्रमुख कृतियाँ हैं। --- सनत्कुमारचक्रिचरित महाकाव्य 2 षट्स्थानकप्रकरण टीका ( 1262 ), उपदेश रसायन विवरण (1292), द्वादशकुलक विवरण ( 1293 ), धर्मशिक्षा विवरण ( 1293 ), चर्चरी विवरण ( 1294 ) और युगप्रधानाचार्य गुर्वावली सनत्कुमारचक्रिचरित शिशुपालवध की कोटि का श्रेष्ठ वार्य गुर्वावली ऐतिहासिक दृष्टि से एक अद्वितीय रचना है । (1305) आदि । है और प्रधाना 8. लक्ष्मीतिलकोपाध्याय -- समय लगभग 1275 से 1340 । खरतरगच्छ । गुरु जिनेश्वरसूरि द्वितीय । दीक्षा 1288 जालोर । बाचनाचार्य पद 1312 । उपाध्याय 1317 जालोर । सं. 1333 में जिनप्रबोधसूरि की अध्यक्षता में जालोर से निकले तीर्थयात्रा संघ में सम्मिलित थे । अतिकोपाध्याय और चन्द्रतिलकोपाध्याय के विद्यागुरु | पूर्णकलश गणि रचित 'प्राकृत द्वयाश्रय काव्य टीका' ( 1307), अभयतिलक रचित 'पंचस्थान न्यायतर्क व्याख्या', चन्द्रतिलक रचित 'अभयकुमार चरित्र' ( 1312 ), प्रबोधचन्द्र गणि कृत 'संदेहदोलावली टीका' ( 1320 ), धर्मतिलक रचित 'उल्लासिस्तोत्र टीका ' ( 1322 ) आदि अनेकों ग्रन्थों के संशोधक । महाकवि एवं सार्वदेशीय विद्वान् । प्रमुख रचनायें हैं : प्रत्येकबुद्धचरित्र महाकाव्य ( 1311 ) और श्रावक धर्म वृहद्वृत्ति ( 1317 जालोर) । 1. देखें, खरतरगच्छालङ्कार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली | 2. म. विनयसागर द्वारा सम्पादित होकर राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर से प्रकाशित । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 9. अभयतिलकोपाध्याय :-समय 13वीं-14 वीं शती । खरतरगच्छ । गुरु जनश्वरसूरि वितीय । दीक्षा 1201 जालोर । उपाध्याय पर 1310 । न्याय और काम्यभारत के प्रौढ विद्वान् । प्रमुख रचनायें है:-हेमचन्द्रीय संस्कृत श्याश्रय काव्य टीका (1313), पंचप्रस्थान न्यायतकं व्यास्था, पानीय बारस्यल। 10. जिनप्रभसूति समय मगभग 1326 से 1393 | मधु बरतरगच्छ । गुर जिनसिंहसूरि। जन्मस्थान मोहिलवाडी (अन्सन के आसपास)। माता-पिता श्रीमॉलबशीप ताम्बीगोत्रीय श्रेष्ठी रत्नपाल और खेतलदेवी। दीक्षा 1326। भाचार्यपद 1341 । महाभाविक एवं चमत्कारी बाचार्य। मुहम्मद तुगलक के प्रतिबोधक एवं धर्मगुरु। कन्यानयनीय महावीर प्रतिमा के उद्धारक । विहार क्षेत्र-राजस्थान, गुजरात, विहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, दक्षिण, कीटक मोर लिंग । कार्यक्षेत्र दिल्ली और देवगिरि। प्रमुख बनायें: प्रोणक परित्र (श्याश्रय काव्य, 1358), कल्पसूत्र संदेह-विषौषधि टीका (1364), साधुप्रतिक्रमणसूत्र टीका (1384), षडावश्यक टीका, बनुयोग चतुष्टय व्याख्या, प्रवज्याभिधान रीका, विषिमार्गप्रथा (1383), कातन्त्रविम्रम टीका (1352), अनेकार्थसंग्रह टीका, शेष संग्रह टीका, विदग्धमुखमण्डन टीका (1388), गायत्री विवरण, सूरिमन्त्रवृहत्कल्प विवरण, रहस्य कल्पद्रुम और विविध तीर्थ-कल्प आदि अनेकों ग्रन्थ । स्तोत्र-साहित्य में लगभग 80 स्तोत्र प्राप्त है। तीर्थों का इतिहास-इस दृष्टि से विविधतीर्थकल्प भभूतपूर्व, मौलिक भौर ऐतिहासिक तथ्यों से परिपूर्ण रचना है। ____ 11. जिनकुशलसूरिः-समय 1337 से 1389 । खरतरगछ । गुरु कलिकाल कल्पतर जिनचन्द्रसूरि । श्वेताम्बर समाज में तीसरे दादाजी के नाम से प्रसिखतम भाचार्य । भन्म 1337 सिवाना । माता-पिता छाजहर गोत्रीय ठ. जैसल एवं जयतश्री । दीक्षा 1346 सिवाना । वाचनाचार्य पद 1375 नागौर । दीक्षा नाम कुशलकीति । भाचार्य पद 1377 पाटण । स्वर्गवास 1379 देवराजपुर (देरावर) । सं. 1383 बाडमेर में रचित. "चैत्यवन्दनकुलक वृत्ति" इनकी मुख्य कृति है । कई स्तोत्र भी प्राप्त है । 12. जिनवर्द्धनसूरि:--समय 15वीं शती । खरतरगच्छ । गुरु जिनराजसूरि । 'आचार्य पद 1461 देवकुलपाटक । इनके समय में खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा का 1469 जैसलमेर में उद्भव हुआ । कार्यक्षेत्र जैसलमेर और मेवाड । 1473 जैसलमेर में लक्ष्मणविहार की प्रतिष्ठा । सप्तपदार्थी टीका (1474), वाग्भटालंकार टीका, प्रत्येकबुद्ध चरित्र और सत्यपुरमंडन महावीर स्तोत्र इनकी मुख्य कृतियां हैं । - 1. द्रष्टव्य, म. विनय सागर : शासन प्रमाक आचार्य जिनप्रेम और उनका साहित्य। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 13. जिनमद्रसूरि:--समय 1449-1514 । खरतरगच्छ । गुरु जिनराजसूरि । बन्म 1449 । जम्ममाम रामणकुमार । माता-पिता छाजहर गोत्रीय सा. धाणिक एवं तलदे । दीमा 1461 । भाचार्यपद 1475 । स्वर्गवास 1514 कुंमलमेर । प्रमुख कार्यबैसलमेर, जालोर, देवगिरि, मागोर, पाटण, मारवगढ, आशापल्ली, कर्णावती पोर खंभात मादि स्थानों पर इन्होंने ज्ञान भण्डार स्थापित किये और सहनों नये ग्रन्थ लिखवाकर, संगोषन कर इन मंगरों में स्थापित किये । जैसलमेर का ज्ञान भण्डार बाज भी आपकी कौति-पताका को मझुण्ण रखकर विश्व में फहरा रहा है। इन्होंने सहनों मूर्तियों की प्रतिष्ठायें एवं बनेकों क्वीन मन्दिरों की स्थापना की । रचनायें निम्न है : सूरिमन्त्रकल्प, शत्रुज्जय लघुमाहात्म्य, स्तोत्रादि । जिनसत्तरी प्राकृत भाषा में है । 14 वाडवः--जैन श्वेताम्बर उपासक वर्ग के इने-गिने साहित्यकारों-कवि पदमानन्द, उसकुर फेर, मन्त्री मणन, मन्त्री धनद आदि के साथ टीकाकार वाडव का नाम भी गौरव के साथ लिया जा सकता है। वाडव जैन श्वेताम्बर अञ्चलगच्छीय उपासक बावक था। वह विराट नगर वर्तमान बैराठ (अलवर के पास, राजस्थान प्रदेश) का निवासी था । संस्कृत साहित्यशास्त्र और जैन साहित्य का प्रौढ विद्वान् एवं सफल टीकाकार था । इसका समय वैक्रमीय पन्द्रहवीं शती का उत्तराखं है। इसने अनेक ग्रन्थों पर टीकायें लिखी थीं किन्तु दुखः है कि आज तो उसका कोई अन्य ही प्राप्त है और न जैन इतिहास या विद्वानों में उल्लेख ही प्राप्त है । मारव की एकमात्र अपूर्ण कृति “वृत्तरत्नाकर अवधूरि" (15वीं शती के अन्तिम चरण की लिली) मेरे निजी संग्रह में है। इसकी प्रशस्ति के अनुसार वाडव ने जिम-जिम ग्रन्थों पर टीकायें लखी है, उनके नाम उसने इस प्रकार दिये हैं:1. कुमारसम्भव काव्य अपरि 2. मेषबूत काव्य अवचूरि 3. रघुवंश काम्य अवघरि 4 माष काव्य अवचूरि किरातार्जुनीय काय अवचूरि कल्याण मन्दिर स्तोष 7. भक्तामर स्तोत्र नवरि . पाश्र्वनाम स्तोत्र 2. जीरापल्की पावनाप स्तोत्र मवरि 10. त्रिपुरा स्तोत्र अवचूरि 1. वृत्तरलाकर अवचूरि 12. वाग्मटालंकार अवचूरि 13. विदग्धमुखमण्डन अवचूरि 14. योगशास्त्र (4 मध्याय) अवपरि 15. वीतराग स्तोत्र मवचूरि अवरि अपचर पाडव की अन्य कृतियां जो अप्राप्त है उनके लिये शोष विद्वानों का कर्तव्य है कि खोज करके अन्य प्रन्यों को प्राप्त करें और वाग्व के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विशेष प्रकाश डालें। 15. चारित्रवर्द्धनः-समय लगभग 1470 से 1520 । लघु खरतरगच्छ । गुरु ल्याणराज । कार्य क्षेत्र मुन्झुनू के आस-पास का प्रदेश । प्रतिमाशाली और बहुश्रुत विद्वान् । रवेष-सरस्वती उपनाम । ख्यातिप्राप्त समर्थ टीकाकार । प्रमुख रचनायें है :-- रघुवंश टीका, कुमारसम्भव टीका (1492), शिशुपालवष टीका, नषषकाव्य टीका 1511), मेघदूत टीका, राघवपाण्डवीय टीका, सिन्दूर प्रकर टीका (1505), मावारिवारण एवं कल्याण मन्दिर स्तोत्र टीका । चारित्रवन ने इन टीकाओं की रचना अपने उपासकों की मान-वृद्धि के लिये की है। ससे स्पष्ट है कि ठ. अरकमल्ल और ठ. सहलमल्ल, भीषण आदि भी संस्कृत के अच्छे बद्वान् थे। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___16. जयसागरोपाध्यायः--समय लगभग 1450-1515 खरतरगच्छ । गुरु जिनराजसूरि । जन्म नाम जयदत्त । माता-पिता दरडागोत्रीय आसराज और सोखू । इन्हीं के भाई मण्डलीक आदि ने आबू में खरतरक्सही का निर्माण करवाया। कार्यक्षेत्र-जैसलमेर, आबू, गुजरात, सिन्ध, पंजाब, हिमाचल । श्रीवल्लम के कथनानुसार इन्होंने सहस्रों स्तुति. स्तोत्रों की रचना की थी। मुख्य कृतियां निम्न है : विज्ञप्ति त्रिवेणी (1484), पृथ्वीचन्द्र परित्र (1503), जैसलमेर शान्तिनाथ जिनालय प्रशस्ति (1493), संदेहदोलावली टीका, गुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र टीका, मावारिवारण स्तोत्र टीका आदि एवं अनेकों स्तोत्र । विज्ञप्ति त्रिवेणी एक ऐतिहासिक विज्ञप्ति पत्र है । नगरकोट, कांगडा आदि तीर्थों का दुर्लभ विवरण इसमें प्राप्त है । 17. कीर्तिरत्नसूरिः-समय 1449-1525 | खरतरगच्छ । गुरु जिनवर्धनसूरि । जन्म 1449 । नाम देल्हाकुवर । माता-पिता शंखवाल गोत्रीय शाह कोचर के वंशज दीपा और देवलदे । दीक्षा 1463, नाम कीर्तिराज । वाचनाचार्य 1470 । उपाध्याय पद 1480 महेवा । आचार्यपद 1497 जैसलमेर । आचार्य नाम कीतिरत्नसूरि । स्वर्गवास 1525 वीरमपुर । नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ के प्रतिष्ठापक । इनकी शिष्य परम्परा कीर्तिरत्नसूरि शाखा के नाम से चली आ रही है । नेमिनाथ महाकाव्य इनकी विशिष्ट रचना है । 18. जिनहससूरिः-समय 1524 से 1582 । खरतरगच्छ । गुरु जिनसमुद्रसूरि । जन्म 1524 । सत्रावा निवासी चोपडा गोत्रीय मेघराज और कमलादे के पुत्र । दीक्षा 15 35 बीकानेर । आचार्य पद 1555 । बादशाह को धौलपुर में चमत्कार दिखाकर 500 कैदियों को छुडवाया । स्वर्गवास 1582 । आचारांगसूत्र दीपिका (1572 बीकानेर) इनको प्रमुख रचना है। 19. युमप्रधान जिनचन्द्रसूरिः-समय 1598-1670 । खरतरगच्छ । गुरु बिन माणिक्यसरि । जन्म 1598, नाम सुलतान कुमार । बडली निवासी रीहड गोत्रीय श्रीवंत एवं सिरियादेवी के पुत्र । दीक्षा 1604 । दीक्षा नाम सुमतिषीर । बाचार्यपद 1612 जैसलमेर । क्रियोवार 1614 बीकानेर । 1617 पाटण में सर्वगच्छीय आचार्यों के सम्मुख धर्मसामरोपाध्याय को उत्सूत्रवादी घोषित किया। 1648 लाहोर में सम्राट अकबर से मिलन और प्रतिबोध । अकबर द्वारा युगप्रधान पद प्राप्त । स्वर्गवास 1670 बिलाडा । कार्यक्षेत्र राजस्थान, गुजरात, पंजाब । अनेकों प्रतिष्ठायें एवं कई यात्रा-संघों का संचालन । प्रमुख मक्त बीकानेर के महामंत्री कर्मचन्द्र बच्छावत बदेर अहमदाबाद के श्रेष्ठि शिवा सोम । मुख्य कृति पौषधविधि प्रकरण टीका (1617) है। 20 महोपाध्याय पुण्यसागर:-समय 16वीं एवं 17वीं शतो । खरतरगच्छ । गुरु जिनहंससूरि । प्रमुख रचनायें हैं : जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र टीका (1645 जैसलमेर) और प्रश्नोत्तरैकषष्टिशत काव्य टीका (1640 बीकानेर)।. इनके शिष्य पद्मराज भी संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। जिनकी भावारिवारण पादपूर्ति स्वोर टीका सह (1658, जैसलमेर), 'चित' दण्डक स्तुति टीका (1644 फलवद्धि) भाविकरुतियां प्राप्त है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 21. जिनराजसूरि :-- समय 1647-1699 । खरतरगच्छ । गुरु जिनसिदसूरि । जन्म 1647 बोकानेर । बोहिथरा गोत्रीय धर्मसी धारलदे के पुत्र । जन्म नाम खेतसी । दीक्षा 1656 | दीक्षा नाम राजसमुद्र । उपाध्याय पद 1668 आसाउल | आचार्य पद 1674 मेडता । स्वर्गवास 1699 1 1675 शत्रुञ्जय खरतरवसही, लोद्रवा तीर्थ और सहस्रों जिनमूर्तियों के प्रतिष्ठापक । नव्यन्याय और साहित्यशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित । प्रमुख रचनाएं है : टीका । नैषघीय महाकाव्य जैनराजी टीका (श्लोक परिमाण 36000 ) और भगवती सूत्र 22. महोपाध्याय समयसुन्दर 1:-- समय लगभग 1610-1703 । खरतरगच्छ । गुरु सकलचन्द्र गणि । सांचौर निवासी प्राग्वाट ज्ञातीय रूपसी लीलादेवी के पुत्र । जन्म लगभग 1610 | गणिपद 1640 जैसलमेर । वाचनाचार्य पद 1649 लाहोर । उपाध्याय पद 1671 लवेरा । स्वर्गवास 1703 | कार्य क्षेत्र राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, सिन्ध और पंजाब | सिद्धपुर (सिन्ध) का अधिकारी मखनम महमूद शेख काजी, जैसलमेर के रावल भीर्मासह, खंभात, मंडोवर और मेडता के शासकों को प्रभावित कर जीवहसा निषेध और अमारी पटह की घोषणा करवाई । 17वीं शती का सर्वतोमुखी और सर्वश्रेष्ठ विद्वान् । सं. 1649 में काश्मीर विजय के समय सम्राट अकबर के सन्मुख 'राजा नो ददते सौख्यम्' चरण के प्रत्येक अक्षर के एक-एक लाख अर्थ अर्थात् आठ अक्षरों के आठ लाख अर्थ कर मष्टलक्षी ग्रन्थ रचा । प्रमुख प्रमुख कृतियां निम्नांकित हैं: CL सारस्वत वृत्ति, सारस्वत रहस्य, लिंगानुशासन अवचूर्णि, अनिट्कारिका, सारस्वतीय शब्द रूपावली आदि व्याकरण के ग्रन्थ । अष्टलक्षी, मेघदूत प्रथमपद्यस्य त्रयो अर्थाः, आदि अनेकार्थी साहित्य | हसूरि पदोत्सव काव्य ( रघुवंश पादपूर्ति), रघुवंश टीका; कुमारसंभव टीका, मेघदूत टीका, शिशुपालवध तृतीय सर्ग टीका, रूपकमाला अवचूरि, ऋषभ भक्तामर (भक्तामर पादपूर्ति) आदि काव्य ग्रन्थ एवं टीकायें । भावशतक, वाग्भटालंकार टीका, वृत्तरत्नाकर टीका, मंगलवाद आदि लक्षण न्याय के ग्रन्थ । कल्पसूत्र टीका, दशवेकालिक सूत्र टीका, नवतत्व प्रकरण टीका; समाचारी शतक विशेष संग्रह, विशेष शतक, गाथा सहस्री, सप्तस्मरण टीका आदि अनेकों आगमिक सैद्धांतिक और स्तोत्र साहित्य पर रचनायें एवं टीकायें । समयसुन्दर के शिष्य वादी हर्षनन्दन की निम्नलिखित रचनायें प्राप्त हैं :- मध्याह्न पास्पानपद्धति (1673), ऋषि मण्डल वृत्ति (1704), स्थानांग सूत्र गाथागत वृत्ति (1705), उत्तराध्ययन सूत्र टीका (1711) आदि । 23. महोपाध्याय गुणविनयः -- समय लगभग 1615-1675 | खरतरगच्छ; क्षेमकीति शाखा । गुरु जयसोमोपाध्याय । वाचक पद 1649 । स्वर्गवास 1675 के लगभग । टि. 1. देखें, म. विनयसागर महोपाध्याय सममसुन्दर Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69 कार्यक्षेत्र अधिकांशत: राजस्थान । सम्राट् जहांगीर द्वारा 'कविराज' पद प्राप्त । प्रमुख रचनायें हैं : खण्डप्रशस्ति टीका! (1641), नेमिदूत. टीका (1644), दमयन्ती कथा पम्पू टीका (1646), रघुवंश टीका (1646), वैराग्यशतक टीका (1647), सम्बोध सप्तति टीका (1651), कर्मचन्द्रवंश प्रबन्ध टीका (1656), लघुशान्ति स्तवं टीका (1659); शीलोपदेशमाला लघु वृत्ति आदि 13 टीका ग्रन्थ । 'सव्वत्थशब्दार्य समुच्चय' 'अनेकार्थी ग्रन्थ और 'हुण्डिका (1657) संग्रह ग्रंथ है । गुणविनय के शिष्य गमतिकीति रचित दशाश्रुतस्कन्ध टीका और गुणकित्व षोडशिका भी प्राप्त है । 24. श्रीवल्लभोपाध्याय :-समय लगभग 1620-1687 । खरतरगच्छ । गुरु शानविमलोपाध्याय । कार्यक्षेत्र-जोधपुर, नागौर, बीकानेर, गुजरात । महाकवि, बहुश्रुतज्ञ, व्याकरण-कोष के मूर्धन्य विद्वान् और सफल टीकाकार । प्रमुख कृतियां निम्नलिखित हैं: विजयदेवमाहात्म्य काव्य, सहस्रदलकमलगर्भित अरजिन स्तव स्वोपज टीका. सहर विद्वत्प्रबोधकाव्य, संघपति रूपजी वंश प्रशस्ति, मातृकाश्लोकमाला, चतुर्दशस्वरस्थापन वादस्थल आदि 8 मौलिक कृतियां । हैमनाममाला शेषसंग्रह टीका, हैमनाममाला. शिलोञ्छ टीका, हैमलिंगानुशासन दुर्गप्रदप्रबोध टीका, हैमनिघण्टुशेष टीका, अभिधानचिन्तामणि नाममाला टीका, सिरहेमशब्दानुशासन टीका, विदग्धमुखमण्डन टीका आदि 12 टीका ग्रन्थ । 25. सहजकीर्ति :-समय 17वीं शती, । खरतरगच्छ । गुरु हेमनन्दन । कार्यक्षेत्र राजस्थान । प्रमुख रचनायें है : कल्पसूत्र टीका (1685), अनेकशास्त्रसमुच्चय, गौतमकुलक. टीका (1671), फलवद्धि पार्श्वनाथ माहात्म्य काव्य, वैराग्यशतक, अजुप्राज्ञ व्याकरण, सारस्वत टीका (1881) सिखशब्दार्णव नामकोष, शतदलकमलबद्ध पार्श्वनाथ स्तोत्र आदि । 26. गुणरत्न :-समय 17वीं शती । खरतरगच्छ । गुरु विनयप्रमोद । न्याय लक्षण, काव्य-शास्त्र के प्रौढ विद्वान् । कार्यक्षेत्र राजस्थान । प्रमुख रचनायें है: काव्यप्रकाश टीका, तर्कभाषा दीका, सारस्वत टीका (1641),रघुवंश टीका (1687) मंगलवाद यादि । 1.4. म.विनयसागर द्वारा सम्पादित होकर राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोध से प्रकाशित । 2. 3. म.विनयसागर द्वारा सम्पादित होकर सुमतिसदन, कोटा से प्रकाशित । 5. म. विनयसागर द्वारा सम्पादित होकर का. द. भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर वहमदाबाव से प्रकाशित । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 27. सूरचन्द्र :-- समय 17वीं शती । खरतरगच्छ । गुरु वीरकलश । कार्य क्षेत्र राजस्थान । दर्शन और साहित्य शास्त्र का प्रकाण्ड - पण्डित । प्रमुख रचनायें हैं : स्थूलभद्रगुणमालाकाव्य [ ( 1680), जैनतत्वसार स्वोपज्ञ टीका सह ( 1679 ) ; अष्टार्थी श्लोक वृत्ति, पदैकविंशति, शांतिलहरी, श्रृंगार रसमाला (1659), पंचतीर्थी श्लेषालंकार चित्रकाव्य आदि । 28. मेघविजयोपाध्यायः - समय लगभग 1685-1760 । तपागच्छ । गुरु कृपाविजय । कार्यक्षेत्र राजस्थान और गुजरात । बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न विशिष्ट विद्वान् एवं काव्य - साहित्य, व्याकरण, अनेकार्थ, न्याय, ज्योतिष, सामुद्रिक आदि अन्यान्य विषयों के प्रकाण्ड पण्डित । प्रमुख रचनायें हैं। --- सप्तसन्धान महाकाव्य ( 1760 ), दिग्विजय महाकाव्य, शान्तिनाथ चरित्र ( नैषधपाद - पूर्ति); देवानन्द महाकाव्य ( माघ पादपूर्ति), किरात समस्या पूर्ति, मेघदूत समस्यालेख (मेघदूत पादपूर्ति), लघुत्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, भविष्यदत्त चरित्र, पंचाख्यान, चन्द्रप्रभा व्याकरण (1757 ), हेमशब्दचन्द्रिका, हेमशब्दप्रक्रिया, चिन्तामणि परीक्षा, युक्तिप्रबोध, मेघमहोदयवर्ष - बोध, हस्तसंजीवन, उदयदीपिका, वीसायन्त्रविधि, मातृका प्रसाद ( 1747 ), अर्हद्गीता आदि 38 कृतियां प्राप्त हैं । 28. महिमोदय :- समय 18वीं शती । खरतरगच्छ । गुरु मतिहंस । कार्यक्षेत्र राजस्थान । ज्योतिष शास्त्र का विद्वान् । प्रमुख कृतियां हैं :-- स्टसिद्धि, जन्मपत्री पद्धति, ज्योतिष रत्नाकर (1722), पञ्चांगानयन विधि (1722) ; प्रेम ज्योतिष (1723), षट्पञ्चाशिकावृत्ति बालावबोध आदि । 30. यशस्वरसागर ( जसवंतसागर ) :-- समय 18वीं शती । तपागच्छ । गुरु यशःसागर । न्याय-वर्शन और ज्योतिष के श्रेष्ठ विद्वान् । कार्यक्षेत्र राजस्थान । निम्नांकित साहित्य प्राप्त है : --- विचारषत्रिशिका अवचूरि (1721), भावसप्ततिका (1740), जैन सप्तपदार्थ (1757 ); प्रमाणवादार्थ (1757 सांगानेर), वादार्थ निरूपण, स्याद्वादमुक्तावली, स्तवनन प्रहलाद वार्तिक (1760), यशोराजी राजपद्धति आदि । 31. लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय : -- समय 18वीं शती । खरतरगच्छ क्षेमकीर्तिशाखा । गुरु लक्ष्मीकीति । कार्यक्षेत्र राजस्थान । प्रमुख रचनाएं हैं :-- कल्पसूत्र टीका, उत्तराध्ययन सूत्र टीका, कालिकाचार्य कथा, कुमारसंभव टीका, मातृक धर्मोपदेश स्वोपज्ञ टीका सह, संसारदावा पादपूत्यत्मक पार्श्वनाथ स्तोत्र आदि । 32. धर्मवर्द्धन :-समय 1700-1883-84 । खरतरगच्छ । गुरु विजग्रह जन्म 1700 | जन्मनाम धर्मसी । दीक्षा 1713 | उपाध्याय पद 1740 | स्वर्गवार 1783-84 के मध्य । प्रमुख रचनायें ह् वीरमक्तामर स्वोपज्ञ टीका सहित और अनेक स्तोत्र | Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33. महोपाध्याय रामविनय (रूपचन्द्र):--समय 17341835 | खरतरगच्छ ओमकीर्तिशाला । गुरु दयासिह । ओसवाल मांचलिया मोत्र । जन्म नाम रूपचन्द्र जो बन्त तक प्रसिद्ध रहा । दीक्षा नाम रामविजय । दीक्षा 1755 बिल्हाबास । स्वर्गवास 1835पाली। कार्यक्षेत्र जोधपुर, बीकानेर । भनेक भाषामों मोर भनेक विषयों के प्रगाढ विद्वान् । प्रमुख रचनायें है: गौतमीय महाकाव्य (1807), गुणमाला प्रकरण, सिद्धान्त पन्द्रिका टीका, साध्वाचार पत्रिंशिका, महुर्तमणिमाला (1801), षभाषामय पत्र (1787) आदि । महो. रामविजय के शिष्य पुण्यशील गणि कृत जयदेवीय गीतगोविन्द की पति पर 'चतुर्विशति जिन स्तवनानि स्वोपज टीका सह और 'ज्ञानानन्द प्रकाश प्राप्त है । और इन्हीं के प्रशिष्य शिवचन्द्रोपाध्याय कृत अनेक कृतियां प्राप्त है। जिनमें से मुख्य ये हैं :-- ... प्रद्युम्न लीला प्रकाश (1879), विशतिपद.प्रकाश, सिख सप्ततिका, भावना प्रकाश, मूलराज गुणवर्णन समुद्रबन्ध काव्य (1861) और अनेक स्तोत्र । 34. महोपाध्याय क्षमाकल्याण :--समय 1801 से 1872 । खरतरगच्छ । गुरु अमृतधर्म । जन्म 1801 केसरदेसर। माल्डू गोत्र । दीक्षा 1812 । स्वर्गवास 1872 । इनकी विद्वत्ता के संबंध में मुनि जिनविजय जी ने तर्कसंग्रह के प्रकाशकीय वक्तव्य (पृ.2) में लिखा है:-- "राजस्थान के जैन विद्वानों में एक उत्तम कोटि के विद्वान् थे और भन्य प्रकार से अन्तिम प्रौढ पण्डित थे। इनके बाद राजस्थान में ही नहीं अन्यत्र मीइस श्रेणी का कोई जैन विद्वान नहीं हुमा " इनकी प्राप्त रचनाओं में मुख्य रचनायें निम्न हैं - __ तर्कसंग्रह फक्किका (1827), भूधातुवृति (1829), समरादित्य केवली चरित्र पूर्वार्ट, अम्बर चरित्र, यशोधरं चरित्र, गौतमीय महाकाव्य टीका, सूक्ति रत्नावली स्वोपन का सह, विज्ञान चन्द्रिका, खरतरगच्छ पटटावली, जीवविचार टीका, परसमयसार विचार संग्रह प्रश्नोत्तर सार्दशतक, साघु-प्रावक विर्षि प्रकाश, मष्टाहनिकादि पर्वव्याख्यान, चैत्यवन्दन चतुर्विशति मादि अनेकों ग्रन्थ एवं कतिपय स्तोत्र । 35. जिनमणिसागरसूरि :-समय 1944-2007 । खरतरगच्छ । गुरु महोपाध्याय सुमतिसागर । जन्म 1944बांकडिया बडगांव । जन्म नाम मनशी । दीक्षा 1980 पालीताणा। आचार्य पद 2000 बीकानेर । स्वर्गवास 2007 मालवाडा । सागरानन्दसूरि, विजय वल्लमसूरि और चौथमल जी आदि के साथ शास्त्रार्थ । प्रमुख कार्य आगमों का राष्ट्र भाषा में अनुवाद । कार्य क्षेत्र कोटा, बम्बई, कलकत्ता । जैन शास्त्रों के श्रेष्ठ विद्वान् । संस्कृत भाषा में एक ही कृति प्राप्त है-साध्वी व्याख्यान निर्णय । अन्य कृतियां षट्कल्याणक निर्णय, पर्युषणा निर्णय, क्या पृथ्वी स्थिर है ? देवार्चन एक दृष्टि, साध्वी व्याख्यान निर्णय, आगमानुसार मुंहपति निर्णय, देव द्रव्य निर्णय आदि हिन्दी भाषा में प्राप्त है। 36. बुद्धिमनि गणि:-समय लगभग 1950 से 20251 खरतरगच्छ श्री मोहन हाल जी परम्परा। गधी केशर मनि । संस्कृत, प्राकत, गजराती माषा और जैन साहित्य हे विशिष्ट विद्वान् । विहार क्षेत्र राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र । संस्कृत भाषा । इनको कल्पसूत्र टीका, कल्याणक परामर्श, पर्युषणा परामर्श आदि कई कृतियां प्रकाशित हो चुकी है। साधुरंगीय सूत्रकृतांग दीपिका, पिण्डविधि (3 टीका सहित) आदि अनेक ग्रन्थों Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " का इन्होंने सम्पादन किया है। सम्मावित प्रन्यों की विस्तृत भूमिकायें भी इन्होंने संस्कृत में हती है। गुजराती और हिन्दी में भी इनकी लिखित एवं सम्पादित कई पुस्तके प्रकापित 37. आचार्य घासीलाल जी:-ये स्थानकवासी सम्प्रदाय के प्रसिद्ध माचार्य श्री बाहिरलाल जी के शिष्य थे। नका जन्म सं. 1941 बसवन्तगढ़ (मेवार) में हुमा पा। संस्कृत मोर प्राकृत भाषा तथा जैनागम, भ्याकरण, काम्य, कोष मादि विषयों के श्रेष्ठ विद्वान् पे। इन्होंने स्थानकवासी सम्प्रदाय द्वारा मान्य 32 मागमों पर संस्कृत भाषा में विस्तृत कायें लिखी और विविध विषयों में अनेक नेतन प्रन्यों का निर्माण किया । इनकी मौखिक रचनायें निम्नलिखित प्राप्त होती है : शिवकोश, नानार्थ उदयसागर कोश, श्रीलाल नाममाला कोश, माहेत् व्याकरण, माहेत घु व्याकरण, आहेत सिद्धान्त व्याकरण, शान्ति सिन्धु महाकाव्य, लोकाशाह महाकाव्य, पूज्य थी छाल काव्य, लवजी मुनि काव्य, जनागम तत्व दीपिका, वृत्तबोध, तत्व प्रदीप, मुक्ति संग्रह, गृहस्थ कल्पतर, नागाम्बरमञ्जरी, नवं स्मरण, कल्याण मंगळ स्तोत्र, वर्षमान स्तोम मावि । 38 बाचार्य हस्तिमल जी:-ये वर्तमान में स्थानकवासी समाज के प्रमुख माचार्यों में से है। संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान है। नन्दीसूत्र मादि मागम प्रन्यों पर इन्होंने संस्कृत भाषा में टीकाओं का निर्माण किया है। इनकी हिन्दी भाषा में कई कृतियां भी प्रकाशित हो चुकी है। राजस्थान प्रदेश में अन्य गच्छों की अपेक्षा खरतरगच्छ का प्रभाव एवं प्रचार विशेष रहा है। खरतरगच्छ की अनेक शाखाओं का उद्भव, विकास और अवसान भी इस प्रदेश में ही हुआ है। अन्य शाखाओं के कतिपय साहित्यकारों की रचनायें मेरे विचार से इसी राजस्थान प्रदेश में ही हुई होंगी। इसी मनुमान के मॉधार पर कतिपय कैखको गोर पनकी कृतियों का यहां निर्देश करना मप्रासंगिक न होगा। द्रपल्लीय शाखा:-- अभयदेवसूरि:- सोमतिलकरि:- संघतिलकसूरि:- दिवाकराचार्यःदेवेन्द्रसूरिः जयन्त विजय महाकाम्य (1278) शीलोपदेशमाला टीका (1392), षड्दर्शनसमुच्चय टीका (1392), कन्यानयन तीर्थकल्प सम्यक्त्वसप्तति टीका (1422), कुमारपालप्रबन्ध (1454), धूतख्यिान दानोपदेशमाला (14वीं) दानोपदेशमाला टीका (1418), प्रश्नोत्तररत्नमाला टीका (1429), नवपद अभिनव प्रकरण टीका (1452) आचार दिनकर (1468) गौतमपृच्छा टीका (15वीं शती) संदेशरीसक टीका (1465) पर्वमानसूरिःश्रीतिलक:लक्ष्मीचन्दः Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 बेगड शाखा: जिनसमुद्रसूरि:- 18वीं शती। कल्पान्तर्वाच्य, सारस्वत बातुपाठ, बैराग्यञ्चतक टोका पिप्पलक शाखा: जिनसागरसूरि:- 15वीं शती। कर्पूर प्रकर टीका, सिद्धहेमशब्दानुशासन लावृत्ति धर्मचन्द्रः सिन्दूरप्रकर टीका (1513), स्वात्मसम्बोध, कर्पूरमम्जरो सट्टक टीका हर्षकुञ्जरोपाध्याय।-- सुमित्र चरित्र (1535) विनयसागरोपाध्याय:- अविदपद-शतार्थी, नलवर्णन महाकाव्य (अप्राप्त), प्रश्नप्रबाण काव्यालंकार स्वोपज्ञ टीकासह (1667), राक्षस काव्य टीका, राघव पाण्डवीय काव्य टीका, विदग्धमुखमण्डन टीका (1669) उदयसागरः-- 17वीं शती । वाग्भटालंकार टीका आद्यपक्षीय शाखा:-- दयारल:-- न्यायरत्नावली (1626) 18वीं शती। आचारांग सूत्र टीका जिनचन्द्र सूरि:-- सुमतिहंस:-- 18वीं शती । कल्पसूत्र टीका 2. राजस्थान में रचित संस्कृत-साहित्य की सूची : लेखकों ने अपनी कृतियों के अन्त में रचना समय के साथ जहां रचना स्थान का निदश्च किया है उन कृतियों की सूची विषयवार एवं अकारानुक्रम से प्रस्तुत कर रहा हूं। इस सूची के निर्माण में मैने “जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास" जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास, जिनरत्न कोष और स्वसम्पादित "खरतरगच्छ साहित्य-सूची" आदि पुस्तकों का उपयोग किया है। विशेष शोध करने पर इस प्रकार की कई सूचियां तैयार की जा सकती हैं। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ का नाम का नाम गच्छ रचना स्वत रचना स्थान आगम-टीकाएं:-- बीकानेर रिणी 1. आचारांग सूत्र दीपिका , 2. उत्तराध्ययन सूत्र दीपिका : 3. उत्तराध्ययन सूत्र टीका 4. उत्तराध्ययन सूत्र टीका 5. उत्तराध्ययन सूत्र कथा संग्रह 6. कल्पसूत्र टीका कल्पलता 7. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र टीका 8. ज्ञाता धर्मकथा सूत्र टीका 9. तंदुलवेयालिय पयन्ना अवचूरि (संक्षेप) । 10. नन्दीसूत्र मलयगिरी टीकोपरि टीका 11. सूत्रकृतांगसूत्र दीपिका जिन हंससूरि चारित्रचन्द्र भावविजय वादी हर्षनन्दन पद्मसागर समयसुन्दरोपाध्याय महो. पुण्यसागर कस्तूरचन्द्र गणि विशालसुन्दर जिनचारित्रसूरि साधुरंग खरतर खरतर तपा. खरतर. तपा. खरतर, खरतर. खरतर. तपा. खरतर. खरतर. 1572 1723 1689 1711 1657 1685 1645 1899 1655 20वीं 1599 रोहिणीपुर (सिरोही) बीकानेर पीपाड रिणी जैसलमेर जयपुर नागौर बीकानेर बडल सैद्धान्तिक प्रकरण :-- जिनेश्वरसूरि प्र. जिनकुशलसूरि विजयसिंहसूरि क्षमाकल्याणोपाध्याय 12. चैत्यवन्दनक 13. चैत्यवन्दन कुलक टीका 14. जम्बूद्वीप समास टीका 15. जीवविचार प्रकरण टीका 16. प्रतिक्रमण हेतु 17. श्रावकधर्मविधि स्वोपज्ञ टीका 18. श्रावकधर्मविवि वृहद्वृत्ति 19. षट्स्थानक प्रकरण टीका 20. सम्बोधसप्ततिका टीका खरतर. खरतर. राजगच्छ खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. 1080 1383 1215 1850 19वीं 1317 1317 1262 1651 जालौर बाडमेर पाली बीकानेर बीकानेर जालौर जालौर श्रीमालपुर पाली जिनेश्वरसूरि द्वि. लक्ष्मीतिलकोपाध्याय जिनपालोपाध्याय गुणविनयोपाध्याय Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदेशिक प्रकरण :-- विजयसिंहमूरि 21. अष्टकप्रकरण टीका (हरिभद्रीय) जिनश्वरसूरि प्र. 22. उपदेशपद वृत्ति मुनिचन्द्रसूरि 23. उपदेशमाला टीका उपदेशमाला संस्कृत पर्याय शिवनिधानोपाध्याय ऋषिमण्डल प्रकरण अवचरि समयसुन्दरोपाध्याय 25. ऋषिमण्डल प्रकरण टीका पद्ममन्दिर गणि 27. ऋषिमण्डल प्रकरण टोका वादी हर्षनन्दन गणधरसार्द्धशतक लघुवृत्ति पद्ममन्दिर गणि 29. गुणमाला प्रकरण रामविजयोपाध्याय 30. गौतमपृच्छा टीका मतिवर्द्धन 31. दानप्रदीप चारित्रसुन्दरगणि 32. धर्मरत्नकरण्डक स्वोषज्ञ टीका सह 33. धर्मोपदेशमाला वृत्ति जयसिंहसरि 34. भवभावना स्वोपज्ञ टीका सह मलधारी हेमचन्द्रसूरि 35. भवभावना बालाववोव माणिक्यसुन्दर गणि 36. रूपकमाला अवचूरि समयसुन्दर 37. शीलोपदेशमाला टीका ललितकीर्ति 38. सूक्तिद्वात्रिंशिका विवरण राजकुशल 39. स्वप्न सप्तति टीका (जिनवल्लभीय) सर्वदेवसूरि वैधानिक, सैद्धान्तिक-प्रश्नोत्तर एवं चाचिक :-- खरतर. वृहद्गच्छ चन्द्रगच्छ खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. तपा. खरतर. 1080 1174 12वीं 1690 1662 1553 1704 1646 1817 1738 1499 1172 913-915 1170 1501 1663 1678 1650 1287. जालौर नागौर में प्रारंभ चन्द्रावती जोधपुर सांगानेर जैसलमेर बीकानेर जैसलमेर जैसलमेर जयतारण चितौड दायिका कप नागौर मेड़ता देवकूलपाटक बीकानेर लाद्रह जालौर जैसलमेर.. वर्द्ध 75 मलधारगच्छ तपा. खरतर. खरतर. तपा. खरतर. 1884 जयपुर जैसलमेर 40. प्रश्नोत्तर शतक 41. प्रश्नोत्तर सार्द्धशतक 42 यत्याराधना 43. विचार रत्न संग्रह (हुण्डिका) खरतर खरतर, स्वरतर, 1851 उम्मेदचन्द्र क्षमाकल्याणोपाध्याय समयसुन्दरोपाध्याय गुणविम्योपाध्याय ... 1685 16.5.7. रिणी खरतर सैरूणा Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44. 45. 46. विशेषशतक 47. 48. 49. 50. ग्रंथ का नाम विचारशतक विधि कन्दली स्वोपज्ञ टीका सह श्रावकव्रत कुलक श्रावक विधि प्रकाश 60. 61. 62. समाचारी शतक साध्वी व्याख्यान निर्णय काव्य - साहित्य तथा टीकादि 54. इन्दुदृत 55. 56. 57. 58. उपकेश शब्दव्युत्पत्ति उपमिति भवप्रपञ्चकथा कृष्णरुक्मिणी बेलि टीका खण्ड प्रशस्ति टीका 59. गौतमीय महाकाव्य गौतमीय महाकाव्य टीका चित्रकूट वोरचैत्य प्रशस्ति दमयन्तीकथा चम्पू टीका 63. देवानन्द महाकाव्य 64. नेमिदूत टीका 65. 66. 51. अभय कुमार चरित्र चन्द्रतिलकोपाध्याय 52. अष्टसप्तति ( चित्रकूटीय वीर चैत्य प्रशस्ति) जिनवल्लभसूरि 53. आचार दिनकर लेखन प्रशस्ति वादी हर्षनन्दन विनयविजयोपाध्याय श्रीवल्लभोपाध्याय कली नाम समय सुन्दरोपाध्याय नयरंग प्रद्युम्न लीला प्रकाश प्रश्न सर कषष्टितशत काव्य टीका समयसुन्दरीपाध्याय समयसुन्दरोपाध्याय क्षमाकल्याणोपाध्याय समयसुन्दरोपाध्याय जिनमणिसागरसूरि सिद्धर्षि श्रीसार गुणविनयोपाध्याय रामविजयोपाध्याय क्षमाकल्याणोपाध्याय चारित्रसुन्दर गणि गुणविनयोपाध्याय मेघविजयोपाध्याय गुणविनयोपाध्याय शिवचन्द्रोपाध्याय महो. पुण्यसागर गच्छ खरतर. खरतर . 1 खरतर. खरतर . खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर खरतर. तपा. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. तपा. खरतर. तपा.. खरतर. खरतर. खरतर. रचना संवत विक्रमी 1674 1625 1672 1683 1838 1672 2002 1312 1163 1669 1718 लगभग 1655 1962 1703 1641 1807 1855 1495 1646 1727 1644 1879 1640 रचना स्थान मेड़ता बीरमपुर मेडता बीकानेर जैसलमेर मेड़ता जयपुर बाडमर में प्रारम्भ चितौड़ जैसलमेर जो पुर बीकानेर भीनमाल बीकानेर फलवद्ध जोधपुर जैसलमेर चितौड़ सैरुणा सादडी बीकानेर जयपुर बीकानेर Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67. 68. भर्तृहरि शतक त्रय टीका 69. भावप्रदीप मातृका श्लोकमाला 70. 71. मूलराज-गुण-वर्णन समुद्रवन्वकाव्य मघदूत टीका 72. 73. रघुवंश टीका 74. 75. रघुवंश टीका रघुवंशटीका 76. 77. 78. 79. 80. 81. 82. 83. 84. 85. 86. 87. 88. 89. 90. 91. 92. फलवाद्धपाश्वनाथ महाकाव्य 93. लक्ष्मण विहार प्रशस्ति वस्तुपाल चरित्र काव्य विजय प्रशस्ति काव्य टीका विज्ञप्तिका विज्ञप्तिका विज्ञप्तिका विज्ञप्तिपत्र विज्ञप्तिज्ञप्तिपात्र पत्र विज्ञान चन्द्रिका विद्वत्प्रबोध वैराग्यशतक शान्तिनाथ जिनालय प्रशस्ति श्रीधर चरित्र महाकाव्य पभाषामय पत्र सम्भवजिनालय प्रशस्ति सूक्तिमुक्तावली स्वलिभद्र गणमाला काव्य कथा चरित्र :-- अम्बड चरित्र सहजकीति पाठक घनसार हेमरत्न श्रीवल्लभोपाध्याय शिवचन्द्रोपाध्याय विनयचन्द्र गुणरत्न गुणविनयोपाध्याय सुमतिविजय कीर्तिराज (कीर्तिरत्न सूरि ) जिनहर्ष गणि गुणविजय दयासिंह राजविजय लावण्यविजय समय सुन्दरोपाध्याय कमलसुन्दर क्षमाकल्याणोपाध्याय श्रीवल्लभोपाध्याय पद्मानन्द श्रावक जयसागरोपाध्याय माणिक्य सुन्दर रामविजयोपाध्याय सोमकुञ्जर जिनवर्धमानसूरि सूरचन्द्रापाव्याय क्षमाकल्याणोपाध्याय खरतर. उपकश. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर खरतर. तथा. तपा. खरतर. खरतर. तपा. खरतर. खरतर, खरतर, खरतर. खरतर. खरतर. अंचलगच्छ खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर 17 वा 1525 1638 1655 1861 1694 1676 1646 1698 1473 1497 17 at 1771 लगभग 1727 1709 लगभग 17 वीं 19 वीं 1859 17 वीं 12 वीं 1473 1463 1787 1497 1739 1680 1854 फलवद्ध जयपुर ( ? ) बीकानेर बीकानेर जैसलमेर राजद्रह जोधपुर बीकानेर बीकानेर जैसलमेर चितौड सिरोही रूपावास बीकानेर जोधपुर मेडता जयपुर जैसलमेर बलभद्रपुर (बालोतरा ) नागौर जैसलमेर दवकुलपाटक बेनातट ( बिलाड़ा) जैसलमेर उदयपुर सागानर पाली Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ का नाम कर्ता नाम गच्छ रचना संपत विक्रमी रवना स्थान 94. कथाकोष स्वोपज्ञ टीका सह 95. कालिकाचार्य कथा 96. कालिकाचार्य कथा 97. गुणवर्म चरित्र । 98. घन्यशालिभद्र चरित्र 99. पञ्चकुमार कथा 100. परमहंससंबोध चरित्र 101. पुण्यसार कथानक 102. मदननरिंद चरित्र 103. महावीर चरित्र टीका 104. मोहजीत चरित्र 105. यशोधर चरित्र 106. रत्नशखर कथा 107. रामचरित्र 108. शीलवती कथा 109. श्रीपल चरित्र टीका 110. श्रीपाल चरित्र 111. समरादित्यकेवली चरित्र उत्तरार्द्ध जिनेश्वरसूरि प्र. कनकसोम समयसुन्दरोपाध्याय माणिक्यसुन्दरसूरि पूर्णभद्रगणि लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय नयरंग विवेकसमुद्रोपाध्याय दयासागर समयसुन्दरोपाध्याय क्षेमसागर क्षमाकल्याणोपाध्याय जिनहर्ष गणि देवविजय गणि आज्ञासुन्दर क्षमाकल्याणोपाध्याय जयकीर्ति सुमतिवर्धन खरतर. खरतर खरतर. अंचलगच्छ खरतर. खरतर. खरतर खरतर. खरतर. खरतर, खरतर. खरतर. तपा. तपा. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. 1108 1632 1666 1484 1285 1746 1624 1334 1619 1684 1969 1839 15वीं 1652 1562 1869 1868 1874 डीडवाणा जैसलमेर वीरमपुर साचौर जैसलमेर रिणी बालपताकापुरी जैसलमेर जालौर लूणकरणसर कोटा जैसलमेर चितौड श्रीमालपुर काडिऊंपुर बीकानेर जैसलमेर अजमेर पर्व व्याख्यान -- 112. अष्टान्हिका व्याख्यान 113. कार्तिकी पूर्णिमा व्याख्यान 114. चातुर्मासिक व्याख्यान । क्षमाकल्याणोपाध्याय जयसार क्षमाकल्याणोपाध्याय खरतर. खरतर, खरतर. 1860. 1873 1835 जैसलमेर जैसलमेर पाटौदी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115. चातमासिक व्याख्यान 116. मरुत्रयोदशी व्याख्यान 117. मौनकादशी व्याख्यान 118. मौनकादशी व्याख्यान 119. सौभाग्यपञ्चमी कथा समयसुन्दरापाध्याय क्षमाकल्याणोपाध्याय जीवराज शिवचन्द्रोपाध्याय कनककुशल परतर. खरतर. खरतर. खरतर. तपा, 1bb0 1860 1847 1884 1665 अमरसर बीकानेर बीकानेर जैसलमेर मेडता स्तुति स्तोत्र :-- 79 120. चतुर्विशतिजिन स्तुति पंचाशिका रामविजयोपाध्याय 121. चैत्यवन्दन चतुर्विशतिका स्वोपज्ञ टीका सह क्षमाकल्याणोपाध्याय 122. जैसलमेर अष्टजिनालय स्तोत्र कनक कुमार 123. जैसलमेर पार्श्वजिन स्तव ज्ञानविमलोपाध्याय 124. जैसलमेर पार्श्वजिन स्तव तरुणप्रभाचार्य 125. जसलमेर पार्वजिन स्तुति साधुसुन्दर 126. जैसलमेर पार्वजिन स्तोत्र गुणविनयोपा याय 127. जैसलमेर पार्वजिन स्तोत्र जिनभद्रसूरि 128. जैसलमेर पार्वजिन स्तोत्र मेरुसुन्दरोपाध्याय 129. तिमरी ग्रामस्थ पार्श्व जिन स्तव जयसोमोपाध्याय 130. पार्वजिन स्तुति (महादण्डकछन्द) सहजकीर्ति उपाध्याय 131. पार्श्वनाथ नवग्रहगर्भित स्तोत्रावचूरि लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय 132. फलद्धिमण्डन पार्श्वजिन स्तव जिनप्रभसूरि 133. फलद्धिमण्डन पार्श्वजिन स्तव जिनप्रभसूरि 134. फलद्धिमण्डन पार्श्वजिन स्तव जिनप्रभसूरि 135. फलवद्धिमण्डन पार्श्वजिन स्तव जिनप्रभसूरि 136. फलद्धिमण्डन पार्वजिन स्तव मेझनन्दन 137. फलद्धिमण्डन पार्श्वजिन स्तोत्र गुणविनयोपाध्याय 138. फलद्धिमण्डन पार्श्वजिन स्तोत्र जिनकुशलसूरि खरतर. वरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. 1814 1856 1716 17वीं 14वीं 1683 17वीं 15वीं 16वीं 17वीं 1683 1738 14वीं 14वीं 14वों 14वीं बीकानेर नागपुर (नागौर) जैसलमेर जैसलमेर जैसलमेर जैसलमेर जैसलमेर जैसलमेर जैसलमेर तिवरी जैसलमेर बीकानेर फलवद्धि (मेडतारोड) 15वीं 17वीं 14वीं Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ का नाम कर्ता नाम गच्छ रचना संवत् विक्रमी रचनास्थान खरतर. खरतर 17वीं 1659 फलाद्ध जैसलमेर 139. फलद्धिमण्डन पार्श्वजिन स्तोत्र सूरचन्द्रोपाध्याय 140. भावारिवारण पादपूर्ति स्तोत्र स्वोपज्ञ टीका पद्मराज गणि सह 141. रुचितदण्डक स्तुति टीका पद्मराज गणि 142. लघुशान्तिस्तव टीका गणविनयोपाध्याय 143. विक्रमपुर आदीश्वर स्तोत्र धर्मवर्द्धन 144. विशाललोचन स्तुति टीका कनककुशल 145. शतदलकमलमय पार्वजिन स्तव सहजकीर्ति उपाध्याय 146. शाश्वतजिन स्तव टीका शिवनिधानोपाध्याय 147. सत्यपुरमण्डन महावीरजिन स्तव जिनवर्द्धनसूरि 148. सप्तस्मरण स्तोत्र टीका समयसुन्दरोपाध्याय 149. स्वर्णगिरि पार्वजिन स्तोत्र जिनरत्नसूरि प्र. 150. हरिभक्तामर कवीन्द्रसागरसूरि खरतर. खरतर. तपा. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. 1644 1659 18वीं 1653 1675 1652 जैसलमेर बैनातट (बिलाड़ा) बीकानेर सादड़ी लौद्रवा सांभर सांचौर जालौर जालौर मेड़तारोड 15वीं 1695 14वों 21वीं 80 न्याय-दर्शन:-- 151. तर्कसंग्रह टीका 152. प्रमाणवादार्थ 153. प्रमालक्ष्म स्वोपज्ञ टीका सह 154. षट्दर्शन समुच्चय टीका 155. सप्तपदार्थी टीका . कर्मचन्द्र यशस्वत्सागर जिनेश्वरसूरि प्र. सोमतिलकसूरि भावप्रमोद खरतर. तपा. खरतर. खरतर खरतर. 1824 1759 1080 1392 1730 नागौर संग्रामपुर (सांगानेर) जालौर आदित्यवर्द्धनपुर बैनातट (बिलाडा) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156. पंचग्रन्थी (बुद्धिसागर) व्याकरण 157. वेट्थपद विवेचन 158. सारस्वतानुवृत्यवबोधक 159. सिद्धान्तरत्नावली व्याकरण 160. हमलिंगानुशासन दुर्गपदप्रबोध टीका बुद्धिसागरसूरि समयसुन्दरोपाध्याय ज्ञानमेरु खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. 1080 1684 1667 1897 1661 जालौर बीकानेर डीडवाणा जयपुर श्रीवल्लभोपाध्याय जोधपुर कोष: 1 161. अभिधानचिन्तामणि नाममाला टीका 162. अभिधानचिन्तामणि नाममाला टीका 163. शब्दप्रभेद टीका 164. हैमनाममाला शेषसंग्रह टीका 165. हैमनाममाला शिलोग्छ टीका श्रीवल्लभोपाध्याय रामविजयोपाध्याय ज्ञानविमलोपाध्याय श्रीवल्लभोपाध्याय श्रीवल्लभोपाध्याय खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. 1667 1822 1654 1654 1654 जोधपुर कालाऊना बीकानेर बीकानेर नागौर छन्दःशास्त्रः वाडव 166. वृत्तरत्नाकर टीका 167. वृत्तरत्नाकर टीका अंचलगच्छ खरतर. .. समयसुन्दरोपाध्याय 15वीं 1694 विराटनगर जालोर . अलंकार: 168. काव्यप्रकाश नवमोल्लास टीका 169. पाण्डित्य दर्पण क्षमामाणिक्य उदयचन्द्र खरतर. खरतर. 1884 1731 राजपुर बीकानेर Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता नाम ग्रंथ का नाम मच्छ रचना संवत् विक्रमी रचना स्थान 170. रसिकप्रिया संस्कृत टीका 171. रसिकप्रिया टीका 172. विदग्धमुखमण्डन टीका समयमाणिक्या कुशलधीर शिवचन्द्र खरतर. खरतर. खरतर. 1735 1724 1699 जालिपुर जोधपुर अलवर आयुर्वेद : 173. पथ्यापथ्यनिर्णय दीपचन्द्र खरतर. 1792 जयपुर 67 ज्योतिषः 174 175 176 177 178 179. 180. 181. अंकप्रस्तार अवयदी शकुनावली जन्मप्रकाशिका ज्योतिष ज्योतिषसार दीक्षा प्रतिष्ठा शुद्धि महादेवी दीपिका लघुजातक टीका बसन्तराज शकुन टीका लाभवर्धन रायचन्द कीर्तिवर्द्धन हीरकलश समयसुन्दरोपाध्याय धनराज भवितलामोपाध्याय भानुचन्द्रगणि खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. खरतर. अंचल खरतर. तपा. 1761 1827 17वीं 1721 1685 1692 1571 17वीं नागपुर (नागोर) मेड़ता नागोर लणकरणसर पद्मावती पत्तन बीकानेर सिरोही Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . जैन मनीषियों द्वारा राजस्थान प्रदेश में सजित साहित्य-समृद्धि का इस लेख में यतकिंचित दिग्दर्शनमात्र हआ है। विशेष शोध करने पर उनके नये लेखक और अनेकों नवीन कृतियां प्रकाश में आ सकती हैं। अतः विद्वानों का कर्तव्य है कि राजस्थान के लेखकों और उनके कृतित्व पर शोध कर नतन जानकारी साहित्यिक जगत को दें। परिशिष्ट राजस्थान प्रदेश म उत्पन्न दो जनेतर साहित्यकारों को भी इस प्रसंग पर मुलाया नहीं जा सकता। एक हैं-पं. नित्यानन्द जी शास्त्री और दूसरे हैं श्री गिरिधर शर्मा। ____ 1. पं. नित्यानन्द शास्त्री:-प्रतिभा सम्पन्न आशुकवि और संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। जातितः दाधीच ब्राह्मण थे और थे जोधपुर के निवासी। शायद दो दशक पूर्व ही इनका स्वर्गवास जोधपुर में हआ है। पचासों जैन मन्दिरमार्गी साध-साध्वियों के ये शिक्षा गरु रहे हैं। जैन न होते हए भी जैन-दर्शन और जैनाचार्यों के प्रति इनकी प्रगाढ श्रद्धा थी। यही कारण है कि इनके बनाये हए कुछ महाकाव्य जैन साध-साध्वियों से संबन्धित प्राप्त होते हैं। (क) पुण्यश्री चरित महाकाव्य:-यह अठारह सर्गों का काव्य है। इसमें खरतरगच्छीया प्रवर्तिनी साध्वी श्री पुण्यश्रीजी का जीवन चरित्रगं फित है। इसकी हिन्दी भाषा में "तात्पर्यबोधिनी" नाम की टीका नित्यानन्दजी के बड़े भाई विद्याभषण पं. भगवतीलाल शर्मा (प्रथमाध्यापक, वैदिक पाठशाला, जोधपुर) ने बनाई है। सं. 1967 की लिखित इसकी हस्तप्रति प्राप्त है। (ख) श्री क्षमाकल्याण चरित:-इस काव्य में महोपाध्याय श्री क्षमाकल्याणजी के जीवन-चरित्र का आलेखन है। ___मेरी स्मृति के अनुसार श्री नित्यानन्दजी ने जैनाचार्यों पर दो लघुकाव्य और एक चित्र काव्य की और भी रचना की थी। 2. पं. गिरिधर शर्मा:-महामहोपाध्याय, साहित्यवाचस्पति, राजकवि श्री गिरिधर शर्मा झालरापाटन के निवासी थे। इनका भी स्वर्गवास इन दो दशकों के मध्य में ही हुआ है । संस्कृत और हिन्दी के प्रौढ़ विद्वान् थे। इनकी दो जैन रचनायें प्राप्त हैं: मक्तामर स्तोत्र पादपूर्ति कल्याणमन्दिर स्तोत्र पादपूति यह दोनों ही पादपूर्तियां अन्तिम चरणात्मक न होकर चारों ही पाद पर की गई हैं। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार 3. --मुनि गुलाबचन्द्र निर्मोही जैन परम्परा में भी संस्कृत साहित्य का प्राचुर्य है। जैन आगमों तथा तत्सम ग्रन्थों की गाषा मूलतः प्राकृत, अर्धमागधी अथवा शौरसेनी रही है। आगमोत्तर साहित्य की अधिकांश चीन रचनाएं भी प्राकृत में हुई है किन्तु जनरुचि को देखते हुए जैनाचार्यों ने संस्कृत को भी प्राकृत के समकक्ष प्रतिष्ठा प्रदान की। जिस समय वैदिक साहित्य और संस्कृति का व्यापक प्रभाव समाज में बढ़ने लगा तथा शास्त्रार्थ और वाद-विवाद के अनेक उप-क्रम होने लगे तब जैन आचार्यों ने भी संस्कृत को अधिक महत्व देना प्रारम्भ किया। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और हरिभद्र के ग्रन्थ इसके परिणाम कहे जा सकते हैं। यह समय ईसा की दूसरी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक का है। आठवीं शताब्दी के पश्चात् जैन संस्कृत साहित्य की रचना के मूल में यहां की राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति ने अधिक काम किया है। जैन आचार्यों को संस्कृत साहित्य के निर्माण में जिन कारणों से प्रेरणा प्राप्त हुई, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं: 1. जैन धर्म के मौलिक तत्वों का प्रसार । 2. आप्त पुरुषों तथा धार्मिक महापुरुषों की गरिमा का बखान 3. प्रभावी राजा, मन्त्री या अनुयायियों का अनुरोध उक्त कारणों के अतिरिक्त एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि अनेक जैन आचार्य मूलतः ब्राह्मण थे। अतः बचपन से ही संस्कृत उन्हें विरासत के रूप में प्राप्त हुई थी। उस विरासत से अपनी प्रतिभा को और अधिक विकसित करने के लिए साहित्य सर्जन का माध्यम उन्होंने संस्कृत को चुना। जैन साहित्य का प्रवाह ईसा की दूसरी शताब्दी से प्रारम्भ हुआ और चौदहवीं शताब्दी तक निरन्तर चलता रहा। पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के संस्कृत ग्रन्थों में रचना स्थल का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। सतरहवीं और अठारवीं शताब्दी म संस्कृत में प्रचुर साहित्य लिखा गया। उन्नीसवीं शताब्दी में जैन विद्वानों द्वारा लिखित संस्कृत बहुत कम प्राप्त है । तेरापंथ का संस्कृत साहित्य मुख्यतः नौ भागों में विभक्त किया जा सकता है: 1. व्याकरण, 2. दर्शन और न्याय, 3. योग, 14. महाकाव्य (गद्य-पद्य) 5. खण्ड काव्य (गद्य-पद्य), 6. प्रकीर्णक काव्य, 7. संगीत काव्य, 8. स्तोत्र काव्य, 9. नीति काव्य । व्याकरणः भिक्षु शब्दानुशासन की रचना राजस्थान के 'थली प्रदेश म वि. सं. 1980 से 1988 के बीच हुई। तेरापंथ के आठवें आचार्य श्री कालगणी का व्याकरण विषयक अध्ययन बहुत विशद था। मुनि चौथमल जी का अध्ययन अधिकांशतः कालूगणी के सानिध्य में सम्पन्न हा। उन्होंने आगम, साहित्य, न्याय, दर्शन, व्याकरण, कोश आदि विविध विषयों का गहन अध्ययन किया । व्याकरण उनका सर्वप्रिय विषय था । उन्होंने पाणिनीय, जैनेन्द्र, शाकटायन, हेमशब्दानुशासन, सारस्वत, सिद्धान्त चन्द्रिका, मुग्धबोध, सारकोमुदी आदि अनेक व्याकरण ग्रन्थों का गंभीर मनन किया। आचार्य श्री कालूगणी की भावना थी कि एक समयोपयोगी सरल और सुबोध संस्कृत व्याकरण तैयार हो ताकि संस्कृत के विद्यार्थियों के लिय सुविधा हो सके । क्योंकि उस समय उपलब्ध व्याकरणों में सारस्वत चन्द्रिका बहुत अधिक संक्षिप्त थी। सिद्धान्त-कौमुदी वार्तिक फक्किका आदि की अधिकता के कारण जटिल थी । हेमशब्दानुशासन की रचना-पद्धति कठिन थी। इस प्रकार एक भी ऐसा व्याकरण मन्थ उपलब्ध Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं था जिसे सहज और सुगम माना जा सके। मुनि चौथमल जी ने आचार्य श्री कालूगणी की भावना को साकाररूप दिया और आठ वर्षों के अनवरत परिश्रम से तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक प्राचार्य भिक्षु के नाम से क्लिष्टता, विस्तार, दुरन्वय आदि से रहित एक सर्वाग सन्दर व्याकरण तैयार किया। इसमें उणादिपाठ, धातुपाठ, न्यायदर्पण, लिंगानुशासन आदि का भी सुन्दर समावेश है । इस महान कार्य में सोनामाई (अलीगढ़) निवासी आशकविरत्न पं. रघनन्दन शर्मा आयुर्वेदाचार्य का भी मूल्यवान सहयोग रहा। दर्शन और न्यायः जैन तत्व दर्शन, जीव विज्ञान; 'पदार्थ विज्ञान, आचार शास्त्र; मोक्ष मार्ग, प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तमंगी, स्यादवाद आदि विषयों के निरूपण के लिए तीसरी शताब्दी में आचार्य उमास्वाति ने सर्वप्रथम तत्वार्थ सत्र की रचना की। इसे 'मोक्षशास्त्र' भी कहा जाता है। यह ग्रन्थ दिगम्बर और श्वेताम्बरों को समान रूप से मान्य है। इस पर सिद्धसेन, हरिमद्र, पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द, उपाध्याय यशोविजय आदि उच्चकोटि के जैन विद्वानों न टीकाएं लिखी हैं। जैन दर्शन साहित्य का विकास तत्वार्थ सूत्र को केन्द्रीभत मानकर ही हुआ है। तत्वार्थ सूत्र की गहनता को प्राप्त करना हर एक के लिए संभव नहीं है। आचार्य श्री तुलसी ने दर्शन विषयक "जैन सिद्धान्त दीपिका" और न्याय विषयक "भिक्ष न्याय कणिका" की रचना करके जैन दर्शन और न्याय के अध्येताओं के लिए सरल, सुबोध और मल्यवान सामग्री प्रस्तुत की है। मनि नथमल जी ने हिन्दी भाषा में उसकी विस्तत व्याख्या लिखी है। "जैन दर्शनः मनन और मीमांसा" के नाम से यह स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में भी प्रकाशित है। इससे जैन दर्शन के अध्ययनशील विद्यार्थी बहत लाभान्वित हए हैं। जैन सिद्धान्त दीपिका की रचना वि. सं. 2002 में वैशाख शक्ला 13 के दिन चरू (राजस्थान) में सम्पन्न हुई। यह नौ प्रकाशों में रचित है। पहले प्रकाश में द्रव्य, गुण और पर्याय का निरूपण है। दूसरे प्रकाश में जीव विज्ञान का निरूपण है। तीसरे प्रकाश में जीव और अजीव के भेदों का निरूपण है। चौथे प्रकाश में बन्ध पण्य और आस्रव के स्वरूप का निरूपण है। पांचवें प्रकाश में संवर, निर्जरा और मोक्ष के स्वरूप का निरूपण है। छते प्रकाश में मोक्ष मार्ग का विश्लषण है। सातवें प्रकाश में जीवस्थान (गणस्थान) का निरूपण ह। आठवें प्रकाश में देव, गुरू और धर्म का निरूपण है। नौतें प्रकाश में निक्षेप का निरूपण है। इसकी कुल सूत्र संख्या 266 है। इसके सम्पादक और हिन्दी भाषा में अनवादक मनि नथमल जी हैं। भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने समान रूप से इसकी उपयोगिता स्वीकार की है। एक फ्रेंच महिला ने जैन सिद्धान्त दीपिका पर पी.एच.डी. भी किया है। मिक्ष न्याय कणिका की रचना वि. सं. 2002 में भाद्र शक्ला 9 के दिन डूंगरगढ़ (राजस्थान) में सम्पन्न हई है। यह सात विभागों में ग्रथित है। पहले विभाग में लक्षण और प्रमाण के स्वरूप का निरूपण है। दूसरे विभाग में प्रत्यक्ष के स्वरूप का निरूपण है। तीसरे विभाग में मति के स्वरूप का निरूपण है। चौथे विभाग में श्रत के स्वरूप का निरूपण है । पांचवें विभाग में नय के स्वरूप का निरूपण है। छठे विभाग में प्रमेय और प्रमिति के स्वरूप का निरूपण है। सातवें विभाग में प्रमाता के स्वरूप का निरूपण है। इसकी कुलसूत्र संख्या 137 है। इसके सम्पादक मुनि नथमल जी और हिन्दी भाषा म अनुवादक साध्वी प्रमुखा कनकप्रमाजी व साध्वी मंजुलाजी हैं। इनके अतिरिक्त मनि नथमल जी (बागोर) ने न्याय और दर्शन के क्षेत्र में “यक्तिवाद और अन्यापदेश" नामक ग्रन्थ का निर्माण किया है। तथा मनि नथमल जी ने 'न्याय पंचाशति की रचना की है। किन्तु ये सब अप्रकाशित हैं। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग: तत्वदर्शन की तरह साधना पद्धति क क्षेत्र में जैन आचार्यों न काफी गहराई का स्पर्श किया है। प्रत्येक धर्म का अपना स्वतन्त्र साध्य होता है और उसकी सिद्धि के लिए उसी के अनकल साधना पद्धति होती है। महर्षि पतंजलि ने सांख्यदर्शन की साधना पद्धति को व्यवस्थित रूप दिया और “योग" नाम से एक स्वतन्त्र साधना पद्धति विकसित हो गई। अब हर साधना पद्धति योग नाम से अभिहित होती है। इसी प्रकार जैन साधना पद्धति को जैन "योग और बौद्ध साधना पद्धति को बौद्ध योग कहा जाने लगा। जैन साधना पद्धति की स्वतन्त्र संज्ञा भी है जिसे मोक्ष मार्ग कहा जाता है । जैन योग पर सम्यग प्रकाश डालने वाले अनेक ग्रन्थ जैन आचार्यों द्वारा लिखे जा चुके हैं, जिनमें समाधितन्त्र, योग-दष्टि-समच्चय, योगबिन्द्र, योगशास्त्र, योग विद्या, अध्यात्मरहस्य ज्ञानार्णव, योग चिन्तामणि. योग दीपिका आदि प्रमख हैं। आचार्य श्री तुलसी द्वारा 'मनोनशासनम' की रचना वि.सं. 2018 में धवल समारोह के अवसर पर हई थी। इसके सात प्रकरण हैं। इसका रचनाक्रम सुत्र रूप में है। इसके पहले प्रकरण में योग का विस्तृत निरूपण है। दसरे प्रकरण में मन की अवस्थाओं का निरूपण है। तीसरे प्रकरण में ध्यान, आसन, भावना आदि का प्रतिपादन है। चौथे प्रकरण में ध्यान क प्रकार, धारणा, विपश्चना, लेश्या आदि का विवेचन है। पांचवें प्रकरण में वाय के प्रकार और उनकी विजय का निरूपण है। छठे प्रकरण में महाव्रत, श्रमणधर्म, संकल्प, जय आदि का निरूपण है। सातवें प्रकरण में जिनकल्प की पांच भावनाओं-प्रतिमाओं का प्रतिपादन है। इसकी कुल सूत्र संख्या 170 है। इसके हिन्दी अनुवाद और व्याख्याता मुनि नथमल जी हैं। व्याख्या से जैन साधारण के लिए ग्रन्थ की उपयोगिता बढ़ गई है। मनोनुशासनम के उपरान्त भी योग प्रक्रिया को विश्लेषण पूर्वक समझाने के लिए एक और ग्रन्थ की आवश्यकता अनमव की गई। उसकी पति सम्बोधि द्वारा की गई। सम्बोधि शब्द सम्यग्ज्ञान, सम्यगदर्शन और सम्यगचारित्र को अपने में समेटे हए है। सम्यगदर्शन के बिना ज्ञान अज्ञान बना रहता है और चारित्र के अभाव में ज्ञान और दर्शन निष्क्रिय रह जाते हैं। आत्मदर्शन कालय तीनों का समान और अपरिहार्य महत्व है। इस दष्टि से ही इसका नाम सम्बोधि रखा गया है। सम्बोधि मुनि नथमल जी को श्लोकबद्ध कृति है। इसमें आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग भगवति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा. प्रश्न व्याकरण. दशाश्रत स्कन्ध आदि आगमों के सार संग्रहीत है। इसकी शैली गीता के समान है। गीता के तत्वदर्शन म ईश्वरार्पण का जो माहात्म्य है, वही माहात्म्य जैन दर्शन में आत्मार्पण का है। जैन दर्शन के अनसार आत्मा ही परमात्मा या ईश्वर है। गीता का अर्जुन कुरुक्षेत्र की यद्ध ममि में कायर होता है तो सम्बोधि का मेषकुमार साधना का समरभूमि में कायर होता है। गीता के संगायक कृष्ण हैं तो सम्बोधि के संगायक महावीर हैं। कृष्ण का वाक संबल प्राप्त कर अर्जन का पुरुषार्थ जाग उठता है तो महावीर की वाक् प्रेरणा से मघकुमार की मछित चेतना जागत हो जाती है। मेघकूमार न जो प्रकाश पाया उसी का व्यापक दिग्दर्शन सम्बोधि में ह। सम्बोधि का हिन्दी अनुवाद मनि मिठठालाल जी ने किया है और इसकी विशद व्याख्या मुनि शुभकरण जी और मनि दूलहराज जी ने की है। इसका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। इसके सोलह अध्याय हैं। उनमें से पहले आठ अध्यायों की रचना वि.सं. 2012 में महाराष्ट्र में तथा शेष आठ अध्यायों की रचना वि.सं. 2016 में कलकत्ता में हई। इसकी कूल श्लोक संख्या 702 है । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाकाव्य (गद्य-पद्य) जैन मनोषियों न संस्कृत भाषा में काव्य रचना के द्वारा अपनी प्रतिभा का पर्याप्त चमत्कार प्रस्तत किया है। काव्य के लिए संस्कृत भाषा का प्रयोग करने वाले जैन विद्वानों में आचार्य समन्तभद्र का नाम अग्रणी माना जाता है। उन्होंने अनेक स्तोत्र काव्यों की रचना की। यह क्रम विकसित होता हुआ क्रमशः सातवी शताब्दी तक चरित काव्य और महाकाव्य तक पहुंच गया है। संस्कृत भाषा के जैन महाकाव्यों में वरांगचरित, चन्द्रप्रभचरित, वर्धमानचरित, पाश्वनाथचरित, प्रद्युम्नचरित, शान्तिनाथचरित, धर्मशर्माभ्युदय, नेमि निर्वाण काव्य, पद्मानन्द महाकाव्य, भरतबाहुबलि महाकाव्य, जैन कुमार संभव, यशोधर चरित, पांडवचरित, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित आदि की गणना प्रमुख रूप से की जा सकती है। माहकाव्यों की यह परम्परा बीसवीं शताब्दी में और अधिक वृद्धिगत हुई। तेरापंथ धम संघ में इस दिशा में एक नया उन्मेष आया और विगत दो दशकों में जो काव्य रचना हई उसमें तीन महाकाव्यों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं: (1) अभिनिष्क्रमणम्। (2) श्री तुलसी महाकाव्यम्, (3) श्री भिक्षु महाकाव्यम् 3. 1. अभिनिष्क्रमणम्:-चन्दन मुनि द्वारा रचित आचार्य भिक्षु के जीवन का एक महत्व पूर्ण घटना वृत्त है। संस्कृत महाकाव्य के कुछ स्वतन्त्र मापदंड हैं। प्रस्तुत कृति में उनका सम्यग निर्वहन हुआ है। इसकी शलो गद्यात्मक है, रचना में प्रौढता है और शब्दों में ओज। यत्र-तत्र वाक्यों का विस्तृत, सालंकार तथा उक्ति वोचत्रय पूर्ण कलवर संस्कृत के प्राचीन गद्य-पथ लेखकों की कृतियों का स्मरण करा देता ह। विद्वानों का दाष्ट में प्रस्तुत काव्य में भाव प्रवणता जहां चरम उत्कर्ष पर पहुंची है, वहां विचार गरिमा मी सागर की अतल गहराइयों से जा मिली है। इसमें तत्व, प्रकृति, ऋतु, मनोभाव आदि का मार्मिक विवेचन हुआ है। स्थान-स्थान पर लोक व्यवहार क उपयोगी तथ्यों का भी विश्लेषण हुआ है। एक स्थान पर काव्यकार न लिखा हैहन्त! अनवसरे अमृतमपि विषायते, विषमप्यवसर-प्रयुक्त-ममतमतिरिच्यते। एकमेव वस्त महद्धस्तोपढौकितं सन्महय॑त्वमालिगति, बहुमूल्यरत्नमाप कोलटनेयकरकोडस्थं शतमूल्यमपि । अवसर प्रयुक्तभेकमपि सूक्तं स्वात्या शुक्तिगत पानायपुषदिव मौक्तिकतामाराधयद सेवते सार्वभौमानां मंजुलमौलिकुमुटान । इस काव्य के सत्रह उवास। इसकी रचना तेरापंथ द्विशताब्दी के अवसर पर, वि. सं. 2017 में कांकरोली (राजस्थान) म हुई। इसका हिन्दी भाषा में आवाद मनि मोहन लाल जी "शादल" ने किया तानमा पेनाससानिया विश्वविद्यालय (अमरोका) के संस्कृत प्राध्यापक डा. लूडो रोचर ने लिखी है। 2. श्री तुलसी महाकाव्यम्:-. रघुनन्दन शर्मा आयुवदाचार्य को काव्य-कति है। इसम "आचार्य श्री तलसी के जीवन दर्शन का समग्रता से विश्लेषण हुआ है। तेरापंथ के संघाधिनायक के रूप में आचार्य श्री के यशस्पो जीवन के पचीस वर्षों को परिसम्पन्नता पर श्रद्धालओं ने अपना शक्तिभर अर्ध्य चढाया। पंडितजो आचार्य के श्रद्धालु भक्त थे अतः प्रस्तत कृति उसी अर्ध्य प्रस्तुतीकरण का एक अंग है। पंडितजी में कवित्व की अद्भुत क्षमता थी। कविता उनकी सहचरी क रूप म नहीं, अपिन अवरो के रूप में प्रकट हई-इस प्रतिपत्ति में विसंगति का लेश भी नहीं है। अत्यन्त ऋज और अकृत्रिम व्यक्तित्व के धनी पंडितजी में एक छलांग में ही महाकाव्य के गगन-स्पर्शी प्रासाद पर Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरूढ़ होने की क्षमता थी। पंडितजी प्रच्छन्न कवि थे, वे ख्याति और प्रसिद्धि से विरत थे। अतः उनको विशेषताएं प्रच्छन्न ही रहों। प्रस्तुत काव्य में रस, अलंकार, भाव, भाषा आदि सभी दृष्टियों से पंडितजी के वैदग्ध्य की स्पष्ट झलक है। उन्होंने आधनिक शब्दों, रूपकों और उपमाओं का प्रयोग करके संस्कृत भाषा को पुनरुज्जीवित करने का प्रयत्न किया है। पंडित जी की शब्द-संरचना प्रसाद गुण सवलित है। पंडितजी जन्मना आश कवि थे। अतः उन्हें सहज और सानुप्रास काव्य रचना का अभ्यास था। गंभीर और गढ भावों को सरस और सरल पदावली में रखने की उनकी अद्भुत क्षमता थी। उनकी यह विशेषता इस महाकाव्य में यत्र-तत्र दष्टिगोचर होती है।।पंडितजी को कल्पना-प्रसू संगीति का सहारा पाकर वस्तु सत्य वास्तव में ही वस्तुसत्य के रूप में उभरा है। Me प्रस्तुत महाकाव्य के पच्चीस सर्ग है जिनकी रचना वि.सं. 2018 में धवल समारोह के अवसर पर हुई। इनमें स्थान-स्थान पर कवि के उत्कृष्ट शब्द-शिल्पित्व का चित्र प्रस्तुत होता है। आचार्यश्री का जन्म, जो जागतिक अध्यात्म अभ्युदय की एक उल्लेखनीय घटना थी, का बहुत ही भावपूर्ण शब्दों में चित्रण किया गया है। इसके अध्ययन से जीवन-दर्शन, तत्वदर्शन, इतिहास एव परम्पराओं का समीचीन बोध होता है। इसका हिन्दी अनवाद छगनलाल शास्त्री ने किया 3. श्री भिक्षु महाकाव्यः-मुनि नथमलजी (बागोर) द्वारा रचित तेरापंथ के आद प्रवर्तक आचार्य भिक्षु के जीवन-दर्शन पर प्रकाश डालने वाला चरित काव्य है । इसकी शैली पद्यात्मक है। काव्यकार स्वयं प्रौढ संस्कृतज्ञ होने के कारण इसकी शब्द-संकलना भी प्रौढ और भावपूर्ण है। राजस्थान की अरावली की घाटियों का वर्णन इसमें बहत सजीव और प्राणवान है। महाकाव्य के लक्षणों से यह परिपूर्ण है। इसके 18 सर्ग हैं। इसकी यथेष्ट प्रसिद्धि और पठनपाठन न होने का मुख्य कारण यही है कि यह काव्य अब तक अप्रकाशित है। इसकी रचना तेरापंथ द्विशताब्दी के अवसर पर वि. सं. 2017 में हुई। खण्ड काव्य (गद्य-पद्य): महाकाव्यों की परम्परा के समानान्तर खण्ड काव्यों की परम्परा भी बहुत प्राचीन रही है। गद्य और पद्य-दोनों ही शैलियों में इनकी रचना हई है। जैन आचार्यों और विद्वानों ने भी इस परम्परा को पर्याप्त विकसित किया है। विगत दशकों में तेरापंथ धम-संघ में भी इस काव्य परम्परा का इतिहास बहुत वर्धमान रहा है। प्रभव-प्रबोव काव्य, आर्जुन-मालाकारम्, अश्रुवीणा, रत्नपालचरित्रम्, प्राकृत-काश्मीरम् आदि काव्य इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। 1. प्रभव प्रबोधकाव्यम् :-चन्दनमुनि द्वारा रचित आर्य जम्बू के जीवन चरित से सम्बन्धित एक विशेष घटना क्रम को प्रकाशित करता है। प्रभव राजकुमार भी था और चोरों का सरदार भी। उसने जम्बूकुमार को त्यागवृत्ति से प्रभावित होकर प्रव्रज्या स्वीकार की। अर्थ और काम की मनोवृत्ति का उद्वेलित करने वाला यह एक रोचक प्रसंग है। कया वस्तु की रोचकता को काव्यकार के भाव-प्रधान रचना सौष्ठव न और अधिक निखार दिया है। इस गद्य काव्य के नौ प्रकाश हैं। इसकी सम्पूर्ण रचना वि. सं. 2008 के ज्येष्ठ मास में गुजरात प्रान्त के जामनगर शहर में हुई। मुनि दुलहराज जो न इसका हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है । इसकी भाषा जितनी प्रौढ और अस्खलित है, अनुवाद भी उतना ही अस्खलित और प्रांजल है। 2. आर्जुनमालाकारम्:-चन्दनमुनि द्वारा रचित गद्य काव्य है । जैन कथा साहित्य में अजुनमाली एक कथानायक रूप में बहत प्रसिद्ध है । इसकी भाषा में प्रवाह, शैली में प्रसाद और शब्दों में सुकुमारता है। स्वतन्त्र सरिता की तरह इसकी वाग् धारा अस्खलित और अप्रतिबद्ध है। साहित्यिक दृष्टि से यह रचना अत्यन्त प्रशान्त कही जा सकती है । इसकी सरल Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 और सुबोध शब्दावली से संस्कृत के विद्यार्थी बहुत लाभान्वित हो सकते हैं । इसके छोटे वाक्यों में भी पर्यात भाव- गांभीर्य है । प्रस्तुत काव्य सात समुच्छ्वासों में रचित है । इसके हिन्दी अनुवादक छोनल चौपडा हैं । इसकी रचना वि. सं. 2005 के ज्येष्ठ मास में हुई है । 3. अश्रवीणा : --मुनि नथमलजी द्वारा मन्दाक्रान्ता छन्द में रचित सौ श्लोकों का खण्ड काव्य है । यह काव्य भतृहरि आदि विश्रुत कवियों द्वारा रचित काव्यों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम है। इस काव्य में एक और जहां शब्दों का वैभव है, वहां दूसरी अर्थ की गम्भीरता है । इसमें शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों एक दूसरे से बढे - चढे हैं । काव्यानुरागियों, तत्वजिज्ञासुओं तथा धर्म के रहस्य को प्राप्त करने को आकांक्षा वालों के लिये यह समान रूप से समादरणीय है । इस काव्य को कथावस्तु जैन आगमों से ग्रहण की गई है । भगवान् महावीर ने तेरह बातों का घोर अभिग्रह धारण किया था । वे घर-घर जाकर भी भिक्षा नहीं ले रहे थे क्योंकि अभिग्रह पूर्ण नहीं हो रहा था । उधर चन्दनबाला राजा की पुत्री होकर मी अनेक कष्टपूर्ण स्थितियों में से गुजर रही थी । उसका शिर मंडित था । हाथों-पैरों म जंजीरें थी । तीन दिनों को भूखी थी । छाज के कोने में उबले उड़द थे। इस प्रकार अभिग्रह की अन्य सारी बातें तो मिल गई किन्तु उसकी आंखों में आंसू नहीं थे । महावीर इस एक बात की कमी देखकर वापस मुड गए । चन्दनबाला का हृदय दुःख से भर गया । उसको आंखों में अश्रुधार बह चली । उसने अपने अश्रु प्रवाह को दूत बनाकर भगवान् को अपना सन्देश भेजा । भगवान् लौटे और उसके हाथ से उड़द ग्रहण किए । अश्रुप्रवाह के माध्यम से चन्दनबाला का सन्देश ही प्रस्तुत काव्य का प्रतिपाद्य है । इसकी रचना वि. सं. 2016 में कलकता प्रवास के अवसर पर हुई। इसका हिन्दी अनुवाद मुनि मिट्ठालाल जी द्वारा किया गया है । 4. रत्नपाल चरित्रम् — जैन पौराणिक आख्यान पर मुनि नथमल जी द्वारा रचित पद्यमय खण्ड काव्य है । पांच सर्गों में निबद्ध प्रस्तुत काव्य में कथानक को अपेक्षा कल्पना अधिक है । सहज शब्द - विलास के साथ भाव प्रवणता को लिये प्रस्तुत काव्य संस्कृत-भारती को गरिमान्वित करने वाला है । इसकी सम्पूर्ति वि. सं. 2002 में श्रावण शुक्ला 5 के दिन डूंगरगढ में हुई थी । इसका हिन्दी अनुवाद मुनि दुलहराज जी द्वारा किया गया है । खण्ड-काव्यों की परम्परा में उक्त काव्यों के संक्षिप्त परिचय के अनन्तर और भी अनेक काव्य हैं जिनका परिचय अवशिष्ट रह जाता है । संस्कृत विद्यार्थियों के लिये उनक अध्ययन का स्वतन्त्र महत्व है अतः उनमें से कुछ एक का नामोल्लेख करना आवश्यक और प्रासंगिक होगा । 1. पाण्डवविजयः 2. रौहिणेयः 3. माथेरान सुषमा माव-भास्कर काव्यम 5. बंकचल चरित्रम 4. 6. कर्बुर काव्यम् मुनि डंगरमलजी मुनि बुद्धमल्लजी मुनि नगराजजी धिरजी 'द्वितीय' मुनि कन्हैयालालजी मुनि मोहनलालजी 'शार्दू ल' ज्योति स्पलिंगा:-- चन्दन मुनि द्वारा रचित भाव प्रधान गद्य कृति है । कृतिकार का भावोद्वेलन वाणी का परिधान प्राप्त कर 56 विषयों के माध्यम से वाङ्मय के प्रांगण में उपस्थित हुमा है । सहज हृदय से निःसृत निर्व्याजभाव राशि में अकृत्रिम लावण्य के दर्शन होते हैं । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 इस भावोद्वलन में मात्र भावनात्मक उल्लास ही नहीं अपितु सत्कर्म और सदाचरण की पगडंडियां भी अंकित हैं। इसकी रचना वि. सं. 2020 में बम्बई प्रवास में हुई थी। 2. तुला-अतुला:-मुनि नथमलजी द्वारा समय-समय पर आशुकवित्व, समस्यापूर्ति तथा अन्य प्रकार के रचित स्फुट श्लोकों का संग्रह है । प्रस्तुत कृति के पांच विभाग हैं। इसका हिन्दी भाषा में अनुवाद मुनि दुलहराज जी ने किया है । मुकुलम:-मुनि नथमलजी द्वारा रचित संस्कृत के लधु निबन्धों का संकलन है । इसमें प्रांजल और प्रवाहपूर्ण भाषा में छात्रोपयोगी 49 गचों का संकलन है । इसका विषयनिर्वाचन बड़ी गहराई से किया गया है । इसमें वर्णानात्मक और भावात्मक विषयों के साथ संवेदनात्मक विषयों का भी सन्धान किया गया है । प्रस्तुत कृति ज्ञान और अनुभव दोनों के विकास में सहयोगी बन सकती है । इसकी रचना वि. सं. 2004 में पडिहारा (राजस्थान) में हुई थी । मुनि दुलहराजजी ने इसका हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है । उत्तिष्ठत! जाग्रत ! :-मुनि बुद्धमल जी द्वारा लिखित 71 लघु निबन्धों का संग्रह है । प्रस्तुत निबन्धों में दढ निश्चय, अट आत्म-विश्वास, गहरी स्पन्दनशीलता और अप्रतिम उदारता की भावनाएं प्रस्फुटित हुई हैं । साहित्य में हृदय की आवाज होती है । अतः वह सीधा हृदय का स्पर्श करता है । कुछ मानसिक कुंठाएं इतनी गहरी होती हैं कि जिन्हें तोडना हर एक के लिये सहज नहीं होता किन्तु साहित्य के माध्यम से वे अनायास ही टूट जाती हैं । प्रस्तुत कृति मानसिक कुंठाओं के घेरे को तोड़ कर आशा की आलोक रश्मि प्रदान करने में समर्थ बनी है। इसकी रचना वि. सं. 2006-7 के बीच की है। इसका हिन्दी भाषा में अनुवाद मुनि मोहनलाल जी'शार्दल' ने किया है। दिल्ली से प्रकाशित होने वाले 'साप्ताहिक f में ये निबंध क्रमशः प्रकाशित होचके हैं। राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा यह कृति स्नातकीय (बी. ए. आनर्स) पाठ्यक्रम में स्वीकृत की गई है । संस्कृत भाषा में महाकवि जयदेव का 'गीतगोविन्द' तथा जैन-परम्परा में उपाध्याय विनयविजय जी का 'शान्त-सुधारस' प्रसिद्ध संगीत-काव्य है । संगीत काव्यों की परम्परा को तेरापंथ के साधु-साध्वियों ने अस्खलित रखा है । चन्दन मुनि का 'संवरसुधा' काव्य संगीत काव्यों की परम्परा में एक उत्कृष्ट कड़ी है। संवरतत्व पर आधारित विभिन्न लयों में संस्कृत भाषा की 20 गीतिकाएं हैं। इसकी रचना वि. सं. 2018 में दीपावली के दिन बम्बई में सम्पन्न हुई । मुनि मिट्ठालालजी ने इस का हिन्दी अनुवाद किया है। अन्य अनेक संगीतकाव्य जो अब तक अप्रकाशित हैं, वे भी भाव-प्रधान और रस-पूरित है। उनका उल्लेख भी यहो प्रासंगिक और उपयोगी होगा: 1 पंचतीर्थी 2 गीतिसंदोहः 3 संस्कृत गीतिमाला चन्दनमुनि मुनि दुलीचन्द जी 'दिनकर' साध्वी संघमित्राजी Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 गीतिगुच्छ 5 गीतिसम्बोहः 6 गीतिगुम्फः साध्वी संघमिबाजी साध्वी मंजुलाजी साध्वी कमलश्रीजी स्तोत्र काव्य : जैन परम्परा में भी भक्ति रस से स्निग्ध और आत्म निवेदन से परिपूर्ण बनेक स्तोत्र काव्यों का प्रणयन हुआ है । स्तोत्र काव्यों का प्रारम्भ आचार्य समन्तभद्र ने स्वयंभू स्तोत्र, देवागम स्तोत्र आदि स्तुति रचनाओं से किया । सिद्धसेन दिवाकर का 'कल्याण-मन्दिर स्तोत्र' तथा मानतंगाचार्य का मक्तामर स्तोत्र इस क्रम में विशेष उल्लेखनीय है। तेरापंथ के साह साध्वियों ने भी स्तत्र काव्यों को पर्याप्त विकसित किया है। उन्होंने स्वतन्त्र स्तोत्र काव्यों की रचना भी की है और समस्या पूर्तिमूलक स्तोत्र काव्यों की रचना भी की है । समस्या-पूर्तिमूलक स्तोत्र काव्यों में किसी अन्य काव्य के श्लोकों का एक-एक धरण लेकर उस पर नई श्लोक रचना के द्वारा नये काव्य की रचना की जाती है। इस पद्धति का प्रारम्भ जैन परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य जिनसेन ने किया। उन्होंने कालिदास के मेघदूत के समस्त पद्यों के समग्र चरणों की पूर्ति करते हुए पाश्र्वाभ्युदय की रचना की। मेघदूत जैसे शृंगार रस प्रधान काव्य की परिणति शान्त और संवेग रस में करना कवि की श्लाघनीय प्रतिमा का परिणाम है। मेषदूत के चतुर्थ चरण की पूर्ति में दो जैन काव्य और उपलब्ध है। उनमें पहला 'नेमिदूत' है और दूसरा 'शीलदूत' है । नेमिदूत की रचना विक्रम कवि ने तथा शीलदूत की रचना चारित्रसुन्दर गणि द्वारा हुई है । __तेरापंथ के साधु-साध्वियों में समस्या पूर्ति स्तोत्र काव्यों का प्रवाह भी एक साथ ही उमडा। वि. सं. 1980 में सर्व प्रथम मुनि नथमल जी (बागोर) ने सिखसेन दिवाकर रचित कल्याणमन्दिर स्तोत्र की पादपूर्ति करते हुए दो 'काल-कल्याण-मन्दिर' स्तोत्रों की रचना की । वि.सं. 1989 में आचार्य श्री तुलसी, मुनि धनराज जी (प्रथम) और चन्दन मुनि ने भी कल्याणमन्दिर स्तोत्र के पृथक-पृथक चरण लेकर कालू-कल्याण-मन्दिर स्तोत्रों की रचना की। यह क्रम क्रमशः विकसित होता गया और आगे चलकर मुनि कानमलजी ने मानतुंगाचार्य के भक्तामर स्तोत्र की पादपूर्ति करते हुए 'कालू भक्तामर' की रचना की तथा मुनि सोहनलाल जी (चूरू) ने कल्याण-मंदिर स्तोत्र और भक्तामर स्तोत्र की पादपूर्ति करते हुए क्रमशः कालू-कल्याण-मन्दिर और कालू-मक्तामर स्तोत्रों की रचना की । स्वतंत्र स्तोत्र काव्यों में आचार्य श्री तुलसी द्वारा रचित 'चतुर्विंशति स्तवन' विशेष उल्लेखनीय है । इसकी कोमल पदावली में अन्तःकरण से सहज निःसत भावों की अनस्यति है। इसकी रचना वि.सं. 2000 के आस-पास हुई थी। इसके अतिरिक्त स्तोत्र काव्यों की एक लम्बी श्रृंखला उपलब्ध है जिसमें उल्लेखनीय हैं: मुनि नथमल जी (बागोर) तेरापंथी स्तोत्रम् जिन चतुर्विशिका तुलसी-वचनामृतस्तोत्रम् देव-गुरूवर्म द्वात्रिशिका वीतराग स्तुति गुरु-गौरवम् देव-गुरु-स्तोत्रम् मातृ-कीर्तनम् मुनि धनराजजी'प्रथम' चन्दन मुनि मुनि डूंगरमल जी मुनि सोहन लाल जी (चूरू) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सोहनलालजी मुनि नथमल जी मुनि छत्रमल जी भगवत् स्तुति तुलसी-स्तोत्रम् देवगुरु द्वात्रिशिका भिक्ष द्वात्रिशिका तुलसी द्वात्रिंशिका तुलसी स्तोत्रम् घ. तुलसी स्तोत्रम् श्री तुलसी स्तोत्रम् नेमिनाथ नूति : मुनि दुलीचन्द जी 'दिनकर' मुनि बुद्धमल्ल जी मुनि पूनमचन्द जी मुनि मोहनलाल जी 'सार्दूल' नीति काव्य: जैन परम्परा में नीति काव्यों के प्रणेता भर्तृहरि माने जाते है । उनके द्वारा प्रणीत मीति-शतक और वराग्य-शतक चाणक्य-नीति की समकक्षता को प्राप्त करने वाले काव्य हैं । तेरापंथ में काव्य की अन्य विधाओं के साथ-साथ नीति काव्य की परम्परा भी सतत वर्धमान रही है । पंचसूत्रम्, शिक्षा षण्णवति, कर्तव्य षट्त्रिंशिका, उपदेशामृतम्, प्रास्ताविक लोक शतकम् आदि अनेक काव्य ग्रन्थ इस परम्परा के विकास के हेतु हैं । पंचसूत्रम्:-आचार्य श्री तुलसी की एक विशिष्ट देन है। आज के स्वतंत्र मानस में परतन्त्रता के प्रति इतनी तीव्र प्रतिक्रिया है कि वह व्यवस्था भंग के लिये उत्सुक ही नहीं अपितु अतर हो रहा है । प्रश्न होता है कि क्या समाज अनुशासन का अतिक्रमण करके अपने अस्तित्व का सरक्षित रख सकता है ? इसका उत्तर आचार्य श्री ने अहिसा की भाषा में दिया है। धाचार्य श्री सामूहिक जीवन में अनुशासन और व्यवस्था को आवश्यक मानते हैं । आचार्य श्री के विचारों में अनुशासन जीवन की गति का अवरोधक नही किन्तु प्रेरक है। इसी आशय से उन्होंने लिखा है : पंगतांन नयत्यष, हरतालम्ब सूजन्नपि । गति सम्प्रेरयत्येव, गच्छेयुस्ते निजत्रमैः॥ शिक्षा षण्णवति :- आचार्य श्री तुलसी का विभिन्न विषयों का स्पर्श करने वाला एक नीतिकाव्य है। इसकी मौलिक विशेषता यह है कि इसकी श्लोक रचना मानतुगाचार्य के भवतामर स्तोत्र की पादपूर्ति के रूप में हई है। शैक्ष विद्यार्थियों के लिये इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है । इसके पारायण से श्लोक रचना, पादपूर्ति, विषय निरूपण' आदि का सम्यग बोध होता है। इसमें पदपूर्ति के साथ भाव-सामंजस्य का निर्वहन भी बहुत सुचारु रूप से हुआ है। स्तुत कृति में विरवित का विश्लेषण करते हुए कहा है : दावानलं ज्वलितमज्जवलमत्स्फलिंग, कः कोत्र भोः प्रशमन प्रच रेन्धनेन । आभ्यन्तरो विषयभोगविज़म्भिदाहस्त्वन्तविरागसलिलैः । इसकी रचना वि. सं. 2005 में छापर (राजस्थान) म हुई। इसके कुल 20 प्रकरण इसका हिन्दी अनुवाद मुनि बुद्धमल्ल जी द्वारा किया गया है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्त्तव्य षट्त्रिशिकाः – आचार्य श्री तुलसी द्वारा रचित एक लघु नीतिकाव्य है । राक्षसाधु-साध्वियों को साधन का सम्यग् दर्शन प्रदान करने के लिये प्रस्तुत कृति की रचना हुई है। इसकी रचना वि. सं. 2005 में छापर ( राजस्थान) में हुई इसका । हिन्दी अनुवाद मुनि बुद्धमल्ल जी द्वारा किया गया है। उक्त तीनों नीति-काव्यों के कंठीकरण की परम्परा ही है। 93 उपदेशामृतम् :- चन्दन मुनि द्वारा रचित नीति काव्य है। इसमें अध्ययन स और अनुभव लन्ध तथ्यों का सुन्दर विश्लेषण है । वर्तमान की कुप्रथाओं और समस्याओं की आलोचना के साथ उनके समाधान और परिहार का निदर्शन भी इसमें है । नीति की अनेक व्यवहारिक बातों का इसमें समावेश हुआ है । कवि ने एक स्थान पर कहा है :--- 1 कि वक्तव्यं ? कियत् ? कुत्र ? का वेला ? कीदृशी स्थितिः ? इत्यादि विदितं येन तं वाणी सुखयेत् सदा ॥ इसी प्रकार आवश्यकताओं की सीमाकरण की प्रेरणा देते हुए अन्यत्र कहा गया है - सर्वाणि खलु वस्तुनि सीमितानि विधाय च । तिष्ठ स्वस्थः क्षणं भ्रातः ! क्वापि नातः परं सुखम् ॥ प्रस्तुत कृति की रचना वि. सं. 2015 में भाद्र कृष्ण अष्टमी के दिन जालना (महा-. राष्ट्र में हुई थी । यह 16 चषकों में गुम्फित है । म हुई। प्रास्ताविक - श्लोक-शतकम् - चन्दन मनि के धार्मिक, नैतिक और औपदेशिक सुभाषित पद्य का संकलन है । प्रस्तुत कृति में 100 श्लोक हैं । इसकी रचना वि. सं. 2018 में बम्बई (महाराष्ट्र) इसका हिन्दी भाषा में अनुवाद मुनि मोहनलाल 'शार्दू ल' द्वारा किया गया है। प्रास्ताविक श्लोक- शतकजम् के नाम से मुनि धनराज जी 'प्रथम' की एक अन्य कृति और प्राप्त है । उसमें भी विभिन्न विषयों पर श्लोक रचना की गई है। यह कृति अप्रकाशित होने के कारण साधारण पाठक के लिये सुलभ नहीं है । नीति-काव्यों की शृंखला में मुनि वत्सराजजी का "चतुरायामः" भी एक सद्यस्क कृति है किन्तु वह भी अब तक अप्रकाशित है । तेरापंथ के साधु-साध्वियों ने संस्कृत भाषा के विकास के लिये हर नये उन्मेष को स्वीकार किया और उसमें सफलता प्राप्त की । ऐकाह निकशतक, समस्यापूर्ति, आशुकवित्व चित्रमय काव्य आदि उनमें प्रमुख हैं । ऐका निक शतकों के अतिरिक्त कुछ अन्य शतक काव्य भी लिखे गये हैं जिनमें मानवीय संवेदनाओं के साथ अन्तरंग अनुभूतियों का सम्यक चित्रण हुआ है। उनमें से कुछ प्रमुख : अनभूति शतकम् मिक्षु शतकम् कृष्ण शतकम् महावीर शतकम् चन्दनमुनि मुनि नथमल जी मनि छत्रमल जी 13 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 मुनि छत्रमल जी भिक्ष शतकम् जयाचार्य शतकम् काल शतकम् तुलसी शतकम् तेरापंथ शतकम् तुलसी शतकम् भिक्षु शतकम् आषाढभूति शतकम् अणुव्रत शतकम् धर्म शतकम् समस्या शतकम् नैश द्विशतकम् हरिश्चन्द्र-कालिकं द्विशतकम् श्लोक शतकम् पृथ्वी शतकम् मुनि दुलीचन्दजी 'दिनकर' मुनि नगराज जी मुनि मिट्ठालाल जी मुनि चम्पा लाल जी मुनि मधुकर जी मुनि राकेशकुमार जी साध्वी फूलकुमारी जी साध्वी मोहनकुमारी जी साध्वी कनकश्री जी संस्कृत काव्य की एक और विधा है-चित्रमय काव्य । यह विधा बहुत ही जटिल और क्लिष्ट है। इसमें रचना करना अगाध पांडित्य का सूचक है। इसके लिये गहरे अध्यवसाय की आवश्यकता होती है। विक्रम की बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के लगभग वाग्भट्ट ने अपनी कृति 'वाग्भट्टालंकार' में चित्रमय श्लोकों का दिग्दर्शन कराया है। चित्रमय काव्य की रचना जटिल और क्लिष्ट होने के कारण अधिक प्रसारित नहीं हो सकी। सोलहवीं शताब्दी के पश्चात् तो वह प्रायःलप्त हो गई। किन्तु इस उप्तप्रायः काव्य रचना की विधि का तरापा धर्मसंघ में पुनर्जीवन प्राप्त हुआ है। उदाहरणार्थ एक श्लोक प्रस्तुत है । विश्वेस्मिन् प्राप्तुकामा विमलमतिमया मानवा! नव्यनव्यां, सच्चिद् रोचिविचित्रच्छविरविशिविकां सिद्धिसाम्राज्यनिष्ठाम् । माहात्म्याचिः प्रविष्ठां सितमधुसरसां संप्रघत्ताशु तहि, सच्छिक्षा सत्यसन्धेः कविवरतुलसेश्चन्द्रवच्छीतरश्मेः ।। उक्त शिबिका बन्ध चित्रमय श्लोक में 84 अक्षर होते हैं किन्तु उनमें से केवल 70 अक्षर ही लिखे जाते हैं। शेष 14 अक्षरों की प्रति भिन्न-भिन्न प्रकोष्ठों से की जाती है। उक्त . श्लोक के रचयिता मनि नवरत्नमल जी हैं। उन्होंने अनेक प्रकार के चित्रमय श्लोकों की रचना की है। इस प्रकार के तेरापंथ संस्कृत-साहित्य के उदभव और विकास की संक्षिप्त प्रस्तुति इस निबन्ध में हुई है। अनवगति और अनुपलब्धि के कारण संभव है पूर्ण परिचिति में कुछ अवशेष भी रहा हो फिर भी उपलब्ध साहित्य का यथासंभव परिचय देने का प्रयत्न किया गया है। विक्रम की बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और इक्कीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में तेरापंथ धर्म-संघ ने संस्कृत वाडमय को विभिन्न नए उन्मेष प्रदान किये हैं। अतीत के सिंहावलोकन के आधार पर अनागत का योग और अधिक मूल्यवान हो सकेगा, ऐसी आशंका स्वाभाविक है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार: 4 डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल 1. रविषेणाचार्य:--रविषेण पुराण ग्रन्थ के कर्ता के रूप में प्रसिद्ध प्राचार्य हैं। इन्होंने स्वयं ने अपने सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं किया किन्तु इन्होंने जिस गुरु परम्परा का उल्लेख किया है उसके अनुसार इन्द्रसेन के शिष्य दिवाकर सेन, दिवाकर सेन के शिष्य अर्हतसेन, अर्हतसेन के शिष्य लक्ष्मणसेन और लक्ष्मणसेन के शिष्य रविषेण । सनान्त नाम होने के कारण ये सेनसंघ के विद्वान जान पड़ते हैं। सेन संघ का राजस्थान में बहुत जोर रहा। सोमकीर्ति आदि भटटारक राजस्थान केही जैन सन्त थे। इसलिये रविषेण का भी राजस्थान से विशेष सम्बन्ध रहा इसमें दो मत नहीं हो सकते । रविषेण की एक मात्र कृति पद्मचरित (पद्मपुराण) उपलब्ध होती है लेकिन यह एक ही कृति उनके विशाल पाण्डित्य एवं अद्भुत व्यक्तित्व की परिचायक है। यह एक चरित काव्य है। जिसमें 123 पर्व है। इसमें वेसठ शालाका के महापुरुषों में से आठवें बलभद्र राम, आठवें नारायण लक्ष्मण, भरत, सीता, जनक, अंजना, पवन, भामण्डल, हनुमान, राक्षसवंशी रावण, विभीषण एवं सुग्रीव आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसे हम जैन रामायण कह सकते हैं। रामकथा के अनेक रूप है उसमें जैन आम्नाय के अनुसार इस चरित काव्य में उसका एक रूप मिलता है । पद्मचरित में सीता के आदर्श की सुन्दर झांकी प्रस्तुत की गयी है तथा राम के जीवन की सभी दृष्टियों से महत्ता स्वीकार की गयी है। ग्रन्थ में रामचरित के साथ वन, पर्वत, नदी, ऋतु आदि के प्राकृतिक दृश्यों को तथा विवाह, जन्म, मृत्यु आदि सामाजिक रीतिरिवाजों का सुन्दर वर्णन हुआ है। जैन पुराण साहित्य में रविषण के पद्मपुराण का महत्वपूर्ण स्थान है। रविषेण ने महावीर भगवान के निर्वाण के 1203 वर्ष 6 महीने व्यतीत होने पर वि. सं. 734 (सन् 677) में इसे समाप्त किया था जैसा कि निम्न प्रशस्ति से ज्ञात होता है: द्विशताभ्यधिके समासहस्र समतीते अर्ध-चतुर्थ-वर्शयुक्ते । जिन-भास्कर-वर्द्धमान सिद्धे चरितं पद्यमुनेरिदं निबद्धम् ।। 2. ऐलाचार्य:---ऐलाचार्य प्राकृत एवं संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान् थे। ये सिद्धान्त शास्त्रों के विशेष ज्ञाता एवं महान् तपस्वी थे। चित्रकूटपुर (चितौड) इनका निवास स्थान था। इन्होंने ही आचार्य वीरसेन को सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन कराया था। वीरसेनाचार्य ने धवला टीका प्रशस्ति में ऐलाचार्य का निम्न शब्दों में उल्लेख किया है:-- जस्स पसाएण मए सिद्धंत मिंद हि अहिलहुदं । महुसो एलाइरियो पसियउ वर वीरसेणस्स ।। ऐलाचार्य का समय 8वीं शताब्दी का अन्तिम पाद होना चाहिये क्योंकि वीरसेन न घवला टीका सन् 811 में (शक में 738) में निबद्ध की थी। 1. आसीदिन्द्रगुरो दिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चाहन्मनि । . स्तस्माल्लक्ष्मणसेन सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम्- ॥ 95 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 3. आचार्य अमृतचन्द्र सूरिः -- आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय की टीका करने के कारण आचार्य अमृतचन्द्र जैन संस्कृत साहित्य में अत्यधिक लोकप्रिय टीकाकार हैं । इनकी टीकाओं के कारण आज कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का रहस्य सबके समझने में आ सका । उक्त टीकाओं के अतिरिक्त इनकी पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, तत्वार्थसार एवं समयसार कलश भी अत्यधिक लोकप्रिय रचनायें मानी जाती हैं । महापंडित आशाघर ने अमृतचन्द्र का उल्लेख सूरि पद के साथ किया है इससे ज्ञात होता है कि अमृतचन्द्र किसी सम्मानित कुल के व्यक्ति थे । पं. नाथूराम प्रेमी ने अमृतचन्द्र h. सम्बन्ध में जो नया प्रकाश डाला है उसके आधार पर माघवचन्द्र के शिष्य अमृतचन्द्र 'बामणवाडे' में आये और यहां उन्होंने रल्हण के पुत्र सिंह या सिद्ध नामक कवि को पज्जुण्णचरिउ बनाने की प्रेरणा की । यदि बयाना (राज.) के पास स्थित बांभणवाड- ब्रह्मवाद दोनों एक ही हैं तो अमृतचन्द्र ने राजस्थान को भी पर्याप्त समय तक अलंकृत किया था ऐसा कहा जा सकता है । उसके अतिरिक्त राजस्थान के विभिन्न जैन भण्डारों में अमृतचन्द्र के ग्रन्थों का जो विशाल संग्रह मिलता है उससे भी हम इन्हें राजस्थानी विद्वान् कह सकते हैं। यही नहीं राजस्थानी विद्वान् राजमल ने सर्व प्रथम अमृतचन्द्र कृत समयसार कलश टीका पर हिन्दी में टब्बा टीका लिखी थी। अमृतचन्द्र का समय अधिकांश विद्वानों ने 11वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना है । लेकिन पं. जगलकिशोर मुख्तार ने इनका समय 10वीं शताब्दी का तृतीय चरण बतलाया है । इनका पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थ है इसमें 226 संस्कृत पद्य हैं । श्रावक धर्म के वर्णन के साथ ही उसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र का सुन्दर वर्णन किया गया है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में निश्चय नय एवं व्यवहार नय की चर्चा है तो अन्त में रत्नत्रय को मोक्ष का उपाय बतलाया गया है । पुण्यास्रव को शुभोपयोग का बाधक बतलाना पुरुषार्थसिद्ध युपाय की विशेषता है । तत्वार्थसार को आचार्य अमृतचन्द्र ने मोक्षमार्ग का प्रकाश करने वाला एक प्रमुख दीपक बतलाया है । यह तत्वार्थसूत्र का सार रूप ग्रन्थ है जिसमें 9 अधिकार हैं और जीव अजीव आसव बंध आदि तत्वों का विशद विवेचन है । इसमें युक्ति आगम से सुनिश्चित सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है । समयसार कलश-आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार पर कलश रूप में लिखा गया है। इसका विषय वर्गीकरण भी समयसार के अनुसार ही है। इसमें 278 पद्य हैं जो 12 अधिकारों में विभक्त हैं । प्रारम्भ में आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्म तत्व को नमस्कार करते हुए बतलाया है: नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते । चितस्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे । समयसार टीका आत्मख्याति के नाम से प्रसिद्ध है । टीका में उन्होंने गाथा के शब्दों की व्याख्या करके उसके अभिप्राय को अपनी परिष्कृत गद्यशैली में व्यक्त किया है । इसी तरह प्रवचनसार की टीका का नाम तत्वदीपिका है। इस टीका में आचार्य अमृतचन्द्र की आध्यात्मिक रसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, एवं वस्तु स्वरूप को तर्क पूर्वक सिद्ध करने की असाधारण शक्ति का परिचय मिलता है । कहीं कहीं तो मूल ग्रन्थकार ने जिन भावों को छोड दिया है उनको भी उन्होंने इस टीका म खोल दिया है । इसी तरह पंचास्तिकाय टीका भी इनकी प्रांजलकृति है जिसमें जीवादि पंचास्तिकाय का विशद विवेचन हुआ है । अमतचन्द्र (द्वितीय) — लेकिन पं. परमानन्द जी शास्त्री का मत है कि अमृतचन्द्र-II माधवचन्द्र मलघारी के शिष्य थे । अपभ्रंश के महाकवि सिंह अथवा सिद्ध इन्हीं के शिष्य थे Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97 जिन्होंने अमृतचन्द्र की प्रेरणा से अपूर्ण एवं खण्डित प्रद्युम्नचरित का उद्धार किया था। प्रथम्नचरित की प्रशस्ति में अमतचन्द्र के लिये लिखा है कि अमतचन्द्र तप तेज रूपी दिवाकर तथा पर नियम एवं शील के रत्नाकर थे। अपने तर्क रूपी लहरों से जिन्होंने अन्य दर्शनों को झकोलित कर दिया था। जो उनमें व्याकरण रूप पदों के प्रसारक थे तथा जिनके ब्रह्मचर्य के आगे कामदेव मी हिल गया था । 4. रामसेनः-रामसेन नामके कितने ही विद्वान् हो चुके हैं लेकिन प्रस्तुत रामसेन काष्टासंघ, नन्दातटगच्छ और विद्यागण के आचार्य थे। आचार्य सोमकोति द्वारा रचित गुर्षावलि में रामसेन को नरसिंहपुरा जाति का संस्थापक माना है। बागड प्रदेश से रामसेन का अधिक सम्बन्ध था और राजस्थान इनकी विहार भूमि थी। रामसेन की परम्परा में कितने ही भट्टारक प्रसिद्ध विद्वान थे और उन्होंने अपनी प्रशस्तियों में रामसेन का सादर स्मरण किया है। रामसेन को विद्वानों ने 10 वीं शताब्दी का स्वीकार किया है। इनकी एक मात्र कृति तत्वानुशासन संस्कृत की महत्वपूर्ण रचना है। इसमें 258 पद्य हैं जिनमें अध्यात्म विषय का बहुत ही सुन्दर प्रतिपादन हआ है।" एक विद्वान के शब्दों में रामसेन ने अध्यात्म जैसे नीरस, कठोर और दुर्बोध विषय को उतना सरल एवं सुबोध बना दिया है कि पाठक का मन कभी ऊब नहीं सकता। इस ग्रन्थ में ध्यान का विशद विवेचन हुआ है। कर्मबन्ध की निवृत्ति के लिये ध्यान की आवश्यकता बतलाते हुए ध्यान, ध्यान की सामग्री और उसके भेदों आदि का सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। स्वाध्याय से ध्यान का अभ्यास करें क्योंकि ध्यान और स्वाध्याय से परमात्मा का प्रकाश होता है। के शिष्य आरगणाकरसनमारक शिष्य या लाऊ बागडसव का राजस्थान सपिराप सन्याप 5. आचार्य महासेनः--आचार्य महासेन लाड बागड संघ के पूर्णचन्द्र आचार्य जयसेन नसरि के शिष्य थे। लाड बागड संघ का राजस्थान से विशेष सम्बन्ध था। इसलिये आचार्य महासेन ने राजस्थान में विशेष रूप से विहार किया और धर्म साहित्य एवं संस्कृति का प्रचार किया। प्रहाम्न चरित की प्रशस्ति के अनुसार ये सिद्धान्तश, बादी, वाग्मी और कवि थे तथा शब्दरूपी ब्रह्म के विचित्र घाम थे। वे यशस्वियों द्वारा मान्य, सज्जनों में अग्रणी एवं पाप रहित थे और परमार वंशी राजा मुन्ज के द्वारा पूजित थे। आचार्य महासेन की एक मात्र कृति प्रद्युम्नचरित उपलब्ध है। यह एक महाकाव्य है। इसमें 14 सर्ग हैं जिनमें श्रीकृष्ण जी के पुत्र प्रद्युम्न का जीवन चरित निबद्ध है। काव्य का कथाभाग बडा ही सुन्दर रस और अलंकारों से अलंकृत है। कवि ने इसमें रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया है किन्त राजा मन्ज का समय 10 वीं शताब्दी का है अतः यही समय आचापं महासन का होना चाहिए । 6. कवि डड्ढा:--ये संस्कृत के अच्छे विद्वान थे।.चित्तोड इनका निवास स्थान था। इनके पिता का नाम श्रीपाल एवं ये जाति से पोरवाड थे। जैसा कि निम्न प्रशस्ति म दिया गया है श्रीचित्रकूट वास्तव्य प्राग्वार वणिजा कृते । श्रीपालसुत-डड्ढेण स्फुटः प्रकृतिसंग्रहः ॥ इनकी एक मात्र कृति संस्कृत पंचसंग्रह है जो प्राकृत पंचसंग्रह की गाथाओं का अनवाद है। 'अमितिगति आचार्य ने भी संस्कृत में पंचसंग्रह की रचना की थी लेकिन दोनों के अध्ययम से जीत 1. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग 2 पृष्ठ 357 2. तच्छिष्यो विदिता खिलोरुसमयो वादी च वाग्मी कधिः शब्दब्रह्मविचित्रवाम यशसा मान्यां सतामग्रणी। बासी श्रीमहसेनसूरिरनघ श्री सुन्जराजाचित : सीमान्दान-योधप्रत्त तपसां, मच्याब्जनी बांधव: : Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 होता है कि डड्ढा के पंचसंग्रह में जहां प्राकृत गाथाओं का अनुवाद मात्र है वहां अमितिगति के पंचसंग्रह में अनावश्यक कथन भी पाया जाता है। कवि डड्ढा अमृतचन्द्रसूरि के बाद क तथा अमितिगति के पूर्व के विद्वान हैं। अमितिगति में अपना पंचसंग्रह वि. सं. 1073 में बना कर समाप्त किया था इसलिए डड्ढा इसक पूर्व के विद्वान् है। विद्वानों ने इनका समय संवत् 1055 का माना है । 7. आचार्य शुभचन्द्र-(प्रथम):-शभचन्द्र नाम के कितने ही विद्वान् हो गये हैं। आगे इन्हीं पृष्ठों में दो शुभचन्द्र का और वर्णन किया जावेगा। प्रस्तुत शुभचन्द्र ज्ञानार्णव के रचयिता हैं जिनके निवास स्थान, कुल जाति एवं वंश परम्परा के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती। शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव का राजस्थान में सर्वाधिक प्रचार रहा। एक एक भण्डार में इनकी 25-30 प्रतियां तक मिलती हैं। यही नहीं इस पर हिन्दी गद्य पद्य टीका भो राजस्थानी विद्वानों की है। इसलिये अधिक सम्भव यही है कि शुमचन्द्र राजस्थानी विद्वान् रहे हों अथवा इन्होंने राजस्थान को भी अपने विहार से एवं उपदेशों से पावन किया हो। ज्ञानार्णव योगशास्त्र का प्रमुख ग्रन्थ है। इसमें 48 प्रकरण हैं जिनमें 12 भावना, पंच महाव्रत एवं ध्यानादि का सुन्दर विवेचन हुआ है। ज्ञानार्णव पूज्यापाद के समाधितन्त्र ए इष्टोपदेश से प्रभावित है। ग्रन्थ की भाषा सरल एवं प्रवाहमय है तथा वह सामान्य पाठक के भी अच्छी तरह समझ में आ सकती है। 8. ब्रह्मदेवः--ब्रह्मदेव राजस्थानी विद्वान् थे। प्राकृत, अपभ्रश एवं संस्कृत के वे घरन्धर पंडित थे। वे आश्रमपसन नामक नगर में निवास करते थे। आश्रमपतन का वर्तमान नाम केशोरायपाटन है। यह स्थान बन्दी से तीन मील दूर चम्बल नदी के किनारे पर अवस्थित है। यहीं पर मनिसूवत नाथ का विशाल एवं प्राचीन मन्दिर है जो अतीत में एक तीर्थ स्थल के रूप में प्रतिष्ठित था जहां प्रतिवर्ष हजारों यात्री दर्शनार्थ आते हैं। 13 वीं शताब्दी में होने वाले मुनि मदनकीर्ति ने अपनी शासन चतुस्त्रिंशिका में इस नगर का उल्लेख किया है। यही नहीं इस तीर्थ की निर्वाण काण्ड गाथा में भी "अस्सारम्भे पट्टणि मुणिसुव्वयजिणं च वंदामि" शब्दों में बन्दना की है। ब्रह्मदव ने इसी नगर में वृहद्रव्यसंग्रह एवं परमात्मप्रकाश पर संस्कृत में टीका लिखी थी टोका बहुत ही विस्तृत एवं महत्वपूर्ण है। यह टीका सोमराज श्रेष्ठी के लिये लिखी गयी थी और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्वयं ग्रन्थ कार मुनि नेमिचन्द्र,टीकाकार ब्रह्मदेव एवं सोमराज श्रेष्ठी इस साहित्यिक यज्ञ में सम्मिलित थे। द्रव्यसंग्रह कृति में सोमराज श्रेष्ठि के दो प्रश्नों का उत्तर नामोल्लेख के साथ किया गया है इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि कृतिकार के समय वे मी उपस्थित थे। __ द्रव्यसंग्रह कृति की प्राचीनतम पाण्डुलिपि सं. 1416 को जयम के ठोलियों के मंदिर में उपलब्ध होती है। द्रव्यसंग्रह एवं प्रवचनसार टीकाओं में अमतचन्द्र, रामतिड, अमितिगति. हडता और प्रभाचन्द्र आदि के ग्रन्थों के उद्धरण मिलते हैं जो 10वीं और 11 शताब्दी के विद्वान है। इसलिये ब्रह्मदेव का समय 11वीं शताब्दी का अंतिम चरण अथवा 12वीं शताब्दी का प्रथम चरण माना जा सकता है। 9. आ. जयसेनः-आचार्य अमृतचन्द्र के समान जयसेन ने भी समयसार, प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय इन तीनों पर संस्कृत टीका लिखी है और इन टीकाओं की भी समाज में लोकप्रियता रही है। जयसेन आचार्य बीरसेन के प्रशिष्य Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99 एवं सोमसेन के शिष्य थे। एक प्रशस्ति के अनुसार इनके पितामह का नाम माल साह एवं पिता का नाम महीपति साधु था। उनका स्वयं का नाम चारूभट था और जब वे दिगम्बर मुनि हो गये तब उनका नाम जयसेन रखा गया ।। समयसार, प्रवचनसार एवं पञ्चास्तिकाय पर निर्मित टीकाओं का नाम तात्पर्य वृत्ति है । वृत्ति की भाषा सरल एवं सुगम है । राजस्थान में जैन शास्त्र भण्डारों में इन टीकाओं की प्रतियां अच्छी संख्या में मिलती है। जयसेन न अपनी टीकाओं में समय का कोई उल्लेख नहीं किया । डा. ए. एन. 'उपाध्य ने इनका समय 12वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध एवं 13 वीं शताब्दीका पूर्वाद्ध निश्चित किया है क्योंकि इन्होंने वीरनन्दि के आचारसार में दो पद्य उद्धत किये हैं । वीरनन्दि के गुरु माधवचन्द्र त्रैविधदेव का स्वर्गवास विक्रम की 12वीं शताब्दी में हुआ था इसलिये जयसेन का समय 13वीं शताब्दी का प्रथम चरण मानना ही उचित है । 10. आशाधरः-महापंडित आशाघर राजस्थान के लोकप्रिय विद्वान् थे। वे मूलतः मांडलगढ (मेवाड) के निवासी थे । इनका जन्म भी उसी नगर में हआ था। इनके पिता का नाम सल्लखण एवं माता का नाम श्रीरत्नी था । इनकी पत्नी का नाम सरस्वती एवं पूत्र का , नाम छाहड था । इनके पुत्र छाहड ने अर्जुन वर्मा को अनुरंजित किया था। आशावर मांडलगढ़ में दस-पन्द्रह वर्ष ही बिता पाये थे कि शहाबद्दीन गोरी ने सन 1292 में पथ्वीराज को हराकर दिल्ली को अपनी राजवानी बनायो और अजमेर पर भी अपना अधिकार कर लिया । उनके आक्रमणों से संत्रस्त होकर अपने चरित्र की रक्षार्थ वे सपरिवार बहत से अन्य लोगों के साथ मालवदेश की राजधानी धारा में आकर बस गये थे । उस समय धारा नगरी विद्या का केन्द्र थी और अनेक विद्वानों की वहां भीड रहती थी । आशाधर ने धारा में आने के पश्चात पंडित श्रीधर के शिष्य पंडित महावीर से न्याय और व्याकरण शास्त्रका अध्ययन किया था । लेकिन कुछ समय धारा में रहने के उपरान्त वे वहां से नलकच्छपुर चले गये जो धारा मगरी से 10 कोश दूरी पर स्थित था । नलकच्छपुर (नालछा) धर्मनिष्ठ श्रावकों का केन्द्र था । वहां का नेमिनाथ का मन्दिर आशाधर के स्वाध्याय एवं ग्रन्थ निर्माण करने का केन्द्र था । यहां वे 30-35 वर्ष तक रहे - सूरिः श्री वीरसेनाख्यो मूलसंघेपि सत्तया: । नम्रर्थपदवीं भेजे जातरूप धरोपि य : ततःश्री सोमसेनोऽमुद् गणी गुणगणाश्रयः । तद्विनेयोस्ति यस्तस्यै जयसेन तपोभते ॥ शीघ्र बभूव माल साधुः सदा धर्मरतो वदान्य : सूनुस्ततः साधुः महीपतिस्तस्मादयं चारूभटस्तनूज : ॥ म्लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षतित्रासाद्विन्ध्य नरेन्ददोः परिमलस्फूर्जत्रिवर्गाजसि प्राप्तो मालवमण्डले बहुपरीवारः पुरीमावसन् यो धारामपठज्जिनप्रमिति वाक्शास्त्रे महावीरतः ॥5॥ श्रीमदर्ज न भूपाल राज्ये श्रावकसंकुले । जैनधर्मोदीर्थ यो मलकच्छपुरेवसत् । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 और रहते हुए उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे, उनकी टीकायें लिखीं और वहां अध्यापन कार्य भी सम्पन्न किया । लेकिन संवत् 1282 में आशाधर जी नालछा से सलखणपुर चले गये जहाँ जैन अच्छी संख्या में रहते थे । मल्ह का पुत्र नागदेव भी वहां का निवासी था जो मालवराज्य की चुंगी विभाग में कार्य करता था तथा यथाशक्ति धर्म-साधन भी करता था । नागदेव की पत्नी के किये उन्होंने रत्नत्रय विधान की रचना की थी। आशाधर संस्कृत के महान् पंडित थे तथा न्याय, व्याकरण, काव्य, बलकार, शब्दकोष, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र और वैद्यक आदि विषयों पर उनका पूर्ण अधिकार था।वे प्रतिमासम्पन्न विद्वान् थे। उनकी लेखनी केवल जैन ग्रन्थों तक ही सीमित नहीं रही किन्तु अष्टांगहृदय, काव्यालंकार एवं अमरकोष जैसे ग्रन्थों पर उन्होंने टीकायें लिख कर अपने पाण्डित्य का भी परिचय दिया। लेकिन खेद है कि ये सभी टीकायें वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। विभिन्न विद्वानों ने उन्हें कवि कालिदास, प्रज्ञापंज एवं नवविश्वचक्ष जैसी उपाधियों से उनका अपने ग्रन्थों में अभिनन्दन किया है। वास्तव में संस्कृत भाषा के ऐसे धुरन्धर विद्वान् पर जैन समाज को ही नहीं किन्तु समस्त देश को गर्व है। महापंडित आशाघर की 18 रचनाओं का उल्लेख मिलता है, लेकिन इनमें 11 रचना उपलब्ध हैं और सात रचनायें अनुपलब्ध हैं। इन रचनाओं का सामान्य परिचय निम्न प्रकार है :-- 1. प्रमेयरत्न कर:-यह ग्रन्थ अभी तक अप्राप्त है । ग्रन्थकार ने इसे स्याद्वादविद्या का निर्मल प्रसाद बतलाया है । 2. मरतेश्वराभ्युदयः--यह काव्य ग्रन्थ भी अप्राप्त है । इस काव्य में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती के अभ्युदय का वर्णन है । 3. ज्ञानदीपिका:-यह सागार एवं अनगारधर्मामत की स्वोपज्ञ पंजिका है । यह भी अभी तक अनुपलब्ब ही है । ____4. राजमती विप्रलंभ:-यह एक खण्ड काव्य है जिसमें राजमती और नेमिनाथ के वियोग का वर्णन किया गया है । रचना स्वोपज्ञ टीका सहित है लेकिन अभी तक अनुप 5. अध्यात्मरहस्य:--इस रचना को खोज निकालने का श्रेय श्री जुगल किशोर मुख्तार को है। इसकी एक मात्र पाण्डलिपि अजमेर के भटटारकीय शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है । प्रस्तुत कृति मुख्तार सा. द्वारा हिन्दी टीका के साथ सम्पादित होकर वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित हो चुकी है। यह अध्यात्म विषय का ग्रन्थ है । आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन भेद किये हैं जबकि आशाधर ने स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा एवं परब्रह्म इस प्रकार तीन भेद किये हैं । ___6. मूलाराधना टीका:-यह प्राकृत भाषा में निबद्ध शिवार्य की भगवती आराधना को टीका है। 7. इष्टोपदेश टीका:-आचार्य पूज्यपाद के प्रसिद्ध ग्रन्य इष्टोपदेश की टीका है । 8. भूपाल चतुर्विंशति टीका:--भूपाल कवि कृत चतुर्विंशति स्तोत्र को टीका ३ जो विनयचन्द्र के लिये बनायी गयी थी । --meena Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9.. आराधनासार टीका--यह देवसेन के आराधनासार पर टीका है। इसकी क पाण्डुलिपि आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में उपलब्ध है । 10. अमरकोश टीका-- यह अमरसिंह कृत अमरकोश पर टीका है जो अभी सक अप्राप्य स्थिति में ही है। 11. क्रियाकलाप - इसमें आचार शास्त्र का वर्णन है । 12. . काव्यालंकार टीका-- यह रुद्रट कवि के काव्यालंकार पर टीका है । 13. जिन सहस्रनाम-- यह जिनेन्द्र भगवान का स्तोत्र है जिस पर स्वयं ग्रन्थकार की टीका है । यह श्रुतसागर सूरि की टीका के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। 14 जिन-पंजरकाव्य- इसमें प्रतिष्ठा सम्बन्धी क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया हुआ है । महापंडित आशाधर ने इसे संवत् 1285 में नलकच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालय में समाप्त किया था । उस समय मालवा पर परमारवंशी देवपाल का शासन था। 15. त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र-- इसमें संक्षिप्त रूप में प्रेसठ शलाका पुरुषों का चरिक वणित है । ग्रन्थ को रचना नित्य स्वाध्याय के लिये जाजाक पंडित की प्रेरणा से सम्पन्न हुई थी । इस ग्रन्थ का रचनाकाल वि. सं. 1292 है। यह भी नलकच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालय में ही समाप्त हया था । ___16. रत्नत्रय विधान-- यह लघु ग्रन्थ है जो सलखणपुर के निवासी नागदेव की प्रेरणा से उसकी पत्नी के लिये लिखा गया था। इसका रचना काल संवत् 1282 है । __17-18. सागार धर्मामृत एवं अनगार धर्मामृत भव्यकुमुद चन्द्रिका टीका सहितमहापंडित, आशाधर के ये दोनों ही अत्यधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है । सागारधर्मामृत में गृहस्थधर्म का निरूपण किया गया है जो आठ अध्यायों में विभक्त है। इसी तरह अनगारधर्मामृत में मुनिधर्म का वर्णन किया गया है। इसमें मुनियों के मुलगण एवं उत्तरगुणों का विस्तार पूर्वक वर्णन हुआ है। सागार धर्मामृत टीका सहित रचना वि. सं. 1296 में पौष सुदी 7 शक्रवार के दिन समाप्त की गयी । इस ग्रन्थ-रचना की प्रेरणा देने वाले थे पौरपाटान्वयी महीचन्द साधु । अनगारधर्मामत की रचना इसके चार वर्ष पश्चात् वि. सं. 1300 में कार्तिक सुदी 5 सोमवार के दिन समाप्त हई थी। यह भी टीका सहित है। कवि ने मल ग्रन्थ की रचना 954 श्लोकों में की थी। इस प्रकार महा पंडित आशाधर ने संस्कृत भाषा की जो सेवा की थी, वह सदा उल्लेखनीय रहेगी। आशाधर का समय विक्रम की 13 वीं शताब्दी निश्चित है। अनगार धर्मामत उनकी अन्तिम कृति थी जो संवत 1300 की रचना है। इसके पश्चात कवि अधिक समय तक जीवित रह हों इसकी कम संभावना है। 11. वाग्भट्ट ___ वाग्भट्ट नाम के कितने ही विद्वान हो गये हैं । आयुर्वेद शास्त्र की सुप्रसिद्ध कृति अष्टांगहृदय के रचयिता वाग्भट्ट के नाम से अधिकांश विद्वान् परिचित हैं, ये सिन्धु देश Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 निवासी थे।नमिनिर्वाण महाकाव्य के निर्माता वाग्म महाकवि थे जो पोरवाड जाति के श्रावक पे तथा छाहड के पुत्र थे। वाग्भटालंकार के कर्ता तीसर वाग्भट्ट थे जो गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह के महामात्य थे। ये श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्वान थे। __प्रस्तुत वाग्भट्ट उक्त तीनों विद्वानों से भिन्न हैं। ये वाग्भट्ट भी अत्यधिक सम्पन्न घराने के थे जिनके पितामह का नाम माक्कलय था। माक्कलय के दो पुत्र थे, इसमें राहड ज्येष्ठ एवं नेमिकूमार लघ पुत्र थे। इन दोनों भाइयों में राम लक्ष्मण जैसा प्रेम था। राहड ने व्यापार में विपुल द्रव्य एवं प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। राहड ने दो नगरों को बसाया था जो राहडपुर एवं तलोटकपुर के नाम से विख्यात हुये। राहडपुर में भगवान् नेमिनाथ का विशाल जिनालय भी इन्होंने ही बनवाया। तलोटकपुर में राहड द्वारा निर्मित ऋषभदेव के विशाल जिनालय में 22 वेदियां बनवायी गयौं। मेवाड की जनता नेमिकुमार से बहुत प्रभावित थी। इन्हीं नेमिकुमार के पुत्र थे वाग्भट्ट, जिनकी दो कृतियां छन्दोनुशासन एवं काव्यानुशासन उपलब्ध होती है, छन्दोनुशासन संस्कृत के छन्द शास्त्र का ग्रन्थ है जो पांच अध्यायों में विभक्त है। ये अध्याय है--संज्ञाध्याय, समवृत्ताख्य, अर्घ समवृत्ताख्य, मात्रासमक एवं मात्रा छन्दक। काव्यानुशासन लघु ग्रन्थ है जिसमें 289 सूत्र है तथा जिनमें काव्य संबंधी विषयों का रस, अलंकार, छन्द, गुण, दोष आदि का कथन किया गया है। इसकी स्वोपज्ञवत्ति में कवि ने विभिन्न ग्रन्थों के पद्य उद्धृत किये हैं। थागभट्ट स्वयं ने अपने आपको महाकवि लिखा है। ये 13 वीं शताब्दी के विद्वान थे । 12. भट्टारक प्रभाचन्द्र प्रभाचन्द्र भट्टारक थे। वे भट्टारक धर्मचन्द्र के प्रशिष्य एवं भट्टारक रत्नकीर्ति के शिष्य थे। भट्टारक धर्मचन्द्र एव भट्टारक रत्नकीर्ति दोनों ही अपने समय के प्रभावशाली महारक थे। इनके द्वारा प्रतिष्ठापित कितनी ही मतियां रणथम्भौर, भरतपुर एवं जयपुर आदि नगरों में मिलती हैं। प्रमाचन्द्र तुगलक वंश के शासन काल में हुये थे। वे जैन संघ के आचार्य थे और अजमेर उनकी गादी का प्रमुख केन्द्र था तथा राजस्थान, देहली एवं उत्तरप्रदेश उनका कार्यक्षेत्र था। एक पट्टावली के अनुसार भट्टारक प्रभाचन्द्र का जन्म संवत् 1290 पौष सुदी 15 को हुआ। वे 12 वर्ष तक गृहस्थ रहे तथा 12 वर्ष तक साधु की अवस्था में दीक्षित रहे। वे 74 वर्ष 11 मास 15 दिन तक भट्टारक पद पर बने रहे। इन्होंने ज्यपाद के समाधितन्त्र पर तथा आचार्य अमृतचन्द्र के आत्मानुशासन पर संस्कृत टीकायें लिखीं जो अपने समय की लोकप्रिय टीकायें मानी जाती रहीं। 13. मट्टारक पद्मनन्दि म. प्रभाचन्द्र के ये प्रमुख शिष्य थे। वे प्रभाचन्द्र की ओर से गुजरात में धर्म प्रचार के लिये नियुक्त थे और वहीं पर वै समाज द्वारा भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित कर दिये गये। भट्टारक -- बनने से पूर्व ये आचार्य शब्द से संबोधित किये जाते थे। एक पट्टावली के अनुसार वे जाति से ब्राह्मण थे। वे केवल 10 वर्ष 7 महीने तक ही अपने पिता के पास रहे और 11 वर्ष की आयु में ही वैराग्य धारण कर इन्होंने मट्टारक प्रमाचन्द्र का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। युवावस्था में वे आचार्य बन गये। इसके पश्चात संवत 1385 पौष सुदी सप्तमी की शुभ वेला में भट्टारक Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103 दि पर सशोभित कर दिये गये। इस समय उनकी आय केवल 34 वर्ष की थी। वे पूर्ण एवा थे, और प्रतिभा के धनी थे। पद्मनन्दि पर सरस्वती की असीम कृपा थी। एक बार उन्होंने गषाण की सरस्वती को मुख से बुला दिया था। - गुजरात प्रदेश के अतिरिक्त आचार्य पद्मनन्दि ने राजस्थान को अपना कार्य क्षेत्र चुना था चित्तौड, मेवाड, बन्दी, नैणवा, टोंक झालावाड जैसे स्थानों को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। वे नैणवा (चित्तौड) जैसे सांस्कृतिक नगर में 10 वर्ष से भी अधिक समय तक रहे। म. सकलकीति ने उनसे इसी नगर में शिक्षा प्राप्त की थी और यहीं पर उनसे दीक्षा धारण की थी। इनके पन्थ में अनेक साव-साध्वियां थीं। इनके चार शिष्य प्रधान थे जिन्होंने देश के अलग-अलग मागों में भट्टारक गादियां स्थापित की थीं। __ आचार्य पद्मनन्दि संस्कृत के बड़े भारी विद्वान् थे। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में इनकी कितनी हो रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं उनमें से कुछ रचनाओं के नाम निम्न प्रकार है :1. पदमनन्दि श्रावकाचार 2. अनन्तव्रत कथा 3. द्वादशवतोद्यान पूजा 4. पार्श्वनाथ स्तोत्र 5. नन्दीश्वर भक्ति पूजा 6. लक्ष्मी स्तोत्र 7. वीतराग स्तोत्र श्रावकाचार टीका 9. देव-शास्त्र-गुरुपुजा 10. रत्नत्रयपूजा भावना चौतीसी 12. परमात्मराज स्तोत्र 13. सरस्वती पूजा 14 सिदपूजा 15. शान्तिनाथ स्तवन 14. मटारक सकलकोति 15 वीं शताब्दी में जैन साहित्य की जबरदस्त प्रभावना करने वाले आचार्यों में भट्रारक कलकोति का नाम सर्वोपरि है। देश में जैन साहित्य एवं संस्कृति का जो जबरदस्त प्रचार एवं प्रसार हो सका उसमें इनका प्रमुख योगदान रहा । सकलकीर्ति ने संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य को नष्ट होने से बचाया और लोगों में उसके प्रति अदभुत आकर्षण पैदा किया। जीवन परिचय सन्त सकलकीर्ति का जन्म संवत् 1443 (सन् 1386) में हुआ था। इनके पिता का नाम करमसिंह एवं माता का नाम शोमा था। ये अणहिलपुर पट्टण के रहने वाले थे। इनकी जाति हुबंड थी। इनके बचपन का नाम 'पूनसिंह' अथवा पूर्णसिंह था । एक पट्टावली में इनका नाम 'पदर्थ' भी दिया हुआ है। 25 वर्ष तक ये पूर्ण गृहस्थ रहे लेकिन 26वें वर्ष में इन्होंने अपार 1. हरषी सुणीय सुवाणि पालइ अन्य ऊभरि सुपर । चोऊद त्रिताल प्रमाणि पूरइ दिन पुत्र जनमीउ ॥ 2. न्याति मांहि मुहुतवंत हूंवड हरषि वखाणिइए । करमसिंह वितपन्न उदयवन्त इम जाणीइए ॥3॥ शोभित तरस अरधांगि, मूलीसरीस्य सुंदरीय । सील स्यंगारित अंगि पेख प्रत्यक्षे पुरंदरीय ॥4ll -सकलकीति रास Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 सम्पत्ति को तिलांजलि देकर साधु जीवन अपना लिया । उस समय मट्टारक पद्मनन्दि का मुख्य केन्द्र नैणवां ( राजस्थान ) था। वे आगम ग्रन्यों के पारगामी विद्वान् माने जाते थे। इसलिये ये भी नैणवां चले गये और उनके शिष्य बन कर अध्ययन करने लगे। वहां ये आठ वर्ष रहे और प्राकृत एवं संस्कृत के ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया, उनके मर्म को समझा और भविष्य में सत्-साहित्य का प्रचार-प्रसार ही अपना एक उद्देश्य बना लिया । 34 वें वर्ष में उन्होंने भट्टारक पदवी ग्रहण की और अपना नाम सकलकीति रख लिया । व्यक्तित्व एवं पाण्डित्य भट्टारक सकलकीति अगाधारण व्यक्तित्व वाले सन्त थे । इन्होंने जिन-जिन परम्पराओं की नींव रखी. उनका बाद में खब विकास हआ । अध्ययन गम्भीर था-इसलिये कोई भी विद्वान इनके सामने नहीं टिक सकता था। प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं पर इनका समान अधिकार था। ब्रह्म जिनदास एवं भट्टारक भुवनकीर्ति जैसे विद्वानों का इनका शिष्य होना ही इनके प्रबल पाण्डित्य का सूचक है । इनकी वाणी में जादू था इसलिये जहां भी इनका विहार हो जाता या वहीं इनके सैंकड़ों भक्त बन जाते थे। ये स्वयं तो योग्यतम विद्वान थे ही, किन्तु इन्होंने अपने शिष्यों को भी अपने ही समान विद्वान् बनाया । ब्रह्म जिनदास ने, अपने "जम्बूस्वामी चरित" में इनको महाकवि, निर्ग्रन्थ राज एवं शुद्ध चरित्रधारी तथा हरिवंश पुराण में तपो. निषि एवं निर्ग्रन्थ श्रेष्ठ आदि उपाधियों से सम्बोधित किया है । भट्टारक सकलभूषण ने अपने उपदेश-रत्नमाला की प्रशस्ति में कहा है कि सकलकीति जन-जन का चित्त स्वतः ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे। ये पुण्य-मूर्ति स्वरूप थे तथा पुराण ग्रन्थों के रचयिता थे । इसी तरह भट्टारक शुभचन्द्र ने सकलकीर्ति को पुराण एवं काव्यों का प्रसिद्ध नेता कहा है। इनके अतिरिक्त इनके बाद होने वाले प्रायः सभी भट्टारक सन्तों ने सकलकीर्ति के व्यक्तित्व एवं विद्वत्ता की भारी प्रशंसा की है । ये मट्टारक थे किन्तु मनि नाम से भी अपने मापको सम्बोधित करते थे । “धन्य कुमार चरित्र" ग्रन्थ की पुष्पिका में इन्होंने अपने-आपका "मुनि सकलकोति" नाम से परिचय दिया है । मृत्यु एक पट्टावली के अनुसार मट्टारक सकलकीर्ति 56 वर्ष तक जीवित रहे । संवत 1499 में महसाना नगर में उनका स्वर्गवास हुआ । पं. परमानन्द शास्त्री ने भी "प्रशस्ति संग्रह" में इनको मृत्यु संवत् 1499 में महसाना (गुजरात) में होना लिखा है । डा. ज्योति 1. ततोमवत्तस्य जगत्प्रसिद्धः पटटे मनोज्ञे सकलादिकीतिः। महाकविःशद्धचरित्रधारी निर्ग्रन्थराजा जगति प्रतापी ॥ -जम्बूस्वामी चरित्र तत्पट्ट पंकजविकासमास्वान वभव निर्ग्रन्थवरः प्रतापी । महाकवित्वादिकला प्रवीणः तपोनिधिःची सकलादिकीतिः ॥ -हरिवंश पुराण 3. तत्पट्टधारी जनचित्तहारि पुराणमुख्योत्तम-शास्त्रकारी ! भट्टारक-श्रीसकलादिकोतिः प्रसिद्धनामाजनि पुण्यमूर्तिः ॥21611 उपदेशरत्नमाला, सफलभूषण Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 प्रसाद जैन एवं डा. प्रेमसागर भी इसी संवत को सही मानते हैं। लेकिन डा. ज्योतिप्रसाद इनका पूरा जीवन 81 वर्ष स्वीकार करते हैं जो अब लेखक को प्राप्त विभिन्न पट्टावलियों के अनुसार वह सही नहीं जान पड़ता। 'सकलकीर्ति रास' में उनकी विस्तृत जीवन गाथा है । उसमें स्पष्ट रूप से संवत 1443 को जन्म एवं 1499 में मृत्यु तिथि लिखी है । राजस्थान में ग्रन्थ भंडारों की जो अभी खोज हुई है उनमें हमें अभी तक निम्न रचनायें उपलब्ध हो सकी है :-- संस्कृत की रचनाएं मलाचार प्रदीप आदि पुराण शान्तिनाथ चरित्र मल्लिनाथ चरित्र धन्यकुमार चरित्र सुदर्शन चरित्र 13. पार्श्वनाथ चरित्र 15. नेमिजिन चरित्र 17. तत्वार्थसार दीपक 19. आगमसार 21. सारचतुविंशतिका 23. जम्बूस्वामी चरित्र पूजा ग्रन्थ 2. प्रश्नोत्तरोपासकाचार 4. उत्तर पुराण 6. वर्द्धमान चरित्र यशोधर चरित्र सुकुमाल चरित्र 12. सद्भाषितावलि व्रतकथा कोष कर्मविपाक सिद्धान्तसार दीपक परमात्मराज स्तोत्र 22. श्रीपाल चरित्र 24. द्वादशानुप्रेक्षा 16. 18. 20. 25. अष्टान्हिका पूजा 27. गणधरवलय पूजा 26. सोलहकारण पूजा राजस्थानी कृतियां 1. आराधना प्रतिबोध सार 3. मुक्तावलि गीत सोलह कारण रास 7. शान्तिनाथ फाग 2. नेमीश्वर गीत 4. णमोकार फल गीत 6. सारसीखामणि रास उक्त कृतियों के अतिरिक्त अभी और भी रचनाएं हो सकती हैं जिनकी अभी खोज होना बाकी है। भट्टारक सकलकीति की संस्कृत भाषा के समान राजस्थानी भाषा में भी कोई बडी रचना मिलनी चाहिये, क्योंकि इनके प्रमुख शिष्य ब्र. जिनदास ने इन्हीं की प्रेरणा एवं उपदेश से राजस्थानी भाषा में 50 से भी अधिक रचनाएं निबद्ध की हैं। अकेले इन्हीं के साहित्य पर एक शोध प्रबन्ध लिखा जा सकता है। अब यहां कुछ ग्रन्थों का परिचय दिया जा रहा है। 1. आदिपुराण--इस पुराण में भगवान् आदिनाथ, भरत, बाहुबलि, सुलोचना, जयकीर्ति आदि महापुरुषों के जीवन का विस्तृत वर्णन किया गया है। पुराण सर्गों में विभक्त है और इसमें 20 सर्ग हैं। पूराण की श्लोक संख्या 4628 श्लोक प्रमाण हैं। वर्णन, शैली सुन्दर एवं सरस है। रचना का दूसरा नाम 'वषभनाथचरित्र' भी है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 2. उत्तर पुराण --इसमें 23 तीर्थंकरों के जीवन का वर्णन है एवं साथ में चक्रवर्ती बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण प्रादि शलाका-महापुरुषों के जीवन का भी वर्णन है। इसमें 15 अधिकार हैं। उत्तरपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी से प्रकाशित हो चुका है । 3. कर्मविपाक --यह कृति संस्कृत गद्य में है । इसमें आठ कर्मों के तथा उनके 148 भेदों का वर्णन है । प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध एवं अनभाग बन्ध की अपेक्षा से कर्मों के बन्ध का वर्णन है । वर्णन सुन्दर एवं बोधगम्य है। यह ग्रन्थ 547 श्लोक संख्या प्रमाण है। रचना अभी तक अप्रकाशित है । 4. तत्वार्थसार दीपक --सकलकीर्ति ने अपनी इस कृति को अध्यात्म महाग्रन्थ कहा है। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष इन मात तत्वों का वर्णन 12 अध्यायों में निम्न प्रकार विभक्त है:-- प्रथम सात अध्याय तक जीव एवं उसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन है। शेष 8 से 12 वें अध्याय में अजीव, आस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष का क्रमशः वर्णन है । ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। 5. धन्यकुमार चरित्र--- यह एक छोटा सा ग्रन्थ है जिसम सेठ धन्यकुमार के पावनजीवन का यशोगान किया गया है । पूरी कथा साथ अधिकारों म समाप्त होती है । धन्यकुमार का जीवन अनेक कौतूहलों एवं विशेषताओं से ओत-प्रोत है। एक बार कथा आरम्भ करने के बाद पूरी पढे बिना उसे छोडने को मन नहीं करता । भाषा सरल एवं सुन्दर है । ___6. नेमिजिन चरित्र--नेमिजिन चरित्र का दूसरा नाम हरिवंश पुराण भी है । नेमिनाथ 22वें तीर्थंकर थे जिन्होंने युग में अवतार लिया था। वे कृष्ण के चचेरे भाई थे। अहिंसा में दृढ विश्वास होने के कारण तोरण-द्वार पर पहुंचकर एक स्थान पर एकत्रित जीवों को वध के लिये लाया हुआ जानकर विवाह के स्थान पर दीक्षा ग्रहण कर ली थी तथा राजुल जैसी अनुपम सुन्दर राजकुमारी को त्यागने में जरा भी विचार नहीं किया था। इस प्रकार इसमें भगवान् नेमिनाथ एवं श्री कृष्ण के जीवन एवं उनके पूर्व-भवों में वर्णन हैं। कृति की भाषा काव्यमय एवं प्रवाहयुक्त है । इसकी संवत् 1571 में लिखित एक प्रति आमेर शास्त्र भंडार जयपुर में संग्रहीत है । 7. मल्लिनाथ चरित्र-- 20 वें तीर्थ कर मल्लिनाथ के जीवन पर यह एक छोटा सा काव्य ग्रन्थ है जिसमें 7 सर्ग है। 8. पाश्वनाथ चरित्र--- इसमें 23 वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ के जीवन का वर्णन है। यह एक 23 सर्ग वाला सुन्दर काव्य है। मंगलाचरण के पश्चात् कुन्दकुन्द, अकलंक, समन्तभद्र, जिनसेन आदि आचार्यों को स्मरण किया गया है । 9. सुदर्शन चरित्र--- इस प्रबन्ध काव्य म सेठ सुदर्शन के जीवन का वर्णन किया गया है, जो आठ परिच्छेदों में पूर्ण होता है। काव्य की भाषा सुन्दर एवं प्रभावयुक्त है। 10. सुकुमाल चरित्र-- यह एक छोटा सा प्रबन्ध काव्य है, जिसमें मुनि सुकुमाल के जीवन का पूर्व-भव सहित वर्णन किया गया है। पूर्व में हुआ बैर-भाव किस प्रकार अगले जीवन में भी चलता रहता है इसका वर्णन इस काव्य में सुन्दर रीति से हुआ है। इसमें Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107 सुकुमाल के वैभव पूर्ण जीवन एवं मुनि अवस्था की घोर तपस्या का अति सुन्दर एवं रोमांचकारी वर्णन मिलता है। पूरे काव्य में 9 सर्ग हैं । 11. मूलाचार प्रदीप -- यह आचार शास्त्र का ग्रन्थ है जिसमें जैन साधु के जीवन में कौन कौन सी क्रियाओं की साधना आवश्यक है-इन क्रियाओं का स्वरूप एवं उनके भेद-प्रभेदों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । इसमें 12 अधिकार हैं जिनमें 28 मूलगुण, पंचाचार, दशलक्षण धर्म, बारह अनुप्रेक्षा एवं बारह नय आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। 12. सिद्धान्तसार दीपक --- यह करणानुयोग का ग्रन्थ है - इसमें उर्ध्वलोक, मध्यलोक एवं पाताल लोक और उनमें रहने वाले देवों, मनुष्यों, तिर्यचों तथा नारिकयों का विस्तृत वर्णन है । इसमें जैन सिद्धान्तानुसार सारे विश्व का भूगोलिक एवं खगोलिक वर्णन आ जाता है । इसका रचना काल सं. 1481 है। रचना स्थान है-नगली नगर । प्रेरक थे इसके . जिनदास । जैन सिद्धान्त की जानकारी के लिये यह बड़ा उपयोगी है । ग्रन्थ 16 सर्गों में है । 13. वर्द्धमान चरित्र --- इस काव्य में अन्तिम तीर्थंकर महावीर वर्द्धमान के पावनजीवन का वर्णन किया गया है। प्रथम 6 सर्गों में महावीर के पूर्व भवों का एवं शेष 13 अधिकारों में गर्भ कल्याणक से लेकर निर्वाण प्राप्ति तक विभिन्न लोकोत्तर घटनाओं का विस्तृत वर्णन मिलता है । भाषा सरल किन्तु काव्यमय है । वर्णन शैली अच्छी है । कवि जिस किसी वर्णन को जब प्रारम्भ करता है तो वह फिर उसी में मस्त हो जाता है । 14. यशोधर चरित्र -- राजा यशोधर का जीवन जैन समाज में बहुत प्रिय रहा है। इसलिये इस पर विभिन्न भाषाओं में कितनी ही कृतियां मिलती हैं । सकलकीति की यह कृति संस्कृत भाषा की सुन्दर रचना है । इसमें आठ सर्ग हैं। इसे हम एक प्रबंध काव्य कह सकते हैं । 15. सद्भाषितावलि -- यह एक छोटा सा सुभाषित ग्रन्थ है जिसमें धर्म, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, इन्द्रियविषय स्त्री सहवास, कामसेवन, निर्ग्रन्थ सेवा, तप, त्याग, राग, द्वेष, लोभ आदि विषयों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । 16. श्रीपाल चरित्र - यह सकलकीर्ति का एक काव्य ग्रन्थ है जिसमें 7 परिच्छेद हैं | कोटीभट श्रीपाल का जीवन अनेक विशेषताओं से भरा पडा है । राजा से कुष्टी होना, समुद्र में गिरना, सूली पर चढना आदि कितनी हो घटनायें उसके जोवन में एक के बाद दूसरी आती है जिससे उसका सारा जीवन नाटकीय बन जाता है । सफलकीर्ति ने इसे बडा सुन्दर रीति से प्रतिपादित किया है। इस चरित्र की रचना कर्मफल सिद्धांत को पुरुषार्थ से अधिक विश्वसनीय सिद्ध करने के लिये की गई है। मानव हो क्या विश्व के सभी जीवधारियों का सारा व्यवहार उसके द्वारा उपार्जित पाप-पुण्य पर आधारित है। उसके सामने पुरुषार्थ कुछ भी नहीं कर सकता । काव्य पठनीय है । 17. शान्तिनाथ चरित्र - - शान्तिनाथ 16 वें तीर्थंकर थे । तीर्थ कर के साथ-साथ वे कामदेव एवं चक्रवर्ती भी थे । उनके जीवन की विशेषतायें बतलाने के लिये इस काव्य की रचना की गई है। काव्य में 16 अधिकार हैं तथा 3475 श्लोक संख्या प्रमाण हैं । इस काव्य को महाकाव्य की संज्ञा मिल सकती है । भाषा अलंकारिक एवं वर्णन प्रभावमय है । प्रारम्भ में कवि ने श्रंगार रस से ओत-प्रोत काव्य की रचना क्यों नहीं करनी चाहिये इस पर अच्छा प्रकाश डाला है । काव्य सुन्दर एवं पठनीय है । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 18. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार- इस कृति में श्रावकों के आचार-धर्म का वर्णन है । श्रावकाचार 24 परिच्छेदों में विभक्त है, जिसमें आचार शास्त्र पर विस्तृत विवेचन किया गया है। भटटारक सकलकीर्ति स्वयं मुनि भी थे--इसलिये उनसे श्रद्धाल भक्त आचार-धर्म के विषय में विभिन्न प्रश्न प्रस्तुत करते होगे---इसलिये उन सबके समाधान के लिये कवि ने इस ग्रन्थ का निर्माण किया। भाषा एवं शैली की दृष्टि से रचना सुन्दर है । कृति में रचनाकाल एवं रचना स्थान नहीं दिया गया है। 19. पुराणसार संग्रह--- प्रस्तुत पुराण संग्रह में 6 तीर्थ कर के चरित्रों का संग्रह है और ये तीर्थ कर है-आदिनाथ, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर वर्द्धमान । भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से “पुराणसार संग्रह प्रकाशित हो चुका है। प्रत्येक तीर्थ कर का चरित्र अलग-अलग सर्गों में विभक्त है जो निम्न प्रकार है: आदिनाथ चरित्र चन्द्रप्रभ चरित्र शान्तिनाथ चरित्र नेमिनाथ चरित्र पार्श्वनाथ चरित्र महावीर चरित्र 5 सर्ग 1 सर्ग 6 सर्ग 5 सर्ग 5 सर्ग 5 सग 20. व्रतकथा कोष--- व्रतकथा कोष की एक हस्तलिखित प्रति जयपुर के दि. जैन मन्दिर पाटोदी के शास्त्र भंडार में संग्रहीत है। इनमें विभिन्न ब्रतों पर आधारित कथाओं का संग्रह है। ग्रन्थ की पूरी प्रति उपलब्ध नहीं होने से अभी तक यह निश्चित नहीं हो सका कि भट्टारक सकलकीति ने कितनी व्रत कथायें लिखी थीं। 21. परमात्मराज स्तोत्र-- यह एक लवुस्तोत्र है, जिसमें 16 पद्य है । स्तोत्र सुन्दर एवं भावपूर्ण है। इसका 1 प्रति जयपुर के दि. जैन मन्दिर पाटोदी के शास्त्र भंडार में संग्रहीत है। उक्त संस्कृत कृतियों के अतिरिक्त पञ्चपरमेष्ठिपूजा, अष्टान्हिका पूजा, सोलहकारण पूजा, गणधरवलय पूजा, द्वादशानुप्रेक्षा एवं सारचतुर्विशतिका आदि और कृतियां है जो राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। 15. भट्टारक ज्ञानभूषण ज्ञानभूषण नाम के भी चार भट्टारक हुए हैं। इसमें सर्व प्रथम भट्टारक सकलकीति की परम्परा में भट्टारक भवनकीर्ति के शिष्य थे। दूसरे ज्ञानभूषण भटारक वीरचन्द्र के शिष्य थे जिनका सम्बन्ध सूरत शाखा के भट्टारक देवेन्द्रकीति की परम्परा से था। ये संवत् 1600 से 1616 तक भटटारक रहे। तीसरे शानभूषण का सम्बन्ध अटेर शाखा से रहा था और इनका समय 17 वीं शताब्दी का माना जाता है और चौथे ज्ञानभूषण नागौर गादी के भट्टारक रत्नकीर्ति के शिष्य थे। इनका समय 18 वीं शताब्दो का अन्तिम चरण था। 1. देखिये भट्टारक पट्टावलि शास्त्र भण्डार भ. यशः कीति दि. जैन सरस्वती भवन, ऋषभदेव, (राजस्थान) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 प्रस्तुत भट्टारक ज्ञानभूषण पहिले भट्टारक विमलेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे और बाद में इन्होंने भद्रारक भवनकीर्ति को भी अपना गुरु स्वीकार कर लिया था। ज्ञानभषण एवं ज्ञानकीति । दोनों ही सगे भाई एवं गुरु भाई थे और वे पूर्वी गोलालारे जाति के श्रावक थे। किन संवत 1535 में सागवाडा एवं नोगाम में एक साथ दो प्रतिष्ठाएं प्रारम्भ हई। सागवाडा होने वाली प्रतिष्ठा के संचालक भट्टारक ज्ञानभूषण और नोगाम की प्रतिष्ठा महोत्सव का संचालन ज्ञानकीति ने किया। यहीं से भट्टारक ज्ञानभूषण वृहद् शाखा के भटारक माने जाने लगे और भट्टारक ज्ञानकोति लघु शाखा के गुरु कहलाने लगे।। एक नन्दि संघ की पट्टावली से ज्ञात होता है कि ये गुजरात के रहने वाले थे। गुजरात में ही उन्होंने सागार-धर्म धारण किया, अहीर (आभोर) देश में ग्यारह प्रतिमाएं धारण की और वाग्वर या बागड देश में दुर्धर महाव्रत ग्रहण किय। तलव देश के यतियों में इनकी बडी प्रतिष्ठा यी । तैलव दश के उत्तम पुरुषों ने उनके चरणां की वन्दना की, द्रविड देश के विद्वानों ने उनका स्तवन किया, महाराष्ट्र में उन्हें बहुत यश मिला, सौराष्ट्र के धनी श्रावकों ने उनके लिए महामहोत्सव किया। रायदेश (ईडर के आस-पास का प्रान्त) के निवासियों ने उनके वचनों को अतिशय प्रमाण माना, मेरूभाट (मेवाड) के मुर्ख लोगों को उन्होंने प्रतिबोधित किया, मालवा के भव्यजनों के हृदय-कमल को विकसित किया, मेवात में उनके अध्यात्म-रहस्यपूर्ण व्याख्यान से विविध विद्वान श्रावक प्रसन्न हुए। कुरुजांगल के लोगों का अशान रोग दूर किया, वैराठ (जयपुर के आस-पास) के लोगों को उभय मार्ग (सागार, अनगार) दिखलाये, नमियाड (नीमाड) में जैन धर्म की प्रभावना की। भैरव राजा ने उनकी भक्ति की इन्द्रराज ने चरण पूजे, राजाधिराज देवराज ने चरणों की आराधना की। जिन धर्म के आराधक मुदलियार, रामनाथराय, बोम्मरसराय, कलपराय, पांडराय आदि राजाआने पूजा की और उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा की। व्याकरण-छन्द-अलंकार-साहित्य-तक-आगम-आध्यात्म आदि शास्त्र रूपी कमलों पर विहार करने के लिए वे राजहंस थे और शुद्ध ध्यानामृत-पान की उन्हें लालसा थी। ये उक्त विवरण कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण भी हो सकता है लेकिन इतना अवश्य है कि ज्ञानभूषण अपने समय के प्रसिद्ध सन्त थे और उन्होंने अपने त्याग एवं विद्वत्ता से सभी को मुग्ध कर रखा था। ज्ञानभूषण भट्टारक भुवनकीति के पश्चात सागवाडा में भट्टारक गादो पर बैठे। अब तक सबसे प्राचीन उल्लेख संवत् 1531 बैशाख सुदो 2 का मिलता है जब कि इन्होंने डूगरपुर में आयोजित प्रतिष्ठा महोत्सव का संचालन किया था। उस समय डूगरपुर पर रावल सोमदास एवं रानी गराई का शासन था। ज्ञानभूषण भट्टारक गादी पर संवत् 1531 से 1557-58 तक रहे । संवत 1560 में उन्होंने तत्वज्ञान तरीगणो की रचना समाप्त को थो इसको पुष्पिका में इन्होंन अपन नाम के पूर्व मुमक्ष शब्द जोडा है जो अन्य रचनाओं में नहीं मिलता। इससे ज्ञात होता है कि इसा वष अथवा इससे पूर्व ही इन्हान भट्टारक पद छोड दिया था। साहित्य साधना ___ज्ञानभूषण भट्टारक बनने से पूर्व और इस पद को छोड़ने के पश्चात् भी साहित्य-साधना में लगे रहे। व जबरदस्त साहित्य सेवो थे। प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, गुजराती एवं राजस्थानी 1. देखिये भट्टारक पट्टावलि शास्त्रभण्डार भ. यशः कीति दि. जैन सरस्वती भवन ऋषभदेव, (राजस्थान) 2. देखिये पं. नाथूरामजी प्रेमी कृत जैन साहित्य और इतिहास पृ. 381-82 3. संवत् 153 1 वर्ष वैसाख धुदी 5 बुधे श्री मूलसंधे भ.श्री सकलकोतिस्तत्पट्टे भ. भुवनकोति देवास्तत्पट्टे भ. श्री ज्ञानभूषणस्तदुपदेशात् मेघा भायो टीग प्रणमति श्री गिरिपुर रावल श्री सोमदास राजी गुराई सुराज्ये । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा पर इनका पूर्ण अधिकार था । इन्होंने संस्कृत एवं हिन्दी में मौलिक कृतियां निबद्ध कीं और कृत ग्रन्थों की संस्कृत टीकाएं लिखीं । यद्यपि संख्या की दृष्टि से इनकी कृतियां अधिक नहीं हैं फिर भी जो कुछ हैं वे ही इनकी विद्वत्ता एवं पांडित्य को प्रदर्शित करने के लिये पर्याप्त हैं । श्री नाथूराम जी प्रेमी ने इनके "तत्वज्ञानतरंगिणी, सिद्धान्तसार भाष्य, परमार्थोपदेश, दीश्वर फाग, भक्तामरोद्यापन, सरस्वती पूजा" ग्रन्थों का उल्लेख किया है । 2 पंडित परमानन्द तीन उक्त रचनाओं के अतिरिक्त सरस्वती स्तवन, आत्म सम्बोधन आदि का और उल्लेख किया है। इधर राजस्थान के जैन ग्रन्थ भंडारों की जब से लेखक ने खोज एवं छानबीन की है ब से उक्त रचनाओं के अतिरिक्त इनके और भी ग्रन्थों का पता लगा है । अब तक इनकी जितनी चनाओं का पता लग पाया है उनके नाम निम्न प्रकार हैं: संस्कृत ग्रन्थ 4. 46282 5. 6. 7. 1. आत्मसंबोधन काव्य 2. ऋषिमंडल पूजा 4 3. तत्वज्ञान तरंगिणी पूजाष्टक टीका 4. 8. 9. 5. इसमें शुद्ध तत्वज्ञानतरंगिणीः --- इसे ज्ञानभूषण की उत्कृष्ट रचना कही जा सकती है । आत्म तत्व की प्राप्ति के उपाय बतलाये गये हैं । रचना अधिक बड़ी नहीं है किन्तु कवि ने उसे 18 अध्यायों में विभाजित किया है इसकी रचना सं. 1560 में हुई थी जब वे भट्टारक पद छोड के थे और आत्मतत्व की प्राप्ति के लिये मुमुक्ष बन चुके थे । रचना काव्यत्वपूर्ण एवं विद्वत्ता लिये हुए है । 16. भट्टारक शुभचन्द्र I शुभचन्द्र भट्टारक विजयकीति के शिष्य थे । वे अपने समय के प्रसिद्ध भट्टारक, साहित्य प्रेमी, धर्म प्रचारक एवं शास्त्रों के प्रबल विद्वान् थे । 10. 11. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 2. देखिये पं. नाथूरामजी प्रेमी कृत जैन साहित्य और इतिहास पृ. 382 3. देखिये पं. परमानन्द जी का " जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह " राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रन्थ सूची भाग चतुर्थ पू. सं. 463 पंचकल्याणकोद्यापन पूजा भक्तामर पूजा श्रुत पूजा?" सरस्वती पूजा सरस्वती स्तुति शास्त्र मंडल पूजा 10 दशलक्षण व्रतोद्यापन पूजा 11 33 " 110 " 17 33 राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रन्थ सूची भाग चतुर्थ 1. 11 11 "" 650 523 537 515 सं. 657 830 830 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 इनका जन्म संवत 1530-40 के मध्य कभी हआ होगा । ये जब बालक थे तभी से इनका इन भट्टारकों से सम्पर्क स्थापित हो गया। प्रारम्भ में इन्होंने अपना समय संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के ग्रन्थों के पढने में लगाया। व्याकरण एवं छन्द शास्त्र में निपुणता प्राप्त की और फिर भटट्रारक ज्ञानभषण एवं भटटारक विजयकीर्ति के सान्निध्य में रहने लगे। श्री वी.पी. जोहरापूरकर के मतानुसार ये संवत् 1573 में भट्टारक बने।4 और वे इसी पद पर संवत् 1613 तक रहे । इस तरह शुभचन्द्र ने अपने जीवन का अधिक भाग भट्टारक पद पर रहते हुए ही व्यतीत किया। बलात्कारगण की ईडर शाखा की गद्दी पर इतने समय तक सम्भवतः ये ही भट्टारक रहे । इन्होंने अपनी प्रतिष्ठा एवं पद का खूब अच्छी तरह सदुपयोग किया और इन 40 वर्षों में राजस्थान, पंजाब, गुजरात एवं उत्तर प्रदेश में भगवान महावीर के शासन का जबरदस्त प्रभाव स्थापित किया। विद्वत्ता शुभचन्द्र शास्त्रों के पूर्ण मर्मज्ञ थे। ये षट् भाषा-कवि चक्रवर्ती कहलाते थे। छह भाषाओं में सम्भवतः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी, गजराती एवं राजस्थानी भाषायें थीं। ये विविध विद्याधर (शब्दागम, यक्त्यागम एवं परमागम) के ज्ञाता थे। पट्टावलि के अनुसार ये प्रमाणपरीक्षा, पत्र परीक्षा, पूष्प परीक्षा (?) परीक्षा-मुख, प्रमाण-निर्णय, न्यायमकरन्द न्यायकुमुदचन्द्र, न्याय विनिश्चय, श्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, प्रमेयकगल मार्तण्ड, आप्तमीमांसा अष्टसहस्री, चिंतामणिमीमांसा, विवरण वाचस्पति, तत्व कौमदी आदि न्याय ग्रन्थों के जैनेन्द्र शाकटायन, एन्द्र, पाणिनी, कलाप आदि व्याकरण ग्रन्थों के, त्रैलोक्यसार गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, सुविज्ञप्ति, अध्यात्माष्ट-सहस्री (? और छन्दोलंकार आदि महाग्रन्थों के पारगामी विद्वान थे।5 साहित्यिक सेवा शुभचन्द्र ज्ञान के सागर एवं अनेक विद्याओं में पारंगत विद्वान थे। वे वक्तत्व-कला में पट तथा आकर्षक व्यक्तित्व वाले सन्त थे। इन्होंने जो साहित्य सेवा अपने जीवन में की थी वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है । अपने संघ की व्यवस्था तथा धर्मोपदेश एवं आत्मसाधना के अतिरिक्त जो भी समय इन्हें मिला उसका साहित्य-निर्माण में ही सदुपयोग किया गया। वे स्वयं ग्रन्थों का निर्माण करते, शास्त्र भण्डारों की सम्हाल करत, अपने शिष्यों से प्रतिलिपियां करवाते, तथा जगह-जगह शास्त्रागार खोलने की व्यवस्था कराते थे। वास्तव में ऐसे ही सन्तों के सद्प्रयास से भारतीय साहित्य सूरक्षित रह सका है। पाण्डवपुराण इनकी संवत् 1608 की कृति है। उस समय साहित्यिक-जगत में इनकी ख्याति चरमोत्कर्ष पर थी। समाज में इनकी कृतियां प्रिय बन चुकी थीं और उनका अत्यधिक प्रचार हो चुका था। संवत् 1608 तक जिन कृतियों को इन्होंने समाप्त कर लिया था उनमें (1) चन्द्रप्रभ चरित्र (2) श्रेणिक चरित्र (3) जीवंधर चरित्र (4) चन्दना कथा (5) अष्टान्हिका कथा (6) सद्वृत्तिशालिनी (7) तीन चौबीसी पूजा (8) सिद्धचक्र पूजा (9) सरस्वती पूजा (10) चितामणि पूजा (11) कर्मदहन पूजा (12) पार्श्वनाथ काव्य पंजिका (13) पल्यव्रतोद्यापन (14) चारित्र शुद्धिविधान (15) संशयवदन विदारण (16) अपशब्द खण्डन (17) तत्व निर्णय (18) स्वरूप संबोधन वृत्ति (19) अध्यात्म तरंगिणी (20) चितामणि प्राकृत व्याकरण (21) अंगप्रज्ञप्ति आदि के नाम उल्लेखनीय है। उक्त साहित्य भट्टारक शुभचन्द्र के कठोर परिश्रम एवं त्याग का फल है । इसके पश्चात् 4. देखिये भट्टारक सम्प्रदाय पृष्ठ संख्या 158 5. देखिये नाथूरामजी प्रेमी कृत-जैन साहित्य और इतिहास पृ.सं. 383 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 न्होंने और भी कृतियां लिखीं। संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त इनकी कुछ रचनायें हिन्दी में भो उपलब्ध होती है। लेकिन कवि ने पाण्डव पुराण में उनका कोई उल्लेख नहीं किया है । राजस्थान के प्रायः सभी ग्रन्थ भण्डारों में इनकी अब तक जो कृतियां उपलब्थ हई हैं वे निम्न प्रकार है:-- संस्कृत रचनाएं 1. ऋषि मंडल पूजा अनन्त व्रत पूजा अम्बिका कल्प 4. अष्टान्हिका व्रत कथा 5. अष्टान्हिका पूजा 6. अढाई द्वीप पूजा 7. करकण्ड चरित्र कर्मदहन पूजा 9. कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका गणधरवलय पूजा 11. गरावली पूजा 12. चतुर्विशति पूजा 13. चन्दना चरित्र 14. चन्दनषष्टिव्रत पूजा 15. चन्द्रप्रभ चरित्र चरित्र शद्धि विधान चितामणि पार्श्वनाथ पूजा 8. जीवंधर चरित्र 19. तेरह दीप पूजा 20. तीन चौवीसी पूजा 21. तीस चौवीसी पूजा 22. त्रिलोक पूजा 23. वपन क्रियागति 24. नन्दीश्वर पंक्ति पूजा 25. पंच कल्याणक पूजा 26. पंच गणमाल पूजा 27. पंचपरमेष्टी पूजा 28. पल्यत्रतोद्यापन पाण्डवपुराण 30. पार्श्वनाथ काव्य पंजिका 31. प्राकृत लक्षण टीका 32. पुष्पांजलिव्रत पूजा 33. प्रद्यम्न चरित्र 34. बारहसौ चौतीस व्रत पूजा 35. लघु सिद्ध चक्रपूजा 36. बृहद् सिद्ध पूजा 37. श्रेणिक चरित्र 38. समयसार टीका 39. सहस्रगुणित पूजा 40. सुभाषितार्णव 17. भट्टारक श्रोभूषण ये भट्टारक भानुकोर्ति के शिष्य थे तथा नागौर गादी के संवत् 1705 में भट्टारक बने थे। 7 वर्ष तक भट्टारक रहने के पश्चात् इन्होंने अपने शिष्य धर्मचन्द्र को भटटारक गादी देकर एक उत्तम उदाहरण उपस्थित किया था। ये खण्डेलवाल एवं पाटनी गौत्र के थे। साहित्य रचना में इन्हें विशेष रुचि थी। इनकी कुछ रचनायें निम्न प्रकार हैं:-- अनन्तचतुर्दशी पूजा संस्कृत अनन्तनाथ पूजा भक्तामर पूजा विधान श्रुतस्कंध पूजा सप्तर्षि पूजा Co w WNNNNN 18. भट्टारक धर्मचन्द्र भट्टारक धर्मचन्द्र का पट्टाभिषेक मारोठ में संवत् 1712 में हुआ था। ये नागौर गादी के भटारक थे। एक पट्टावली के अनुसार ये 9 वर्ष गहस्थ रहे, 20 वर्ष तक साधु अवस्था में रहे तथा 15 वष तक भट्टारक पद पर आसीन रहे। संस्कृत एवं हिन्दी दोनों के हो थे। प्रशस्ति के लिये देखिये लेखक द्वारा सम्पादित 'प्रशस्ति संग्रह प्र.सं. 71 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 अच्छे विद्वान् थे और इन्होंने संवत् 1726 में 'गौतमस्वामीचरित' की रचना की थी। संस्कृत का यह एक अच्छा काव्य है। मारोठ (राजस्थान) में इसकी रचना की गई थी। उस समय मारो पर रघुनाथ का राज्य था। उक्त रचना के अतिरिक्त नेमिनाथ वीनती, सम्बोध पंचासिका एवं सहस्त्रनाम पूजा कृतियां और मिलती हैं। 19. पं. खेता सम्यक्त्व कौमुदी के रचयिता पण्डित खेता राजस्थानी विद्वान् थे। यह एक कथाकति है जिसका राजस्थान में विशेष प्रचार रद्रा और यहां के शास्त्र भण्डारों में इसकी रहा और यहां के शास्त्र भण्डारों में इसकी अनकों प्रतियां उपलब्ध होती हैं। सम्यक्त्व कौमदी की एक पाण्डलिपि संवत 1582 में प्रतिलिपि करवा कर चंपावती नगरी में ब. बचराज को प्रदान की गयी थी।ये वैद्य-विद्या में पारंगत थे और अपनी विद्या के कारण रणथम्भौर दुर्ग के बादशाह शेरशाह द्वारा सम्मानित हुये थे। 20. पण्डित मेधावी पडित मेधावी संस्कृत के धुरन्धर विद्वान् थे। ये भट्टारक जिनचन्द्र के प्रिय शिष्य थे। इनके पिता का नाम उद्धरण साहु तथा माता का नाम भीषही था। जाति से अग्रवाल जैन थे। एक प्रशस्ति में उन्होंने अपने आपको पण्डित-कुंजर लिखा है। अग्रोतवंशज : साधुर्लवदेवाभिधानकः । तस्वगुद्धरणः संज्ञा तत्पत्नी भीषुहीप्सुभिः ॥32॥ तयो पुत्रोस्ति मेघावी नामा पंडितकुंजरः । आप्तागमविचारज्ञो जिनपदाम्बुज षट्पदः ॥33॥ इन्होंने इसी तरह अन्य प्रशस्तियों में भी अपना परिचय दिया है । इन्होंने संवत् 1541 में धर्मसंग्रह श्रावकाचार की रचना नागौर में सम्पन्न की थी । वैसे इन्होंने इसे हिसार में प्रारम्भ किया था। उन्होंने यह भी संकेत दिया है कि प्रस्तुत धर्मसंग्रह श्रावकाचार, समन्तभद्र वसुनन्दि एवं आशाधर के विचारों के आधार पर ही अपने आचार शास्त्र की रचना की है। इस ग्रन्थ की विस्तृत प्रशस्ति दी हुई है। 21. पण्डित जिनदास पण्डित जिनदास रणथम्भौर दर्ग के समीप स्थित नवलक्षपर के रहने वाले थे। इसके पिता का नाम खेता था जिनका ऊपर परिचय दिया जा चुका है। पण्डित जिनदास भी आयुर्वेद विशारद थे। इन्होंने होली रेणुका चरित्र' की रचना संवत् 1608 में (सन् 1551 ई.) मे समाप्त की थी। रचना अभी तक अप्रकाशित है। 22. पण्डित राजमल्ल पं. राजमल्ल संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। वे जयपुर से दक्षिण की और 40 मील दूरी पर स्थित बैराठ नगर के रहने वाले थे। व्याकरण, सिद्धान्त, छंदशास्त्र और स्याद्वाद विद्या : पारंगत थे। अध्यात्म का प्रचार करने के लिये वे मारवाड, मेवाड एवं ढूंढाड के नगरों में म्रमा करते। इन्होंने आचार्य अमतचन्द्र कृत समयसार टीका पर राजस्थानी में टीका लिखी थी अब तक इनके निम्न ग्रन्थ उपलब्ध हो चुके हैं:-जम्बू स्वामीचरित्र, अध्यात्मकमलमालपर लाटी संहिता, छन्दो विद्या एवं पंचाध्यायी। जम्बूस्वामी चरित्र की रचना संवत् 1632 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 सम्पन्न हुई थी। इसमें अन्तिम केवली जम्बूस्वामी का जीवन चरित्र निबद्ध है। 'अध्यात्मकमलर्तण्ड' 250 श्लोक प्रमाण रचना है। इसमें सात तत्व एवं नौ पदार्थों का वर्णन है। लाटी संहिता चार शास्त्र है इसमें सात सर्ग हैं और 1600 के लगभग पद्यों की संख्या है। इसकी रचना 'राट नगर के जिन मन्दिर में सम्पन्न हई थी। पंचाध्यायी में पांच अध्याय होने चाहिये लेकिन च में कवि का निधन होने के कारण यह रचना पूर्ण नहीं की जा सकी। इनका समय [7वीं शताब्दी का है। 23. ब्र. कामराज ब्र. कामराज भ. सकलभूषण के प्रशिष्य एवं भ. नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य ब्र. प्रहलाद णी के शिष्य थे। इन्होंने संवत 1691 में 'जयपुराण' को मेवाड में समाप्त किया था। जिसका ल्लेख निम्न प्रकार है: राष्ट्रस्यैतत्पुराणं शकमनुजपतर्मेदपाटस्य पुर्या पश्चात्संवत्सरस्य प्ररचितपटतः पंच पंचाशतो हि। अभ्राभ्राक्षकसंवच्छरनिवियुजः (1555) फाल्गुने मासि पूणेमुख्यायामौदयायो सुकविनयिनो लालजिष्णोश्च वाक्यात् ॥ 24. पण्डित जगन्नाथ पोमराज श्रेष्ठि के पुत्र पण्डित जगन्नाथ तक्षकगढ (वर्तमान नाम टोडारायसिंह) के पहन वाले थे। ये भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। इनके भाई वादिराज भी संस्कृत के बडे पारी विद्वान थे। पं. जगन्नाथ की अब तक 6 रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं जिनमें चतुर्विशति संधान स्वोपज्ञ टीका, सुखनिधान, सुषेण चरित, नमिनरेन्द्र स्तोत्र, कर्मस्वरूप वर्णन के नाम उल्लेखनीय हैं। सभी रचनायें संस्कृत भाषा की अच्छी रचनायें हैं। 25. वादिराज ये खण्डेलवाल वंशीय श्रेष्ठि पोमराज के दूसरे पुत्र थे। ये संस्कृत के अच्छे विद्वान थे तथा राजनीति में भी पट थे। वादिराज ने अपने आपको धनंजय, आशाधर और बाणभटट का पद गरण करने वाला दूसरा बाणभट्ट लिखा है। वहां के राजा राजसिंह को दूसरा जयसिंह तथा क्षिकनगर को दूसरे अणहिलपुर की उपमा दी है। धनअजयाशाधरवाग्भटानां धत्ते पद सम्प्रति वादिराजः । खांडिल्लवंशोद्भव-पोमसूनु, जिनोक्तिपीयूषसुतृप्तगात्रः ।। वादिराज तक्षकनगर के राजा राजसिंह के महामात्य थे। राजसिंह भीमसिंह के पुत्र थे। वादिराज के चार पुत्र थे-रामचन्द्र, लालजी, नेमिदास और विमलदास। वादिराज की तीन कृतियां मिलती है एक है वाग्भटालंकार की टीका कविचन्द्रिका' दूसरी रचना ज्ञानलोचन स्तोत्र तथा तीसरी सुलोचना चरित्र है। कविचन्द्रिका को इन्होंन सवंत 1729 को दीपमालिका के दिन समाप्त की थी। कवि 18वीं शताब्दि के प्रथम चरण के विद्वान् थे। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति भट्टारक जगत्कीति के शिष्य थे । संवत् 1770 की माह बुदी 11 को आमेर में इनका पट्टाभिषेक हुआ था । उस समय आमेर अपने पूर्ण वैभव पर था और महाराजा सवाई जयसिंह उसके शासक थे । ये करीब 22 वर्ष तक भट्टारक पद पर रहे। इन्होंने समयसार पर एक संस्कृत टीका ईसरदा (राज.) में संवत् 1788 में समाप्त की थी। देवेन्द्रकीति ने राजस्थान एवं विशेषतः ढूंढाड प्रदेश में विहार करके साहित्य का अच्छा प्रचार किया था । 27. मट्टारक सुरेन्द्रकीति म. भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति का जयपुर में भट्टारक गादी पर पट्टाभिषेक हुआ था । पट्टावली में पट्टाभिषेक का समय सं. 1822 तथा बुद्धिविलास में संवत् 1823 दिया हुआ है। सुरेन्द्र-कीर्ति संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे। अब तक इनको निम्न रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं :-- 1. 2. अष्टान्हिका कथा पंच कल्याणक विधान पंचमास चतुर्दशी व्रतोद्यापन 3. 4. पुरन्दर - व्रतोद्यापन 5. लब्धि विधान 6. 7. 115 सम्मेदशिखर पूजा प्रतापकाव्य 28. आचार्य ज्ञानसागर वर्तमान शताब्दि में संस्कृत भाषा में महाकाव्यों के रचना की परम्परा को जीवित रखने वाले विद्वानों में जैनाचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है । वें 50 वर्षों से भी अधिक समय तक संस्कृत वाङ्मय की अनवरत सेवा करने में लगे रहे। आचार्य श्री का जन्म राजस्थान के सीकर जिलान्तर्गत राणोली ग्राम में संवत् 1948 में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम चतुर्भुज एवं माता का नाम घेवरी देवी था । उस समय उनका नाम भूरामल रखा गया। गांव की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् उनको संस्कृत भाषा के उच्च अध्ययन की इच्छा जाग्रत हुई और माता-पिता की अनुमति लेकर ये वाराणसी चले गये जहां उन्होंने संस्कृत एवं जैन सिद्धान्त का गहरा अध्ययन करके शास्त्री की परीक्षा पास की। राजस्थान के प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् प. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ आपके सहपाठियों में से थे । काशी के स्नातक बनने के पश्चात ये वापिस ग्राम आ गये और ग्रन्थों के अध्ययन के साथ-साथ स्वतन्त्र व्यवसाय भी करने लग । लेकिन काव्य- निर्माण में विशेष रुचि लेने के कारण उनका व्यवसाय में मन नहीं लगा । विवाह की चर्चा आने पर उन्होंने आजन्म अविवाहित रहने की अपनी हार्दिक इच्छा व्यक्त की और अपने आपको मां भारती की सेवा में समर्पित कर दिया । महाकवि के रूप में आचार्य श्री ने तीन महाकाव्य वीरोदय, जयोदय एवं दयोदय चम्पू चरित्र काव्य- समुद्रदत्त चरित्र, सुदर्शनोदय, भद्रोदय आदि एवं हिन्दी काव्य ऋषभचरित, भाग्योदय, विवेकोदय आवि Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 करीब 20 काव्य लिखकर मां भारती की अपूर्व सेवा की है। 'वीरोदय' भगवान महावीर के जीवन पर आधारित महाकाव्य है जो हमें महाकवि कालिदास, मारवि, श्रीहर्ष एवं माष आदि के महाकाव्यों की याद दिलाता है। इस काव्य में इन कवियों के महाकाव्यों की शैली को पूर्ण रूप से अपनाया गया है । तथा “माघे सन्ति त्रयो गणाः" बाली कहावत में वीरोदय काव्य में पूर्णतः चरितार्थ होती है। जयोदय काव्य में जयकुमार सुलोचना की कथा का वर्णन किया गया है। कान्य का प्रमुख उद्देश्य अपरिग्रह व्रत का महात्म्य दिखलाना है। इस काव्य में 28 सर्ग हैं जो आचार्य श्री के महाकाव्यों में सबसे बड़ा काव्य है। इसकी संस्कृत टीका भी स्वयं आचार्य श्री ने की है जिसमें काव्य का वास्तविक अर्थ समझने में पाठकों को सुविधा दी गई है। यह महाकाव्य संस्कृत टीका एवं हिन्दी अर्थ सहित शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है। दयोदय चम्पू में मृगसेन धीवर की कथा वर्णित है। महाकाव्यों में सामान्य वर्ग के व्यक्ति को नायक के रूप में प्रस्तुत करना जैन कवियों की परम्परा रही है और इस आधार पर इस काव्य में एक सामान्य जाति के व्यक्ति के व्यक्तित्व को उभारा गया है । धीवर जाति हिंसक होती है किन्तु मगसेन द्वारा अहिंसा व्रत लेने के कारण इसके जीवन में कितना निखार आता है और अहिंसा व्रत का कितना महत्व है इस तथ्य को प्रस्तुत करने के लिये आचार्य श्री ने दयोदय चम्पू काव्य की रचना की है। इसमें सात लम्ब (अधिकार) हैं और संस्कृत गद्य पद्य में निर्मित यह काव्य संस्कृत भाषा का अनूठा काव्य है। आचार्य श्री ने संस्कृत में काव्य रचना के साथ-साथ हिन्दी में भी कितने ही काव्य लिखे हैं। कुछ प्राचीन ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया तथा कर्तव्य-पथ-प्रदर्शन जैसी कृतियों द्वारा जन साधारण को छोटी-छोटी कथाओं के रूप में दैनिक कर्तव्यों पर प्रकाश डाला है। ऋषभदेव चरित हिन्दी का एक प्रबन्ध काव्य है जिसके 17 अध्यायों में आदि तीर्थकर ऋषभदेव का जीवन चरित निबद्ध है। इस काव्य में आचार्य श्री ने मानव को सामान्य धरातल से उठाकर जीवन को सूखी एवं समन्नत बनाने की प्रेरणा दी है। उक्त विद्वानों के अतिरिक्त पं.चैनसखदास न्यायतीर्थ, पं. इन्द्रलाल शास्त्री, पं. मलचन्द शास्त्री, पं. श्री प्रकाश शास्त्री के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। प. चैनसुखदास जी का जैनदर्शनसार, भावना-विवेक, पावनप्रवाह, निक्षेपचक्र संस्कृत की उत्कृष्ट रचनायें हैं । जैन दर्शनसार में जैन दर्शन के सार को जिस उत्तम रीति से प्रतिपादित किया गया है वह प्रशंसनीय है। पं. मलचन्द शास्त्री का अभी वचनदूतम् खण्ड काव्य प्रकाशित हुआ है। इस काव्य में मेघदूत की चतर्थपंक्ति को लेकर राजल के मनोभावों को नेमि के पास प्रेषित किया गया है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-संस्कृत महाकाव्य : 5 -डा. सत्यव्रत भारतीय संस्कृति के विभिन्न अंगों की भांति साहित्य के उन्नयन तथा विकास में सी राजस्थान ने मुल्यवान् योग दिया है 1 । जैन-बहुल प्रदेश होने के नाते संस्कृत-महाकाव्य की समृद्धि में जैन कवियों ने श्लाध्य प्रयत्न किया है। यह सुखद आश्चर्य है कि जैन साधुओं दीक्षित जीवन तथा निश्चित दष्टिकोण की परिधि में बद्ध होते हए भी, साहित्य के यापक क्षेत्र में झांकने का साहस किया है, जिसके फलस्वरूप वे न केवल साहित्य की विभिन्न वेधाओं की अपितु विभिन्न विधाओं की नाना शैलियों की रचनाओं से भारती के कोष को समद्ध बनाने में सफल हए हैं। राजस्थान के जैन कवियों ने शास्त्रीय, ऐतिहासिक, पौराणिक, वरितात्मक तथा चित्र-काव्य शली के संस्कृत-महाकाव्यों की रचना करके संस्कृत काव्यपरम्परा पर अमिट छाप अंकित कर दी है। शास्त्रीय-महाकाव्यः--वाग्भट का नेमिनिर्वाण (बारहवीं शताब्दी) राजस्थान में रचित शास्त्रीय शैली का कदाचित् प्राचीनतम जैन संस्कृत-महाकाव्य है। काव्य में यद्यपि इसके रचनाकाल अथवा रचना-स्थल का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु जैन सिद्धान्त भवन, पारा तथा पं. दौर्बलि जिनदास शास्त्री की हस्तप्रति के अतिरिक्त प्रशस्ति-श्लोक के अनसार मिनिर्वाण का निर्माता अहिछत्रपूर का वासी था, जो म. म. ओझा जी के विचार में नागौर का प्राचीन नाम है । __नेमि प्रभु के चरित के आधार पर जैन संस्कृत-साहित्य में दो महाकाव्यों की रचना हुई है। वाग्भट के प्रस्तुत काव्य के अतिरिक्त कीर्तिराज आध्याय का नेमिनाथ महाकाव्य इस विषय की अन्य महत्वपूर्ण कृति है । नेमिनिर्वाण की भांति नेमिनाथ महाकाव्य (पन्द्रहवीं शताब्दी) में भी प्रशस्ति का अभाव है, किन्तु कवि की गरु परम्परा, विहार क्षेत्र आदि के आधार पर इसे राजस्थान रचित मानना सर्वथा न्यायोचित है। कीर्तिराज को उपाध्याय तथा प्राचार्य पद पर क्रमशः महेवा तथा जैसलमरे में प्रतिष्ठित किया गया था। कवि के जीवन-काल सम्बत् 1505, में लिखित काव्य की प्रति की बीकानेर में प्राप्ति भी कीतिराज के राजस्थानी होने की ओर संकेत करती है। दोनों काव्यों में तीर्थंकर नेमिनाथ के जीवन-वृत्त की प्रमुख घटनाएं समान हैं, किन्तु उनके प्रस्तुतीकरण में बहुत अन्तर है । वाग्भट ने कथानक के स्वरूप मौर पल्लवन में बहुधा जिनसेन प्रथम के हरिवंश पुराण का मनुगमन किया है। दोनों में स्वप्नों की संख्या तथा क्रम समान है। देवताओं का आगमन, जन्माभिषेक, नेमि प्रभु की पूर्व-भवावली, तपश्चर्या, -- - 1. भारतीय संस्कृति एवं साहित्य में राजस्थान के योगदान के लिए देखिये । K. C. Jain : Jainism in Rajasthan, Sholapur, 1963. 2. नेमिचन्द्र शास्त्री: संस्कृत काव्य के विकास में जन कवियों का योगदाना पृष्ठ 282. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 केवल ज्ञान प्राप्ति, धर्मोपदेश तथा निर्वाण-प्राप्ति आदि घटनाएं भी जिनसेन के विवरण पर आधारित हैं । नेमिनाथ महाकाव्य की कथावस्तु अधिक विस्तृत नहीं है किन्तु कवि की अलंकारी-वृत्ति ने उसे सजा-संवार कर बारह सों का विस्तार दिया है। नेमिनिर्वाण में मूल कथा से सम्बन्धित घटनाएं और भी कम हैं। सब मिलाकर भी उसका कथानक नेमिनाथ काव्य की अपेक्षा छोटा माना जाएगा। पर वाग्भट ने उसमें एक और वस्तुव्यापार के परम्परागत वर्णनों को टूसकर और दूसरी ओर पुराण-वर्णित प्रसंगों को मावश्यकता से अधिक महत्व देकर उसे पन्द्रह सर्गों को विशाल काया प्रदान की है। ऐसा करने से वे अपने स्रोत तथा महाकाव्य के बाह्य तत्वों के प्रति भले ही निष्ठावान रहे हों परन्तु वे स्वाभाविकता तथा संतुलन से दूर भटक गये हैं। वीतराग तीर्थंकर के जीवन से सम्बन्धित रचना में, पूरे छह सर्गों में, कुसुमावचय, जल-क्रीडा, चन्द्रोदय, मधुपान, सम्भोग आदि के भगारी वर्णनों की क्या सार्थकता है? स्पष्टतः वाग्भट काव्य-रूढियों के जाल से मुक्त होने में असमर्थ हैं। इसी परवशता के कारण उसे शान्त-पर्यवसायी काव्य में पानगोष्ठी और रति-क्रीडा का रंगीला चित्रण करने में भी कोई वैचित्रय दिखाई नहीं देता। काव्य-रूढियों का समावेश कीर्तिराज ने भी किया है, किन्तु उसने विवेक तथा संयम से काम लिया है। उसने जल-क्रीडा,सूर्यास्त, मधपान आदि मल कथा से असंबद्ध तथा अनावश्यक प्रसंगों की तो पूर्ण उपेक्षा की है, नायक के पूर्व जन्म के वर्णन को भी काव्य में स्थान नहीं दिया है । उनके तप, समवसरण तथा देशना का भी बहुत संक्षिप्त उल्लेख किया है जिससे काव्य नैमिनिर्वाण जैसे विस्तृत वर्णनों से मुक्त रहता है । अन्यत्र भी कोतिराज के वर्णन सन्तुलन की परिधि का उल्लंघन नहीं करते। जहाँ वाग्भट ने तृतीय सर्ग में प्रातःकाल का वर्णन करके अन्त में जयन्त देव के शिवा के गर्भ में प्रविष्ट होने का केवल एक पद्य में उल्लेख किया है वहां कीर्तिराज ने नेमिनिर्वाण के अप्सराओं के आगमन के प्रसंग को छोडकर उसके द्वितीय तथा ततीय सर्गों में वर्णित स्वप्नदर्शन तथा प्रभात वर्णन का केवल एक सर्ग में समाहार किया है । इसी प्रकार वाग्भट ने वसन्त वर्णन पर पूरा एक सर्ग व्यय किया है जबकि कीर्तिराज ने अकेले पाठवें सर्ग का उपयोग छहों ऋतुओं का रोचक चित्रण करने में किया है। नेमिनिर्वाण तथा नेमिनाथ महाकाव्य दोनों ही संस्कृत महाकाव्य के ह्रासकाल की रचनाएं हैं । इस युग के अन्य अधिकांश महाकाव्यों की तरह इनमें भी वे प्रवृत्तियां दृष्टिगत होती हैं जिनका प्रवर्तन भारवि ने किया था और जिनको विकसित कर माथ ने साहित्य पर प्रमत्व स्थापित किया था। वाग्भट पर यह प्रभाव भरपर पड़ा है जबकि कीतिराज अपने लिये एक समन्वित मार्ग निकालने में सफल हए हैं। माव का प्रभाव वाग्भट की वर्णन-शैली पर भी लक्षित होता है, उनके वर्णन माध की तरह ही कृत्रिम तथा दूरारूढ कल्पना से आक्रान्त हैं। वाग्भट की प्रवृत्ति अलंकरण की पीर है। कीतिराज के काव्य में सहजता है, जो काव्य की विभति है और कीर्तिराज की श्रेष्ठता की द्योतक भी। कवित्व-शक्ति की दृष्टि से दोनों में अधिक अन्तर नहीं है 1 । राजस्थान के शास्त्रीय महाकाव्यों में जिनप्रभसूरिकृत श्रेणिक चरित को प्रतिष्ठित पद प्राप्त है । वृध्दाचार्य प्रबन्धावली के जिनप्रभसरि-प्रबन्ध के अनुसार जिनप्रभ मोहिलवाडी लाडन के श्रीमाल ताम्बी गोत्रीय श्रावक महाधर के पात्मज थे। सम्वत् 1356 में रचित श्रेणिक चरित अपरनाम 'दुर्गवत्तियाश्रय महाकाव्य' जिनप्रभसूरि की काव्यकीर्ति का प्राधार-स्तम्भ है। अठारह सर्गों के इस महाकाव्य में भगवान् महावीर के समका 1. नेमिनिर्वाण तथा नेमिनाथ महाकाव्य के विस्तृत तुलनात्मक विवेचन के लिये देखिये लेखक द्वारा सम्पादित नेमिनाथ महाकाव्य के मुद्रणाधीन संस्करण की भूमिका । 2. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृतिग्रन्थ, पृ. 33। . Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 लीन राजा श्रेणिक का जीवनचरित वर्णित है। इसके प्रथम सात सगं पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं, शेष ग्यारह सर्ग अभी अमुद्रित है। श्रेणिकचरित की एक हस्तलिखित प्रति जैन शालानो भण्डार, खम्भात में विद्यमान है । श्रणिकचरित में शास्त्रीय और पौराणिक शैलियों के तत्वों का ऐसा मिश्रण है कि इसे गेटे के शब्दों में धरा तथा प्राकाश का मिलन कहा जा सकता है । श्रेणिकचरित का कथानक स्पष्टतया दो भागों में विभक्त है। प्रथम ग्यारह सर्ग, जिनमें श्रेणिक की घामिकता और जिनेश्वर की देशनाओं का वर्णन है,प्रथम खण्ड के अन्तर्गत आते हैं। हार के खोने और उसकी खोज की कथा वाले शेष सात सर्गों का समावेश द्वितीय भाग में किया जा सकता है । कथानक के य दोनों खण्ड अतिसक्ष्म तथा शिथिल तन्तु से आबद्ध हैं। कथानक में कतिपय अंश तो सर्वथा अनावश्यक प्रतीत होते हैं। सुलसोपाख्यान इसी कोटि का प्रसंग है, जो काव्य में बलात् ठूसा गया है, यद्यपि कथावस्तु में इसका कोई औचित्य नहीं है। श्रेणिकचरित के कर्ता का मुख्य उद्देश्य काव्य के व्याज से कातन्त्र व्याकरण की दुर्गवृत्ति के अनुसार व्याकरण के सिध्द प्रयोगों को प्रदर्शित करना है । इस दृष्टि से वे भट्टि के अनुगामी है और भट्टिकाव्य की तरह श्रेणिक चरित को न्यायपूर्वक शास्त्रकाव्य कहा जा सकता है। । टीका की अवतरणिका के प्रासंगिक उल्लेख के अनुसार जयशेखरसूरि के जैन कुमारसम्मव की रचना खम्भात में सम्पन्न हई थी, किन्त कवि के शिष्य धर्मशेखर ने काव्य पर टीका साँभर में लिखी, इसका स्पष्ट निर्देश टीका-प्रशस्ति में किया गया है2। अतः यहां इसका सामान्य परिचय देना अप्रासंगिक न होगा । महाकवि कालिदास-कृत कुमारसम्भव की भाँति जैन कुमारसम्भव का उद्देश्य कमार (भरत) के जन्म का वर्णन करता है, किन्त जिस प्रकार कमारसम्भव के प्रामाणिक अंश (प्रथम पाठ सर्ग) में कार्तिकेय का जन्म वर्णित नहीं है, वैसे ही जैन कवि के महाकाव्य में भी भरतकुमार के जन्म का कहीं उल्लेख नहीं हया है। और, इस तरह दोनों काव्यों के शीर्षक उनके प्रतिपादित विषय पर पूर्णतया चरितार्थ नहीं होते । परन्तु जहां कालिदास ने अष्टम सर्ग में पार्वती के गर्भाधान के द्वारा कमार कार्तिकेय के भावी जन्म की व्यंजना कर काव्य को समाप्त कर दिया है, वहाँ जैन कुमारसम्भव में सुमंगला के गर्भाधान का निर्देश करने के पश्चात् भी (6/74) काव्य को पांच अतिरिक्त सर्गों में लिखा गया है। यह अनावश्यक विस्तार कवि की वर्णनात्मक प्रकृति के अनरूप भले ही हो, इससे काध्य की अन्विति नष्ट हो गई है, कथानक का विकासक्रम छिन्न हो गया है और काव्य का अन्त अतीव आकस्मिक ढंग से हसा है। खरतरगच्छीय सूरचन्द्र का स्थलभद्र गणमाला काव्य राजस्थान में रचित एक अन्य शास्त्रीय महाकाव्य है। हरविजय,कप्फिणाभ्यदय आदि महाकाव्यों के समान स्थलभ माला में भी वर्णनों की भित्ति पर महाकाव्य की अट्टालिका का निर्माण किया गया है। इसके उपलब्ध साढे पन्द्रह सगर्गों (अधिकारों) में नन्दराज के महामन्त्री शकटाल के पुत्र स्थूलभद्र तथा पाटलिपुत्र की वेश्या कोशा के प्रणय की सुकुमार पृष्ठभूमि में मन्त्रिपुत्र की प्रग्रज्या का वर्णन करना कविको अभीष्ट है। 1. विस्तृत विवेचन के लिये देखिये, श्यामश कर दीक्षित कृत तेरहवीं चौदहवीं शताब्दी के ___ जैन संस्कृत महाकाव्य, पृ. 120-143 । 2. देशे सपादलक्षे सुखलक्ष्ये पधरे पुरप्रवरे । नयनवसुवाधिचन्द्रे वर्षे हर्षेण निर्मिता सेयम ॥ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 स्थूलभद्र गुणमाला की एक प्रति केसरियामाथ जी का मन्दिर, जोधपुर में स्थित जान भण्डार में विद्यमान है। दुर्भाग्यवश यह हस्तलेख अधूरा है। इसमें न केवल प्रथम दो पत्र प्राप्त है, अन्तिम से पूर्ववर्ती तीन पत्र भी नष्ट हो चुके हैं। घाणेराव भण्डार की काव्य की एक पूर्ण प्रति की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि ने स्थूलभद्र गुणमाला की पूर्ति जयपुर नरेश जयसिंह के शासन काल में सम्वत् 1680 (1023 ई.) पौष तृतीया को जयपुर के उपनगर सांगानेर ( संग्राम मगर ) में की थी। इस प्रति से यह भी स्पष्ट है कि काव्य में सतरह अधिकार हैं और इसको समाप्ति व स्थूलभद्र के उपदेश से वेश्या के प्रतिबोध तथा नायक के गुणगान एवं स्वर्गारोहण से होती है? । खेद है, यह प्रति हमें अध्ययनार्थ प्राप्त नहीं हो सकी। कथानक के नाम पर स्थूलभद्र गुणमाला में वर्णनों का जाल बिछा हया है । दो-तीन सर्गों में सौन्दर्य-चित्रण करना तथा पांच स्वतन्त्र सगों में विस्तत ऋत कर देना कवि की काव्य-शैली का उग्र प्रमाण है। भोग की अति की परिणति अनिवार्यतः भोग के त्याग में होती है, अपने इस सन्देश को कवि ने सरस कान्य के परिधान में प्रस्तुत किया है, किन्तु उसे अधिक आकर्षक बनाने के आवेश में वह काध्य में नहीं रख सका । काव्य में वणित सभी उपकरणों सहित इसे 6-7 सर्गों में सफलता पूर्वक समाप्त किया जा सकता था। किन्तु सूरचन्द्र की काव्य-प्रतिमा तथा वर्णनात्मक अभिरुचि ने इसे 17 सों का बहद् आकार दे दिया है। किसी विषय से सम्बन्धित अपनी कल्पना का कोश जब तक नह रीता नहीं कर देता, कवि आगे बढ़ने का नाम नहीं लेता। यह सत्य है कि इन वर्णनों में कवि-प्रतिभा का भव्य उन्मेष हमा है. किन्तु उनके अतिशय के विस्तार ने काव्य चमत्कारको नष्ट कर दिया है। स्थलभद्र गणमाला का महत्व इसके वर्णनों तक सीमित है, किन्तु ये इसके लिए घातक भी बने है। कवि की विस्तार भावना ने उसकी कवित्व-शक्ति को दबा दिया है। सूरचन्द्र की काव्य-प्रतिभा प्रशंसनीय है, परन्तु उसने अधिकतर उसका अनावश्यक क्षय किया है। सारा काव्य सूक्ष्म वर्णनों से भरा हुआ है। माघकाव्य का समस्यापूर्ति रूप मेघविजयगणि-कृत देवानन्द महाकाव्य सात सों की प्रौढ एवं अलंकृत कृति है । इसमें जैन धर्म के प्रसिद्ध प्रभावक, तपागच्छीय प्राचार्य विजयदेवसरि तथा उनके पट्टधर विजयप्रभसूरि के साधु-जीवन के कतिपय प्रसंगों को निबद्ध करने का उपक्रम किया गया है, किन्तु कषि का वास्तविक उद्देश्य चित्रकाव्य के द्वारा पाठक को चमत्कृत करते हुए अपने पाण्डित्य तथा रचना-कौशल की प्रतिष्ठा करना है। इसीलिये देषानन्द के तथाकथित इतिहास का कंकाल चित्रकाव्य की बाढ में इब गया है और यह मुख्यतः अलंकृति-प्रधान चमत्कारजनक काव्य बन गया है। इसकी रचना मारवाड के सादडी मगर में सम्बत् 1727 ( 1650 ई.) में विजयदशमो को पूर्ण हई थी. इसका उल्लेख काव्य की प्रान्त प्रशस्ति में किया गया है। इसकी एक प्रतिलिपि स्वयं ग्रन्थ कार ने ग्वालियर में की थी । 1. संग्रामनगरे तस्मिन जैनप्रासाद सन्दरे । काशीवकाशते यत्र गंगव तिर्मला नदी ॥ 296 ।। राज्ये श्रीजयसिंहस्य मानसिहस्पसन्सतः । 298 2. श्री स्थूलभद्रस्य गुणमालानामनि चरिते वेश्या-प्रतिबोधन-श्राविकीकरण-श्रीगुरुपादमलसमागत-श्रीस्थूलालिप्रशंसना' । स्थूलभद्रस्वगमन-गुणमाला-समर्थनवर्णनो नाम सप्तदशोधिकारः सम्पूर्णः । 3-देवानन्दमहाकाव्य, ग्रन्थप्रशस्ति 31 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 देवानन्द की रचना माघ के सुविख्यात काव्य शिशुपालवध की समस्यापूर्ति के रूप में हुई है। इसमें माघ के प्रथम सात सर्गों को ही समस्या पूर्ति का आधार बनाया गया है। अधिकत" माधकाव्य के पद्यों के चतुर्थ पाद को समस्या के रूप में ग्रहण करके अन्य तीन चरणों की रचना कवि ने स्वयं की है, किन्तु कहीं-कहीं दो अयथा तीन चरणों को लेकर भी समस्यापूर्ति की गई है । कुछ पद्यों के विभिन्न चरणों को लेकर अलगअलग श्लोक रचे गये हैं। माघ के 348 के चारों पादों के आधार पर मेघविजय ने चार स्वतन्त्र पद्य बनाये हैं (3/51-54) । कभी-कभी एक समस्या-पाद की पूर्ति चार पद्यों में की गई है । माघ के 369 के तृतीय चरण 'प्रायेण निष्कामति चक्रपाणी' का कवि ने चार पद्यों में प्रयोग किया है ( 31117-120) । कहीं-कहीं एक समस्या दोदो पद्यों का विषय बनी है। 'सहरितालसमाननवांशुकः' के आधार पर मेघविजय ने 4/27-28 को रचना की है। 'क्वचित कपिचयति चामीकरा:' की पूर्ति चर्य सर्ग के बत्तीसवें तथा तेतीसवें पद्य में की गयी है। मेघविजय ने एक ही पद्य में यथावत दो बार प्रयुक्त करके भी अपने रचना-कौशल का चमत्कार दिखाया है। 'ग्रामिष्ट मत्रुवासरपारम्, 'प्रभावनी केतनवैजयन्तीः' 'परितस्ततार रवेरसत्यवश्यम' को क्रमश: 6/7980,81 के पूर्वाधं तथा अपराध में प्रयक्त किया गया है.' द्यपि, दोनों भागों में, इनके अर्थ में, प्राकाश-पाताल का अन्तर है। भाषा का कुशल शिली हाने के कारण मेघविजय ने माघकाव्य से गृहोत समस्यामों का बहुधा सर्वथा पज्ञात तथा चमत्कारजनक अर्थ किया है। वांछित नवीन अर्थ निकालने के लिये कवि को भाषा के साथ मनमाना खिलवाड़ करना पडा है। कविन अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति अधिकतर नवीन पदच्छेद के द्वारा की है। अभिनव पदच्छेद की सहायता से वह ऐसे विचित्र अर्थ निकालन में सफल हपा है, जिनको कल्पना माघ ने भी कभी नहीं की होगी । इसमें उसे पूर्वचरण की पदावली से बहुत सायता मिली है । देवानन्द में माघ के कतिपय पद्य भी यथावत , अविकल ग्रहण किय गये है, किन्तु अकल्पनीय पदच्छेद से कवि ने उनसे चित्र विचित्र तथा चमत्कारी अर्थ निकाल है। देवानन्द के तृतीय सर्ग के प्रथम तीन पद्य माघ के उसी सर्ग के प्रथम पद्य है, पर उनके अर्थ में विराट अन्तर है। कवि के ईप्सित अर्थ को हृदयगम करना सर्वथा असम्भव होता यदि कवि ने इस प्रकार के पद्यों पर टिप्पणी लि बने की कल्पना न की होती । माघ काव्य से गहीत समस्याओं की सफल पूर्ति के लिये उसी कोटि का वस्तुतः उससे भी अधिक, गरु गम्भीर पाण्डित्य अपेक्षित है । माघ की भाति मेघविजय को सर्वतोमखी विद्वत्ता का परिचय तो उनके काव्य से नहीं मिलता क्योंकि देवानन्द की विषयवस्तु ऐसी है कि उसमें शास्त्रीय पाण्डित्य के प्रकाशन का अधिक अवकाश नहीं है । किन्त अपने कथ्य को जिस प्रौढ भाषा तथा अलकत शैली में प्रस्तुत किया है, उससे स्पष्ट है कि मेघविजय चित्रमार्ग के सिद्धहस्त कवि हैं। उनकी तथा माघ की शैली में कहीं भी अन्तर दिखाई नहीं देता। अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिय कवि ने भाषा का जो हृदयहीन उत्पीडन किया है, उससे जूझता पाठक झुझला उठता है तथा इस भाषायी जादूगरी के चक्रव्यूह में फंसकर वह हताश हो जाता है, परन्त रह शाब्दी-त्रीडा तथा भाषात्मक उछलकूद, उसके गन पाण्डित्य तथा भाषाधिकार के द्योतक है, इसम तनिक भी सन्देह नहीं है। मेघविजय का उददेश्य ही चित्रकाव्य से पाठक को चमत्कत करना है । मेघविजय का एक अन्य चित्रकाव्य गुप्तसन्धान नानार्थक काव्य-परम्परा का उत्कर्ष ह । नौ सर्गों के इस काब्य में जैन धर्म के पांच तीर्थकरों-ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्वनाथ, महावीर तथा पुरुषोत्तम राम एवं कृष्ण वासदेव का चरित श्लेषविधि से गम्फित है। काव्य में यद्यपि इन महापुरुषों के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण प्रकरणों का ही निवन्धन हमा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 है, किन्तु उन्हें एक साथ चित्रित करने के दुस्साध्य कार्य की पूर्ति के लिये कवि को चिकट चित्रशैली तथा उच्छृंखल शाब्दी - क्रीडा का श्राश्रय लेना पड़ा है जिससे काव्य वज्रवत् दुर्भेद्य बन गया है । टीका के जल-पाथेय के बिना काव्य के इस महस्थल को पार करना सर्वथा असंभव है । ग्रन्थप्रशस्ति के अनुसार सप्तसन्धान की रचना सम्वत् 1760 में हुई थी 1 | सात व्यक्तियों के चरित को एक साथ ग्रथित करना दुस्साध्य कार्य है । प्रस्तुत काव्य में यह कठिनाई इसलिये और बढ़ गयी है कि यहां जिन महापुरुषों का जीवनवृत्त निबद्ध है, उनमें से पांच जैन धर्म के तीर्थ कर हैं, अन्य दो हिन्दू धर्म के प्राराध्य देव, यद्यपि जैन साहित्य में भी वे अज्ञात नहीं हैं । कवि को अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सबसे अधिक सहायता संस्कृत भाषा की संश्लिष्ट प्रकृति से मिली है । श्लेष एक ऐसा अलंकार है जिसके द्वारा कवि भाषा को इच्छानुसार तोड़-मरोड़ कर उससे अभीष्ट अर्थ निकाल सकता है । इसलिए काव्य में श्लेष की निर्बाध योजना की गयी है, जिससे काव्य का सातों पक्षों में अर्थ ग्रहण किया जा सके । किन्तु यहां यह ज्ञातव्य है कि सप्तसन्धान के प्रत्येक पद्य के सात अर्थ नहीं हैं। वस्तुतः ऐसे पद्य बहुत कम हैं जिनके सात स्वतंत्र अर्थ किये जा सकते हैं । अधिकांश पद्यों के तीन अर्थ निकलते हैं, जिनमें से एक जिनेश्वरों पर घटित होता है, शेष दो का सम्बन्ध राम तथा कृष्ण से है । तीर्थ करों की निजी विशेषताओं के कारण कुछ पद्यों के चार, पांच प्रथवा छह अर्थ भी किये गये हैं । कुछ पद्य तो श्लेष से सर्वथा मुक्त हैं तथा उनका केवल एक अर्थ है । वही अर्थ सातों नायकों पर चरितार्थ होता है । प्रस्तुत काव्य का यही सप्तसन्धानत्व है । कवि की यह उक्ति भी --- काव्येऽस्मिन्न एवं सप्त कथिता श्रर्थाः समर्थाः श्रिये ( 4142 ) -- इसी अर्थ में सार्थक है । इस सप्तसन्धानात्मक गड्डमड्ड के कारण अधिकांश काव्य - नायकों के चरित धूमिल रह गये हैं । ऋषभदेष की कथा में ही कुछ विस्तार मिलता है । अपने काव्य की समीक्षा की जो आकांक्षा कवि ने पाठक से की है, उसकी पूर्ति में उसकी दूरारूढ़ शैली सब से बड़ी बाधा है । पर हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि सप्तसन्धान का उद्देश्य चित्रकाव्य-रचना में कवि की दक्षता का प्रदर्शन करना है, सरस कविता से पाठक का मनोरंजन करना नहीं । इसमें कवि पूर्णतः सफल हुआ है ऐतिहासिक महाकाव्य :--- राजस्थान के जैन कवियों ने दो प्रकार के ऐतिहासिक महाकाव्यों के द्वारा अपनी ऐतिहासिक प्रतिभा की प्रतिष्ठा की है । प्रथम वर्ग के हम्मीर महाकाव्य, कुमारपाल चरित तथा वस्तुपालचरित आदि भारतीय इतिहास के गौरवशाली शासकों के ऐतिहासिक वृत्त का निरूपण करते हैं। दूसरी कोटि के ऐतिहासिक महाकाव्य वे हैं जिनमें संयम धन - साधुओं का जीवन-वृत निबद्ध है, यद्यपि इन तपस्वियों का धर्मशासन सम्राटों से भी अधिक मान्य तथा तेजस्वी था। रोचक संयोग है, इनका इतिहास-पक्ष संस्कृत के प्राचीन बहु प्रसित ऐतिहासिक महाकाव्यों की अपेक्षा कहीं अधिक विश्वसनीय है । इनमें से कुछ कवित्व की दृष्टि से भी बहुत समर्थ तथा सफल हैं । हम्मीर महाकाव्य देश के किस भाग में लिखा गया, इसका कोई संकेत काव्य में उपलब्ध नहीं । यद्यपि जैसे स्वयं नयचन्द्र ने सूचित किया है उसे हम्मीर महाकाव्य के प्रणयन की प्रेरणा तोमरनरेश वीरम के सभासदों की इस व्यंग्योक्ति से मिली थी कि प्राचीन कवियों के समान उत्कृष्ट काव्य-रचना करने वाला अब कोई कवि नहीं 2 तथापि जिस तल्लीनता तथा तादात्म्य से कवि ने राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास का निरूपण किया है उस श्राधार पर यह 1. ग्रन्थ प्रशस्ति, 3. 2. हमीर महाकव्य, 14/ 43 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 कल्पना करना अयुक्त नहीं कि नयचन्द्र यदि जन्मना राजस्थानी नहीं थे, तो भी इस प्रदेश से उनका गहरा सम्बन्ध रहा होगा। तभी तो हम्मीर चरित का प्रणयन करने की लालसा उन्हें दिन-रात मथ रही थी 1 । चौदह सर्गों के इस वीरांक काव्य में राजपुती शौर्य की साकार प्रतिमा महाहठी हम्मीरदेव तथा भारतीय इतिहास के कुटिलतम शासक अलाउद्दीन खिलजी के घनघोर युद्धों तथा अन्ततः हम्मीर के प्राणोत्सर्ग का गौरवपूर्ण इतिहास प्रशस्त शैली म निबध्द है । बध्दमूल-परम्परा के अनुसार यद्यपि कवि ने इतिहास को काव्य के आकर्षक परिधान स्तुत किया है, किन्तु हम्मीर महाकाव्य की विशेषता यह है कि इसका ऐतिहासिक भाग कवित्व के इन्द्रधनुषी सौन्दर्य में विलीन नहीं हुप्रा अपितु वह स्पष्ट, सुग्रथित, प्रामाणिक तथा अलौकिक तत्त्वों से प्रायः मुक्त है तथा इसकी पुष्टि यवन इतिहासकारों के स्वतन्त्र विवरणों से होती है । काव्य की दृष्टि से भी नयचन्द्र का ग्रन्थ उच्च बिन्दु का स्पर्श करता है । स्वयं कवि को इसमें काव्यगत वैशिष्टय पर गर्व है ' । ज्ञातव्य है कि काव्य का मुख्य प्रतिपाद्य-हम्मीरकथा-केवल छः (8-13) सर्गों तक सीमित है। प्रथम चार सर्ग, जिनमें चाहमानवंश की उत्पत्ति तथा हम्मीर के पूर्वजों का वर्णन है, एक प्रकार से, हम्मीरकथा की भूमिका है। नयचन्द्र के सजन में इतिहास तथा काव्य का यह रासायनिक सम्मिश्रण हम्मीर महाकाव्य को अत्युच्च धरातल पर प्रतिष्ठित करता है । वस्तुपाल-चरित की रचना जिनहर्ष ने चित्रकूटपुर (चित्तौड़) के जिनेश्वर मन्दिर में सम्बत् 1497 (सन् 1440) में की थी 3 । इसके अाठ विशालकाय प्रस्तावों में चोलक्यानरम वीरधवल के नीतिनिपूण महामात्य वस्तुपाल की बहमखी उपलब्धियों, दुर्लभ मानवीय गणों, साहित्यप्रेम तथा जैन धर्म के प्रति अपार उत्साह और उसके प्रचार-प्रसार के लिये किये गये अथक प्रयत्नों, कुटनीतिक कौशल एवं प्रशासनिक प्रवीणता का सांगोपांग वर्णन हुअा है। वस्तुत. काव्य में वस्तुपाल तथा उसके अनुज तेजःपाल दोनों का चरित गुम्फित है, किन्तु वस्तुपाल के गरिमापूर्ण व्यक्तित्व के प्रकाश में तेजःपाल का वृत्त मन्द पड़ गया है । वस्तुपाल की प्रधानता के कारण ही काव्य का नाम वस्तुपाल चरित रखा गया है । वस्तुपाल चरित को ऐतिहासिक रचना माना जाता है । निस्सन्देह इससे चालुक्यवंश, धौलका-नरेश वीरधवल, विशेषकर उसके प्रखरमति अमात्य वस्तुपाल के विषय में कुछ उपयोगी जानकारी प्राप्त होती है। किन्तु इन सूक्ष्म ऐतिहासिक संकेतों को पौराणिकता के चक्रव्यूह में इस प्रकार बन्द कर दिया गया है कि पाठक का अभिमन्यु इससे जूझत:-जूझता वहीं खेत रह जाता है। 4559 पद्यों के इस बृहत कान्य में कवि ने ऐतिह सिक सामग्री पर 200-250 से अधिक पद्य व्यय करना उपयुक्त नहीं समझा है। संतोष यह है कि वस्तुपाल चरित का ऐतिहासिक अंश यथार्थ, प्रामाणिक तथा विश्वसनीय है। यही इस काव्य का पाकर्षण है। जैनाचार्यों के इतिहास-सम्बन्धी महाकाव्यों में श्रीवल्लभ पाठक का विजयदेव माहात्म्य महत्वपूर्ण रचना है। उन्नीस सर्गों का यह काव्य तपागच्छ के सुविज्ञात प्राचार्य विजयदेवसूरि के धर्म-प्रधान वृत्त का तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत करता है। अपने कथ्य के चित्रण में कवि ने इतनी तत्परता दिखाई है कि चरित-नायक के जीवन की विभिन्न घटनाओं के दिन, नक्षत्र, सम्वत तक का इसमे यथातथ्य उल्लेख हया है। विजयदेवसरि की धामिक गतिविधियों की जानकारी के लिये प्रस्तुत काव्य वस्तुतः बहुत उपयोगी तथा विश्वसनीय है । 1. वही,14/26 2. वही,1446 . वस्तुपालचरित, प्रशस्ति, 11. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 श्रीवल्लभ ने विजयदेव माहात्म्य में इसके रचनाकाल का कोई संकेत नहीं किया है, कन्तु काव्य के आलोडन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इसकी रचना सम्वत् 1687 (सन् 1630 ) के पश्चात् हुई थी । विविध ग्रन्थों पर कवि की टीकाओं में [युक्त मारवाड़ी शब्दों के आधार पर यह मानना भी असंगत नहीं कि उसका जन्म राजस्थान के मारवाड प्रदेश में हुआ था । देवानन्द महाकाव्य में मेघविजय ने विजयप्रभ के चरित पर दृष्टिपात तो किया, किन्तु इससे उन्हें संतोष नहीं हुआ । दिग्विजय महाकाव्य के तेरह सर्गों में पूज्य गुरु के जीवनवृत्त का स्वतन्त्र रूप से निबद्ध करने की चेष्टा की गयी है । इसकी रचना के मूल में गुरुभक्ति की उदात्त प्रेरणा निहित हैं । किन्तु खेद है कि विद्वान् तथा प्रतिभाशाली होता हुआ भी कवि महाकाव्य रूढ़ियों के जाल में फंस कर अपने निर्धारित लक्ष्य भ्रष्ट हो गया 1274 पद्यों के इस विशाल काव्य को पढने के पश्चात भी विजयप्रभसूरि के विषय में हमारी जानकारी में विशेष वृद्धि नहीं होती, यह कटु तथ्य है । सारा काव्य वर्णनों की बाढ आप्लावित है | इतना अवश्य है कि कवि के अन्य दो काव्यों की भांति इसकी परिणति हता में नहीं ई है, यद्यपि इसके कुछ अंशों में भी पाण्डित्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति फुफकार उठी है । पौराणिक महाकाव्यः -- पौराणिक कथाओं के द्वारा जन साधारण को धर्मबोध देने की प्रवृत्ति बहुत प्रभावी तथा प्राचीन है । जैन कवियों ने पौराणिक आख्यानों के आधार राम का रच कर उक्त उद्देश्य की पूर्ति की है। यह बात भिन्न है कि पौराणिक काव्यों में से कुछ अपनी प्रौढता, कवित्व तथा भाषागत सौन्दर्य के कारण शास्त्रीय काव्यों के बहुत निकट पहुंच जाते हैं । कहना न होगा कि जैन साहित्य में पौराणिक रचनाओं का ही बाहुल्य है । सनत्कुमारच चरित्र (सन 1205 - 1221 ) राजस्थान के पौराणिक महाकाव्यों में प्रतिष्ठित पद का अधिकारी है । इसके रचयिता जिनपाल उपाध्याय जिनपतिसूरि के शिष्य थे, जिनका जन्म 1153 ईस्वी में जैसलमेर राज्य के विक्रमपुर ( बीकमपुर ) स्थान पर हुआ था तथा जिन्होंने अजमेर के प्रख्यात चौहान शासक पृथ्वीराज द्वितीय की सभा में पधार कर उसे गौरवान्वित किया था । सनत्कुमारचऋिचरित्र के 24 सर्गों में जैन साहित्य में सुविज्ञात चत्री सनत्कुमार के चरित्र का मनोहर शैली में निरूपण किया गया है । इसमें शास्त्रीय तथा पौराणिक शैलियों का इतना गहन मिश्रण है कि इसके स्वरूप का निश्चयात्मक निर्णय करना दुष्कर है। पौराणिक तत्वों के प्राचर्य के कारण इसे पौराणिक काव्य माना गया है, किन्तु इसकी चमत्कृति प्रधानता, चित्रकाव्य-योजना तथा पाण्डित्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति आदि के कारण इसे शास्त्रीय महाकाव्यों के अन्तर्गत स्थान देना भी न्यायोचित होगा । सनत्कुमारचरित्र का कथानक सुसंगठित और व्यवस्थित है। इसकी समस्त घटनायें परस्पर संबद्ध है, जिसके फलस्वरूप इसमें अविच्छिन्नता तथा धारावाहिकता बराबर बनी रहती है । यह महत्वपूर्ण महाकाव्य महोराध्याय विनय सागर द्वारा सम्पादित होकर, प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर से प्रकाशित हो चुका है । अभयदेवसूरि-कृत जयन्तविजय (1221 ई.) को विशुद्ध पौराणिक महाकाव्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सनत्कुमारचक्रिचरित्र की भांति इसमें भी शास्त्रीय रूढियों का व्यापक समावेश हुआ है। इसके 19 सर्गों में विक्रमसिंह के पुत्र ज न्त का जीवनवृत्त रोचक शैली में वर्णित है । जयन्तविजय में कथावस्तु का सामान्यतः सफल निर्वाह हुआ है । पन्द्रहवें सर्ग में दार्शनिक सिद्धान्तों का विस्तृत विवेचन और सतरहवें सर्ग में जयन्त और रतिसुन्दरी Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 के पूर्वभव का वर्णन मुख्य कथा में व्याघात पहुंचाते है । पौराणिकता के कारण कथा-प्रवाह में कहीं-कहीं शिथिलता अवश्य आ गपी है पर क्रम कहीं भी छिन्त नहीं होता। नव, दसवें और चौदहवेसर्गों सगों में पात्रों के संवाद नाटकीयता से तरलित हैं ।। जैन साहित्य में ऐसी रचनाओं की तो कमी नहीं, जिनमें पूर्वोक्त काव्यों की भांति महाकाव्य की पौराणिक तथा शास्त्रीय शैलियों के तत्व परस्पर अनुस्यूत हैं, पर अंचलगच्छीय आचार्य माणिक्यसुन्दर के श्रीधरचरित में शास्त्र काव्य की विशेषताओं का भी गठबन्धन दिखाई देता है । इसकनी माणिक्यांक सों में मंगलपूर नरश जयचन्द्र के पुत्र विजयचन्द्र क वृत्त निबद्ध है। विजयचन्द्र पूर्व जन्म का श्रीधर है । काव्य का शीर्षक उसके भवान्तर क इसी नाम पर आधारित है। इस दृष्टि से प्रस्तुत शीर्षक काव्य पर पूर्णतया चरितार्थ नहीं होता। चरित-वर्णन के साथ-साथ कवि का उददेश्य अपनी छन्द-मर्मज्ञता तथा उन्हें यथेष्ट रूप से उदाहृत करने की क्षमता का प्रदर्शन करना है। इसीलिए काव्य में 92 वणिक तथा मात्रिक वत तथा उनके ऐसे भेदों प्रभेदों और कतिपय अज्ञात अथवा अल्पज्ञात छन्दों का प्रयोग हुआ है, जो साहित्य में अन्यत्र शायद ही प्रयक्त हुए हों । छन्दों के प्रायोगिक उदाहरण प्रस्तुत करने के कारण श्रीधरचरित छन्दों के बोध के लिए लक्षण-ग्रन्थों की अपेक्षा कहीं अधिक उपयोगी है। किन्तु कवि का यह लक्ष्य, शास्त्र अथवा नानार्थक काव्यों की भांति, काव्य के लिए घातक नहीं है क्योंकि उसकी प्रतिभा छन्दों की धारा में बन्दी नहीं है। वैसे भी अज्ञात छन्द व्याकरण के दुस्साध्य प्रयोगों के समान रस-चर्वणा में बाधक नहीं हैं । श्रीधरचरित का कथानक बहुत संक्षिप्त है, किन्तु कवि ने उसे महाकाव्योचित परिवेश देने के लिए प्रभात, गयोदय, पर्वत, नगर, दूतप्रेषण, स्वयंबर आदि के वर्णनों से मांस ल बनाकर प्रस्तुत किया है। फलतः श्रीधरचरित का कथानक वस्तु व्यापार के वर्णनों के सेतुओं से टकराता हआ आगे बढ़ता है। काव्य के उत्तरार्ध में तो कवि की वर्णनात्मक प्रवृत्ति ने विकराल रूप धारण कर लिया है । आठव तथा नवें सर्ग का संसार यक्षों, गन्धर्वो, सिद्धों, नागकन्याओं, यद्धों, नरमेध, स्त्री-हरण तथा चमत्कारों का अजीब संसार है । इनमें अति प्राकृतिक तत्वों, अबाध वर्णनों तथा विषयान्तरों का इतना बाहल्य है कि ये सर्ग, विशेषतः अष्टम सर्ग काव्य की अपेक्षा रोमांचक कथा बन गये हैं । काव्य की जो कथा सातवें सर्ग तक लंगडाती चली आ रही थी, वह आठवें सग म आकर एकदम ढेर हो जाती है। वस्तुतः श्रीधर चरित को पौराणिक काव्य बनाने का दायित्व इन दो सग पर ही है । प्रान्त प्रशस्ति के अनुसार श्रीधरचरित की रचना सम्वत् 1463 (1406 ई.) में मेवाड़ के देवकुलपाटक (देलवाड़ा ?) नगर में सम्पन्न हुई थी। श्रीमेदपाटदेशे ग्रन्थो माणिक्यसुन्दरेणायम् ।। देवकुलपाटकपुरे गुणरसवाधीन्दुवर्षे व्यरचि ॥ प्रशस्ति, 2. अठारहवीं शताब्दी में प्रदेश को एक महाकाव्य प्रदान करने का श्रेय जोधपुर को है । जैसा ग्रन्थ प्रशस्ति में सचित किया गया है, रूपचन्द्र गणि अपरनाम रामविजय ने गौतमीय काव्य का निर्माण जोधपुर नरेश रामसिंह के शासनकाल में, सम्वत 1807 (सन 1650) में किया2 । रूपचन्द्र के शिष्य क्षमाकल्याण ने इस पर सं. 1852 (सन् 1695) में टीका लिखी जिसका प्रारम्भ तो राजनगर (अहमदाबाद) में किया था, किन्तु पति जैसलमर में हई । 1. श्यामशंकर दीक्षित : तेरहवीं चौदहवीं शताब्दि के जैन सस्कृत महाकाव्य, पृ. 282. 2. ग्रंथकार-प्रशस्ति, 1-3. 3. टीकाकार-प्रशस्ति, 1-3. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतभीय काव्य का उददेश्य कविता कव्याज से जैन सिदान्त का निरूपण करना है। भगवान् महावीर के गणधर तथा प्रमुख शिष्य गौतम इन्द्रभूति और उनके अनुज के संशयों के निवारणार्थ कवि ने महाश्रमण के उपदेश के माध्यम से जैन दर्शन का प्रतिपादन किया है.जो पारिभाषिक शब्दावली में होने के कारण शुष्क तथा नीरस बन गया है। कवि ने प्रथम सर्ग में ऋत वर्णन के द्वारा काव्य में रोचकता लाने प्रयास किया है, किन्तु काव्य-कथा का संकेत किए बिना प्रथम सर्ग में ही ऋतुवर्णन में जट जाना अवांछनीय है और कथानक के विनियोग में कवि की कौशल-हीनता का सूचक भी । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश जैन साहित्य Page #175 --------------------------------------------------------------------------  Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य : सामान्य परिचय 1. -डा. देवेन्द्र कुमार जैन अपशब्द और अपभ्रंश अपभ्रश के साहित्य के साथ भाषा से भी परिचित होना जरूरी है। भाष्यकार के अनसार "शब्द थोडे हैं और अपशब्द बहत"। एक-एक शब्द के कई अपभ्रंश हैं, जैसे-'गो' के गावी, गौणी, गोता और गोपोतलिका । संस्कृत भाषा के संदर्भ में गो शब्द है। शेष अपशब्द हैं। गावी आदि शब्द, गो के अपभ्रंश है, अर्थात् तद्भव है, या गोमूलक शब्द ह जो संस्कृत के लिये अपशब्द होते हुए भी, दूसरी भाषाओं के लिय शब्द है। अतः अपशब्द और अपभ्रंश का एक अर्थ नहीं है, जैसा कि प्रायः भ्रम है। भाष्यकार से लगभग छह सौ साल बाद ईसवी 3री सदी में भरत मुनि ने आभीरोक्ति को उकार बहुला बताते हुए उसका उदाहरण दिया है-'मोरल्लउ नच्चन्तउ' इसका संस्कृत में होगा 'नृत्यमानः मयूरः', नृत्यमान का नच्चन्त और मयूरः का मोरल्लउ रूप प्राकृतिक प्रक्रिया पारकर ही संभव हो सका। अतः आभीरोक्ति आभीरों की स्वतंत्र बोली न होकर संस्कृत परंपरा मूलक बोली ही है,जो प्राकृतों की ओकारांत प्रकृति के समानान्तर विकसित हो रही थी, और 'नियप्राकृत' में जिसका पूर्वाभास मिलता है। रामः का विकास रामो और राम दोनों रूपों में संभव है, चूंकि अपभ्रंश क्रिया कृदन्त किया बहुल है अत: उसमें भी उकारांत की प्रवृत्ति आ गई। ईसा की 6ठी सदी में संस्कृत साहित्य समीक्षक दंडी आभीरोक्ति को साहित्यिक भाषा बनने पर, अपभ्रंश कहने के पक्ष में थे। इसका अर्थ है, वह भी आर्यभाषा मलक-भाषा सस्कृत का एक विकसित रूप है। अपभ्रश और देशी अपभ्रश को प्रायः देशी तत्व से प्रचुर समझा जाता है। इसे भी स्पष्ट कर लेना जरूरी है। पाणिनी अपनी भाषा को वैदिक भाषा की तुलना में लोकभाषा कहते हैं, वह भाषा जो लोक में व्यवहृत हो । साहित्यरूढ होने पर संस्कृत कहलाई। प्राकृतकाल में लोक के शब्द की जगह बोलचाल की भाषा के लिए देशी शब्द चल पडा। यह एक भाषा-वैज्ञानिक तथ्य है कि कोई भाषा बिना लोकाधार के पैदा नहीं होती, इसी प्रकार वह बिना संस्कार या नियमन के व्यापक और शिष्ट नहीं बनती। यह देशीभाषा साहित्यिक बनने पर प्राकृत कहलाई, जिसका व्याकरणिक, संस्कृत को प्रकृति मानकर किया गया। अपभ्रंश कवि स्वयंम 'पउमचरिउ' को एक ओर 'देशीभाषा उभय तडज्जल' कहते हैं और दूसरी ओर अपनी भाषा को 'गोभिल्ल वचन' से रहित भी बताते ह। स्वयंभू के समय देशी-वचन का स्थान ग्राम्य-वचन ले लेता है। कहने का अभिप्राय, संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश, लोक देश ग्राम्य स्तर से उठकर ही साहित्यिक और सामान्य व्यवहार की भाषायें बनती हैं। अतः अपभ्रंश का अर्थ न तो बिगडी हई भाषा है और न जनबोली, और न यह कि जिसका उच्चारण ठीक से न हो सके। जैसा कि अपभ्रश के कुछ युवा अध्येता समझते हैं। यह भ्रम भी निराधार है कि अपभ्रश केवल काव्यभाषा थी, या यह कि उसमें गद्य नहीं था। संस्कृत; प्राकृत की तुलना म अपभ्रंश का क्षेत्र सीमित है, परन्तु उसकी कडवक शैली में और संवादों और वर्णनों में अपभ्रश गद्य का रूप देखा जा सकता है। सोचने की बात है कि क्या बिना गद्य के कोई भाषा विकास कर सकती है ? अपभ्रंश में उकारान्त प्रकृति के साथ आकारांत प्रकृति की भी बहुलता है, कृदंत क्रियाओं की मुख्यता, शब्द क्रियारूपों की कमी, विभक्तियों का लोप, षष्ठी विभक्ति की व्यापकता, दुहरी विभक्तियों और परसर्ग के समान नए शब्दों का प्रयोग Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 पूर्वकालिक और क्रियार्थक क्रियाओं के प्रयोगों में विकल्पों की भरमार, कृदंत क्रिया के कारण कालबोध के लिए सहायक क्रिया का विस्तार, उसकी प्रमख विशषताएं हैं। अपभ्रश साहित्य का युग संस्कृत साहित्य-मीमांसकों और इधर-उधर के उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि ईसा की छठी सदी से न केवल अपभ्रंश साहित्य लिखा जाने लगा था, बल्कि उसे मान्यता भी मिल चुकी थी। मैं 12वीं सदी तक अपभ्रंश का युग मानता हूं। यद्यपि उसके बाद 15वीं 16 वीं सदी तक अपभ्रश साहित्य लिखा जाता रहा है, परन्तु वह रूढ साहित्य है, भाषा और अभिव्यक्ति की दृष्टि से उसमें वह यगबोध नहीं है जो कि होना चाहिए। फिर इस काल में आ.भा. आर्य-भाषाओं का साहित्य अस्तित्व में आ चुका था। 7वीं से 12वीं तक का यह काल, राजनीतिक दृष्टि से हर्ष के साम्राज्य के विघटन, राजपूतशक्तियों के उदय और संघर्ष तथा महम्मदविन कासिम (ई.711), महमूद गजनी (1026) और मुहम्मद गौरी (1194) जैसे विदेशी आक्रांताओं की सफल घुसपेठ का समय है। धामिक दृष्टि से आलोच्यकाल में बौद्ध और जैनधर्म के समानांतर शैव और वैष्णव भक्तिमतों का बोलबाला रहा। सभी धर्ममत आडंबर पूर्ण थे। धर्म और राज्य एक दूसरे पर आधारित थे। धम राज्य से विस्तार चाहता था, और राज्य धर्म से प्रेरणा। सिद्ध और हठयोग साधनाएं भी इसी युग की देन हैं। संस्कृत और प्राकृत साहित्य भी काफी मात्रा में इस काल म लिखा गया । स्वयंभू के पूर्व का अपभ्रश साहित्य दण्डी. भामह और बाणभट के उल्लेखों और स्वयभच्छंद से यह स्पष्ट है कि स्वयंभ (आठवीं और नौंवीं सदियों का मध्यबिन्दु) से दो सौ वर्ष पूर्व से अपभ्रश साहित्य की रचना होन लगी थी। स्वयंभूच्छंद में अकित एक दर्जन कवियों में पद्धडिया बन्ध के निर्माता कवि चतुर्मख और गोइंद (गोविन्द) के नाम उल्लेखनीय हैं। दोनों हरिकथा काव्य के रचयिता प्रतीत होते हैं। अनुमान है कि चतुर्मख ने कोई राम कथा काव्य लिखा होगा। स्वयंभूच्छंद के कृष्णकथा से संबन्धित एक उद्धरण का अर्थ है, 'यद्यपि कृष्ण सभी गोपियों को आदर से देखते हैं परन्तु उनकी दृष्टि वहीं पडती है जहां राधा है, स्नेहपरित नेत्रों को कौन रोक सकता है ?' इसमें राधा के प्रति कृष्ण के आकर्षण का उल्लेख महत्वपूर्ण है। इससे सिद्ध है कि स्वयंभू के पूर्व राधा कृष्ण लीलाएं लोकप्रिय हो चुकी थीं। स्वयंभच्छंद के उदाहरण में प्रकृति-चित्रण, ऋतु-प्रेम और उपालंभ से सम्बन्धित अवतरण हैं। जहां तक अपभ्रंश प्रवन्ध काव्यों (चरित काव्यों) का प्रश्न है उनकी कथा-वस्तु के मख्य स्रोत रामायण और महाभारत की 'वस्तु' है। विधाएं आलोज्य-काव्य को दो विधाएं मख्य और महत्वपूर्ण हैं,ये हैं प्रबन्ध और मक्तक । अपभ्रंश साहित्य में नाटक और गद्य-साहित्य का अभाव है। प्रारंभिक अपभ्रंश प्रबन्धकाव्य पुराण-काव्य के रूप में मिलते हैं। यहां 'चरिउ' और 'पुराण काव्य' का अन्तर समझ लेना उचित होगा। त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्रों का वर्णन करने वाला काव्य महापुराण कहलाता है। त्रेसठ शलाका पुरुषों में 24 तीर्थ कर,12 चक्रवर्ती और क्रमश: 9-9 बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण वाल्मीकि रामायण और महाभारत की कथा-वस्तु का सम्बन्ध, बलभद्र (राम) और नारायण (कृष्ण) से सम्बद्ध है। राम, बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत के तीर्थकाल में हए, जबकि कृष्ण 22 वें तीर्थकर नेमिनाथ के समय । संस्कृत में पृथक्-पृथक रूप में लिखित काव्यों को भी पुराण कहा गया, जैसे-आदि पुराण, पद्म पुराण, हरिवंश पुराण इत्यादि । आचार्य रविषेण ने पद्मचरित्र नाम भी दिया है। इसके विपरीत अपभ्रश के स्वयंभ,पउम चरिउ और रिटठणेमि चरिउ नाम देते Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129 ह। पुष्पदन्त ने समग्र चरितों के संकलन को महापुराण कहा है, परन्तु पथक-पृथक रूप में वह चरित काव्य कहने के पक्ष में है। वह लिखते हैं:-- घम्माणसासणाणंद भरिउ, पुण कहमि विरह णाभय चरिउ। म. पु. 1/2 में फिर. धर्म के अनुशासन और आनन्द से भरे पवित्र नाभेय चरित्र का वर्णन करता है। इस प्रकार उनके महापुराण में कई चरित-काव्य हैं। इसमें संदेह नहीं कि अपभ्रश चरित-काव्य विषय-वस्तु और वर्णन में बहुत कुछ संस्कृत जैन पुराणों पर आधारित है, परन्तु वस्तुनियोजन और वर्णन में अन्तर है। संस्कृत पुराण काव्यों की तुलना में इनमें संक्षेप है और कथा-निर्वाह में अपेक्षाकृत कार्यकारण सम्बन्ध है। पौराणिक वस्तु-निर्देश कम है तथा विविध छंदों वाली सर्गबद्ध शैली के स्थान पर, कडवक शैली है। एक संधि में कई कडवक रहते हैं, प्रत्येक कडवक के अन्त में धत्ता के रूप में कोई छंद रहता है, कडवक में कई तुकांत दो पंक्तियां रहती हैं। यह शैली प्राकृत काव्यों में भी नहीं है । विषय और प्रसंग के अनरोध से कडवक की पक्तियों में संकोच विस्तार संभव है। हमारा अनुमान है कि लोकगीत शैली के आधार पर ही कडवक शैली का विकास हुआ। पुष्पदन्त जैसे कवियों ने संस्कृत के वणिक वृत्तों का प्रयोग कडवक शैली के अन्तर्गत किया है। जायसी के पद्मावत और तुलसी के मानस के दोहा-चौपाई शैली, इसी का परवर्ती विकास है। चरित काव्य के दो भेद अपभ्रश में दो प्रकार के चरित-काव्य हैं, एक पुराणों के प्रभाव से ग्रस्त जैसे पउमरिस और नामेयचरिउ। दूसरे हैं, रोमांचक अथवा कल्पना प्रधान जैसे णायकुमार चरिउ, करकंडचरिउ, जसहर चरिउ। धर्म से अनुशासित होने पर भी इनमें रोमांस, कल्पना-प्रवणता और प्रेम तथा युद्ध की उत्तेजक स्थितियां होती हैं। विशेष उल्लेखनीय यह है कि अपभ्रश में लौकिक-पुरुष पर एक भी चरित-काव्य नहीं लिखा गया। अपभ्रश कवि कथा-काव्य और चरित-काव्य में भेद नहीं करते। भेद है भी नहीं। भविसयत्त कहा और भविसयत्त चरिउ एक ही बात है। प्राकृत में अवश्य कथा-काव्य कहने का प्रचलन था। इधर हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्यों पर अपभ्रश चरित-काव्यों का प्रभाव सिद्ध करने के लिए, अपभ्रश के एक नए खोजी ने उसमें भी प्रेमाख्यानक काव्य खोज निकाले हैं। उसके अनुसार धाहिल का पउमसिरि चरिउ प्रेमाख्यानक काव्य है, (अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोधप्रवृत्तियां पृ.सं. 36) जो सचमुच चिन्तनीय है। प्रेमकाव्य और प्रेमाख्यानक काव्य में जमीन आसमान का अन्तर है। प्रेम काव्यों में प्रेम की मुख्यता होतीहै, जबकि प्रेमाख्यानक-काव्य मलौकिक प्रेम वाली कथा के माध्यम से अलौकिक प्रेम अर्थात् ईश्वरीय प्रेम का साक्षात्कार किया जाता है। पउमसिरि चरिउ कवि धाहिल के अनसार, धर्माख्यान है जिसक उद्देश्य यह बताना है कि धर्म के लिए भी किया गया कपटाचरण दुःखदायी होता है। यह मोचना भी भ्रांतिपूर्ण है, कि अपभ्रश चरित-काव्यों के नायक लोक सामान्य जीवन से आए हैं, वे सब अभिजात्य वर्ग के हैं। संस्कृत जैन पुराण-काव्य में जो पात्र अभिजात्यवर्ग के हैं, वे अपभ्रश में सामान्यवर्ग के कैसे हो गए। वस्तुतः वे पुण्यसिद्ध सामन्तवर्ग के हैं। अपभ्रश चरित-काव्य वस्तुतः धवल मंगल गान से युक्त है। आध्यात्मिक गुणों से सम्बन्धित गीत मंगल-गीत है और लौकिक गुणों से सम्बन्धित गीत धवल-गीत हैं। अपभ्रश कथा-काव्य के नायक दोनों प्रकार के गुणों से अलंकृत है। आध्यात्मिक गुणों से शून्य होने पर, इन्हें प्राकृत जन कहा जाएगा, जिनका गान करने पर तुलसीदास की सरस्वती माथा पीटने लगती है। हिन्दी का रासो-काव्य वस्तुतः प्राकृत जन गुणगान ही है। चरित काव्यों के अतिरिक्त रासो-काव्य, संधिकाव्य, रूपक आदि छोटी-छोटी रचनाएं भी अपभ्रश में मिलती हैं जो वस्तुतः चरित-काव्यों के विघटन से अस्तित्व में आई। एक तो ये रचनाएँ परवर्ती है और दूसरे काव्यात्मक दृष्टि से इनका विशेष महत्व नहीं है। खंडकाव्य के रूप में रहमान का संदेश-रासक उपलब्ध है, जो सुखांत विप्रलंभ श्रृंगार का प्रतिक्रियात्मक-काव्य है। इसमें विक्रमपुर की एक वियोगिनी, अपने प्रवासी पति के लिए प्रेम संदेश भेजती है। जैसे ही पथिक प्रस्थान करता है कि उसका पति आ जाता है। यह विशुद्ध पाठ्यकाव्य Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 है। डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी इसे गेय-काव्य समझते हैं। इसमें एक ओर सरल मुहावर वाली भाषा है और दूसरी ओर ऊहात्मक अलंकृत शैली भी है। जहां तक अपभ्रश चरित-काव्यों के वस्तुवर्णन का सम्बन्ध है, उसमें यथासंभव पुराणकाव्य और लोकरूढियों का वर्णन है, प्रकृति-चित्रण , देश-नगर-वर्णन, नदी-वन और सरोवर चित्रण, प्रातः काल सूर्य-चन्द्र-सायंकाल का वर्णन, विवाह, भोजन, यद्ध, स्वयंवर, नारी, जलक्रीडा नख-शिख वर्णन भरपूर है। श्रोता वक्ता शैली और संवाद शैली, विशेषरूप से उल्लेखनीय है। उनका अंतिम उद्देश्य तीन पुरुषार्थों की सिद्धि के अनंतर मोक्ष पुरुषार्थ की प्राप्ति है। मुक्तक काव्य मुक्त्तक-काव्य क रूप में एक ओर उपदेश रसायन रास, चर्चरी आदि ताललय पर आश्रित मेय रचनाएं हैं और दूसरी ओर सिद्धों के चर्यापद है। जिस प्रकार अपभ्रंश प्रबन्ध-काव्य में चरित-काव्य प्रमुख है उसी प्रकार मुक्तक-काव्य में दोहा। जैन और बौद्ध दोनों के दोहाकोश मिलते हैं। इनमें विशुद्ध आध्यात्मिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है। सावयषम्म-दोहा में जैन गहस्थ धर्म का निरूपण है, जबकि योगसार और परमात्मप्रकाश म संसार के दुःख का निदान करते हए कवि ऊंची आध्यात्मिक कल्पनाएं करने लगता है। वह आत्मा को शिव, हंस और ब्रह्म के नाम से पुकारता है, वह रूपकों, प्रतीकों और पारिभाषिक शब्दावली में बात करने लगता है, उसके अनुसार शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है और वह मानव शरीर में है, इसलिए मानव शरीर तीर्थ है। चित्त की शद्धि ही उसका एकमात्र साधन है, आत्मा-परमात्मा में प्रेयसी और प्रियतम का आरोपकर कवि इस बात पर अफसोस व्यक्त करता है कि एक ही शरीर में रहते हुए मी. अंग से अग नहीं मिला। "यदि लोग पागल-पागल कहते हैं तो कहने दो, तू मोह को उखाड कर शिव को पा। आगे-पीछे ऊपर जहां देखता हं,वहां वही है।" कहन (कृष्णपाद) कहते हैं, दुनिया जग में भ्रमित है, वह अपने स्वभाव को समझने में असमर्थ है, मनुष्य को चित्त बांधता है और वही मुक्त करता है। सरह कहता है, जहां मन पवन संचार नहीं करते, जहां सूर्य और चन्द्रमा का प्रवेश नहीं, हे मूर्ख, वहां प्रवेश कर । आध्यात्मिक दोहों के अतिरिक्त शृगार, नीति, प्रेम, वीर, रोमांस और अन्योक्ति से सम्बन्धित दोहों की कमी नहीं। भाषा और विषय-वर्णन की दृष्टि से ये दोहे दो टूक अभिव्यक्ति देते हैं, उनमें कृत्रिमता नहीं है। धवल (बैल) सामंतयम की स्वामी-भक्ति का प्रतीक है, स्वामी का भारी भार देखकर वह कहता है,-'स्वामी ने मेरे दो टकडे कर दोनों और क्यों नहीं जोत दिया । गुणों से सम्पत्ति नहीं मिलती है, केवल कीर्ति मिलती है। लोग सिंह को कौड़ी के भाव नहीं खरीदते जब कि हाथी लाखों में खरीदा जाता है।' एक योद्धा गिरनार पर्वत को उलाहना देता है, 'हे गिरिनार,तु ने मनमें ईर्ष्या की, खंगार के मारे जाने परत दुश्मन पर एक शिखर तक नहीं गिरा सका।' वीर रस की दर्पोक्तियों का एक से बढ़कर एक दोहा है। एक वीर पत्नी यह कहकर संतुष्ट है कि,-'युद्ध में उसका पति मारा गया, क्योंकि यदि वह भागकर घर आता तो उसे सखियों के सामने लज्जित होना पड़ता। ऐसा योद्धा सचमुच बलिहारी के काबिल है कि, सिर के कधे पर लटक जाने पर भी, जिसका हाथ कटारी पर है ।' एक प्रोषित पतिका कहती है,-"प्रिय ने मुझे जो दिन दिए थे, उन्हें नख से गिनते-गिनते मेरी अंगलियां क्षीण हो गई ।" एक ओर पथिक बादल से कहता है, हे दुष्ट बादल! मत गरज, यदि मेरी प्रिया सचमुच प्रेम करती होगी तो मर चुकी होगी, यदि प्रेम नहीं करती, तो स्नेह-हीन है, वह दोनों तरह से मेरे लिए नष्ट हुए के समान है ।' कुछ मुक्तक इतिवृत्तात्मक खण्डों पर आधारित हैं, जैसे कोशा (वेश्या) को एक जैन मुनि नेपाल से लाकर रत्नकंबल देता है, वह उसे माली में फेंक देती है, मुनि सोच में पड़ जाता है। वेश्या कहती है-'हे मुनि! तुम कंबल के नष्ट होने की चिन्ता करते हो, परन्तु अपने संयम-रूपी रत्न की चिन्ता नहीं करते ।' Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 निष्कर्ष कुल मिलाकर अपभ्रश भाषा और साहित्य, परम्परागत भा. आर्यभाषा और साहित्य को ही एक कडी है। पूर्णरूप से काव्यात्मक और व्यापक भाषा होते हुए भी उसकी विषयवस्तु सीमित रही है। गद्य और नाटकों के अभाव की पूर्ति वह, अपनी कडवक शैली में उनके तत्वों के संयोजन द्वारा करती है। उसका भाषाई गठन आर्यभाषा की संयोगात्मक और वियोगात्मक स्थितियों का संधिकाल है। अपभ्रंश साहित्य का अंतिम चरण (12 वीं सदी) के पहिले दो सो साल नई भाषाओं के विकास के साल थे। जबकि बाद के दो सौ साल, साहित्य संक्रमण काल के। अधिकांश साहित्य धार्मिक है, वह भौतिक हीनताओं और दुर्बलताओं पर आत्मा की विजय चित्त का संयम और जिनभक्ति इसका प्रमुख स्वर है। लौकिक भावों और राग-विराग की प्रतिक्रिया भी, आलोच्य साहित्य में व्यक्तिगत स्तर पर अंकित है। युग के सामाजिक और राजनीतिक द्वंद्वों, यहाँ तक कि बाह्य आक्रमणों के प्रति ये कवि तटस्थ हैं। अपभ्रश चरितकाव्य गीत-तत्व को अपने में समाहार करके चलते हैं। भाग्य की विडम्बना के प्रति अपभ्रश साहित्य का स्वर सबसे अधिक संवेदनशील और आक्रोश पूर्ण है। आलोच्य साहित्य में लोक और शास्त्र, दोनों का समन्वय है, उसकी कला रसवंती और अलंकृत कला है, वीर और शृंगार रस की प्रचुरता होते हए भी उसका अन्त शांत रस में होता है। युग की धार्मिक संवेदनाओं को यह “साहित्य अंकित करता है। अंत में निष्कर्षरूप में यह कहा जा सकता है, अपभ्रश भाषा की तरह उसका साहित्य भी आ. भा. आर्यभाषाओं के प्रारंभिक साहित्य के लिये आधारभूत उपजीव्य रहा है। इस प्रकार अपभ्रश, भाषा और साहित्य दोनों स्तरों पर, आ. भा. आर्यभाषाओं और साहित्यों की प्रारम्भिक रूपरचना और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य : विकास एवं प्रवृत्तियां 2. डा. राजाराम जैन भारतीय वाङ भय का प्रारम्भ वैदिककाल के उन साधक ऋषियों की वाणी से प्रारम्भ होता है, जिन्होंने प्रकृति की कोमल और रौद्र शक्तियों से प्रभावित होकर आशा-निराशा, हर्षविषाद एवं सुख-दुख सम्बन्धी अपने उद्गार आलंकारिक वाणी में प्रकट किए थे। विद्वानों ने उस वाणी को छान्दस् भाषा कहा है । ऋग्वेद एवं अथर्ववेद की भाषा वही छान्दस् थी, किन्तु गम्भीर अध्ययनों के बाद भाषा-वैज्ञानिक विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुचे हैं कि उक्त दोनों वेदों की छान्दस् भाषा में भी पर्याप्त अन्तर है । उनका अभिमत है कि ऋग्वेद की भाषा ब्राह्मण ग्रन्थों की संस्कृत में ढाली हुई एक सुनिश्चित परम्परा - सम्मत है, किन्तु अथर्ववेद की भाषा -- जनभाषा है और इसके साहित्य में पर्याप्त लोकतत्व पाए जाते हैं । अतएव स्पष्ट है कि आर्य भाषा और आर्य-साहित्य पर द्रविड और मुण्डा वर्ग की भाषा और साहित्य का प्रभाव पर्याप्त रूप में पड़ा है और अथर्ववेद उसी प्रभाव को स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त कर रहा है 2 | आर्यों के सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तनों के संदर्भ में उनकी बोलचाल की भाषा भी बदलती रही और ध्वन्यात्मक तथा पद-रचनात्मक दृष्टि से पर्याप्त विकास होता रहा । ब्राह्मण एवं उपनिषद् काल में वैभाषिक प्रवृत्तियां स्पष्टतः परिलक्षित होती हैं । वैदिक भाषा पर प्राच्य जनभाषा का इतना अधिक प्रभाव पडा कि जिससे ब्राह्मण-ग्रन्थों ने असंस्कृत एवं प्रशुद्ध प्राच्य प्रभाव से अपने को सुरक्षित रखने की घोषणा की । कौषीतिकी ब्राह्मण में उदीच्य लोगों के उच्चारण की प्रशंसा की गई है और उन्हें भाषा की शिक्षा में गुरु माना गया है4 | महर्षि पाणिनि ने जिस संस्कृत भाषा को शब्दानुसार लिखा, वह उदीच्य भाषा ही है । प्राच्य-भाषा, उदीच्य भाषा की दुष्टि से असंस्कृत एवं अशुद्ध थी, क्योंकि उस पर मुण्डा एवं द्रविड जैसी लोक भाषाओं का पर्याप्त प्रभाव था 5 | व्रात्यों की निन्दा जहां उनके यज्ञ-यागादि में आस्था न रहने के कारण की गई है, वहीं उनकी 'देश्य - भाषा' भी उसका एक कारण था । अतएव निष्पक्षरूप से यह स्वीकार करना होगा कि छान्दस युग में देश्य भाषा की एक क्षीण-धारा प्रवाहित हो रही थी, जो आगे चलकर प्राकृत के नाम से विख्यात हुई । पी. डी. गुणे प्रभृति अनेक भाषाविदों की यह मान्यता है कि 'छान्दस्' के समानान्तर कोई Street cat थी और यही जनभाषा परिनिष्ठित साहित्य के रूप में वेदों में प्रयुक्त हुई । सुप्रसिद्ध महावैयाकरण पाणिनि ने वैदिक संस्कृत को व्याकरण के द्वारा अनुशासित कर लौकिक संस्कृत भाषा का रूप उपस्थित किया है । पाणिनि के व्याकरण से स्पष्ट है कि छान्दस की प्रवृत्तियां वैकल्पिक थीं । उन्होंने इन विकल्पों का परिहार कर एक सार्वजनीन मान्यरूप उपस्थित किया । वेद की वैकल्पिक विधियां अपने मूल रूप में बराबर चलती रहीं, जिनके ऊपर पाणिनीय-तन्त्र का अंकुश न रहा और ये विकसित प्रवृतियां ही 'प्राकृत' के नाम से पुकारी जाने लगीं । यहां यह ध्यातव्य है कि प्राकृत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सर्वमान्य धारणा यही है कि छान्दस भाषा से ह 1. प्राकृत भाषा ( लेखक - प्रबोध पण्डित ) पृ. 13-14 / 2. भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी ( चटर्जी) पृ. स. 63, 3. ताण्ड्य ब्राह्मण 1714/ 4. कौषीतिकी ब्राह्मण 716 / 5. संस्कृत का भाषा शास्त्रीय अध्ययन ( बनारस, 1957 ई.) पृ. 270-271 /6 तुलनात्मक भाषा - विज्ञान ( गुणे ) पृ. 129-130 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 133 मुख्यतया प्राकृत का आविर्भाव य विकास हुआ है। छान्दस् के समानान्तर प्रवाहित होने वाले जनभाषा की प्रवृत्तियां पृथक रूप में उपलब्ध नहीं है, किन्तु इनका आभास छान्दस से मिल जाता है। प्राच्या, जो कि 'देश्य' या 'प्राकृत' का मूल है, उसका वास्तविक रूप क्या था, इसकी निश्चित जानकारी हमें ज्ञात नहीं है। महावीर एवं बद्ध के उपदेशों की भाषा भी हमें आज मूलरूप में प्राप्त नहीं है। जो रूप आज निश्चित रूप से उपलब्ध है, वह प्रियदर्शी अशोक के भभिलेखों की भाषा का ही है, किन्तु इन अभिलेखों की भाषा में भी एकरूपता नहीं है। उनमें विभिन्न वैभाषिक प्रवत्तियां सन्निहित हैं। इन अभिलेखों का प्रथम रूप पूर्व की स्थानीय बोली है, ओ कि मगध की राजधानी पाटलीपुत्र तथा उसके समीपवर्ती प्रदेश में बोली जाती थी और जिसको साम्राज्य की अन्तन्तिीय भाषा कहा जा सकता है। प्राच्या का दूसरा रूप, उत्तर पश्चिम की स्थानीय बोली है। इसका अत्यन्त प्राचीन स्वरूप अभिलेखों में सुरक्षित है। इस प्रकार इसी भाषा को साहित्यिक प्राकृत का मूलरूप कहा जा सकता है । उसका तीसरा रूप पश्चिम की स्थानीय बोली है, जिसका रूप हिन्दुकुश पर्वत के आसपास एवं विन्ध्याचल के समीपवर्ती प्रदेशों में माना गया है। विद्वानों का अनुमान है कि यह पैशाची भाषा रही होगी या उसीसे पैशाची भाषा का विकास हआ होगा। प्रियदर्शी अशोक के अभिलेखों के उक्त माषाक्षेत्रों में से पूर्वीय भाषा का सम्बन्ध मागधी एवं अर्धमागधी के साथ है। यद्यपि उपलब्ध अर्धमागधी साहित्य की भाषा में उक्त समस्त प्रवृत्तियों का अस्तित्व उपलब्ध नहीं होता। उत्तर पश्चिम की बोली का सम्बन्ध शौरसैनी के साथ है, जिसका विकसित रूप सम्राट् खारवेल के शिलालेख, दि. जैनागमों एव संस्कृत नाटकों में उपलब्ध होता है। पश्चिमी बोली का सम्बन्ध पैशाची के साथ है, जिसका रूप गणाढ्य की 'वड्ढकहा' में सुरक्षित था । भाषाविदों ने प्रथम प्राकृत को 'आर्य' एवं 'शिलालेखीय' इन दो भागों में विभक्त किया है, जिनमें से आर्ष प्राकृत जैनागमों एव बौद्धागमों में उपलब्ध है और शिलालेखीय प्राकृत ब्राह्मी और खरोष्ठी-लिपि में उपलब्ध हए शिलालेखों में । द्वितीय प्राकृत में वैयाकरणों द्वारा विवेचित महाराष्ट्री, शौरसैनी, मागधी और पैशाची भाषाओं का साहित्य प्रस्तुत होता है। महाराष्ट्री द्वितीय प्राकृत की साहित्यिक परिनिष्ठित भाषा मानी गई है2। महाकवि दण्डी ने महाराष्ट्रीय प्राकृत की पर्याप्त प्रशंसा की है। वररुचि के 'प्राकृत-प्रकाश' से भी इस बात का समर्थन होता है कि महाराष्ट्री प्राकृत पर्याप्त समृद्ध रूप में वर्तमान थी। यह भाषा-शैली उस समय आविन्ध्य-हिमालय भारत की राष्ट्रभाषा मानी जा सकती है, यद्यपि कुछ विचारक मनीषी महाराष्ट्री और शौरसैनी को दो पृथक पृथक् भाषाएं नहीं मानते, बल्कि एक ही भाषा की दो शैलियां मानते हैं। उनका मत है कि गद्य-शैली का नाम शौरसैनी और पद्यशैली का नाम महाराष्ट्री है। मलतः यह प्राकृत सामान्य प्राकृत ही है और शैली-भेद से ही इसके दो भेद किए जा सकते हैं। 1. दे. आष्टाध्यायी के सूत्र-विभाषा छंदसि 1-2-26 बहुलं छन्दसि 2-3-62 आदि 2. इन्ट्रोडक्शन टू प्राकृत (वॉलर) पृष्ठ-2-5/ 3, काव्यादर्श 1134, 4. कर्पूरमंजुरी (कलकत्ता वि. वि. प्रकाशन) भूमिका पू. 76 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 तीसरी प्राकृत को वैयाकरणों ने अपभ्रश की संज्ञा प्रदान की है। कुछ लोगों का विचार... है कि अपनश एक भ्रष्ट भाषा है, पर हम इस विचार से सहमत नहीं हैं। वस्तुतः अपभ्रंश वह पाषा है, जिसकी शब्दावली एवं काव्य-विन्यास संस्कृत शब्दानुशासन के नियमों एवं उप-नियमों सेवनकासित नहीं है, जो शब्दावली देशी-भाषाओं में प्रचलित है तथा संस्कृत के जम्बों के यथार्थ उच्चरित न होने से कुछ विकृत रूप म उच्चरित है, वही शब्दावली अपभ्रंश पापा के अन्तर्मत मानी जाती है । यही कारण है कि महर्षि पतञ्जलि ने एक ही संस्कृत-शब्द के सवारण भेद से अनेक शब्द स्वीकार किए हैं।। अतएव अपभ्रश वह भाषा है जिसमें प्राकृत ... की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक देशी-शब्द उपलब्ध हैं तथा वाक्य-रचना एवं अन्य कई दृष्टियों से सरलीकरण तथा देशीकरण की प्रवत्ति अधिकतर प्राप्त होती है और जिसकी शब्दराशि पाणिनि के व्याकरम से सिद्ध नहीं है। ईस्वी सन् की दूसरी सदी के समर्थ आचार्य भरतमनि ने यद्यपि अपभ्रश भाषा का स्पष्ट उल्लेखनहीं किया, किन्तु उन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत के साथ-साथ दश्य-भाषा2 का भी उल्लेख किया है तथा इसी देश्य-भाषा में शबर, आभीर, चाण्डाल, द्रविड, ओड़ तथा अन्य नेचरों को विमाषाबों की भी गिनती की है । अतः भरतमुनि का उक्त उल्लेख अपभ्रश की सूचना देता है क्योंकि आगे चलकर विविध देशों में विविध प्रकार की भाषाओं के प्रयोग किये जाने का उन्होंने उल्लेख किया है। उनके अनुसार हिमालय क आसपास स्थित प्रदेशों तथा सिन्ध, सौवीर बसे देशवासियों के लिये उकार-बहला भाषा का प्रयोग होना चाहिये । उकार-बहुल शब्द बपना की ही सर्वविदित प्रवृत्ति है । उक्त मरतमुनि की उकार-बहुला भाषा-अपभ्रंश काव्य-भाषा कब बनी, इसका स्पष्ट उस्लेख बलभी के राजा घरसेन द्वितीय (678 ई. के लगभग) के दानपत्र में मिलता है। उसके समय में प्राकृत एवं संस्कृत के साथ ही अपम्रश में भी काव्य-रचना करना एक विशिष्ट प्रतिभा का घोतक प्रशंसनीय-चिन्ह माना जाने लगा था । उक्त दान-पत्र में धरसेन ने अपने पिता गुहसेन (559-569 ई.) को संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रश काव्य-रचना में प्रत्यन्त निपुण कहा है। इससे शात होता है कि छठवीं सदी तक अपभ्रंश भाषा व्याकरण एवं साहित्य के नियमों से परिनिष्ठित हो चुकी थी और वह काव्य-रचना का माध्यम बन चुकी थी । आगे चलकर महाकवि दगडी, राजशेखर, नमिसाध, अमरचन्द्र प्रभूति आचार्यों ने विविध दष्टिकोणों से विचार किया है बीर उनके अध्ययन से यही विदित होता है कि इसकी दूसरी शती में जहां अपभ्रंश का प्रच्छन्न मामोल्लेख मात्र मिलता था और अपाणिनीय शब्दों के अतिरिक्त अपभ्रष्ट, विकृत या अशुद्ध सक्दमात्र अपभ्रश की संज्ञा प्राप्त करते थे, वहीं ईस्वी की छठवीं-सातवीं सदी तक वह साहित्यिक बाबा के रूप में प्रचलित हो गई और नौवीं-दसवीं सदी तक वह सर्वाधिक सशक्त एवं समद्ध भाषा के रूप में विकसित हो गई । उसके बाद वही अपभ्रश आधुनिक देश-भाषाओं के रूप में विकसित होने लगी, यद्यपि उसकी साहित्यिक रचनाएं पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी तक चलती रहीं। अपमंश के उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि छठी सदी के अनन्तर उसमें साहित्यिक स्वनाएं होने लगी थीं, पर अपभ्रश साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास महाकवि चउमह से प्रारम्भहोता है और उसके बाद दसवीं सदी से तेरहवीं सदी के पूर्वार्ध तक तो इसका स्वर्णकाल ही माना जाने लगा। 1. महाभाष्य 111111 2. नाट्यशास्त्र 18122-23 3. बही 17150 4. नाटयशास्त्र 18147-48 5. इण्डियन ए न्दीक्वेरी वोल्यूम 10, पृष्ठ-284 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य से यह सिद्ध है कि वह मुक्तक-काव्य से प्रारम्भ होकर प्रबन्धकाव्य में पर्यवसान को प्राप्त हुआ । यतः साहित्य की परम्परा सदैव ही मुक्तक से प्रारम्भ होती है । प्रारम्भ में जीवन किसी एक दो भावना के द्वारा ही अभिव्यक्तिः किया जाता है पर, जैसे- जैसे ज्ञान और संस्कृति के साधनों का विकास होने लगता है, जीवन भी विविधमुखी होकर साहित्य में प्रस्फुटित होता है । संस्कृत और प्राकृत में साहित्य की जो विविध प्रवृत्तियां अग्रसर हो रही थीं, प्रायः वे ही प्रवृत्तियां कुछ रूपान्तरित होकर अपभ्रंश साहित्य में प्रविष्ट हुई :* फलतः दोहा-गान के साथ-साथ प्रबन्धात्मक पद्धति भी अपभ्रंश में समाहत हुई । इस ह महाकवि चउमुह, द्रोण, ईशान, पुष्पदन्त, धनपाल प्रभूति कवि प्रमुख हैं । इन कवियों के शाहिक का अध्ययन करने से अपभ्रंश साहित्य की निम्न प्रमुख प्रवृत्तियां ज्ञात होती हैं:- 1. प्रबन्धकाव्य प्रवृत्ति 2. आध्यात्मिक-काव्य प्रवृत्ति, 3. बौद्ध दोहा एवं चर्यापद तथा 4. शौर्य-वीर्य एवं प्रणय-श्रृंगार काव्य प्रवृत्ति । प्रथम प्रबन्ध-काव्य प्रवृत्ति के अन्तर्गत पुराण, चरित, काव्य एवं कथा-साहित्य की गणना की जा सकती है । वर्ण्य विषय की दृष्टि से इन काव्यों को पौराणिक एवं रोमाण्टिक काव्य रूप में इन दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं । महाकवि स्वयम्भू, पुष्पदन्त एव धनपाळ ये तीनों ही इस विधा के "त्रिरत्न " हैं । इन्होंने अपभ्रंश - साहित्य में जिन प्रबन्ध - रूढियों एवं earth सम्बन्धी अभिप्रायों का ग्रथन किया है, वे उत्तरवर्ती अपभ्रंश-साहित्य के लिये बाबार ही बन गए हैं । महाकवि स्वयंभू के पउमचरिउ में काव्य की सरसता का पूर्ण निर्वाह हुवा है । उक्त ग्रन्थ की अंग्रेजी प्रस्तावना में बताया गया है कि 'रसात्मकता एवं सौन्दर्य उत्पन्न करने के ये कवि ने विभिन्न मर्मस्पर्शी भावों के चित्रण, प्राकृतिक दृश्यों एवं घटनाओं के वर्णन तथा वस्तु व्यापार के संश्लिष्ट और प्रासंगिक निरूपण में पर्याप्त मौलिकता एव धार्मिक रूढियों से ऊपर उठकर स्वतन्त्रता की प्रवृत्ति का परिचय दिया है। ।' काव्यारम्भ में देव-स्तुति, विषय बस्तु का निर्देश, अपनी असमर्थता एवं दीनता का निवेदन, पूर्वकवि-प्रशंसा, सज्जन प्रबंधन, दुर्जन- निन्दा, देश एवं नगर वर्णन के साथ ही साथ राजनीति, दण्डनीति, अर्थनीति आदि विषयों का वर्णन उस कोटि का है, जो इस रचना को प्रबन्ध-काव्यों में महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करता है । महाकवि पुष्पदन्त कृत महापुराण 2 नाममात्र का ही महापुराण है । वस्तुतः वह महाभारत की शैली का विकसनशील महाकाव्य है । महाभारत के सम्बन्ध में जो यह किवदंती है कि --- यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्' । उसी प्रकार पुष्पदन्त के महापुराण के सम्बन्ध में स्वयं ही कवि ने कहा है :--- अत्र प्राकृतलक्षणानि सकला नीतिः स्थितिरछन्दसामर्थालंकृतयो रसाश्च विविधास्तत्वार्थनिर्णीतयः । किंचान्यद्यदिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते द्वावेतौ भरतेश- पुष्पदशनौ सिद्धं ययोरीदृशम् ॥ ( महापुराण 59 वीं सन्धि का प्रारम्भिक फुटनोट ) उक्त कथन से स्पष्ट है कि जो यहां ( उक्त महापुराण में ) है, वह अन्यत्र है ही नहीं । अतः उद्देश्य की महत्ता, शैली की उदात्तता एवं गरिमा तथा भाव-सौन्दर्य और वस्तु व्यापार वर्णन आदि की दृष्टि से उक्त महाकाव्य में अपूर्व रस विभोर करने की क्षमता विद्यमान है । 2. 1. पउमचरिउ (सिंधी सीरीज ) प्र. भा. प्रस्तावना पृष्ठ 48 माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला ( बम्बई, 1940) द्वारा प्रकाशित Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 पौराणिक शैली के वैयक्तिक महापुरुषों से सम्बन्धित महाकाव्य भी अपभ्रश में लिख गए हैं। इन काव्यों की प्रवत्ति यह रही है कि इनमें किसी पौराणिक या धार्मिक व्यक्ति की जीवन-कथा जैन-परम्परा में स्वीकृत शैली में कही जाती है । कवि अपनी कल्पना शक्ति से कथा के रूप में इतना परिवर्तन कर देता है कि समस्त चरित काव्यात्मक रूप धारण कर रसमय बन जाता है। इस श्रेणी के अपभ्रंश काव्यों में मिणाहचरिउ (हरिभद्र, 13वीं सदी), बम्बसामि चरिउ (वीर कवि 10 वीं सदी), पासणाह चरिउ (विबुध श्रीधर, 12 वीं सदी), संतिणाहचरिउ (शुभकीर्ति) प्रभृति रचनाएं प्रमुख हैं। इन सभी पौराणिक काव्यों का आलोडन करने पर निम्न सामान्य प्रवृत्तियां लक्षित होती हैं : __ 1. प्रबन्ध काव्यों में प्रारम्भ करने की शैली प्रायः एक सदृश है। प्रारम्भ म तीर्थ करों की स्तुति, पूर्ववर्ती कवियों और विद्वानों का स्मरण, सज्जन-प्रशंसा एव दुर्जननिन्दा, काव्य-रचना में प्रेरणा एवं सहायता करने वालों की अनुशंसा, विनम्रता अथवा दीनता प्रदर्शन, महावीर का राजग्रही में समवशरण का आगमन तथा महाराज श्रेणिक का उसमें पहंचकर प्रश्न करना तथा गौतम गणधर का उत्तर देना आदि पिष्टपेषित सन्दर्भाश विद्यमान है। . .. 2. सठ शलाका महापुरुषों अथवा अन्य किन्हीं पुण्यशाली महापुरुषों के जीवनचरितों को लेकर अपभ्रंश-कवियों ने कल्पना के द्वारा यत्किंचित् परिवर्तन कर काव्य का रूप खड़ा किया है। यद्यपि ढांचा संस्कृत एवं प्राकृत जैसा ही है, पर विषय-प्रतिपादन की शैली उनकी अपनी निजी है । 3.', 'चरित-नायकों और उनसे संबंधित व्यक्तियों के विभिन्न जन्मों की कथा के उस मार्मिक अंश को ग्रहण किया गया है, जो लोक-जीवन का आदर्श आधार हो सकता है। यद्यपि क्वचित भवान्तरों का निरूपण भी है, पर संस्कृत और प्राकृत की अपेक्षा उनकी निरूपण- शैली में भी भिन्नता है। संस्कृत और प्राकृत के कवि जहां भवान्तरों की झड़ी लगा देते हैं, वहां अपभ्रश के पौराणिक महाकाव्यों के रचयिता कवि मात्र मर्मस्पर्शी भवान्तरों को ही समाविष्ट करते हैं। ___4. उक्त भवान्तर-वर्णन का मूल कारण कर्मफल प्राप्ति में अडिग आस्था ही है और उसका मुख्य उद्देश्य जैन धर्म का उपदेश देना है। परिणाम स्वरूप ये सभी काव्य वैराग्यमलक और शान्तरस पर्यवसायी है। यतः उनके नायकों का साधु हो जाना और निर्वाण प्राप्त करना आवश्यक माना गया है। उक्त श्रेणी के काव्यों में लोक-विश्वासों और लोक-कथाओं का पर्याप्त रूप में समावेश हआ है। अलौकिक और अप्राकृतिक तत्व भी यथेष्ट रूप में समाविष्ट हैं। यथादेव, यक्ष, राक्षस, विद्याधर आदि के अलौकिक कार्यों, मत्तगज से यद्ध, आकाश गमन जैसे वर्णन प्राचीन परम्परा के आधार पर ही वर्णित हैं। 6. यद्यपि पौराणिक-काव्य धर्मविषयक है, पर शृगार और युद्धवर्णन की परम्परा मी प्रायः सभी काव्यों में उपलब्ध है। कथा के भीतर अवसर मिलते ही कवि सन्ध्या, प्रभात, चन्द्रमा, नदी, सागर, पर्वत, वन आदि का सुन्दर चित्रण उपस्थित करता है। स्त्रियों के शारीरिक सौन्दर्य, जल क्रीडा एवं सुरति आदि के वर्णनों से भी परहेज दिखाई नहीं पड़ता। यद्ध-प्रयाण, कुमार-जन्म, विवाहोत्सव आदि के भी सजीव चित्र उपलब्ध होते हैं। कहीं-कहीं तो ऐसा होता है कि कथा-प्रवाह को दबा कर वस्तु-वर्णन हावी हो गया है । रोमाण्टिक काव्य की कोटि की रचनाओं में धार्मिकता और ऐतिहासिकता का संगम है। इनमें कुछ धार्मिक महापुरुषों अथवा कामदेव के अवतारों के जीवन-चरित वर्णित हैं और Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 137 कुछ व्रतों और मन्त्रों का फल दिखाने के लिये दृष्टान्त के रूप में लिये गये आख्यान हैं। इस श्रेणी के काव्यों में पुष्पदन्त कृत णायकुमार चरिउ, नयनन्दि कृत सुंदसणचरिउ, कनकामर कृत करकंड चरिउ, लाख कवि कृत जिणदत्त चरिउ आदि प्रमुख हैं । धनपाल कृत भविसयत्तकहा को भी इस कोटि का काव्य माना जा सकता है । इन समस्त रोमाण्टिक काव्यों में उपयुक्त करकंड चरिउ, णायकुमार चरिउ एवं सदसणचरिउ प्रथम श्रेणी के रोमाण्टिक काव्य हैं। इन काव्यों का पृथक्-पृथक् विश्लेषण न कर इनकी सामान्य प्रवृत्तियों का संक्षिप्त परिचय यहां प्रस्तुत किया जा सकता है। 1. अपभ्रश के रोमाण्टिक-काव्यों की प्रमुख विशेषता पात्रों के मनोवैज्ञानिक चरित्रचित्रण संबंधी है, यद्यपि नख-शिख वर्णन एवं वेशभूषा के चित्रण में पूर्णतया शृंगारिकता है। कथावस्तु में रोमाञ्च उत्पन्न करने हेतु साहसिक-यात्राएं तथा युद्ध एवं प्रेम का वर्णन उदात्त शैली में हुआ है। 2. अपभ्रश के रोमाण्टिक-काव्यों की कथा का आधार प्रचलित लोक-कथाएं और लोक-गाथाएं है। कवियों ने कुछ धार्मिक बातें जोडकर उन्हें चरित या कथा काव्य का परिधान पहिना दिया है। नायक को जैन धर्म का बाना पहिना कर ऐतिहासिकता और धार्मिकता के प्रयागराज में लाकर उपस्थित कर दिया है। 3. रोमाण्टिक-काव्य एक प्रकार से प्रेमाख्यानक काव्य है। इनमें बीरगाथात्मक काव्यों के समान द्ध और प्रेम को अधिक महत्व दिया गया है। यह लोक-गाथाओं और वीर-गीतों की प्रवृत्ति है या जिनके चक्र से विकसनशील महाकाव्यों का विकास होता है। इसमें सन्देह नहीं कि अपभ्रश के कवियों ने धार्मिक आवरण में रोमाञ्चक काव्य लिखे हैं। ___ 4. प्रस्तुत काव्यों में कल्पना की गगनचुम्बी उडाने एवं अतिशयोक्तियों की भरमार है। यद्यपि उनका आधार यथार्थ जीवन है, तो भी कल्पना की रंगरेलियां आंखमिचौनी खेलती हई दृष्टिगोचर हो जाती हैं। पुष्पदन्त के णायकुमार वरिउ में नायक नागकुमार सैकड़ों राजकूमारियों से विवाह करताहै, जिसका यथार्थ आधार यह है कि सामन्ती वीरयग में सामन्त लोग युद्ध में विजित राजाओं की राजकुमारियों से विवाह करते थे। इस प्रकार बहुविवाह करने की प्रथा विकसित थी। कवियों ने इसी संभावना के बल पर अतिशयोक्तिपूर्ण घटनाओं का अंकन किया है। 5. साहसिक-कार्य, बीहड यात्राएं, उजाड नगर अथवा भयंकर वन में अकेले जाना, उन्मत हाथी से अकेले ही यद्ध करना, यक्ष, गन्धर्व और विद्याधरादि से यद्ध करना, समद्र-यात्रा और उसमें जहाज का फट जाना आदि का वर्णन मिलता है। ये वर्णन कथा में रोमाञ्च गण उत्पन्न करने के लिये उस नमक के समान हैं जो व्यञ्जन को स्वादिष्ट बनाने के लिये अत्यन्त उपयोगी है। 6. पौराणिक-काव्यों के समान रोमाण्टिक काव्यों के कथानक भी उलझे हुए और जटिल हैं। कथा के भीतर कथा की परम्परा जिसे कि 'कदलीस्तम्भशिल्प' कहा जा सकता है, सर्वत्र वर्तमान है। अवान्तर-कथाओं और भवान्तरों का वर्णन इन काव्यों की एक सामान्य विशेषता है। पूर्वजन्मों के कर्मों का फल दिखाकर शील का उन्नत बनाना एव वर्तमान जीवन को परिष्कृत करना ही इन काव्यों का उद्देश्य है। नायक आरम्भ में विषयासक्त दिखलाई पड़ेगा, पर अन्त में विरक्त होकर सन्यास ग्रहण कर लेता है तथा मुक्ति प्राप्त कर लेता है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 7. अपभ्रंश के रोमाण्टिक-काव्यों में कथानक रूढियों का प्रचर परिमाण में उपयोग हुआ है, जिनमें से निम्न रूढियां तो अत्यन्त प्रसिद्ध हैं :--. (क) उजाड नगर का मिलना, वहां किसी कुमारी का दर्शन होना और उससे विवाह हो जाना । मविसयत्सकहा इसका सुन्दर उदाहरण है । (ख) प्रथम-दर्शन, गुण-श्रवण या चित्र-दर्शन द्वारा प्रेम का जागृत होना। यथा भविसयत्त कहा, णायकुमार चरिउ, सुदंसण चरिउ आदि । द्वीप-द्वीपान्तरों की यात्रा, समद्र में जहाज का टूट जाना, नाना प्रकार की बाधाय और उन बाधाओं को पारकर निश्चित स्थान पर पहुंचना। यथा भविसयत्त कहा, णायकुमार चरिउ, सिरिवाल कहा आदि । (घ) दोहद कामना। यथा करकंड चरिउ । (ङ) पञ्चाधिवासितों द्वारा राजा का निर्वाचन । यथा करकंड चरिउ । (च) शत्रु-सन्तापित सरदार की सहायता एव युद्ध मोल लेना। यथा करकंड चरिउ, णायकुमार चरिउ । (छ) मुनि-श्राप । यथा करकंड चरिउ, भविसयत्त कहा । (ज) पूर्व जन्म की स्मृति के आधार पर शत्रुता एव मित्रता का निर्वाह, पूर्व-जन्म के उपकारों का बदला चकाना तथा जन्मान्तरों के दम्पतियों का पति-पत्नी के रूप में होना । यथा जसहर चरिउ, णायकुमार चरिउ, करकंड चरिउ, भविसयत्त कहा आदि । श्चरित्र अथवा धोखेबाज पत्नी का होना । यथा करकंड चरिठ, जसहर चरिउ, सुदंसण चरिउ आदि । (च) रूप-परिवर्तन । यथा करकंड चरिउ, भविसयत्त कहा आदि । दूसरी आध्यात्मिक काव्य-प्रवृत्ति को कुछ विद्वानों ने रहस्यवादी काव्य-प्रवृत्ति भी कहा है । इस विधा में सबसे प्राचीन जोइंदु कृत परमप्पयासु-जोयसारु एवं मुनि रामसिंह कृत पाहुडदोहा तथा सावयधम्मदोहा नामक दोहा-ग्रन्थ प्रमुख हैं। अपभ्रंश के इस श्रेणी के साहित्य पर एक ओर कुन्दकुन्द के समयसार का प्रभाव है, तो दूसरी ओर उपनिषद् तथा गीता के ब्रहमवाद का प्रभाव परिलक्षित होता है। इसमें आत्मा-परमात्मा, सम्यक्त्व-मिथ्यात्व एवं भेदानुभूति का बहुत ही सुन्दर चित्रण हुआ है। परमात्मा का स्वरूप बतलाते हुए कवि जोइंदु ने कहा है:-- वेयहिं सत्यहिं इंदियहिं, जो जिय मुणहु ण जाइ । णिम्मल झाणहं जो विसउ जो परमप्पु अणाइ ॥ (1123) अर्थात्-केवली की दिव्यवाणी से, महामुनियों के वचनों से तथा इन्द्रिय एवं मन से भी शुद्धात्मा को नहीं जाना जा सकता, किन्तु जो आत्मा निर्मल ध्यान द्वारा गम्य है, वही आदिअन्त रहित परमात्मा है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 139 मुनि रामसिंह ने रहस्यवाद का बहुत ही सुन्दर अंकन किया है । भारतीय-परम्परा में जिस रहस्यवाद के हमें दर्शन होते हैं, वह रहस्यवाद रामसिंह के निम्न दोहे में स्पष्ट रूप से विद्यमान है :-- हउं सगुणी पिउ णिग्गुणउ णिल्लक्खणु णीसंगु । एकहिं अंगि वसंतयहं मिलिउ ण अंगहिं अंगु ॥ (पाहुड.-10) अर्थात्-मैं सगुण हं और प्रिय निर्गुण, निर्लक्षण और नि:संग है । एक ही अंग रूपी अंक अर्थात कोठे में बसने पर भी अंग से अंग नहीं मिल पाया । तुलनात्मक दष्टि से अध्ययन करने पर अवगत होता है कि अपघ्रश की इस विधा पर योग एवं तान्त्रिक पद्धति का भी यत्किञ्चित प्रभाव पड़ा है । इसमें चित्-अचित्, शिव-शक्ति, सगुण-निर्गुण, अक्षर, रवि-शशि आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग मिलता है, जो जैन परम्परा के शब्द नहीं हैं । शिव-शक्ति के सम्बन्ध में कहा गया है : सिव विण सत्ति ण वावरइ सिउ पुणु सत्ति-विहीणु । दोहिमि जाणहि सयलु जगु बुज्झइ मोह विलीणु ॥ (पाहुड.-55) अर्थात् शिव के बिना शक्ति का व्यापार नहीं होता और न शक्ति-विहीन शिव का। इन दोनों को जान लेने से सकल जगत् मोह में विलीन समझ में आने लगता है । तीसरी महत्वपूर्ण विधा बौद्ध-दोहा एवं चर्या-पद सम्बन्धी है, जिसे सन्ध्याभाषा की संज्ञा भी प्राप्त है। सिद्धों ने परमानन्द की स्थिति, उस मार्ग की साधना एवं योग-तत्व का वर्णन प्रतीकात्मक भाषा में किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने तात्कालिक सामाजिक कुरीतियों तथा रूढियों की निन्दा के साथ ब्राह्मण धर्म के पाखण्डों का भण्डाफोड किया है। यद्यपि इन दोहों में आध्यात्मिक तत्व और दार्शनिक परम्परायें निहित हैं, पर इनमें ध्वसांत्मक-तत्व प्रधान रूप से सजग हैं, जबकि जैन आध्यात्मिक अपभ्रश दोहों में तीव्र ध्वंसात्मक रूप न होकर आध्यात्मिक तत्व का निरूपण ही उपलब्ध होता है। मुनि रामसिंह ने भी यद्यपि आडम्बर-पूर्ण कुरीतियों का निराकरण किया है, पर वे अपनी वर्णन-प्रक्रिया में उग्र नहीं हो पाए हैं। यथा: मुंडिय मंडिय मुंडिया सिरु मुंडिउ चित्तु ण मुंडिया। चित्तहं मुंडणु जि कियउ संसारहं खंडणु ति कियउ ॥(पाहुड-135) अर्थात हे मुंड मुंडाने वालों में श्रेष्ठ मुडी, तूने सिर तो मुडाया पर चित्त को न मोडा। जिसने चित्त का मुण्डन कर डाला उसने संसार का खण्डन कर डाला। जैन कवि कण्ह या सरह की भांति अपने विरोधी को जोर की डांट-फटकार नहीं बतलाते और तान्त्रिक पद्धति भी उस रूप में समाविष्ट नहीं है, जिस रूप में बौद्ध-दोहों में। यतः बौद्धतान्त्रिकों ने स्त्री-संग और मदिरा को साधना का एक आवश्यक अंग माना है। इन तान्त्रिकों की कृपा से ही शैव और शाक्त साधना में पंच-मकार को स्थान प्राप्त हुआ है। वज्रयान शाखा के कवियों ने अपनी रहस्यात्मक मान्यताओं को स्त्री-संग संबंधी प्रतीकों से व्यक्त किया है। यही कारण है कि बाला, रण्डा, डोम्बी, चाण्डाली, रजकी आदि के साथ भोग करना इन्होंने विहित समझा। यद्यपि यह सत्य है कि योग-स्थिति का वर्णन करने के हेतु वे अश्लील प्रतीक चनते थे पर उनका अभिप्रेत अर्थ भिन्न ही होता था। बाला, रण्डा के साथ सम्भोग करने का अर्थ है कि कुण्डलिनी को सुषुम्ना के मार्ग से ब्रह्म रन्ध्र में ले जाना। अतएव स्पष्ट है कि बौद्ध-दोहों के द्वारा अपभ्रंश-साहित्य में प्रतीकात्मक-रहस्यवाद की एक परम्परा प्रारम्भ हुई। समझा। यद्यपि यह सवभिन्न ही होता था। बाला, अतएव स्पष्ट है कि Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 चर्यापद तो परवर्ती- साहित्य के लिये बहुत ही अमुल्य-निधि सिद्ध हुए । के पद-साहित्य के विकास की कड़ी सहज में ही जोड़ी जा सकती है । चौथी काव्य प्रवृत्ति शौर्य एवं प्रणय संबंधी है, जो अपभ्रंश दोहा-साहित्य में प्राचीन काल से चली आ रही है । डा. हीरालाल जैन ने इस प्रवृत्ति को भावनात्मक मुक्तक प्रवृत्ति की संज्ञा प्रदान की है। उन्होंने इस प्रवृत्ति के जन्मदाता राजस्थानी चारणया भाट कवियों को बताया है । वस्तुतः इस प्रवृत्ति का दर्शन हमें महाकवि कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' नामक नाटक की उन उक्तियों में मिलता है, जिनमें विरही पुरुरवा अपने हृदय की मार्मिक दशा को व्यक्त करता है। पुरुरवा देखता है कि सामने से कोई हंस मन्द गति से चला जा रहा है । हंस को यह अलसगति कहां से मिली ? उसे सहसा ही उर्वशी का जाता है और वह कह उठता है: --- जघनभराल सगमन स्मरण आ इन्हीं पदों से हिन्दी रे रे हंसा कि गोइज्जइ गइ अणुसारें मई लक्खिज्जइ । कई पई सिक्खि ए गइ लालस सा पई दिट्ठी जणभरालस ॥ ( विक्रमोर्वशीय नाटकम् 4132 ) पुरुरवा हंस- युवा को हंसिनी के साथ प्रेमरस के साथ क्रीडा करते हुए देखकर उर्वशी के विरह से भर जाता है और उसके मुख से निकल पड़ता है, काश, मैं भी हंस होता 1. एक्aarभवढि अगुरुअरपेम्मरसें । सरे हंसजुआओ कीलइ कामरसें (विक्रमोर्वशीय 4141 ) यहां यह स्मरणीय है कि उक्त पद्यों की अभिव्यञ्जना शैली लोकगीतों के अतिनिकट है । उपर्युक्त पद्य अडिल्ल छन्द में लिखा गया है, जो अपभ्रंश का अपना छंद है । अतः यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है कि अपभ्रंश की प्रबन्ध-पद्धति के विकास में लोकगीतों का प्रमुख स्थान रहा है । कालिदास के प्रणय - मुक्तकों के उपरान्त दूसरी मोतियों की लडी हमें आचार्य हेमचन्द्र के व्याकरण- दोहों में मिलती है । जहां कालिदास के मुक्तकों में टीस, वेदना और कसक है वहां हमचन्द्र के दोहों में शौर्य वीर्य का ज्वलन्त तेज, युवक-युवतियों के उल्लास, प्रणय- निवेदन के वैविध्य एवं रतिभावों के गाम्भीर्य दृष्टिगोचर होते हैं । इसमें संदेह नहीं कि हेमचन्द्र के उन अपभ्रंश-दोहों में लोक-जीवन का तरल चित्रण मिलता । प्रणय के भोलेपन और शौर्य की प्रौढी की झलक अद्वितीय है । हेमचन्द्र द्वारा उदाहृत इन दोहों में मात्र रमणी के विरह में कुम्हलाने वाला प्रेम या संयोग की कसौटी पर कनकरेखा की तरह चमकने वाला प्रेम दिखलाई नहीं देता, किन्तु प्रेम का वह रूप दृष्टिगोचर होता है, जिसमें प्रिय अपने शौर्य और पराक्रम-प्रदर्शन द्वारा अपनी वीरता से नायिका के हृदय को जीत लेता है । यहां शृंगार-मिश्रित वीर रस के कुछ पद उद्धृत किये जाते हैं :-- सहं देक्खु अम्हारा कंतु । अइमत्तहं चत्त कुसहं गयकुंभई दारंतु ॥ ( सिद्धम. 45 ) अर्थात् जो सैकडों युद्धों में बखाना जाता है, उस अतिमत्त त्यक्तांकुश गजों के कुम्भस्थलों को विदीर्ण करने वाले मेरे कन्त को देखो । नागरी प्रचारिणी पत्रिका - अंक 50 पृष्ठ 108 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 एक नायिका यद्धस्थल में अपने प्रियतम के हाथों में करवाल देखकर प्रसन्न हो जाती है । वह देखती है कि जब उसकी अथवा शत्रुओं की सेना भागने लगती है तब उसके प्रियतम के हाथों में तलवार चमकने लगती है : भग्गउ देक्खिवि निअय-बलु बलु पसरिअउ परस्सु । उम्मिल्लइ ससिरेहं जिवं करि करवालु पियस्सु (सिद्धहेम. 354) हेमचन्द्र के अनन्तर प्रबन्ध-चिन्तामणि में कवि मुञ्ज के भी उक्त प्रवृत्ति सम्बन्धी कुछ पोहे उपलब्ध होते हैं । यहां वीरता सम्बन्धी दो एक उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं जिससे उक्त प्रवृत्ति का आभास उपलब्ध हो सके :-- एह जम्मु नग्गहं गियउ भडसिरि खग्गु न भग्गु । तिक्खां तुरिय न माडिया गोरी गलि न लग्गु । (पद्य-75) अर्थात् यह जन्म व्यर्थ गया क्योंकि भट के सिर पर खङ्ग भग्न नहीं किया, न तीखे घोड़े पर सवारी की और न गौरी को गले से ही लगाया । आपणइं प्रभु होइयइ कइ प्रभु कीजइ हत्थि । काज करेवा माणसह तीजइ मग्ग न अत्थि ॥ (पद्य 179) अर्थात् या तो स्वयं अपने ही स्वामी हों या स्वामी को अपने हाथ में करें। कार्य करने वाले पुरुष के लिये अन्य तीसरा कोई मार्ग नहीं । तत्पश्चात् इसी अपभ्रश से आधुनिक भारतीय लोकभाषाओं का उदय हआ जिसमें नागर अथवा शौरसेनी अपभ्रंश से उसकी प्रायः समस्त प्रवृत्तियों को लिए हुए राजस्थानी भाषा का विकास हुआ । “राजस्थान" अथवा "राजस्थानी" शब्द युगों-युगों तक हमारे गौरव का प्रतीक-चिन्ह रहा है क्योंकि उस पूण्यभमि पर निर्मित विविध साहित्य अध्यात्म-जगत में तो सर्वोपरि रहा ही, साथ ही स्वाभिमान, संस्कृति एवं देश-गौरव की सुरक्षा की कहानी के रूप में भी वह महामहिम रहा है। उसके शौर्य-वीर्य पूर्ण साहित्य से प्रभावित होकर कर्नल टाड ने लिखा है कि "राजस्थान में कोई छोटा सा राज्य भी ऐसा नहीं है कि जिसमेंथर्मापिली जसी रणभमि न हो और न ही ऐसा कोई नगर अथवा ग्राम है जहां लाइयोनिडस जैसा वीर महापुरुष उत्पन्न न हुआ हो ।” तात्पर्य यह है कि राजस्थानी भाषा में 12वीं-13वीं सदी से ही ऐसे साहित्य का सजन होता रहा है जिसमें एक और तो जैन कवियों द्वारा शान्तरस की अविच्छिन्न-धारा प्रवाहित रही और दूसरी ओर मुगलों के आक्रमणों के बाद रण में जूझने वाले लक्ष-लक्ष राष्ट्रप्रेमी आबाल-बद्ध नर-नारियों की वीर-गाथाओं को लेकर राजस्थानी कवियों ने अपने विविध वीर काव्यों की रचनाएं की और शृगार एवं वीर रस को नया ओज प्रदान किया । समग्र राजस्थानी साहित्य का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि वह युग-युग की पुकार के अनुसार एक योजनाबद्ध 'टीम-वर्क' के रूप में विकसित हुआ है। राजस्थानी कवियों स्थान एवं राजस्थानी-भाषा. राजस्थानी-संस्कृति, राजस्थानी-इतिहास, राजस्थानी-लोक परम्परायें तथा अध्यात्म, धर्म, दर्शन एवं विचारधाराओं तथा सम-सामयिक परिस्थितियों के अनसार समाज एवं देश को उदबोध देने हेतु अपनी-अपनी शक्ति एवं प्रतिभा के अनसार साहित्य सृजन किया है। फिर भी अध्ययन की सुविधा से उसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है :-- 1. राजस्थानी जैन साहित्य 2. राजस्थानी चारण भाटों द्वारा लिखित साहित्य एवं 3. राजस्थानी लौकिक साहित्य । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 प्राचीनता प्रामाणिकता एवं परिमाण में राजस्थानी जैन-साहित्य जैन-संस्कृति का पोषक होने पर भी भाषा-वैज्ञानिक दष्टि से अत्यन्त प्रामाणिक है, क्योंकि राजस्थानी भाषा के विकास के साथ ही जैन कवियों ने उसमें अपनी रचनाएं आरम्भ करदी थी। अतः प्रारम्भिक राजस्थानी भाषा में लिखे जाने तथा उन रचनाओं की समकालिक प्रतिलिपियां सुशिक्षित एवं गृहत्यागी साधक यतियों द्वारा लिखित होने से वे राजस्थानी भाषा के भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। वर्धमानसरि कृत 'वर्धमान पारणउ' जैसी अनेक रचनाएं राजस्थानी के उदय काल में लिखी गई। तत्पश्चात् रासा-साहित्य में भरतश्वर बाहुबाला भरतेश्वर बाहबलि रास, बद्धि रास, जीवदया रास, आब रास एवं धवलगीत जसा अनक रचनाएं इसी कोटि में लिखी गई साथ ही विविध कथा. चरित, आख्यान तथा छन्द, अलकार और न्थ लिख जाते रहे। यह क्रम मगल-आक्रमणों के पूर्व तक तीव्र गति से चलता रहा । उसके वा विषम राजनैतिक उथल-पथल की स्थिति में चारण-भाटों ने रण-बांकुरों में रण-जोश जगाने हेतु वीरोचित अनेक काव्यों का प्रणयन किया, जो वर्षों तक कण्ठ-परम्परा में हा प्रचलित बने रहे। कुछ विद्वानों ने राजस्थानी जैन कवियों पर सम्प्रदायवाद का दोषारोपण किया है । उसका मूल कारण राजस्थानी कवियों की विविधमखी साहित्यिक रचनाओं के प्रति उन (दोषारोपणा करने वालों) की सर्वथा अनभिज्ञता ही कही जानी चाहिये। साधन-सामग्री के अभाव अथवा स्वयं के प्रमादवश सम्भवतः उन्हें यह जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी कि जैन कवि निरन्तर मा रहे हैं। उन्होंने जैन विषयों पर मात्र इसलिये ही नहीं लिखा है कि वे जैन थे, बल्कि इसलिये लिखा है कि जैनधर्म एवं दर्शन राजस्थान एवं गुजरात के प्रमुख धर्म-दर्शनों में से एक था तथा वहां पर जैनमियों की संख्या भी पर्याप्त थो । अतः उस युग की माग का पूर्ण करने के लिये ही उसे एक विधा के रूप में लिखा गया, जो जैनधर्म, दर्शन, आचार एवं अध्यात्म को तो पुष्ट करता ही है साथ ही वह भाषात्मक प्रवृत्तियो, साहात्य शोलियों, विविध कथाओं, चरितों, आख्यानों, छन्दभेदों तथा अलंकार, रस एवं रातिनसखाता र, कबीर एवं तुलसी साहित्य का साहित्य क विकास-क्षेत्र में जो अनुदान है, राजस्थानी जैन कवियों के अनदान उनसे कम नहीं मान जा द राजस्थानी जैन कवि सम्प्रदायवादी तथा एकांगी विचारधारा वाले होते तो दलपत, हेमरत्न, लबधोदय, कुशल लाभ. राजसोम, सोमसुन्दर, विद्याकुशल, चार ना जन कवि (खुमानरासो, गोरा बादल चउपड आदि) जैनेत्तर रचनाएं कभी न लिखत। जन कवि महणोत नणसी यदि राजस्थानी ख्यातें न लिखते तो राजस्थान एवं गजरात का इतिहास लिखा जाना भी सम्भव न होता । राठोरों की ख्यातें. राठोरों की वंशावलियां तथा प्रबन्धकाश, घनचन्तामणि पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह, कुमारपाल प्रतिबोध प्रभति ग्रन्थ राजस्थान एवं गुजरात क इतिहास के लिये ही नहीं अपित भारतीय-साहित्य एवं इतिहास के भी सात-सदभ गय है । जैन कवि भानुचन्द्र सिद्धिचन्द्र गणि ने लोहे के चने समझी जाने वाली बाणभट्टकृत कादम्बरी की सरल संस्कृत टीका न लिखी होती. तो वह सम्भवतः लुप्त-विलुप्त अथवा अपठित एवं अप्रकाशित ही रहती । इसी प्रकार लीलावती भाषा चउपइ, गणितसार चउपह, सारस्वत बालावबोध, वत्तरत्नाकर बालावबोध, रसिकप्रिया बालावबोध, अमरुशतक टाका, क्रिसनबलीरुक्मिणी टीका, माधव निदान टबबा, चमत्कार चिन्तामणि बालावबोध, अगफुरकन चउपइ, मुहुर्त चिन्तामणि बालावबोध, हीरकलश, चाणक्यनीति टबबा, हीयाली, ऊंदररासा, सा, लोचन काजल संवाद, कपरमंजरी, ढोलामारु, भोज चरित्र, विक्रमचरित्र, विल्हणपंचाशिका, सदयवत्ससालिंगा चउपइ प्रभति रचनायें एसी है, जो जैनेतर विषयों से सम्बन्धित हैं, किन्तु वे सभी राजस्थानी जैन कवियों द्वारा लिखित हैं और वे राजस्थानी साहित्य की सर्वोपरि रचनाएं भी सिद्ध हई है। वस्तुतः जैन कवियों के सम्मुख जनाजन का भेदभाव न था। उनके सम्मख तो एक ही दष्टिकोण था--राजस्थानी-भाषा, राजस्थानी-साहित्य, लोकमंगल, सवों दय एवं समन्वय की भावना को जागत कर उनके आदर्श रूपों को अधिकाधिक लोकोपयोगी बनाकर उनका सहज रूप में प्रस्तुतीकरण । अपने इसी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 लक्ष्य की पूर्ति में जैन कवि व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं की भी निरन्तर उपेक्षा करते रहे। ऐसे शिरोमणि महाकवियों में समयसुन्दर, जिनहर्ष, जिनसमुद्रसूरि (बंगड), हालू, कुशललाभ, जिनदत्तसूरि, विनयसमुद्र, मतिसागर, लबधोदय, सुमतिहंस, सिंहगणि, बच्छराज, मानसागर, सारंग, लक्ष्मीवल्लभ, हीरानन्द, केशव, धेल्ह, आनन्दधन प्रभति प्रमुख हैं। ये निश्चय ही ऐसे सरस्वती-पुत्र हैं जिन्होंने अपने साहित्य-साधना द्वारा राजस्थानी-अपभ्रश के माध्यम से राष्ट्रभारती की वेदिका को धोतित कर उसे महाय॑दान दिया है। राजस्थानी जैन कवियों ने राजस्थानी जैनेतर कवियों की कमी पूर्ति तो की ही, उन्होंने राजस्थानी साहित्य-शैलियों का कोना-कोना भी छान मारा और उन्हें जहां जो रिक्तता का अनुभव हुआ उसे पूरा ही नहीं किया बल्कि प्रत्येक विधा में उन्होंने भरमार जैसी ही करदी। यदि उन्होंने छन्दशास्त्र पर कुछ लिखा तो सामान्य रूप से ही नहीं बल्कि स्वरसंगीत की दष्टि से पृथक, वर्ण-संगीत की दृष्टि से पृथक् और सरल संगीत की दृष्टि से पृथक् रूप से रचनाएं की । यदि उन्होंने कथाओं या आख्यानों पर रचनाएं की तो उनमें भी सामान्य रूप से ही नहीं, बल्कि धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, उपदेशात्मक, मनोरंजनात्मक, अलौकिक, नैतिक, पशुपक्षि सम्बन्धी, शाप-वरदान विषयक, व्यवसाय सम्बन्धी, यात्रा-सम्बन्धी, मन्त्र-तन्त्र-सम्बन्धी, विशिष्ट न्याय विषयक, काल्पनिक एवं प्रकीर्णक आदि विषयों के वर्गीकरण करके तदनुसार सहस्रों-सहस्रों की मात्रा में कथाएं लिख डालीं । ये कथाएं इतनी सरस, मार्मिक एवं लोकप्रिय हुई कि कुछ ने तो देश की परिधि भी लांघ डाली और सुदूर एशिया एवं योरुप में जाकर वहां के साहित्य को कुछ स्थानीय परिवर्तनों के साथ वे उसकी प्रमुख अंग बन गई। af हिन्दी इस प्रकार राजस्थानी भाषा का यह साहित्य वस्तुतः परवर्ती अपभ्रश के बहुमुखी विकास एवं विविध प्रवत्तियों की रसवती कहानी तथा साहित्यिक इतिहास की अक्षयनिधि है साहित्य के इतिहासकार इसे हिन्दी-साहित्य के महामहिम प्रथम अध्याय-आदिकाल के रूप में स्वीकार करते है । यथार्थता यह है कि अपभ्रश साहित्य इतना विशाल, युगानुगामी तथा लोकानुगामी रहा है तथा उसका परिवार इतना विस्तृत रहा है कि हर प्रांत एवं हर बोली वालों ने उसे अपना-अपना नाम देकर तथा अपनी मद्रा लगाकर उसे अपना ही घोषित किया है । विकसनशील लोकभाषा का यही प्रधान गण भी होता है । परवर्ती अपभ्रश के इस रूप एवं परिधि के विस्तार में राजस्थानी कवियों, विशेषतया राजस्थानी जैन कवियों का योगदान कभी भी विस्मत नहीं किया जा सकेगा । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश के साहित्यकार 3 -डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री प्राचीनकाल में टक्क, भादानक, मालवा और मैदपाट से संयुक्त मरुभूमि न केवल शूरवीरता के लिए रण-भूमि में राजपूताना की आन-बान को गौरव प्रदान करने वाली थी, बल्कि विभिन्न विषयों की साहित्य-सर्जना में भी ऊर्जस्वित स्वरों को मुखरित करने वाली थी । युद्ध-क्षेत्र में रण-बांकुरों की भांति इस प्रदेश के साहित्यकारों में भी वाणी की तेजस्विता थी, जो सतत जन-चेतना को जागृत करती रही है। यहां की भाषा भी सदा ओजस्फुरण वाली रही है। ओज गुण के अनुकूल ही मूर्धन्य वर्गों की प्रधानता इसी प्रवृत्ति की सूचक है। इसी प्रकार से राजस्थानी त तथा प्लुत आदि का प्रयोग अपने निरालेपन को सूचित करते हैं। राजस्थान से अपभ्रश का पूराना सम्बन्ध रहा है। अपभ्रश भारत को पश्चिमोत्तर प्रदेश की बोली थी। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया यह बोली दक्षिण-पूर्व में फैलती गई। इसके प्रसार का सम्बन्ध आभीरों से बताया जाता है। इस देश के कई प्रदेशों में आभीरों का राज्य रह चुका है। नेपाल, गुजरात, महाराष्ट्र और पश्चिमी सीमान्त प्रदेशों में कई प्राभीर राजाओं का राज्य था। आचार्य भरत मुनि ने हिमालय की तराई, सिन्ध प्रदेश और सिन्धु नदी के पूर्ववर्ती घाटी प्रदेश में बसने वाले वनचरों की भाषा को आभीरोक्ति कहा है। राजशेखर अपभ्र श का क्षेत्र सम्पूर्ण राजपूताना, पंजाब (पूर्व में व्यास नदी से पश्चिम में सिन्ध नदी तट का प्रदेश) और भादानक (भदावर) प्रान्त बताते हैं। इस से यह स्पष्ट है कि दसवीं शताब्दी में अपभ्रश राजस्थान में बोली जाती थी। पांचवीं-छठी शताब्दी में यहां प्राकृत भाषा का प्रचलन था। सातवीं शताब्दी से अपभ्रश के स्पष्ट उल्लेख मिलने लगते हैं। दसवीं शताब्दी तक आते आते यह विभिन्न नाम-रूपों को ग्रहण करने लगती है। वस्तुस्थिति यह है कि आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के लिए अपभ्रश एक सामान्य भूमिका रही है। इसलिए कोई क्षेत्रीय शब्द-रूपों के साथ इसे जनी गुजराती कहता है, तो कोई प्राचीन पश्चिम राजस्थानी नाम से अभिहित करता है, तो कोई देशी भाषा या अवहट्ट कहता है। समय-समय पर अलग-अलग नाम विभिन्न स्थिति के सूचक रहे हैं। “कुवलयमालाकहा" के विशेष अध्ययन से पता लगता है कि आठवीं शताब्दी में राजस्थान में अपभ्रश बोल-चाल की भाषा थी। डॉ. ग्रियर्सन तथा अन्य भाषाशास्त्रियों के अनुसार अपभ्रश के क्षेत्रीय रूप ठेठ बोलियां रहीं हैं। अपभ्रंश ने छठी शताब्दी में ही साहित्य का स्थान प्राप्त कर लिया था । अपभ्रश के सुप्रसिद्ध महाकवि स्वयम्भून चमुख, धूर्त, माउरदेव, धनदेव, आर्यदेव, छइल्ल, गोविन्द, शुद्धशील और जिनदास आदि का लेख किया है, जो उन के पूर्ववर्ती कवि हैं। इन में से चतुर्मुख और गोविन्द कृष्णविषयक प्रबन्धकाव्य की रचना कर चुके थे। गोविन्द श्वेताम्बर जैन थे और चतुर्मुख दिगम्बर जैन आम्नाय के थे। अनुमान यह किया जाता है कि गोविन्द सौराष्ट्र के निवासी थे और चतुर्मुख राजस्थान के थे। महाकवि धवल ने कृष्णकथा (हरिवंशपुराण) की रचना चतुर्मुख के प्रबन्धकाव्य को ध्यान में रख कर की थी। इस प्रकार अपनश भाषा और साहित्य से राजस्थान का प्रारम्भ से ही रागात्मक सम्बन्ध रहा है । कविवर हरिषेण राजस्थान के दि. जैन अपभ्रंश-कवियों में कविवर हरिषेण का समय तथा स्थान निश्चित प से ज्ञात है। उन का जन्म राजस्थान के चित्तौड नगर में हुआ था। राजस्थान के ही प्रसिद्ध Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145 वंश धक्कड (धर्कट) को उन्होंने विभूषित किया था। इस वंश में प्राकृत तथा अपभ्रश के अनेक कवि हुए। कवि ने इस कुल का वर्णन निम्नलिखित शब्दों में किया है:-- इह मेवाड- देसी- जण-संकुलि, सिरिउजहर - णिग्गय- धक्कडकुलि । उन के पिता का नाम गोवर्द्धन था, जो चित्तौड में रहते थे। उन की माता का नाम गणवती था। कविवर हरिषेण चित्तौड में ही रहते थे। किसी कार्य से वे एक बार अचलपूर गए। यह अचलपूर वर्तमान में आबू होना चाहिए। वैसे तो राजस्थान में अचलपुर नाम से कई ग्राम हैं, किन्तु कविवर ने “जिणहर-पउरहो" कह कर जिस अचलपुर का संकेत किया है, वह आजकल का अचलगढ है। यहां पर अनेक जिन-मन्दिर हैं जो इतिहास-प्रसिद्ध हैं। बुध हरिषेण ने अचलपुर में रह कर “धर्मपरीक्षा" की रचना की थी। कवि के ही शब्दों में सिरि-चित्तउडु चइवि अचलउरहो, गयउ णियकज्जें जिणहर-पउरहो । तहिं छंदालंकार - पसाहिय, धम्मपरिक्ख एह तें साहिय ॥ (अन्त्य प्रशस्ति) काव्य की रचना पूर्व-निबद्ध प्राकृत गाथा में जयराम कवि की “धर्मपरीक्षा" के आधार पर की गई थी। कविवर हरिषेण ने 'धर्मपरीक्षा” की रचना पद्धडिया छन्द में वि.सं. 1044 में की थी। कवि ने स्वयं निर्देश किया है: विक्कमणिव परिवत्तिए कालए, गणए वरिस सहसचउतालए । इउ उप्पण्णु भवियजण सुहकरु, डंभरहिय धम्मासय-सायरु ॥ यह काव्य ग्यारह सन्धियों में निबद्ध है। इस में कुल 238 कडवक है। पूर्ववर्ती कवियों में चतुर्मुख, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, सिद्धसेन और जयराम का उल्लेख किया गया है। काव्य में मनोवेग और पवनवेग के रोचक संवाद के माध्यम से जैनधर्म की उत्कृष्टता निरूपित की गयी है। अपभ्रंश में इस रचना के पश्चात् भट्टारक श्रुतकीर्ति कृत "धर्मपरीक्षा" की रचना हुई जिसका रचना-काल वि. सं. 15 5 2 कहा गया है। यह काव्य कविवर हरिषेण की “धर्मपरीक्षा" के आधार पर लिखा गया। कथानक का ही नहीं, वर्णन का भी अनगमन किया गया है। अतएव दोनों में बहुत कुछ साम्य लक्षित होता है। यद्यपि अद्यावधि इस को एक ही अपूर्ण प्रति उपलब्ध है, किन्तु उसके आधार पर डा. जैन ने उल्लेख किया है कि प्रस्तुत कृति का कथानक हरिषेण कृत दसवीं सन्धि के छठे कडवक तक पाया जाता है। अनन्तर उसी सन्धि में ग्यारह कडवक और हैं, फिर ग्यारहवीं सन्धि में सत्ताईस कडवकों की रचना है, जिन में श्रावकधर्म का उपदेश दिया गया है। यह भाग श्रुतकीर्ति कृत "धर्मपरीक्षा" से विच्छिन्न हो गया है। सम्भवतः वह सातवीं सन्धि में ही पूरा हो गया होगा। कविवर हरिषेण की “धर्मपरीक्षा" निःसन्देह मनोरंजक है। पं. परमानन्द शास्त्री के शब्दों में 'वह पौराणिक कथानकों के अविश्वसनीय तथा असम्बद्ध चित्रण से भरपूर है और उन आख्यानों को असंगत बतलाते हुए जैनधर्म के प्रति आस्था उत्पन्न की गई है"। किन्तु उसमें पुराण ग्रन्थों के मूल वाक्यों का कोई उल्लेख नहीं हैं। 1. डा.हीरालाल जैन :श्रुतकीति और उन की धर्मपरीक्षा, अनेकान्त में प्रकाशित लेख, अनेका ___ कान्त, वर्ष 11, किरण 2, पृ. 106 । 2. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह, पृ. 52 । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि धनपाल जैन साहित्य में धनपाल नाम के कई साहित्यकारों का उल्लेख मिलता है। पं. परमानन्द शास्त्री ने धनपाल नाम के चार विद्वानों का परिचय दिया है। । ये चारों ही भिन्न-भिन्न काल के विद्वान हये। इनमें से दो संस्कृत भाषा के विद्वान थे और दो अपभ्रंश के। प्रथम धनपाल संस्कृत के कवि राजा भोज के आश्रित थे, जिन्होंने दसवीं शताब्दी में 'तिलकमंजरी' और 'पाइयलच्छीनाममाला" ग्रन्थों की रचना की थी। द्वितीय धनपाल तेरहवीं शताब्दी के कवि हैं। उनके रचे हये ग्रन्थों में से अभी तक "तिलकमंजरीसार" का ही पता लग पाया है। ततीय धनपाल अपभ्रंश भाषा में लिखित "बाहुबलिचरित" के रचयिता हैं। इनका समय पन्द्रहवीं शताब्दी कहा गया है। ये गजरात के पुरवाड वंश के तिलक स्वरूप थे। इन की माता का नाम सहडा देवी और पिता का नाम सुहडप्रभ था। चतुर्थ धनपाल का जन्म धक्कड वंश में हुआ था। इनका कोई विशेष परिचय नहीं मिलता है। इनके पिता का नाम मातेश्वर और माता का नाम धनश्री था। कहा जाता है कि इन्हें सरस्वती का वर प्राप्त था। इनकी रची हई एक मात्र प्रसिद्ध रचना "भविसयत्तकहा" (भविष्यदत्तकथा) उपलब्ध होती है। अन्य किसी रचना के निर्माण का न तो उल्लेख मिलता है और न कोई संकेत ही। पता नहीं, किस आधार पर डा. कासलीवाल ने कवि धनपाल की जन्म-भूमि चित्तौडगढ मानी है2 । इसका एक कारण तो यह कहा जाता है कि कवि धनपाल का जन्म उसी धक्कड कुल में हुआ था, जिस में "धर्म परीक्षा" के कविवर हरिषेण और महाकवि वीर का जन्म हुआ था। यह वंश अधिकतर राजस्थान में पाया जाता है, इसलिये यह अनुमान कर लेना स्वाभाविक है कि कवि का जन्म राजस्थान में हआ होगा। इसके अतिरिक्त भविष्यदत्त कथा में कुछ राजस्थानी भाषा के शब्द भी पाये जाते हैं। हमारी जानकारी के अनुसार "तीमण" तीमन या तेमन मिष्ठान केवल राजस्थान में ही पाया जाता है। राजस्थानी संस्कृति के अभिव्यंजक निदर्शनों से भी यह सुचित होता है कि कवि धनपाल राजस्थान के निवासी होंगे। राजपूती आन-बान और शान का जो चित्रण महाकवि धनपाल ने किया है, वह अत्यन्त सजीव और हृदयग्राही है। अतएव राजस्थान के प्रति उनका विशिष्ट अनुराग अभिव्यंजित है। पं. लाखू पं. लाख विरचित "जिनदत्तकथा" अपभ्रश के कथाकाव्यों म एक उत्तम रचना मानी जाती है। कवि का जन्म राजस्थान में हुआ था। वे कुछ समय तक आगरा और बांदीकुई के बीच रायभा में रहे। हमारे विचार में पं. लाखू के बाबा रायभा के निवासी थे। वे जैसवाल वंश के थे। किसी समय वे सपरिवार तहनगढ में आकर बस गये थे। तहनगढ बयाना से पश्चिम-दक्षिण में पन्द्रह मील दूर है। इसका प्राचीन नाम त्रिभुवनगिरि है। करौली राज्य के मल संस्थापक राजा विजयपाल थे। उन्होंने 1040 ई. में विजयमन्दिरगढ नामक दर्ग का निर्माण कराया था। विजयपाल मथुरा के यदुवंशी राजा जयेन्द्रपाल या इन्द्रपाल (966992 ई.) के ग्यारह पुत्रों में से एक था। इसी विजयपाल के अठारह पुत्रों में से एक अत्यन्त पराक्रमी तिहणपाल नाम का राजा हुआ। त्रिभवनगिरि या तहनगढ इस तिहणपाल राजा ने बसाया था। तहनगढ म प्राचीन काल से यदुवंशी राजाओं का राज्य रहा है। ऐतिहासिक 1. पं. परमानन्द जैन शास्त्री : धनपाल नाम के चार विद्वान कवि, अनेकान्त, किरण 7-8 प. 82 । 2. डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल : ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारों की भूमि-राजस्थान, अनेकान्त, वर्ष 15, किरण, 2, पृ. 78 । 3. द्रष्टव्य है : भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश-कथाकाव्य, पृ. 102-141 । 4. डा. ज्योतिप्रसाद जैन : शोधकण, “जैन सन्देश" शोघांक, भाग 22, संख्या 36, प. 811 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 147 उल्लेख के अनुसार विजयपाल के उत्तराधिकारी धर्मपाल और धर्मपाल के उत्तराधिकारी अजयपाल हुए । महाबाण प्रशस्ति के अनुसार 1150 ई. में अजयपाल का वहां राज्य था। । परम्परा के अनुसार अजयपाल के पुत्र व उत्तराधिकारी हरपाल थे । महावन में 1170 ई. का हरपाल का शिलालेख भी मिला है2 | हरपाल के पुत्र कोशपाल थे, जो लाख को पितामह थे । कोशपाल के पुत्र यशपाल थे । यशपाल के पुत्र लाहड थे। उनकी भार्या का नाम जिनमती था । उन दोनों के अल्हण, गाहुल, साहुल, सोहण, रयण, मयण, और सतण नाम के सात पुत्र हुये । इनमें से साहुल पं. लाख के पिता थे। इस प्रकार कवि के पूर्वज यदुवंशी राजघराने से संबंधित थे । रचना की प्रशस्ति से स्पष्ट है कि कोसवाल यादववंश के राजा थे और उनका यश चारों ओर फैला हुआ था । कवि के शब्दों में- जायसहोवंस उवरणसिंधु गुणगरुअमाल माणिक्कसिंधु । जायa rरणाहहो कोसवाल जयरसमुद्दिय दिगचक्कवाल || कवि की प्रारम्भिक रचना इसम चन्दन षष्ठी व्रत का कवि की रची हुई तीन रचनाओं का विवरण मिलता है । "चंदणछट्ठी कहा " है जो एक इतिवृत्तात्मक लघुकाय रचना है । माहात्म्य एवं फल वर्णित है । दूसरी "जिनदत्तचरित" वि. सं. 1275 की रचना है। तीसरी " अणुव्रतप्रदीप" का रचना - काल वि. सं. 1313 है। जिनदत्त कथा एक सशक्त रचना है, जिसमें संस्कृत काव्य-रचना की तुलना में प्रकृति का रिलष्ट वर्णन तथा अलंकृत शैली में रूप - वर्णन आदि चित्रबद्ध रूपों में लक्षित होते हैं । कवि की सबसे सुन्दर तथा सजीव रचना यही हैं । मुनि विनयचन्द मुनि विनयचन्द ने "चूनडीरास" नामक काव्य की रचना त्रिभुवनगढ में अजयनरेन्द्र के विहार में बैठ कर रची थी। अजयनरेन्द्र तहनगढ का राजा कुमारपाल का भतीजा था, जो राजा कुमारपाल के अनन्तर राज्य का उत्तराधिकारी बना था । त्रिभुवनगिरि या तहनगढ वर्तमान में करौली से उत्तर-पूर्व में चौबीस मील की दूरी पर अवस्थित है । तेरहवीं शताब्दीमें वहां पर यादव वंशीय महाराजा कुमारपाल राज्य करते थे । वि. सं. 1252 में वहां मुसलमानी राज्य स्थापित हो गया था । त्रिभुवनगिरि जयपुर राज्य का तहनगढ ही है । "चूनडीरास " में 32 पद्य हैं। चूनडी या चुनडी छपी हुई साडी को कहते हैं । प्रस्तुत कृति में चूनडी के रूपक से एक गीतकाव्य की रचना की गई है। राजस्थान की महिलायें विशेष रूप से चूनडी ओढती 1 कोई मुग्धा युवती मुस्कराती हुई अपने प्रियतम से कहती है कि, हे सुभग ! आप जिन मन्दिर पधारिये और मेरे ऊपर दया कर शीघ्र ही एक अनुपम चूनडी छपवा दीजिये, जिसस मैं जिनशासन में विचक्षण हो जाऊं । सुन्दरी यह भी कहती है कि, यदि चनडी छपवा कर नहीं ला देंगे, तो वह छीपा मुझ पर फब्ती कसेगा और उल्हाना देगा | पति इन वचनों को सुन कर कहता है - हे मुग्धे ! उस छीपा ने मुझ से कहा है कि मैं जैन सिद्धान्त के भरपूर एक सुन्दर चूनडी शीघ्र ही छाप कर दूंगा । रहस्य 1. द स्ट्रगल फार इम्पायर, भारतीय विद्याभवन प्रकाशन, प्रथम संस्करण, पृ. 55 | 2. वही, पृ. 55 । " 3. अगरचन्द नाहटा : त्रिभुवनगिरि व उसके विनाश के संबंध में विशेष प्रकाश, अनेकान 8-12, पृ. 457। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 चुनडीरास के अतिरिक्त 'णिज्झरपंचमीकहारास' और 'पंचकल्लाणरासु' भी मनि विनयचन्द कृत रचनायें उपलब्ध होती है। निर्झरपंचमीकथा रास की रचना त्रिभवनगिरि की तलहटी में बैठकर की थी। इसम निर्झरपंचमी व्रत का माहात्म्य तथा फल बतलाया गया। रचना संक्षिप्त तथा सून्दर है। पंचकल्याणक रास में जैन तीर्थकरों के पांच कल्याणकों की तिथियों का वर्णन किया गया है। रचना-काल तेरहवीं शताब्दी अनुमानित है। कवि ठक्कुर कवि ठक्कुर सोलहवीं शताब्दी के अपभ्रंश तथा हिन्दी भाषा के कवि थे। इन का जन्म स्थान चाटस् (राजस्थान) कहा जाता है। इनकी जाति खण्डेलवाल तथा गोत्र अजमेरा था। इनके पिता का नाम “घेल्ह" था, जो स्वयं एक अच्छे कवि थे। कवि का रचना-काल वि. सं. 1578-1585 कहा गया ह। पं. परमानन्द शास्त्री के अनुसार कवि ने पि. सं. 1578 में ."पारस श्रवण सत्ताइसी” नामक एक रचना बनाई थी, जो ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत करती है। कवि ने इसमें आंखों देखा वर्णन किया है। इनके अतिरिक्त जिन चउवीसी, कृपणचरित्र (वि. सं. 1580), पंचेन्द्रियबेलि (वि. सं. 1585) और नेमीश्वर की बेलि आदि रचनायें मी बनाई थीं। परन्तु डा. कासलीवाल ने कवि की उपलब्ध नौ रचनाओं का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है-इनकी एक रचना बुद्धिप्रकाश कुछ समय पूर्व अजमेर के भट्टारकीय शास्त्रभण्डार में उपलब्ध हुई थी। ठक्कुरसी की अब तक 9 रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं, जिनके नाम निम्न प्रकार हैं2-- (1) पार्श्वनाथ शकुनसत्तावीस (वि. सं. 1575), मेघमालाव्रतकथा (वि. सं. 1580), (3) कृपण-चरित्र (वि. सं. 1585), (4) शील बत्तीसी (वि. सं. 1585).( पंचेन्द्रिय बेलि (वि. सं. 1585),(6) गणवेलि, (7) नेमि राजवलि बेलि, (8) सीमन्धरस्तवन, (9) चिन्तामणि जयमाल। इन रचनाओं के अतिरिक्त इन के कुछ पद भी प्राप्त हुये हैं, जो विभिन्न गुटकों में संग्रहीत हैं। हमारी जानकारी के अनुसार उक्त रचनाओं में से "मेघमालाव्रत कथा" और "चिन्तामणि जयमाल" ये दोनों रचनायें अपभ्रश भाषा की हैं। मेघमालाव्रत कथा में 115 कडवक हैं। इसमें मेघमाला व्रत की कथा का संक्षिप्त तथा सरल वर्णन है। यह व्रत भाद्रपद मास में प्रतिपदा से किया जाता है। यह व्रतकथा पं. माल्हा के पुत्र कवि मल्लिदास की प्रेरणा से रची थी। चिन्तामणि जयमाल केवल 11 पद्य हैं। इस में संयम का महत्व बताया गया है। रचना का प्रारम्भ इस प्रकार किया गया है-- पणविवि जिणपासह पूरण आसहु दूरुज्झिय संसार भलु । चिंतामणि जं तहु मणि सुमरंतहु सुणहु जेम संजमह फलु ॥ उक्त विवरण के आधार पर पता लगता है कि कवि का रचना-काल वि. सं. 1575 से लगभग 1590 तक रहा होगा। कवि ठक्कुर अपभ्रश के एक अन्य कवि ठाकुरसी से भिन्न हैं। उनका परिचय निम्नलिखित ह । शाह ठाकुर रचना में इन का नाम शाह ठाकुर मिलता है। अभी तक इन की दो रचनायही उपलब्ध हो सकी हैं। एक अपभ्रंश में निबद्ध है और दूसरी हिन्दी में । “शान्तिनाथ चरित्र" एक --- - -- --- 1. पं. परमानन्द जैन शास्त्रीः जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह, प्रस्तावना, पृ. सं. 141 । .. डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल: अलभ्य ग्रन्थों की खोज, अनेकान्त में प्रकाशित, वर्ष 16, किरण 4, प. 170-171 । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149 अपभ्रश काव्य है। यह पांच सन्धियों में निबद्ध है। कवि की दूसरी रचना "महापुराणकलिका" है, जो 27 सन्धियों में विरचित एक हिन्दी प्रबन्धकाव्य है। शान्तिनाथ चरित्र में सोलहवें तीर्थकर श्री शान्तिनाथ का संक्षेप में जीवन-चरित वर्णित है। कवि ने यह प्रबन्धकाव्य वि. सं. 1652 में भाद्रपद शु. पंचमी के दिन चकत्तावंश के जलालहीन अकबर बादशाह के शासनकाल में ढंढाड देश के कच्छपवंशी राजा मानसिंह के राज्य में बनाया था। राजा मानसिंह की राजधानी उस समय अंबापती या आमेर में थी। कवि के पितामह का नाम साहसील्हा और पिता का नाम खता था। ये खण्डेलवाल जाति और लहाडया गोत्र के थे। ये भ. चन्द्रप्रभु के विशाल जिनमन्दिर से अलंकृत लुवाइणिपुर के निवासी थे। कवि संगीत, छन्द-अलंकार आदि में निपुण तथा विद्वानों का सत्संग करने वाला था। इनके गुरु अजमेर शाखा के विद्वान भट्टारक विशालकीर्ति थे। अतः कवि राजस्थान का निवासी था। कवि की भाषा बहत ही सरल है। अपभ्रंश की रचना होने पर भी उस समय की हिन्दी से प्रभावापन्न है। क्योंकि सतरहवीं शताब्दी में ब्रज भाषा अपने उत्कर्ष पर थी। अतएव उससे प्रभावित होना स्वाभाविक था। उदाहरण के लिये कुछ अन्तिम पंक्तियां हैं :-- जिणधम्मचक्क सासणि सरंति गयणय लह जिम ससि सोह दिति, जिणधम्मणाण केवलरवी य तह अट्ठकम्ममल विलय कीय । एत्तउ मागउ जिण सतिणाह महु किज्जहु दिज्जहु जइ बहलाह। 5,59 कवि ने अपनी गरु-परम्परा का विस्तार के साथ वर्णन किया है। दिल्ली से लेकर अजमेर तक प्रतिष्ठित भट्टारक-परम्परा का एक ऐतिहासिक दस्तावेज इस रचना की अन्तिम प्रशस्ति में उपलब्ध है। मुनि महनन्दि मुनि महनन्दि भट्टारक वीरचन्द के शिष्य थे। इन की रची हुई एक मात्र कृति बारक्खडी या पाहुडदोहा उपलब्ध हुई है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति दि. जैन तेरहपंथी बडे मन्दिर, जयपुर में क्रमांक 1825, वेष्टन सं. 165 3, लेखनकाल वि. सं. 1591 मिलती है। इससे यह निश्चित है कि रचना पन्द्रहवीं शताब्दी या इससे पूर्व रची गई होगी। डा. कासलीवाल जी ने इसका समय पन्द्रहवीं शताब्दी बताया है। इसके रचयिता एक राजस्थानी दि. जैन सन्त थे। किसी-किसी हस्तलिखित प्रति में कवि का नाम “महयंद" (महीचन्द) भी मिलता है। इस कृति में 335 दोहे मिलते हैं। किसी-किसी प्रति में 333 दोहे देखने में आते हैं। अपभ्रंश में अभी तक प्राप्त दोहा-रचनाओं में निस्सन्देह यह एक सुन्दर एवं सरस रचना है। भाषा और भाव दोनों ही अर्थपूर्ण हैं। इसमें लगभग सभी तरह के दोहे मिलते हैं। आत्मा क्या है इसे समझाता हुआ कवि कहता है खीरह मज्झह जेम घिउ तिलह मज्झि जिम तिल्ल । कट्ठहु आरणु जिम वसइ तिम देहहि देहिल्लु ।। 22।। अर्थात् जैसे दूध में घी रहता है, तिल में तेल समाया रहता है, अरनिकाष्ठ में अग्नि छिपी हुई रहती ह, वैसे ही शरीर के भीतर आत्मा व्याप्त है। 1. पं. परमानन्द जैन शास्त्री : जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह, प्रस्तावना, पृ. सं. 130 । 2. वही, प. 130-131 । 3 डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल : राजस्थान के जैन शास्त्र-भण्डारों की ग्रन्थ-सूची, भाग 2,4.287 । 4. डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल : राजस्थान के जैन सन्त-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, प.173 । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 कवि हरिचन्द अपभ्रश में हरिश्चन्द्र नाम के दो कवि हो गए हैं। एक हरिश्चन्द्र अग्रवाल हुए, जिन्होंने अणथमियकहा, दशलक्षणकथा, नारिकेरकथा, पूष्पांजलिकथा और पंचकल्याणक की रचना की थी। दूसरे कवि हरिचन्द राजस्थान के कवि थे। पं. परमानन्द शास्त्री के अनुसार कवि का नाम हल्ल या हरिइंद अथवा हरिचन्द है। कवि का “वडढमाणकव्व" या वर्द्धमानकाव्य विक्रम की पन्द्रहवीं शती की रचना ज्ञात होती है। उसका रचनास्थल राजस्थान है। यह काव्य देवराय के पुत्र संघाधिप होलिवर्म के अनुरोध से रचा गया था। कवि हरिचन्द ने अपने गुरु मुनि पद्मनन्दि का भक्तिपूर्वक स्मरण किया है। कवि के शब्दों में पउमणंदि मुणिणाह गणिदहु चरणसरणगुरु कइ हरिइंदहु । मुनि पद्मनन्दि दि. जैन शासन-संघ के मध्ययुगीन परम प्रभावक भट्टारक थे जो बाद में मुनि अवस्था को प्राप्त हुए थे। ये मन्त्र-तन्त्रवादी भट्टारक थे। इन्होंने अनेक प्रान्तों में ग्राम-ग्राम में विहार कर अनेक धार्मिक, साहित्यिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक लोकोपयोगी कार्यों को सम्पन्न किया था। आप के सम्बन्ध में ऐतिहासिक घटना का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म बूचराज ब्रह्म बूचराज या वल्ह मूलतः एक राजस्थानी कवि थे। इनकी रचनाओं में इनके कई नामों का उल्लेख मिलता है-बचा, वल्ह, वील्ह या वल्हव । ये भद्रारक विजयकीर्ति के शिष्य थे । ब्रह्मचारी होने के कारण इन का 'ब्रह्म' विशेषण प्रसिद्ध हो गया। डा. कासलीवाल जी ने इनकी रची हुई आठ रचनाओं का उल्लेख किया है:-मयणजज्झ, संतोषतिलक जयमाल, चेतन-पुद्गल-धमाल, टंडाणा गीत, नेमिनाथ वसतु, नेमीश्वर का बारहमासा, विभिन्न रागों में आठ पद, विजयकीति-गीत । विजयकीति-गीत में गरु भ. विजयकीर्ति की स्तुति का गान किया गया है । इन रचनाओं में से केवल 'मयणजुज्झ' एक अपभ्रंश रचना है । मयणजुज्झ या मदनयद्ध एक रूपक काव्य है । अपभ्रंश में ही महाकवि हरदेव का भी 'मयणजज्झ' काव्य मिलता है जो भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित हो चुका है । मदनयुद्ध में जिनदेव और कामदेव के युद्ध का वर्णन किया गया है, जिस में अन्ततः कामदेव पराभूत हो जाता है । कवि का वसन्तवर्णन देखिए वज्जउ नीसाण वसंत आयउ छल्लकूदसि खिल्लियं । सुगंध मलय-पवण झुल्लिय अंब कोइल्ल कुल्लियं । रुणझुणिय केवइ कलिय महुवर सुतरपत्तिह छाइयं । गावंति गीय वजंति वीणा तरुणि पाइक आइयं ॥37॥ 1. पं. परमानन्द जैन शास्त्री : जैन ग्रन्थप्रशस्ति- संग्रह, प्रस्तावना, पृ. 86 । 2. पं. परमानन्द जैन शास्त्री : राजस्थान के जैन सन्त मुनि पद्मनन्दी, अनेकान्त, वर्ष 22, कि. 6, पृ. 285 । 3. डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल : राजस्थान के जैन सन्त-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ. 71। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151 'सन्तोषतिलक जयमाल' भी एक रूपक काव्य है। इसमें शील, सदाचार, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र, वैराग्य, तप, करुणा, क्षमा तथा संयम के द्वारा सन्तोष की उपलबिध का वर्णन किया गया है । यह रचना वि. सं. 1591 में हिसार नगर में लिख कर सम्पूर्ण हुई थी । यह एक प्राचीन राजस्थानी रचना है । ___इनके अतिरिक्त अन्य कवियों में से अपभ्रश-साहित्य की श्री-समृद्धि को समुन्नत करने वाले लगभग आठ-दस साहित्यकारों का उलेख किया जा सकता है । परन्तु उनके सम्बन्ध में कोई विवरण उपलब्ध न होने से कुछ भी कहना उचित प्रतीत नहीं होता है । हां, कुछ ऐसे विद्वानों का विवरण देना अनचित न होगा, जिन्होंने स्वयं अपभ्रंश की कोई रचना नहीं लिखी पर दूसरों को प्रेरित कर लिखने या लिखवाने में अथवा प्रतिलिपि कराने में अवश्य योग दिया है । भट्टारक प्रभाचन्द्र का नाम इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है । दि. जैन आम्नाय में प्रभाचन्द्र नाम के चार भट्टारक विद्वानों के नाम मिलते हैं। प्रथम भद्रारक प्रभाचन्द्र बारहवीं शताब्दी के सेनगण भद्रारक बालचन्द्र के शिष्य थे। दूसरे प्रभाचन्द्र चमत्कारी भट्टारक थे जो गुजरात के बलात्कारगण शाखा के भ. रत्नकीर्ति क शिष्य थे। तीसरे प्रभाचन्द्र भ. जिनचन्द्र के शिष्य थे और चौथे प्रभाचन्द्र ज्ञानभूषण के शिष्य थे।। भटारक जिनचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्र खण्डेलवाल जाति के थे। वि. सं. 1571 में दिल्ली के पट्ट पर इनका अभिषेक हुआ । भट्टा क बनने के पश्चात् इन्होंने अपनी गद्दी दिल्ली से स्थानान्तरित कर चित्तौड में प्रतिष्ठित की । तब से ये बराबर राजस्थान में पैदल भ्रमण करते रहे। स्थानस्थान पर इन्होंने मन्दिरों में मूर्तियों तथा साहित्य की प्रतिष्ठा का कार्य किया। ये स्वयं बहुत बडे तार्किक तथा वाद-विवादों में विद्वानों का मद-मर्दन करने वाले थे। इन्हें स्थान-स्थान पर श्रावकों की ओर से प्रतिलिपि करा कर स्वाध्याय के लिये कई अपभ्रश काव्य भेंट में प्राप्त हए थे । उनके नाम इस प्रकार हैं-पुष्पदन्त कवि कृत 'जसहरचरिउ' की प्रति वि. सं. 1575 म, पं. नरसेन कृत 'सिद्धचक्र-कथा' टोंक में वि.सं. 1579 में, पुष्पदन्त कृत 'जसहरचरिउ' सिकन्दराबाद में वि. सं. 1580 में, इनके शिष्य ब्र. रत्नकीर्ति को महाकवि धनपाल कृत "बाहुबलिचरित" वि. सं. 1584 में स्वाध्याय के लिये भेंट प्रदान किया गया था । इससे पता चलता है कि सोलहवीं शताब्दी में अपभ्रंश साहित्य की अध्ययन-परम्परा बराबर बनी हुई थी। तथा साहित्थान में पैदल से स्था यथार्थ में राजस्थान श्रमण जैन संस्कृति का अत्यन्त प्राचीन काल से एक प्रमुख केन्द्र रहा है। यहां प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, संस्कृत, हिन्दी आदि विभिन्न भारतीय भाषाओं में लगभग सभी विषयों पर साहित्य लिखा जाता रहा है । साहित्य, कला, पुरातत्व आदि की दृष्टि से यह प्रदेश अत्यन्त समृद्ध है, इस में कोई सन्देह नहीं है । इन सभी क्षेत्रों में जैन साहित्यकार कभी पीछे नहीं रहे हैं, वरन् वे अग्रतम पंक्ति में आते हैं, यह इस निबन्ध से प्रकट हो जाता है। 1. डा. कस्तूर चन्द कासलीवाल : राजस्थान के जैन सन्त-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ. 183 2. वही. 185 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य के आचार्य 4 -~-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल . राजस्थान में अपभ्रश साहित्य को सर्वाधिक प्रश्रय मिला । मुस्लिम शासन काल में मटटारकों ने अपभ्रश भाषा के ग्रंथों का अपने शास्त्र-भण्डारों में अच्छा संग्रह किया और उनकी पाण्डुलिपियां करवाकर उनके पठन-पाठन में योगदान दिया । राजस्थान के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों के शास्त्र-भण्डारों में अपभ्रश के ग्रन्थ या तो मिलते ही नहीं है और कदाचित कहीं-कहीं उपलबध भी होते हैं तो उनकी संख्या बहुत कम होती है । राजस्थान में अपभ्रश के ग्रन्थों की ष्टि से भट्टारकीय शास्त्र भण्डार नागौर, अजमेर, जयपुर के शास्त्र-भण्डार सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं और इन्हीं भण्डारों में अपभ्रश का 95 प्रतिशत साहित्य संग्रहीत है । अपभ्रश के सभी प्रमुख कवि जैसे स्वयम्भ, पुष्पदन्त, धवल, वीर, नयनन्दि, धनपाल, हरिषेण, रइधु की अधिकांश कुतियां इन्हीं भण्डारों में सुरक्षित है । और जो कुछ साहित्य प्रकाश में आया है अथवा इस साहित्य पर शोध-कार्य हुआ है वह सब राजस्थान के जैन भण्डारों में संग्रहीत पाण्डुलिपियों के आधार पर ही सम्पन्न हो सका है। अब यहां अपभ्रश के ऐसे कवियों पर प्रकाश डाला जा रहा। जिनका राजस्थान का किसी न किसी रूप में सम्बन्ध रहा है। 1. महाकवि नयनन्दिः महाकवि नयनन्दि अपभ्रंश के उन कवियों में से है जिनसे अपभ्रश साहित्य स्वयं गौरवान्वित है। जिनकी लेखनी द्वारा अपनश में दो महाकाव्य लिखे गये और जिनके द्वारा उसके प्रचार-प्रसार में पूर्ण योगदान दिया गया । महाकवि नयनन्दि 11 वीं शताब्दि के अन्तिम चरण के विद्वान् थे । इनकी अब तक दो कृतियां उपलब्ध हुई हैं और दोनों की पाण्डुलिपियां जयपुर के महावीर भवन के संग्रह में है । नयनन्दि परमारवंशी राजा भोजदेव त्रिभुवन नारायण के शासन काल में हए थे । इनके राज्यकाल के शिलालेख संवत 1077 से 1109 तक के उपलब्ध होते हैं । त्रिभुवन नारायण का शासन राजस्थान के चितौड प्रदेश पर भी रहा था । इस कारण नयनन्दि को राजस्थानी कवि भी कहा जा सकता है । इन्होंने अपना प्रथम महाकाव्य “सुदंसण चरिउ" को धारा नगरी के एक जैन मन्दिर के विहार में बैठकर समाप्त किया था। मालवा और राजस्थान की सीमाएं भी एक दूसरे से लगी हुई हैं इसलिये नयनन्दि जैसे विद्वान का सम्पर्क तो दोनों ही प्रदेशों में रहा होगा। सुदंसण चरिउ का रचना काल संवत 1100 है। 1 यह महाकाव्य अभी तक अप्रकाशित है । सुदंसण चरिउ अपभ्रश का एक प्रबन्ध काव्य है जो महाकाव्यों की श्रेणी में रखने योग्य है । ग्रन्थ का चरित भाग रोचक एवं आकर्षक है तथा अलंकार एव काव्य-शैली दोनों ही दष्टियों से महत्वपूर्ण है । महाकवि ने अपने काव्य को निर्दोष बतलाया है तथा कहा है कि रामायण में राम और सीता का वियोग, महाभारत में पाण्डवों एवं कारवों का परस्पर कलह एवं मार-काट तथा लौकिक काव्यों में कौलिक, चौर, व्याध आदि की कहानियां सुनने में आती 1. णिव विक्कम काल हो ववगएसु, एगारह संवच्छर सएसु । तहि केवली चरिउ अभयच्छरेण, णयणंदी विरयउ वित्थरेण ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153 हैं किन्तु उसके काव्य में ऐसा एक भी दोष नहीं है ।। ग्रन्थ में 12 संधियां और 207 कडवक छन्द हैं जिनम सूदर्शन के जीवन-परिचय को अंकित किया गया है । सुदर्शन एक वणिक् श्रेष्टी है । उसका चरित्र अत्यन्त निर्मल तथा सुमेरु के समान निश्चल है । उसका रूप-लावण्य इतना आकर्षक था कि यवतियों का समुह इसे देखने के लिये उत्कंठित होकर महलों की छतों पर एवं झरोखों में एकत्रित हो जात था । यह साक्षात् कामदेव था । उसके यहां अपार धन-सम्पदा थी किन्तु फिर भी वह धर्माचरण मे तत्पर, मधरभाषी एवं मानव-जीवन की महत्ता से परिचित था । सुदर्शन का चरित्र भारतीय संस्कृति का जीवन है जो लोभ एवं प्रांचों में भी अपने चरित्र की रक्षा करता है। सयलविहि-विहाणकव्वः-- ___ यह महाकवि का दूसरा काव्य है जो 58 संघियों में पूर्ण होता है। प्रस्तुत काव्य विशाल काव्य है जिसका किसी एक विषय से संबंध न होकर विविध विषयों से संबंध है। इस ग्रन्थ की एक मात्र पाण्डलिपि आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में संग्रहीत है जिनमें बीच की 16 संधियां नहीं है। कवि ने काव्य के प्रारम्भ में अपने पूर्ववर्तो जैन एवं जनतर विद्वानों के नामों का उल्लेख किया है। इन विद्वानों में वररुचि, वामन, कालिदास, कौतुहल, बाण, मयूर, जिनसेन, वादरायण, श्रीहर्ष, राजशेखर, जसचन्द्र, जयराम, जयदेव, पादलिप्त, वीरसेन, सिंहनन्दी, गुणमद्र, समन्तभद्र, अकलंक, दण्डी, भामह, भारवि, भरत, चउमुह, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, श्रीचन्द, प्रभाचन्द्र के नाम उल्लेखनीय है । कवि ने अपन इस काव्य में विभिन्न छन्दों का प्रयोग किया है जिनकी संख्या 50 से अधिक होगी। छन्द शास्त्र की दृष्टि में इनका अध्ययन अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। काव्य की दूसरी संधि में अंबाडम एवं कंचीपुट का उल्लेख है। 'अंबाडम' अम्बावती का ही दूसरा नाम हो सकता है जो बाद में आमेर के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इससे भी सिद्ध होता है कि नयनन्दि को राजस्थान से विशेष प्रेम था और वह इस प्रदेश में अवश्य घुमा होगा। रामो सीय-विओय-सोयविहुरं संपत्तु रामायणे, जादं पांडव-धायरट्र-सददं गोत्तं कली भारहे । डेडा-कोलिय चोर-रज्ज-णिरदा आहासिदा सुद्दये, णो एक्कं पि सुदंसणस्स चरिदे दोसं समुभासिदं । मणु जण्ण वक्कु वम्मीउ वासु, वररुइ वामण, कवि, कालियासु । कोऊहल बाण मउरू सूरु, जिणसेण, जिणागम-कमल-सूरू । वारायण वरणाउ विवियदद्द , सिरिहरिसु रायसेहरु गुणद्द । जसईधु जए जयराम णाम, जयदेउ जणमणाणंद कामु । पालित्तउ पाणिणि पबरसेणु, पायंजलि पिंगलु वीरसेणु । सिरि सिंहणंदि गुणसिंह भद्द, गुणभद्द गुणिल्ल समंतभद्दु । अकलंक विसम वाइय विहंडि, काम? रुद्द. गोविन्दु दंडि । भम्मुई भारहि भरहुवि माहंतु, चउमुह सयंभ कई पुप्फयन्तु । घत्ता सिरिचन्दु पहाचन्दु वि विवुह, गुणगणनंदि मणोहरु । कइ सिरिकुमार सरस इ कुमरु, कित्ति विमासिणी सेहरु । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 2. दामोदर :-- कविवर दामोदर राजस्थानी कवि थे । इन्होंने अपने आपको मलसंघ सरस्वती गच्छ और बलात्कार गण के भट्टारक, प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दि, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र की परम्परा का बतलाया है। मट्टारक जिनचन्द्र का राजस्थान से गहरा संबंध था और ये राजस्थान के विभिन्न भागों में बिहार करते थे । आवां (टोंक) में इनकी अपने गुरु शुभचन्द्र एवं शिष्य प्रभाचन्द्र के साथ निषेधिकायें मिलती हैं। जिनचन्द्र ने राजस्थान में अनेक प्रतिष्ठा समारोहों का संचालन किया है । ऐसे प्रभावशाली एवं विद्वान् भट्टारक जिनचन्द्र का कविवर दामोदर को शिष्य होने का गौरव प्राप्त था । कविवर दामोदर की तीन कृतियां उपलब्ध होती हैं । ये कृतियां हैं सिरिपाल चरिउ, चंदप्पह चरिउ एवं णेमीणाह चरिउ । इन तीनों ही काव्यों को पाण्डुलिपियां नागौर के भट्टारकीय शास्त्र मरडार में उपलब्ध होती हैं । सिरिपाल बरिज:-- यह कवि का एक रमण काव्य है जिसमें सिद्धचक्र के महात्म्य का उल्लेख करते हुए उसका फल प्राप्त करने वाले चम्पापुर के राजा श्रीपाल एवं मैनासुन्दरी का जीवन परिचय दिया हुआ हैं। मैना सुन्दरी ने अपने कुष्ठी पति राजा श्रीपाल और उसके सातसौ साथियों का कुष्ठ रोग सिद्धचक्र के अनुष्ठान और जिनभक्ति की दृढ़ता से दूर किया था । काव्य में श्रीपाल के अनेक साहसिक कार्यों का भी वर्णन किया गया है । चरित काव्य में चार संधियां हैं । यह काव्य श्री देवराज के पुत्र साहू नरवत्तु के आग्रह पर लिखा गया था। काव्य अभी तक अप्रकाशित है । चंदप्पहचरिउ यह कवि की दूसरी कृति है जिसमें आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु के जीवन का वर्णन किया गया है । इसकी एकमात्र पाण्डुलिपि नागौर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । मिणाहचरिउ :-- यह कवि की तीसरी अपभ्रंश भाषा की कृति हैं जिसमें 22 वें तीर्थंकर नेमिनाथ का कवि का यह काव्य भी अभी तक अप्रकाशित है । जीवन अत्यधिक रोचक ढंग से निबद्ध है । 3. महाकवि रद्दधूः --- महाकवि रहघ उत्तरकालीन अपभ्रंश कवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय कवि । रचनाअं की संख्या की दृष्टि से अपभ्रंश साहित्य के इतिहास में इनका स्थान सर्वोपरि है । डा. राजा राम जैन ने रइबू की अब तक ज्ञात एवं अज्ञात 35 अपभ्रंश कृतियों का नाम उल्लेख किया है। इनमें मेहेसर चरिउ, णेमिणाहचरिउ, पासणाह चरिउ, सम्मजिणचरिउ, बलहद्दी चरिउ, प्रद्युम्न चरिउ, धन्यकुमार चरित, जसहरचरिउ, सुदंसणचरिउ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। महाकवि पर डा. राजाराम जैन ने गहरी छानबीन की है और 'रद्दधू ग्रन्थावली' के नाम से महाकवि के सभी उपलब्ध काव्यों के प्रकाशन की योजना पर कार्य हो रहा है। 1. र साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन पू. 48 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवास स्थान :-- महाकवि का जीवन सार्वभौमिक एवं सार्वलौकिक होता है । भौगोलिक एवं राजनीतिक सीमाएं उन्हें बांध नहीं सकतीं । महाकवि रइधू ने अपनी किसी भी रचना में अपने जन्म-स्थान के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं दी किन्तु उनके अपने काव्यों में रोहतक, पानीपत, हिसार, जोगिनीपुर, ग्वालियर, उज्जयिनी आदि नगरों का नामोल्लेख किया है । रघु साहित्य के विशेषज्ञ ड. राजाराम जैन ने कवि के निवास स्थान के सम्बन्ध में अपना अभिमत लिखते हुए लिखा है कि "उनकी हिन्दी रचना बारह भावना में प्रयुक्त हिन्दी की प्रवृत्ति देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उनका जन्म या निवास स्थान पंजाब एवं राजस्थान के सीमान्त से लेकर मध्यभारत के ग्वालियर तक के बीच का कोई स्थान होना चाहिये ।" हमारे विचार से तो कवि का जन्म राजस्थान का सीमान्त प्रदेश धौलपुर प्रदेश का कोई भाग होना चाहिये । वयस्क होने के पूर्व तक कवि का जीवन कोई विशेष उल्लेखनीय नहीं रहा इसलिये यह कहा जा सकता है कि कवि का प्रारम्भिक जीवन अपने जन्म-स्थान में ही व्यतीत हुआ और वयस्क होने पर एवं काव्य रचना में रुचि लेकर वे मध्य प्रदेश में चले गये । महापंडित आशावर मी राजस्थान को छोड़कर मालवा में जाकर बस गये थे और इसी शताब्दी में होने वाले प्राकृत एवं अपभ्रंश के महान् विद्वान् डा. नेमिचन्द्र शास्त्री भी अपने निवास स्थान धौलपुर को छोड़कर आरा ( बिहार ) में जाकर रहने लगे थे । महाकवि रइधू की सभी अपभ्रंश कृतियां भाषा एवं काव्य शैली में अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं । कवि ने अपभ्रंश का जनभाषा के रूप में प्रयोग किया है और जहां तक संभव हो सका है उसने अपने काव्यों की भाषा को सरल एवं सुबोध बनाने का प्रयास किया है। रघू ने अपनी अधिकांश रचनायें किसी न किसी श्रेष्ठि के आग्रह अथवा अनुरोध पर निबद्ध की हैं । कवि ने अपने आश्रयदाता का विस्तृत वर्णन किया है एवं उसका उसके पूर्वजों सहित यशोगान गाया है । यही नहीं तत्कालीन शासकों का भी अच्छा वर्णन किया है जिससे कवि के सभी to इतिहास की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बन गये हैं । इनकी प्रशस्तियों के आधार पर तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक स्थिति का अध्ययन किया जा सकता 1 राजस्थान के ग्रंथ संग्रहालयों में रघु का साहित्य अच्छी संख्या में उपलब्ध होता है । जयपुर, अजमेर, नागौर, मौजमाबाद आदि स्थानों के ग्रंथ संग्रहालयों में कवि की अपभ्रंश कृतियां संग्रहीत हैं और सम्पादन के लिये अत्यधिक उपयोगी हैं । राजस्थान के अपभ्रंश कवि की दृष्टि से रइधू के साहित्य पर विशेष अध्ययन की आवश्यकता है । अब तक महाकवि धु के निम्न ग्रंथ प्राप्त हो चुके है:-- पउम चरिउ अथवा बलभद्र चरित 1. 2. हरिवंश पुराण पज्जुण्ण चरिउ पासणाह पुराण 5. सम्मत्त गुणनिधान मेसर चरिउ 3. 4. 155 6. 7. जीवंधर चरिउ जसहर चरिउ 9. पुण्णासवकहाकोषु 8. घण्णकुमार चरिउ सुकोसल चरिउ सम्मइ जिण चरिउ सिरिवाल कहा 14. सिद्धान्तार्थसार 10. 11. 12. 13. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 18. अप्यसंबोह कव्व 16. सम्मत कउमुदी 17. दशलक्षण जयमाल 18. षोडशकारण जयमाल 19. सांतिणाह चरिउ 20. मिणाह चरिउ 21. करकंड चरिउ 22. भविसयत्त चरिउ 4. विनयचन्द्रः-- कविवर विनयचन्द्र माथुरसंघ के भट्टारक उदयचन्द्र के प्रशिष्य और बालचन्द मुनि के शिष्य थे। इनकी अब तक तीन रचनायें चनडीरास, निझर पंचमी महारास एवं कल्याणक रास उपलबध हो चकी हैं। प्रथम दो रचनायें कवि ने त्रिभवनगिरि में निबद्ध की थीं। कवि ने अपनी प्रथम रचना चुनडीरास त्रिभवनगिरि के राजा कुमारपाल के भतीजे अजयपाल के बिहार में बैठकर निर्मित की थी। कवि के समय में त्रिभवनगिरि जन-धन से समद्ध था । कवि ने उसे 'सग्गखण्डणं धरियल आयउ' अर्थात् स्वर्ग-खण्ड के तुल्य बतलाया है। अजयराज तहनगढ़ के राजा कुमारपाल का भतीजा था तथा उसके बाद राज्य का उत्तराधिकारी हुआ । संवत् 1253 में मोहम्मद गोरी ने उस पर अपना अधिकार कर लिया और नगर को तहसनहस कर दिया । अजयराज का नाम करौली के शासकों में दर्ज है। इसलिये 13 वीं शताब्दि में यह प्रदेश त्रिभुवनगिरि के नाम से प्रसिद्ध था । चूनडीरास:-- - यह कवि की लघु-कृति है जिसमें 32 पद्य है । रास में चूनडी नामक उत्तरीय वस्त्र को स्पक बनाकर एक गीति-काव्य के रूप में रचना की गई है। कोई मुग्धा युवती हंसती हुई अपने पति से कहती है कि, हे सुभग ! जिन मन्दिर जाइये और मेरे ऊपर दया करते हुए एक अनुपम चनडी सीध छपवा दीजिये जिससे मै जिन शासन में विचक्षण हो जाउं । वह यह भी कहती है कि गदि आप वैसी चनडी छपवा कर नहीं देंगे तो वह छीपा मझे तानाकशी करेगा। चुनड़ी राजस्थान का विशेष परिधान है जिसे राजस्थानी महिलायें विशेष रूप से बोढ़ती है । यह राजस्थान का विशेष वस्त्र है । कवि ने इसी के आधार पर रूपक काव्य का निर्माण किया है। रचना सरस एवं आकर्षक है। निज्झर पंचमी कहा रास :-- - यह कवि की दूसरी रचन है जिसमें निर्झर पंचमी के व्रत का फल बतलाया गया है । कवि ने लिखा है कि आषाढ शुक्ला पंचमी के दिन जागरण करे और उपवास करे तथा कार्तिक के महीने में इसका उद्यापन करे अथवा श्रावण में आरम्भ करके अगहन के महीने में उसका उद्यापन करे उद्यापन में छत्र चमरादि पांच-पांच वस्तुयें मन्दिर में भेंट करें । यदि किसी की उद्यापन करने की शक्ति न हो तो व्रत को दूने समय तक करे । कवि ने इस रास को भी त्रिभुवनमिरि में निबद्ध किया था । कल्याणकरास:-- यह वि की तीसरी कृति है इसमें तीर्थकरों के पांचों कल्याणकों की तिथियों आदि का वर्मन किया गया है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 .. महाकवि सिंह: __ महाकवि सिंह अपभ्रश के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इसके अतिरिात वे प्राकृत एवं संस्कृत के भी प्रसिद्ध पंडित थे। इनके पिता रल्हण भी संस्कृत एवं प्राकृत के विद्वान थे। कवि को माता का नाम जिनमती था और कवि ने इन्हीं की प्रेरणा से अपभ्रश भाषा में पज्जण्णचरिउ जैसा सुन्दर काव्य निबद्ध किया था। ये तीन भाई थे जिनमें प्रथम का नाम शुभकर, द्वितीय का गुणप्रवर और तृतीय का साधारण था। ये तीनों ही धर्मात्मा थे। कवि ने इन सबका वर्णन निम्न प्रकार किया है: तह पयरउ णिरु उण्णय अमइयमाणु, गुज्जर-कुल-णह-उज्जोय-माणू । जो उहयपवर वाणी-विलासु, एवंविह विउसहो रल्हणासु । तहो पणइणि जिणमइ सुहम सील, सम्मत्तवंत णं धम्मसील । कइ सीउ ताहि गब्भतरंमि, संभविउ कमल जह सुर-सरंमि । जणवच्छल सज्जणु जणिय हरिसु, सुइवंतु तिविह वइराय सरिसु । उप्पण्णु सहोयरु तासु अवर, नामेण सुहंकर गुणहंपवरु । साहारण लघवउ तासू जाउ, धम्माण रत्तु अइदिव्वकाउ ॥ महाकवि सिंह का दूसरा नाम सिद्ध भी मिलता है जिससे यह कल्पना की गयी कि सिंह और सिद्ध एक ही व्यक्ति के नाम थे। पं. परमानन्द जी शास्त्री का अनुमान है कि सिद्ध कवि ने सर्व प्रथम प्रद्युम्न चरित का निर्माण किया और कालवश ग्रन्थ नष्ट होने पर सिंह कवि ने खंडित रूप से प्राप्त इस ग्रन्थ का पूनरुद्धार किया 11 डा. हीरालाल जैन का भी यही विचार 2 और डा. हरिवंश कोछड ने भी इसी तथ्य को स्वीकार किया है । रचना स्थान: कवि सिंह ने पजगणचरिउ की ग्रंथ प्रशस्ति म बहाणवाड नगर का वर्णन किया है और लिखा है कि उस समय वहां रणधोरी या रणधीर का पुत्र बल्लाल था जो अर्णोराज को क्षय करने लिये कालस्वरूप था और जिसका मांडलिक भृत्य गुहिलवंशीय क्षत्रिय मल्लण ब्राह्मणवाड क शासक था। जब कुमारपाल गजरात की गद्दी पर बैठा था तब मालवा का राजा वल्लाल था इसके पश्चात् बल्लाल यशोधवल को दे दिया जिसने वल्लाल को मारा था । कुमारपालक शासन वि. सं. 1199 से 1209 तक रहा अतः बल्लाल की मृत्यु संवत् 1208 से पूर्व हुई होगी इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रद्युम्न चरित की रचना भी 1208 के पूर्व ही हो चुक थी। अतएव सिंह कवि का समय विक्रम की 12 वीं शताब्दी का अन्तिम पाद या 13 वीं शताब्द का प्रथम पाद मानना उचित प्रतीत होता है। 'ब्राह्मणवाड' या 'ब्राह्मवाद' नाम का स्थान बयाना (राजस्थान) के समीप है। व भी पहिले एक प्रसिद्ध नगर था और वहां एक लेख में ब्राह्मणवाद नगरें' इस शब्द का प्रयोग किर है। यदि यह, ब्राह्मवाद वही नगर है जिसका उल्लेख सिंह कवि ने अपनी प्रशस्ति में कि है तो कवि राजस्थानी थे ऐसा कहा जा सकता है। ब्राह्मवाद में आज भी एक जै मन्दिर है जिसमें 15 वीं शताब्दी तक की जिन प्रतिमाएं विराजमान है। 1. महाकवि सिंह और प्रद्युम्न चरित, अनेकान्त वर्ष 8 किरण 10-11 पृ.391 । 2. नागपुर युनिवर्सिटी जनरल, सन 1942, पृ. 82-83 । 3. अपभ्रन्शसाहित्यः डा. हरिवंश कोछड, पृ. 221 । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 पज्जुण्णचरिउ:-- पज्जण्णचरिउ अथवा प्रद्यम्नचरित 15 सधियों का अपभ्रश काव्य है जिसमें श्रीकृष्ण जी के पुत्र प्रद्युम्न का जीवन-चरित निबद्ध किया गया है। जैन धर्म में प्रद्युम्न को पुण्य पुरुषों में माना गया है। रुक्मिणी से उत्पन्न होते ही प्रद्यम्न का हरण एक राक्षस द्वारा कर लिया जाता है। प्रद्युम्न वहीं बडे होते हैं और फिर 12 वर्ष पश्चात श्रीकृष्ण जी से आकर मिलत है। प्रद्युम्न चरित्र में सभी वर्णन बड़े सून्दर हए हैं तथा ग्राम, नगर, ऋतू, सरोवर, उपवन, पर्वत आदि के वर्णन के साथ ही पात्रों की भावनाओं का भी अंकन किया गया है। काव्य में करुणरस का भी अपूर्व चित्रण हुआ है तथा बालक्रीडाओं के वर्णन में कवि ने अपनी काव्य चतुरता दिखलाई है। इसी तरह का एक वर्णन देखिये:-- चाणउर विमद्दणु देवई णंदणु, संख चक्क सारंगधरु । रणि कंस खयंकरु, असुर भयंकरु, वसुह तिखंडह गहियकरु । 1:12 रजो दाणव माणव दलइ दप्प जिणि गहिउ असुर णर खयर कप्पु । णव णव जोव्वण सुमणोहराई. चक्कल घण पीण पउहराई। छण इंद बिंबसम वयणि याहं, कुवलय दल दीहर णयणियाहं । केऊर हार कुण्डलधराह, कण कण कणंत कंकणकराहं।। 1:13 6. ब्रह्म बूचराजः-- . बुचराज राजस्थानी विद्वान थे। यद्यपि अभी तक किसी भी कृति में इन्होंने अपने जन्म-स्थान एवं माता-पिता आदि का परिचय नहीं दिया है किन्तु इनकी कृतियों की भाषा के आधार पर एवं म. विजयकीर्ति के शिष्य होने के कारण इन्हें राजस्थानी विद्वान् मानना अधिक तक-सगत होगा। वैसे ये सन्त थे। इन्होंने ब्रह्मचारी पद धारण कर लिया था इसीलिये साहित्य-प्रचार एवं धर्मप्रचार के लिये ये उतरी भारत में विहार किया करते थे। राजस्थान, पंजाब, दहला एव गजरात इनके मख्य प्रदेश थे। संवत 1582 में ये चम्पावती (चाटस) राजस्थान में थे और इस वर्षे फाल्गन सदी 14 के दिन इन्हें सम्यक्त्व कौमदी की प्रति भेंट स्वरूप प्रदान की गयी था। इन्होंने अपनी कृतियों में बचराज के अतिरिक्त बंचा. वल्हवील्ह अथवा वल्हव नामों का उपयाग किया है। एक ही कृति में दोनों प्रकार के नाम भी प्रयोग में आये हैं। इनकी रचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बचराज का व्यक्तित्व एवं मनोबल बहुत ही ऊंचा था। इनकी रचनाएं या तो भक्ति-पूरक है अथवा उपदेश-पूरक । समय:-- कविवर के समय के बारे में नश्चित तो कछ भी नहीं कहा जा सकता लेकिन इनकी रचनाओं के आधार पर इनका समय संवत 1530 से 1600 तक का माना जा सकता है इन्होंने अपने जीवनकाल में भट्रारक भवनकोति. भ. ज्ञानभषण एवं भ. विजयकोति का समय दखा और इनके सानिध्य में रहकर आत्मलाभ के अतिरिक्त साहित्यिक लाभ भी प्राप्त किया । अभी तक इनकी आठ रचनायें प्राप्त हो चकी हैं। 'मयणजज्झ' इनकी अपभ्रश कृति हैं तथा शुष सब हिन्दी कृतियां हैं। इनकी अन्य कृतियों के नाम हैं-संतोष जयतिलक, चेतनपुद्गल धमाल, टंडाणा गीत, नेमिनाथ बसंत, नेमीश्वर का बारहमासा, विजयकीर्ति गीत आदि । 1. संबत 1582 फाल्गुन सुदी 14 शभ दिने • • • • • 'चम्पावतीनगरे · · · एतान । इदं शास्त्रं कौम दीं लिखाप्य कर्मक्षयनिमित्तं ब्रह्म बूचाय दत्तम् । प्रशस्ति संग्रह पृ.63 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159 मयणजुजन:-- यह एक रूपक-काव्य है जिसमें भगवान ऋषभदेव द्वारा कामदेव पराजय का वर्णन है। यह एक आध्यात्मिक रूपक काव्य है जिसका मुख्य उद्देश्य मनोविकारों पर विजय प्राप्त करना है। काम मोक्षरूपी लक्ष्मी प्राप्त करने में एक बडी बाधा है। मोह, माया, राग एवं द्वेष काम के मल्ल सहायक है। वसन्त काम का दत है जो काम की विजय के लिये पृष्ठभूमि बनाता है. लेकिन मानव अनन्त-शक्ति एवं ज्ञानवाला है, यदि वह चाहे तो सभी विकारों पर विजय प्राप्त कर सकता है। भगवान ऋषभदेव भी अपने आत्मिक-गुणों द्वारा काम पर विजय प्राप्त करते है। कवि ने इसी रूपक को मयणजुज्झ में बहुत ही सुन्दर रीति से प्रस्तुत किया है। वसन्त कामदेव का दूत होने के कारण उसकी विजय के लिये पहिले जाकर अपने अनुरूप वातावरण बनाता है। वसन्त के आगमन का वृक्ष एवं लतायें तक नव पुष्पों से उसका स्वागत करती हैं। कोयल कुहु-कुहु की रट लगाकर एवं भ्रमर-पंक्ति गुजार करती हई उसके आगमन की सचना देती है। यवतियां अपने आपको सज्जित करके भ्रमण करती हैं। इसी वर्णन को कवि के शब्दों में पढिये: बज्जत नीसाण वसंत आयउ, छल्ल कंद सिखिल्लिय। सुगंध मलया पवण झुल्लिय, अंब कोइल्ल कूल्लियं । रुण झणिय केवइ कलिय महवर, सुतर पत्तिह छाइयं । गावंति गीय वजंति वीणा, तरुणि पाइक पाइयं ।।। मयणजज्झ को कवि ने संवत् 1589 में समाप्त किया था जिसका उल्लेख कवि ने रचना के अन्तिम छन्द में किया है। इस कृति की पाण्डुलिपियां राजस्थान के कितने ही शास्त्रभण्डारों में उपलब्ध होती है। 7. ब्रह्म साधारण: ब्रह्म साधारण राजस्थानी सन्त थे। पहिले वे पंडित साधारण के नाम से प्रसिद्ध थे। किन्तु बाद में ब्रह्मचारी बनने के कारण उन्हें ब्रह्म साधारण कहा जाने लगा। उन्होंने अपनी पूर्ववर्तीगरु-परम्परा में भ. रतनकीति, म. प्रभाचन्द्र, भ. पद्मनन्दि, हरिभषण, नरेन्द्रकीर्ति, एवं विद्यानन्दि का उल्लेख किया है और अपने आपको म. नरेन्द्रकीर्ति का शिष्य लिखा है। म. नरेन्टकीति का राजस्थान से विशेष सम्बन्ध था और वे इसी प्रदेश में विहार किया करो संवत 1577 की एक प्रशस्ति में प.साधारण का उल्लेख मिला है जिसके अनसार इन्हें पंचास्तिकाप की एक पाण्डुलिपि सा. धौपाल द्वारा मेंट की गई थी। ब्रह्म साधारण अपभ्रश भाषा के विद्वान् थे। छोटी-छोटी कथाओं की रचना करके वे भावकों को स्वाध्याय की प्रेरणा दिया करते थे। 15 वीं 16 वीं शताब्दी में भी अपम्रश भाषा की रचनाओं का निबद्ध करना उनके अपने श-प्रेम का द्योतक है। अब तक उनकी 9 रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं: 1. कोइलपंचमी कहा (कोकिला पंचमी कथा) 2. मउड सप्तमी कहा (मुकूट सप्तमी कथा) 3. रविवय कहा (रविव्रत कथा) 4. f तयालचउवीसी कहा (त्रिकाल चउवीस कथा) 5. कुसुमंजलि कहा (पुष्पांजली कथा) 1. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थसूची, पंचम भाग, 1.72 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 6. निसि सत्तमी वय कथा (निर्दोष सप्तमी ब्रत कथा) 7. णिज्झर पंचमी कहा (निर्झर पंचमी कथा) 8. अणुवेक्खा (अनुप्रेक्षा) 9. दुद्धारमि कहा (दुग्ध द्वादशी कथा) उक्त सभी कृतियों में लघु-कथाएं हैं। भाषा अत्यधिक सरल किन्तु प्रवाहमय है। सभी कथाओं में अपनी पूर्ववर्ती गुरु परम्परा का उल्लेख किया है तथा कथा-समाप्ति की पंक्ति में अपने आपको नरेन्द्रकीति का शिष्य लिखा है । 8. तेजपाल: तेजपाल राजस्थानी विद्वान थे। अपभ्रंश भाषा में काव्य-निबद्ध करने की ओर इनकी विशेष रुचि थी। ये मूलसंघ के भट्टारक रत्नकोति, भुवनकीर्ति, धर्मकीर्ति और विशालकीर्ति कीआम्नाय के थे। कवि ने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि 'वासनपुर' नामक गांव से बरसाबडह बंश में जाल्हड नामके एक साहू थे। उनके पुत्र का नाम सुजड साहू था। वे दयावंत एवं जिनधर्म में अनरक्त रहते थे। उनके चार पुत्र थे-रणमल, बल्लाल, ईसरू और पोल्हण । ये चारों ही भाई खण्डेलवाल जाति के भूषण थे। रणमल साहू के पुत्र ताल्हप के पुत्र साह हए और उनके तेजपाल हुए। इस प्रकार तेजपाल खण्डेलवाल जाति में उत्पन्न हुए थे और अपभ्रश के प्रच्छे कवि थे । तेजपाल की अब तक तीन कृतियां उपलब्ध हो चुकी है, जिनके नाम पासणाह चरिउ, संभवणाह चरिउ एवं वरांग चरिउ है । पासणाह चरिउ: पार्श्वनाथ चरित्र एक खण्ड-काव्य है, जिसका रचनाकाल संवत 1515 कार्तिक कृष्णा पंचमी है। सारी रचना अपभ्रश के लाडला छन्द पद्धडिया में निर्मित है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ के जीवन का तीन संधियों में वर्णन किया गया है। इस काव्य को कवि ने पडवंशी साह शिवदास के पुत्र धूधलि साह की अनुमति से रचा था। कृति अभी तक अप्रकाशित है तथा इसकी एक पाण्डुलिपि अजमेर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। संभवणाह चरिउ: इस काव्य में छह संधियां और 170 कडवक हैं। इसमें तीसरे तीर्थकर भगवान संभवनाथ का जीवन-चरित्र निबद्ध है। महापुराणों के अतिरिक्त संभवनाथ का जीवन बहत कम लिखा गया है, इसलिये कवि ने संभवनाथ पर काव्य रचना करके उल्लेखनीय कार्य किया है। इसकी रचना श्रीमन्त नगर में हुई थी तथा मित्तल गोत्रीय साहु लस्समदेव के चतुर्थ पुत्र थील्हा के अनरोध पर लिखी गई थी। रचना सुरुचिपूर्ण एवं अत्यन्त सुन्दर भाषा में निबद्ध है। इसका रचनाकाल संवत् 1500 के आस-पास का है। रचना अभी तक अप्रकाशित है। वरांग चरिउ: यह कविवर तेजपाल की तीसरी कृति है। इसमें चार संधियां हैं जिनमें राजा वरांग का जीवन निबद्ध है। इसका रचनाकाल संवत् 1507 की वैशाख शुक्ला सप्तमी है। रचना सरल एवं सरस है तथा हिन्दी के विकास पर प्रकाश डालने वाली हैं। यह कृति भी अभी तक अप्रकाशित है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 उक्त कवियों के अतिरिक्त अपभ्रश के अन्य कवियों का भी राजस्थान से विशेष सम्बन्ध रहा है । ऐसे कवियों में जम्बूसामि चरिउ के रचयिता महाकवि वीर, पासणाह चरिउ, सुकुमाल परिउ एवं भविसयत्त चरिउ के रचयिता श्रीधर, महाकवि यशःकीर्ति, माणिक्यराज, भगवतीदास आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। जिनदत्तसूरि:-- जिनदत्तसूरि राजस्थानी सन्त थे। धन्धका के रहने वाले वाछिग मन्त्री की पत्नी देल्हणदे की कोख से आपका संवत् 1132 में जन्म हुआ। बाल्यकाल में ही 9 वर्ष की आय में आपने दीक्षा ग्रहण करली। आपका जन्म नाम सोमचन्द्र था। चित्तौड़ के वीर जिनालय में जिनवल्लभसरि के मरणोपरान्त आपको सरि पद प्राप्त हआ और आपका नाम जिनदत्तसरि रखा गया । मरुदेश, अजमेर, महाराष्ट्र एवं राजस्थान के अन्य प्रदेशों में आपने खूब विहार किया। मन्त्र शास्त्र के आप बड़े भारी साधक थे। जब से जिनदत्तसूरि ने पाटण नगर में अंबड के हाथ पर वासक्षेप का प्रक्षेपन कर उन अक्षरों को पढ़ा तभी से आप युगप्रधान कहलाने लगे। आपने त्रिभुवनगिरि के राजा कुमारपाल एव सांभर नरेश अर्णोराज को प्रतिबोध दिया। आपकी मृत्यु 1211 में आषाढ़ शुक्ला 11 को अजमेर नगर में हई थी।। अपभ्रंश-भाषा की अब तक आपकी तीन रचनाएं उपलब्ध हुई हैं जिनके नाम है, उपदेशरसायन रास, कालस्वरूप कुलक और चर्चरी। उपदेश रसायन रास में 80 गाथाओं का संग्रह है। मंगलाचरण के पश्चात् जिनदत्तसूरि ने मनुष्य जन्म के लिये आत्मोद्धार को आवश्यक बतलाया है। इसी रास में मन्दिरों में होने वाले तालरास एवं लगड रास का निषेध किया है। रास में पद्धटिका-पज्झटिका छन्द का प्रयोग हआ है। ओरियंटल इन्स्टीट्यूट, बडौदा से "अपम्रश काव्यत्रयी" में उक्त रचना प्रकाशित हो चुकी है। कालस्वरूप कुलक:-- यह श्री जिनदत्तसूरि की लघुकृति है जिसमें केवल 32 पद्य है। इसका दूसरा नाम उपदेश-कुलक भी है। मंगलाचरण के पश्चात जिनदत्तसूरिने 12 वीं शताब्दी में सामाजिक स्थिति का उल्लेख किया है जिसके अनुसार लोगों में धर्म के प्रति अनादर, मोहनिद्रा की प्रबलता और गरु वचनों के प्रति अरुचि प्रमख है। कवि ने सुगर और कुगर का भेद बतलाया है और कुगरु को धतूरे के फल से समान बतलाया है । साथ ही में सुगुरुवाणी और जिनवाणी में श्रद्धा का उपदेश दिया है। इस प्रकार कृति का विषय पूर्णतः धर्मोपदेश है। इसी प्रकार सुगुरु और कुगर बाहर से समान दिखते हैं किन्तु कुछ रु अभ्यन्त र व्याधिरु.१ है जो बुद्धिमान् दोनों में भेद करता है वह परम पद को प्राप्त होता है । चर्चरी:-- प्रस्तुत चचेरी में जिनदत्तसूरि ने 47 छन्दों में अपने गुरु जिनवल्लभसूरि का गुणानुवाद एवं चैत्य-विधि का विधान किया है । इस चर्चरो की रचना जिनदत्तसूरि ने बागड (राज.) 1. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ. 5। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 देशान्तर्गत व्याघ्रपुर नगर में विक्रम की 12वीं के उत्तराधं में की। कवि अपने सूरि को कालिदास एवं वाक्पतिराज से भी बढ़कर मानता है ।- कालियासु कइ आसि जु लोइहि वन्नियइ । ताव जाव जिणवल्लहु कइ ना अन्नियइ || अप्पु चित्त परियाणहि तं पि विसुद्ध न य । ते वि चित्त कइराय मणिज्जहि मुवनय ॥ गुरु जिनबल्लभ हरिभद्रसूरि :-- हरिभद्र नाम से दो प्रसिद्ध विद्वान् हुए हैं । प्रथम हरिभद्रसूरि 8वीं शताब्दि में हुए जिनका चित्तौड़ से गहरा सम्बन्ध था । ये प्राकृत एवं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे और जिन्होंने सैकड़ों की संख्या में रचनाएं निबद्ध करके एक अभूतपूर्व कार्य किया था । दूसरे हरिभद्र जिने - चन्द्रसूरि के प्रशिष्य एवं श्रीचन्द्र के शिष्य थे । इनका सम्बन्ध गुजरात से अधिक था और वहीं चालुक्यवंशी राजा सिद्धराज और कुमारपाल के अमात्य पृथ्वीपाल के आश्रय में रहते थे किन्तु राजस्थान से भी उनका विशेष सम्बन्ध था और उस प्रदेश में उनका बराबर बिहार होता रहता था । डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री ने हरिभद्र की दो अपभ्रंश कृतियों का उल्लेख किया है जिनके नाम सनत्कुमार चरित एवं णमिणाह चरिउ है । लेकिन डा. हरिवंश कोछड ने अपने 'अपभ्रंश साहित्य' पुस्तक में लिखा है कि नेमिनाथ चरित का एक अंश सनत्कुमार चरित के नाम से प्रकाशित हुआ है । नेमिनाथ चरित के 443 पद्य से 785 पद्य तक अर्थात् 343 रड्डा पद्यों में सनत्कुमार का चारत मिलता है । वैसे दोनों चरित काव्य कथानक की दृष्टि से स्वतन्त्र काव्य प्रतीत होते हैं । नेमिनाथ चरित में 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ के जीवन पर आधारित काव्य निबद्ध किया गया है जबकि सनत्कुमार चरित, चक्रवर्ती सनत्कुमार के जीवन पर आधारित काव्य 1 काव्य में सनत्कुमार की विजय यात्रा, उनके अनेक विवाहों का वर्णन, उसके अमित तेज एवं सौन्दर्य का वर्णन एवं अन्त में भोगों से विरक्ति, तपस्या का वर्णन और अन्त में स्वर्ग प्राप्ति का वर्णन मिलता है । काव्य का कथानक अन्य चरित-काव्यों के समान वीर और श्रृंगार के वर्णनों से युक्त है लेकिन काव्य का पर्यवसान शान्त रूप में होता है । महेश्वरसूरि :-- महेश्वरसूरि राजस्थानी सन्त थे । इनके द्वारा रचित 'संयममंजरी' अपभ्रंश भाषा की घुकृति प्राप्त है । संयममंजरी में कवि ने संयम में रहने का उपदेश दिया है। उसने संयम के 17 प्रकारों का उल्लेख करते हुए कुकर्म त्याग और इन्द्रिय निग्रह का विधान किया है । उक्त अपभ्रंश कृतियों के अतिरिक्ति रास एवं फागु संज्ञक की कुछ रचनायें उपलब्ध | तो हैं जिनमें विजयसेन सूरि कृत रेवंतगिरिरास व देल्हण कृत नयसुकुमालरास, अंबदेव कृत मराराम, राजेश्वरसूरि कृत नेमिनाथरास, शालिभद्रसूरि कृत भरत बाहुबलि रास के उल्लेखनीय हैं । • अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियां: डा. देवेन्द्रकुमार, पृ. 187 अपभ्रंश साहित्य डा. हरिवंश कोछड 295 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी जैन साहित्य Page #213 --------------------------------------------------------------------------  Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी साहित्य का सामान्य परिचय (पृष्ठभूमि) 1 --डा. हीरालाल माहेश्वरी -:1: अन्य आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की भांति राजस्थानी का विकास भी तत्कालीन गुजरात और राजस्थान में लोक प्रचलित अपभ्रंश से हुया है। विक्रम 5वीं से 12वीं शताब्दी अपभ्रंश का समृद्ध काल है । प्राचार्य हेमचन्द्र (संवत् 1145-1229) को अपभ्रंश की ऊपरी सीमा स्वीकार किया जा सकता है। यद्यपि अपभ्रंश की रचनायें उनके बाद भी लगभग चार शताब्दियों तक होती रहीं, तथापि देशी भाषाओं के आविर्भाव और प्रचलन के संदर्भ में, उसका प्रयोग परम्परा का पालन ही कहा जायेगा। प्राप्त अपभ्रंश साहित्य के आधार पर उसको तीन रूपों में विभाजित किया जा सकता है:--1. पश्चिमी, 2. उत्तरी और 3. पूर्वी। ये भेद अपभ्रंश के एक प्रचलित सामान्य रूप में स्थानीय भाषाओं की विशेषताओं के समावेश के कारण हैं। उसका एक सामान्य रूप था जिसका मूलाधार शोरसैनी अपभ्रंश या पश्चिमी अपभ्रंश था। 9वीं से 12वीं शताब्दी के बीच यह पश्चिमी अपभ्रंश पूरे उत्तरी और पूर्वी भारत में साहित्यिक भाषा के रूप में समाद्दत हो चुकी थी। इसके दो प्रधान कारण थे:--1. राजपूतों का उत्थान और इन राजाओं द्वारा उत्तरकालीन शोरसैनी अपभ्रंश तथा इससे मिलती जुलती बोली को अपनाना एवं प्रश्रय देना। 2. इसका शैव, जैन और वज्रयान बौद्धसिद्धों में एक धार्मिक भाषा के रूप में मान्य होना। हाना। सर्वाधिक साहित्य पश्चिमी अपभ्रंश में ही पाया जाता है तथा प्राप्त अपभ्रंश साहित्य में सबसे अधिक रचनायें जैन कवियों की हैं। सनत्कुमार चरिउ, हेमचन्द्र द्वारा संग्रहीत दोहे. कुमारपाल प्रतिबोध में प्राप्त अपभ्रंश पद्यों आदि को विद्वानों ने गुर्जर अपभ्रंश कहा है और गुर्जर अपभ्रंश में पश्चिमी अपभ्रंश की सभी विशेषतायें प्राप्त होती हैं--'मारू-गुर्जर' या पुरानी राजस्थानी का विकास गुर्जरी अपभ्रंश से हुआ है। इस प्रकार, 'मारू-गुर्जर' और उसके साहित्य में गुर्जरी अपभ्रंश और उसके साहित्य की सर्वाधिक विशेषतायें और परम्परायें सुरक्षित हैं। उसके काव्य रूप, कथ्य और शैली तथा साहित्यिक धारायें, कतिपय कालज और देशज विशेषताओं के साथ 'मारू-गुर्जर' के साहित्य में निर्विच्छिन्न रूप से मिलती हैं। अत: पुरानी राजस्थानी और उसके साहित्य के सम्यकरूपेण अध्ययन के लिये पश्चिमी अपभ्रंश, विशेषतः गुर्जरी अपभ्रंश का अध्ययन अतीव आवश्यक है। पुरानी राजस्थानी में भी सर्वाधिक रचनायें जैन कवियों की हैं। लगभग संवत 1100 से आगे चार शताब्दियों तक के साहित्य को 'मारू-गर्जर' या पुरानी राजस्थानी का साहित्य कहा जा सकता है। राजस्थानी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है:1. विकास काल (विक्रम संसवत् 1100 से 1500) । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 2. मध्य काल क -- विकसित काल ( संवत् 1500 से 1650) | ख -- विर्वाद्धत काल (संवत् 1650 से 1900 ) । 3. अर्वाचीन काल ( संवत् 1900 से वर्तमान समय तक ) । इस विभाजन के औचित्य के संबंध में साहित्यिक, भाषिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक --- राजनैतिक अनेक कारण बताये जा सकते हैं । भाषा की दृष्टि से विकास काल का साहित्य 'मारू गुर्जर' का साहित्य है । इसके 'पुरानी राजस्थानी', 'पुरानी पश्चिमी राजस्थानी', 'जूनी गुजराती', 'मारू-सौरठ' श्रादि नाम भी दिये गये हैं; पर सर्वाधिक उचित नाम 'मारू गुर्जर' ही है। इससे तत्कालीन गुजरात और राजस्थान - मरप्रदेश की भाषाओं का सामूहिक रूप से बोध होता है । उल्लेखनीय है कि विक्रम 15वीं शताब्दी तक पुरानी गुजराती और पुरानी राजस्थानी एक ही थी । 1500 के लगभग दोनों पृथक पृथक् हुई । इसलिये 'मारू गुर्जर' का साहित्य गुजराती और राजस्थानी दोनों का साहित्य है; दोनों का उस पर समान अधिकार है । यही कारण है कि इन 400 सालों में रचित साहित्य की चर्चा गुजराती और राजस्थानी साहित्य के इतिहासों में समान रूप से होती है । यद्यपि भाषिक दृष्टि से संवत् 1500 तक गुजराती और राजस्थानी अलग-अलग गई थीं ; तथापि सांस्कृतिक और कुछेक अंशों तक साहित्यिक परम्पराओं की दृष्टि से, उसके पश्चात् भी दोनों में काफी समानतायें मिलती हैं । इस संबंध में डा० सीटरी की डिंगल विषयक धारणा की श्रमान्यता का उल्लेख भी आवश्यक है क्योंकि अभी भी राजस्थानी के कुछ विद्वान उसको सत्य और प्रमाणिक मानते हैं; यही नहीं उन्होंने राठोड़ पृथ्वीराज कृत 'वेली', 'ढोलामारू' आदि रचनाओं के पाठों में शब्दरूप भी उसी के अनुसार रखे हैं । जब कि संबंधित महत्वपूर्ण प्राचीन प्रतियों में ऐसे रूप उपलब्ध नहीं होते । इससे राजस्थानी के विकास संबंधी गलत धारणा को प्रश्रय मिलता है । डा० सीटरी ने डिंगल के दो रूप माने हैं:--1. प्राचीन डिंगल और 2. अर्वाचीन डिंगल । उन्होंने ईसा की 13वीं शती से 16वीं शती के अन्त तक की डिंगल को प्राचीन डिंगल और ईसा की 17वीं शती के प्रारम्भ से आज तक की डिंगल को प्रर्वाचीन डिंगल बताया है । उनके अनुसार इन दोनों में मुख्य भेद यह है कि प्राचीन डिंगल में जहां 'आई' और 'अउ' का प्रयोग होता है, वहां अर्वाचीन डिंगल में उनके स्थान पर क्रमशः 'ऐ' और 'श्री' का । उनकी यह धारणा नितान्त निराधार है, जिसकी सप्रमाण पुष्टि प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक ने अन्यत्र की है; साथ ही यह स्थापना भी कि पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों तक 'पुरानी राजस्थानी' या 'मारू गुर्जर' अपना पुराना स्वरूप छोड़ कर नया रूप ग्रहण कर चुकी थी । प्राचीन 'ई', 'उ' के स्थान पर नवीन रूप 'ऐ', 'श्री' इस शताब्दी में पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित हो चुके थे । विकास का यह क्रम धीरे-धीरे प्राया । 1 'डिंगल' की व्युत्पत्ति, अर्थ आदि के विषय में विभिन्न मत प्रकट किये गये हैं । 'डिंगल' को भाषा भी माना गया है और शैली भी । भाषा मानने वालों में भी मतैक्य नहीं है, किन्तु उन सबकी चर्चा यहां न कर इतना कहना ही पर्याप्त समझता हूं कि 'डिंगल' मरुभाषा या राजस्थानी का ही पर्याय है; चाहे वह साहित्यिक या बोलचाल की । राजस्थानी के छन्दशास्त्रीय तरह से भी इसकी पुष्टि की जा सकती है कि डिंगल थों से इसकी पुष्टि होती है । एक और में लिखने वालों ने उसको क्या समझा है । दो उदाहरण पर्याप्त होंगे । 1. पदम भगत ने संवत् 1545 के लगभग 'रुक्मणी मंगल' या 'हरजी रो ब्यावलो ' नामक लोककाव्य लिखा था । यह राजस्थानी के प्राचीनतम प्राख्यान काव्यों में एक है। कहने Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 की आवश्यकता नहीं कि इसकी भाषा बोलचाल की मरुभाषा है। इसकी प्राचीनतम उपलब्ध प्रति संवत् 1669 की लिपिबद्ध है। इसमें तो नहीं पर इसके पश्चात् की लिपिबद्ध बहुत सी प्रतियों में रचना के पुष्पिका स्वरूप यह दोहा मिलता है कविता मोरी डींगली. नहीं व्याकरण ग्यान । छन्द प्रबन्ध कविता नहीं, केवल हर को ध्यान ।। यह दोहा मूल का नहीं प्रतीत होता है तथापि इतना तो स्पष्ट ही है कि इसको लिखने या रचने वाला 'व्यांवले' को 'डींगली कविता' समझता है। श्री अगरचन्दजी नाहटा ने संवत् 1669 वाली प्रति का पाठ छपवाया है। उसमें संवत 1891 की लिखी हुई एक अन्य प्रति का कुछ अतिरिक्त अंश भी दिया गया है। जिसमें उल्लिखित दोहा भी है। तात्पर्य यह है कि बोलचाल की राजस्थानी का भी दूसरा नाम 'डिंगल है। 2. चारण स्वरूपदासजी दादूपंथी ( समय-संवत् 1860-1900/1925) का 'पाण्डवयशेन्दु चन्द्रिका' काव्य प्रसिद्ध है। इसमें 16 अध्यायों में महाभारत की कथा का सारांश है। इसकी भाषा बहत ही सरल पिंगल है। इसकी भाषा के संबंध में स्वयं कलिका कथन यह है पिंगल डिंगल संस्कृत, सब समझन के काज । मिश्रित सी भाषा करी, क्षमा करहु कविराज । अर्थात् (1) डिंगल भाषा है और वह (2) 'सब समझन के काज' स्वरूप भाषा है। सबके समझने लायक भाषा तो बोलचाल की ही हो सकती है। अतः बोलचाल की मरुभाषा की गणना डिंगल के अन्तर्गत है। इस प्रकार की अनेक उक्तियों के प्राधार पर यह कहा जा सकता है कि मरुभाषा या राजस्थानी और डिंगल एक ही है। राजस्थानी साहित्य को निम्नलिखित रूपों में विभाजित कर सकते हैं:1. जैन साहित्य, 2. चारण साहित्य, लौकिक साहित्य, संतमक्ति साहित्य, तथा 5. गद्य साहित्य। प्रथम चार प्रकार की रचनाओं में प्रत्येक की एक विशिष्ट शैली लक्षित होती है, अतः प्रत्येक को उस शैली का साहित्य भी कहा जा सकता है। भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के कुछ पश्चात् और सन् 1857 (संवत् 1914) के स्वतन्त्रता-संग्राम से भी पूर्व, त्वरा से बदलती परिस्थितियों के कारण राजस्थानी कविता का स्वर भी बदलने लगा। यहां यह उल्लेखनीय है कि राजस्थान (अजमेर-मेरवाड़ा को छोड़ कर) सीधा अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत नहीं आया। यहां की विभिन्न रियासतों में वहां के परम्परागत नरेशों का ही राज्य रहा। यद्यपि अंग्रेजों की सार्वभौम सत्ता के कारण उनका प्रभुत्व सीमित हो गया था तथापि अपने-अपने अनेकशः आन्तरिक मामलों में वे स्वतन्त्र थे। अधिकांश जनता 1857 के बाद भी राजाओं के प्रति स्वामिभक्त और राजभक्त बनी रही। कालान्तर Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 में जब देश के अन्यान्य भागों में स्वराज्य और स्वतन्त्रता की आवाज उठने लगी, तो उसकी प्रतिध्वनि शनैः शनै: राजस्थान में भी सुनाई देने लगी। इस प्रकार अर्वाचीन काल में परम्परागत काव्य-धारायें तथा नवीन भावनायें और विचार साथ-साथ मिलते हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात् देश में अन्यत्न जिन भावों और विचारों की परम्परायें चलीं. उनके प्रवाह में कम-बेशी रूप में कुछ अंशों तक स्थानीय रंगत के साथ राजस्थानी साहित्य मी प्रवाहित हुआ। परन्तु अनक कारणों से इसकी गति अपेक्षाकृत बहत मन्द रही है। यहां राजस्थानी साहित्य का केवल स्थूल दिग्दर्शन ही कराया जा सकता है। राजस्थानी साहित्य के इतिहास में प्राचीनता. प्रवाह नैरन्तर्य, प्रामाणिकता तथा रचना पौर रूप विविधता की दष्टि से जैन साहित्य का महत्व सर्वोपरि है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी इन दृष्टियों से हिन्दी जैन साहित्य का विशेष महत्व है किन्तु उसकी स्वीकृति और यथोचित मूल्यांकन अभी किया जाना बाकी है। जैन साहित्य की प्रेरणा का मूल केन्द्र धर्म है और उसका मुख्य स्वर धार्मिक है । रस की दृष्टि से यह साहित्य मुख्यतः शान्तरस प्रधान है। राजस्थानी में चरित और कथानों से संबंधित प्रभूत साहित्य का निर्माण हुआ। कथाकाव्यों में विविध प्रकार के वर्णित पापों के दुष्परिणाम, पुण्य के प्रसाद तथा धर्म पालन की महत्ता जान कर जन साधारण सहज ही धर्मोन्मख होता है और तदनुकूल धर्मपालन में कटिबद्ध होता है। जैन धर्म मुलतः आध्यात्मिक है। जैन मनियों का उद्देश्य व्यक्ति को धर्म प्रेरणा देना और उसको धर्मोन्मुख करना था। 'मारू-गुर्जर' के विकास-चिन्ह 11वीं शताब्दी से दो प्रकार की अपभ्रंश रचनात्रों में मिलने लगते हैं--एक तो कवि-विशेष द्वारा रचित रचनाओं में और दूसरे जैन प्रबन्ध ग्रन्थों में उपलब्ध अपभ्रंश पद्यों में। पहले प्रकार के अन्तर्गत कवि धनपाल क्रत 15 पद्यों की छोटी सी रचना 'सच्चउरिय महावीर उत्साह तथा अन्य ऐसी कृतियों की गणना है। दूसरे के अन्तर्गत (1) प्रभावक चरित, (2) प्रबन्ध चिन्तामणि, (3) प्रबन्धकोष, (4) पुरातन प्रबन्ध 'संग्रह' (5) कुमारपाल प्रतिबोध, (6) उपदेश सप्तति आदि ग्रन्थों में प्राये पद्य पाते हैं। इन प्रबन्ध ग्रन्थों में कालक्रम की दष्टि से प्राचार्य वद्धवादी और सिद्धसेन दिवाकर के प्रबन्ध में उद्धत अपभ्रंश और 'मारू-गुर्जर' के पद्यों को अपेक्षाकृत प्राचीन माना गया है। इनमें चारणों के कहे हुये पद्य भी उपलब्ध हैं जो 12वीं से 14वीं शताब्दी तक के हैं। इस काल में दोहा और छप्पय (कवित्त)-दो छन्द बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। छप्पयों में बप्पभट्टसूरि प्रबन्ध में उद्धृत छप्पय तथा वादिदेवसूरि संबंधित छप्पय (समय लगभग 12वीं शताब्दी) सर्वाधिक प्राचीन है। 12वीं शताब्दी की रचनाओं में 'मारू-गुर्जर' का रूप और अधिक खुल कर सामने प्राने लगता है तथा उत्तरोत्तर अपभ्रंश का प्रभाव कम होता चलता है। इस शताब्दी की रचनाओं में पल्ल कवि कृत 'जिनदत्तसरि स्तति' और उनकी स्तति रूप रचनामों की गणना है। दोनों शताब्दियों की रचनाओं में अपभ्रंश का प्राधान्य है। 13वीं शताब्दी में और अधिक तथा अपेक्षाकृत बड़ी रचनायें मिलने लगती हैं। इनमें ये मुख्य हैं:--बज्रसेनसूरि द्वारा संवत् 1225 के आसपास रचित भरतेश्वर बाहुबलि घोर, शालिभद्रसूरि कृत भरतेश्वर बाहुबलि रास (संवत् 1241), बुद्धिरास, आसिगुरचित जीवदया Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 167 रास ( संवत् 1257), चन्दनबाला रास, नेमिचन्द्र भण्डारी कृत गुरु-गुणवर्णन, देल्इप कृत गयसुकुमार रास, धर्मकृत जम्बूस्वामिरास, स्थूलभद्ररास, सुभद्रासती चतुष्पदिका, जिनपतिसूरि बधावणागीत और जिनपितसूरिजी से संबंधित श्रावक कवि रयण और भत्तु रचित रचनायें; पाहण कृत आबूरास, रेवंतगिरिरास, जगडू रचित सम्यक्त्व माई चौपाई, पृथ्वीचन्द्र कृत रस विलास, अभय देवसूरि रचित जयंत विजय काव्य श्रादि आदि । इनका महत्व साहित्यिक दृष्टि से उतना नहीं है जितना प्राचीनता और भाषिक दृष्टि से है । इन दो शताब्दियों ( 12वीं 13वीं) की रचनाओं में कुछ की भाषा अपभ्रंश है जिसमें 'मारू गुर्जर' का भी यत्किचित पुट है तथा - कुछ की भाषा अपभ्रंश प्रभावित 'मारू गुर्जर' है । 14वीं शताब्दी से तो अनेकानेक रचनायें मिलती हैं जिनका नामोल्लेख भी यहां संभव नहीं है । 15 वीं शताब्दी में पौराणिक प्रसंगों के अतिरिक्त लोककथाओं को लेकर भी भाषाकाव्य लिखे जाने लगे । विकास काल की जैन रचनाओं के लिये गुर्जर रासावली, प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह, प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ, जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, प्राचीन फागु संग्रह, पन्द्रमां शतकना प्राचीन गुर्जर काव्य, रास और रासान्वयी काव्य, पन्द्रमां शतकना चार फागु काव्यों आदि ग्रन्थों में संग्रहीत कृतियां दृष्टव्य हैं । अनेक संस्थाओं और पत्न-पत्रिकाओं के माध्यम से संवत् 1500 के पश्चात् सैकड़ों जैन रचनायें प्रकाश में लाई गई हैं। इन सबका संक्षिप्त विवरण भी यहां नहीं दिया जा सकता । आगे जैन साहित्य की कतिपय प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया जा रहा है:-- 1. 'मारू गुर्जर' के प्राचीनतम रूप का पता जैन कृतियों से ही मिलता है । शताब्दी से अर्वाचीन काल तक प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण की रचनायें मिलती हैं । 2. अनेक रचना - प्रकार और काव्यरूप मिलते हैं । प्राचीनतम गद्य के नमूने भी जैन कृतियों में ही मिलते हैं । 4. रचनाओं में नीति, धर्म, सदाचरण और आध्यात्म की प्रेरणा मुख्य हैं । रसप्रधान हैं । 3. 1 3वीं शान्त 5. जैन पुराणानुसार कथा काव्य और रचित काव्यों की प्रचुर मात्रा में सृष्टि हुई है । 1. विभिन्न लोक प्रचलित कथानकों के आधार पर भी जैन धर्मानुसार काव्य सृजन किया गया है । विक्रमादित्य, भोज, अलाउद्दीन - पद्मिनि, ढोला-मारू, सदयवत्स - सावलिंगा आदि से संबंधित अनेकशः रचनायें जैन कवियों ने लिखी हैं । A. 7. लोकगीतों और लोककथाओंों की देशियों को अपना कर लोक साहित्य का संरक्षण किया है । बहुत से जैन कवियों ने प्रसिद्ध और प्राचीन लोकगीतों की देशियों की चाल पर अपनी कृतियां ढालबद्ध की हैं । इनसे अनेकशः लोकगीतों की प्राचीनता और प्रचलन का पता लगाया जा सकता है । श्री मोहनलाल दुलीचन्द देसाई ने ऐसी लगभग 2500 देशियों की सूची दी है। इस प्रकार लगभग संवत् 1100 से वर्तमान समय तक राजस्थानी साहित्य अनेक धाराओं में प्रवाहित हो रहा है। देश और काल के अनुसार कई धारायें क्षीण भी हुई; कई किंचित परिवर्तित भी हुई; अनेक लोकभूमि का जीवन रस पाकर 'नई' भी मिलीं परन्तु सामूहिक रूप में इसका सातत्य निरन्तर बना रहा । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी पद्य साहित्यकार 2 -श्री अगरचन्द नाहटा 11वीं शताब्दी की अपभ्रंश रचनाओं में राजस्थानी भाषा के विकास के चिह्न मिलने लगते हैं। कवि धनपाल रचित 'सच्चउरिय महावीर उत्साह ऐसी ही एक रचना है। इसमें केवल 15 पद्य हैं लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से यह अत्यधिक महत्वपूर्ण कृति है। 12वीं शताब्दी में रचित पल्ह कवि की जिनदत्तसूरि स्तुति 10 छप्पय छन्दों की रचना है, इसकी भाषा अपभ्रंश प्रधान है। इसी प्रकार जिनदत्तसूरिजी की स्तुति रूप कई और छप्पय जैसलमेर के ताडपत्रीय भण्डार में संग्रहीत हैं। 13वीं शताब्दी में नागौर में होने वाले देवसूरि नामक विद्वान् आचार्य द्वारा अपने गुरु मुनिचन्द्रसूरि की स्तुति रूप में 25 पद्य अपभ्रंश में रचे हुये मिलते हैं। इन वादिदेवसरि को नमस्कार करके वज्रसेनसूरि ने 'भरतेश्वर बाहुबलि घोर' नामक 45 पद्यों की राजस्थानी कृति निबद्ध की थी। इसमें भगवान् ऋषभदेव के पुत्र भरत और उनके भ्राता बाहुबलि के युद्ध का वर्णन है। शालिभद्रसूरि कृत 'भरतेश्वर बाहुबलि रास' राजस्थानी भाषा की संवतोल्लेख वाली प्रथम रचना है। इसमें 203 पद्य हैं। इन्हीं की दूसरी रचना 'बुद्धिरास' है जो 63 पद्यों में पूर्ण होती है। कवि असगु ने संवत् 1257 में जीवदयारास सहजिगपुर के पार्श्वनाथ जिनालय में निबद्ध किया था। कवि जालौर का निवासी था। जैसलमेर के वहद् ज्ञान भण्डार में संग्रहीत संवत् 1437 में लिखित स्वाध्याय पुस्तिका में एवं 'चन्दनबाला रास' भी उल्लेखनीय है। संवतोल्लेख वाली एक रचना 'जम्बूसामिरास' है जिसे महेन्द्रसूरि के शिष्य धर्म ने संवत् 1266 में बनायी थी। 41 पद्यों की इस रचना में भगवान महावीर के प्रशिष्य जम्बूस्वामी का चरित्न वर्णित है। इन्हीं की दूसरी कृति 'सुभद्रासती चतुष्पादिका' है जो 42 पद्यों की है। 13वीं शताब्दी की अन्य रचनाओं में 'पाबूरास' (संवत् 1289) एवं रेवंतगिरिरास के नाम उल्लेखनीय हैं। 14वीं शताब्दी: संवत् 1307 में भीमपल्ली (भीलडिया) के महावीर जिनालय की प्रतिष्ठा के समय अभयतिलकगणि ने 21 पद्यों का 'महावीर रास' बनाया। इन्हीं के लघुभ्राता लक्ष्मीतिलक उपाध्याय भी संस्कृत एवं राजस्थानी के अच्छे विद्वान् थे। इन्होंने 'शांतिनाथ देव रास' नामक राजस्थानी काव्य लिखा था। वह एक ऐतिहासिक रास है जिसमें संवत् 1313 में जालोर में उदयसिंह के शासन में शांति जिनालय की प्रतिष्ठा जिनेश्वरसूरि ने की थी, उसका उल्लेख है। संवत् 1332 में जिनप्रबोधसूरि द्वारा रचित 'शालिभद्ररास' 35 पद्यों की एक सुन्दर राजस्थानी रचना है। इसमें राजगृही के समृद्धशाली सेठ शालिभद्र का चरित्र वर्णित है। रत्नसिंहसूरि के शिष्य विनयचन्द्रसूरि ने संवत् 1338 में 'बारहवत रास' लिखा जिसमें 53 पद्य हैं। संवत् 1341 में जिनप्रबोधसूरि के पट्ट पर जिनचन्द्रसूरि स्थापित हुये। उनके संबंध में हेमभूषणगणि रचित 'युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि चर्चरी' नामक 25 पद्यों की रचना मिली है। संवत् 1363 में प्रज्ञातिलक के समय में रचित 'कच्छुलीरास' की रचना कोरटा 1. भारतीय विद्या-द्वितीय वर्ष, प्रथम अंक । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जोधपुर) में हुई थी। 1. बीस विहारमान रास ' 2. श्रामक विधि रास2 समरा रासा 3. इसी तरह इस शताब्दी में रचित निम्न रचनायें और उल्लेखनीय हैं: 4. 5. पद्मावती चौपई 4 6. स्थूलभद्र फाग 7. शालिभद्र काक 8. नैमिनाथ फाग जिनकुशलसूरि पट्टाभिषेक रास 169 1. जिनोदयसूरि पट्टाभिषेक रास 2. स्थूलिभद्र फाग 1. 2. 3. भट्टारक देवसुन्दरसूरि रास 4. चिहुंगति चौपाई कवि वस्तिग गुणाकरसूरि अंबदेवरि धर्मकलश मुनि जनप्रभुसूि जिन पद्मसूरि पउम कवि पउम कवि 15वीं शताब्दी: -- इस शताब्दी में राजस्थानी साहित्य में एक नया मोड़ आता है । इस शती की प्रारम्भ की कुछ रचनाओं में अपभ्रंश का प्रभाव अधिक है पर उत्तरार्ध की रचनाओं में भाषा काफी सरल पायी जाती है । बड़े-बड़े रास उसी शताब्दी में रचे जाने लगे । लोक कथाओं को लेकर राजस्थानी भाषा में काव्य लिखे जाने का प्रारम्भ भी इसी शताब्दी में हुआ । राजशेखरसूरि ने संवत् 1405 में 'प्रबन्ध कोष' की रचना की और 'नेमिनाथ फागु' नामक कृति को छन्दोबद्ध किया । संवत् 1410 में पूर्णिमागच्छ के शालिभद्रसूरि ने नादउद्री में देवचन्द्र के अनुरोध से ‘पांच पांडव रास' बनाया । इसी समय संवत् 1412 में विनयप्रभ ने 'गौतमस्वामी रास' को छन्दोबद्ध किया । इस रास ने अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की और राजस्थान के कितने ही शास्त्र भण्डारों में इसकी हजारों पाण्डुलिपियां उपलब्ध होती हैं । संवत् 1423 में रचित 'ज्ञान पंचमी चौपई' 548 पद्यों की रचना है जिसके रचियता हैं श्रावक विद्वणु । ये जिनोदयसूरि के शिष्य थे । संवत् 1432 में मेरुनन्दनगणि ने 'जिनोदयसूरि गच्छनायक विवाहलउ' की रचना की। यह काव्य छोटा होने पर भी बहुत सुन्दर है । संवत् 1455 में 'साधुहस में 222 पद्यों में 'शालिभद्र रास' का निर्माण किया । इसी समय के लगभग जयशेखरसूरि हुये जिन्होंने 'त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध' नामक 448 पद्यों का रूपक काव्य लिखा । पीपलगच्छ के हीरानन्दसूरि ने 'वस्तुपालतेजपाल रास' (सं. 1484), 'विधाविलास पवाडा' (सं. 1485), 'कलिकाल रास' ( 1495 ) की रचना की । उक्त कवियों के अतिरिक्त इस शताब्दी में और भी कितने ही कवि हुये जिन्होंने राजस्थानी में अनेक काव्यों की रचना की। इनमें से निम्न काव्य विशेषतः उल्लेखनीय हैं:-- मुनि ज्ञानकलश हलराज कवि चांप कवि वस्तो कवि जैन गुर्जर कविप्रो भाग - 2 1 प्रात्मानन्द शताब्दी स्मारक ग्रन्थ में प्रकाशित । संवत् 1368 संवत् 1371 3. प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह में प्रकाशित । 4. संवत् 1371 संवत् 1377 भैरव पद्मावती काव्य, परिशिष्ट - 10 1 संवत् 1386 संवत् 1390 14वीं 14वीं संवत् 1415 संवत् 1409 आधाटनगर संवत् 1445 / 55 पद्य 15वीं शताब्दी Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 5. सिद्धचक्र श्रीपाल रास 6. राणकपुर स्तवन 7. तीर्थमाला स्तवन 8. ऋषभ रास एवं भरत बाहुबलि पवाडा 9. नैमिनाथ नवरस फाग 10. स्थूलिभद्र कवित्त मांडण सेठ मेहा कवि महा कवि गुणरत्नसूरि संवत 1498258 पच संवत् 1499 संवत् 1499 15वीं सोमसुन्दरसूरि सोमसुन्दरसूरि 1481 1481 मध्यकाल:-- राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल काफी लम्बे (400 वर्षों) समय का है और इस काल में रचनायें भी बहुत अधिक रची गई हैं। शताधिक जैन कवि इस समय में हो गये हैं और उनमें से कई कवि ऐसे भी हैं जिन्होंने बहुत बडे परिमाण में साहित्य निर्माण किया है। इसलिये इस काल के सब जैन कवियों और उनकी रचनाओं का परिचय देना इस निबन्ध में संभव नहीं है। 16वीं शताब्दी से मध्यकाल का प्रारम्भ होता है और उस शताब्दी की रचनायें तो कम हैं, पर 17वीं मौर 18वीं शताब्दी तो राजस्थानी साहित्य का परमोत्कर्ष काल है, अतः इस समय में राजस्थानी जैन साहित्य का जितना अधिक निर्माण हमा, अन्य किसी भी शताब्दी में नहीं हुआ। 19वीं शताब्दी से साहित्य निर्माण की वह परम्परा कमजोर व क्षीण होने लगती है। उत्कृष्ट कवि भी 17वीं व 18वीं शताब्दी में ही अधिक हुये हैं। गद्य में रचनायें तो बहुत थोड़े विद्वानों ने ही लिखी हैं। बहत सी रचनायें अज्ञात कवियों की ही हैं और ज्ञात कवियों की रचनाओं में भी किन्हीं में रचनाकाल और किसी में रचना स्थान का उल्लेख नहीं मिलता है। 16वीं शताब्दी में तो रचना स्थान का उल्लेख थोड़े से कवियों ने किया है। 17वीं व 18वीं शताब्दी के अधिकांश जैन कवियों ने रचनाकाल के साथ-साथ रचना स्थान का भी उल्लेख कर दिया है। अन्त में जिन व्यक्तियों के अनुरोध से रचना की गई, उन व्यक्तियों का भी उल्लेख किसी-किसी रचना में पाया जाता है। कवियों ने अपनी गुरु परम्परा का तो उल्लेख प्रायः किया है पर अपना जन्म कब एवं कहां हुआ, माता पिता का नाम क्या था, वे किस वंश या गोत्र के थे, उनकी दीक्षा कब व कहां हुई, शिक्षा किससे प्राप्त की और जीवन में क्या क्या विशेष कार्य किये तथा स्वर्गवास कब एवं कहां हया, इन ज्ञातव्य बातों की जानकारी उनकी रचनामों से प्रायः नहीं मिलती। इसलिये साहित्यकारों की जीवनी पर अधिक प्रकाश डालना संभव नहीं। उनकी रचनाओं को ठीक से पढ़े बिना उनकी आलोचना करना भी उचित नहीं है। इसलिये प्रस्तुत निबन्ध में कवियों की संक्षिप्त जानकारी ही दी जा सकेगी। मध्यकाल की जैन रचनाओं में चरित काव्य जिस 'रास-चोपाई' प्रादि की संज्ञा दी गई है, ही अधिक रचे गये हैं। 14-15वीं शताब्दी तक के अधिकांश रास छोटे-छोटे थे। 16वी शताब्दी में भी उनका परिमाण मध्यम सा रहा, पर 17वीं व 18वीं शताब्दी में तो बहुत बडे-बडे रास रचे गये, जिनमें से कई रास तो 8-10 हजार श्लोक परिमित भी हैं। मध्यकाल में रास के स्वरूप और उसकी शैली में भी काफी परिवर्तन हो गया है। दोहा और लोकगीतों की देशियों का प्रयोग ही मध्यकाल के रासों में अधिक हमा है। किसी-किसी रास में चौपई छन्द का प्रयोग होने से उसका नाम चतुष्पदी या चौपई रखा गया है पर आगे चल कर जब वह संज्ञा चरित काव्यादि के लिये रूढ़ हो गई तो चौपई छन्द का प्रयोग न होने वाली रचनात्रों को भी चौपई के नाम 'प्रसिद्ध कर दिया। एक ही रचना को किसी ने चौपई के नाम से और किसी ने रास के नाम से संबोधित किया है अर्थात फिर रास और चौपई में कोई खास भेद नहीं रह गया और चरित काव्य के लिये इन दोनों नामों का खल कर प्रयोग होने लगा। 'वेलि' संज्ञा काव्यों का निर्माण भी 16वीं से प्रारम्भ होता है और सबसे अधिक वेलियां 17-18वीं सदी में बनाई गई हैं। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 171 सुदर्शन श्रेष्ठिरास: ___ संवतोल्लेख वाली सुदर्शन श्रेष्ठि रास या प्रबन्ध की रचना संवत् 1501 में हुई है । 225 पद्यों के इस रास के रचियता के संबंध में प्रत्यन्तरों में पाठ-भेद पाया जाता है। श्री मोहन लाल देसाई ने इसका रचयिता तपागच्छीय मनिसून्दरसूरि के शिष्य संघविमल या शुभशील माना है, पर बीकानेर के वहद ज्ञान भण्डार में जो प्रति उपलब्ध है उसमें 'तपागच्छी गुरु गौतम सभायें मां श्री मुनिसुन्दरसूरि पू.' के स्थान पर 'चन्द्रगच्छी गौतम सभायें मां श्री चन्द्रप्रभसूरि' पाठ मिलता है। रास का चरित नायक सुदर्शन सेठ है जो अपने शीलधर्म की निष्ठा के कारण बहुत ही प्रसिद्ध है। कविवर देपाल:-- इस शताब्दी के प्रारम्भ में देपाल नामक एक उल्लेखनीय सुकवि हमा है। 17वीं शताब्दी के कवि ऋषभदास ने अपने से पूर्ववर्ती प्रसिद्ध कवियों में इसका उल्लेख किया है। 'कोचर व्यवहारी रास' के अनुसार यह कवि दिल्ली के प्रसिद्ध देसलहरा, साह समरा और सारंग का माश्रित था। देपाल कवि की रचनाओं में तत्कालीन अनेक रचना-प्रकारों का उपयोग हा है। रास, सूड, चौपई, धवल, विवाहला, मास, गीत, कडावा एवं पूजा संज्ञक रचनायें मिलती हैं जिनकी संख्या 18 है। संघकलश:-- 16वीं शताब्दी की जिन रचनाओं में रचना स्थान, राजस्थान के किसी ग्राम या नगर का उल्लेख हो ऐसी सर्व प्रथम रचना 'सम्यकत्वरास' है। यह मारवाड़ के तलवाडा गांव में संवत् 1505 मंगसिर महिने में रची गयी थी। संवत 1538 की लिखी हई उसकी प्रति पाटण भण्डार में है। रास के प्रारम्भ में कवि ने तलवाडा में 4 जैन मन्दिर व होने का उल्लेख किया है :-- तब कोई मारवाड कहीजई. तलवाडों तेह माह गणीजई, जाणी जे सचराचरी। तिहां श्री विमल, वीर, शांति पास जिन सासणधीर, ए धारइ जिणवर नमई । ऋषिवर्द्धन सूरि: रचना स्थान के उल्लेख वाली कृतियों में अंचलगच्छीय जयकीर्ति सूरि शिष्य ऋषिवर्द्धन सूरि का 'नल दमयन्ती रास' उल्लेखनीय है। 331 पद्यों के इस रास की रचना संवत् 1512 में चित्तौड़ में हुई। नल दमयन्ती की प्रसिद्ध कथा को इस रास में संक्षेप में पर बहुत सुन्दर ढंग से व्यक्त की है। प्रारम्भ और अन्त के पद्य इस प्रकार हैं: सकल संघ सुह शांतिकर, प्रणमीय शांति जिनेसु । दान शील तप भावना, पुण्य प्रभाव भणेसू ॥ सुणता सुपुरिष बर चरिय, बाघइ पुण्य पवित । दवयंती नलराय नु, निसुण चारु चरित ॥ अंत-संवत् पनर बारोतर वरसे, चित्रकूट गिरि नयर सुवासे, श्री संघादर घणई। एह चरित जेह भणई भणावई, ऋद्धि वृद्धि सुख उच्छवावई, नितु नितु मन्दिर तस तणई ए। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिशेखरः- 172 इसके पश्चात् उपकेशगच्छीय मतिशेखर सुकवि हो गये हैं । इस कवि की कई रचनायें प्राप्त होती हैं । यद्यपि उनमें रचना स्थान का उल्लेख नहीं है पर उपकेशगच्छ मारवाड़ के ओसिया गांव के नाम से प्रसिद्ध हुआ और उसका प्रचार प्रभाव भी राजस्थान में अधिक रहा, इसलिये मतिशेखर की रचनायें राजस्थान में ही रची गई होंगी । इनके रचित 1. धन्नारास, संवत् 1514 पद्य 328; 2. मयणरेहा रास, संवत् 1537, गाथा 347 और 3. बावनी प्राप्त है । इनके अतिरिक्त 4. नैमिनाथ बसंत फुलडा फाग, गाथा 108; 5. कुरगडू महर्षि रास संवत् 1536, 6. इलापुत्र चरित्र, गाथा 165 और 7 मतिशेखर वाचक पद से विभूषित कवि थे । नेमिगीत है । रत्नचूड रास: रत्नचूड रास नामक एक और चरित काव्य इसी समय का प्राप्त है पर उसमें रचना स्थान का उल्लेख नहीं है और विभिन्न प्रतियों में रचना काल और रचयिता संबंधी पाठ भेद पाया जाता है । इसी तरह की और भी कई रचनायें हैं जिनका यहां उल्लेख नहीं किया जा रहा है । श्राज्ञासुन्दर : संवत् 1516 में जिनवर्द्धनसूरि के शिष्य श्राज्ञासुन्दर उपाध्याय रचित 'विद्या विलास चरित्र चौपई' 363 पद्यों की प्राप्त 1 विवाहले : प्राचार्य कीर्तिरत्नसूर की जीवनी के सम्बन्ध में उनके शिष्य कल्याणचन्द्र ने 54 पद्यों 'श्री कीर्तिरत्नसूरि विवाहलउ' की रचना की । यह ऐतिहासिक कृति है। इसमें कीर्तिरत्नसूरि के जन्म से स्वर्गवास तक का संवतोल्लेख सहित वृत्तांत दिया गया है। इसी तरह का एक और भी विवाहल कीर्तिरत्नसूरि के शिष्य गुणरत्नसूरि के संबंध में पद्यमन्दिर गणि रचित प्राप्त हुआ है । कवि पुण्य नदि : पुण्यनन्दि ने राजस्थानी में 32 पद्यों में 'रूपकमाला' की रचना की इस परः संस्कृत में भी टीकायें लिखा जाना विशेष रूप से उल्लेखनीय है । संवत् 1582 में रत्मरंग उपाध्याय ने इस पर बालावबोध नामक भाषा टीका बनायी और सुप्रसिद्ध कवि समयसुन्दर ने संवत् 1663 में संस्कृत में चूर्णि लिखी । राजशील : खरतरगच्छ के साधु हर्ष शिष्य राजशील उपाध्याय ने चित्तौड में संवत् 1563 में 'विक्रम'चरित्र चौपई' की रचना की। इसमें खापरा चोर का प्रसंग वर्णित है । स्थान का उल्लेख इस प्रकार किया है :-- रचनाकाल और पनरसइ त्रिसठी सुविचारी, जेठमासि उज्जल पाखि सारी । चित्रकूट गढ तास मझारि, भणतां भवियण जयजयकारि । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचक धर्मसमुद्र : - धर्मसमुद्र वाचक विवेकसिंह के शिष्य थे। इन्होंने 'सुमित्र कुमार रास' संवत् 1567 में जालौर में 337 पद्यों में बनाया था। दानधर्म के महात्म्य पर इस चरित्र काव्य की रचना हुई। 'कुलध्वज कुमार रास' को कवि ने 1584 में समाप्त किया। इसमें 143 पद्य हैं। कवि ने मेवाड के धजिलाणापुर में संवत् 1573 में श्रीमल साह के आग्रह से एक कल्पित कथा 'गुणाकर चौपई' की रचना की। इसमें 530 पद्य हैं। कवि ने 104 पद्यों में 'शकुन्तला रास' का निर्माण किया। इनके अतिरिक्त सुदर्शनरास, सुकमाल सज्झाय मादि और भी कितनी ही लघु रचनाएं मिलती हैं। सहजसुन्दर : ... उपाध्याय रत्नसमुद्र के शिष्य कवि सहजसुन्दर भी इसी शताब्दी के कवि थे। संवत् 1570 से संवत् 1596 तक इनकी 10-रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं। इनके इलाती पुत्र सज्झाय, गुणरलाकर छन्द (सं. 1572), ऋषिदत्तारास, आत्मराग रास, परदेशी राजा रास का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है । भक्तिलाभ व उनके शिष्य चारुचन्द्र : खरतरगच्छ के प्रसिद्ध विद्वान उपाध्याय जयसागर के प्रशिष्य भक्तिलाभ उपाध्याय भी अच्छे विद्वान हो गये हैं। जिनकी कल्पान्तरवाच्य, बाल-शिक्षा आदि संस्कृत रचनाओं के 'अतिरिक्त 'लघु जातक' नामक ज्योतिष ग्रन्थ की भाषा टीका संवत् 1571 बीकानेर में रचित प्राप्त है। यह राजस्थानी के अच्छे कषि भी थे, यद्यपि इनकी कोई बडी रचना नहीं मिली पर सीमंधर स्तवन, वरकाणा स्तवन, जीरावली स्तवन, रोहिणी स्तवन आदि कई स्तवन प्राप्त हैं। इनमें सीमंधर स्तवन का तो काफी प्रचार रहा है। भक्तिलाभ के शिष्य चारुचन्द्र रचित उत्तमकुमार चरित्र की स्वयं लिखित प्रति हमारे संग्रह में है जो संवत् 1572 बीकानेर में लिखी गई है। पार्श्वचन्द्र सूरि : __इस शताब्दी के अन्त में और उल्लेखनीय राजस्थानी जैन कवि पाश्वंचन्द्र सूरि हैं । इनके नाम से पार्श्वचन्द्र गच्छ प्रसिद्ध हुआ। बीकानेर में इस गच्छ की श्रीपूज्य गद्दी है । 'नागौर में भी गच्छ का प्रसिद्ध उपाश्रय है। पार्श्वचन्द्र का जन्म सिरोही राज्य के हमीरपुर के पोरवाड वेलगसाह की पत्नी विमलादे की कुक्षि से सं. 15 37 में हुआ था। 9 वर्ष की छोटी आयु में ही उन्होंने मुनि दीक्षा स्वीकार की और जल्दी ही पढ-लिख कर विद्वान बन गये, इसलिये केवल 17 वर्ष की आय में उपाध्याय पद और 28 वर्ष की आय में प्राचार्य पद प्राप्त किया। संवत् 1612 में जोधपुर में इनका स्वर्गवास हा। गद्य और पद्य में इनकी छोटी बड़ी शताधिक • रचनायें मिलती हैं। पार्श्वचन्द्र सूरि की अधिकांश रचनायें सैद्धान्तिक विषया संबंधी हैं । इसलिये काव्य की दष्टि से, रचनायें संख्या में अधिक होने पर भी. उतनी उल्लेखनीयन इनकी बालावबोध संज्ञक भाषा टीकायें तत्कालीन राजस्थानी गद्य के स्वरूप को जानने के लिये महत्व की हैं। 'अंग सूत्रों पर सबसे पहले भाषा टीकायें इन्हीं की मिलती हैं। विजयदेवसूरि : इनके प्रगुरु पुंजराज के शिष्य विजयदेवसूरि का 'शीलरास' काव्य की दृष्टि से भी (छोटा होने पर भी) महत्व का है और उसका प्रचार इतना अधिक रहा है कि पचासौं हस्तलिखित Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 प्रतियां प्राप्त हैं; यद्यपि उसमें रचनाकाल का उल्लेख नहीं है, पर संवत् 1611 की लिखी हुई प्रति प्राप्त है। पार्श्वचन्द्रसूरि के पट्टधर समरचन्द्र को प्राचार्य पद संवत् 1604 में मिला था और उससे पहले ही विजयदेवसरि का स्वर्गवास हो गया इसलिये इस रचना को 16वीं शताब्दी के अन्त की ही मानी जा सकती है। इस रास की रचना जालौर में हुई थी। 80 पद्यों का यह राम प्रकाशित भी हो चुका है। 'वीसलदेव रास' की तरह इसका छन्द काफी बड़ा है। इसलिये 80 पद्यों का श्लोक परिमाण 270 पद्यों का हो जाता है। शील के महात्म्य का बड़े सुन्दर ढंग से और सरल भाषा में कवि ने निरूपण किया है, इसीलिये वह इतना लोकप्रिय हो सका। वाचक विनयसमुद्र : इस शताब्दी के अन्तिम कवि जिनकी सं. 1611 तक की रचना प्राप्त है, वाचक विनयसमुद्र हुए हैं जो उपकेश गच्छ के वाचक हर्षसमुद्र के शिष्य थे। बीकानेर में रची हुई इनकी कई रचनायें प्राप्त हैं। एक जोधपुर और एक तिवरी में भी रची गई। संवत् 1583 से 1614 तक में रची हई इनकी करीब 25 रचनायें प्राप्त हुई हैं, जिनमें से 20 का विवरण राजस्थान भारती, भाग 5, अंक 1 में प्रकाशित 'वाचक विनयसमुद्र' लेख में दिया गया है। 17वीं शताब्दी: मालदेव : वाचक मालदेव प्राचार्य भानदेवसरि के शिष्य थे। संस्कृत, प्राकृत रचनाओं के प्रतिरिक्त, कवि ने राजस्थानी भाषा में कितनी ही रचनायें लिखीं। इनके द्वारा रचित 'पुरन्दर चौपई' का तो विशेष प्रचार है। विक्रम और भोज को लेकर उन्होंने बड़े-बड़े राजस्थानी काव्य लिखे हैं। कवि की पुरन्दर चौपई, सूरसुन्दर चौपई, भोज प्रबन्ध, विक्रम पंचदण्ड चौपई, अंजना सुन्दरी चौपई, पदमावती पदमश्री रास, आदि 20 से भी अधिक रचनायें उपलब्ध हैं। पुण्यसागर : महोपाध्याय पुण्यसागर ने सुबाहुसंधि की रचना संवत् 1694 में जैसलमेर में की थी। इसमें 89 पद्य हैं। इसके अतिरिक्त साध वन्दना, नमि राजर्षिगीत आदि और भी कितनी ही रचनायें मिलती हैं। इनके अनेक शिष्य, प्रशिष्य थे और वे सभी राजस्थानी के अच्छे विदान थे। इनके शिष्य पदमराज ने अभयकुमार चौपई (सं. 1650), क्षुल्लक ऋषि प्रबन्ध (सं. 1667), सनत्कुमार रास (1669) की रचना की थी। पुण्यसागर के प्रशिष्य परमानन्द ने देवराज वच्छराज चौपई (सं. 1675) की रचना की थी। साधुकीर्ति : जैसलमेर वृहद् ज्ञान भण्डार के संस्थापक जिनभद्रसूरि की परम्परा में अमरमाणिक्य के शिष्य उपाध्याय साधुकीत्ति राजस्थानी के अच्छे विद्वान थे। विशेष नाममाला, संघपट्टकवृत्ति, भक्तामर अवचरि आदि संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त मापने राजस्थानी गद्य-पद्य में अनेक रचनायें की हैं। आपकी सर्वप्रथम रचना सप्तस्मरण बालावबोध संवत 1611 की है। उसके पश्चात् दिल्ली, अलवर, नागौर आदि नगरों में इन्होंने और भी रचनायें लिखीं।। इनके गुरुभ्राता कनकसोम भी अच्छे कवि थे, जिनकी जैतपदवेलि (सं. 1625), जिनपालित जिनरक्षित रास (1632), आषाढभूति धमाल (1638), हरिकेशी संधि Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 (1640), प्रार्द्रकुमार धमाल (1644), नेमिफाग आदि कितनी ही रचनायें उपलब्ध होती कुशललाभ : कुशललाभ खरतरगच्छीय अभयधर्म के शिष्य थे। ढोला-मारू और माघवानल कामकन्दला चौपई पापकी लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध रचनायें हैं। जैसलमेर के रावल मालदेव के कवर हरराज के कौतुहल के लिये इन दोनों लोककथाओं संबंधी राजस्थानी काव्यों की रचना संवत 1816 एवं 1617 में की थी। इनके अतिरिक्त तेजसार रास, अगडदत्त रास जैसी और भी रचनायें उपलब्ध होती हैं। कविवर हीरकलश :-- बीकानेर और नागौर प्रदेश में समान रूप से बिराजने वाले इस कवि ने राजस्थानी भाषा में 'हीरकलश जोइस हीर' नामक महत्वपूर्ण रचना संवत् 1657 में समाप्त की थी। प्रस्तुत कृति भाषा की दृष्टि से भी उल्लेखनीय है। कुमति विध्वसन (सं. 1617), सम्यक्त्वकौमुदी रास, अठारह नाता, आराधना चौपई, मोती कपासिया सम्वाद, रतनचूड चौपई, हीयाली प्रादि और भी कितनी ही इनकी रचनायें उपलब्ध होती हैं। संवत् 1615 से लेकर संवत् 1657 तक आपकी करीब 40 रचनायें प्राप्त हुई हैं। महोपाध्याय समयसुन्दर : राजस्थानी साहित्य के सबसे बड़े गीतकार एवं कवि के रूप में महोपाध्याय समयसुन्दर का नाम उल्लेखनीय है। संवत् 1641 से 1708 तक 60 वर्षों में आपका साहित्य-रचना का दीर्घकाल है। 'राजा नो ददते सौख्यम' इन आठ अक्षरों के वाक्य के आपने 10 लाख से भी अधिक अर्थ करके सम्राट अकबर और समस्त सभा को आश्चर्य चकित कर दिया था। 'सीताराम चौपई' नामक राजस्थानी जैन रामायण की एक ढाल आपने सांचौर में बनायी थी। राजस्थानी गद्य-पद्य में आपकी सैकडों रचनायें उपलब्ध होती हैं, जिनमें 563 रचनायें 'समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि' में प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्बप्रद्युम्न चौपई, मृगावती रास (1668), प्रियमेलक रास (1672), शवजय रास, स्थूलिभद्र रास आदि रचनाओं के नाम उल्लेखनीय हैं। आपका शिष्य परिवार भी विशाल था और जिसकी परम्परा अभी तक उपलब्ध है। उक्त कवियों के अतिरिक्त विमलकीर्ति, नयरंग, जयनिधान, वाचक गणरत्न, चारित्नसिंह, धर्मरत्न, धर्मप्रमोद, कल्याणदेव, वीरविजय, हेमरत्नसूरि, सारंग, उपाध्याय जयसोम, उपाध्याय गुणविनय, उपाध्याय लब्धिकल्लोल, महोपाध्याय सहजकीर्ति, श्रीसार, विनयमेरु, वाचक सूरचन्द्र आदि कितने ही राजस्थानी कवि हये हैं जिन्होंने राजस्थानी भाषा को अपनी साहित्य सर्जना का माध्यम बना कर उसके प्रचार-प्रसार में योग दिया। सम्राट अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के अनेक शिष्य एवं प्रशिष्य थे जो राजस्थानी के अच्छे विद्वान थे। ऐसे विद्वानों में समयप्रमोद, मुनिप्रभ, समयराज उपाध्याय, हर्षवल्लभ, सुमतिकल्लोल, धर्मकीर्ति, श्रीसुन्दर, ज्ञानसुन्दर, जीवराज, जिनसिंहसूरि, जिनराजसूरि प्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं । इसी शताब्दी में होने वाले भुवनकीर्ति की संवत् 1667 से 1706 तक रचनायें मिलती हैं जिनमें भरतबाहुबलि चौपई, गजसुकुमाल चौपई, अंजनासुन्दरी रास के नाम उल्लेखनीय हैं। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 लावण्यकीर्ति खरतरगच्छीय ज्ञानविलास के शिष्य थे। इनकी सबसे उल्लेखनीय 'रामकृष्ण चौपई' है जो छह खण्डों में कृष्ण और बलराम के चरित्र को लेकर लिखी गई है । लाभोदय खरतरगच्छीय भवनकीर्ति के शिष्य थे। इनके द्वारा रचित 'कयवन्ना रास' महत्वपूर्ण कृति है । गुणनन्दन सागरचन्द्रसूरि शाखा के विद्वान ज्ञानप्रमोद के शिष्य थे । इनके द्वारा रचित इलापुत्र रास (सं. 1676 ) उल्लेखनीय कृति है । इनके अतिरिक्त कविवर लब्धिरत्न, देवरल महिमामेरु, लब्धिराज, कल्याणकलश, पद्मकुमार, कनककीर्ति एवं लखपत के नाम उल्लेखनीय हैं। 18वीं शताब्दी सतरहवीं शती राजस्थानी साहित्य का उत्कर्ष काल था । उसका प्रभाव 18वीं के पूवार्द्ध तक रहा, फलतः पूर्वार्द्ध में कई विशिष्ट विद्वानों एवं सुकवियों के दर्शन होते हैं जिनमें से कुछ का जन्म 17वीं में और कुछ कवियों का जन्म 17वीं के अन्त में हुआ है । ऐसे विद्वानों मैं तपागच्छ में उ. मेघविजय, विनयविजय, यशोविजय एवं खरतरगच्छ में धर्मवर्द्धन, जिनहर्ष, योगीराज आनंदघन, लक्ष्मीवल्लभ, जिनसमुद्रसूरि एवं उत्तरार्द्ध में श्रीमद्देवचन्द्र विशेष रूप से उल्लेख योग्य हैं । इनमें से मेघविजय का विहार तो राजस्थान में रहा पर उनकी काव्यादि रचनाएं संस्कृत में ही अधिक हैं । व्याकरण, काव्य, ज्योतिष, सामुद्रिक, मंत्र, छंद, न्याय आदि के आप प्रकाण्ड विद्वान थे । यशोविजय, विनयविजय का विहार गुजरात में ही अधिक. है । इनकी संस्कृत के साथ लोकभाषा की भी प्रचुर रचनायें प्राप्त हैं पर उनकी भाषा गुजराती. है । जिनहर्ष एवं देवचन्द्र दो ऐसे विद्वान हैं जिनका उत्तरकाल (जीवन) गुजरात में बीता । श्रतः आपकी पूर्ववर्ती रचनाएं राजस्थानी में और परवर्ती रचनायें गुजराती भाषा में पाई जात हैं । इस शती के दो जैन कवियों ने मातृभाषा की अनुपम सेवा की है। इनकी समस्त रचनायें लोकभाषा की ही हैं और उनका समग्र परिमाण लाख श्लोकों के बराबर है । वे हैं - जिनह और जिनसमुद्र सूरि । वैसे जयरंग, सुमतिरंग, धर्ममन्दिर, लब्धोदय, अभयसोम, लाभवर्द्धन, कुशलधीर, अमरविजय, विनयचन्द, आनन्दघन, लक्ष्मीवल्लभ, श्रमविजय आदि पचासों कवियों ने राजस्थानी साहित्य के भण्डार को भरा है । कविवर जिनहर्ष आपका नाम जसराज था और दीक्षित अवस्था का नाम जिनहर्ष है । श्रापकी गुरु परम्परा खरतरगच्छ के प्रकट प्रभावी दादा श्री जिनकुशलसूरि के प्रशिष्य क्षेमकीर्ति क्षेम शाखा से संबंधित है एवं परवर्ती परम्परा में बीकानेर के श्री पूज्य जिनविजयेन्द्र सूरि एक दशक पूर्व विद्यमान थे । आपकी सर्वप्रथम रचना सं. 1704 की उपलब्ध होने से जन्म सं. 1675 के लगभग होना सम्भव है । दीक्षा जिनराजसूरि के हाथ से सं. 1690 के लगभग हुई होगी । श्रापका जन्म तो मारवाड में ही होना सुनिश्चित है, क्योंकि सं. 1704 से 1735 तक की रचनायें भी आपकी मारवाड प्रदेश में ही रचित हैं । श्रापके बड़े-बड़े ग्रन्थों की सूची इस प्रकार चन्दनमलयागिरी चौ., सं. 1704; विद्याविलास रास, सं. 1711 सरसा; मंगलकलश चौ., सं. 1714; मत्स्योदर रास, सं. 1718 बाहडमेर; शीलनववाड सम्यक्, सं. 1729; नंदबहत्तरी, सं. 1714; गजसुकुमाल चौ., सं. 1714; जिनप्रतिमा हुण्डी रास, सं. 1725; कुसुमश्री रास, सं. 1719, मृगापुत्र चौ., सं. 1714 सत्यपुर; मातृका बावनी, सं. 1730, ज्ञातासूत सज्झाय, सं. 1736 पाटण; समकित सतमी, सं. 1786; सुकराज रास, सं. 1736 पाटण; Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 197 श्रीपाल रास, सं. 1740; रत्नसिंह रास, सं. 1741; श्रीपाल रास संक्षिप्त सं. 1742; अवंती सुकुमाल रास, सं. 1741 राजनगर; उत्तमकुमार रास सं. 1745 पाटण; कुमारप ल रास सं. 1742 पाटण; अमरदत्त मित्रानन्द रास सं. 1749 पाटण; चन्दन मलयागिरी चौपाई सं. 1744 पाटण; हरिश्चन्द्र रास सं. 1744 पाटण ; हरिबलमच्छी रास सं. 174 ; सुदर्शन सेठ रास सं. 1744/अजितसेन कनकावती रास सं. 1751; गणावली रास सं. 1751; महाबल मलयासुन्दरी रास सं. 1751; शव जय महात्म्य रास सं. 1755: सत्यविजय निर्वाण रास सं. 1756; रत्नचड रास सं. 175% अभयकुमार राय , विभाजन रास सं. 1758; रत्नसार रास सं. 1759; क्यरस्वामी रास सं. 1. सारण; जम्बूस्वामी रास सं. 1760 पाटण; आलिभद्र सहाय सं. 1760 पाटण ; नर्मदासादरीसज्झाय सं. 1710 पाटण; पारामसोभा रास. 1761 पाटण; वसुदेव रास सं. 1762 पाटण ; जसराज बाबनी सं. 1738 पाटण; मेघकुमार चौढालिया पाटण; यशोधर रास सं. 1747 पाटण; श्रीमती रास सं. 1761 पाटण; कनकावती राख., उपमिति भवप्रपंचारास सं. 1745%; ऋषिदत्त रास सं. 174 पाटण; शीलवती रास सं. 1758; रत्नेश्वर रत्नावती रास सं. 1759; चौबीसी (हिन्दी) सं. 1738; वीशी सं. 1745; दस वैकालिक दस गीत सं. 1737; दोहा संग्रह, चौबोली कथा आदि; विविध स्तवन सल्झाय आदि; राजसिंह चरित चौ. सं. 1708; उपदेश छत्तीसी सवैया (हिन्दी) सं. 17133; सर्वया 393; वीसी सं. 1727,गाथा 144;आहार दोष छत्तीसी सं. 1773 गाथा 36; वैराग्य छत्तीसी सं. 1727, गाथा 36; आदिनाथ स्तवन सं. 17383; सम्मेतसिखर यात्रा स्तवन सं. 1744; अभरसेन वयरसेन रास सं. 1744; दीवाली कल्पबालावबोध, सं. 1751: शतं जय यात्रास्तवन सं. 1759; कलावती रास सं. 1759%; पूजा पंचाशिका बालावबोध सं. 1703नेमि चरित्र (शीलोपदेशमाला-शीलतांत्रिक बोध) । जिनसमुद्रसूरि: आपका जन्म श्री श्रीमाल जातीय शाह हरराज की भार्या लखमादेवी की कुक्षि से हुआ । आपका जन्म स्थान एवं संवत् अभी तक अज्ञात है। जैसलमेर भण्डार की एक पट्टावली में लिखा है, कि पागने 31 वर्ष साधु पद पाला, और सं. .713 में प्राचार्य पद प्राप्त किया। आपके गुरु श्री जिनचन्द्ररि थे। आपकी साध अवस्था का नाम महिमसमद्र था जो कि आपकी अनेक रचनायों में पाया जाता है। आपकी रचनायों से पता चलता है कि पापका विहार जैसलमेर के निकटवर्ती सिन्ध प्राप्त एवं जोधपुर राज्य में ही विशेष तौर से हुआ था। सं. 1713 में बेगड़ गच्छ के प्राचार्य जिनचन्द्रसूरि का स्वर्गवास होने पर आपको इनके पट्टधर के रूप में माचार्य पद प्राप्त हमा। सं. 174 को कार्तिक सुदी 15 को वर्द्धनपुर में आप स्वर्ग सिधारे। आपकी सर्वप्रथम रचना नेमिनाथ फागसं. 162की रचना है तथा अन्तिम कृति सर्वार्थसिद्धि मणिमाला है जो संवत 1740 में पूर्ण हई थी। इसके अतिरिक्त 25 रचनायें और हैं जिनमें वसुदेव चौपई, ऋषिदत्ता चौपई, रुक्मणि चरित्र, गणसुन्दर चौपई, प्रवचन रचनावलि, मनोरथमाला बावना के नाम उल्लेखनीय हैं। महोपाध्याय लब्धोदयः ये जिनमाणिग्यसुरि शाखा के विद्वान् एवं जिनरंगनुरि की गद्दी के प्राज्ञावर्ती थे । कवि की प्रथम रचना पदिमनी चरित्र चौपई की रचना संवत 1706 उदयपुर में हई थी। इसके बाद की सभी रचनायें उदयपुर, गोगुन्दा, एवं धुलेवा में रचित है। कवि की अन्य उपलब्ध रचनायों में रत्न चड मणिचूड चीपई, मलयसुन्दरी चौपई, गणावली चौपई है। सभी रचनायें भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। कवि अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् सन्त थे। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 जयरंग (जैतसी): आपका जन्म नाम जैतसी व दीक्षा का नाम जयरंग था। संवत् 1700 से 1739 तक की आपकी रचनायें मिलती हैं। उनमें अमरसेन वयरसन चौपई, दशवकालिक गीत (1707), कयवन्नारास (1721) आदि के नाम प्रमुख हैं। योगीराज प्रानन्दधन:-- आपका मल नाम लाभानन्द था। आनन्दधन की रचनायें अनभति प्रधान हैं। ये मेड़ते में काफी रहे थे। आपके अधिकांश पद प्राध्यात्मिक परक हैं। उक्त कवियों के अतिरिक्त अभयसोम, महिमोदय, सुमतिरंग, लाभवर्द्धन, राजलाभ, धर्ममन्दिर, उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ, कमलहर्ष, महोपाध्याय धर्मवर्द्धन, कुशलधीर, यशोवर्द्धन, विनयचन्द्र के नाम उल्लेखनीय हैं । कुछ कवियों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है: लब्धिविजय के शिष्य महिमोदय ने संवत 1722 में श्रीपाल रास की रचना की। सुकवि सुमति रंग ने कितने ही आध्यात्मिक ग्रंथों का राजस्थानी में अनुवाद किया। आपकी प्रमुख रचनाओं में ज्ञानकला चौपई, योगशास्त्र चौपई. हरिकैसी संधि, चौबीसजिन सवैय्या आदि उल्लेखनीय हैं। __ लाभवर्द्धन कविवर जिनहर्ष के गुरुभ्राता थे। जन्म नाम बालचन्द था। आप अच्छे कवि थे। अब तक इनकी 11 रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं। जिनमें लीलावती रास (सं. 1728) विक्रम पंचदण्ड चौपई (सं. 1733) 'पापबद्धि चौपई आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन्हीं के समान कविवर राजलाभ, धर्ममन्दिर, उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ की साहित्यक सेवायें उल्लेखनीय हैं । महोपाध्याय धर्मवर्द्धन राजस्थानी भाषा के उत्कृष्ट कवियों में से है। जन्म नाम धर्मसी था। आप राजमान्य कवि थे। महाराजा सुजाणसिंह के दिये पत्रों में आपको सादर वंदना लिखी है। श्रेणिक चौपई (1719); अमरसेन वयरसैन चौपई (1724); सुरसुन्दरी रास (1736); शील रास आदि आपकी उल्लेखनीय रचनायें हैं। कुशलधीर वाचक कल्याणलाभ के शिष्य थे। कवि के साथ भाषा टीकाकार भी थे। सं. 1696 में कृष्णवेलि का बालावबोध भावसिंह के आग्रह से लिखा था। शीलवती रास (1722), लीलावती रास (1728), भोज चौपई आदि आपकी प्रमुख रचनायें हैं। यशोवर्द्धन रत्नवल्लभ के शिष्य थे। इनके रत्नहास रास, चन्दनमलयगिरी रास, जम्बूस्वामी रास एवं विद्याविलास रास प्राप्त होते हैं। कविवर विनयचन्द्र महोपाध्याय समयसुन्दर की परम्परा में ज्ञानतिलक के शिष्य थे। आपकी उत्तमकुमार रास, बीसी, चौबीसी, एवं एकादस अंग सज्झाय (1755) तथा शत्रं जय रास (1755) रचनायें मिलती हैं। इसी तरह लक्ष्मीविनय, श्रीमद् देवचन्द्र एवं अमरविजय भी राजस्थानी भाषा के अच्छे कवि थे । अमर विजय की अब तक 25 रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं। जिनमें भावपच्चीसी (1761), मेघकूमार चौढालिया (1774); सूकूमाल चौपई, सुदर्शन चौपई, अक्षरबत्तीसी, उपदेश बत्तीसी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। . __रामविजय दयासिंह के शिष्य थे। आपका जन्म नाम रूपचन्द था। आपकी गद्यपद्य दोनों में रचनायें मिलती हैं। राजस्थानी पद्य रचनाओं में चित्रसेन पद्यावती चौपई, नेमिनाथरासो, प्रोसवाल रास, आबू स्तवन आदि के नाम प्रमुख रूप से लिये जा सकते हैं । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 179 सुकवि रुघपति खरतरगच्छाचार्य जिनसुखसूरि के शिष्य विद्यानिधान के शिष्य थे । प्रापकी समस्त रचनायें राजस्थानी भाषा में हैं। संवत् 1788 से 1848 तक आपका साहित्य निर्माण काल है। नंदिषेण चौपई, श्रीपाल चौपई, रत्नपाल चौपई, सुभद्रा चौपई, छप्पय, बावनी, उपदेश बत्तीसी एवं उपदेश रसाल बत्तीसी के नाम उल्लेखनीय हैं। इस शताब्दी के अन्य कवियों में भुवनसेन (1701), सुमतिवल्लभ ( 1720),श्रीसोम (1725), कनकनिधान, मतिकुशल (1722), रामचन्द्र (1711), विनयलाभ (1748), कूशलसागर, (1736), जिनरत्नसरि (1700-11), क्षेमहर्ष (1704), राजहषं, राजसार, दयासार, जिनसुन्दरसूरि, जिनरंगसूरि (1731), लब्धिसागर (1770), जिनवर्द्धनसूरि (1710), जयसोम (1703), विद्यारुचि और लब्धिरुचि, मानसागर (1724-59), उदयविजय, सुखसागर, जैसे पचासों कवि हुये जिन्होंने राजस्थानी भाषा की अपूर्व सेवा की । 19वीं शताब्दी:-- ___17वीं शताब्दी के स्वर्णयुग की साहित्य धारा 18वीं शताब्दी तक ठीक से चलती रहने पर 19वीं शताब्दी से उसकी गति मन्द पड़ गई। यद्यपि 5-7 कवि इस शताब्दी में भी महत्वपूर्ण हुये हैं पर इन्हें परवर्ती कवियों की टक्कर में नहीं रखा जा सकता । रचनाओं की विशालता, विविधता और गुणवत्ता सभी दृष्टियों से 19वीं शताब्दी को अवनत काल कहा जा सकता है। इस शताब्दि में होने वाले प्रमुख, कवियों में आलमचन्द, रत्नविमल, ज्ञानसार, लाभचन्द, उपाध्याय क्षमाकल्याण, मतिलाभ, खुश्यालचन्द, उदयकमल, गुणकमल, चारित्रसुन्दर, जिनलाभसूरि, शिवचन्द्र, अमरसिन्धुर, सत्यरत्न, उदयरत्न, गुमानचन्द्र, जयरंग, तत्वकुमार, गिरधरलाल, जगन्नाथ, क्षमाप्रमोद, जयचन्द, हेमविलास, ज्ञानकीर्ति, दयामेरु, अगरचन्द्र, विनयसागर के नाम उल्लेखनीय हैं। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी कवि 3 -- डा. विश्व के इतिहास में 15 - 16वीं शताब्दी वैचारिक क्रान्ति और ग्राचारगत पवित्रता की शताब्दी रही है । यूरोप में पोपवाद के विरुद्ध मार्टिन लूथर ने क्रान्ति का शंखनाद किया । भारत में पंजाब में गुरुनानक, मध्यप्रदेश में संत कबीर और दक्षिण में नामदेव आदि ने धार्मिक श्राडम्बर, बाह्याचार, जड़पूजा आदि के विरुद्ध आवाज बुलन्द कर जनमानस को शुद्ध सात्विक आन्तरिक धर्मसाधना की और प्रेरित किया। इसी कड़ी में महान् क्रान्तिकारी वीर लोंकामाह हुये जिन्होंने जैन धर्म में प्रचलित रूढ़िवादिता तथा जड़ता का उन्मूलन कर साध्वाचार की मर्यादा और संयम की कठोरता पर बल देते हुये गुणपूजा की प्रतिष्ठा की । लोकाशाह द्वारा किये गये प्रयत्नों की इसी पृष्ठभूमि में स्थानकवासी परम्परा का उद्भव, विकास और प्रसार हुआ । - डा. नरेन्द्र भानावत, (श्रीमती) शान्ता भानावत लोकाशाह के जन्मस्थान, समय और माता-पिता आदि के नाम के संबंध में विभिन्न मत हैं पर सामान्यतः यह माना जाता है कि उनका जन्म संवत् 1472 की कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को अरहटवाड़ा में हुआ । इनके पिता का नाम हेमा भाई और माता का गंगा बाई था । अहमदाबाद में इन्होंने अपना रत्न- व्यवसाय प्रारम्भ किया और थोड़े ही समय में अपनी प्रामाणिकता, श्रमशीलता और दूरदर्शिता से इस क्षेत्र चमक उठे । गुजरात के तत्कालीन बादशाह मुहम्मद ने इनकी कार्य कुशलता और विवेकशीलता से प्रभावित होकर इन्हें खजांची बना लिया। इतना सब कुछ होते हुये भी लोंकाशाह वैभव और ऐश्वर्य में नहीं उलझे । प्रारम्भ से ही तत्वशोधक थे । शास्त्रों के गहन अध्ययन और प्रतिलेखन से उनके ज्ञानचक्षु खुल गये और समाज में व्याप्त शिथिलता तथा आगमों में वर्णित आचरण का प्रभाव देख इन्हें बड़ा आघात पहुंचा । इन्होंने तप, त्याग, संयम और साधना द्वारा आत्मशुद्धि के शाश्वत सत्य को उद्घोषित करने का दृढ़ संकल्प कर लिया । तत्कालीन घोर विरोध और विषाक्त वातावरण में भी इन्होंने अपनी विचार धारा का खाकर प्रचार किया । इनके उपदेशों से प्रभावित होकर लखमसी, भाणजी, नजी आदि लोगों ने इन साथ दिया। इस प्रकार लोकाशाह के माध्यम से धार्मिक जगत में महान् क्रान्ति का सूत्रपात हुआ । 1 1. लोंकागच्छ की परम्परा का राजस्थान में भी खूब प्रचार हुआ । जालोर, सिरोही, नागौर, बीकानेर और जैतारण में लोंकागच्छ की गद्दियां प्रतिष्ठापित हो गई । कालान्तर में शाह के 100 वर्षों बाद यह गच्छ मुख्यतः तीन शाखाओं में बंट गया — गुजराती लोंका, गौरी लोंका, और लाहोरी उत्तराधी लोंका तथा धीरे-धीरे धार्मिक क्रान्ति की ज्योति मंद ड़ने लगी । क्रिया में शिथिलता आने के कारण परिग्रह का प्रादुर्भाव होने लगा । फलतः कान्ति शिखा को पुनः प्रज्वलित करने के लिये कुछ ग्रात्मार्थी साधक क्रियोद्धारक के रूप में रामने आये । इनमें मुख्य थे पूज्य श्री जीवराज जी, धर्मसिंह जी, लवजी, धर्मदासजी और देखिये- धर्मवीर लोकाशाह : मरुधर केसरी श्री मिश्रीमलजी म. । 180 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिदास जी महाराज । राजस्थान में जिस स्थानकवासी परम्परा का विकास हुआ है, वह इन्हीं महान् क्रियोद्धारक महापुरुषों से संबद्ध है । 1 181 लों कागच्छ और स्थानकवासी परम्परा का राजस्थान के धार्मिक जीवन, सामाजिक जागरण और साहित्यक विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है । इस परम्परा में शताधिक कवि और शास्त्रज्ञ हुये हैं जिन्होंने अपने उपदेशों और साधनामय जीवन से लोक मानस को उपकृत किया है । पर यह खेद का विषय है कि इनकी साहित्यिक निधि का अभी तक समुचित मूल्यांन नहीं हो पाया है । इसका मुख्य कारण यह रहा है कि इनका कृतित्व हस्तलिखित प्रतियों के रूप में यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है और उसके व्यवस्थित संग्रह-संरक्षण की दिशा में ठोस प्रयत्न वर्षों तक नहीं किया गया । प्राचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज साहब की प्रेरणा से प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, लाल भवन, जयपुर में इस परम्परा के साहित्य का विशाल संग्रह किया गया है । इस दिशा में मरुधरकेसरी श्री मिश्रीमलजी म. सा. एवं मुनि श्री मिश्रीमलजी 'मधुकर' ने भी विशेष प्रेरणा दी है । संग्रहीत ग्रन्थों के विषयवार सूचीकरण का कार्य अब भी नहीं है । इसके प्रभाव में शोधकर्ताओंों को भारी दिक्कत का सामना करना पड़ता है । इस दिशा में आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार ग्रन्थ सूची भाग-1 का प्रकाशन महत्वपूर्ण कदम है जिसमें 3710 रचनाओं का विवरण प्रकाशित किया गया है । ऐसे सूचीपत्र कई भागों में प्रकाशित होने पर ही यह साहित्य शोधार्थियों के सम्मुख ग्रा सकता है और तभी इसका समुचित मूल्यांकन संभव है । स्थानकवासी परम्परा की मुख्य बाईस शाखायें होने से यह 'बाइस टोला' के नाम से भी प्रसिद्ध है । सभी शाखाओं का न्यूनाधिक रूप से साहित्यिक विकास में योगदान रहा है । पर केन्द्रीय संस्थान के अभाव में सभी शाखाओंों की बिखरी हुई साहित्यिक सम्पदा साक्षात्कार करना संभव नहीं है । प्रयत्न करने पर हमें जो जानकारी प्राप्त हो सकी उसी के आधार पर यह निबन्ध प्रस्तुत किया जा रहा है । इस बात की पूरी संभावना है कि इसमें कई कवियों के नाम छूट गये हों । साहित्य के विकास में जैन मुनियों के साथ-साथ साध्वियों और उनके अनुयायी श्रावकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है और इनकी संख्या सैकड़ों में है । लोकागच्छ की परम्परा के कवियों में जसवंतजी, रूपऋषि, गणि तेजसिंह जी, केशवजी यादि प्रमुख हैं । 3 यहां प्रमुख कवियों का परिचय संत कवि, श्रावक कवि और साध्वी कवयित्रियों के प्रस्तुत किया जा रहा है । क्रम से 1. देखिये -- (अ) पट्टावली प्रबन्ध संग्रह सं. आचार्य श्री हस्तीमलजी म. । (व) जैन आचार्य चरितावली : ग्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. । सम्पादक - डा. नरेन्द्र भानावत । 2. 3. इस संबंध में " मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रंथ' में प्रकाशित मुनि कांति सागरजी का लेख "लोकाशाह की परम्परा और उसका अज्ञात साहित्य,” पृ. 214-253 तथा श्री आलमशाह खान का लेख 'लोंकागच्छ की साहित्य सेवा' पृ. 201-213 विशेष दुष्टव्य हैं । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 183 (अ) संत कवि 1. जयमल्ल:-- संत कवि आचार्य श्री जयमल्ल जी का स्थानकवासी परम्परा के कवियों में विशिष्ट स्थान है। इनका जन्म संवत् 1765, भादवा सुदी 13 को लांबिया (जोधपुर)नामक गांव में हुआ इनके पिता का नाम मोहन लाल जी समदड़िया तथा माता का नाम महिमादेवी था। संवत्। 1788 में इन्होंने प्राचार्य श्री भधर जी म.सा. के पास दीक्षा व्रत अंगीकार किया। ये साधना में वज्र की तरह कठोर थे। श्रमण जीवन में प्रवेश करते ही एकान्तर (एक दिन उपवास, एक दिन आहार) तप करने लगे। यह तपाराधना 16 वर्ष तक निरन्तर चरलती रही। अपने गुरु के प्रति इनकी असीम श्रद्धा थी। भधर जी के स्वर्ग सिधारने पर इन्होंने कभी न लेटने की प्रतिज्ञा की थी फल स्वरूप 50 वर्ष (जीवन पर्यन्त) तक ये लेट कर न सोये। संवत 1853 की वैशाख शुक्ला चतुदर्शी को नागौर में इनका स्वर्गवास हुआ। प्राचार्य जयमल्ल जी अपने समय के महान् प्राचार्य और प्रभावशाली कवि थे। सामान्य जनता से लेकर राजवर्ग तक इनका सम्पर्क था। जोधपुर नरेश अभयसिंह जी, बीकानेर नरेश गजसिंह जी, उदयपुर के महाराणा रायसिंह जी (द्वितीय) के अतिरिक्त जयपुर और जैसलमेर के तत्कालीन नरेश भी इनका बड़ा सम्मान करते थे। पोकरण के ठाकुर देवी सिंह जी चांपावत, देवगढ़ के जसवंतराय, देलवाडा के राव रघु आदि कितने ही सरदार इनके उपदेश सुनकर धर्मानरागी बने और आखेट चर्या न करने की प्रतिज्ञा की। 'सूरज प्रकाश' के रचियता यशस्वी कवि करणीदान भी इनके सम्पर्क में आये थे। मुनि श्री मिश्रीलाल जी 'मधुकर' ने बड़े परिश्रम से इनकी यत्र-तत्र बिखरी हुई रचनाओं का 'जयवाणी' नाम से संकलन किया है। इस संकलन में इनकी 71 रचनायें संकलित हैं । इम समस्त रचनाओं को विषय की दष्टि से चार खण्डों में विभक्त किया गया है-स्तुति, सज्झाय, उपदेशी पद और चरित्र। इन संकलित रचनाओं के अतिरिक्त भी इनकी और कई रचनायें विभिन्न भण्डारों में सुरक्षित हैं। हमारी दृष्टि में जो नई रचनायें हैं उनमें से कुछेक के नाम इस प्रकार हैं। 1. चन्दनबाला की सज्झाय 3. श्रीमती जी नी ढाल 5. अंजना रो रास 7. कलकली की ढाल 9. क्रोध की सज्झाय 11. सोलह सती की सज्झाय व चौपई 13. दुर्लभ मनुष्य जन्म की सज्झाय 15. इलायची पुत्र को चौढालियो 17. नव नियाणा की ढालो 19. मिथ्या उपदेश निषेध सज्झाय 21. बज्र पुरन्दर चौढालिया मगलोढ़ा की कथा 4. मल्लिनाथ चरित 6. पांच पांडव चरित 8. नंदन मनिहार 10. प्रानन्द श्रावक 12. अजितनाथ स्तवन 14. रावण-विभीषण संवाद 16. नव तत्व की ढाल 18. दान-शील-तप-भावना सज्झाय 20. . लघु साधु बन्दना 22. कुंडरीक पुण्डरीक चौढालिया 1. प्रकाशक-सम्मति ज्ञानपीठ, आगरा । इन समस्त रचनाओं की हस्तलिखित प्रतियां प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भंडार. लाल भवन, जयपुर में सुरक्षित हैं। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 ४. सुरपिता का दोहा 25. अंबड सन्यासी 24. रोहिणी 26. कर्म फल पद। जयमल्ल जी की रचनाओं का परिमाण काफी विस्तत है। इनके कवि-व्यक्तित्व में संत कवियों का विद्रोह और भक्त कवियों का समर्पण एक साथ दिखाई पड़ता है। प्रबन्ध काव्य में उन्होंने तीर्थ करों, सतियों, व्रती श्रावकों आदि को अपना वर्ण्य विषय बनाया है। मुक्तक " काव्य में जैन दर्शन के तात्विक सिद्धांतों के साथ-साथ जीवन को उन्नत बनाने वाली व्यावहारिक बातों का सरल, सुबोध ढंग से निरूपण किया गया है। संस्कृत, प्राकृत के विशिष्ट ज्ञाता होते हुये भी इन्होंने अपनी रचनायें बोलचाल की सरल राजस्थानी भाषा में ही लिखी हैं।। (२) कुशलो जी : इनका जन्म संवत् 1767 में सेठों की रीयां (मारवाड़) में हुआ। इनके पिता का नाम लाधूराम जी चंगेरिया और माता का कानू बाई था। संवत् 1794 में फाल्गुन शुक्ला सप्तमी को इन्होंने पूज्य आचार्य श्री भूधर जी म. से दीक्षा अंगीकृत की। आचार्य श्री जयमल्ल जी म. इनके बड़े गुरु भाई थे। संवत् 1840 ज्येष्ठ कृष्णा छठ को इनका स्वर्गवास हुआ। आप अपने समय के प्रभावशाली संत थे। पूज्य रत्नचन्द्र जी म. की परम्परा के ये मूल स्तम्भ माने जाते हैं। शास्त्रज्ञ विद्वान होने के साथ-साथ ये कवि भी थे। इनकी रचनायें ज्ञान भण्डारों में बिखरी पड़ी हैं। जिन रचनाओं की जानकारी मिली है उनमें स्तवन और उपदेशी पदों के अतिरिक्त 'राजमती सज्झाय', साधुगण की सज्झाय, दशारण भद्र को चौढालियो, धन्ना जी ढाल, नेमनाथ जी का सिलोका, विजय सेठ,-विजया सेठानी की सज्झाय, सीता जी की आलोयणा आदि मुख्य हैं। (३) रायचन्दः इनका जन्म संवत् 1796 की आश्विन शुक्ला एकादशी को जोधपुर में हुआ। इनके पिता का नाम विजयचन्दजी घाडीवाल तथा माता का नाम नन्दा देवी था। संवत् 1814 की आषाढ़ शुक्ला एकादशी को पीपाड़ शहर में इन्होंने आचार्य श्री जयमल्ल जी से दीक्षा व्रत अंगीकार किया । 65 वर्ष की आयु में संवत् 1861 की चैत्र शुक्ला द्वितीया को रोहिट गांव में इनका स्वर्गवास हुआ। प्राचार्य श्री रायचन्द जी अपने समय के प्रख्यात कवि और प्रभावशाली प्राचार्य थे। इनकी वाणी में माधुर्य और व्यक्तित्व में आकर्षण था। जो भी इनके सम्पर्क में प्राता, इनका अपना बन जाता। सफल कवि, मधुर व्याख्याता होने के साथ-साथ ये प्रखर चर्चावादी भी थे। इन्होंने रीतिकालीन उद्दाम वासनात्मक श्रृगारधारा को भक्तिकालीन प्रशांत साधनात्मक प्रेम धारा की ओर मोड़ा। इनकी दो सौ से अधिक रचनायें उपलब्ध हैं। प्रमुख रचनाओं के नाम • 1. इनके जीवन और कवित्व के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिये देखिये:-- (अ) सन्त कवि आचार्य श्री जयमल्ल : व्यक्तित्व और कृतित्व--श्रीमती उषा बाफना। (ब) मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रंथ में प्रकाशित डा. नरेन्द्र भानावत का लेख 'संत ___ कवि प्राचार्य श्री जयमल्ल : व्यक्तित्व और कृतित्व', पृ. 137-15 5 । 2. इनकी हस्तलिखित प्रतियां अ. वि. ज्ञा. भ. जयपुर में सुरक्षित हैं। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 हैं-पाठ कर्मों की चौपाई, जम्बू स्वामी की सज्झाय, नन्दन मणिहार की चौपाई, मल्लिनाथ जी की चौपाई, महावीर जी को चौढालियो, कमलावती की ढाल, एवन्ता ऋषि की ढाल, गौतमस्वामी को रास, आषाढ़ भति मनि को पंचढालियो. सती नरमदा की चौपाई, करकंडु की चौपाई, देवकी राणी की ढ़ाल, मेतारज मनि चरित्र राममि का पंचढालिया, राजा श्रेणिक रो चौढ़ लियों, लालिभद्र को पढ़ालियो, महासती चेलना की ढाल, श्रेयांस कुमार की ढाल, कलावती की चौपाई, चन्दनवाला की ढाल आदि ।। इन रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने पच्चीसी संज्ञक कई रचनायें लिखीं।' इनमें संबद्ध विषय के गुणावगुणों की चर्चा करते हो प्रात्मा को निर्मल बनाने की प्रेरणा दी गई है। इन रचनाओं में वय पच्चीसी, जोबन पच्चीसी, चित्त समाधि पच्चीसी, ज्ञान पच्चीसी, चेतन पच्चीसी, दीक्षा पच्चीसी, कोध पच्चीसी, माया पच्चीसी, लोभ पच्चीसी, निन्दक पच्चीसी आदि । परिमाण की दृष्टि से रायचन्द जी की सार्वाधिक रचनायें प्राप्त हुई हैं। विषय की दृष्टि से एक ओर इन्होंने ऋषभदेव, नेमिनाथ, महावीर आदि तीर्थकसें, जम्बू स्वामी, गौतम स्वामी, स्थलिभद्र आदि श्रमणों, तेजपाल, वस्तुपाल अादि श्रेष्ठियों, तथा चंदनवाला, नमदा, कलावती, पूष्पा चला आदि सतियों को अपने ग्राख्यान का विषय बनाया है तो दूसरी ओर अपन प्राराध्य के चरणों में भक्ति भावना से पूर्ण पद लिखते हये जीवन-व्यवहार में उपयोगी उपदेश और चेतावनियां दी हैं। इनका सारा काव्य लोकममि पर आश्रित है और उसमें राजस्थान को सांस्कृतिक गरिमा के सरस चित्र मिलते हैं। (4) चौथमल:--- ये प्राचार्य श्री रघुनाथ जी म. के शिष्य मुनि श्री अमीचन्द जी के शिष्य थे। इनका जन्म संवत् 1800 में मेड़ता के निकट भंवाल में हया। इनके पिता का नाम रामचन्द्र जी व माता का गुमान बाई था। संवत् 1810 में माघ में गाला पंचमी को इन्होंने दीक्षा अंगीकृत की। 70 वर्ष का संयम पालन के बाद संवत 1880 में मेड़ता में इनका निधन हुया। ये सुमधर गायक और कवि थे। इनकी जिन रचनायों का पता चला है, उनमें मुख्य हैजयवन्ती की ढाल, जिनरिख-जिनपाल, सेठ सूदर्शन, नंदन मणियार, सनतकुमार चौढालिया, महाभारत ढाल सागर (हाल संख्या 163), रामायग.श्रीपाल चरित्र, दमघोप चौपाई, जम्ब चरित्र, ऋषि देव ढाल, तामली तापस चरित्र प्रादि । रामायण और महाभारत की कथा जो जैन दष्टि से पद्यबद्ध कर इन्होंने अत्यन्त लोकप्रियता प्राप्त की। (5) दुर्गादास:-- इनका जन्म संवत् 1806 में मारवाड़ जंक्शन के पास सालटिया गांव हुमा में। इनके पिता का नाम शिवराज जी और माता का नाम सेवादेवी था। 15 वर्ष की लघु वय में संवत् 1821 में मेवाड़ के ऊंठाला (अब वल्लभनगर) नामक गांव में इन्होंने प्राचार्य कुशलदास जी 1. इस संबंध में 'मरुधर केसरी मुनि श्री मिश्रमल जी म. अभिनन्दन ग्रंथ' में प्रकाशित पं. मुनि श्री लक्ष्मीचन्द जी म. सा. का 'संत कवि रायचन्द जी और उनकी रचनायें' (पृ. 420-429) लेख द्रष्टव्य है। 2. देखिये--कुमारी स्नेहलता माथुर का 'कवि रायचन्द और उनको पच्चीसी संशक रवनायें लघुशोध प्रबन्ध (अप्रकाशित---राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर) । इन की हस्तलिखित प्रतियां आ वि.ज्ञा. भ. जयपुर में सुरक्षित । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iss (कुशलोजी) म. के पास दीक्षा अंगीकार की। साधना में ये बड़े दृढ़ व्रती थे। निरन्तर एकातर तप करते थे। पू. गुमानचन्द जी म. के क्रियोद्धार में इन्होंने पूरा सहयोग दिया। संवत् 1882 में श्रावण शुक्ला दसमी को जोधपुर में इनका स्वर्गवास हमा। ये समर्थ कचि थे। स्फूट रूप से पद सज्झाय, ढालें आदि के रूप में इनकी रचनायें प्राप्त होती हैं। इनके पद भावपूर्ण और वैराग्य प्रधान हैं। प्रमुख रचनाओं के नाम हैं--नोकरवारी स्तवन, पार्श्वनाथ स्तवन, जम्बजी की सज्झाय, महावीर के तेरह अभिग्रह की सजझाय, गौतम रास, ऋषभ चरित, उपदेशात्मक ढाल, सवैये आदि । (6) प्रासकरण:-- इनका जन्म गांव संवत् 1812 मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया को जोधपुर राज्य के तिवरी गांव में हया। इनके पिता का नाम रूपचन्द जी बोथरा तथा माता का गोगादे था। संवत 1830 की बैशाख कृष्णा पंचमी को इन्होंने प्राचार्य जयमल्ल जी के चरणों में दीक्षा अंगीकृत की। 70 वर्ष की आयु में संवत् 1882 की कार्तिक कृष्णा पंचमी को इनका स्वर्गवास हमा। मासकरण जी अपने समय के प्रसिद्ध कवि और तपस्वी साधक संत थे। प्राचार्य रायचन्द जी के बाद संवत् 1868 माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन ये प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये। अपने गुरु रायचन्दजी के समान ही इनमें काव्य-प्रतिभा थी। इनकी छोटी-बडी भनक आध्यात्मिक भावपूर्ण रचनायें हस्तलिखित ग्रन्थ भण्डारों में बिखरी पड़ी हैं। ये रचनायें प्रबन्ध और मुक्तक दोनों रूपों में मिलती हैं। इनकी 'छोटी साधु वंदना' रचना का जन समुदाय में व्यापक प्रचार है। जिन रचनाओं की जानकारी मिली है उनमें प्रमुख हैं-दस श्रावकों की ढाल, पुण्यवाणी ऊपर ढाल, केशी गौतम चर्चा ढाल, साध गण माला, भरत जी री रिद्धि, नमिराय जी सप्तढालिया, राजमती सज्झाय, पार्श्वनाथ स्तुति, श्री पार्श्वनाथ चरित्र, गजसिंह जी का चौढालिया, श्री धन्ना जी की 7 ढालां, जय घोष विजयघोष की 7 ढालां, श्री तेरा काठिया की ढाल, श्री अठारह नाता को चौढालियो, पूज्य श्री रायचंद जी म. के गुणों की ढाल । (7) जीतमल : ये अमरसिंह जी म. की परम्परा के प्रभावशाली प्राचार्य थे। इनका जन्म संवत् 1826 में रामपूरा (कोटा) में हया। इनके पिता का नाम सुजानमल जी व माता का सुभ था। संवत् 1834 में इन्होंने प्राचार्य सुजानमल जी म. सा. के चरणों में दीक्षा अंगीकृत की। संवत 1912 की ज्येष्ठ शक्ला दसमी को जोधपुर में 78 वर्ष की प्राय में इनका निधन हमा। ये बहुमुखी प्रतिमा के धनी थे। कवि होने के साथ-साथ ये उच्च कोटि के चित्रकार मौर सुन्दर लिपिकर्ता भी थे। ये दोनों हाथों से ही नहीं दोनों पैरों से भी लेखनी थाम कर लिया करते थे। कहा जाता है कि इन्होंने 13000 ग्रंथों की प्रतिलिपियां तैयार की। मठाई दीप, वासनाड़ी, स्वर्ग, नरक, परदेसी राजा का स्वर्गीय दृश्य प्रादि चिन्न कृतियां इनकी सूक्ष्मकला की प्रतीक हैं। एक बार तत्कालीन जोधपुर नरेश को कागज के एक छोटे से टुकड़े पर 108 हाथियों के चित्र दिखा कर इन्होंने चमत्कृत और प्रभावित किया था। 'मण बिंधिया मोती इनकी स्फुट कविताओं का सुन्दर संग्रह है जो प्रकाशनाधीन है। 1. इन रचनाओं की हस्तलिखित प्राप्तियां प्रा. वि. ज्ञान भ. जयपुर में सुरक्षित है । 2. इसका सम्पादन श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने किया है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) सबलदासः -- इनका जन्म संवत् 1828 में भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को पोकरण में हुआ । इनके पिता का नाम आनन्द राज जी लूणिया और माता का सुन्दर देवी था । इन्होंने 14 वर्ष की अवस्था में संवत् 1842 में मार्गशीर्ष शुक्ला तृतीया को बुचकला ग्राम में श्राचार्य रायचंद जी से दीक्षा अंगीकृत की । श्राचार्य प्रासकरण जी के बाद संवत् 1882 की माघ शुक्ला त्रयोदशी को जोधपुर में ये प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए । संवत् 1903 में बैशाख शुक्ला नवमी को सोजत में इनका स्वर्गवास हुआ । ये अच्छे कवि और मधुर गायक थे । इनकी कई रचनाएं ज्ञान भण्डारों में बिखरी पड़ी हैं । प्रमुख रचनाओं के नाम हैं- आसकरण जी महाराज के गुण, गुरु महिमा स्तवन, जुग मन्दिर स्वामी की सज्झाय, विमलनाथ का स्तवन, कनकरथ राजा नौ चरित, खंदक जी की लावणी, तामली तापस की चौपई, त्रिलोक सुन्दरी नी ढाल, धन्ना बी री चौपी, शंख पोरवली को चरित, उपदेशी ढाल, साधु कर्तव्य की ढाल आदि । 1 ( 9 ) रत्नचन्द्र :-- इनका जन्म संवत् 1834 में वैशाख शुक्ला पंचमी को जोधपुर राज्य के कुड नामक गांव में हुआ । इनके पिता का नाम लालचन्द जी और माता का हीरा देवी था । संवत् 1848 में पूज्य गुमानचन्द जी म. सा. के नेश्राय में इन्होंने दीक्षा अंगीकृत की। ग्राप बड़े प्रभावी संत थे और साध्वाचार की पवित्रता पर विशेष बल देते थे । जोधपुर नरेश मानसिंह जी इनकी विद्वता और काव्यशक्ति से अत्यन्त प्रभावित थे । जोधपुर के राजगुरु कवि लाडूनाथ जी भी इनके सम्पर्क में प्राये थे और वे इनके साधनानिष्ठ कवि-जीवन से विशेष प्रभावित थे । जोधपुर के दीवान लक्ष्मीचन्द जी मूथा इनके अनन्य भक्तों में से थे । में इनका स्वर्गबास हुआ । इन्होंने छोटी-बड़ी अनेक रचनाएं लिखी हैं । एक संग्रह 'श्री रत्नचन्द्र पद मुक्तावली' नाम से प्रकाशित हुआ है। भागों में बांटा गया है- स्तुति, उपदेश और धर्मकथा | स्तुतिपरक पद्यों में तीर्थंकरों, गणधरों, विरहमानों, तथा अन्य साधक पुरुषों की स्तुति की गई है । पदेशिक भाग में पुण्य-पाप, प्रात्मा-परमात्मा, बंध-मोक्षादि भावों का सुन्दर चित्रण किया गया है । धर्म कथा खंड में जीवन को उदात्त बनाने वाली पद्यात्मक कथाएं हैं । इनके पदेशिक पद प्रत्यन्त ही भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी हैं । संवत् 1902 में जोधपुर इनकी रचनाओं का संगृहीत रचनाओं को तीन ( 10 ) रत्नचन्द्र : ये रत्नचन्द्र आचार्य मनोहरदासजी की परम्परा से संबद्ध हैं । इनका जन्म संवत् 1850 भाद्रपद कृष्णा चतुदर्शी को तातीजा ( जयपुर ) नामक गांव में हुआ । इनके पिता का नाम चौधरी गंगाराम जी व माता का सरूपादेवी था । संवत् 1862 भाद्रपद शुक्ला छठ को नारनौल (पटियाला) में श्री मुनि श्री हरजीमल जी के पास ये दीक्षित हुए। संवत् 1921 में बैशाख शुक्ला पूर्णिमा को आगरा में इनका स्वर्गवास हुआ । ये बड़े तार्किक, महान् शास्त्राभ्यासी और गंभीर विद्वान तथा कवि होने पर भी पद लोलुपता से निर्लिप्त और विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे । इनका गद्य और पद्य दोनों पर समान अधिकार था । पद्य रूप में इन्होंने 'जिन स्तुति' 'सती स्तवन', 'संसारवैराग्य', 'बारह भावना परवासा' हैं आदि पर आध्यात्मिक पद लिखे 186 1. इनकी हस्तलिखित प्रतियां ग्रा. वि. ज्ञा. भ. जयपुर में सुरक्षित हैं । 2. t सम्पादक - पं. मुनि श्री लक्ष्मीचन्द जी म., प्रकाशक - सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल, जयपुर । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 189 हैं जो बड़े ही भावपूर्ण हैं। इनका प्रकाशन 'रत्नज्योति' 1 नाम से दो भागों में हुअा है। पदों के अतिरिक्त इन्होंने चरित काव्य भी लिखे हैं जिनमें सूखानन्द मनोरमा चरित्र अन्य चरित काव्यों में सगर चरित, और इलायची चरित' प्रकाशित हो चुके हैं। इन चरितों में विभिन्न छंदों और राग-रागिनियों का प्रयोग किया गया है । 2 (11) कनीराम :-- इनका जन्म संवत 1859 में माघ शुक्ला एकादशी को खिवसर (जोधपुर) में हमा। इनके पिता का नाम किसनदास जी पूणोत तथा माता का राऊदेवी था। संवत् 1870 में पौष कृष्णा त्रयोदशी को पूज्य दुर्गादासजी म. के शिष्य मुनि श्री दलीचन्द जी से इन्होंने दीक्षा अंगीकृत की। संवत 1936 में माघ शुक्ला पंचमी को पीपाड़ में इनका स्वर्गवास हुआ। ये अत्यन्त सेवा भावी और चर्चावादी संत थे। नागौर, अजमेर, काल, पाली, पीपाड़ तथा पंजाब प्रदेश में इन्होंने कई तात्विक चर्चाओं में भाग लिया। अपने मत की पुष्टि करते समय ये नैतिक मर्यादानों का पूरा ध्यान रखते थे। चर्चावादी होने के कारण ये 'वादीभ केसरी' नाम से प्रसिद्ध थे। इनके औपदेशिक पद तात्विक होते हुए भी बड़े भावप्रवण हैं। अन्य प्रमुख रचनाएं है जम्बकुमार की सज्झाय, तुंगिया के श्रावक की सज्झाय, पडिमा छत्तीसी, सिद्धान्तसार, ब्रह्मबिलास (इसमें 87 ढालें हैं) आदि ।' (12) विनयचन्द्रः-- इनका जन्म संवत् 1897 में आसोज शुक्ला चतुर्दशी को फलौदी (मारवाड़) में हमा। इनके पिता का नाम प्रतापमल जी पुंगलिया तथा माता का रंभाजी था। 16 वर्ष की अवस्था में संवत 1912 में मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया को अपने लघ भ्राता श्री कस्तुरचन्दजी के साथ ये पूज्य कजोडमलजी म. के पास दीक्षित हुए। संवत् 1937 में ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी को अजमेर में ये प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये। नेत्र ज्योति क्षीण हो जाने से संवत् 1959 से जयपुर में इनका स्थिरवास रहा। संवत 1972 में मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी को 75 वर्ष की प्राय में जयपुर में ही इनका स्वर्गवास हया। जयपुर में स्थित प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार इन्हीं के नाम पर है। ये बड़े शांत स्वभावी, वात्सल्य प्रेमी, उदार हृदय और विद्वान कवि थे। इनके पद बड़े हृदयस्पर्शी और भावपूर्ण हैं। प्रमुख रचनायें हैं-मुनि अनाथी री सज्झाय, रतनचन्द्र जी म. का गण, अंजना मती को रास , गौतम रास, धन्ना जी की सज्झाय, नंदराय चरित, नेम जी को व्यावलो, मेणरेहा कथा, सुभद्रा सती की चौपाई, उपदेशी सज्झाय, होली रो चौढालियो, नेमनाथ राजमती बारहमासियों आदि । (13) लालचन्द :-- इनका जन्म कातरदा (कोटा) नामक गांव में हुआ। ये कोटा-परम्परा के प्राचार्य श्री दौलतराम जी म. के शिष्य थे। ये कुशल चित्रकार थे। एक बार किसी दिवाल पर सं. श्री श्रीचन्द्रजी म., प्र. श्री रत्नमुनि जैन कालेज, लोहामंडी, आगरा। 2. देखिये-गरुदेव श्री रत्नमनि स्मति ग्रंथ में प्रकाशित डा. नरेन्द्र भानावत का लेखे पूज्य रत्नचन्द्र जी की काब्य साधना, पृ. 317-327। 3. देखिये – प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भंडार ग्रंथ सूची भाग 1, सं. डा. नरेन्द्र भानावत । 4. देखिए-प्रा. वि. ज्ञा, भ. ग्रंथसूची भाग 1, सं. डा. नरेन्द्र भानावत ।। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 इन्होंने चित्रकारी की। उस पर अच्छा रंग किया और प्रातःकाल उसे देखा तो हजारों कीट मच्छर उस रंग पर चिपके हुए दृष्टिगत हुए। इस दृश्य को देखकर उनका कोमल-करुण हृदय पसीज उठा और ये साधु बन गये। ये बड़े विद्वान् कवि, तपस्वी एवं शासन-प्रभावक संत थे । कोटा, बंदी, झालावाड़, सवाई माधोपुर, टौंक इनके प्रमख विहार क्षेत्र रहे। इनके उपदेशों से प्रभावित होकर मीणा लोगों ने मांस, मदिरादि सेवन का त्याग किया। इनका रचनाकाल 19वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध रहा है। उनकी रचनाओं में महावीर स्वामी चरित, जम्ब चरित, चन्द सेन राजा की चौपाई, चौबीसी, अठारह पाप के सवैये, बंकचल का चरित्र, श्रीमती का चौढालिया, विजयकंवर व विजय कूवरी का चौढालिया. लालचन्द बावनी आदि प्रमख है (14) हिम्मतराम : ये संवत् 1895 में जोधपुर में प्राचार्य श्री रतनचन्द म. के चरणों में दीक्षित हुए। ये अपनी साधना में कठोर और स्वभाव से मधुर तथा विनयशील थे। कवि होने के साथ-साथ ये अच्छे लिपिकार भी थे। इन्होंने अनेक सूत्रों, थोकडों, चौपाइयों और स्तवनों का प्रतिलेखन भी किया। अपने गुरु रतनचन्द जी से इन्हें काव्य रचना करने की प्रेरणा मिली। इनकी रचनायें मुख्यतः दो प्रकार की हैं-कथापरक और उपदेश परक। कथापरक रचनाओं में तीर्थकरों और मादर्श जीवन जीने वाले मुनि-महात्माओं का यशोगान किया है। उपदेशपरक रचनाओं में मन को राग-द्वेष से रिक्त होकर प्रात्मकल्याण की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा दी गई है। सम्यक्ज्ञान प्रचारक मंडल जयपुर ने उनकी रचनाओं का एक संग्रह 'हिम्मतराम पदावली' नाम से प्रकाशित किया है: (15) सुजानमल : इनका जन्म वि. सं. 1896 में जयपुर के प्रतिष्ठित जौहरी परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम ताराचन्द जी सेठ व माता का राई बाई था। वैभव सम्पन्न घराने में जन्म लेकर भी इनकी धर्म में गहरी श्रद्धा थी। इनका कंठ मधर था और संगीत में अच्छी रुचि थी। इनके जीवन के 30वें वर्ष में एक व्याधि उत्पन्न हुई। बड़े-बड़े डाक्टरों और वैद्यों का उपचार किया गया पर शांत होने के बजाय वह और बढ़ती गई। इससे ये सर्वथा पंगु और परावलम्बी बन गये। अंत में इन्होंने अनाथीमुनि की तरह मन ही मन दढ़ संकल्प किया कि यदि मैं नीरोग हो जाऊं तो पूज्य विनयचंद जी म. सा. के सान्निध्य में प्रव्रज्या धारण करूं। इस संकल्प के बोड़े ही दिनों बाद इनकी व्याधि दूर हो गई और इन्होंने संवत् 1951 में आश्विन शुक्ला त्रयोदशी को जयपुर में अपने 15 वर्षीय बाल साथी कपूरचन्द पाटनी के साथ प्राचार्य विनय चंद जी म. के पास दीक्षा अंगीकृत की। इनमें काव्य रचना की प्रतिमा प्रारम्भ से ही थी। अब सुमार्ग पाकर प्रति दिन ये नये-नये पदों की रचना करने लगे। इनके रचे लगभग चार सौ पद्य मिलते हैं। इनका संग्रह 'सूजान पद सूमन वाटिका' नाम से प्रकाशित हा है।1 इनके प्रत्येक पद्य में प्रात्मकल्याण और जीवन-सुधार का प्रेरणादायी संदेश भरा पड़ा है। संवत् 1968 में इनका निधन हुमा। (16) रामचन्द्र :-- ये प्राचार्य जयमल्ल जी की परम्परा के श्रेष्ठ कवियों में से हैं। इनके प्रोपदेशिक पद प्राध्यात्म भावना से प्रोतप्रोत हैं। इनकी रचनाएं ज्ञान-भण्डारों में बिखरी पड़ी हैं जिनमें 1. सं. पं. मुनि श्री लक्ष्मीचन्द जी म., प्रकाशक सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल, जयपुर। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 189 विजयकुमार का चौढालिया, विष्णु कुमार चरित, शालिभद्र घन्ना अधिकार छहढालिया, हरिकेशी मुनि चरित, उपदेशी ढाल आदि प्रमुख हैं।' (17) तिलोक ऋषि:-- इनका जन्म संवत् 1904 में चैत्रकृष्णा तृतीया को रतलाम में हुआ। इनके पिता का नाम दुलीचन्द जी सूराणा और माता का नानूबाई था। संवत् 1914 में माघ कृष्णा प्रतिपदा को ये अपनी मां, बहिन और भाई के साथ प्रयवंता ऋषि के सान्निध्य में दीक्षित हए। इनका विहारक्षेत्र मुख्यत: मेवाड़, मालवा और महाराष्ट्र रहा। 36 वर्ष की अल्पायु में ही सं. 1940 में श्रावणकृष्णा द्वितीया को अहमदनगर में इनका निधन हो गया। पिछड़ी जाति के लोगों को व्यसन मुक्त बनाने में इनकी बड़ी प्रेरणा रही है। तिलोक ऋषि कवित्व की दृष्टि से स्थानकवासी परम्परा के श्रेष्ठ कवियों में से हैं। इनका काव्य जितना भावनामय है, उतना ही संगीतमय भी। इन्होंने जन-साधारण के लिये भी लिखा और विद्वत्मण्डली के लिये भी। पदों के अतिरिक्त इन्होंने भक्ति और वैराग्य भाव से परिपूर्ण बहत ही प्रभावक कवित्त और सवैये लिखे। इनके समस्तकाव्य को दो वर्गों में रक्खा जा सकता है-रसात्मक और कलात्मक। रसात्मक कृतियां विशद्ध साहित्यिक रस बोध की दृष्टि से लिखी गई हैं। इनमें कवि की अनुभूति, उसका लोक निरीक्षण और गेय व्यक्तित्व समाविष्ट है। ये आगमज्ञ, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के विद्वान शास्त्रीय ज्ञान के धनी, विभिन्न छंदों के विशेषज्ञ और लोक संस्कृति के पंडित थे। यही कारण है कि इनकी रचनामों में एक अोर संत कवि का सारल्य है तो दूसरी ओर शास्त्रज्ञ कवि का पांडित्य। ये रसात्मक कृतियां तीन प्रकार की हैं-स्तवनमूलक, आख्यानमूलक और प्रौपदेशिक । स्तवनमूलक रचनाओं में चौबीस तीर्थ करों, पंच परमेष्ठियों, गणधरों और संत-सतियों की स्तुति विशेष रूप से की गई है। इनमें इनके बाह य रूप रंग का वर्णन कम, प्रांतरिक शक्ति तथा गरिमा का वर्णन अधिक रहा है। ग्राख्यानमुलक रचनाओं में इतिवृत्त की प्रधानता है। इनमें विभिन्न दृढ़व्रती श्रावकों और मनियों को वर्ण्य विषय बनाया गया है। औपदेशिक रचनाओं में कवि की विशेषता यह रही है कि उसमें रूपक योजना द्वारा सामान्य लौकिक विषयों को अध्यात्म भावों के माधुर्य से विमंडित कर दिया है। कलात्मक कृतियों में कवि की एकाग्रता, उसकी सूझबूझ, लेखन-कला, चित्रण-क्षमता, और अपार भाषा-शक्ति का परिचय मिलता है। ये कलात्मक कृतियां दो प्रकार की हैंचित्रकाव्यात्मक और गूढार्थमूलक । चित्रकाव्यात्मक रचनाएं तथाकथित चित्रकाव्य से भिन्न हैं। इनमें प्रधान - दृष्टि चित्रकार के लाघव व गणितज्ञ की बद्धि के कारण, चित्र बनाने की रही है। ये चित्र दो प्रकार के हैं। सामान्य और रूपकात्मक। सामान्य चित्रों में कवि ने स्वरचित या किसी प्रसिद्ध कवि की कविताओं, दोहे, सवैये, कवित्त आदि को इस ढंग से लिखा है कि एक चित्ररूप खड़ा हो जाता है। समुद्र बंध, नागपाश बंध आदि कृतियां इसी प्रकार की हैं। इन चित्रों के नामानुरूप भाववाली कविताओं को ही यहां लिपिबद्ध किया गया है। समुद्रबन्ध कृति में संसार को समुद्र के रूप में उपमित करने वाली कविता का प्रयोग किया गया है। नागपाश बन्ध में भगवान पार्श्वनाथ के जीवन की उस घटना को व्यक्त करने वाला छन्द सन्निहित है जिसमें उन्होंने कमठ तापस की पंचाग्नि से संकटग्रस्त नाग दम्पत्ति का उद्धार किया था। रूपकात्मक 1. इनकी हस्तलिखित प्रतियां प्रा. वि. ज्ञा. भ. जयपुर में सुरक्षित हैं। 2. देखिए-अध्यात्म पर्व दशहरा स्वाध्याय, प्र. श्री जैन धर्म प्रसारक संस्था नागपुर। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. चित्र-काव्यों में कवि की रूपक योजक-वत्ति काम करती रही है। 'ज्ञान कुंजर और शीलरथ' के रूपकात्मक चिन अत्यन्त सुन्दर बन पड़े हैं। गढार्थमूलक रचनाएं कट शैली में लिखी गई हैं। तिलोक ऋषि का छन्द प्रयोग भी विविधता लिये हए है। दोहा और पद के अतिरिक्त इन्होंने रीतिकालीन कवियों के सवैया और कवित्त जैसे छन्द को अपनाकर उसमें जो संगीत की गूंज और भावना की पवित्रता भरी है, वह अन्यतम है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि तिलोक ऋषि के काव्य में भक्तियग की रसात्मकता और रीति यग की कलात्मकता के एक साथ दर्शन होते हैं। (18) किशनलाल :-- ये प्राचार्य रतनचन्द जी म. सा. की परम्परा के मनि श्री नन्दलाल जी म. के शिष्य थे। इनकी रचनायें विभन्न ज्ञान भण्डारों में यत्न-तत्र बिखरी पडी हैं। इनकी रचनायें प्रौपदेशिक पदों और पद्यकथाओं के रूप में मिलती हैं। इनके पद अध्यात्म प्रवण और प्रात्म-कल्याण में साधक हैं। हमें जो रचनायें ज्ञात हई हैं उनमें नवकार मंत्र की लावणी, पंचपरमेठी गणमाला, चण्डरुद्र प्राचार्य की सज्झाय, सनतकुमार राजर्षि चौढालिया, कर्मों की लावणी, आदि उल्लेखनीय (19) नेमिचन्द्र :-- इनका जन्म वि. सं. 1925 में आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को बगडुन्दा (मेवाड) में हुआ। इनके पिता का नाम देवीलालजी लोढा और ता का कमला देवी था। इन्होंने प्राचार्य श्री अमरसिंह जी म. की परम्परा के छठे पट्टधर श्री पूनमचन्द जी म.सा. से संवत् 1940 फाल्गुन कृष्णा छठ को बगड़न्दे में दीक्षा अंगीकृत की। संवत 1975 में कार्तिक शवला पंचमी को छीपा का आकोला (मेवाड़) में इनका निधन हया। ये पाश कवि थे और चलते-फिरते वार्तालाप में या प्रवचन में शीघ्र ही कविता बना लिया करते थे। कवि होने के साथ-साथ ये प्रत्यत्पन्नमति और शास्त्रज्ञ विद्वान थे। इनकी प्रवचन शैली अत्यन्त चित्ताकर्षक और प्रभावक थी। इन्होंने धर्म-प्रचार की दृष्टि से गांवों को ही अपना विहार क्षेत्र बनाया। मेवाड़ के पर्वतीय प्रदेश गोगुन्दा, झाडोल, एवं कोटड़ा आदि क्षेत्रों को उन्होंने अपने उपदेशों से उपकृत किया। इनकी काव्य-प्रतिभा व्यापक थी। एक ओर इन्होंने रामायण और महाभारत के विभिन्न प्रसंगों को अपने काव्य का आधार बनाया तो दूसरी ओर जैनागमों के विविध चरित्रों को संगीत की स्वरलहरी में बांधा। इनकी रचनाओं में भक्ति भावना की तरंगिणी प्रवहमान है तो 'निह नव भावना सप्तढालिया' जैसी रचनाओं में युग के अनाचार और बाहय आडम्बर के खिलाफ विद्रोह की भावना है। 'भाव नौकरी', क्षमा माताशीतला, 'चेतन चरित' जैसी रचनात्रों में कवि की सांगरूपक योजना का चमत्कार दृष्टिगत होता है। 'नेमवाणी' नाम से इनकी रचनाओं का प्रकाशन हुअा है। 1. विशेष जानकारी के लिए देखिए(अ) कुमारी मधु माथुर का 'संत कवि तिलोक ऋषि : व्यक्तित्व और कृतित्व लघु शोधप्रबन्ध (अप्रकाशित)। (ब) डा. शान्ता भानावत का 'तिलोक ऋषि की काव्य साधना' लेख, मुनि श्री हजारीमल स्मति ग्रंथ में प्रकाशित, पृ. 168-173 । 2. प्रा. वि. ज्ञा. भ. ग्रन्थसूची भाग 1।। 3. सं. पुष्कर मुनि, प्र. श्री तारक गुरु ग्रंथालंभ, पदराड़ा (उदयपुर)। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20) दीपचन्द : इनका जन्म संवत् 1926 में आश्विन शुक्ला छठ को पंजाब के फिरोजपुर क्षेत्र के अन्तर्गत झंबो नामक गांव में हा। इनके पिता का नाम बधावासिंह और माता का नाम नारायणीदेवी था। इन्होंने संवत 1951 में मार्गशीर्ष शुक्ला तृतीया को दिल्ली में पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज की परम्परा के जीवनरामजी म. के पास अपनी धर्मपत्नी सहित 25 वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की। संवत् 1994 में थी जीवनरामजी म. ने इन्हें सोनीपत में पज्य पदवी प्रदान की। ये ग्रादर्श तपस्वी संत और प्राध्यात्मिक कवि थे। इनके पदों में संसार की नश्वरता, आत्मा की अमरता का सुन्दर निरूपण है। इनकी भाषा राजस्थानी प्रभावित रिली 'दीप भजनावली' नाम से इनकी रचनाओं का एक संग्रह प्रकाशित हुया है। (21) गजमल : इनका जन्म किशनगढ के फतेहगढ़ नामक गांव में हपा। इनके पिता का नाम कल्याण मल जी ललवाणो तथा माता का नाम केसर बाई था। संवत् 1926 में चैत्र शक्ला चतुर्दशी को उन्होंने अपनी माता के साथ पूज्य नानकराम जी महाराज के सम्प्रदाय के मनि श्री मगनमलजी के पास दीक्षा अंगीकृत की। संवत् 1975 में फाल्गुन शुक्ला त्रयोदशी को ठाठोठी ग्राम में इनका निधन हना। ये अध्ययनशील प्रवृत्ति के तत्ववादी साधक थे। घंटों तात्विक विषयों पर चर्चा किया करते थे। इन्होंने छोटी-मोटी कई रचनायें लिखी हैं उनमें सबसे उल्लेखनीय रचना 'धर्मसेन' ग्रंथ है जो छह खंड एवं 64 ढालों में पूरा हा है। ग्रंथ प्रमाण 6500 श्लोक हैं। (22) माधव मुनिः इनका जन्म संवत् 1928 में भरतपुर के निकट अचनेरा गांव में हुआ। इनके पिता का नाम बंशीधर सनाढ्य और माता का राय कंबर था। संवत् 1940 में इन्होंने मगन मनिजी के पास दीक्षा अंगीकृत की। संवत् 1978 में वैशाख शुक्ला पंचमी को ये धर्मदासजी महाराज की परम्परा में प्राचार्य श्री नंदलालजी म. के बाद प्राचार्य बने। संवत 1981 में जयपुर के पास गाडोता गांव में इनका स्वर्गवास हया। जैनागमों में इनकी गहरी पैठ थी। व्याकरण, न्याय, साहित्य प्रादि भारतीय दर्शनों का इनका गहन अध्ययन था। इनमें कवित्व-प्रतिभा के साथ-साथ पैनी तर्कणा शक्ति भी थी। इनके काव्य में चिन्तन की गहराई, अर्थगौरव और सिद्धान्त निष्ठता की दृढ़ता से प्राण प्रतिष्ठा हुई है । इनकी भाषा प्रौढ और अभिव्यक्ति सशक्त है। इनकी रचनाओं का एक संग्रह 'जैन स्तवन तरंगिणी' 1 नाम से प्रकाशित हा है जिसने विनय, भक्ति, और उपदेश की तीव्र तरंगें प्रवहमान हैं। (23) खूबचन्द :-- इनका जन्म संवत् 1930 में कार्तिक शुक्ला अष्टमी को निम्बाहेडा (मेवाड) में हुआ। इनके पिता का नाम टेकचन्दजी जैतावत और माता का गेंदी बाई था। 22 वर्ष की अवस्था में संवत 1952 में प्राषाढ़ शुक्ला तृतीया को इन्होंने नीमच शहर में नन्दलाल जी म. सा. के चरणों में दीक्षा अंगीकृत की। संवत् 1991 में फाल्गुन शुक्ला तृतीया को रतलाम में ये प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित हए। संवत् 2002 चैत्र शुक्ला तृतीया को इनका स्वर्गवास हया। इनका जीवन बडा ही संयत, तपोमय और त्याग-वैराग्य से परिपूर्ण था। इनकी व्याख्यान शैली बड़ी ही रोचक और प्रोजपूर्ण थी। इनके उपदेशों से प्रभावित होकर जयपुर-नरेश श्री माधोसिंह जी तथा 1. प्रकाशक-श्री वर्धमान जैन स्थानकवासी श्री संघ, कोटा। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 2 ये अलवर नरेश श्री जयसिंह जी ने संवत्सरी महापर्व के दिन हमेशा के लिये प्रगता रखाया । सुमधुर गायक और प्रतिभाशाली कवि थे । इनकी कविताओं का एक संकलन 'खूब कवितावली" नाम से प्रकाशित हुआ है जिसमें स्तवन, उपदेशामृत, चरितावली और विविध विषयों से सम्बद्ध कविताएं संगृहीत हैं । इन्होंने विविध राग-रागिनियों, दोहा, कवित-सवैया, ढाल आदि छन्दों के साथ-साथ ख्यालों में प्रयुक्त शेर, चलत, मिलत, छोटी कड़ी झेला, द्रोण जैसे छन्दों का भी प्रयोग किया है । इनकी कविताओं में लोक जीवन और लोक संस्कृति की अच्छी अभिव्यक्ति हुई है । ( 24 ) अमी ऋषि : इनका जन्म संवत् 1930 में दलोद ( मालवा ) में हुआ । इनके पिता का नाम श्री भेरूलाल जी और माता का प्यारा बाई था। संवत् 1943 में इन्होंने श्री सुखा ऋषि जी म. के पास मगरदा (भोपाल) में दीक्षा अंगीकृत की। संवत् 1988 में शुजालपुर में इनका स्वर्गवास हुआ । मालवा, मेवाड़, मारवाड़ गुजरात, महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों में विहार कर इन्होंने जिन शासन का उद्योत किया । इनकी बुद्धि और धारणा शक्ति अत्यन्त तीव्र थी । शास्त्रीय और दार्शनिक चर्चा में इनकी विशेष रुचि थी । ये जितने तत्वज्ञ थे उतने ही कुशल कवि भी । इन्होंने लगभग 23 ग्रंथों की रचना की । इनकी कविताओं का एक संग्रह 'अमृत काव्य संग्रह " के नाम से प्रकाशित हुआ है । इन्होंने अनेक छन्दों और अनेक शैलियों में रचना की है। छन्दों में दोहा, कवित्त, सवैया, सोरठा, पद्धरी, हरिगीतिका, शिखरिणी, शार्दूलविक्रीडित, मालिनी, प्रादि छन्दों का सुचारु निर्वाह हुआ है । सवैया और कवित्त पर तो उनका विशेष अधिकार जान पड़ता है । रूप-भेद की दृष्टि से जहां इन्होंने अष्टक, चालीसा, बावनी, शतक आदि संज्ञक काव्य लिखे हैं वहां चरित्र काव्यों में सीता चरित, जिन सुन्दरी, भरत बाहुबलि चौढालिया, म्बड सन्यासी चौढालिया, कीर्ति ध्वज राजा चौढालिया, धारदेव चरित प्रादि मुख्य हैं । इनकी कविता में जहां निश्छलता, स्पष्टोक्ति है, वहीं चमत्कारप्रियता भी है । इस दृष्टि से इन्होंने खडगबंध, कपाटबंध, कदली बंध, मेरु बंध, कमल बंध, चमर बंध, एकाक्षर त्रिपदी बंध, चटाई बंध, छत्र बंध, धनुर्बन्ध, नागपाश बंध, कटारबंध, चौपड़ बंध, स्वस्तिक बंध आदि अनेक चित्रकाव्यों की रचना की है । 'जयकुंजर' इस दृष्टि से इनकी श्रेष्ठ रचना है । लोकजीवन की निश्छल अभिव्यक्ति इनके काव्य की विशेषता है । पंचतंत्र में ग्राई हुई कई कहानियों को लेकर इन्होंने सवैया छंद में उन्हें निबद्ध किया है । पूर्ति में भी इन्हें पर्याप्त सफलता मिली है । ( 25 ) जवाहरलाल इनका जन्म संवत् 1932 में कार्तिक शुक्ला चतुर्थी को थांदला ( मालवा ) गांव में हुआ । इनके पिता का नाम जीवराज जी और माता का नाथी बाई था । 16 वर्ष की लघुवय में संवत् 1948 में मार्गशीर्ष शुक्ला द्वितीया को इन्होंने मुनि श्री मगनलाल जी म. सा. के चरणों में दीक्षा अंगीकृत की। संवत् 1977 प्राषाढ़ शुक्ला तृतीया को ये प्राचार्य श्री श्रीलाल जी म. सा. के बाद आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये । संवत् 2000 आषाढ़ शुक्ला अष्टमी को भीनासर में इनका स्वर्गवास हुआ । इनका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक व प्रभावशाली था । इन्होंने राष्ट्रीय स्वतन्त्रता प्रान्दोलन के सत्याग्रह, अहिंसक प्रतिरोध, स्वदेशी वस्तुनों का प्रयोग, खादी धारण, अछूतोद्धार जैसे रचनात्मक कार्यक्रमों में सहयोग देने की जनमानस को विशेष प्रेरणा दी । src ओजस्वी व्यक्तित्व और क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित होकर महात्मा गांधी, 1. सं. पं. मुनि श्री हीरालालजी म., प्रकाशक - श्री सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा । 2. प्रकाशक - श्री रत्न जैन पुस्तकालय पाथर्डी (अहमदनगर) । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 लोकमान्य तिलक, महामना मालवीय, सरदार पटेल भादि राष्ट्रीय महापुरुष इनके सम्पर्क में भाये। इनकी उपदेश-शैली बड़ी रोचक, प्रेरक और विचारोत्तेजक थी। इनके प्रवचनों का प्रकाशन 'जवाहर किरणावली" नाम से कई भागों में किया गया है । 'अनुकम्पा विचार' नाम से इनके राजस्थानी काव्य के दो भाग प्रकाशित हुये हैं । इनमें अहिंसा के विधेयात्मक स्वरूप पर बल देते हुये दया और दान की धार्मिक संदर्भ में विशेष महत्ता प्रतिपादित की है। रागरागिनियों और ढालों में निबद्ध यह काव्य सरस और रोचक बन पड़ा है । (26) चौथमल : जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता के रूप में प्रसिद्ध इन चौथमलजी म. का जन्म सं. 1934 में कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी को नीमच में हुआ । इनके पिता का नाम श्री गंगारामजी और माता का केसरां बाई था । सं. 1952 में इन्होंने श्री हीरालाल जी म. सा. से दीक्षा अंगीकृत की । ये जैन तत्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान् होने के साथ-साथ प्रभावशाली वक्ता, मधुरगायक और प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । इनके विचार बड़े उदार और दृष्टि व्यापक थी । जैन धार्मिक तत्वों को संकीर्ण दायरे से उठा कर सर्वं साधारण में प्रचारित-प्रसारित करने क इन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किया । इनकी प्रवचन सभा में राजा-महाराजा और सेठ साहूकारों से लेकर चमार, खटीक, भील, मीणें आदि पिछड़े वर्ग के लोग भी समान रूप से सम्मिलित होते थे । इनके उपदेशों से प्रभावित होकर अनेकों ने प्राजीवन मांसभक्षण, मदिरा-पान, भांग-गांजा, तम्बाखू आदि का त्याग किया। मेवाड़, मालवा एवं मारवाड़ के अनेक जागीरदारों और राजा-महाराजाओं ने इनसे जीव दया का उपदेश सुनकर अपने-अपने राज्यों में हिंसाबन्दी की स्थायी आज्ञायें जारी करवा दीं और उन्हें इस आशय की सनदें लिख दीं । उदयपुर के महाराणा फतहसिंह जी और भोपालसिंह जी इनके अनन्य भक्त थे । इनका गद्य और पद्य दोनों पर समान अधिकार था । इन्होंने सैकड़ों भक्ति रस से परिपूर्ण भजन लिखे हैं, जिन्हें भक्तजन आत्मविभोर होकर गाते हैं । काव्य के क्षेत्र में 'आदर्श रामायण' और 'आदर्श महाभारत' इनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं । जैन सुबोध गुटका भाग 1, 2 में इनके लगभग 1000 पद संग्रहीत हैं । इन्होंने राजस्थानी और हिन्दी दोनों भाषाओं में समान अधिकार के साथ काव्य-रचना की है । इनके प्रवचन 'दिवाकर दिव्य ज्योति" नाम से 21 भागों में प्रकाशित हुये हैं । इनके द्वारा संग्रहीत मोर अनुवादित 'निर्गन्ध प्रवचन अत्यन्त लोकप्रिय ग्रंथ हैं । इसमें जैनागमों के आधार पर जैन दर्शन और धर्म संबंधी महत्वपूर्ण गाथानों का संकलन किया गया है । ( 27 ) चौथमल : - प्राचार्य जयमल्ल जी म. की परम्परा से संबद्ध इन चौथमल जी का जन्म संवत् 1947 में कुचेरा के पास फीरोजपुरा ( मारवाड़) गांव में हुना । इनके पिता का नाम हरचन्दराय और माता का कुंवरादे जी था। इन्होंने संवत् 1959 में बैशाख कृष्णा सप्तमी को सेठां री रीया श्री नथमलजी म. से दीक्षा अंगीकृत की। संवत् 2008 में इनका निधन हुआ । ये कई भाषाओं के ज्ञाता और राजस्थानी के आशु कवि थे । अपनी परम्परा के आचार्यों श्रोर सन्तों की महत्वपूर्ण जीवन घटनाओं को इन्होंने पद्यबद्ध किया जिनका ऐतिहासिक महत्व है । पूज्य गुणमाला 5 में इनकी ऐसी रचनायें संग्रहीत हैं । इन्होंने कई चरित काव्य भी लिखे हैं जिनका प्रकाशन 'व्याख्यान नव रत्नमाला' भाग 1, 2 में हुआ है । 1. सं. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल, प्र. श्री जवाहर साहित्य समिति, भीनासर, (बीकानेर) । प्रकाशक - श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशन समिति, रतलाम । 2. 3. सं. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल, प्र. श्री दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर । 4. प्र. श्री दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर । 5. प्रकाशक - श्री मनगट परिवार भंडारा (महाराष्ट्र ) । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (28) मिश्रीमल: 'मरुधर केसरी' नाम से प्रसिद्ध मनि श्री मिश्रीमल जी म. का जन्म सं. 1955 में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी को पाली में हुआ। इनके पिता का नाम श्री शेषमल जी सोलंकी तथा माता का केसर कुंवर था। संवत् 1975 में इन्होंने मुनि श्री बुधमल जी के पास दीक्षा अंगीकृत की। इनका राजस्थानी और हिन्दी दोनों भाषाओं पर समान रूप से अधिकार है। अब तक ये 100 से भी अधिक ग्रंथों का प्रणयन कर चुके हैं जिनमें विशालकाय 'पांडव यशोरासायन' (महाभारत) विशेष महत्वपूर्ण है। यह 309 ढालों में विभक्त है। भजनों की संख्या तो हजारों तक पहंच चुकी है। 'मरुधर केसरी ग्रंथावली'l भाग 1, 2 में इनका प्रकाशन हया है। इनके काव्य में एक अोर संत कवि का रूढ परम्पराओं के प्रति विद्रोह और भक्त कवि का अपने आराध्य के प्रति समर्पण भाव है, वहीं दूसरी ओर चमत्कार प्रिय कवि का बौद्धिक विलास और कथाकार का चरित्न-निरूपण भी है। इनकी सम्पूर्ण काव्य चेतना लोकजीवन से रस-ग्रहण करती है। 'मधुर दृष्टांत मंजूषा' इस दृष्टि से कवि के लोक अनुभवों का संचित कोष है। (ब) श्रावक कवि: विनयचन्दः-- इनका जन्म जोधपुर-भोपालगढ़ के बीच एक छोटे से गांव देईकडा में हुआ। इनके पिता का नाम गोकुल चन्द कुंभट था। ये प्राचार्य श्री हम्मीरमल जी के निष्ठावान श्रावक थे और प्रज्ञाघर थे। इनकी 'विनयचन्द्र चौबीसी' अत्यन्त प्रसिद्ध रचना है जिसे कवि ने संवत् 1906 में पूरी की थी। इनमें 24 तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। इसीलिये इसे चौबीसी कहा गया है। भावों को सरसता, कमनीयता एवं आध्यात्मिकता के कारण इनका एक-एक पद भक्तों को भाव-विह्यल एवं आत्मविभोर बना देता है। आज भी भक्त लोग इनके पदों को सस्वर गाते हुये मुग्ध और तन्मय बन जाते हैं। प्राचार्य श्री जवाहरलाल जी म. इनके पदों से ही प्रवचन प्रारम्भ किया करते थे। इनकी दूसरी प्रसिद्ध कृति 'आत्मनिन्दा' है। यह रचना भी अत्यन्त प्रभावोत्पादक है। इसमें प्रात्मा की उसके किये हये कलुषित कर्मों के लिये भर्त्सना की गई है। पूर्वकृत पापों को पश्चाताप की अग्नि से धो डालने का यह विधान साधक को प्रात्मोन्नति की ओर अग्रसर करता है। कवि ने हिंसा, झठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह प्रादि पापों की निन्दा करते हये चेतन को प्रात्मस्वभाव में रमण करने की प्रेरणा दी है। तीसरी कृति ‘पट्टावली' है जिसमें ऐतिहासिक दृष्टि से कवि ने भगवान महावीर से लेकर अपनी गुरु-परम्परा तक का उल्लेख किया है। इनकी एक अन्य रचना 'पूज्य हमीर चरित ' भी है। 2. जेठमल: इनका जन्म जयपुर के प्रतिष्ठित जौहरी परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम भूधर जी चोरडिया और माता का लक्ष्मी देवी था। ये सहृदय और गायक कवि थे। इनकी 'जम्बू गुण रत्नमाला' प्रसिद्ध काव्य कृति है जिसकी रचना संवत् 1920 में की गई। इस कृति का समाज में बडा प्रचार है। साधु लोग भी अपने व्याख्यानों में इसे गा-गा कर सुनाते हैं। विभिन्न - 1. प्रकाशक-मरुधर केसरी साहित्य प्रकाशन समिति, जोधपुर-व्यावर। 2. विशेष के लिये देखिये 'मरुधर केसरी अभिनन्दन ग्रंथ' में प्रकाशित डा. नरेन्द्र भानावत का लेखे 'मरुधर केसरी की काव्यकला', पृ. 34-52। ३. प्रकाशक-सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल, जयपुर । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 193 गटकों में इनकी और भी कई फुटकर रचनायें मिलती हैं। इन्होंने कई उपदेशात्मक पद भी लिखे हैं जो वैराग्य भाव से परिपूर्ण हैं और उनमें प्रभाव डालने की क्षमता है। सभी संतों के प्रति इनके मन में बड़ा आदर था। अतः जो भी गुणी संत जयपुर में आते, उनके गुण-कीर्तन के रूप में इनकी काव्य धारा फूट पड़ती। विभिन्न साधुनों पर लिखी गई ऐसी कई रचनायें प्राप्य हैं। (स) साध्वी कवयित्रियां: भारतीय धर्म परम्परा में साधुओं की तरह साध्वियों का भी विशेष योगदान रहा है । ऐतिहासिक पम्परा के रूप में हमें भगवान महावीर के बाद के साधुओं की प्राचार्य-परम्परा का तो पता चलता है पर साध्वियों की परम्परा अन्धकाराच्छन्न है। भगवान महावीर के समय में 36,000 साध्वियों का नेतृत्व करने वाली चन्दनबाला उनकी प्रमुख शिष्या थी। महावीर से ही तत्व-चर्चा करने वाली जयन्ती का उल्लेख 'भगवती सूत्र' में आया है। अतः यह निश्चित है कि साधुओं और श्रावकों के साथ-साथ साध्वियों और श्राविकाओं की भी अवच्छिन्न परम्परा रही है। इतिहासज्ञों एवं साहित्यकर्मियों का यह महत्वपूर्ण दायित्व है कि वे इस परम्परा को खोजें। साधनों की तरह साध्वियों का भी अन्य क्षेत्रों की तरह साहित्य के निर्माण और संरक्षण में भी महत्वपूर्ण योग रहा है। 14वीं शती से लेकर आज तक काव्य-रचना में रत जिन साध्वियों का उल्लेख मिलता है, उनमें गुण समृद्धि महत्ता, विनयचुला, पद्मश्री, हेमश्री, हेमसिद्धि, विवेकसिद्धि, विद्या सिद्धि आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। 2 यहां स्थानकवासी परम्परा से संबद्ध कतिपय साध्वी कवयित्रीयों का संक्षेप में परिचय दिया जा रहा है 1. हरकू बाई: प्राचार्य विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, जयपुर में पुष्ठा सं. 105 में 88 वीं रचना में 'महासती श्री अमरुजी का चरित्न' इनके द्वारा रचित मिलता है। इसकी रचना संवत् 1820 में किशनगढ़ में की गई है। इन्हीं की एक अन्य रचना 'महासती चतरुजी सज्झाय' भी मिलती है, जिसका प्रकाशन श्री अगरचन्द जी नाहटा ने 'ऐतिहासिक काव्य संग्रह' में पू. सं. 214-15 पर किया है। 2. हुलासाजी:-- प्राचार्य विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, जयपुर में पुष्ठा सं. 218 में 50 वीं रचना 'क्षमा व तप ऊपर स्तवन' इनकी रचित मिलती है। इसकी रचना संवत् 1887 में पाली में हुई। 3. सरूपाबाई: ये पूज्य श्री श्रीमलजी म. सा. से संबंधित हैं। नाहटाजी ने 'ऐतिहासिक काव्य संग्रह में पृ. 156-58 पर इनकी एक रचना 'पू. श्रीमलजी की सज्झाय' प्रकाशित की है। 1. प्रा. वि. ज्ञा. भ. में ये सुरक्षित हैं। 2. देखिये-डा. शान्ता भानावत का 'मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रंथ' में प्रकाशित साध्वी परम्परा की जैन कवयित्रियां' शीर्षक लेख, पु. 301-3071 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जड़ावजी : इनका जन्म सं. 1898 में सेठों की रीया में हुआ था । बाल्यावस्था में ही इनका विवाह कर दिया गया । कुछ समय बाद ही इनके पति का देहान्त हो गया। परिणामस्वरूप इन्हें संसार के प्रति विरक्ति हो गई भौर 24 वर्ष की अवस्था में सं. 1922 में इन्होंने प्राचार्य रत्नचन्द्र जी म. के सम्प्रदाय की प्रमुख शिष्या रम्भाजी के पास दीक्षा अंगीकृत करली। रंभाजी की 16 विशिष्ट साध्वियां थीं जिनमें ये प्रधान थीं । नेत्र ज्योति क्षीण हो जाने से संवत् 1950 से अन्तिम समय तक ये जयपुर में ही स्थिरवासी बन कर रहीं। संवत् 1972 में ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी को इनका स्वर्गवास हुआ । 4. सती जड़ाव जी जैन कवयित्रियों में नगीने की तरह जड़ी हुई प्रतीत होती हैं । यद्यपि ये अधिक पढ़ी लिखी नहीं थीं पर कविता करना इनकी जीवनचर्या का एक अंग बन गया था । 50 वर्ष के सुदीर्घ साधना काल में इन्होंने जीवन के विविध अनुभव श्रात्मसात् कर काव्य में उतारे । इनका जीवन जितना साधनामय था काव्य उतना ही भावनामय । इनकी रचनाओं का एक संकलन "जैन स्तवनाकली" नाम से जयपुर से प्रकाशित हुआ है। प्रवृत्तियों के आधार पर इनकी रचनाओं को चार वर्गों में बांट सकते हैं- स्तवनात्मक, कथात्मक, उपदेशात्मक और तात्विक । सुमति कुमति को चौढालियों, अनाथी मुनि रो सतढालियो, जम्बू स्वामी को सतढालियो, इनकी कथात्मक रचनायें हैं । सरल बोलचाल की राजस्थानी में विविध राग-रागिनियों में हृदय की उमड़ती भावधारा को व्यक्त करने में ये बड़ी कुशल हैं। लोक व्यवहार और प्राकृतिक वातावरण की भावभूमि पर लम्बे-लम्बे सांगरूपक बांधने में इन्हे विशेष सफलता मिली है । पावंता जी: ये पूज्य श्री अमरसिंह जी म. की परम्परा से संबद्ध हैं । इनका जन्म श्रागरा के निकट खेड़ा भांडपुरी गांव में संवत् 1911 में हुआ । इनके पिता का नाम श्री बलदेव सिंह जी चौहान व माता का धनवती था। संवत् 1924 में श्री कंवरसेन जी महाराज के प्रतिबोध से इन्होंने साध्वी हीरादेवी जी के पास दीक्षा ग्रहण की। ये तपस्विनी संयम-साधिका, प्रभावशाली व्याख्याता और कवित्वशक्ति की धनी थीं । 'जैन गुर्जर कवियों' भाग 3 खण्ड 1 पृ. 389 पर इनकी चार रचनाओं का उल्लेख है - वृत्त मंडली (सं. 1940), ( 2 ) श्रजितसेन कुमार ढाल (सं. 1940), ( 3 ) सुमति चरित्र (सं. 1961), (4) भरिदमन चौपई (सं. 1961 ) । इनकी कई गद्य कृतियां भी प्रकाशित हैं । 5. 6. भूरसुन्दरी: इनका जन्म संवत् 1914 में नागौर के समीप बुसेरी नामक गांव में हुआ । इनके पिता का नाम प्रखयचन्द जी रांका और माता का रामबाई था । अपनी बुआ से प्रेरणा पाकर 11 वर्ष की अवस्था में साध्वी चम्पाजी से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। पद्य और गद्य दोनों पर इन का समान अधिकार था । इनकी रचनायें मुख्यतः स्तवनात्मक और उपदेशात्मक हैं । इन्होंने कई सुन्दर पहेलियां भी लिखी हैं । बीकानेर से इनके निम्नलिखित 6 ग्रंथ प्रकाशित हुये हैं । 1. इस संबंध में 'महावीर जयन्ती स्मारिका' भप्रेल 1964 में प्रकाशित -- डा. नरेन्द्र भानात का 'जड़ावजी की काव्यसाधना' लेख दृष्टव्य है । 2. विस्तृत जानकारी के लिये देखिये 'साधनापथ की समर साधिका' ग्रंथ, लेखिका - साध्वी श्री सरना जी । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 197 भूर सुन्दरी जैन भजनोद्धार (सं. 1980),(2)भर सुन्दरी विवेक विलास (सं. 1984),(3) भूर सुन्दरी बोध विनोद (सं. 1984),(4) भर सुन्दरी अध्यात्म बोध (सं. 1983),(5) भूर सुन्दरी ज्ञान प्रकाश (सं. 1986), (6) भूर सुन्दरी विद्याबिलास (सं. 1986) । 7. रत्नकुंवर: प्राचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज की आज्ञानुवर्ती प्रवर्तिनी श्री रत्नकुंवरजी शास्त्र पंडिता और तपस्विनी साध्वी हैं। काव्य क्षेत्र में इनकी अच्छी गति है। स्तवनों और उपदेशों का एक संग्रह 'रत्नावली' नाम से प्रकाशित हुया है। 51 ढालों में निबद्ध इनकी एक अन्य रचना 'श्री रत्नचूड़, मणिचूड चरित्न' भी प्रकाशित हुई है। भीलवाड़ा से एक आख्यानक काव्य 'सती चन्द्रलेखा' सं. 2004 में प्रकाशित हुआ। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर स्थानकवासी परम्परा के कवियों की काव्य-साधना की मुख्य विशेषताओं को संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है: (1) ये कवि प्रमुख रूप से साधक और शास्त्रज्ञ रहे हैं। कवित्व इनके लिये गौण रहा है। प्रतिदिन जनमानस को प्रतिबोधित करना इनके कार्यक्रम का मुख्य अंग होने से अपने उपदेश को बोधगम्य और जनसुलभ बनाने की दृष्टि से ये समय-समय पर स्तवन, भजन, कथाकाव्य मादि की रचना करते रहे हैं। (2) इस परम्परा में बत्तीस प्रागमों की मान्यता होने से इनके काव्य का मूल-प्रेरणास्रोत पागम साहित्य और इससे संबद्ध कथा साहित्य रहा है। सुविधा की दृष्टि से इनके काव्य के चार वर्ग किये जा सकते हैं-चरितकाव्य, उत्सव काव्य, नीति काव्य और स्तुति काव्य । चरित काव्य में सामान्यतः तीर्थंकरों, गणधरों, महान प्राचार्यों, निष्ठावान श्रावकों, सतियों आदि की कथा कही गई है। 'रामायण' और 'महाभारत' को अपने ढंग से ढालों में निबद्ध कर उनके प्रादर्शों का व्यापक प्रचार प्रसार करने में ये बडे सफल रहे हैं। ये काव्य रस, चौपाई ढाल, सज्झाय, संधि, प्रबन्ध, चौढालिया, पंचढालिया, षटढालिया, सप्तढालिया, चरित, कथा आदि रूपों में लिखे गये हैं। उत्सव काव्य विभिन्न आध्यात्मिक पवों और ऋतु विशेष के बदलते हुये वातावरण को माध्यम बना कर लिखे गये हैं। इनमें सामान्यतः लौकिक रीति-नीति को सांगरूपक के माध्यम से लोकोत्तर रूप में ढाला जा रहा है। नीति काव्य जीवनोपयोगी, उपदेशों, तथा तात्विक सिद्धांतों से संबंधित हैं। इनमें सदाचार पालन, कषायत्याग, सप्तव्यसन-त्याग ब्रह्मचर्य, व्रत-प्रत्याख्यान, बारह भावना, ज्ञान दर्शन, चारित्र, तप, दया, दान, संयम, आदि का माहात्म्य तथा प्रभाव वर्णित है। स्तुति काव्य चौबीस तीर्थंकरों, बीस विहरमानों और महान् माचार्यों तथा मुनियों से संबंधित हैं। (3) इन विभिन्न काव्यों का महत्व दो दृष्टियों से विशेष है। साहित्यिक दृष्टि से इन कवियों ने महाकाव्य और खण्ड काव्यों के बीच काव्य-रूपों के कई नये स्तर कायम किये और उनमें लोक संगीत का विशेष सौन्दर्य भरा। वर्ण्य-विषय की दष्टि से अधिकांश चरित काव्यों में कथा की कोई नवीनता या मौलिकता नहीं है। पिष्टपेषण मात्र सा लगता है। एक ही चरित्र को विभिन्न रूपों में बार-बार गाया गया है। पर इन कथाओं के माध्यम से क्षेत्रीय लोकजीवन पौर लोक संस्कृति का जो चित्र अंकित किया गया है, वह सांस्कृतिक दृष्टि से बड़े महत्व का है। प्रागमिक कथाभों के अतिरिक्त अपनी परम्परा से संबद्ध जिन महान प्राचार्यो मनियों और साध्वियों पर जो सज्झाय, स्तवन मौर ढानें लिखी गई हैं, उनमें ऐतिहासिक शोध की पर्याप्त सामग्री है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 ( 4 ) यह परम्परा मूल रूप से धार्मिक क्रांति और सामाजिक जागरण से जुड़ी हुई है । इस कारण इन कवियों में धर्म के क्षेत्र में व्याप्त आडम्बर, बाह्याचार, रूढ़िवादिता और जड़ता के प्रति स्वाभाविक रूप से विद्रोह की भावना रही है । इन्होंने सदैव निर्मल संयम-साधना, भांतरिक पवित्रता और साध्वाचार की कठोर मर्यादा पर बल दिया है । ( 5 ) इस परम्परा के कवियों का विहार क्षेत्र मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब रहा है । जन्मना, राजस्थानी होकर भी अपने साधनाकाल में ये विभिन्न क्षेत्रों में पद विहार करते रहे हैं । इस कारण इनकी भाषा में स्वाभाविक रूप से अन्य प्रांतों के देशज शब्दों का समावेश हो गया है । भाषा के क्षेत्र में इन कवियों का दृष्टिकोण बड़ा उदार और लचीला रहा है । इन्होंने सदैव तत्सम प्रयोगों के स्थान पर तद्भव प्रयोगों को विशेष महत्व दिया है । भाषा की रूढ़िबद्धता से ये सदैव दूर रहे हैं। यही कारण है कि इनके काव्यों में भले ही रीतिकालीन कवियों सा चमत्कार -प्रदर्शन और कलात्मक सौन्दर्य न मिले पर भाषा विज्ञान की fe से इनके अध्ययन का विशेष महत्व है । अलंकारों के प्रयोग में ये बड़े सजग रहे हैं । उपमानों के चयन में इनकी दृष्टि शास्त्रीयता की अपेक्षा लोकजीवन पर अधिक टिकी है । लम्बे-लम्बे सांगरूपक बांधने में ये विशेष दक्ष प्रतीत होते हैं । ( 6 ) छन्द के क्षेत्र में इनका विशेष योगदान है। जहां एक ओर इन्होंने प्रचलित मात्रिक और वर्णिक छन्दों का सफलतापूर्वक निर्वाह किया है, वहां दूसरी ओर विभिन्न छन्दों को मिलाकर कई नये छन्दों की सृजना की है । ये कवि अपने काव्य का सृजन मुख्यतः जनमानस को प्रतिबोधित करने के उद्देश्य से किया करते थे, अतः समय-समय पर प्रचलित लोक धुनों नौर लोक प्रिय तर्कों को अपनाना ये कभी नहीं भूले। जहां वैराग्य प्रधान कवित्त और सवैये लिख कर इन्होंने मां भारती का भंडार भरा, वहां ख्यालों में प्रचलित तोड़े भी इनकी पहुंच से नहीं बचे | गज़ल और फिल्मी धुन के प्रयोग भी प्राध्यात्मक के क्षेत्र में ये बड़ी कुशलता से कर सके हैं । चित्रकाव्यात्मक छन्दबद्ध रचना में तिलोक ऋषि और अमी ऋषि का योगदान विस्मृत नहीं किया जा सकता है । (7) काव्य - निर्माण के साथ-साथ प्रति लेखन और साहित्य संरक्षण में भी इन कवियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । कई मुनियों और साध्वियों ने अपने जीवन में सैकड़ों मूल्यवान और दुर्लभ ग्रंथों का प्रतिलेखन कर, उन्हें कालकवलित होने से बचाया है । साहित्य के संरक्षण और प्रतिलेखन में इन्होंने कभी भी साम्प्रदायिक दृष्टि को महत्व नहीं दिया । जो भी इन्हें ज्ञानबर्द्धक, जनहितकारी और साहित्यिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यवान लगा, फिर चाहे वह जैन हो या जैनेतर, उसका संग्रह - संरक्षण अवश्य किया । राष्ट्रीय एकता एवं सांस्कृतिक की दृष्टि से इनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी पद्य साहित्यकार 4. -साध्वी कनकश्री सत्य एक है, अखण्ड है और शाश्वत है । लेकिन उसकी अभिव्यक्ति के स्रोत, साधन और परिवेश भिन्न-भिन्न होते हैं । यह विविधता साहित्यकार के विश्वजनीन व्यक्तित्व को भी सीमाओं, रेखाओं और नाना वर्गों में विभवत कर देती है । साहित्य की मूल प्रेरणा है प्रान्तरिक संघर्ष और अपनी अनुभूतियों को जन-सामान्य की अनुभूतियों में भिगो देने की एक तीव्रतम उत्कंठा । फिर भी प्रत्येक साहित्यकार की यह मजबूरी होती है कि वह अपने कथ्य को अपने परिवेश के आवेष्टनों से आवेष्टित करके ही विश्व के सामने प्रस्तुत करता है और विश्व चेतना उसे साम्प्रदायिकता की दृष्टि से देखने लगती है । इस दृष्टि से देखें तो सभी जैन सम्प्रदायों के यशस्वी विद्वानों ने राजस्थानी भाषा का समादर किया है और समय-समय पर उसके साहित्य भण्डार को बहुमूल्य ग्रन्थरत्नों का अर्ध्य चढ़ाया है । इस क्रम में तेरापंथ संघ की साहित्य-परम्परा ने भी अपने युग का सफल प्रतिनिधित्व किया है । तेरापंथ के श्राद्य प्रणेता प्राचार्य श्री भिक्षु से लेकर युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी द्वारा प्रवाहित स्रोतस्विनी की एक-एक धारा इस तथ्य को उजागर करती हुई आगे बढ़ रही है । तेरापंथ संघ के अनेक-अनेक मनिषियों ने राजस्थानी साहित्य को समृद्ध बनाने में अपना महत्वपूर्ण योग दिया है । प्रस्तुत है उनमें से कुछ चुने हुए साहित्यकारों का परिचय और उनकी पद्यबद्ध कृतियों की संक्षिप्त समीक्षा | star श्री भिक्षु र उनकी साहित्य सेवा: श्राचार्य श्री भिक्षु तेरापंथ धर्म संघ के प्रवर्तक थे पर अपने स्वतन्त्र दर्शन श्रौर मौलिक चिन्तन के आधार पर युग चेतना ने उन्हें युगप्रवर्तक थोर क्रान्त-द्रष्टा के रूप में सहज स्वीकृति है | प्राचार्य श्री भिक्षु की काव्य प्रतिभा नैसर्गिक थी । उन्होंने गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में अपनी अनुभूतियों को गूंथा है । वह समग्र साहित्य 38,000 श्लोक परिमित हो जाता है । उनकी पद्यमय कृतियां 'भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर' नामक ग्रन्थ में संकलित हैं । उसके दो खण्ड हैं। पहले खण्ड के 938 पृष्ठों में उनकी छोटी-बडी 34 कृतियां प्रकाशित हैं और दूसरे खण्ड के 712 पृष्ठों में 21 कृतियां । उनकी रचनाओं में सहज सौन्दर्य है, माधुर्य है, प्रोज है और है श्रद्भुत फक्कडपन के साथ पूर्ण अनाग्रहवृत्ति, ऋजु दृष्टिकोण, वीतराग प्रभु के प्रति अगाध श्रास्था, श्रागम वाणी के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव और भ्रान्तरिक विनम्नता की सुस्पष्ट झलक है । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 उनकी तात्त्विक और दार्शनिक कृतियों में, एक गहनतम कृति है 'नव पदार्थं सद्भाव' । यह एक उच्चकोटि का दार्शनिक ग्रंथ है। जैन दर्शन सम्मत नौ तत्वों का सूक्ष्म प्रतिपादन जिस समग्रता और सहजता से इसमें हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । श्री मज्जाचार्य और उनकी विशाल साहित्य राशि : , श्राचार्य श्री भिक्षु से लगभग एक शताब्दी पश्चात् श्राये तेरापंथ के चतुर्थ श्राचार्य श्री जीतमलजी स्वामी, जिन्हें हम जयाचार्य की अभिधा से अभिहित करते हैं । वे महान् साहित्कार श्रुतसमुपासना में एकार्णवीभूत होकर उन्होंने जो पाया और युग को दिया वह आज भी उनकी प्रचुर साहित्य राशि में सुरक्षित है । थे । श्रद्वितीय टीकाकारः जयाचार्य की प्रतिमा चमत्कारी थी । उनकी साहित्यिक प्रतिभा बचपन में ही परिस्फुट थी । ग्यारह वर्ष की किशोरावस्था में 'सन्तगुणमाला' नामक कृति की संरचना कर उन्होंने समूचे संघ को चौंका दिया था । यौवन की दहलीज पर पांव धरते ही मानों उनका कवि एक साथ अंगडाई लेकर जाग उठा और मात्र 18 वर्ष की वय में उन्होंने 'पन्नवणा' जैसे गहनतम जैन श्रागम पर, राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध टीका लिख डाली । उसके बाद तो उनकी साहित्य स्रोतस्विनी इतनी तीव्र गति से बही कि थामें भी नहीं थमी। अपने जीवन काल में साढ़े तीन लाख पद्य प्रमाण ग्रन्थ रचना कर मानों उन्होंने राजस्थानी साहित्य की दिशा में नये युग का सूत्रपात कर दिया । 'भगवती की जोड़' श्रापकी श्रद्वितीय कृति है । यह है वृहत्तम जैन आगम भगवती की पद्यबद्ध राजस्थानी टीका । 80,000 पद्य परिमित यह अनुपम कृति अपनी दुरूहता की स्वयंभूत प्रमाण है । सरस राग-रागिनियों में संरब्ध यह टीका साहित्य जगत् की अमूल्य धरोहर है । इसके अतिरिक्त निशीथ, श्राचाराग और उत्तराध्ययन की पद्यबद्ध टीकायें लिखकर उन्होंने न केवल नई साहित्यिक विधा को जन्म दिया, बल्कि उसे सर्वजनीन बनाने में भी वे सफल सिद्ध हुये हैं । जयाचार्य पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने जैन श्रागमों की पद्यमय टीकायें लिखकर राजस्थानी साहित्य को गौरवान्वित किया । उन टीकाओं के माध्यम से उन्होंने गूढ़तम सैद्धांतिक प्रश्नों को समाहित किया और चिन्तन के नये आयाम उद्घाटित किये । टीकाओं की भाषा सरस, सरल और प्रवाहपूर्ण है। उनकी लेखनी की क्षमता प्रद्भुत थी । पद्यों का निर्माण कर लेना उनके लिये कोई कठिन नहीं था । तभी जैसे महाग्रंथ को पांच वर्षों की स्वल्प अवधि में तैयार कर सके । एक दिन में तीन-तीन सौ तो वे 'भगवती की जोड़' भक्त कविः जयाचार्य एक उच्चकोटि के भक्त कवि थे । भक्ति रस से श्रोतप्रोत उनकी अनेक रचनाएं जब लोक-गीतों के रूप में जन-जन के मुंह पर थिरकती हैं तो व्यक्ति की अध्यात्म चेतना संकृत हो उठती है । 'चौबीसी' (चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति) आपकी ऐसी ही भक्ति प्रधान जनप्रिय कृति है । एक अध्यात्म कृति होते हुये भी उसका साहित्यिक रूप भी कम निखरा हुआ नहीं है । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 उन्होंने तात्विक और दार्शनिक विषयों में स्वतन्त्र रूप से भी बहुत कुछ लिखा है। जिनमें 'झोणी चरचा, झोणों ज्ञान, प्रश्नोत्तर तत्व बोध और जिनाज्ञा को चौढालियो' है। चरित्न प्रबन्धों में 'भिक्षु जस रसायण, हेमन बरसो, सरदार सुजस, महिपाल चरित्र' प्रमुख हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जयाचार्य की नाना विधाओं में विनिर्मित साहित्य राशि अपनी मौलिकता की प्रस्तुति के साथ-साथ शोध विद्वानों के लिये प्रचर सामग्री प्रस्तुत कर रही है। उनकी अमर कृतियां राजस्थानी साहित्य की अप्रतिम उपलब्धि है। युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी और उनकी काव्य-कृतियां: युग प्रधान प्राचार्यश्री तुलसी तेरापंथ संघ के नौवें अधिशास्ता और जैन परम्परा के महान् वर्चस्वी युगप्रभावक प्राचार्य हैं। आप ग्यारह वर्ष की वय में मुनि बने, बाईस वर्ष की अवस्था में तेरापंथ के प्राचार्य बने। पैतीस वर्ष की वय में प्रणवत अनुशास्ता बने और एक महान नैतिक क्रांति के सन्नधार बनकर अन्तर्राष्टीय क्षितिज पर एक महान शक्ति के रूप प्राए । प्राचार्यश्री की साहित्यिक प्रतिभा अनेक-अनेक धाराओं में बही है और दर्शन, न्याय, सिद्धांत, काव्य आदि साहित्य की नाना विधाओं में परिस्फुटित हई है। आपने जहां हिन्दी और संस्कृत को अपनी अमुल्य काव्य-कृतियां और ग्रन्थ-रत्न समर्पित किए हैं वहां अपनी मातभाषा के चरणों में भी अनर्थ्य मणियों का अर्थ्य चढ़ाया है। उन्होंने राजस्थानी भाषा में बहत कुछ लिखा है, जिसमें उल्लेखनीय है--'श्री काल उपदेश वाटिका, श्री कालू यशोविलास, माणक महिमा, डालिम चरित्न, मगन चरित्र' आदि कृतियां । काल उपदेश वाटिकाः-- आचार्यश्री के भावप्रवण प्रोपदेशिक गीतों एवं भजनों का उत्कृष्ट कोटि का संकलन है यह, इन गीतों में मीरां की भक्ति और कबीर का फक्कडपन दोनों ही प्रखरता लिये हुये है। श्री काल यशोविलास:-- प्राचार्यश्री की अप्रतिम काव्य कृति है--श्री काल यशोविलास । राजस्थानी भाषा में संदब्ध यह कृति काव्य परम्परा की बेजोड़ कड़ी है। भाषा की संस्कृत निष्ठता ने राजस्थानी भाषा के गौरव को कम नहीं होने दिया है, प्रत्यत उसकी सजीवता और समृद्धि का संवर्द्धन ही किया है। यह कृति काव्य परम्परा की बजोड़ कड़ी है। माणक महिमा:-- माणक महिमा आचार्यश्री की राजस्थानी भाषा में ग्रथित दूसरी काव्य कृति है। इसमें तेरापंथ के छठे आचार्यश्री माणक गणी की जीवन-गाथा गुम्फित है। इसमें तेरापंथ संघ की गौरवशाली परम्परा, इतिहास और तत्कालीन परिस्थितियों को जिस पटता से गंथा गया है वह कवि की व्यंजना शक्ति, भाव प्रवणता और अतीत को वर्तमान से सम्पक्त कर देने की अद्भुत क्षमता का परिचायक है। प्रस्तुत कृति में प्राकृतिकता चित्रण और काल्पनिक की अपेक्षा कवि ने मानवीय भावों के प्राकलन में अधिक सफलता पाई है। कवित्व की दृष्टि से अनेक स्थल बडे ही चमत्कारी Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 पौर कलापूर्ण बन पड़े हैं। कहीं-कहीं अनुभूतियों की तीव्रता और कविता में उतर आई कवि की संवेदनशीलता हृदय को झकझोर देती है। हालिम चरित्र:-- इस प्रबन्ध काव्य में तेरापंथ के सप्तम प्राचार्यश्री डालगणी के गरिमामय व्यक्तित्व की विस्तृत झांकी प्रस्तुत की है आचार्यश्री तुलसी ने सरल भाषा और आकर्षक शैली में। काव्यनायक का व्यक्तित्व स्वतः स्फर्त था और नेतृत्व सक्षम । उनकी वरिष्ठता का प्रमाण है, संघ के द्वारा प्राचार्य पद के लिये उनका निर्विरोध चुनाव । प्राचार्य चरितावली की पूरक कड़ियां: तेरापन्थ के पांच पूर्वाचार्यों का यशस्वी जीवन चरित्र 'प्राचार्य चरितावली' नामक ग्रंथके दो खण्डों में प्रकाशित है जो तेरापन्थ की सन्त परम्परा के विभिन्न कवियों द्वारा अपनीअपनी शैली और अपने-अपने ढंग से प्रणीत है। । इन कृतियों का भी राजस्थानी पद्य-साहित्य परम्परा में गौरवपूर्ण स्थान है। अपने पूर्वाचार्यों का प्रामाणिक जीवन वृत्त लिखकर तेरापन्थ संघ ने साहित्य-जगत् को अपनी मौलिक देन दी है। पश्चातवर्ती तीन प्राचार्यों के जीवन-वत्त अलिखित थे, प्राचार्यश्री की चमत्कारी काव्य प्रतिभा का योग मिला, उस कमी की पूर्ति हई। 'माणक महिमा, डालम चरित्र और काल यशोविलास' ये तीनों काव्य कृतियां प्राचार्य चरितावली की अधूरी श्रृंखला की पूरक कड़ियां बन गई हैं। मगन चरित:-- मगन चरित्र आचार्यश्री तुलसी का राजस्थानी गेय काव्य है, जिसमें एक ऐसे महामना व्यक्ति की जीवन-गाथा कविता के कमनीय स्वरों में मुखर हुई है, जिसने तेरापन्थ के पांच-पांच प्राचार्यों के विभिन्न युगों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और आचार्यश्री ने उनकी विरलतामों का मूल्यांकन कर उन्हें मन्त्री पद से समलंकृत किया था। वे थे शासन-स्तम्भ मुनि श्री मगनलाल जी स्वामी जिनकी विभिन्न भूमिकाओं का संक्षिप्त चित्र प्रस्तुत है कवि के शब्दों में मधवा मान्यों, माणक जान्यो, सम्मान्यो गणि डाल । कालू अपनो अंग पिछाण्यो, तुलसी मानी ढाल ॥ तेरापन्थ के साधु-साध्वियों ने भी राजस्थानी भाषा में बहुत कुछ लिखा है। उनका मीति साहित्य और पाख्यान साहित्य राजस्थान के पद्यात्मक वाङमय में अपना विशिष्ट स्थान रखता है और लोक-जीवन को प्रभावित करने में वह काफी सफल रहा है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी पद्य साहित्यकार 5 (1) भट्टारक सकलकीर्ति ( संवत् 1443-1499 ) भट्टारक सकलकीर्ति संस्कृत के समान ही राजस्थानी भाषा के भी जबरदस्त विद्वान थे । इसलिये जहां उन्होंने एक ओर संस्कृत भाषा में 28 से भी अधिक कृतियां निबद्ध की वहां राजस्थानी में भी सात रचनायें छन्दोबद्ध करके राजस्थानी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योग दिया है। ये 15वीं शताब्दी के विद्वान् थे तथा इनका मुख्य केन्द्र मेवाड़, बागड एवं राजस्थान में मिलने वाले गुजरात के नगर एवं गांव थे 1 इनकी राजस्थानी रचनाओं के नाम निम्न प्रकार हैं आराधना प्रतिबोध सार नेमीश्वर गीत -- डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल मुक्तावलि गीत णमोकार फल गीत सोलहकारण रास सार सीखामणि रास शान्तिनाथ फागु णमोकार फल गीत में प्राराधना प्रति ये सभी कृतियां भाषा साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं । 15 पद्य हैं जिनमें णमोकार मन्त्र का महात्म्य एवं उनके फल का वर्णन है । बोध सार में 55 पद्य हैं जिनमें विविध विषयों का वर्णन मिलता है। इसी तरह सार सीखाममि रास शिक्षाप्रद रचना है । इसमें 4 ढालें और तीन वस्तुबंध छन्द हैं । मुक्तावली गीत, सोलहकारण रास एवं शान्तिनाथ फागु भी लघु रचनायें अवश्य हैं किन्तु राजस्थानी भाषा एवं शैली की दृष्टि से अवश्य महत्वपूर्ण हैं । नेमीश्वरगीत एवं मुक्तावली गीत उनकी संगीत प्रधान रचनायें हैं । ( 2 ) ब्रह्मजिनदास : इसलिये ये योग्य गुरु के ब्रह्मजिनदास भट्टारक सकलकीर्ति के प्रमुख शिष्य थे । योग्यतम शिष्य थे । साहित्य सेवा ही इनके जीवन का एक मात्र उद्देश्य था । यद्यपि इनका संस्कृत एवं राजस्थानी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था लेकिन राजस्थानी से उन्हें विशेष अनुराग था इसलिये 50 से भी अधिक रचनायें इन्होंने इसी भाषा में लिखीं। राजस्थानी भाषा के ब्रह्मजिनदास संभवतः प्रथम महाकवि हैं जिन्होंने इतनी अधिक संख्या में काव्य रचना की हो । अपने जीवन काल में और उसके सैकड़ों वर्षों बाद तक राजस्थानी भाषा को प्रश्रय देना इनकी बहुत बड़ी सेवा मानी जानी चाहिये । ब्रह्मजिनदास के जन्म, जन्म तिथि, जन्म-स्थान आदि के बारे में तो निश्चित जानकारी नहीं मिलती । यह अवश्य है कि ये भ. सकलकीर्ति के शिष्य थे साथ ही लघु भ्राता भी थे । इसलिये भ. सकलकीर्ति का उन पर सबसे अधिक अनुराग रहा होगा । इन्होंने सबसे अधिक रास संज्ञक काव्य लिखे जिससे पता चलता है कि वे काव्य की इस विधा को सबसे अधिक मान्यता देने वाले महाकवि थे । रामरास को इन्होंने संवत् 1508 में तथा हरिवंश पुराण को संवत् 1520 में निबद्ध किया था । शेष रचनाओं में इन्होंने इनकी समाप्ति का कोई समय नहीं दिया । इन महाकवि की रचनाओं को हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 (1) पुराण साहित्य : आदिनाथ पुराण हरिवंश पुराण (2) रासक साहित्य :-- राम सीता रास नागकुमार रास होली रास श्रेणिक रास अम्बिका रास जम्बस्वामी रास सुकोशलस्वामी रास दश लक्षण रास धन्यकुमार रास धनपाल रास नेमीश्वर रास अठावीस मूलगुण रास यशोधर रास परमहंस रास धर्मपरीक्षा रास सम्यक मिथ्यात्व रास नागश्री रास भद्रबाहु रास रोहिणी रास अनन्तव्रत रास चारुदत्त प्रबन्ध रास । भविष्यदत्त रास करकण्डु रास हनुमत रास अजितनाथ रास ज्येष्ठ जिनवर रास सुदर्शन रास श्रीपाल रास कर्मविपक रास सोलहकारण रास बंकचूल रास पूष्पांजलि रास जीवन्धर रास सुभौमचक्रवति रास (3) गीत एवं स्तवन : मिथ्या-दुकड विनती पालोचना जयमाल जिणंदगीत आदिनाथ स्तवन जीवडा गीत बारहवत गीत स्फुट वीनती, गीत आदि (4) कथा साहित्य : रविव्रत कथा चौरासी जाति जयमाल अष्टांग सम्यक्त्व कथा भट्टारक विद्याधरकथा व्रत कथा कोष पञ्च परमेष्ठि गुणवर्णन पूजा साहित्य : गुरु जयमाल जम्बूद्वीप पूजा गुरु पूजा सरस्वती पूजा शास्त्र पूजा निर्दोष सप्तमी व्रत पूजा भाषा: कवि के मुख्य क्षेत्र की भाषा गुजराती होने के कारण इनकी सभी रचनाओं पर गुजराती का स्पष्ट प्रभाव है। इसलिये कहीं-कहीं तो ऐसा लगने लगता है जैसे मानों वह गुजराती की ही रचना हो। ब्रह्म जिनदास ने अपने गुरु भ. सकलकीर्ति का प्रत्येक रचना में उल्लेख ही नहीं किया किन्तु श्रद्धा के साथ उनकी वन्दना भी की है। ब्रह्म जिनदास की कृतियों में काव्य के विविध लक्षणों का समावेश है। यद्यपि प्रायः सभी काव्य शान्त-रस पर्यवसायी हैं लेकिन वीर, शृंगार, हास्य आदि रसों का भी यत्र-तत्र प्रयोग Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 105 क्षमता है। कवि के काम हमा है। कवि में अपने मन्तव्य को आकर्षक रीति से कहने की क्षमता है। कवि के काव्य सदा ही लोकप्रिय रहे हैं। आज भी राजस्थान के पचासों शास्त्र भण्डार इनकी कृतियों से समलंकृत हैं। (3) पद्मनाभ : ये राजस्थानी विद्वान थे और चित्तौड इनका निवास स्थान था। अभी तक इनकी एक रचना बावनी उपलब्ध हुई है जिसे इन्होंने संघपति डूंगर के प्राग्रह से लिखी थी। बावनी का रचना काल सन 1486 है। इसमें सभी 54 छन्द छप्पय छन्द हैं। राजस्थानी भाषा एवं शैली की दृष्टि से यह एक उच्चस्तरीय रचना है। इसका दूसरा नाम 'डूंगर की बावनी' भी है क्योंकि बावनी के प्रत्येक छन्द में संघपति डूंगर को संबोधित किया गया है। (4) ठक्कुरसी : कविवर ठक्कूरसी राजस्थानी के अच्छे विद्वान थे। इनकी लिखी हई अब तक 5 रचनायें उपलब्ध हो नकी हैं जिनके नाम हैं -पार्श्वनाथ सत्तावीसी, शील बत्तीसी, पंचेन्द्रिय बेलि, कृपण चरित्र एवं नेमि राजमति वेलि । प्रथम रचना संवत् 1578 में तथा दूसरी एवं तीसरी रचना संवत् 1585 में समाप्त हुई थी। यद्यपि ये सभी लघु रचनायें हैं लेकिन भाषा एवं वर्णन शैली की दष्टि से ये उच्चकोटि की कृतियां हैं। कविवर ठक्कुरसी अपनी र । कविवर ठक्कुरसी अपनी रचनाओं के कारण राजस्थान में काफी लोकप्रिय रहे। भण्डारों में पंचेन्द्रिय वेलि, कृपण चरित्न जैसी रचनाएं अच्छी संख्या में उपलब्ध होती हैं। इनके पिता का नाम धेल्ह अथवा थेल्ह था। ये राजस्थान के किस प्रदेश में निवास करते थे इसके बारे में इनकी रचनायें मौन हैं। (5) छोहल :-- राजस्थानी कवियों में छीहल का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में इनकी प्रमुख रचना बावनी पर्याप्त संख्या में उपलब्ध है। ये अग्रवाल जैन थे और इनके पिता का नाम नाथू था। अब तक इनकी पांच कृतियां उपलब्ध हो चुकी हैं जिनके नाम निम्न प्रकार हैं :-- पंच सहेली गीत उदरगीत पंथी गीत बेलि बावनी गीत (रे जीव-जगत सुपणों जाणि) प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल एवं डा. रामकुमार वर्मा ने भी अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में कवि के पंच पहेली गीत का उल्लेख किया है। उक्त रचनायों में पंथी गीत एवं पंच पहेली गीत का रचनाकाल संवत् 1575 तथा बावनी का संवत् 1584 है। बावनी कवि की सबसे बड़ी रचना है जो एक से अधिक विषयों के वर्णन से युक्त है। जिसमें संसार की दशा, नारी चरित्र आदि विषय प्रमुख हैं। बावनी के प्रत्येक छंद में कवि ने अपने नाम का उल्लेख किया है। कवि की शेष सभी रचनायें गीतों के रूप में है जिससे पता चलता है कि तत्कालीन जन साधारण को हिन्दी भाषा की और प्राकृष्ट Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने के लिए गीतात्मक शैली अपनायी है। कवि ने प्रत्येक विषय का सूक्ष्म वर्णन किया है भाषा एवं शैली की दृष्टि से सभी रचनायें ठीक हैं। (6) प्राचार्य सोमकीति : प्राचार्य सोमकीर्ति 15वीं शताब्दी के उभट विद्वान प्रमुख साहित्य सेवी एवं उत्कृष्ट जैन संत थे। वे स्वाध्याय करते, साहित्य सजन करते और लोगों को उसकी महत्ता बतलाते। वे संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी एवं गजराती भाषा के प्रसिद्ध विद्वान थे। प्राचार्य सोमकीति काष्ठासंघ के नन्दीतट शाखा के सन्त थे। संवत 1518 में रचित एक ऐतिहासिक पट्टावली में उन्होंने अपने आपको काष्ठासंघ का 7वां भद्रारक लिखा है। राजस्थानी भाषा में अब तक इनकी 6 रचनायें उपलब्ध हो चकी हैं। इनके नाम निम्न प्रकार हैं :---- गुर्वावली मल्लिनाथ गीत यशोधर रास आदिनाथ विनती रिषभनाथ स्तुति नेपन क्रियागीत मुर्वावली संस्कृत एवं राजस्थानी मिश्रित रचना है। इस कृति के आधार पर संवत् 1518 में रचित राजस्थानी गद्य का नमना देखा जा सकता है। यशोधर रास कवि की सबसे बड़ी रचना है। इसे उसने संवत् 1536 में लिखा था। ऋतुओं, पेड़-पत्तों एवं प्राकृतिक दृश्यों का इस काव्य में अच्छा वर्णन हसा है। शेष सभी कृतियां सामान्य हैं। ज्ञानभूषण : भटारक जानभषण विक्रम की 16वीं शताब्दी के विदान थे। ये भ. भवनकीति के शिष्य थे। ये संवत् 1530-31 में किसी समय भदारक गादी पर बैठे और 1560 के पूर्व तक भट्टारक रहे। ये संस्कृत, प्राकृत, गुजराती एवं राजस्थानी के प्रमुख विद्वान थे। अब तक इनके 10 संस्कृत ग्रन्थ एवं 5 राजस्थानी भाषा में निबद्ध ग्रंथ मिल चुके हैं। राजस्थानी कृतियों के नाम निम्न प्रकार हैं : पोसह रास मादीश्वर फाग षट् कर्म रास जल गालण रास नागद्रा रास प्रादीश्वर फाग राजस्थानी भाषा की अच्छी कृति है। फाग संज्ञक काव्यों में इसका विशिष्ट स्थान है। यह कृति भी संस्कृत एवं राजस्थानी भाषा में निबद्ध है। इसमें दोनों भाषामों के 501 पद्य हैं जिनमें 262 राजस्थानी और शेष 239 संस्कृत पद्य हैं। कवि की अन्य सभी रचनायें भी भाषा, विषय वर्णन एवं छन्दों की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। शानभूषण ने राजस्थानी भाषा के विकास में जो योगदान दिया वह सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। (8) ब्रह्म बूचराज : राजस्थानी भाषा में रूपक काव्यों के निर्माता की दृष्टि से ब्रह्म बुचराज का उल्लेखनीय स्थान है। इनकी रचनाओं के आधार पर इनका समय संवत् 1530 से 1600 तक का माना जा सकता है। मयणजुज्झ इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय रचना रही जिसकी कितनी ही पाण्डुलिपियां राजस्थान के विभिन्न भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। कवि पूर्णतः प्राध्यात्मिक थे Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 और अपने काव्यों में भी उसने मानव के असद गुणों पर सद्गुणों की विजय बतलायी है। मयणजज्झ में कामदेव पर विजय प्राप्ति का जो चित्र उपस्थित किया है वह बड़ा ही आकर्षक है। इसी तरह उसने सन्तोष तिलक जयमाल में सन्तोष की लोभ पर जो विजय बताई है वह अपने दष्टि का अकेला काव्य है और अपनी चेतन पुद्गल धमाल में जो जड़ और चेतन का द्वन्द बतलाया है तथा जन्म जन्मान्तरों से चले आ रहे संघर्ष को जिन शब्दों में उपस्थित किया है वह कवि के काव्यत्व शक्ति एवं काव्य प्रतिभा का परिचायक है। चेतन और जड़ का संवाद बहत ही सुन्दर रीति से प्रस्तुत किया गया है। ब्रह्म बूचराज की अब तक निम्न रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं: मयणजुज्झ ( टंडाणा गीत विजयकीर्ति गीत संतोष तिलक जयमाल नेमिनाथ वसंतु पद चेतन पुद्गल धमाल नेमीश्वर का बारहमासा (9) ब्रह्म यशोधर (संवत् 1520-90): ब्रह्म यशोधर काष्ठासंघ में होने वाले भ. सोमकीर्ति के प्रशिष्य एवं विजयसेन के शिष्य थे। ये महाव्रती थे। इनका विहार स्थान राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र एवं उत्तर प्रदेश रहा। विभिन्न उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इनका समय संवत् 1520 से 1590 तक माना जा सकता है। इनकी अब तक निम्न कृतियां प्राप्त हो चुकी हैं : मल्लिनाथ गीत . नेमिनाथ गीत (सं. 1581) नेमिनाथ गीत नेमिनाथ गीत बलिभद्र चौपई ब्रह्म यशोधर की काव्य शैली परिमार्जित है। वे किसी भी विषय को सरल शब्दों में प्रस्तुत करने में सक्षम थे। उन्होंने नेमिनाथ पर तीन गीत लिखे लेकिन तीनों ही गीतों में अपनीअपनी विशेषताएं हैं। बलिभद्र चौपई इनकी सबसे अच्छी काव्य कृति है। यह श्रीकृष्ण एवं बलराम के सहोदर प्रेम की एक उत्तम कृति है। यह लघु काव्य है। निखरी हुई भाषा में निबद्ध यह काव्य राजस्थानी भाषा की उत्तम कृति है। अभी इनकी और भी कृतियां मिलने की संभावना है। (10) भट्टारक शुभचन्द्र: भट्टारक शुभचन्द्र भ. विजयकीर्ति के शिष्य थे। संवत् 1530 के पास पास इनका जन्म हुप्रा और बाल्यकाल में ही इनका भट्टारकों से सम्पर्क हो गया। संवत् 1573 में ये भद्रारक बने और इस पद पर संवत 1613 तक बने रहे। इन्होंने देश के विभिन्न भागों में विहार किया और जीवन पर्यन्त सत् साहित्य का प्रचार करने में लगे रहे। इन्होंने ग्रंथों का भारी अध्ययन किया और जनता द्वारा ये षटभाषा चक्रवर्ति कहलाए जाने लगे। अब तक इनकी 24 संस्कृत रचनायें एवं 7 राजस्थानी रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं। राजस्थानी रचनाओं के नाम निम्न प्रकार हैं: महावीर छन्द नेमिनाथ छन्द गीत मादि। विजयकीर्ति छन्द दान छन्द गुरुछन्द तत्वसार दूहा Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 इनकी भी सभी रचनायें लघु हैं। तत्वसार दुहा में 91 छन्द हैं जो जैन सिद्धांतों पर प्राधारित हैं। इनकी भाषा संस्कृत-निष्ठ है। कितने ही शब्दों का अनुस्वार सहित ज्यों का त्यों प्रयोग कर लिया गया है। सभी रचनायें मौलिक एवं पठनीय हैं। (11) ब्रह्म जयसागरः ब्रह्म जयसागर भ. रत्नकीर्ति के प्रमुख शिष्यों में से थे। इनका समय संवत् 1580 से 1665 तक का माना जा सकता है। इनकी निम्न रचनायें महत्वपूर्ण हैं:--- पंचकल्याणक गीत नेमिनाथ गीत चुनडी गीत क्षेत्रपाल गीत जसोधर गीत संघपति मल्लिदासजी गीत शीतलनाथ नी वीनती पंचकल्याणक गीत कवि की सबसे बड़ी कृति है। इसमें 70 पद्य हैं। राजस्थानी भाषा में लिखे गये ये सभी गीत अत्यधिक लोकप्रिय रहे हैं। चुनडी गीत एक रूपक गीत है। इसमें नेमिनाथ के वन चले जाने पर उन्होंने अपने चरिव रूपी चुनडी को किस रूप में धारण किया इसका संक्षिप्त वर्णन है । (12) आचार्य चन्द्रकीर्तिः प्राचार्य चन्द्रकीर्ति 17वीं शताब्दी के विद्वान थे। ये भ. रत्नकीर्ति के शिष्य थे। कांकरोली, डंगरपूर, सागवाड़ा आदि नगर इनके साहित्य निर्माण के केन्द्र थे। 'सोलहकारणरास, जयकुमाराख्यान, चारित्न चूनडी, चोरासी लाख जीव योनि बीनती' ये चार रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं। सोलहकारण रास एक लघु कृति है जिसमें 46 पद्य हैं। उसे भडौच (गुजरात) के शान्तिनाथ मन्दिर में रची गई थी। जयकुमाराख्यान 4 सर्गों में विभक्त एक खण्ड काव्य है जिसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र सम्राट भरत के सेनाध्यक्ष का भव्य जीवन-चरित्र वर्णित है। प्राख्यान वीर रस प्रधान है। इसकी रचना बारडोली नगर के चन्द्रप्रभ चैत्यालय में संवत 1655 की चैत्र शुक्ला दशमी के दिन समाप्त हुई थी। शेष दोनों ही कृतियां लघु कृतियां (13) मुनि महनन्दिः -- मनि महनन्दि भ. वीरचन्द्र के शिष्य थे। इनको एक मात्र कृति बारक्खरी दोहा उपलब्ध होती है। इस कृति का दूसरा नाम दोहा पाहुड भी है। इसमें विविध विषयों का वर्णन दिया हुमा है जिनमें उपदेशात्मक, आध्यात्मिक एवं नीति परक दोहे प्रमुख रूप से हैं। (14) ब्रह्म रायमल्ल:-- ब्रह्म रायमल्ल 17वीं शताब्दी के विद्वान् थे। राजस्थानी भाषा के विद्वान् सन्तों में इनका उल्लेखनीय स्थान है। ये मुनि अनन्तकीर्ति के शिष्य थे। ये राजस्थान के विभिन्न नगरों में विहार किया करते थे तथा वहीं पर श्रावकों के प्राग्रह से नवीन कृतियां निबद्ध करते रहते थे। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 इनमें सांगानेर, रणथम्भौर, सांभर, टोडारायसिंह, हारसोर प्रादि स्थानों के नाम उल्लेखनीय हैं। अब तक इनकी निम्न रचनाएं उपलब्ध हो चुकी हैं। नेमीश्वर रास (1615) सुदर्शन रास (1629) परमहंस चौपई (1636) आदित्यवार कथा चन्द्रगुप्त स्वप्न चौपई हनुमन्त रास (1616) श्रीपाल रास (1630) जम्बूस्वामी चौपई चिन्तामणि जयमाल ज्येष्ठ जिनवर कथा प्रद्युम्न रास (1628) भविष्यदत्त रास (1633) निर्दोष सप्तमी कथा छियालीस ढाणा उक्त सभी कृतियों की भाषा राजस्थानी है तथा गीतात्मक शैली में लिखी हई है। ऐसा लगता है कि कवि अथवा इनके शिष्य इन कृतियों को सुनाया करते थे। इसलिये कृतियों की भाषा अत्यधिक सरल एवं रुचिकर है। भविष्यदत्त रास इनकी सबसे अच्छी कृति है जिसमें 115 दोहा-चौपई हैं तथा नगरों, वहां के बाजारों में चलने वाला व्यापार, रहनसहन आदि का भी सुन्दर वर्णन किया है। भविष्यदत्त रास में सांगानेर का इसी तरह का एक वर्णन देखिये:-- सोलहस तैतीस सार, कातिग सुदि चौदसि शनिवार, स्वाति नक्षिन सिद्धि शुभ जोग, पीडा दुख न व्याप रोग 19081 देस ढुंढाहड सोभा घणी, पूजै तहां आलि मण तणी । निर्मल तलौ नदी बहु फैरि, सुषस बस बहु सांगानेरि ।909। चहंदिसि बण्डा भला बाजार, भरे पटोला मोती हार। भवन उत्तुग जिनेसुर तणा, सोने चन्दवो तोरण घणा 19101 राजा राजे भगवतदास, राजकुवर सेवहि बहुतास । परिजा लोग सुखी सुख वास, दुखी दलिद्री पूरवै पास ॥ (15) छीतर ठोलिया:-- छीतर ठोलिया मोजमाबाद के निवासी थे। उनकी जाति खण्डेलवाल एवं गोन ठोलिया था। इनकी एक मात्र रचना होली की कथा संवत् 1650 की कृति है जिसमें उन्होंने अपने ही ग्राम मोजमाबाद में निबद्ध की थी। उस समय नगर पर आमेर के महाराजा मानसिंह का शासन था। (16) हर्षकीति: हर्षकीति राजस्थान के जैन सन्त थे। इन्होंने राजस्थानी एवं हिन्दी में कितनी ही छोटी बड़ी रचनायें निबंद्ध की थीं। चतुर्गति वेलि इनकी अत्यधिक लोकप्रिय रचना रही है जिसे इन्होंने संवत 1683 में समाप्त किया था। ये आध्यात्मिक कवि थे। नेमिराजल गीत, नेमीश्वर गीत, मोरडा, कर्महिण्डोलना, पंचगति वेलि आदि सभी आध्यात्मिक रचनायें हैं। कवि द्वारा निबद्ध कितने ही पद भी मिलते हैं जो अभी तक प्रकाश में नहीं पाये हैं। कवि की एक और रचना वेपनक्रिया रास की खोज की जा चुकी है। यह संवत् 1684 में रची गई थी। (17) ठाकुर: ठाकुर कवि 17वीं शताब्दी के कवि थे। कवि किस प्रदेश के थे तथा माता-पिता कौन थे इस संबंध में कोई जानकारी नहीं मिलती। इनकी एक मात्र कृति शान्तिनाथ पुराण की एक 1. शाकम्भरी के विकास में जैन धर्म का योगदान-डा. कासलीवाल, पृ. 471 - - - Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 पाण्डुलिपि अजमेर के भट्टारकीय ग्रंथ भण्डार में संग्रहीत है। इसका रचनाकाल संवत् 1652 है। पुराण विस्तृत है तथा सभी काव्यगत तत्वों से युक्त है। (18) देवेन्द्रः यशोधर के जीवन पर सभी भाषाओं में कितने ही काव्य लिखे गये हैं। राजस्थानी एवं हिन्दी में भी विभिन्न कवियों ने इस कथा को अपने काव्यों का आधार बनाया है। इन्हीं काव्यों में देवेन्द्र कृत यशोधर चरित भी है जिसकी पाण्डुलिपिडूंगरपुर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है। काव्य वहद है। इसका रचना काल सं. 1683 है। देवेन्द्र विक्रम के पुत्र थे जो स्वयं भी संस्कृत एवं हिन्दी के अच्छे कवि थे। कवि ने महमा नगर में यशोधर की रचना समाप्त की थी संवत् 16 आठ नीसि पासो सुदी बीज शुक्रवार तो। रास रच्यो नवरस् भर्यो महुआ नगर मझार तो॥ कवि ने अपनी कृति को नवरस से परिपूर्ण कहा है। (19) कल्याणकीति:-- भट्टारक सकलकीर्ति की परम्परा में होने वाले मुनि देवकीति के शिष्य कल्याणकीर्ति थे। ये 17वीं शताब्दी के विद्वान् थे। कवि की अब तक निम्न रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं:-- चारुदत्त चरित्न (1692) श्रेणिक प्रबन्ध पार्श्वनाथ रासो बधावा चारुदत्त चरित्र में सेठ चारुदत्त के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। रचना दहा और चौपई छन्द में है। इसका दूसरा नाम चारुदत्त रास भी है। इस कृति को इन्होंने भिलोडा ग्राम में निबद्ध की थी। श्रेणिक संबंध तो इन्होंने बागड देश के कोटनगर में संवत् 1705 में लिखा था। कल्याणकीति राजस्थानी भाषा के अच्छे कवि हैं। इनके द्वारा रचित संस्कृत रचनायें भी मिलती हैं जिनके नाम जीरावली पार्श्वनाथ स्तवन, नवग्रह स्तवन एवं तीर्थंकर विनती हैं। (20) वर्धमान कविः-- भगवान महावीर पर यह प्राचीनतम रास संज्ञक कृति है जिसका रचना काल संवत् 1665 है। रास के निर्माता वर्धमान कवि हैं। काव्य की दृष्टि से यह अच्छी रचना है। वर्धमान कवि ब्रह्मचारी थे और भट्टारक वादिभूषण के शिष्य थे। रास की एकमात्र पाण्डुलिपि उदयपुर के अग्रवाल दिगम्बर जैन मन्दिर में संग्रहीत है। (21) भट्टारक वीरचन्द्रः वीरचन्द्र प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् थे। व्याकरण एवं न्यायशास्त्र के प्रकाण्ड वेत्ता थे। संस्कृत, प्राकृत, गुजराती एवं राजस्थानी पर इनका पूर्ण अधिकार था। ये भ. लक्ष्मीचन्द्र के Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 211 शिष्य थे। ये 17वीं शताब्दी के विद्वान् थे। अब तक इनकी आठ रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं जिनके नाम निम्न प्रकार हैं:-- वीरविलास फाग नैमिनाथ रास सीमंधर स्वामी गीत संबोध सत्ताणु जिन प्रांतरा बाहुबलि वेलि जम्बूस्वामी वेलि चित्तनिरोध कथा वीरविलास फाग एक खण्ड काव्य है जिसमें 22 वें तीर्थंकर नैमिनाथ की जीवन घटना का वर्णन किया गया है। फाग में 137 पद्य हैं। जम्बूस्वामी वेलि एक गुजराती मिश्रित राजस्थानी रचना है। जिन प्रांतरा में 24 तीर्थंकरों के समय ग्रादि का वर्णन किया गया है। संबोध सत्ताण एक उपदेशात्मक गीत है जिसमें 57 पद्य हैं। चित्तनिरोधक कथा 15 पद्यों की एक लघु कृति है इसमें भ. वीरचन्द्र को 'लाड नीति शृंगार' लिखा है। नेमिकुमार रास की रचना सं. 1673 में समाप्त हुई थी यह भी नेमिनाथ की वैवाहिक घटना पर आधारित एक लघु कृति के 1673 में सवारचन्द्र (22) सन्त सुमतिकीर्तिः-- सुमतिकीर्ति भट्टारकीय परम्परा के विद्वान् थे। एक भट्टारक विरुदावली में सुमतिकीर्ति को सिद्धांतवेदि एवं निग्रेन्थाचार्य इन दो विशेषणों से संबोधित किया है। ये राजस्थ के अच्छे विद्वान् थे। अब तक इनकी निम्न रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं:-- धर्मपरीक्षा रास जिनवरस्वामी वीनती जिह्वादन्त विवाद बसन्त विद्या विलास शीतलनाथ गीत पद धर्मपरीक्षा रास इनकी सबसे बड़ी रचना है जिसे इन्होंने संवत् 1625 में समाप्त की थी। (23) टीकम:-- टीकम 18वीं शताब्दी के प्रथम चरण के कवि थे। ये ढंढाड प्रदेश के कालख ग्राम के निवासी थे। इन्होंने संवत् 1712 में चतुर्दशी चौपई की रचना इसी ग्राम के जिन मन्दिर में समाप्त की थी । (24) खडगसेन (संवत् 1713):-- खड्गसेन का जन्म स्थान नारनौल था जो बागड देश में स्थित था। ये मानूशाह के पौत्र एवं लणराज के पूत्र थे। इनको शिक्षा आगरा में चतुरभज वैरागी के पास हई तथा लाहोर नगर में सम्राट शाहजहां के शासन काल में संवत 1713 में त्रिलोकदर्पण कथा की रचना समाप्त की। रचना दोहा चौपई छन्द में निबद्ध है तथा तीन लोक का वर्णन करने वाली है। कवि ने कृति के अन्त में अपना विस्तृत परिचय दिया है। (25) दिलाराम: ___कवि के पूर्वज खंडेले के पहल गांव के रहने वाले थे। किन्तु बूंदी नरेश के अनुरोध से ये सपरिवार बूंदी आकर रहने लगे थे और वहीं इनकी 6 पीढ़ियां गुजर गयी थीं। इसके Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व चार पीढ़ियां टोडारायसिंह में समाप्त हुई थीं। इनकी तीन रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं। दिलाराम विलास इनकी सभी लघु कृतियों का संकलन है तथा प्रात्म द्वादशी में प्रात्मा का वर्णन हुआ है। संवत् 1768 में दिलाराम विलास की रचना पूर्ण हुई थी। तीसरी रचना व्रतविधानरासौ है जिसकी रचना संवत् 1767 में समाप्त हुई थी। तीनों ही रचनायें अभी तक अप्रकाशित हैं। कवि की भाषा परिमार्जित है तथा उस पर हाडोती का प्रभाव है। (26) मुनि शुभचन्द्रः-- मुनि शुभचन्द्र भ. जगत्कीर्ति के संघ में मुनि थे । भट्टारकों के संघ में प्राचार्य, मुनि, ब्रह्मचारी आदि सभी रहते थे। मनि शुभचन्द्र इसका प्रमाण है। मनि शभचन्द्र हाडौती प्रदेश के कुजडपुर में रहते थे। वहां चन्द्रप्रभ स्वामी का चैत्यालय था। उसी मन्दिर में इन्होंने होली कथा को निबद्ध किया था। यह रचना भाषा की दृष्टि से अच्छी कृति है। इसका रचना काल सं. 1755 है। (27) नथमल बिलाला (संवत् 1822):-- नथमल बिलाला यद्यपि मूल निवासी आगरा के थे लेकिन पहिले भरतपुर और फिर हिण्डौन आकर रहने लगे थे। उनके पिता का नाम शोभाचन्द्र था। इन्होंने सिद्धांतसार दीपक की रचना भरतपुर में सुखराम की सहायता से तथा भक्तामर स्तोत्र की भाषा हिण्डौन में संवत् 1829 में अटेर निवासी पाण्डे बालचन्द्र की सहायता से की थी। उक्त दोनों रचनात्रों के अतिरिक्त कवि की निम्न रचनाएं और उपलब्ध हो च की हैं:--- जिणगुणविलास (1822) जीवन्धर चरित (1835) अष्टाहि नका कथा नागकुमार चरित्र (1834) जम्बूस्वामी चरित्र नथमल प्रतिभा सम्पन्न कवि था इसलिये इसकी रचनाओं में सहज भाषा मिलती है। कवि ने सभी रचनाओं स्वान्तः सुखाय निबद्ध की थी। कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया-- नन्दन सोभाचन्द को नथमल अतिगनवान। गोत बिलाला गगन में उग्यो चन्द समान । नगर आगरो तज रहे, हीरापुर में प्राय । करत देखि उग्रसैन को कीनो अधिक सहाय॥ (28) प्रचलकीति:-- ये 18वीं शताब्दी के कवि थे। अब तक इनकी विषापहार स्तोत्र भाषा, कर्मबत्तीसी एवं रविव्रतकथा रचनायें प्राप्त हो चकी हैं। कर्मबत्तीसी को इन्होंने संवत् 1777 में समाप्त की थी। ये भद्रारकीय परम्परा के सन्त थे। (29) थानसिंहः-- कविवर थानसिंह सांगानेर के रहने वाले थे। इनकी जाति खण्डेलवाल एवं गोत्र ठोलिया था। सूबद्धिप्रकाश की ग्रन्थ प्रशस्ति में इन्होंने आमेर, सांगानेर तथा जयपुर का वर्णन लिखा है। जब इनके माता-पिता जयपुर में अशान्ति के कारण करोली चले गये थे तब भी Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 ये सांगानेर में रहे और वहीं रहते हुये रचनायें लिखी थीं। इनकी अभी तक दो रचनायें प्राप्त होती हैं--रत्नकरण्ड श्रावकाचार एवं सूबद्धिप्रकाश। प्रथम रचना को इन्होंने सं. 1821 में तथा दूसरी को संवत् 1824 में समाप्त की थी। सुबुद्धिप्रकाश का दूसरा नाम थानविलास भी है। इसमें छोटी रचनाओं का संग्रह है। दोनों ही रचनायें भाषा एवं वर्णन शैली की दष्टि से सामान्य रचनायें हैं। इनकी भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव है। (30) हीराः हीरा कवि बंदी के रहने वाले थे। इन्होंने संवत् 1848 में नेमिनाथ ब्याहलो नामक लघु रचना लिखी थी । रचना गीतात्मक है। (31) टेकचन्द्र: टेकचन्द्र 18वीं शताब्दी के राजस्थानी कवि हैं । इनके पिता का नाम दीपचन्द एवं पितामह का नाम रामकृष्ण था। ये मूलत: जयपुर निवासी थे लेकिन फिर माहिपुरा में जाकर रहने लगे थे। अब तक इनकी 21 से भी अधिक रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं। इनमें 'पुष्पास्रवकथाकोश (सं. 1822), पंच परमेष्टीपूजा, कर्मदहनपूजा, तीनलोक पूजा (1828), सुदृष्टितरंगिणी (1838), व्यसनराज वर्णन (1827), पंचकल्याण पूजा, पंचभेदपूजा, अध्यात्म बारहखडी एवं दशाध्यान सूत्र टीका' के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके पद भी मिलते हैं जो अध्यात्मरस से अोतप्रोत होते हैं। पूण्यास्रव कथाकोश इनकी वृहत् रचना है जिसमें 79 कथाओं का संग्रह है। चौपई एवं दोहा छन्दों में लिखा हग्रा यह एक सुन्दर काव्य है। कवि ने इसे संवत् 1822 में समाप्त किया था। इनकी सुदृष्टितरंगिणी जैन समाज में लोकप्रिय रचना मानी जाती है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचरित्र का अच्छा वर्णन हया है। (32) जोधराज कासलीवाल:--- ___जोधराज कासलीवाल महाकवि दौलतराम कासलीवाल के सुपुत्र थे। अपने पिता के समान यह भी राजस्थानी के अच्छे कवि थे। इनकी एकमात्र कृति सुखविलास है जिसमें इनकी सभी रचनाओं का संकलन है। इनका यह संकलन संवत् 1884 को समाप्त हा उस समय कवि की अंतिम अवस्था थी। महाकवि दौलतराम के मरने के पश्चात् कवि जोधराज किसी समय कामां चले गये। सूखविलास में कवि की गद्य पद्य दोनों ही रचनायें सम्मिलित हैं। (33) सेवाराम पाटनी:-- सेवाराम पाटनी महापण्डित टोडरमल के समकालीन विद्वान् थे तथा उन्हीं के विचारों के समर्थक थे। इनके पिता का नाम मायाचन्द था। ये पहिले दौसा में रहते थे फिर वहां से डीग जाकर रहने लगे। संवत् 1824 में दौसा में रहते हुये ही इन्होंने शांतिनाथ चरित की रचना समाप्त की। इसके पश्चात् संवत् 1850 में इन्होंने डीग में रहते हुये मल्लिनाथ चरित की रचना समाप्त की। उस समय वहां महाराजा रणजीतसिंह का शासन था । प्रस्तुत रचना की मूल पाण्डुलिपि कामां के दिगम्बर जैन मन्दिर में सुरक्षित है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 सेवाराम कुछ समय तक जयपुर में भी रहे। लेकिन पं. टोडरमलजी की मृत्यु के पश्चात इन्होंने जयपुर छोड़ दिया तथा डीग एवं मालवा आदि में चले गये । पाटनीजी स्वभाव से भी साहित्यिक थे। (34) ब्रह्म चन्द्रसागरः ये राजस्थानी जैन संत थे तथा सोजत नगर इनका प्रमुख साहित्यिक केन्द्र था। ये भट्टारक रामसैन के अन्वय में होने वाले भ. सुरेन्द्रकीर्ति के प्रशिष्य एवं सकलकीर्ति के शिष्य थे। सोजत नगर में रहते हये ही इन्होंने संवत् 1823 में श्रीपाल चरित की रचना समाप्त की थी। काव्य की भाषा एवं शैली दोनों ही उत्तम है तथा वह विविध छन्दों में निबद्ध की गयी है। ब्रह्मचन्द्रसागर की एक और रचना पंच परमेष्ठि स्तुति प्राप्त होती है। कवि ने उसे भी सोजत नगर में ही सम्पूर्ण की थी। (35) बख्तराम साहः कविवर बख्तराम साह इतिहास, सिद्धांत एवं दर्शन के महान् विद्वान् थे। ये भट्टारकीय परम्परा के पण्डित थे। इन्होंने मिथ्यात्वखण्डन लिख कर भट्टारक परम्परा का खुला समर्थन किया। जयपुर नगर के लश्कर का दिगम्बर जन मन्दिर इनका साहित्यिक केन्द्र था। 'बुद्धिविलास' इनकी महत्वपूर्ण कृति है जिसका इतिहास से पूर्ण संबंध है । कवि ने इसमें तत्कालीन समाज, राजव्यवस्था एवं जयपुर नगर निर्माण प्रादि का अच्छा वर्णन किया है यह उनकी संवत् 1827 की कृति है। बख्तराम चाकसू के निवासी थे। इनके पिता का नाम प्रेमराज साह था जो वहीं रहते थे। लेकिन कुछ समय पश्चात् कवि जयपुर आकर रहने लगे। मिथ्यात्वखण्डन नाटक में कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है : आदि चाटसू नगर के, वासी तिनि को जानि । हाल सवाई जै नगर, मांहि वसे हैं पानि । तहां लसकरी देहरे, राजत श्री प्रभु नेम । जिनको दरसण करत ही, उपजत है अति प्रेम ॥ कवि ने अपने बुद्धिविलास में महापण्डित टोडरमलजी की मृत्यु के संबंध में जो प्रकाश डाला है वह अत्यधिक महत्वपूर्ण है। (36) मन्ना साह:-- मन्ना साह 17वीं शताब्दी के विद्वान् थे। राजस्थान के ये किस प्रदेश को सुशोभित करते थे इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। अभी तक इनकी दो कृतियां मान बावनी एवं लघु बावनी उपलब्ध हई हैं। दोनों ही अपने ढंग की अच्छी रचनायें हैं। कवि का दूसरा नाम मनोहर भी मिलता है। (37) डालराम: ये 19वीं शताब्दी के कवि थे। इनकी गुरुपदेश श्रावकाचार, चतुर्दशी कथा तथा सम्यकत्व प्रकाश प्रसिद्ध रचनायें हैं। इन रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने पूजा साहित्य भी खूब लिखा है। जो राजस्थान के विभिन्न भंडारों में संग्रहीत है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 215 उक्त सन्त कवियों के अतिरिक्त भट्टारक शुभचन्द्र! (द्वितीय) भ. नरेन्द्रकीति, म. सुरेन्द्रकीति, ब्र. गुणकीर्ति, प्राचार्य जिनसैन, ब्रह्म धर्मरुचि', प्राचार्य सुमतिसागर, संयमसागर, त्रिभुवनकीर्ति, ब्रह्म अजित10, म. महीचन्द्र 1], मुनि राजचन्द्र 12, विद्यासागर, म. रत्नचन्द्र (द्वितीय), विद्याभूषण, ज्ञानकीर्ति आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों ने राजस्थानी भाषा में विविध कृतियां लिख कर जन-जन में स्वाध्याय के प्रति रुचि पैदा की। राजस्थान के जैन सन्त व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ. 161 वही, पृ. 165 वही, पृ. 164 वही, पृ. 186 वही, पृ. 187 वही, पृ. 188 वही, पृ. 191 8. वही, पृ. 193 9. वही, पृ. 193 वही, पृ. 195 वही, पृ. 198 12. वही, पृ. 207 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी पद्य साहित्यकार 6 (विक्रम की 18वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी तक) लेखक-डा. गंगाराम गर्ग -:00: पश्चिमी राजस्थान की अपेक्षा पूर्वी राजस्थान में दिगम्बर जैन समाज का बाहुल्य रहा। राजस्थान के ढुंढाड तथा हाडौती क्षेत्रों में सामन्तों और श्रेष्ठिजनों की प्रेरणानों से अनेक जैन उत्सवों का आयोजन तथा जिनालयों का निर्माण हुआ। इससे जैन साहित्य के सृजन को बडी प्रेरणा मिली। पूर्वी राजस्थान के ब्रज के सन्निकट होने तथा आगरा के प्रसद्धि कवि बनारसीदास, भूधरदास, द्यानतराय के प्रभाव के कारण राजस्थान के दिगम्बर जैन कवियों की भाषा भी ब्रजभाषा के प्रभाव से पूर्णतः वंचित न रह सकी। तथापि जैन साहित्य में लोक-भाषा को प्राथमिकता दिये जाने के कारण राजस्थानी की प्रमुख शाखा ढूंढाडी भाषा ही इन कवियों की अभिव्यक्ति का माध्यम रही है अालोच्य काल में कवियों ने जिन तीर्थ करों और विशिष्ट पौराणिक पात्रों के विषय में अपने महाकाव्य और खण्डकाव्य लिखे हैं, वे पात्र हैं--तीर्थंकर, ऋषभदेव, तीर्थंकर नेमिनाथ, तीर्थकर शांतिनाथ, धन्य कुमार, जीवन्धर, श्रीपाल, यशोधर, जम्बूस्वामी, श्रेणिक, भद्रबाह पादि। ये प्रबन्ध काव्य अधिकांशतः प्राकृत और अपभ्रंश के चरित्र ग्रंथों के आधार पर ही लिखे गये हैं। फिर भी उनमें यत्र-तत्र मूल भाव का सा ही काव्यानन्द प्राप्त होता है। जैन प्रबन्धकारों में चरित्न ग्रंथों का पद्यानुवाद करते समय उनके मूल छन्दों के एक-एक शब्द का अर्थ ग्रहण करने की अपेक्षा उनका समग्रभाव ग्रहण कर अभिव्यंजित करने की प्रवृति अधिक रही है। जैन पुराणों के चरित्रों में भाषा के कथ्य एवं प्रतिपाद्य में यत्किञ्चित परिवर्तन न करने की प्रवृत्ति में भाषा कवियों की धार्मिक भावना ही प्रधान रही है। ब्रह्म रायमल्ल, प्राचार्य नेमिचन्द जैसे एक दो कवि अवश्य ऐसे थे, जिन्होंने जैन पुराणों के कथ्य को कुछ अधिक मौलिक ढंग से प्रतिपादित करके श्रेष्ठ प्रबन्ध कवि की क्षमता को निःसंकोच प्रकट किया है। 18वीं शताब्दी के प्रमुख कवि नमिचन्द का 'प्रीतंकर मोषिगामि चौपई' 829 दोहा: चौपाइयों में लिखा हा एक श्रेष्ठ एवं मौलिक चरित्र ग्रंथ है। इस ग्रन्थ की रचना बैश शुक्ला 11 संवत् 1771 में हुई। ग्रंथ के प्रारम्भ में पंच परमेष्टि व गणधरों को प्रणाम करते हये कवि ने श्रेणिक के प्रश्नोत्तर के रूप में प्रीतंकर की कथा गौतम मुनि द्वारा कहलवाई है। कुछ ही प्रबन्ध काव्यों की अपेक्षा जैन कवियों ने फुटकर रचनायें अधिक लिखी हैं । मुक्तक रचनाओं में दोहा, सवैया, छंद अपेक्षाकृत कम और पद अधिक हैं । दोहा-परक मुक्तक रचनाओं में पालोच्य काल की प्रमुख रचनायें हेमराज का दोहा शतक, दौलतराम का विवेक विलास, नवल की दोहा पच्चीसी तथा बुधजन रचित बुधजन सतसई हैं। दोहा-परक रचनाओं में जैन कवियों ने जैन दर्शन तथा भक्ति भाव का यत्किचित प्रतिपादन करते हुये नीति का विश्लेषण अधिक किया है। जैन दोहों में अहिंसा, मांस-भक्षण, परधन-प्राप्ति, परस्त्री गमन, नारी निन्दा, अहंकार वचन, क्रोध, दया आदि विभिन्न नैतिक विषयों पर अपने विचार प्रकट किये हैं। बुधजन सतसई मालोच्य काल.का ही नहीं, समूचे हिन्दी जैन काव्य का प्रतिनिधि दोहा काव्य है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117 कविवर बुधजन ने विभिन्न विषयों पर कही गई सूक्तियों को चार भागों में विभाजित किया है, देवानुरागशतक, सुभाषित नीति तथा उपदेशाधिकार। ढंढाड के जैन कवियों में जोधराज और पार्श्वदास के सवैया बड़े मनोहारी हैं। सवैया का प्रयोग दरबारी कवियों ने श्रृंगार रस तथा संत कवियों ने अध्यात्म और नीति के वर्णन के लिये किया है। संत सुन्दरदास की तरह आत्मा व तत्व के विवेचन, संसार की नश्वरता व भयावहता के चित्रण एवं दया, अहिंसा, त्याग आदि नीति तत्वों के प्रतिपादन के लिये जैन कवियों ने सवैये लिखे हैं। इस दृष्टि से जोधराज की दो कृतियां ज्ञान समुद्र और धर्मसरोवर उल्लेखनीय हैं। दोनों कृतियों की छंद संख्या क्रमश: 147 और 387 है। पद साहित्य: विभिन्न राग-रागिनियों से समन्वित गेय पदों की रचना का प्रारम्भ सिद्ध और नाथों द्वारा नवीं दसवीं शताब्दी में ही कर दिया गया था, किन्तु इनकी प्रगतिशील परम्परा सोलहवीं शताब्दी बाद संत और वैष्णव भक्तों के काव्य में उपलब्ध होती है। जैन साहित्य में पद रचना का प्रारम्भ तो वैष्णव भक्तों से कुछ पहले हुमा किन्तु उसका परम्पराबद्ध विकास और प्रसार वैष्णव पद साहित्य के कुछ बाद हो। 18वों और 19वीं शताब्दी में आगरा और जयपुर में विपुल पद साहित्य लिखा गया। प्रागरा के प्रमुख पद रचयिता थे बनारसीदास, भूधरदास, भैया भगवतीदास, द्यानतराय, जगतराय और जगजीवन। जयपुर में विपुल संख्या में पद रचना करने वाले कवियों में नवल, बुधजन, माणिकचन्द, उदयचन्द, नयनचन्द, रत्नचन्द और पार्वदास आदि हैं । उक्त प्रमुख कवियों के अतिरिक्त ऐसे फुटकर कवि तो अनेक हैं जिनके थोडे थोडे पद ही अभी तक जानकारी में पा सके हैं। डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल के अनुसार यदि इन जैन कवियों के पदों की गणना की जाये तो यह संभवत: दस हजार से कम न होगी। जैन पद साहित्य को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है, भक्तिपरक, अध्यात्मपरक, विरहपरक एवं नीतिपरक । भक्तिपरक पदों में तीर्थंकरों का गुणगान, स्वदोषानुभूति, अनन्यता प्रादि भक्ति तत्व विद्यमान हैं। भक्तिपरक पद साहित्य में नवधा भक्ति, प्रपत्तिवाद, दश आसक्तियां आदि तत्वों के साथ-साथ जैनाचायों द्वारा प्रतिपादित दशधा भक्ति का विवेचन जैन भक्तों की समन्वय भावना का प्रतीक है। अध्यात्मपरक पद साहित्य में जैन तत्वों, आत्मा, पुद्गल, परमात्मा, मोक्ष आदि का वर्णन किया गया है। विरहपरक पद साहित्य में राजुल नेमिनाथ प्रसंग को लेकर लिखा गया है। अहिंसा, सत्य, मन की पवित्रता, त्याग, दान, दया आदि नीति तत्व नीतिपरक पद साहित्य में अभिव्यंजित हुये हैं। प्रात्माभिव्यंजन अनुभूति की पूर्णता, भावों का ऐक्य तथा माधुर्यपूर्ण भाषा गीतिकाव्य के सभी तत्व जैन पद साहित्य में विद्यमान हैं। पालोच्यकाल में प्रबन्ध और मुक्तक काव्यों की रचना करने वाले प्रमुख कवि इस प्रकार हैं:1. जोधराज गोदीका:-- जोधराज गोदीका सांगानेर निवासी अमरचन्द गोदीका के पुत्र थे। जोधराज के नाना धरमदास और मामा कल्याण दास के पास लाखों की सम्पत्ति था । दूर-दूर तक उनका व्यापार फैला हुआ था। ऐसे धनसम्पन्न परिवार में जन्म लेने पर भी बचपन से ही जोधराज के हृदय में धर्म की लगन थी। जोधराज ने पं. हरिनाथ मिश्र को अपना मित्र बनाकर उनकी संगति से शास्त्रज्ञान उपलब्ध किया तथा उनसे अपने पढ़ने के लिये कई हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करवाई। जोधराज गोदीका के ग्रन्थ इस प्रकार हैं: 1. सम्यक्त कौमुदी भाषा (1724), 2. प्रवचनसार भाषा Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. कथाकोषभाषा 4. प्रीतंकर चरित्र भाषा 5. ज्ञान समुद्र (1722) 6. धर्म सरोवर (1724) जोधराज के प्रथम चार ग्रन्थ पद्यानुवाद तथा अन्तिम दो कृतियां मौलिक हैं । ज्ञान समुद्र और धर्म सरोवर दोनों ही नीति प्रधान ग्रन्थ हैं । 2. हेमराज:--- इनका आविर्भाव ढूंढाड प्रदेश के सांगानेर गांव में हुआ । हेमराज पाण्डे रूपचन्द के शिष्य थे । अपने जीवन के आखिरी दिनों में हेमराज कामां चले गए। कामां में उस समय कीर्तिसिंह राज्य करते थे । हेमराज का एक मौलिक ग्रन्थ दोहा शतक है । दोहा शतक की समाप्ति कवि ने संवत् 1725 में की थी। इस में नीति संबंधी लगभग सौ दोहे हैं । हेमराज ने आगरावासी पाण्डे हेमराज के गद्यग्रन्थ प्रवचनसार का भी पद्यानुवाद किया है। 3. नेमिचन्द:-- नेमिचन्द ग्रामेर में स्थापित मूलसंघ के शारदा गच्छ के भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति के प्रशिष्य देवेन्द्रकी ( जगतकीर्ति के शिष्य) के अनुयायी थे । यह खण्डेलवाल जाति के सेठी गोत्र के श्रावक थे । नेमिचन्द अपनी आजीविका उपार्जन के अतिरिक्त शेष समय को काव्य रचना में लगाया करते थे । नेमिचन्द के छोटे भाई का नाम झगडू था । इनके प्रमुख शिष्य दो थे । डूंगरसी और रूपचन्द | जैन मन्दिर निवाई (टोंक) के दो गुटकों में प्राप्त इनकी निम्नलिखित रचनायें हैं : 1. प्रीतंकर चौपई (1771 ) 2. नेमिसुर राजमती की लहरि 3. चेतन हरि 4. 5. 6. 218 7. है । छंद हैं। या है । जीव लूहरि सोधन हरि विसालकीर्ति को देहुरो जखडी कडखो 8. 9. श्रासिक को गीत 10. नेमिसुर को गीत 11. पद संग्रह नेमिचन्द की प्रथम रचना एक मौलिक खण्डकाव्य तथा अन्य रचनायें गेय रचनायें हैं । नेमिचन्द के गीत भावपूर्ण तथा मर्मस्पर्शी हैं । डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल ने नेमिचन्द की एक महत्वपूर्ण कृति नेमिश्वर रास की खोज इस ग्रन्थ की रचना संवत् 1769 में हुई । इस रास में 36 अधिकार और 1308 ग्रन्थ की महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इसमें गद्य और पद्य दोनों को ही अपनाया Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. 4. ब्रह्म नाथू: ब्रह्मचारी नाथू का साधना स्थल वर्तमान टौंक जिले में स्थित 'नगर' ग्राम का जैन मन्दिर था। टोंक जिले के प्रमुख जैन मन्दिरों के शास्त्र भण्डारों की खोज करते समय ब्रह्म नाय की निम्नलिखित रचनायें प्राप्त हुई हैं: नेमीश्वर राजमती को न्याहुलो (1728) 2. नेमजी की लूहरि 3. जिनगीत 4. डोरी का गीत ३. दाई गीत 8. राग मलार, सोरठ, मारु, धनाश्री के गीत मधुर गीतकर नाथू ब्रह्म की उक्त रचनाओं में नेमिश्वर राजमती को ब्याहुलो एक बड़ी रचना है। इसमें 'तलदी, निकासी, सिन्दूरी, विन्द्रावनी की ढालों में नेमिनाथ और राजमती के समस्त विवाह प्रसंग का वर्णन किया गया है। उबटन, दूलह का श्रृंगार, बारात की निकासी, सभी लोकाचार के वर्णन में कवि ने बडी रुचि ली है। 5. सेवक: कवि लोहट द्वारा सेवक को अपना गुरु लिखे जाने के कारण स्पष्ट है कि सेवक कामाविर्भाव अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ। सेवक की दो रचनायें तथा 50 से अधिक पद हैं। इनकी प्रथम रचना 'नेमिनाथ जी का दस भव वर्णन' चौधरियान मन्दिर टोंक में प्राप्त गुटका नं. 102 ब में संग्रहीत है। इस रचना में नेमिनाथ और राजमती के दस जन्मों के अनन्य सम्बन्ध को दिखलाया गया है। सेवक की दूसरी रचना 'चौबीस जिन स्तुति' जैन मन्दिर निवाई (टोंक) के एक गुटके में पृष्ठ 124-26 पर संग्रहीत है। इसमें 30 छंद हैं। सेवक के पद जयपुर के छाबडों के मन्दिर और तेरह पंथी मन्दिर में क्रमशः गुटका न.47 और पद सग्रह न. 946 में प्राप्त हुये हैं। लोहट:-- बघेरवाल जाति में उत्पन्न कवि लोहट के पिता का नाम धर्म तथा बड़े भाइयों का नाम हींग और सुन्दर था। लोहट पहले सांभर और बाद में बूंदी में रहने लगे। अभी तक इनकी केवल दो रचनायें टोंक के जैन मन्दिरों में मिली हैं। लोहट की प्रथम रचना 'अढाई को रासो' का रचनाकाल संवत् 1736 है। इसमें 22 छंदों में मैनासुन्दरी और श्रीपाल की कथा कही गई है। कवि की दूसरी रचना चौढालियो संवत् 1784 में लिखी गई। इसमें 4 ढालों में 50 छंद हैं। ग्रन्थ का विषय जैन प्राचार और नीति है। डा. नरेन्द्र भानावत ने अपने शोध प्रबन्ध 'राजस्थानी वेली साहित्य' में सं. 1735 में रचित इनकी षटलेश्या बेलि का परिचय दिया है। इसके अतिरिक्त कवि की यशोधरचरित (1725), पार्श्वनाथ जयमाला प्रादि रचनायें और मिलती हैं। 7. प्रजयराज पाटणी:-- इनका जन्म सांगानेर में हया। इनके पिता का नाम मनसुख राम अथवा मनीराम था। इन्होंने भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य महेन्द्रकीति से ज्ञान ग्रहण किया और अधिकतर मामेर रहने लगे। अजयराज हिन्दी तथा संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे। इनकी 20 रचनायें मिलती है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 1. प्रादि पुराण भाषा (1797) 2. नेमिनाथ चरित्र भाषा (1735) कक्का बत्तीसी चरखा चउपई 5. चार मित्रों की कथा 6. चौबीस तीर्थकर पूजा 7. चौबीस तीर्थंकर स्तुति 8. जिन गीत 9. जिन जी की रसोई 0. णमोकार सिदि 11. नन्दीश्वर पूजा 12. पंचमेरु पूजा 13. पार्श्वनाथ जी का सालेहा 14. बाल्य वर्णन 15. बीस तीर्थंकरों की जयमाल 16. यशोधर चौपई 17. वंदना 18. शान्तिनाथ जयमाल 19. शिवरमणी विवाह 20. विनती उक्त रचनाओं में काव्यत्व की दष्टि से शिवरमणी विवाह और चरखा चउपई श्रेष्ठ रचनायें हैं। दोनों ही रूपक काव्य हैं। 17 पद्यों के ग्रंथ शिवरमणी विवाह में तीर्थ कर रूपी दल्हा भव्य जनों की बारात के साथ पंचम गति रूपी ससुराल में पहंच कर भक्तिरूपी शिवरमणी से विवाह करते हैं। तदुपरान्त वर-वधु ज्ञान सरोवर में मिलकर तृप्त हो जाते हैं। चरखा चउपई के 12 पद्यों में कवि ने एक ऐसा चरखा चलाने का उपदेश दिया है जिसमें खूटे शील और संयम, ताडियां शभ ध्यान, पाया शक्ल ध्यान, दामन संवर, माल दशधर्म, हाथली चार दान, ताक आत्म सार, सूत सम्यकत्व और कूकडी 12 व्रत हैं। जिन जी की रसोई भी एक सुन्दर रचना है। इसमें जिन को माता द्वारा परोसे गये नाना प्रकार की मिठाई, पकवान्न और फलों की चर्चा करते हये वात्सल्य भाव का प्रतिपादन है। 8. खुशालचन्द्र काला: काला गोत्रीय खुशालचन्द्र के पिता का नाम सुन्दरदास तथा माता का नाम सुजानदे था। खुशालचन्द्र की प्रारम्भिक शिक्षा उनके जन्मस्थान जयसिंहपुरा (जिहानाबाद) में हुई। कालान्तर में भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति के साथ सांगानेर आ गये। यहां लक्ष्मीदास चांदवाड से कवि ने शास्त्रज्ञान प्राप्त किया और फिर वापिस जयसिंहपुरा चले गये। ख शालचन्द्र ने अपनी अधिकांश रचनायें यहीं लिखी। रचनायें जैन पुराणों के आधार पर लिखी गई हैं: 1. हरिवंश पुराण (1780) 2. यशोधर चरित्र 3. पद्मपुराण व्रतकथा कोष ( 5. जम्बूस्वामी चरित 6. उत्तरपुराण (1799) 7. सद्भाषितावली Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 9. वर्द्धमान पुराण धन्यकुमार चरित 221 10. शान्तिनाथ पुराण 11. चौबीस महाराज पूजा उक्त सभी रचनायें भाषा एवं काव्य कला की दृष्टि से अच्छी रचनायें हैं । 9. किशनसिंह: किशनसिंह के पिता मथुरादास पाटनी अलीगढ़ रामपुरा जिला टोंक के लब्धप्रतिष्ठ व्यक्ति थे । इन्होंने अलीगढ़ (रामपुरा) में एक विशाल जिन मन्दिर का निर्माण करायः । किशनसिंह के छोटे भाई का नाम श्रानन्दसिंह था । किशनसिंह का साधना स्थल सांगानेर रहा। उन्होंने निम्नांकित रचनायें कीः -- 7. 8. 9. 10. 11. 1. णमोकार रास (1760 ) 2. चौबीस दण्डक (1764) 3. 4. पुण्यास्रव कथा कोष ( 1773) भद्रबाहु चरित्र (1783) पन क्रिया कोष ( 1784 ) 5. 6. लब्धि विधान कथा (1782) निर्वाण काण्ड भाषा (1783) चतुर्विंशति स्तुति चेतन गीत चेतन लोरी पदसंग्रह 10. देवा ब्रह्म: -- इनका श्राविर्भाव 18वीं शताब्दी में हुआ । इनका जन्मस्थान संभवत: जयपुर ही था। बड़ा तेरहपंथी मन्दिर जयपुर में पद संग्रह 946 में देवा ब्रह्म के लगभग 72 पद संग्रहीत है । जिनेन्द्र के चरणों में देवा ब्रह्म का भक्तिभाव बेजोड है । 11. दौलतराम कासलीवाल ( संवत् 1749-1829 ) जैन साहित्य में दौलतराम नामक तीन कवि हुये हैं । एक तो पल्लीवाल- जातीय आगरा के रहने वाले तथा दूसरे बूंदी के । तीसरे दौलतराम ढूंढाड प्रदेश के बसवा ग्राम के निवासी श्रानन्दराम के पुत्र थे । इनका जन्म आषाढ़ की 14, संवत् 1749 को हुआ । दौलतराम क्रे अजीत दास, जोधराज, गुलाबदास आदि छः पुत्र हुये । दौलतराम का जीवन काल बसवा, जयपुर, उदयपुर और आगरा आदि चार स्थानों पर अधिक व्यतीत हुआ। दौलतराम की साहित्यिक रुचि को बढाने में आगरावासी विद्वान् बनारसीदास, भूधरदास और ऋषभदास के सम्पर्क का बड़ा योग रहा है । दौलतराम कासलीवाल जयपुर राज्य के महत्वपूर्ण पद को संभालते हुए भी अध्यात्म प्रवचन, जिनपूजा, शास्त्रचर्चा, गद्यलेखन और काव्यसूजन में बडी रुचि रखते थे । इनकी राजस्थानी गद्य-पद्य में लिखी हुई 18 कृतियां प्राप्त हो Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुकी हैं जिनमें 8 पद्य रचनायें, 7 गद्य रचनायें एवं 3 रेखा टीकापरक रचनायें हैं। इनकी काव्य रचनायें हैं: 2. 1. जीवंधर चरित (1805) वैपन क्रिया कोष (1795) अध्यात्म बारह खडी विवेक विलास 5. श्रेणिक चरित (1782) 6. श्रीपाल चरित (1822) चौबीस दण्डक भाषा 8. सिद्ध पूजाष्टक 9. सार चौबीसी दौलतराम कासलीवाल के उक्त चरित एवं अध्यात्म सम्बन्धी ग्रन्थों का प्राधार प्राचीन प्राण एवं जैन शास्त्र है। डा. कस्तुरचन्द कासलीवाल ने अपनी कृति 'महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व और कृतित्व' में कवि का मांगोपांग अध्ययन प्रस्तुत करते हुए प्राचार्यत्व, काव्यत्व तथा वचनिका के क्षेत्र में दौलतराम की अप्रतिम गरिमा को प्रतिष्ठापित किया है। डा. कासलीवाल ने कवि की 'विवेक विलास' की विशेष प्रशंसा करते हए उसे काव्य प्रतिभा का सम्पूर्ण निदर्शन कहा है। 12. साहिबरामः-- साहिबराम की जीवनी के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती है। जयपूर के जैन मन्दिरों में इनकी रचनाओं की प्राप्ति तथा भाषा की दृष्टि से साहिबराम ढढाड के ही प्रतीत होते हैं। इनके पदों की संख्या 60 है। 13. नवल:-- यह बसवा के रहने वाले थे। इनका सम्भावित जीवनकाल संवत 1790-1855 तक बतलाया जाता है। दौलतराम कासलीवाल से इनका घनिष्ठ सम्बन्ध था। इन्हीं की प्रेरणा से इनकी रुचि साहित्य में हई। बधीचन्द मन्दिर जयपुर के गुटका नं. 1087 तथा पद संग्रह नं. 492 में नवल के 222 पद मिलते हैं। नवल की 'दोहा पच्चीसी' नामक एक छोटी सी रचना बीसपंथी मन्दिर पुरानी टौंक के ग्रन्थांक 102 ब के पृष्ठ 6 पर अंकित है। नवल का एक चरित ग्रन्थ वर्धमान पुराण भी बतलाया जाता है। 14. नयनचन्द्र: जयपूर के सभी प्रसिद्ध मन्दिरों बाबा दुलीचन्द भण्डार, आमेर शास्त्र भण्डार, बधीचन्द भण्डार में लगभग 246 पद नैन अथवा नैनसुख की छाप से मिलते हैं। उनको अभी तक प्रसिद्ध विद्वान् गोम्मटसार त्रिलोकसार जैसे जटिल शास्त्रों के टीकाकार जयचन्द छाबडा की रचना माना जाता है। पृष्ट प्रमाणों के अभाव में 'नैन' छाप के पदों को जयचन्द छाबडा के पद मान लेना सर्वथा संदिग्ध है। चरित ग्रन्थों को प्रशस्ति में तो कवि अपना परिचय लिख देता है, कोई चरित ग्रन्थ लिखने के अभाव में नयनचन्द हमें अपने परिचय से अवगत नहीं करा सके। अत: नयनचन्द नामक किसी भक्त कवि के होने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 15. बुधजन:-- इनका जन्म जयपुर शहर में निहालचन्द्र बज के यहाँ हुआ। बुधजन का दूसरा नाम भदीचन्द्र था। इनके पांच भाई और थे। इनके गुरु पं. मांगीलाल जी थे। बचपन से ही जैन धर्म और शास्त्रों में अधिक रुचि लेने के कारण बडे होने पर बुधजन बहुत विद्वान् हो गए। गहन पाण्डित्य के अतिरिक्त शका समाधान की भी इनमें अदभत क्षमता थी। बधजन दीवान अमर चन्द के यहां मुनीम का काम करते थे। इनका बनवाया हुअा भदीचन्द मन्दिर जयपुर के प्रसिद्ध जैन मन्दिरों में से है। बुधजन के निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध हैं :-- 1. बुधजन सतसई 2. तत्वार्थ बोध भक्तामर स्तोत्रोत्पत्ति कथा संबोध अक्षर बावनी योगसार भाषा पंचास्तिकाय भाषा पंच कल्याणक पूजा मृत्यु महोत्सव छहढाला 10. इष्ट छत्तीसी 11. वर्द्धमान पुराण सूचनिका 12. दर्शनपच्चीसी 13. बारह भावना पूजन 14. पद संग्रह 16. माणिकचंदः-- माणिकचंद भांवसा गोत्रीय खंडेलवाल जैन थे। बाबा दुलीचंद भंडार जयपुर के पद संग्रह नं. 428 में इनके 183 पद प्राप्त हुए हैं, जो भक्ति और विरह के हैं। 17. उदयचन्द:-- यह जयपुर नगर अथवा इसके आस-पास के ही रहने वाले थे। उदयचन्द लुहाडिया गोत्रीय खण्डेलवाल जैन थे। इनका रचनाकाल संवत 1890 बतलाया जाता है। अभी तक उदयचन्द के लगभग 94 पद प्राप्त हुये हैं। प्राप्त पदों में पाराध्य का महिमागान तथा कवि का भवगुण निवेदन अधिक है। 18. पावदास: पार्श्वदास जयपुर निवासी ऋषभदास निगोत्या के पुत्र थे। पाश्वंदास के दो बड़े भाई मानचन्द और दौलतराम थे। पार्श्वदास को प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता से मिली। शास्त्रपठन और परमार्थ तत्व की ओर इनका झकान पं. सदासुखदास के सम्पर्क से हमा। पार्व. दास का साधना स्थल शान्तिनाथ जी का बडा मन्दिर जयपुर था। वहां इनके प्रवचन को सनने के लिये काफी जैन समदाय एकत्र होता था। पावदास के शिष्यों में बख्तावर कासलीवाल प्रमुख थे। उसे ही ये अपना पुत्र और मित्र समझते थे। पार्श्वदास अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में अजमेर रहने लग गये थे। वहां सर सेठ मूलचन्द सोनी के सान्निध्य में वैशाख सदि संवत् 1936 को इन्होंने समाधि मरण लिया। पावदास का एक गद्य ग्रन्थ 'ज्ञान सूर्योदय नाटक की वचनिका' तथा समस्त काव्यरचनायें 'पारस-विलास' में संग्रहीत हैं। लघु ग्रन्थों की अपेक्षा कविवर पावदास की काव्य. प्रतिमा का पूर्ण निदर्शन उनके पदों में अधिक है। 43 राग-रागिनियों में लिखित 425 पदों Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अध्यात्म, भक्ति, विरह तथा नीति आदि विभिन्न विषयक हैं । पार्श्वदास के पद विभिन्न प्रतिलिपियों के पाठ सम्पादन के आधार पर पार्श्वदास पदावली के रूप में दिगम्बर जैन समाज अमीरगंज, टौंक द्वारा प्रकाशित करवाये जा चुके हैं । 19. घेतसी साहः 824 इन्होंने नेमजी की लू हरि लिखी । इस रचना में राजमति के बारह महीनों के वियोग का वर्णन है । यह रचना तेरहृपंथी मन्दिर, टौंक के ग्रन्थांक 50 ब में संग्रहीत है । 20. पेतसी बिलाला: इनकी 'सील जखडी' में नारी निन्दा की गई है । नं. 50 के पृष्ठ 195 पर अंकित है । 21. डालूरामः - यह सवाई माधोपुर के अग्रवाल श्रावक थे । इन्होंने कुछ पूजाओं के अतिरिक्त संवत् 1895 में 'पंच परमेष्ठीगुण स्तवन' लिखी । 22. नन्दरामः -- 23. रामदास:--- यह रचना तेरहपंथी मन्दिर के गुटका यह बखत रा के पुत्र थे 1 इनके पद तेरहपंथी मन्दिर, टोंक में ग्रन्थांक 50 में पृष्ठ 208-213 पर मिल हैं । तेरहपंथी मन्दिर, टोंक के ग्रन्थांक 100 ब के पृष्ठ 120-122 पर इनकी रचना 'विनती' संग्रहीत है । 25. रामचन्द्रः- 24. मूलकचन्दः तेरहपंथी मन्दिर टौंक के ग्रन्थांक 100 ब के पृष्ठ 146-148 पर इनकी रचना 'विनती' अंकित है । संवत् 1957 में पंडित शिवदत्त द्वारा लिखी गई इनकी एक रचना 'चौबीस तीर्थंकर पूजा' जैन मन्दिर निवाई में प्राप्त है । राम उपनाम से मिलने वाले इनके कुछ पद दिगम्बर जैन शोध संस्थान, जयपुर में संग्रहीत हैं । 26. भविलाल : संवत् 1958 में लिखी 'छंदबद्ध समव शरण पूजा' जैन मन्दिर निवाई में उपलब्ध है । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 225 27. स्वरूपचन्द मुनि: संवत् 1910 में लिखी गई एक रचना चौंसठ ऋद्धि विधान पूजा जैन मन्दिर निवाई में प्राप्त है। 28. सवाईरामः-- इनकी एक रचना 'जगतगुरु की वीनती' चौधरियान मन्दिर टौंक के ग्रन्थांक 102 व के पृष्ठ 67 पर अंकित है । 29. सुगनचन्द:-- यह जीवराज बडजात्या के पुत्र थे। इनकी माता गंगा और भाई मगनलाल, सज्ञान. बख्तावर और हरसूख थे। यह अपने पिता के मझले पुत्र थे। इन्हें छंद और व्याकरण का अच्छा ज्ञान था। इन्होंने जिनभक्ति की प्रेरणा से 'रामपुराण' ग्रन्थ की रचना की। 30. चन्द:-- चन्द नाम से दो रचनायें चोईस तीर्थाकरां की वीनती तथा चौईस तीर्थाकरां की समच्चय वीनती, तेरहपंथी मन्दिर टौंक के गटका नम्बर 100 ब में पृष्ठ 102-121 पर संग्रहीत है। 31. दीपचन्द शाहः-- इनकी प्रमख रचना 'ज्ञान दर्पण' जैन मन्दिर निवाई में ग्रन्थ संख्या 33 पर उपलब्ध है। इसमें कवि ने दोहा, कवित्त, सवैया, अडिल्ल , छप्पय आदि 196 छन्दों में अध्यात्म की चर्चा की है। दीप उपनाम से 12 दोहे और कुछ पद तेरहपंथी मन्दिर टौंक के गटका नं. 50 ब में संग्रहीत हैं। 32. महेन्द्रकीतिः-- यह सांगानेर रहते थे। इनकी एक रचना 'धमालि' तेरहपंथी मन्दिर टॉक गटका नं. 50ब में संग्रहीत है। 33. विश्वभूषण इनकी दो रचनायें श्री गुरु जोगी स्वरूप गीत और मुनीश्वरां की बीनती, तरहपंथी मन्दिर टौंक के गटका नं. 50 ब में संग्रहीत है। इनके कुछ पद भी दिगम्बर जैन शोध संस्थान जयपूर में उपलब्ध हैं। उक्त विवेचन के आधार पर स्पष्ट है कि 18-20 वीं शताब्दी के मध्य परिनिष्ठित राजस्थानी तथा ढंढाडी (राजस्थानी तथा ब्रज भाषा का सम्मिलित रूप ) में अनेक कवियों द्वारा विशाल साहित्य का सृजन हुआ। समृद्ध साहित्य भण्डारों में खोजे जाने पर कई अज्ञात कवि तथा ज्ञात कवियों की अज्ञात रचनाएं उपलब्ध हो सकती हैं। राजस्थानी तथा हिन्दी साहित्य के इतिहास में पालोच्य काल के कई प्रमुख कवियों, भट्टारक नेमिचन्द्र, ब्रह्म नाथ, दौलतराम नवल, बुधजन, पावदास का उचित प्रतिनिधित्व नितान्त प्रायोजित एवं न्याय संगत है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी जैन गद्य की परम्परा 7. -अगरचन्द नाहटा यह तो निश्चित है कि अपभ्रंश में पद्य रचनाओं की जो धारा बही वह गद्य में नहीं दिखायी देती और अपभ्रंश से ही राजस्थानी भाषा विकसित हुई इसलिए प्रारम्भिक राजस्थानी में गद्य बहुत ही कम मिलता है। राजस्थानी में काव्यों की परम्परा तो 11 वीं से 14 वीं तक में खब विकसित हो चुकी पर इस समय का राजस्थानी गद्य प्रायः नहीं मिलता। यद्यपि कुछ रचनायें लिखी अवश्य गई पर वे सुरक्षित नहीं रह सकी। कारण स्पष्ट है कि पद्य में जो लय-बद्धता और काव्य-सौष्ठव पाया जाता है उसी के कारण उसको याद रखने में अधिक सुविधा होती है। गद्य को लम्बे समय तक मौखिक रूप में याद रखना सम्भव नहीं होता। गद्य में अपने भावों को प्रकट करने की सुविधा अवश्य रहती है इसलिए बोलचाल में तो उसकी प्रधानता रहती है पर साहित्य गद्य में प्रायः इसीलिए लिखा जाता रहा है कि प्राकृत, संस्कृत ग्रादि भाषानों की रचनाओं को जन साधारण समझ नहीं पाते इसलिये टीका, टब्बा और बालावबोध के रूप में गद्य का व्यवहार अधिक हुआ है। मौलिक रचनायें बहुत ही कम लिखी गई। इसीलिये राजस्थानी के प्राचीन गद्य को भी हम अधिकांश बालावबोध टीकाओं के रूप में प्रयक्त पाते हैं। अभी तक 14वीं शती के पूर्व का गद्य प्रायः नहीं मिलता, गद्य का कछ अंश शिलालेखों आदि में मिलता है पर उससे भाषा का स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पाता। प्राचीन राजस्थानी गद्य की मैने खोज की तो मुझे मुनि जिन विजय जी के पास एक प्राचीन प्रतिसी देखने को मिली जिसमें 12 वीं शती के सुप्रसिद्ध विद्वान् जैनाचार्य जिनवल्लभसूरि जी की प्राकृत भाषा की रचना का संक्षिप्त अर्थ लिखा हया था। मेरे खयाल से वह 13वीं शती में किसी ने प्राचार्यश्री के उक्त ग्रन्थ को जनसाधारण के बोधगम्य बनाने के लिये संक्षिप्त अर्थ लिख दिया होगा। जैसे पं. दामोदर रचित कौशली बोली का 'उक्ति-व्यक्ति प्रकरण' पाटण के जैन ज्ञान भण्डार से प्राप्त करके मुनी जिनविजय जी ने संपादित और प्रकाशित किया है-वैसे ग्रन्थों की परम्परा राजस्थानी में भी रहो है जिससे संस्कृत को सीखने में सुगमता हो। इस तरह की एक रचना 'बाल-शिक्षा' सं. 1336 में रचित प्राप्त है और वह राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर से प्रकाशित हो चुकी है। प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह' और 'प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ, ग्रन्थ में सं. 1330 की लिखी हुई पाराधना, सं. 1358 का नवकार व्याख्यान, सं. 1359 का सर्वतीर्थ नमस्कार स्तवन और स. 1340 और 1369 का लिखा हुमा मतिचारये कतिपय लघ पचनायें पकतई हैं। इनमें जैन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग अधिक उभा है। प्रतः केवल गद्य की परम्परा का प्रकट करने के लिये ही उनका महत्व है। उस समय की भाषा की थोडी झांकी इससे मिल जाती है। सं. 1330 की आराधना की प्रति ताडपत्रीय है। प्रतः वह इससे पुरानी प्रति की नकल होने पर 13 वीं शताब्दी की रचना मानी जा सकती है। इस रचना का अंतिम अंश नीचे दिया जा रहा है जिससे प्राचीनतम राजस्थानी गद्य से पाठक परिचित हो सकें - "मतीतु निंदउ वर्तमान संवरहु अनागतु पच्चखउ । पंच परमेष्ठि नमस्कारु जिनसासनि सारु, चतुर्दशपूर्व समद्धारु, संपादित सकल कल्याण संभारु, विहित दुरिता-पहारु, क्षद्रोपद्रवपर्वतवच. प्रटारु. लीलादालतसंसारु, स तुम्हि अनुसरह, जिणिकारणी चतुर्दशपूर्वधर चतर्दश पर्वसम्बधिर ध्यान परित्यजिउ पंच परमेष्ठि नमस्कारु स्मरहि, तउ तुम्हि विशैषि स्मरवेउ, अनइ परमेश्वरि तीर्थकरदेवि इसउ अर्थ भणियउ अच्छइ, अनई संसारतणऊ प्रतिभउ मकरिसउ, अनइ रुद्धि नमस्कार बहनोकि परलोकि संपादियइ ॥ माराधना समाप्तेति ॥" Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत के सत्र या गाथा का विवेचन राजस्थानी गद्य में किया गया उसका प्राथमिक नमूना सं. 13 58 में लिखे हुये नवकार व्याख्यान से यहां उद्धृत किया जा रहा है : "नमो अरिहंताणं ॥1॥ माहरउ नमस्कार अरिहंत हउ । किसा जि अरिहंतु रागद्वेषरूपिया अरि-वयरी जैहि हणिया, अथवा चतुषष्ठि इंद्र संबन्धिनी पूजा महिमा अरिहइ; जि उत्पन्न दिव्य विमल केवलज्ञान, चउनीस अतिशयि समन्वित, अष्ट महाप्रातिहार्य शोभायमान महाविदेहि खेनि विहरमान तीह अरिहंत भगवंत माहरउ नमस्कारु हउ ।। 1॥" व्रतों में दूषण लगाने को अतिचार कहते हैं। श्रावक पाक्षिक प्रतिक्रमण आदि में लोक भाषा में अपने व्रतों में लगे हुए दोषों की आलोचना करते हैं। उस अतिचार संज्ञक रचना में गद्य कुछ अधिक स्पष्ट हुआ है। इसलिए सं. 1369 की लिखी हुई ताडपत्रीय प्रति का कुछ अंश नीचे दिया जा रहा है : "हिव दुकृत गरिहा करउ। जु प्रणादि संसार मांहि हीडतई हतई ईणि जीवि मिथ्यात्वु प्रवर्ताविउ । कुतिर्थ संस्थापिउ, कुमार्ग प्ररूपिउ, सन्मार्ग अवलपिउ । हिवु ऊपाजि मेल्हि सरीरु कुटुंबुज पापि प्रवर्तिउ, जि अघि गण हलऊ खल घरट घरटी खांडा कटारी अरहद्र पावटा कुप तलाब कीधा कराव्यां, अनुमोद्या ते सर्वे त्रिविधि त्रिविधि वोसिरावउ । देवस्थानि द्रवि वेवि पूजा महिमा प्रभावना की घी, तीर्थजाना रथजात्रा कीघी, पूस्तक लिखाव्यां, सार्धामक-वाछल्य कीधां, तप नीयम देववंदन वांदणांई सज्झाई अनेराइ धर्मानुष्ठान तणइ विषइ जु ऊजमु कीधउ सु अम्हारउ सफलु हो । इति भावनापूर्वक अनुमोदउ ।" ___ 14 वीं शताब्दी के राजस्थानी गद्य के कुछ नमने ऊपर दिये गये, वे सभी छोटी-छोटी रचनामों के रूप में हैं। वास्तव में राजस्थानी गद्य का सही स्वरूप 15 वीं शताब्दी से मिलने लगता है। खरतरगच्छ के प्राचार्य तरुणप्रभसूरि ने 'षडावश्यक बालावबोध' नामक बालावबोध संज्ञक पहली रचना संवत 1411 में पाटण में बनाई। उसमें प्रासंगिक कथाएं बहत सी पायी जाती हैं। जिनमें से कुछ 'प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ' में प्रकाशित हो चुकी हैं। उन कथाओं में प्रवाहबद्ध गद्य का स्वरूप स्पष्ट हुअा है-- "1. शंका विषइ उदाहरण यथा-नगरि एकि सेठि एक तणा बि पूत्र ले साल पढइं। तीहरहइ आरोग्य बुद्धि वृद्धि निमित्तु माता सप्रभाव प्रोसही पेया एकांत स्थानि थिकी करावइ। तीहं माहि एक रहई मक्षिकादि शंका लगी मनि सूग उपजइ। मानस दुक्खपूर्वक सरीर दुक्ख, इणि कारणि तेहरहई वल्गुली रोगु ऊपनउ, मूयउ । 2. आकांक्षा विषइ उदाहरणु-राजा अनइ महामात्यु बे जणा अश्वापहारइतउ अटवी माहि गया। भूखिया हया। वणफल खाधा। नगरि प्राविया । राजा सूपकार तेडी करी कहइ 'जि के भक्ष्य-भैद संभवई ति सगलाइ करउ' सुपकारे कीधा ।" तरुणप्रभसूरि ने यद्यपि यह बालावबोध पाटण में रचा है पर उनका विहार राजस्थान और सिन्ध प्रदेश तक में होता रहा है। उस समय प्रांतीय भाषाओं में इतना अंतर नहीं था। तरुणप्रभसूरि को प्राचार्य पद 1388 में मिला था। अतः उनकी रचना की भाषा गुजरात और राजस्थान में तत्कालीन जन सामान्य की भाषा थी। इसके बाद तो बालावबोध शैली का खूब विकास हा और इससे राजस्थानी गद्य के नमने भी प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण के प्राप्त हैं। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 15 वीं शताब्दी से तुकांत और साहित्यिक गद्य भी प्रचुर परिमाण में प्राप्त है । सं. 1478 में 'पृथ्वीचन्द्र चरित्र' माणिक्यचन्द्रसूरि ने गद्य में बनाया । उसका नाम ही इसीलिए 'वाग्विलास' रखा गया है कि उसमें कथा तो बहुत थोड़ी है, वर्णन प्रचुर है । यहां वर्षाकाल का कुछ वर्णन नीचे दिया जा रहा है "हिव ते कुमार, चड़ी यौवन भरि परिवरी परिकरि, क्रीडा करइ नवनवी परि । इसिई श्रवसरि प्राविउ प्राषाढ, इतर गुणि संबाड । काटइयइ लोह, घाम तणउ निरोह । छासि घाटी, पाणि वीयाइ माटी । विस्तरिउ वर्षाकाल, जे पंथी तणउ काल, नाठउ दुकाल । जीणिइ वर्षाकालि मधुरध्वनि मेह गाजर, दुर्भिक्ष तणा भय भाजइ, जाणे सुभिक्ष भूपति प्रावतां जयढक्का वाजइ । चिहुं दिसी बीज झलहलइ, पंथी घर भणी पुलइ । विपरीत आकाश, चंद्र सूर्य परियास । राति अंधारी, लवइं तिमिरी । उत्तरनऊ ऊनयण, छायउ गयण । दिसि घोर, नाच मोर । सघर, वरसइ धाराधर, पाणी तणा प्रवाह षलहलई, वाडि ऊपरि वेला वलई । चीखलि चालता शकट स्खलई, लोक तणां मन धर्म्म ऊपरि वलई । " ऐसे वर्णनात्मक और तुकांत साहित्यिक गद्य रचनाओं की एक परम्परा रही है, जिनमें से कुछ रचनाओं का संग्रह मैने अपने 'सभाशृंगार' ग्रंथ में किया है जो नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हो चुका है । इसी तरह मेरे मित्र डा. भोगीलाल सांडेसरा संपादित 'वर्णक समुच्चय' के दो भाग बडोदा से प्रकाशित हुए हैं । मेरी जानकारी में इतना अलंकारिक, साहित्यिक गद्य इतना प्राचीन अन्य किसी भी प्रान्तीय भाषा में नहीं है । 15 वीं शताब्दी के और भी कई बालावबोध प्राप्त हैं जिनमें सुंदर कथाएं भी मिलती हैं । उनमें से सोमसुन्दरसूरि के 'उपदेशमाला' और 'योगशास्त्र' बालावबोध की कुछ कथाएं 'प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ' में प्रकाशित हो चुकी हैं । अभी-अभी 'सीता राम चरित' नामक 15 वीं शताब्दी की गद्य कथा डा. हरिबल्लभ मायाणी संपादित 'विद्या' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई है जो गुजरात विश्वविद्यालय की शोध पत्रिका है । इसी तरह की 'धनपाल कथा' श्रीर 'तत्वविचार प्रकरण' में राजस्थान भारती मादि मैं प्रकाशित कर चुका हूं । सं. 1485 की लिखी हुई 'कालिकाचार्य कथा' भी मेरे संग्रह में हैं । मेरुतुंगसूरि ने व्याकरण चतुष्क बालावबोध, साधुरत्नसूरि ने नवतत्व बालावबोध, दयासिंह ने संग्रहणी और क्षेत्रसमास बालावबोध की रचना की । सोमसुन्दरसूरि का षष्टिशतक बालावबोध सं. 1496 में रचित डा. सांडेसरा ने संपादित करके प्रकाशित किया है । हमारे संग्रह में 'तपागच्छ गुर्वावली' की सं. 1497 की लिखी गई प्रति है जो 15 वीं शती के ऐतिहासिक गद्य का अच्छा उदाहरण है । जिनसागरसूरि ने षष्टिशतक बालावबोध सं. 1491 में बनाया । 16 वीं शताब्दी में प्राकृत और संस्कृत के अनेक ग्रन्थों की बालावबोध भाषा टीका जैन विद्वानों ने बनायी, जिनमें हेमहंसगणि का पडावश्यक बालावबोध सं. 1501 में रचा गया । मेवाड के देवकुलपाटक में माणिक्यसुन्दर गणि ने भवभावना बालावबोध सं. 1501 में रचा । जिनसूरि रचित गौतमपृच्छा बालावबोध, संवेगदेव गणि रचित पिण्डविशुद्धि बालावबोध सं. 1513, धर्मदेव गणि रचित षष्टि शतक बालावबोध संवत् 1515, आसचन्द्र रचित कल्पसूत बालावबोध सं. 1517, जयचन्द्रसूरि रचित चउसरण बालावबोध सं. 1518 से पूर्व, उदयवल्लभपूरि रचित क्षेत्रसमास बालावबोध, कमलसंयम उपाध्याय रचित सिद्धान्त सारोद्धार आदि प्राप्त हैं और नन्नसूरि रचित उपदेशमाला बालावबोध सं. 1543 में रचित रॉयल एशियाटिक सोसायटी, लन्दन से प्रकाशित हो चुका है । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के गद्य लेखक मरुसुन्दर और उत्तरार्ध के पावंचन्द्र ने तो अनेकों ग्रन्थों के बालावबोध बनाये जिनमें मैरुसुन्दर खरतरगच्छ के प्रसिद्ध विद्वान् थे। इनके कई बालावबोधों में बहुत सी कथाएं पायी जाती हैं। इन्होंने केवल जैन आगम और प्रकरणों की ही नहीं अपितु संस्कृत के अलंकार ग्रन्थ 'विदग्धमखमण्डन' और 'वाग्भटटालंकार' तथा छंदग्रन्थ 'वत्तरत्नाकर' की भी भाषाटीका बालावबोध रूप में बनायी। सं. 1518 से 1535 के बीच में आपने 'शीलोपदेशमाला, पुष्पमाला, षडावश्यक, षष्टिशतक, कर्पूर प्रकर, योगशास्त्र, भक्तामर' आदि 20 ग्रंथों के बालावबोध रचे । इनका एक स्वतन्त्र प्रश्नोत्तर ग्रंथ भी सं. 1535 में रचित प्राप्त है। पार्श्वचन्द्र सूरि ने सर्वप्रथम प्राचारांग, सूत्रकृतांग , दशवकालिक, प्रौपपातिक, प्रश्नव्याकरण, तंदुलवैयालिय, चउसरण, साधप्रतिक्रमण, नवतत्व प्रादि जैन ग्रागमों पर बालावबोध, भाषा-टीकाएं लिखीं। इनका मुख्य केन्द्र नागौर, जोधपुर आदि राजस्थान ही था । खरतरगच्छोय धर्मदेव ने षष्टिशतक बालावबोध (सं. 1515), रत्नरंगोपाध्याय ने रूपकमाला बालावबोध (सं.1582), राजशील ने सिदर प्रकर बालावबोध, अभयधर्म ने दश दृष्टांत कथानक बालावबोध, राजहंस ने दशवैकल्पिक बालावबोध और प्रवचन सार बनाया। शिवसुन्दर ने गौतमपृच्छा बालावबोध सं. 1569 खींवसर में बनाया। ___ 17वीं शताब्दी में भी बालावबोधों के अतिरिक्त कुछ मौलिक प्रश्नोत्तर आदि ग्रन्थ भी रचे गये। उनमें साधकीति रचित सप्तस्मरण बालावबोध को रचना सं. 1611 की दीवाली को बीकानेर के मन्त्री संग्रामसिंह के आदेश से की गई। हर्ष वल्लभ उपाध्याय ने 'अंचलमत चर्चा' की रचना की जिसकी सं.1613 की प्रति प्राप्त है। सोमविमलसरि ने दर्शवकालिक और कल्पसूत्र बालावबोध, चन्द्रधर्म गणि ने युगादिदेवस्त्रोत बालावबोध, चारित्र-सिंह गणि सम्यक्त्वस्तव बालावबोध सं. 1633, जयसौम उपाध्याय ने दो प्रश्नोत्तर ग्रंथ ओर अष्टोतरी विधि सं. 1650 के आसपास बनाये। सं. 1651 में पदमसुन्दर ने प्रवचनसार बालावबोध की रचना की। उपाध्याय समयसुन्दर जी ने रूपकमाला बालावबोध, षडावश्यक बालावबोध और यति आराधना की रचना की। शिवनिधान उपाध्याय ने सं. 1652 से 1680 के बीच में राजस्थान में रहते हुए काफी गद्य की रचनाएं की जिनमें शाश्वत स्तवन बालावबोध की रचना सं. 1652 सांभर में, लघुसंग्रहणी और कल्पसूत्री बालावबोध सं. 1680 अमृतसर में, गुणस्थान गभित जिनस्तवन नामक राजस्थानी रचना पर सं. 1692 सांगानेर में बालावबोध लिखा। इसी तरह राजस्थानी के सुप्रसिद्ध काव्य 'कृष्णरुकमणी री वेलि' की भी बालावबोध भाषा टीका बनायी। आपने विधिप्रकाश नामक ग्रन्थ भी गद्य में रचा है। कृष्ण रुकमणी री वेलि पर समयसून्दर जी के प्रशिष्य जयकीर्ति ने भी सं. 1686 बीकानेर में बालावबोध लिखा। इन्होंने षडावश्यक बालावबोध जैसलमेर के थाहरुशाह की अभ्यर्थना से सं 1693 में बनाया। 17वीं शताब्दी के खरतरगच्छीय विद्वान् विमलकीर्ति ने आवश्यक बालावबोध सं. 1662, जीवविचार-नवतत्व-दण्डक बालावबोध, जयतिहप्रण बालावबोध, दशवकालिक टब्बा, षष्टिशतक बालावबोध, उपदेशमाला टब्बा, प्रतिक्रमण टब्बा, इक्कीसठाणा टब्बा आदि भाषा टीकाएं बनायीं। इनके गुरुभाई के शिष्य विमलरत्न ने वीरचरित्र बालावबोध सं. 1702 सांचौर में बनाया। उदयसागर ने क्षेवसमास बालावबोध की रवना सं 1657 में उदयपुर में की। श्रीपाल ऋषि ने दशवकालिक बालावबोध सं. 1664 में और कनकसून्दर गणि ने दशवकालिक बालावबोध 1666 और ज्ञाताधर्मसूत्र बालावबोध 14000 श्लोक परिमित बनाया। रामचन्द्रसूरि ने कल्पसूत्र बालावबोध, मेघराज जो पार्वचन्द्रसूरि के प्रशिष्य थे, ने राजप्रश्नीय, समवायांग, उत्तराध्ययन, प्रौपपातिक, क्षेत्रसमास बालावबोध और साधसमाचारी की रचना की। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 उदयसागर ने सं. 1676 उदयपुर में क्षेत्रसमास बलावबोध मन्त्री धनराज के पुत्र गंगा at अभ्यर्थना से बनाया । पार्श्वचन्द्र गच्छीय राजचन्द्रसूरि ने दशवैकालिक बालावबोध, हर्षबल्लभ उपाध्याय ने उपासकदशांग बालावबोध की रचना सं. 1669 में की। सूरचन्द्र ने चातुर्मासिक व्याख्यान सं. 1694 में, मतिकीर्ति ने प्रश्नोत्तर सं. 1691 जैसलमेर में, कमलालाभ ने उत्तराध्ययन बालावबोध सं. 1674 और 1689 के बीच में बनाया । कल्याण सागर ने दानशील-तप-भाव-तरंगिणी की रचना सं. 1694 में उदयपुर में की। नयविलास रचित लोकनाल बालावबोध की प्रति मेरे संग्रह में है । खरतरगच्छीय उपाध्याय कुशलधीर ने पृथ्वीराजकृत कृष्णरुकमणी री वैलि बालावबोध की रचना सं. 1696 में की। इनने रसिकप्रिया बालावबोध सं. 1724 जोधपुर में बनाया । 18वीं शताब्दी में भी राजस्थानी में गद्य रचना की परम्परा चलती रही। पर उसमें एक नया मोड़ भी आया । 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही राजस्थान में हिन्दी का प्रभाव पड़ना शुरू हुआ। क्योंकि एक और मुगल बादशाहों से राजस्थान के राजाओं का सम्पर्क बढ़ा । ये बादशाहों के अधीन होकर अनेक हिन्दी प्रदेशों में युद्ध करने गये । श्रतः हिन्दी भाषा और साहित्य का प्रभाव उन पर पड़ा । फिर शाहजहां के बाद हिन्दी कवियों और लेखकों तथा कलाकारों को जो प्रोत्साहन मिलता था वह औरंगजेब के समय से मिलना बन्द हो गया ! फलत: अनेक कवि और कलाकार राजस्थान के राजाओं के आश्रित बन गये । उनके राजदरबार में प्रतिष्ठा और प्रभाव बढ़ने के कारण भी 18वीं शताब्दी से राजस्थानी के साथ-साथ हिन्दी में भी रचनाएं राजस्थान में होने लगी । जैन कवियों का भी राजाओं से अच्छा सम्बन्ध रहा है। हिन्दी के कवियों और गुणीजनों से भी वे प्रभावित हुए। इसलिये राजस्थानी के जैन कवियों ने भी 18वीं 19वीं शताब्दी में राजस्थानी के साथ-साथ हिन्दी में भी काफी रचनाएं हैं । पद्य रचनाओं के साथ-साथ गद्य में भी हिन्दी का प्रयोग होने लगा। दिगम्बर सम्प्रदाय में तो हिन्दी के कवि और गद्य लेखक बहुत अधिक हो गये । क्योंकि 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के कवि बनारसीदास यद्यपि श्रागरा में हुए पर उनकी रचनाओं का प्रचार राजस्थान और पंजाब तक बढ़ता गया । उनके प्रचलित दिगम्बर तेरापंथ का भी प्रभाव पड़ा 1 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में श्वेताम्बर खरतरगच्छीय कवि जसराज जिनका दीक्षा नाम 'जिन हर्ष' था ने बहुत बड़ा साहित्य निर्माण किया । उनका प्रारम्भिक जीवन काल राजस्थान में तथा पिछला गुजरात के पाटण में बीता । लक्ष्याधिक पद्य रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने गद्य में दीवाली कल्प बालावबोध, स्नात पंचासिका, ज्ञान पंचमी और मौन एकादशी पर्व कथा बालबोध की रचना की । यहां यह स्पष्ट कर देना भावश्यक है कि बहुत से जैन कवियों के गद्य में राजस्थानी एवं गुजराती का मिलाजुला रूप मिलता है । क्योंकि उनका उद्देश्य था गुजरात और राजस्थान दोनों प्रांतों के जैनी उनकी रचना को ठीक से समझ सकें। वैसे भी उनका बिहार दोनों प्रान्तों में समान रूप से होता था, श्रतः भाषा में मिश्रण होना स्वाभाविक ही है । राजस्थान के यति चाहे वे पंजाब में तथा चाहे वे बंगाल की ओर गये हों और मालवे में तो राजस्थानी का प्रभाव था ही । प्रतः इन सब प्रान्तों में जो उन्होंने रचनायें कीं वे अधिकांश राजस्थानी भाषा में ही है। क्योंकि वहाँ के अधिकांश जैनी राजस्थान से ही गए हुए थे और उनकी घरेलू बोली राजस्थानी ही थी । इसलिये राजस्थानी में लिखी हुई रचना उनके लिये समझने में सुगम थी । 18वीं शताब्दी के कवि जयरंग के शिष्य सुगुणचन्द ने ध्यानशतक बालावबोध की रचना संवत् 1736 फागुन सुदी 5 को बैसलमेर में की। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरोक्त कवि जिनहर्ष के गुरुभ्राता कवि लाभवर्द्धन ने चाणक्यनीति और सुभाषित ग्रंथ पर राजस्थानी भाषा मेंटब्बा लिखा। टब्बा एक तरह से संक्षिप्त अर्थ को कहते हैं, पर बालावबोध में विस्तृत विवेचन होता है टब्बे लिखने की शैली भी ऐसी होती है कि जिसमें प्राकृत या संस्कृत प्रादि के मूल ग्रंथ की एक पंक्ति बड़े अक्षरों में लिखी जाती है और उसके ऊपर छोटे प्रक्षरों में उसका अर्थ लिख दिया जाता है। खरतरगच्छीय पं. रत्नराज के शिष्य रत्नजय जिनका गृहस्थावस्था का नाम संभवतः नरसिंह था, उन्होंने छठे अंगसून ज्ञाता पर टब्बा बनाया जिसका परिमाण 13581 श्लोकों का है। इसकी प्रति संवत् 1733 की लिखी हुई मिली है। उन्होंने सप्तस्मरण टब्बा बनाया। सुप्रसिद्ध कल्पसूत्र और हर्षकीति सूरि के संस्कृत वैद्य ग्रंथ 'योग-चिन्तमणि' पर बालावबोध नामक भाषा टीकायें बनायीं। इनमें से कल्पसूत्न बालावबोध का परिमाण 5229 श्लोकों का है। यहां जो श्लोंको का परिमाण बतलाया जाता है वह अनुष्ठपूछंद में 32 अक्षर होते हैं अतः गद्य के भी 32 अक्षरों को एक श्लोक मानकर ग्रन्थों का परिमाण बतलाना चालू हो गया। जो लहइया लोग ग्रन्थों की प्रतिलिपि करते थे उनको भी लिखाई का पारिश्रमिक श्लोक परिमाण के हिसाब से दिया जाता था जैसे 100 या 1000 श्लोक की लिखाई की रेट (दर) तय हो जाती थी और ग्रन्थ की नकल कर लेने पर 32 अक्षरों के श्लोक के हिसाब से लिखाई के जितने श्लोक होते उससे पैसों का चुकारा कर दिया जाता। 18वीं शताब्दी के विद्वान् उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ ने संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी तीनों भाषामों में राजस्थानी रचनायें की हैं। इन्होंने गद्य में भर्तृहरि के शतक तय और पृथ्वीराज का टब्बा या अर्थ लिखा, जिससे इन ग्रन्थों को सर्वसाधारण समझ सके। पथ्वीराज वेलि राजस्थानी का सुप्रसिद्ध सर्वोत्तम काव्य बीकानेर के माहाराजा पृथ्वीराज ने बनाया है। डंगर भाषा की यह उत्कृष्ट कृति समझने में कठिन पड़ती है इसलिये कई जैन विद्वानों ने इस काव्य के संस्कृत व राजस्थानी में टीकार्य लिखी हैं। उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ ने इसकी भाषा टीका विजयपुर के चतुर व्यक्तियों की अभ्यर्थना से बनायी। इसकी संवत् 1750 की लिखी हुई प्रति प्राप्त हुई है । कवि कमलहर्ष के शिष्य विद्याविलास ने संवत् 1728 में कल्पसूत्र बालावबोध की रचना की। जैन प्रागमों में सबसे अधिक प्रचार कल्पसूत्र का है क्योंकि प्रतिवर्ष पर्यषगों में इसे बांचा जाता है। अतः इस सूत्र पर संस्कृत व राजस्थानी में सबसे अधिक टीकायें बनायी गई हैं। वाशामा 18वीं शताब्दी के खरतरगच्छीय जैन विद्वानों में उपाध्याय धर्मवर्द्धन राजमान्य विदान थे। इनकी लघ रचनाओं का संग्रह मैंने सम्पादन करके 'धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली' के नाम से प्रका शित करवा दिया है। इन्होंने खण्डेलवाल रखा जी के पौत्र, जीवराज के पुत्र नैना के लिये दिगम्बर अपभ्रंश आध्यात्मिक ग्रंथ, परमात्म-प्रकाश की हिन्दी में भाषा टीका संवत 116 में बनायी. जिसको एक मात्र प्रति अजमेर के दिगम्बर भट्टारकीय शास्त्र भंडार में प्राप्त है। इनके शिष्य कीर्तिसुन्दर ने एक 'नाग विलास कथा संग्रह' नामक कथाओं की संक्षिप्त सचना करने वाले ग्रन्थ की रचना गद्य में की, जिसे मैंने वरदा में प्रकाशित करवा दिया है। खरतरगच्छ की सागरचन्द्रसूरि शाखा के कवि लक्ष्मीविनय ने संस्कृत के ज्योतिष ग्रन्थ भवनदीपक की बालवबोध भाषा टीका संवत् 1767 में बनायी। इसके पहले पुष्प शिष्य अभयकुशल ने सिणली ग्राम के चतुर सोनी के आग्रह से भर्तृहरि शतक बालावबोध की रचना संवत् 1755 में की। इनके गुरु पुण्यहर्ष ने इनके साथ रहते हये दिगम्बर प्रन्य पदमनन्दी पंचविशिका की हिन्दी भाषा में टीका संवत् 1722 में भागरा के जगतराय के लिये बनायी। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 ज्ञानचन्द्र के शिष्य कवि श्री देव ने जैन भूगोल संबंधी प्राकृत ग्रन्थ क्षेत्र समास बालावबोध की रचना की । महानतत्ववेत्ता उपाध्याय देवचन्द्र जी ने मरोठ की श्राविका के लिये जैन श्रागमों के सार रूप में श्रागम सार ग्रन्थ गद्य रूप में संवत् 1776 में बनाया । इन्होंने नयचक्रद्र सार बालावबोध गुण-स्थान- शतक व कर्मग्रन्थ बालावबोध, विचार सार टब्बा, गुरु गुण षट्त्रिशिका टब्बा और विचार रत्नसार प्रश्नोत्तर ग्रन्थ गद्य में विवेचित किये। अपने बनाये हुए 24 तीर्थंकरों पर भी इन्होंने बालावबोध भाषा टीका बना के उन स्तवनों के विशुद्ध भावों को स्पष्ट किया । आपने सप्त स्मरण बालावबोध, दण्डक बालावबोध और शांतरस आदि और भी गद्यात्मक रचनायें कीं । 18वीं के उत्तरार्द्ध और 19वीं के प्रारम्भ के जैन विद्वान् महोपाध्याय रामविजय ने कई गद्य रचनायें करके उन प्राकृत संस्कृत ग्रन्थों को सर्व साधारण के लिये सुगम बना दिया । इनमें से कल्पसूत्र बालावबोध का रचनाकाल तो 19वीं के प्रारम्भ का है । इनकी सबसे पहली गद्य रचना 'जिनसुख सूरि मझलस' हिन्दी की छटादार तुकान्त गद्य रचना बडी सुन्दर है, जो संवत् 1772 में रची गयी । इसके बाद उन्होंने संवत् 1788 में भर्तृहरि शतकत्रय बालावबोध सोजत के छाजेड मंत्री जीवराज के पुत्र मनरूप के श्राग्रह से बनाया । उसी के श्राग्रह से श्रमरु शतक बालावबोध की रचना संवत् 1791 में की । इन्होंने सुप्रसिद्ध कविवर बनारसीदास जी के समय-सार के हिन्दी आध्यात्मिक काव्य की बाला बोध भाषा टीका स्वर्णगिरि के गणधर गोत्रीय जगन्नाथ के लिये संवत् 1792 में की । संवत् 1792 में लघु स्तव नामक देवी स्तुति की भाषा टीका बनायी । इनके अतिरिक्त भक्तामर टब्बा, नवतत्व टब्बा, दुरिश्वर स्तोत्र टब्बा, कल्याण-मन्दिर टब्बा, सन्निपात कलिका टब्बा और हेमीनाममाला भाषा टीका की रचना की । अर्थात् ये बहुत अच्छे व बडे गद्य लेखक थे । खरतरगच्छीय जसशील के शिष्य नैनसिंह ने बीकानेर के महाराजा आनन्दसिंह के कहने से भर्तृहरि नीतिशतक की हिन्दी भाषा टीका संवत् 1786 में लिखी । इस शताब्दी में जयचन्द नाम के दो विद्वान् हुये हैं जिनमें से एक ने माताजी की वचनिका नामक राजस्थानी की एक सुन्दर गद्य रचना संवत् 1776 में कुचेरा में रहते हुये बनायी । यह राजस्थानी शोध संस्थान चौपासनी से प्रकाशित परम्परा में छप चुकी है । दयातिलक के शिष्य दीपचन्द्र ने बालतंत्र नामक संस्कृत वैद्यक ग्रन्थ की हिन्दी भाषा टीका संवत् 1792 जयपुर में बनायी जिसकी हस्तलिखित प्रति हमारे संग्रह में है । 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में खरतरगच्छीय विमलरत्न ने वीर चरित्र वालावबोध संवत् 1702 सांचोर में बनाया जिसका परिमाण 552 श्लोकों का है । इसके बाद समयवसुन्दरजी की परम्परा के राजसोम ने श्रावकाराधना भाषा और इरिया वही मिथ्यादुष्कृत बालाबोध की रचना की, जिसकी प्रति संवत् 1709 की प्राप्त है । संवत् 1719 में ख. ज्ञाननिधान ने विचार छत्तीसी गद्य ग्रन्थ बनाया । पार्श्वचन्द्र गच्छीय रामचन्द्र ने द्रव्य संग्रह बालावबोध की रचना की है । जैसा कि पहले कहा गया है कि राजस्थान के खरतरगच्छीय कवियों ने पंजाब सिंघ में चातुर्मास करते हुये भी राजस्थानी गद्य में रचनायें कीं । जैसे ख. पद्मचन्द्र शिष्य ने नवतत्व का Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 233 विस्तृत बालावबोध संवत् 1766 घटा में बनाया, जिसका 3000 श्लोक परिमाण है । इसी घटा में बैगड़ शाखा के सभाचन्द्र ने ज्ञानसुखडी संवत् 1767 में रचा । इनके अतिरिक्त भी खरतरगच्छीय लेखकों बहुत सी गद्य रचनायें हैं पर उनमें रचना स्थान का उल्लेख नहीं है । के लिये तो प्रायः राजस्थान में रचे जाने की संभावना की जा सकती है, क्योंकि इस गच्छ का प्रचार व प्रभाव राजस्थान में ही अधिक रहा है । तपागच्छ का गुजरात में । इसलिये इस निबन्ध में खरतरगच्छ के साहित्य का ही अधिक उल्लेख हुआ है । 19वीं शताब्दी में साहित्य रचना पूर्वापेक्षा कम हुई । रचनायें तो और भी कम हैं । उल्लेखनीय श्वेताम्बर गद्य सुख ख. रत्नधीर ने भुवनदीपक नामक प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रन्थ का विस्तृत बालावबोध संवत् 1806 में बनाया । यह दिल्ली के नवाब के कहने से हिन्दी में लिखा गया । इसके बाद चैनने वैद्यक ग्रन्थ शतश्लोकी, बैद्यजीवन और पथ्यापथ्य पर टब्बा अर्थात् शब्दार्थ लिखा । यह रचना संवत् 1820 के लगभग हुई । कवि रघुपति ने दुरिअर बालावबोध रचा जिसकी प्रति 1813 की प्राप्त 1 कार इस शताब्दी के उल्लेखनीय विद्वानों में उपाध्याय क्षमा कल्याण जी ने प्रश्नोत्तर साहित्य शतक भाषा संवत् 1853 बीकानेर में और अंबड चरित्र संवत् 1854 में रचा। दूसरे ग्रन्थश्री ज्ञानसारजी जिन्होंने श्रानन्दधनजी के चौबीसी और पदों पर विस्तृत विवेचन संवत् 1866 के श्रासपास किशनगढ़ में रचा । उन्होंने और भी कई बालावबोध और गद्य रचनायें की हैं जिनमें आध्यात्मगीता बालावबोध, जिनप्रतिमा स्थापित ग्रन्थ, पंच समवाय अधिकार भादि उल्लेखनीय हैं । खरतर आनन्दवल्लभ ने संवत् 1873 से 1882 के बीच कई रचनायें गद्य में कीं जिनमें चौमासा व्याख्यान, अठाई व्याख्यान, ज्ञान पंचमी, मौन ग्यारस, होली के व्याख्यान और दंडक, संग्रहणी, विशेषशतक, श्राद्ध दिनकृत्य बालावबोध उल्लेखनीय हैं । पं. कस्तूरचन्द ने षट्दर्शन समुच्चय बालावबोध की रचना संवत् 1894 में बीकानेर में की। 20वीं शताब्दी में भी वैसे कई पुराने ग्रन्थों पर बालावबोध रचे गये जैसे देवमुनि ने श्रीपाल चरित्र भाषा संवत् 1907 में रचा। सुगनजी ने मूर्तिमंडन प्रकाश, रामलाल जी ने श्रीपाल चरित्र भाषा संवत् 1957, अठाई व्याख्यान 1949, संघपट्टक बालावबोध 1967 में लिखे और स्वतन्त्र ग्रन्थ हिन्दी भाषा बहुत 'से बनाये | इसी तरह यति श्रीपाल जी ने जैन सम्प्रदाय शिक्षा नामक बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा । इसी तरह यति पन्नालाल जी ने श्रात्मप्रबोध हिन्दी अनुवाद आदि अन्य अनेक लोगों ने प्राचीन ग्रन्थों के अनुवाद व कुछ मौलिक ग्रन्थ हिन्दी में लिखे । 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से तो हिन्दी में ही अधिक लिखा जाने लगा है । तेरापन्थी सम्प्रदाय के प्रवर्तक भीखण जी ने राजस्थानी गद्य में 19वीं शताब्दी में काफी लिखा पर वह गद्य संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ। इस सम्प्रदाय के सबसे बड़े गद्य लेखक प्राचार्य जीतमल जी जयाचार्य हुये जिन्होंने कथानों का एक बहुत बड़ा संग्रह 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में तैयार किया । जिसका परिमाण करीब 60 हजार श्लोक का बतलाया जाता है । इनकी और भी गद्य रचनायें हैं पर अभी तक प्रायः वे सभी अप्रकाशित हैं । स्थानकवासी सम्प्रदाय के गद्य साहित्य की भी पूरी जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी । की अपेक्षा गद्य में अधिक लिखा जाने लगा। अतः उन सबका विवरण देना यहा संभव नहीं है । संक्षेप में श्वेताम्बर लेखकों ने पद्य के साथ-साथ गद्य में भी निरन्तर साहित्य निर्माण किया है और वह लाखों श्लोक परिमित हैं । 20वीं शताब्दी से तो पद्य Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्वेताम्बर तेरापन्थ के अस्तित्व का इतिहास वि. सं. 1817 की भाषाढ़ पूर्णिमा से आरम्भ होता है । इस प्रकार एक सम्प्रदाय के रूप में तेरापन्थ यद्यपि भर्वाचीन धर्म-संप है किन्तु साहित्यिक चेतना और उसकी सृजनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में उसकी प्रसिद्धि सर्व बिचित है । नवीन सम्प्रदाय की कुशल संगठन व्यवस्था, स्वरूप निर्माण एवं उसके प्रचार-प्रसार के लिये प्रारम्भिक दिनों से ही राजस्थानी गद्य और पद्य के रूप में विपुल साहित्य-निर्माण की परम्परा आरम्भ हो गई थी, जिसकी सुदृढ़ नींव ग्राद्य प्राचार्य संत भीखण जी के कर-कम द्वारा रखी गई थी, परिणामस्वरूप परवर्ती काल में भी विविध रूपात्मक एवं विषयात्मक साहित्य सृजन की प्रक्रिया अनवरत रूप से चालू रही । राजस्थानी गद्य साहित्यकार 8 तेरापन्थ का राजस्थानी गद्य इसी परम्परा में विशाल परिमाण में प्रारम्भिक समय से ही प्राप्त होता है । अब तक किये गये अनुसंधान से तेरापन्थ सम्प्रदाय के ग्यारह राजस्थानी गद्य साहित्यकार और उनकी कृतियां प्रकाश में आई हैं । समस्त कृतिकार प्राचार्य अथवा संस हैं । इनकी कुछ तात्विक चर्चा - प्रधान रचनायें यत्र तत्र प्रकाशित भी हुई हैं किन्तु अधिकांचा गद्य साहित्य हस्तलिखित गन्थों एवं पत्तों के रूप में ही उपलब्ध होता है। इनकी मूलप्रतिषाँ तथा उनकी प्रतिलिपियां वर्तमान में युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी एवं उनके प्राज्ञानुवर्ती साधुसाध्वियों के पास हैं । कुछ प्रतियां लाडनूं (जिला नागौर) स्थित संग्रहालय में भी विद्यमान हैं। 1. लिखित मर्यादावलि 2. 3. हाजरी 4. हुण्डी ख्यात बोल 5. 234 यह सम्पूर्ण गद्य साहित्य मौलिक और प्रमौलिक दो प्रकार का है। मौलिक गद्य, कृतिकार की स्वयं की उद्भावना से उद्भाषित है तथा श्रमौलिक गद्य अनुदित अथवा टीकायुक्त है । रूप-परम्परा की दृष्टि से भी यह गद्य काफी समृद्ध है । गद्य साहित्य के कुछ रूप तो राजस्थानी गद्य साहित्य के लिये अत्यन्त नवीन और विशिष्ट हैं, वस्तुतः ये तेरापन्थ सम्प्रदाय की देन के रूप में विख्यात हैं । लिखित, हाजरी, मर्यादावलि, हुण्डी, चरचा, टहुचा, दृष्टांत ( स्मरण) आदि ऐसे ही विशिष्ट गद्य रूप हैं । समस्त गद्य साहित्य निम्न रूपों में उपलब्ध होता है:-- 6. -डा. देव कोठारी 7. चरचा 8. दृष्टांत ] 9. द्वार 10. थोकडा 11. ध्यान 12. कथा 13. पत्र »! Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 233 14 टका 15. टम्बा 1. पनुवाद 17. व्याकरण 18. प्रकीर्णक विषयः-वैविध्य की दृष्टि से भी यह गद्य साहित्य सुसम्पन्न है। तेरापन्थ धर्म-संघ को मर्यादित, अनुशासित एवं सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान करने के लिये समय-समय पर छोटी से छोटी प्रवृत्ति व मर्यादा को भी साहित्यबद्ध करने की परम्परा रही है, फलस्वरूप राजस्थानी मर की विधान या मर्यादा-परक रचनायें प्रचर परिमाण में मिलती हैं। नवीन धर्म-संघ की मान्यतामों के प्रचार-प्रसार हेतू तात्विक या सैद्धांतिक कृतियों का सृजन भी प्रारम्भिक काल में बगत मा है। व्याख्यान के उद्देश्य से उपदेशात्मक व कथात्मक गद्य साहित्य भी विपुल मात्रा में विधा गया। अतीत की अनेक घटनाओं को लिपिबद्ध कर तेरापन्थ के इतिहास को बिलुप्त होने से बचाने का कार्य भी क्रमश: चलता रहा , फलतः ऐतिहासिक गद्य का निर्माण भी बहतामा। प्रथम बार सजित संस्मरणात्मक राजस्थानी गद्य भी इस सम्प्रदाय में ही मिलता है। मागम ज्ञान की दूरुहता को कम कर उसे सहज सुलभ करने की दष्टि से अनवाद व उब्दों की रचना की गई। व्याकरण-बोध की प्रक्रिया में तत्संबंधी कृतियां भी उपलब्ध होती हैं। इस प्रकार तेरापन्य सम्प्रदाय का राजस्थानी गद्य साहित्य विषय वस्तु की विविधता से परिपूर्ण बोर विमाल है। तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक चेतना के प्रस्फुटन और अध्ययन की दृष्टि सेबी इसके अनन्य महत्व को नकारा नहीं जा सकता है। मोटे रूप में इस गद्य साहित्य का नियमानुसार वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है: 1. विधान या मर्यादा प्रधान १. तात्विक . उपदेशात्मक संस्मरणात्मक .. पाख्यानात्मक ऐतिहासिक व्याकरण संबंधी .. अनुदित व टीकामूलक सम्पूर्ण गड साहित्य की राजस्थानी भाषा सहज व सरल है। स्थानीय शब्दों का प्राचुर्य भीमा-बदेखने को मिलता है। कहीं-कहीं गुजराती प्रभाव भी रचनाओं में पाया जाता है। वहाँहीची भाषा में अलंकारिता पाई है, उससे विषय वस्तु में निखार ही पाया है। भाषा के नमूनोंकारण ही समाज में ये इतनी अधिक बोधगम्य भौर प्रिय रही हैं कि अधिकांश रचनायें लोगों में भाव भी कण्ठस्थ हैं। पवमा भौर उनकी कृतिमा: तेरापंप के राजस्थानी गद्यकार संख्या की दृष्टि से यद्यपि कम हैं किन्तु उनका राजस्थानी गर-साहित्य में गुणात्मक योग किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। यहां प्रत्येक गद्यकार, उसकी स्थाका परिचय यथा संभव उदाहरण सहित संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है:-- #. भाचार्य संत भीखणजी: राजस्थान के तत्कालीन जोधपुर राज्य के अन्तर्गत कंटालिया (वर्तमान में जिला पाली) *वि.सं. 170 की भाषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को भीखणजी (भिक्षु) का जन्म हुआ। इनके Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ' पेता ओसवाल जाति के संकलेचा गोत्र के शाह बलूजी थे। माता का नाम दीपाबाई था। इनके एक बड़े भाई भी थे, जिनका नाम होलोजी था। बचपन से ही ये धर्मनिष्ठ, सत्यशोधक पौर सुधारवादी प्रवृत्ति के थे। विवाहोपरान्त असमय में ही इनकी पत्नी का देहावसान हो जाने से इनमें वैराग्य की प्रबल भावना जागृत हुई। अन्ततः वि. सं. 1808 की मृगशिर कृष्णा द्वादशी को स्थानकवासी सम्प्रदाय के तत्कालीन प्राचार्य संत रुघनाथ जी के पास 25 वर्ष की उम्र में बगडी कस्बे में ये दीक्षित हये। दीक्षा के पश्चात इन्होंने अपना सारा ध्यान आगम-मन्थन एवं चिन्तन में लगा दिया। प्रपनी तीक्ष्ण और कुशाग्र बुद्धि के द्वारा सत्य से साक्षात्कार करने में इन्हें अधिक समय न लगा। वि. सं. 1815 के राजनगर (मेवाड़) चातुर्मास के पश्चात् आचार-विचार संबंधी मान्यताओं को लेकर अपने गुरु से इनका मतभेद हो गया। फलस्वरूप वि. सं. 1817 की चैत्र शुक्ला नवमी को इन्होंने चार अन्य साधनों के साथ प्राचार्य रुघनाथ जी से अपना संबंध विच्छेद कर लिया। तत्पश्चात केलवा (मेवाड़) के चातुर्मास के समय वि. सं. 1817 की प्राषाढ़ पूर्णिमा को इन्होंने भाव-संयम धारण किया। इसी दिन से तेरापन्थ की स्थापना हुई। एवं नवीन धार्मिक क्रान्ति का श्रीगणेश हा। लगभग 44 वर्ष तक नवीन धर्म संघ का नेतृत्व करते हुये 77 वर्ष की अवस्था में वि. सं. 1860 की भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी को भापका सिरियारी (मारवाड़) में स्वर्गवास हुआ। क्रान्त दृष्टा आचार्य भीखणजी का एकमात्र उद्देश्य सम्यग् प्राचार और सम्यग् विचार की पुनः संस्थापना करना था। इस दुर्द्धर मार्ग को सहज व सरल बनाने के लिये आपने तत्कालीन राजस्थानी भाषा को अपने प्रवचन तथा नवीन साहित्य के निर्माण के लिये प्राधार बनाया। प्रागमों की गढ़ बातों को सीधी सरल राजस्थानी में अभिव्यक्त करने में भी भीखण जी सिद्धहस्त थे। अपने जीवनकाल में अापने लगभग अड़तीस हजार श्लोक परिमाण साहित्य गद्य व पद्य में लिखे। समस्त साहित्य तत्व-विश्लेषणात्मक, शिक्षात्मक, प्राचार-शोधक, पाख्यानात्मक, स्तवन प्रधान एवं अन्य विषयों से संबंधित है। गद्य-साहित्य अभी तक अप्रकाशित है। मध में आपकी रचनायें मख्यतः हण्डी, चर्चा, थोकडा, सिखत, (मर्यादा पत्र) आदि के रूप में उपलब्ध होती हैं। रचनाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है: (क) हुण्डियां: हण्डी शीर्षक से दो गद्य रचनायें मिलती हैं, यथा 306 बोलां री हण्डी तथा 181बोलारी हण्डी। दोनों हण्डियों में सैद्धान्तिक एवं मान्यता संबंधी विश्लेषण प्रागम-ग्रंथों की सार्शी के अाधार पर किया गया है। यह विश्लेषण मुख्यतः दया, दान, वृत, अवत, श्रद्धा, अधदा तथा प्राचार-विचार से संबंधित हैं: 1. 306 बोलां री हुण्डी:-यह एक बड़ी रचना है जो 55' पती में समाप्त हई है। इसका प्रधान विषय वीतराग द्वारा प्रतिपादित धर्म है। भीखणजी ने इसके द्वारा यह स्पष्ट किया है कि वीतराग का धर्म वीतराग की प्राज्ञा. में चलने से ही होता है। वीतराग की आज्ञा के बाहर कोई धर्म नहीं है। रचना का प्रारम्भिक अंश इस प्रकार है:-- "श्री वीतराग नो धरम वीतराग री आग्या मांहि छ। तिण धरम नी विगत । एक धरम साधु रो ते तो सरब धरम कहिये ये। बीजो धरम श्रावक रोते देस धरम Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहिये ए दोनुई धरम भगवान री माग्य मांहि छ। एदोनई धरम ग्यान परसण पर चारित्र मांहि छ।" 2. 181 बोलां री हण्डी:-यह अट्ठारह पत्नों की एक छोटी रचना है। साधुओं के प्राचार-व्यवहार को लेकर सूत्रों की साक्षियां उद्घत करते हुये एवं विभिन्न उदाहरणों को प्रस्तुत करते हुये इसकी रचना की गई है। साधुओं के प्राचार व्यवहार संबंधी समस्त बातें इसमें समाहित हैं। चरचायः __चरचा (सं. चर्चा) संज्ञक कुल दस रचनायें मिलती हैं। संग्रहीत रूप में कुल 25 पत्रों में समाप्त हुई हैं। सैद्धान्तिक व मान्यता संबंधी विभिन्न तथ्यों को सरल राजस्थानी में चर्चा रूप में इन रचनाओं में समझाया गया है। समस्त चरचानों का सूचनात्मक परिचय निम्न है। इस लेख की कलेवरसीमा के कारण प्रत्येक चरचा का रचना उदाहरण नहीं देकर केवल : एक का ही उदाहरण अन्त में प्रस्तुत किया जा रहा है। बोगा री चरचाः इसमें मन, वचन और काया अर्थात् इन तीनों योगों की मुख्य रूप से चर्चा की गई है . शुभ अशुभ योग की प्रवृत्ति कैसे होती है, इसका भी इस रचना में सूक्ष्म विश्लेषण है। जिवाण्या री चरचा:-- जो व्यक्ति जिन आज्ञा के बाहर धर्म की स्थापना करते हैं, उन स्थापनाओं के बारे में विवेचन करते हये जिन धर्म के सही स्वरूप की इसमें चर्चा की गई है। खुली चरचा:- . .. किस कर्म के क्षायोपशम से साधुत्व की प्राप्ति होती है, इसकी खुली चर्चा इसमें की गई है। .. मानव संवररी चरचा: परमा. आस्रव तथा संवर के बारे में व्याप्त भ्रान्तियों का इसमें स्पष्ट विवेचन किया गया है। प्रास्रव व संवर जीव होता है, यह सप्रमाण दर्शाया गया है। कालवाही की, वरचा: जो व्यक्ति कार्य सिद्धि में केवल काल को ही प्रधानता देते हैं, वह प्रधानता जैनागम के अनुकूल नहीं है। इसका इसमें विवेचन है। इन्द्रियवादी की चरचा:-- इन्द्रियों को कुछ व्यक्ति सावध निरबध कहते हैं, वह सूत्र-सम्मत नहीं है। इसकी चर्चा इसमें की गई है !... Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 व्य जीव-माव जीवरीपरपा: बार कुछ व्यक्ति द्रव्य जीव तथा भाव जीव को एक सममते है, लेकिन दो पात्मामों का विश्लेषण करते हुये इसे इसमें समझाया गया है। निक्षेपां री चरचा: द्रव्य निक्षेप, नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप और भाव निक्षेप, इन चारों में से कोरबा निक्षेप निन्दनीय तथा प्रवन्दनीय है, इसकी इसमें चर्चा की गई है। टीकम होसी री घरचा:-- कन्छ प्रान्त के टीकमजी डोसी नामक प्रावक की योग संबंधी संकायों का समाधान सक्ष्म विश्लेषण के द्वारा इसमें किया गया है। पांच भाव रो परचा: इसम उदय भाव, उपशम भाव.क्षायक भाव.मायोपशामिक भाव तथा परिणामिक भाव की विवेचना की गई है। इस रचना का प्रारम्भिक मंश रचना उदाहरण की दृष्टिसनिम्म "अथ पांच भाव री चरचा लिख्यते । उदभाव मोह करम रा उ उभार छते तो सावध छ। भर करम रा उदै सूउदेभाव छते सावच निरवचनहीं। सहन भाव छ ते तो मोहनी करम उपशमें ये छ। दरसन मोहनी उपशमें योचो उपवन समकित छ।" थोकड़ा:-एक ही विषय के संक्षिप्त संग्रह को थोकड़ा (सं. स्वोत) कहते हैं। पुष पांच योकड़े दस हस्तलिखित पत्रों में उपलब्ध हैं। परिचय निम्न है:पांच भाव रो थोकड़ो, पैलो: पांच भावों प्रर्थात् उदय, उपशम, क्षायक, क्षायोपशमिक पोर पारिणामिक मारो विभिन्न यन्त्रों माध्यम से इसमें विश्लेषण किया गया है। पांच भाव रो थोकडो, दूजो: उदय निष्पन्नादिक बोलों पर उपर्युक्त पांच भावों का मन्त्रों द्वारा विवेचन किया । पाठ प्रात्मा रो थोकड़ो: इस पोकड़े में पाठ प्रात्मानों का विवरण यन्त्रों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। भिक्षु पिरिछा: इसमें भीषणजी से समय-समय पर की गई विभिन्न प्रकार की प साहात। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मो तत्व और छ: द्रव्यों का दृष्टान्तों द्वारा इसमें सरल विवेचन किया गया है। पित (मर्यादा पत्र): प्राचार्य सन्त भीखण जी ने नवीन धर्म-संघ को मर्यादित एवं संगठित रखने की दष्टि से समय-समय पर जो लिखित मर्यादायें स्थापित की, उन्हें सामूहिक रूप से इस शीर्षक के अन्तर्गत साता । ऐसे कुल 24पन्न हैं। जिनमें नो मर्यादायें संघ के सामहिक स्वरूप को ध्यान में रखते हए है तथा अट्ठाइस मर्यादाएं व्यक्तिगत पत्रों के रूप में साधु विशेष के लिये हैं। इस प्रकार कम 37मर्यादायें लिखत रूप में हैं। सामूहिक मर्यादामों में भीखमजी के हस्ताक्षरों केसाथ-साथ अन्य साधनों द्वारा साक्षियां भी दी गई हैं। प्राज भी इन मर्यादाओं के प्राधार पर वेसफ्स्वधर्मसंच का संचालन होता है। इन मर्यादा पत्रों को शिक्षा व संघीय नियमों-यनियम भीमसकते हैं। वि. सं. 1832 मृगशिर कृष्णा 7 की प्रथम लिखत (मर्यादा) का एक मंग समका बहावकी स्पष्टता के लिये प्रस्तुत है: ___ "रिष भीषम सबै साधां ने पूछ नै सबै साध साधवियां री मरजादा गांधी है साधां मैं पूछ नै साधां कना थी कहवाय नै ते लिषीये छ। सर्व साध साधवी भारमल बी री धाग्या माह चालणौं। विहार चौमासो करणां तै भारमल जी री प्राग्या सुकरणो। दिव्या देणी ते भारमल जी रे नाम दिष्या देणी। चेलारी कपडारी साताकारीमा तर री प्रादि देई नै ममता करर नै अनंता जीव चारत गमाय नै नरक निनोर या माहे गया छ तिण सू सिषादिक री ममता मिटायवा रो नै चारित थोषों पत्रपरी उपाय कीधौ छ।" .. मंचम्ब बी स्वामी :-- निवासी और अपने माता पिता के इकलौते पुत्र थे। वि. सं. 1078 द्वितीय पाचार्य भारमलजी के काल में हेमराज जी स्वामी ने इन्हें दीक्षा दी। वि.सं. 1020 में इनका स्वर्गवास हुमा। इस प्रकार कुल 50 वर्ष तक साधु जीवन पाला। इनकी ध्यान विषयक एक राजस्थानी गद्य कृति उपलब्ध होती है जो 'करमचन्द जी रो यादबवा 'मातम चिन्तण रो ध्यान' के नाम से प्रसिद्ध है। इस कृति में ध्यान करने की विधिपाद सरल रूप में समझाई गई है। रचना के उदाहरण की दृष्टि से ध्यान का प्रारंभ "पहिला पद्म भासन थिर करि पर्छ मन थिर करि विष कषाय थकी चितनी बार मिटाय नेअंतकरण माय इण तरे ध्यावणों। नमस्कार थावो श्री परतजी त भरतजी केहवा छ। सुरासुर सेवित चरण कमल सर्वज्ञ भगवंत जगन्नाथ बनलीया या तारक। कुगत मारग निवारण । निरवाण मारग पमाडण । निराह निरहंकार ।" तेरापंथ के तीसरे भाचार्य थे। इनका पूरा नाम रामचन्द्र जी था। वि. सं. 18 बयपुर जिले की बड़ी राबलिया (गांव में) इनका जन्म हुआ। पिता का नाम शाहरोची Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 बम्ब एवं माता का नाम कुशलांजी था। दस वर्ष की अल्प वय में अपनी माता जी के साथ वि. सं. 1857 की चैत्र पूर्णिमा को उन्होंने प्राचार्य भीखणजी से दीक्षा ग्रहण की। वि. सं. 1878 की वैशाख कृष्णा नवमी को युवाचार्य और इसी वर्ष माघ कृष्णा नवमी को प्राचार्य पद परमासीन हए। छोटी रावलिया में वि. सं. 1908 की माघ कृष्णा चतुर्दशी को 62 वर्ष की अवस्था में स्वर्गवास हुआ। इनकी 'अथ पांच व्वहार ना बोल' शीर्षक एक राजस्थानी लघु गद्य, रचना मिलती है जो केवल तीन पत्नों में है। इसमें साधुओं के कल्पाकल्प की व्यवस्था का विवरण दिया गया है। 4. कालूजी स्वामी बड़ा :-- इनका जन्म रेलमगरा (मेवाड़ ) में वि. सं. 1899 में हुआ था। लगभग नौ वर्ष बम में वि. सं. 1908 में प्राचार्य ऋषिराम से इन्होंने दीक्षा ली। पचास.वर्ष तक साध बीवन व्यतीत करने के पश्चात् सप्तम प्राचार्य डालगणी के काल में वि. सं. 1958 में दिवंपत्त जानकी साहित्यिक रुचि प्रबल थी । लिपि श द्ध व सुन्दर थी। अपने जीवन काल में मापने तेरापन्य के अनेक हस्तलिखित ग्रन्थों की सुन्दर व शुद्ध प्रतिलिपियां कीं। तेरापंथ की ज्यात का लेखन मापने ही प्रारंभ किया। तेरापन्थ की ख्यात: मेरापन्थ के चतुर्थ संघपति जयाचार्य के काल में इस ख्यात का लेखन आपने प्रारंभ किया। यह ख्यात सन्तों व साध्वियों की अलग-अलग है। प्राचार्य भिक्षु के समय से इस ख्यात का प्रारंभ होता है। इस ख्यात में साधु साध्वियों का बम्बकीय जीवन परिचय, दीक्षा. साधना, तपस्या, स्वाध्याय, धर्म-संघ का प्रचार-प्रसार, साहित्य-सर्जन, सेवा, कलां तथा जीवन से संबंधित विविध घटनाओं का विस्तृत विवरण दिया गया है। यह ख्यात तेरापन्थ के इतिहास का तथ्यात्मक दिग्दर्शन कालक्रम से कराती है। कालजी स्वामी के स्वर्गवास के पश्चात् चौथमल जीवामी ने इसका लेखन प्रारंभ किया। वर्तमान में मुनि मध कर जी इसे हिन्दी में लिख रहे हैं। साधुनों की ख्यात का प्रारंभिक अंश इस प्रकार है : "श्री भिक्ख मुनि नौ जनम गांम ठाम वर्णावीर्य छ । मरुधर देस जोधपुर रा ममराव कमधज राज ठाकर गांमा का मोटा पटायत नयर कंटाल्यै रा। त? बहर बस्ती पोसवाला रा घर घणां। जठे साह बलुजी वंसै उसवाल बडे साजन जाति सकलैचा. दी पांदे तसु भार्या रे उदरे उपनां। माता गरभ में पाया थकां सिंध रो सुपणो देख्यो।" 5. जयाचार्य : सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी तेरापन्थ के चतुर्थ प्राचार्य जीतमल जी या जयाचार्य का जन्म जोधपुर संभाग के रोमट गांव में वि. सं. 1860 की आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को हुआ। आपके पिता पोसवाल जाति के गोलछां गोत्रीय श्री प्राईदानजी थे। माता का नाम कल्लजी था। वि.सं. 1869 की माघ कृष्णा सप्तमी को नो वर्ष की अवस्था में द्वितीय प्राचार्य श्री भास्मल जी की भाशा से ऋषिराय ने जयपुर में इन्हें दीक्षा दी। प्राचार्य पद वि. सं. 1908 की माघ पूर्णिमा को बीदासर (चूरू) में ग्रहण किया तथा जयपुर में वि. सं. 1938 की भाद्रपद कृष्णा द्वादशी को स्वर्षवास हुमा। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 241 तेरापंथ धर्मसंघ में जयाचार्य उद्भट विद्वान, प्रतिभा सम्पन्न कवि और महान गद्य लेखक के रूप में विख्यात हैं। आपने गद्य व पद्य की छोटी-बड़ी 128 राजस्थानी रचनाएं सजिल की। प्राकृत साहित्य का राजस्थानी में अनुवाद भी किया। अनेक नई विधाओं का राजस्थानी साहित्य में प्रचलन किया। भापका विविध रूपात्मक एवं विषयात्मक समस्त साहित्य लगभय साढे तीन लाख अनष्टप छन्द परिमाण में उपलब्ध होता है। गद्य रूप में प्राप्त यापकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:-- प्रम विध्वंसन: इसमें तेरापंथ एवं स्थानकवासी सम्प्रदाय के मतभेदों एवं विवादास्पद विषयों को चवदह अधिकारों में विभक्त कर आगमों के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट किया गया है। वि. सं. 1980 में मंगामहर (बीकानेर) से इस ग्रन्थ का 462 पृष्ठों में प्रकाशन हो चुका है। संदेह विसोसधिः सत्कालीन विभिन्न प्रकार के सन्देहों का स्पष्टीकरण कर उन्हें दूर करने का इस ग्रन्थ में प्रयास किया गया है। यह लगभग 91 पत्रों की बड़ी प्रति है। जिसमें चवदह रत्नों में समस्त विषयवस्तु समाहित है। प्रारम्भ में संस्कृत का श्लोक है। उसके बाद रचना का प्रारंभ इस प्रकार हुआ है : "पूरव अनंतकाल संसार समुंदर नै विर्ष भ्रमण करता जीवनै समकत्व रतन नी प्राप्ति थई नथी भने किण ही समय दरसण मोहनीय करम नां क्षयोपसम थी समकत्व हाथ पावै तो पिण असुभ करम न उदय पाषंडी भादि अनेक जिन-मतना उत्थापक छ त्यांरी कसंगति करवा थी नाना प्रकार नां संदेह प्रात्मा ने विर्ष उतपन हवे अन ते संदेह उतपन्न होवा थी जे समकत्व नां प्राचार निस्संकि-" जिनाग्या मुख मण्डन: साधनों के प्राचार व्यवहार संबंधी कुछ अकल्पनीय लगने वाले प्रसंगों को प्रागमों के माधार पर इसमें सैद्धान्तिक दृष्टि से समर्थित किया गया है एवं सर्वज्ञों द्वारा विहित बताया है। रचना 17 पत्रों की है। रचना संवत् 1895 ज्येष्ठ कृष्णा सोमवती अमावस्या है। प्रारम्भ में दो दोहे हैं। कुमति विहडनः-- इसमें साधुमों के प्राचार-विचार विषयक तत्कालीन समाज द्वारा उठाये गये कुतकों का भागमिक प्रमाणों के माधार पर स्पष्टीकरण किया गया है। कुल 14 पत्रों की रचना है। प्रारम्भ में संस्कृत श्लोक है। परथूनी बोल: 08 बोल हैं। मन्तिम बोल को देखने से इंगित होता है कि श्री जयाचार्य इसे भोर मागे लिखना चाहते थे किन्तु किन्हीं कारणों से ऐसा न हो सका। इसमें आगमों के भिभिन्न कठिन तथा विवादास्पद विषयों का स्पष्टीकरण एवं संग्रहबोज रूप में है। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 झीणी चरचा रा बोल: इसमें द्रव्य जीव और भाव जीव की सूक्ष्मता एवं गूढार्थ को सरल व स्पष्ट रूप में समझाया गया है। बीच-बीच में स्वामी जी के पद्यों तथा प्रागमों के उदाहरण भी प्रस्तुत किये गये हैं। परम्परा बोल: इस शीर्षक के अन्तर्गत दो गद्य कृतियां हैं। प्रथम कृति शय्यातर संबंधी परम्परा के बोल की है। इसकी भी छोटी व बडी दो तरह की कृतियां उपलब्ध होती हैं। इसमें उन परम्पराओं का उल्लेख मिलता है, जिनका प्रागमों द्वारा स्पष्ट संकेत प्राप्त नहीं होता किन्तु प्राचीन प्राचार्यों की परम्पराओं के अनुसार वर्तमान में जिनके प्राधार पर साधनों का व्यवहार चलता है। दूसरी कृति गोचरी संबंधी परम्परा के बोल की है। इसमें प्रागमों के अलावा गोचरी संबंधी परम्परामों का वर्णन किया गया है। चरचा रतनमाला: समय समय पर चर्चा रूप में पूछे गये विभिन्न प्रश्न तथा प्रागम व अन्य प्रामाणिक ग्रंथों के प्रमाणों के आधार पर उनके उत्तर इस ग्रन्थ में संकलित हैं। दिल्ली के तत्कालीन श्रावक लाला कृष्णचन्द्र जौहरी द्वारा पूछे गये प्रश्न भी इसमें हैं। कृति प्रधुरी प्रतीत होती है। भिक्खु पिरछा:-- इसमें श्रावकों द्वारा समय-समय पर जयाचार्य से तत्व जिज्ञासा संबंधी पूछे गये 138 प्रश्न और उनके उत्तर हैं। ध्यान:-- इससे संबंधित दो कृतियां मिलती हैं ध्यान बड़ा मौर ध्यान छोटा। बडे ध्यान में ध्यान कैसे करें? कैसे बैठे? भादि बातों का गद्य में वर्णन है। छोटे ध्यान में पंच परमेष्टियों के गणों का चिन्तन करते हुए प्रात्म-शुद्धि को भोर प्रेरित किया गया है। बडे ध्यान का भारंभ इस प्रकार हुमा है-- "प्रथम तो पदमासनादिक आसन थिर करि काया नौ चंचलपणों मेटी नै मन मो पिण चंचल पणों मेटणों। पर्छ मन बाहिर थकी अंतर जमावणों। विषयादिक की मन में मिटाय में एकन प्राणणों। ते मन ठिकाणे माणवा निमित स्वासा सरत लगावणी--" प्रश्नोत्तर सारघ सतक:-- इसमें प्राचार-विचार एवं मान्यता संबंधी 151 सार्द्धशतक प्रश्न और उनके उत्तर दिये गये हैं। रचना वि. सं. 1895 से पूर्व हुई प्रतीत होती है। बृहद् प्रश्नोत्तर तत्वबोध: मकसुदाबाद के श्रावक बाबू कालूराम जी ने प्रश्नोत्तर तत्वबोध काव्य कृति पढने के पश्चात् कुछ शासाए आर प्रकट का, उन्ही के निराकरण स्वरूप प्रस्तुत कृति गय में बनानी प्रारंभ की किन्तु वह समयाभाव के कारण पूर्णमहो सकी। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 उपदेश रत्न कथा कोष: यह उपदेशात्मक कथाओं का विशाल संग्रह है, जो करीब 108 विषयों से संबंधित है। कथाएं अत्यन्त सुरुचिपूर्ण, साहित्यिक एवं पागम बुद्धि की परिचायक हैं। कहीं-कहीं दोहे व गीतिकाएं भी कथाओं में दी गई हैं। कथामों में कथावस्तु प्रवाहपूर्ण है। इन कथाओं का संग्रह संकलन किसी एक समय अथवा एक स्थान पर नहीं हरा, फलतः इन पर मेवाडी, मारवाडी ढुंढाडी और प्रारंभिक हिन्दी की छाप दृष्टिगोचर होती है। राजस्थानो कथा साहित्य के लिये यह कथाकोष अत्यन्त महत्वपूर्ण और मूल्यवान है। कृति की प्रथम कथा इस प्रकार शुरू हुई "बसंतपूर गामे नयर। तिण सैइर में एक नगर सेठ। तिण के पांच पत्र । छोटाई छोटा बेटा रो नाम मोतीलाल । मां बाप री प्राग्या में तीषो पण प्रकृति करडी घणी। मां बाप विचार यो प्री प्रादमी करडो क्रोधी अहंकारी। मां नी माया सू झगडो करे । भोजायां सू नित लडे। लोगा सं लडे। कलहगारो घणो पिण--" दृष्टांत : राजस्थानी में दृष्टान्त अथवा संस्मरण सर्व प्रथम लिखने का श्रेय जयाचार्य को ही है। इस तरह की पाप की तीन गद्य रचनायें मिलती हैं। भिक्ख दृष्टान्त, श्रावक दृष्टान्त और हेम दृष्टान्त । प्रथम कृति में प्राचार्य भीखणजी के 312 दृष्टान्त हैं। इन्हें मुनि हेमराज जी से सुनकर जयाचार्य ने लिखा। इसका रचना संवत् 1903 कार्तिक शुक्ला 13 रविवार और स्थान नाथद्वारा है। ये प्रायः व्यंग्यात्मक किन्तु कुशाग्र बुद्धि के परिचायक हैं। दूसरी कृति में तत्वज्ञ एवं श्रद्धा भक्ति रखने वाले श्रावकों के 32 दृष्टांत हैं और तीसरी में मुनि हेमराज जी के 37 दृष्टान्त हैं। इसमें कुछ दृष्टान्त भारमल जी स्वामी के भी हैं। गणविसुद्धिकरण हाजरी : आचार्य भीखणजी ने तेरापन्थ धर्म-संघ को संगठित व अनुशासित रखने के लिये जो मर्यादाएं बनाई, जयाचार्य ने उन्हें संकलित कर विभिन्न वर्गों में वर्गीकृत कर दिया। इस वर्गीकृत रूप को ही 'गण विसुद्धिकरण हाजरी' अथवा संक्षेप में हाजरी कहा जाता है। ये कुल 28 हैं। इनमें संघीय जीवन की अनेक मर्यादाएं, शिक्षाएं तथा मावश्यक सूचनाएं हैं। मर्यादाएं : ये विधान विषयक दो कृतियां हैं। प्रथम कृति बडी मर्यादा कहलाती है। इसमें के गोचरी, विहार, वस्त्र-पाव प्रादि की मर्यादाएं हैं। द्वितीय छोटी मर्यादा है। इसमें साधुओं के आहार संबंधी मर्यादाएं ही दी गई हैं। भाचारांग टब्बा : शीलोकाचार्य एवं पायचन्दसूरिकृत भाचारांग सूत्र के टब्बे के आधार को ध्यान में रखते हुए माचारांग सूत्र का राजस्थानी में यह सरल किन्तु विस्तृत टब्बा जयाचार्य ने वि. सं. 1919 की फाल्गुण शुक्ला 1 को बनाया है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 [गमाधिकार: आगमों की संख्या के बारे में जैन सम्प्रदाय में पर्याप्त मतभेद हैं। इस कृति में प्रागमों की संख्या को लेकर प्रामाणिक जानकारी देने का प्रयास किया गया है। प्रागमों के प्रक्षिप्त पाग को तर्कसंगत ढंग से अमान्य भी ठहराया गया है। इण्डियां: जयाचार्य की चार हुण्डियां मिलती हैं। निशीथ री हुण्डी, बृहत्कल्प री हुण्डी, व्यवहारी री हुण्डी तथा भगवती री हुण्डी। इन हुण्डियों से संबंधित चारों सूत्रों का मर्म समझने की दृष्टि से इनमें उनका विषयानुक्रम प्रस्तुत किया गया है। ये हुण्डियां वस्तुत: इन सूत्रों की कुजी सदृश उपयोगी हैं। सिद्धान्तसार: ये तुलनात्मक टिप्पणी-परक गद्य रचनाएं हैं। भिक्षु स्वामी ने अपनी कृतियों में जिन विवादास्पद विषयों को प्रागमों के संदर्भ में लिया था. जयाचार्य ने उन कतियों में विषयों पर अनेक प्रमाण प्रस्तुत करते हए तुलनात्मक टिप्पणीयक्त सिद्धान्तसार लिखे थे। कुछ सिद्धान्तसार लघु व बडे दोनों प्रकार के हैं। कुछ केवल लघु और कुछ केवल बडे ही मिलते साधनिका:-- सारस्वत-चन्द्रिका व्याकरण ग्रन्थ को समझने के लिये इस गद्य कृति का राजस्थानी में निर्माण किया गया है। इसमें कठिन स्थलों को सरलतम एवं सूत्रबद्ध तरीके से समझाया गया है। पत्रात्मक गद्य:-- पत्र समकालीन इतिहास व परिस्थितियों के बारे में काफी पलभ्य सामग्री उपलब्ध कराते हैं। वस्तुतः ये व्यक्ति के मानस के प्रतिबिम्ब को समझने के अच्छे साधन हैं। जयाचार्य के ऐसे अनेकों पत्र मिलते हैं, जिनका ग्रन्थाग्र 1501 है। ये पत्र विभिन्न समयों में लिखे हुए हैं तथा ये शिक्षात्मक, समाधानात्मक एवं घटना प्रधान सामग्री से परिपूर्ण हैं। 6. हरकचन्द जी स्वामी: ये गांव अटाटिया जिला उदयपुर (मेवाड) के निवासी थे। वि. सं. 1902 में जयाचार्य से दीक्षा ग्रहण की थी। तेब्बीस वर्ष साधु जीवन पालने के पश्चात् वि. सं. 1925 में इनका स्वर्गवास हमा था। जयाचार्य से जब उनके उत्तराधिकारी का नाम पूछते थे तो वे तीम नाम छोग, हरक, मघराज बताते थे। उनमें इनका नाम भी था। इनकी राजस्थामी गद्य में चरचा शीर्षक कृति मिलती है। इसमें व्रत-अवत, शुभ जोग, प्रशुभ जोग, साधु जीवन, सवर धर्म, कार्य का कर्ता मादि पर चर्चाएं हैं। प्राचार्य काल गणी: भष्टमाचार्य काल गणी का जन्म बीकानेर संभाग के छापर गांव में बि. सं. 1933 की काल्गुण शुक्ला द्वितीया को हुमा। भापका जन्म नाम शोभचन्द पोर माता-पिता द्वारा प्रद Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245 नाम कालराम था। मलचन्द जी कोठारी आपके पिता और छोगाजी माता थी। बि.: 1944 की प्राश्विन शक्ला ततीया को अपनी माता के साथ बीदासर (मारवाड) में दीक्षा ग्रह की। डालगणी के देवलोक के पश्चात् वि. सं. 1966 की भाद्रपद पूर्णिमा को लाडन में प्राचा पद पर आसीन हए। गंगापुर मेवाड में वि. सं. 1993 की भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को भापव स्वर्गवास हुमा । राजस्थानी गद्य में आपका काल विषय पर एक लेख तथा पत्र साहित्य मिलता है रत्र आपने अपने प्राज्ञानवर्ती साध-साध्वियों को समय-समय पर लिखे हैं। ऐसे पत्रों की संख्य नगभग बीस है। संघ संचालन तथा अनशासन की दष्टि से ये पत्न बहुत उपयोगी हैं। वि.स 1976 की चैत्र शुक्ला 3 को अपने शिष्य भीम जी को लिखे एक पत्र का कुछ अंश दृष्टव्य है "शिष्य भीमजी प्रादि सं सुखसाता बंचे और चित घणों समाधि में राखजे। को चित में विचारणा राखजे मती. अनै सुजानगढ में आछी तरें सं रहीजे सुजानगढ : (सगला) संत काम तने पूछने करसी। प्राग्या मर्याद में कहिणो सुणनो पाछी त राखज्यो -" चौथमल जी स्वामी: प्राप जावद (मालवा) के निवासी थे। पन्द्रह वर्ष की उम्र में सप्तमाचार्य डाल गणी के पास वि. सं. 1965 में शिक्षा ली और वि. सं. 2017 में 48 वर्ष का साधु जीवन पालते हुए इनका देहावसान हया। ये संस्कृत, राजस्थानी एवं व्याकरण के प्रकाण्ड विद्वान थे। तत्संबंधी इनकी रचनाएं भी मिलती हैं। तेरापंथ के समस्त हस्तलिखित ग्रन्थ इनकी देखरेख में ही रहते थे। कालूजी स्वामी बडा के वि. सं. 1958 में स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् तेरापंथ की ख्यात आप ही राजस्थानी गद्य में लिखते थे। उस ख्यात का परिचय उदाहरण कालूजी स्वामी बडा के परिचय के साथ दे दिया गया है। ख्यात के अलावा राजस्थानी गद्य की कोई अन्य रचना भापकी उपलब्ध नहीं होती है। 9. हेमराज जी स्वामी: मेवाड प्रदेशान्तर्गत भातमा गांव के निवासी थे। अष्टमाचार्य कालू गणी के समय में वि.स. 1969 में दीक्षा ग्रहण की तथा वि. सं. 1994 में इनका स्वर्गवास हुमा। इनके पच्चीस बोल अर्थ संग्रह तथा बीस से अधिक थोकडे मिलते हैं। प्राचार्य श्री तुलसी: . युग प्रधान प्राचार्य श्री तुलसी तेरापन्थ धर्म संघ के नवम् प्राचार्य हैं। आपका जन्म वि. सं. 1971 की कार्तिक शुक्ला द्वितीया को लाड (मारवाड) में हुमा । मापके पिता भोसवाल जाति के खटेऊ गोत्रीय झमरमलजी थे। माता का नाम वदनांजी है। ग्यारह की अल्प वय में ही वि. सं. 1982 की पौष कृष्णा पंचमी को लाडनू में ही आपकी दीक्षा हुई। युवाचार्य पद वि.सं. 1993 की भाद्रपद शुक्ला ततीया को एवं प्राचार्य पद इसके छ:दिन बाद हा नवमी को प्राप्त किया। मापने हिन्दी, संस्कृत व राजस्थानी में विपुल साहित्य लिखा है किन्तु राजस्थानी गध के रूम में प्रापका केवल पत्रात्मक साहित्य ही उपलब्ध होता है। ऐसे लगभग 150 पत्र मिलते Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । इन पत्रों में मंत्री मुनि मगनलाल जी, साध्वी प्रमुखा लाडाजी तथा मातुश्री वन्ना जी को लिखे गये पत्र विशेष उल्लेखनीय हैं । नथमल जी स्वामी:-- श्राप टमकोर निवासी हैं । अपनी माता जी के साथ अष्टमाचार्य कालू गणी के समय वि.सं. 1987 के माघ मास में श्रापने सरदार शहर में दीक्षा ग्रहण की। श्राप प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी व गुजराती आदि भाषाओं के विशिष्ट विद्वान् हैं । आपकी अनेक साहित्यिक व शोधपूरक कृतियां भी प्रकाशित हुई हैं । आप संस्कृत के प्राशु कवि के रूप में भी विख्यात है । वर्तमान में श्रागमो का पाठ सम्पादन आपकी देखरेख में ही हो रहा है । दर्शन, योग व साहित्य पर श्रापकी समान गति है । राजस्थानी में श्रापके गद्य गीत तथा एक फूल लारे काटो शीर्षक गद्य रचनाएं मिलती हैं । दोनों प्रकार की रचनाएं साहित्यिक किन्तु दार्शनिक संकेत से युक्त हैं । गद्य गीत का उदाहरण इस प्रकार है 11. 246 अन्य : - "मे बरस्यो । पाणी रा परपोटा उछल-उछल ऊंचा जाण लाग्या । ज्य उछल्या त्यू ही मिटग्या । नीचे नाखण ने श्राकास प्रापरी छाती खोल दी । ऊंचा लेज्यावण ने हाथ कानी पसार्या - नाखणेवाला घणाई है । उठाणेवाला किताक मिले ?" तेरापन्थ के उपर्युक्त राजस्थानी गद्यकारों के अलावा बागोर वाले नथमल जी स्वामी ने भी राजस्थानी गद्य में एक दो गद्य रचनाएं की हैं, ऐसा बताया जाता है । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी गद्य साहित्यकार 9 -डा. हुकमचन्द भारिल्ल राजस्थानी में गद्य लेखन की परम्परा अपभ्रंश काल से लेकर वर्तमान काल तक अविच्छिल रूप से चली आ रही है। इस साहित्य की यह विशेषता रही है कि जहां हिन्दी साहित्य में गद्य का प्राचीन रूप नहीं के बराबर है वहां राजस्थानी में गद्य साहित्य मध्यकाल से ही पूर्ण विकसित रूप में मिलता है। वैसे तो राजस्थानी में गद्य लिखने का प्रारम्भ 13-14 वीं शताब्दि से ही हो गया था लेकिन 16 वीं शताब्दि तक माते-आते वह पूर्ण विकसित हो चुका था। दिगम्बर जैन कवियों ने प्राकृत एवं संस्कृत ग्रंथों की बालावबोध टीकायें लिख कर राजस्थानी गद्य के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। 1. पाण्डे राजमल्लः राजस्थानी गद्य के विकास में जिन विद्वानों ने अपना योगदान दिया था उनमें पाण्डे राजमल्ल का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। ये 16 वीं शताब्दि के विद्वान् थे और विराटनगर (बैराठ) इनका निवास स्थान था। प्राकृत एवं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान होने के साथ अध्यात्म की ओर इनकी विशेष रुचि थी। इन्होंने प्रसिद्ध प्राध्यात्मिक ग्रन्थ समयसार कलश पर बालावबोधिनी टीका लिखी थी। टीका पुरानी शैली पर खण्डान्वयी है। शब्द पर्याय देते हुए भावार्थ लिखा गया है। यद्यपि उनकी भाषा संस्कृत परक शब्दों से युक्त है। वाक्यों में बराबर प्रवाह पाया जाता है। पाण्डे राजमल्ल के गद्य का एक नमूना देखिये ___"यथा कोई जीव मदिरा पीबाइ करि अविकल कीजे छ, सर्वस्व छिनाइ लीजै छ। पदतै भ्रष्ट कीजै छै तथा अनादि ताई लेइ करि सर्वजीवराशि राग, द्वेष, मोह, अशुद्ध करि मतवालो हमो छै तिहि ते ज्ञानावरणादि कर्म को बैध होइ छै --" उक्त उद्धरण से जाना जा सकता है कि भाषा जयपुरी है किन्तु सर्वनाम और क्रियानों का प्रर्थ जान लेने पर वचनिका का अर्थ सुगमता से जाना जा सकता है। 2. प्रखयराज श्रीमाल:-- प्रखयराज 17 वीं शताब्दि के विद्वान् थे। इनके जन्म, स्थान एवं जीवन के संबंध में कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन भाषा एवं शैली की दृष्टि से वे जयपुर प्रान्त के होने चाहिये। लेखक की अभी तक निम्न रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं -- 1. चतुर्दश गुण स्थान चर्चा 2. विषापहार स्तोल वचनिका 3. कल्याणमन्दिर स्तोत्र भाषा वचनिका 4. भक्तामर स्तोत्र भाषा वचनिका भूपाल चौबीसी भाषा वचनिका प्रथम ग्रन्थ के अतिरिक्त शेष चार ग्रन्थों पर कवि ने भाषा वचनिका लिखी है। लेकिन चतुर्दश गुणस्थान चर्चा एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है जिसमें चौदह गुणस्थानों का अच्छा विवेचन किया 1. बोरगाणो वर्ष 3 मंक 1 पृष्ठ 101 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 गया है। भाषा न कठिन है और न दुरूह शब्दों का प्रयोग किया गया है। प्रखयराज के एक गद्य का नमूना देखिये "शार्ग अन्तराय कर्म पांच प्रकार तिसि की दोइ साखा। एक निहचे और एक व्यौहार। निहचै सो कहिये जहां परगन का त्याग न होइ सो दानान्तराय। यात्म तत्व का लाभ न हो इसो लाभान्तराय। प्रात्म स्वरूप का भोग न होइ सो भोगान्तराय। जहां बारवार पपोग नजागै सो उपभोगान्तराय। अष्ट कर्म कहुं जीव जिसके नहीं सो वीर्यान्तराय " 3. पाण्डे हेमराजः पाण्डे हेमराज यद्यपि आगरा के निवासी थे लेकिन राजस्थान से भी उनका विशेष संबंध था। महाकषि दौलतराम कासलीवाल जब आगरा गये थे तो हेमराज से उनकी भेंट हुई थी। उन्होंने निम्न शब्दों में हेमराज की प्रशंसा की है हेमराज साधर्मी भलै, जिन वच मांनि असुभ दल मलै । अध्यातम चरचा निति कर, प्रभु के चरन सदा उर धरै। हेमराज ने निम्न ग्रन्थों की बालावबोध टीका लिखी थीप्रवचनसार भाषा (सं. 1709) पंचास्तिकाय, न चक्र, गोमटसार कर्मकाण्ड । इनकी गद्य शैली बहुत सुन्दर है। वाक्य सीधे और सुग्राहय हैं। जो, सो, विष, करि शब्दों का प्रयोग हुआ है। गद्य में पंडिताऊपन भी है। उनके गधे का नमूना निम्न प्रकार "धर्म द्रव्य सदा अविनासी टंकोत्कीर्ण वस्तु है। यद्यपि अपण अगुर लघु गुणनि करि षट गणी हानि वद्धि रूप परिणवै है। परिणाम करि उत्पाद व्यय संयुक्त है तथापि अपने धौव्य स्वरूप सौ चलता नांही द्रव्य तिसही का नाम है जो उपजै विनस थिर रहै।" पाण्डे हेमराज गद्य साहित्य के अपने युग के लोकप्रिय विद्वान थे। इनके प्रवचनसार पौर पंचास्तिकाय भाषा टीका स्वाध्याय प्रेमियों में बहुत प्रिय रहे हैं। 4. दीपचन्द कासलीवाल:-- दीपचंद शाह भी उन राजस्थानी विद्वानों में से थे, जिन्होंने राजस्थानी गद्य- निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान किया है। वे खण्डेलवाल जाति के कासलीवाल गोत्र में जन्मे थे। प्रतः कई स्थानों पर उनका नाम दीपचंद कासलीवाल भी लिखा मिलता है। ये पहिले सांगानेर में रहते थे किन्तु बाद में पामेर पा गये थे। ये स्वभाव से सरल, सादगी प्रिय और मध्यात्म चर्चा के रसिक विद्वान् थे। भापके द्वारा रचित अनुभव प्रकाश (सं. 1781), चिवलास (सं. 1779), प्रात्मावलोकन (सं. 1774), परमात्म प्रकाश, ज्ञान दर्पण, उपदेश रत्नमाला भोर स्वरूपानन्द नामक ढुंढाहड प्रदेश के अन्य दिगम्बर जैन लेखकों की भांति इनकी भाषा में बज और राजस्थानी के रूपों के साथ खडी बोली के शब्द-रूप हैं। भाषा स्वच्छ है एवं साधु-वाक्यों में गम्भीर प्रपाभिव्यक्ति उसकी विशेषता है। 1. हिन्दी गध का विकास : डा. प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसंधान प्रकाशन, प्राचार्य नभर, कानपुर, पृ. 1870 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 साहित्यिक मूल्यों की दृष्टि से इनकी रचनाओं का महत्व चाहे उतना न हो किन्तु तत्वचिंतन एवं हिन्दी गद्य के निर्माण व प्रचार की दृष्टि से इनका कार्य अभिनन्दनीय है। हिन्दी गद्य की बाल्यावस्था में बहुत रचनाओं का गद्य में निर्माण कर इन्होंने उसकी रिक्तता को भरने का प्रयास किया और इस दिशा में महत्वपूर्ण योग दिया है। इनकी भाषा का नमूना निम्नानुसार है: "जैसे बानर एक कांकरा के पडे रोवै तैसे याके देह का एक अंग भी छीजे तो बहुतेरा रोवै। ये मेरे और मैं इनका झूठ ही ऐसे जडन के सेवन तै सुख मानै। अपनी शिवनगरी का राज्य भूल्या, जो श्री गुरु के कहे शिवपुरी कौं संभालै, तो वहां का आप चेतन राजा भविनाशी राज्य करें।" 5. महाकवि दौलतराम कासलीवाल: दौलतराम कासलीवाल ने जिस प्रकार काव्य ग्रन्थों का निर्माण किया उसी प्रकार गद्य में भी कितने ही ग्रन्थों का निर्माण करके राजस्थानी एवं हिन्दी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कवि की प्रथम रचना पुण्यास्रवकथाकोश है और वह गद्य में है। इसका रचना काल संवत् 1777 (सन् 1720 - कवि उस समय आगरे में थे और वहीं पर विद्वानों के संसर्ग से इनमें लिखने की रुचि जाग्रत हुई। अब तक इनकी निम्न रचनायें प्रकाश में आ चुकी हैं। 1. पुण्यालवकथाकोश (सं. 1777) 3. भादि पुराण (सं. 1823) 5. हरिवंश पुराण (सं. 1829) 7. सारसमुच्चय 2. पद्मपुराण (सं. 1823) 4. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय (सं. 1827) (अपूर्ण छोड दिया) 6. परमात्म प्रकाश पुण्यास्रवकथाकोश, पद्मपुराण, आदिपुराण एवं हरिवंशपुराण विशालकाय ग्रन्थ हैं यद्यपि ये सभी संस्कृत भाषा से अनुदित कृतियां हैं। लेकिन कवि ने अपनी ओर से भी जो सामग्री जोडी है उससे ये सभी ग्रन्थ मौलिक ग्रन्थ हो गये हैं। कवि के समय तक अनुवाद में जो सूनासूना सा नजर आता था उसे अपनी कृतियों में जड से उखाड़ फेंका। यही कारण है कि उनके पदमपुराण, हरिवंशपुराण, प्रादि पुराण एवं पुण्यानवकथाकोश का स्वाध्याय गत 200 वर्षों में जितना हुआ उतना स्वाध्याय संभवतः अन्य किसी रचना का नहीं हुआ होगा। आज भी ये सभी रचनायें प्रत्यधिक लोकप्रिय हैं। डा. जयकिशन के शब्दों में दौलतराम का हिन्दी गद्य संस्कृत परिनिष्ठ है। वह अपभ्रंश प्राकृत तथा देशी शब्दों से मुक्त है। वह ब्रज भाषा का गद्य है लेकिन फिर भी उसमें खडी बोली का पूर्व रूप देखा जा सकता है। दौलतराम के गद्य का नमूना देखिये: "मालव देस उजेणी नगरी विर्ष राजा अपराजित राणी विजयां त्यांक विनयश्री नाम पुत्री हुई। हस्तिशीर्षपुर के राजा हरिषेण परणी। एक दिन दंपति वरदत्त मुनि नै आहार दान देता हुआ। पाछै बहुत कालतांइ राज्य कीयौ। एक रात सज्याग्रह विर्ष विनयश्री पति सहित सूती थी। अगर का धूप का धूम करि राजा राणी मृत्यु प्राप्ति हुआ। मध्य भोग भूमि विष उपज्यां ।"-पुण्यास्रवकथाकोष दौलतराम का जन्म जयपुर प्रदेश के कसबा ग्राम में संवत् 1749 में हुआ था। उनका बन्म नाम बेगराज था। मागरा, उदयपुर एवं जयपुर उनका साहित्यिक क्षेत्र रहा। ये जीवन Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 भर जयपुर महाराजा की सेवा में रहे तथा साथ ही में उनके कृपा पात्र भी रहे। इनका स्वर्गवास भादवा सुदी 2 संवत् 1829 को जयपुर में हुआ। इनकी कृतियों का सामान्य परिचय निम्न प्रकार है पुण्यास्रव कथाकोष : पण्यास्त्रव कथाकोष में 59 कथाओं का संग्रह है। इनके अतिरिक्त 9 लघ कथाएं प्रमुख कथाओं में आ गयी हैं जिससे उनकी संख्या 65 हो गई है। प्रत्येक कथा कहने का मुख्य उद्देश्य कथा नायक के जीवन का वर्णन करने के अतिरिक्त, नैतिकता, सदाचार और अच्छे कार्यों की परम्परा को जन्म देना है। सभी कथायें सरल एवं रोचक शैली में लिखी गयी हैं। कथाकोश में निम्न कथाओं का संग्रह है: ___ 1. जिनपूजा व्रत कथा, 2. महाराक्षस विद्याधर कथा, 3. मैंढक की कथा, 4. भरतकथा, 5. रत्नशेखर चक्रवर्ती कथा, 6. करकण्डू कथा, 7. वनदन्त चक्रवर्ती कथा, 8. श्रेणिक कथा, 9. पंच नमस्कार मंत्र कथा, 10. महाबली कथा, 11. भामण्डल कथा, 12. यमराज कथा, 13. भीम केवली कथा 14. चाण्डाल कूकरी कथा, 15. सुकोशल मुनि कथा, 16. कुबेरु मित्रावेष्ठि कथा, 17. मेघ कुमार कथा, 18. सीताजी की कथा, 19. रानी प्रभावती कथा 20. राजा व्रजकरण कथा, 21. बाई नीली कथा, 22. चाण्डाल कथा, 23. नाग कुमार कथा, 24. भविष्यदन्त कथा, 25. अशोक रोहिणी कथा 26. नन्दिमित्र कथा, 27. जामवन्ती कथा, 28. ललित घण्टा कथा, 29. अर्जुन चाण्डाल कथा, 30. दानकथा, 31. जयकुमार सुलोचना कथा, 32. वज्रगंध कथा, 33. सुकेत श्रेष्ठि कथा, 34. सागर चक्रवर्ती कथा, 35. नलनील कथा, 36. लवकुश कथा, 37. दशरथ कथा, 38. भामण्डल कथा, 39. सुषीमा कथा, 40. गंधारी कथा, 41. गौरी कथा, 42. पद्मावती कथा, 43. धन्यकुमार कथा, 44. अंगनीला ब्राह्मणी कथा, 45. पांच केसरी कथा, 46. अकलंकदेव कथा, 47. समंतभद्र कथा, 48. सनतकुमार चक्रवर्ती कथा, 49. संजय मुनि कथा, 50. मधु पिंगल कथा, 51. नागवत कथा, 52. ब्राह्मण चक्रवर्ती कथा, 53. अंजन चोर कथा, 54. अनन्तमती कथा, 55. उदयन कथा, 56. रेवती रानी कथा, 57. सेठ सूदर्शन कथा, 58. वारिषेण मुनि कथा, 59. विष्णकुमार मनि कथा, 60. वचकुमार कथा, 61. प्रीतिकर कथा, 62. सत्यभामा पूर्वभव कथा, 63. श्रीपाल चरित्र कथा, 64. जम्बूस्वामी कथा । पपपुराण : पद्मपुराण कवि की मूल कृति नहीं है किन्तु 10-11 वीं शताब्दी के महाकवि रविषेणाचार्य की संस्कृत कृति का गद्यानुवाद है। लेकिन कवि की लेखन शैली एवं भाषा पर पूर्ण अधिकार होने से यह मानों स्वयं की मूल रचना के समान लगती है। इसमें 123 पर्व हैं जिनमें जैन धर्म के अनुसार रामकथा का विस्तार से वर्णन हुआ है। पद्मपुराण की भाषा खडी बोली के रूप में है किन्तु कुछ विद्वानों ने इसे ढूढारी भाषा के रूप में स्वीकार किया है। पुराण की भाषा अत्यधिक मनोरम एवं हृदयग्राही है। मादि पुराण : मादि पुराण विशाल काय ग्रन्थ है। लेकिन कवि ने भाषा टीका की एक ही शैली को पर्पोवाया है। प्राचार्य जिनसेन के क्लिष्ट शब्दों का पर्थ जितने सरल एवं बोधगम्य शब्दों में Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Is1 किया है वह कवि के संस्कृत एवं हिन्दी के अगाध ज्ञान का द्योतक है। यह भी संवत् 1824 की कृति है। हरिवंश पुराण : इस कृति का रचना काल सं. 1829 है। इसकी रचना जयपुर में ही सम्पन्न हुई थी। यह कवि की अन्तिम कृति है। 19 हजार श्लोक प्रमाण गद्य कृति लिखना दौलतराम के लिये महान् साहित्यिक उपलब्धि है। इसमें हरिवंश की कथा विस्तार से दी हुई है। पुराण के कितने ही प्रसंग ऐसे लगते हैं जैसे उन्होंने अपनी सारी शक्ति ही उलेटकर रखदी हो। 6. महापंडित टोडरमल:-- राजस्थानी गद्यकारों में महापंडित टोडरमल का विशेष स्थान है। उन्होंने टीकाओं एवं स्वतन्त्र ग्रन्थों के माध्यम से राजस्थानी गद्य के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इनकी रचनाओं से पता चलता है कि पंडित जी की भाषा ढंढारी थी जो राजस्थानी भाषा की ही एक शाखा है। टोडरमल जी की भाषा में प्रवाह एवं लालित्य दोनों हैं। पिता का नाम टोडरमल जी का समय ईसा की अठारहवीं शती का मध्यकाल है। उनके पिता का नाम जोगीदास एवं माता का नाम रम्भादेवी था। पंडित जी के दो पुत्र हरिचन्द एवं गमानीराम थे। पंडितजी व्युत्पन्नमति थे, इसलिये थोडे ही समय में उन्होंने प्राकृत एवं संस्कृत पर पूर्ण अधिकार कर लिया। कन्नड़ भाषा का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था। अधिकांश विद्वान् उनकी आयु 27 वर्ष की मानते हैं लेकिन नवीन खोज के आधार पर वे 47 वर्ष तक जीवित रहे थे। दो पुत्र हरिचन्द । कन्नड़ भाषालय थोडे ही समय में पंडित जी के प्रमुख गद्य ग्रन्थों में गोम्मटसार जीवकांड, गोम्मट सार कर्मकांड, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार, मोक्षमार्ग प्रकाशक, प्रात्मानुशासन, पुरुषार्थसिद्धयुपाय एवं रहस्यपूर्ण चिट्टी के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें मोक्षमार्ग प्रकाशक एवं रहस्य पूर्ण चिट्री उनकी स्वतंत्र कृतियां हैं तथा शेष सब प्राकृत एवं संस्कृत ग्रन्थों पर राजस्थानी टीकायें हैं। गोम्मटसार जीवकांड, गोम्मटसार कर्मकांड, लब्धिसार एवं क्षपणासार पर चारों टीकाओं को मिला कर उनका नाम 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका' रखा गया है। सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका विवेचनात्मक गद्य शैली में लिखी गई है। प्रारम्भ में 71पृष्ठों की पीठिका है जिसे हम अाधुनिक भाषा में भमिका कह सकते हैं। इसे पढ़ने के पश्चात् ग्रंथ का पूरा हार्द खुल जाता है। 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' पंडित जी का स्वतन्त्र ग्रन्थ है एवं वह बड़ी ही आकर्षक शैली में लिखा हुना है। इसमें सभी जैन सिद्धान्त के ग्रन्थों का मानों निचोड है। पंडितजी का यह अत्यधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है जिसकी अब तक कितने ही प्रावत्तियां प्रकाशित हो चकी हैं। विवेचनात्मक गद्य शैली में लिखे जाने पर भी प्रश्नोत्तर के रूप में विषय का अच्छा प्रतिपादन किया गया है। पंडितजी के गद्य का एक नमूना देखिये - "तातें बहुत कहा कहिए, जैसे रागादि मिटावने का श्रद्धान होय सो ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। बहुरि जैसे रागादि मिटावने का जानना होय सो ही सम्यग्ज्ञान है। बहुरि जैसे रागादि मिटें सो ही आचरण सम्यक् चरित्र है। ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है।" पं. टोडरमल जी की वाक्य रचना संक्षिप्त और विषय-प्रतिपादन शैली तार्किक एवं गम्भीर है। व्ययं का विस्तार उसमें नहीं है पर विस्तार के संकोच में कोई विषय अस्पष्ट नहीं रहा है । लेखक Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 विषय का यथोचित विवेचन करता हुआ आगे बढने के लिये सर्वत ही श्रातुर रहा है। जहां कहीं भी विषय का विस्तार हुआ है वहां उत्तरोत्तर नवीनता आती गई । वह विषय विस्तार सांगोपांग विषय - विवेचना ही की प्रेरणा से ही हुआ है । जिस विषय को उन्होंने छुप्रा उसमें 'क्यों' का प्रश्नवाचक समाप्त हो गया है शैली ऐसी अद्भुत है कि एक अपरिचित विषय भी सहज हृदयंगम हो जाता है । पंडित जी का सबसे बडा प्रदेय यह है कि उन्होंने संस्कृत, प्राकृत में निबद्ध प्राध्यात्मिक तत्वज्ञान को भाषा - गद्य के माध्यम से व्यक्त किया और तत्व विवेचन में एक नई दृष्टि दी । यह नवीनता उनकी क्रान्तिकारी दृष्टि में है । टीकाकार होते हुए भी पंडित जी ने गद्यशैली का निर्माण किया । डा. गौतम ने उन्हें गद्य निर्माता स्वीकार किया है । 1 उनकी शैली दृष्टान्तयुक्त प्रश्नोत्तरमयी तथा सुगम है । वे ऐसी शैली अपनाते हैं जो न तो एकदम शास्त्रीय है और न श्राध्यामिक सिद्धियों और चमत्कारों से बोझिल । उनकी इस शैली का सर्वोत्तम निर्वाह मोक्षमार्ग प्रकाशक में है । तत्तकालीन स्थिति में गद्य को आध्यात्मिक चिन्तन का माध्यम बनाना बहुत ही सूझ-बूझ और श्रम का कार्य था । उनकी शैली में उनके चिन्तक का चरित्र और तर्क का स्वभाव स्पष्ट झलकता है। लेखक होते हुए भी उनकी गद्यशैली में व्यक्तित्व का प्रक्षेप उनकी मौलिक विशेषता है। एक आध्यात्मिक पंडित जयचन्द जी छाबडा :--- 7. पंडित टोडरमल के पश्चात् राजस्थानी गद्य के प्रमुख निर्माता के रूप में पं. जयचन्द् छाबड़ा का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है । जब ये 11 वर्ष के थे तभी से इन्होंने अपने आपको विद्वानों को समर्पित कर दिया । संवत् 1859 (सन् 1802 ) से इन्होंने लिखना प्रारम्भ किया और सर्व प्रथम तत्वार्थ सूत्र वचनिका लिखी । अब तक उनकी निम्न कृतियां प्राप्त हो चुकी हैं। 1. तत्वार्थसूत्र वचनिका (सं. 1859 ) सर्वार्थसिद्धि वचनिका (सं. 1862 ) प्रमेयरत्नमाला वचनिका (सं. 1863 ) 2. 3. 4. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा भाषा (सं. 1863) 5. 6. द्रव्य संग्रह वचनिका (सं. 1863) समयसार वचनिका (सं. 1864) देवागमस्तोत्र ( प्राप्त मीमांसा) (सं. 1866 ) प्रष्ट पाहुड वचनिका (सं. 1867 ) 7. N 8. 9. ज्ञानार्णव वचनिका (सं. 1869 ) 10. भक्तामर स्तोत वचनिका (सं. 1870 ) 11. पदसंग्रह 12. सामायिक पाठ वचनिका पत्र परीक्षा वचनिका 13. 14. चन्द्रप्रभ चरित वि. सर्ग 15. धन्यकुमार चरित वचनिका इनके ग्रन्थों की भाषा सरल सुबोध एवं परिमार्जित है, भाषा में जहां भी दुरूहता आई है, उसका कारण गम्भीर भाव और तात्विक गहराइयां रही हैं। इनके गद्य का नमना इस प्रकार है: 1. हिन्दी गद्य का विकासः डा. प्रेम प्रकाश गौतम, अनुसंधान प्रकाशन, आचार्य नगर, कानपुर, पृ. 185 व 188 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " जैसे इस लोक विषै सुवर्णं श्रर रूपा कूं गालि एक किए एक पिण्ड का व्यवहार होय है तैसें श्रात्मा के शरीर के परस्पर एक क्षेत्र की अवस्था ही तें एकपणा का व्यवहार है ऐसे व्यवहार raat करि आत्मा र शरीर का एकपणा है । बहुरि निश्चय तै एकपणा नाहीं हैं जातें पीला र पांडुर है स्वभाव जिनिका ऐसा सुवर्ण अर रूपा है तिनके जैसे निश्चय विचारिए तब अत्यन्त भिन्नपणा करि एक एक पदार्थपणा की अनुपपत्ति है, तातै नानापना ही है । " 1 8. पंडित सदासुख : पंडितप्रवर जयचन्दजी छाबडा के बाद राजस्थानी भाषा के गद्य-भंडार को समृद्ध करने वालों में पंडित सदासुख कासलीवाल का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है । इनका जन्म जयपुर में विक्रम संवत् 1852 तदनुसार ईस्वी सन् 1795 के लगभग हुआ था । 2 श्रापके द्वारा लिखित ग्रन्थ निम्नानुसार है : 2. भगवती श्राराधना भाषा वचनिका ( सं. 1906) 3. तत्वार्थ सूत्र ( बृहद् भाषा टीका श्रर्थ प्रकाशिका) (सं. 1914 ) अकलंकाष्टक भाषा वचनिका (सं. 1915 ) रत्नकरण्ड श्रावकाचार भाषा टीका (सं. 1920 ) इनकी भाषा का नमूना इस प्रकार है : 1. 253 5. 7. 4. 6. 8. तत्वार्थसूत्र (लघु भाषाटीका) ( सं. 1910 ) समयसार नाटक भाषा वचनिका ( सं. 1914 ) मृत्यु महोत्सव (सं. 1918 ) नित्य नियम पूजा (सं. 1921 ) "संसार में धर्मं ऐसा नाम तो समस्त लोक कहैं हैं परन्तु शब्द का अर्थ तो ऐसा जो नरक तिचादिक गति में परिभ्रमणरूप दुखतें श्रात्मा छुडाय उत्तम आत्मीक, अविनाशी अतीन्द्रिय मोक्षसुख में धारण करै सो धर्म है । सो ऐसा धर्म मोल नाहीं श्रावै, जो धन खरचि दानसन्मानादिक ग्रहण करिये तथा किसी का दिया नाहीं आवै, जो सेवा उपासनात राजी कर लिया जाय । तथा मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि देवमूर्ति, तीर्थादिक में नाहीं धर्या है जो वहां जाय ल्याइये ।" 9. ऋषभदास निगोत्या : ऋषभदास निगोत्या पं. जयचन्द्र छाबडा के समकालीन विद्वान थे । संवत् 1840 के लगभग इनका जन्म जयपुर में हुआ । ये शोभाचन्द के सुपुत्र थे । संवत् 1888 में इन्होंने प्राकृत भाषा में निबद्ध मूलाचार पर भाषा वचनिका लिखी थी । ग्रन्थ की भाषा ढूंढारी है तथा 1. हिन्दी साहित्य : द्वितीय खंड, पु. 504 1 2. रत्नकरण्ड श्रावकाचार भाषा टीका, पृष्ठ 2 1 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस पर पं. टोडरमल एवं जयचन्द की शैली का प्रभाव है। इनकी भाषा का एक उदाहरण देखिये-- "वसुनंदि सिद्धान्त चक्रवति कवि रची टीका है सो चिरकाल पर्यन्त पृथ्वी विर्ष तिष्ठहु । कैसी है टीका सर्व अर्थनि की है सिद्धि जाते। बहुरि कैसी है समस्त गुणनि की निधि । बहुरि. ग्रहण करि है नीति जाने ऐसो जो प्राचारच कहिये मनिनि का प्राचरण ताके सुक्ष्म भावनि की है। अनुवृत्ति कहिये प्रवृत्ति जाते। बहुरि विख्यात है अठारह दोष रहित प्रवृत्ति जाकी ऐसा जो जिनपति कहिये जिनेश्वर देव ताके निर्दोष बचनि करि प्रसिद्ध । बहुरि पाप रूप मल की दूर करण हारी।" 10. कनककीर्ति : कनककीर्ति 17 वीं शताब्दी के विद्वान थे। ये भट्टारकवर्गीय परम्परा के साधु थे। तथा संभवतः आमेर के भट्टारकों से इनका संबंध था। इनकी अब तक निम्न रचनाएं उपलब्ध हो चुकी हैं :-- कर्मघटावली (पद्य) जिनराज स्तुति (पद्य), तत्वार्थ सूत्र भाषा टीका (गद्य), मेघकुमार गीत (पद्य), श्रीपाल स्तुति (पद्य), पद बारहखडी (पद्य) उक्त राजस्थानी रचनाओं के अतिरिक्त, प्राकृत भाषा में निबद्ध इनकी कुछ पूजाएं भी मिलती हैं। तत्वार्थसूत्र भाषा टीका इनकी एक मात्र गद्य कृति है जो अपने समय में अत्यधिक लोकप्रिय कृति मानी जाती रही। राजस्थान के जैन ग्रन्थागारों में इसकी कितनी ही पाण्डुलिपियां संग्रहीत हैं। इसमें उमास्वामी के तत्वार्थसूत्र पर श्रुतसागरी टीका की भाषा वचनिका की गयी है। इनके गद्य का एक उदाहरण निम्न प्रकार है : प्रदं समास्वामी मतीवर मल गंथकारको श्री सर्व वीतराग बंदे कहतां श्री सर्वज्ञ वीतराग ने नमस्कार करूं डूं। किसाइक छ श्री वीतराग सर्वज्ञ देव, मोक्ष मार्गस्य नेतारं कहतां मोक्षमार्ग का प्रकास का करवा वाला छै। और किया इक छै सर्वज्ञ देव कर्मभूभृतां भेत्तारं कहतां ज्ञानावरणादिक पाठ कर्म त्यांह रूप पर्वत त्यांह का भेदिवा वाला छै।" 11. पं. शिवजीलाल : 19 वीं शताब्दी में होने वाले विद्वानों में पंडित शिवजीलाल का नाम उल्लेखनीय है। इनके वंश, कुल, गुरु एवं शिष्य परम्परा के संबंध में अभी तक कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है। अब तक इनके द्वारा रचित तीन ग्रन्थ प्राप्त हये हैं जिनके नाम निम्न प्रकार दर्शनसार भाषा, चर्चासार भाषा, प्रतिष्ठासार भाषा/दर्शनसारः को इन्होंने जयपुर में सं. 1923 में समाप्त किया था। यह राजस्थानी गद्य में निबद्ध है। इनके गद्य का एक उदाहरण निम्न प्रकार है "सांच कहतां जीव के उपरि लोक दुखों व तूषों। सांच कहने वाला तो कहे ही कहा जग का भय करि राजदण्ड छोडि देता है वा जूवा का भय करि राज मनुष्य कपडा पटकि देय है। तैसे निंदने वाले निंदा, स्तुति करने वाले स्तुति करो, सांच बोला तो सांच कहे।".. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 12. ऋषभदास : ऋषभदास झालरापाटन के रहने वाले थे। ये हूंबड जाति के श्रावक थे। इनके पिता का नाम नाभिराय था। वसुनन्दि श्रावकाचार की भाषा टीका इन्होंने आमेर के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति की प्रेरणा से लिखी थी। भाषा टीका विस्तृत है जो 347 पृष्ठों में पूर्ण होती है। भाषा टीका संवत् 1907 की है। जिसका उल्लेख निम्न प्रकार हुआ है: ऋषिपूरण नव पुनि, माघ पुनि शुभ श्वेत । जया प्रथा प्रथम कुजवार, मम मंगल होय निकेत ॥ वसुनन्दिश्रावकाचार की पाण्डुलिपियां डीग एवं डूंगरपुर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। 13. ज्ञानचन्द : प्राचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव पर संस्कृत एवं हिन्दी की कितनी ही टीकायें उपलब्ध होती हैं इनमें ज्ञानचन्द द्वारा रचित हिन्दी गद्य टीका उल्लेखनीय है। टीका का रचनाकाल संवत् 1860 माघ सुदि 2 है। टीका की भाषा पर राजस्थानी का पूर्ण प्रभाव है। इसकी एक पाण्डुलिपि दि. जैन मन्दिर कोटडियाल डूंगरपुर में संग्रहीत है। 14. केशरीसिंह : पं. केशरीसिंह जयपुर के रहने वाले थे। ये भट्टारकीय परम्परा के विद्वान थे। जयपूर राज्य के दीवान बालचन्द छाबडा के पुत्र दीवान जयचन्द के अनुरोध पर पं. केशरीसिंह ने संवत् 1873 में वर्धमान पुराण की भाषा टीका निबद्ध की। ये यहां के लश्कर के दिगम्बर जैन मन्दिर में रहते हुये साहित्य निर्माण का कार्य करते थे। इनके गद्य का एक उदाहरण निम्न प्रकार है "अहो या लोक विषे ते पुरुष धन्य है ज्यां पुखन का ध्यान विष तिष्ठता चित्त उपसर्ग के सैकण्डेन करिह किञ्चित् मात्र ही विक्रिया के नहीं प्राप्ति होय है।" 15. चम्पाराम भांवसा :- . ये खण्डेलवाल जाति में उत्पन्न हुये थे। इनके पिता का नाम हीरालाल था जो माधोपुर (जयपुर) के रहने वाले थे। इन्होंने अपनी ज्ञान-वृद्धि के लिये 'धर्म प्रश्नोत्तर श्रावकाचार' एवं भद्रबाह चरित्र' की रचना की थी। ये दोनों ही कृतियां राजस्थानी भाषा की अच्छी रचनायें मानी जाती हैं। Page #307 --------------------------------------------------------------------------  Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन साहित्य Page #309 --------------------------------------------------------------------------  Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन साहित्य की प्रवृत्तियां-1. डॉ. नरेन्द्र भानावत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और राजस्थानी के समान हिन्दी (खड़ी बोली) भाषा में भी राजस्थान के जैन साहित्यकार अविच्छिन्न रूप से साहित्य-सर्जना करते रहे हैं। हिन्दी के विकास के साथ समाज-सुधार, राष्ट्रीयता, आधुनिकीकरण आदि की भावना विशेष रूप से जडी होने के कारण हिन्दी जैन साहित्य का कथ्य और शिल्प भी उससे प्रभावित हा । जैन साहित्य मख्यतः धार्मिक विचारधारा से प्रभावित रहा है और पुरानी हिन्दी में लगभग 12वीं शताब्दी से नद्यावधि जो रचनायें मिलती हैं उनमें धार्मिक मान्यताओं का यह रूप स्पष्ट देखा जा सकता है। आधुनिक हिन्दी में रचित जैन साहित्य इस धार्मिकता से अछूता नहीं है पर यह अवश्य है कि वह साहित्यिक तत्त्वों से अधिकाधिक संपन्न होता जा रहा है। अाधुनिक जैन साहित्यकार अपने कथाबीज प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों से अवश्य लेता है पर उनका पल्लवन और पुष्पन करने में वह अधुनातन विचार-दर्शन और साहित्यिक प्रवृत्तियों को अपनाने में पीछे नहीं रहा है। साहित्य-सृजन की मूल प्रेरणा धार्मिक होते हुए भी वह संकुचित धार्मिक सीमा से प्राबद्ध नहीं है। उसका पठन-पाठन का क्षेत्र भो अब जैन मन्दिरों, उपाश्रयों और स्थानकों से आग बढ़ कर जैनेतर समाज तक विस्तृत हुआ है और इस प्रकार समसामयिक साहित्य के समानान्तर उठ खड़े होने में उसकी क्षमता उजागर हुई है। - राजस्थान में आधुनिक हिन्दी साहित्य सर्जना में संत-सतियों और श्रावकों दोनों का समान रूप से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। हिन्दी के राष्ट्र भाषा पद पर प्रतिष्ठित होने व संपर्क भाषा के रूप में उसका महत्त्व बढ़ने से संत-सतियों में प्राकृत और संस्कृत भाषा के अध्ययनअध्यापन की प्रवृत्ति के साथ हिन्दी-भाषा और साहित्य के अध्ययन की प्रवृत्ति ने विशेष जोर पकडा। धामिक शिक्षण के साथ-साथ व्यावहारिक शिक्षण का लाभ भी वे लेने लगे। यद्यपि धर्म और दर्शन ही अध्ययन का मुख्य क्षेत्र बना रहा तथापि इतिहास, राजनीति शास्त्र, समाज स्त्रि, अर्थ शास्त्र, मनोविज्ञान, भूगोल जसे समाजविज्ञान क्षत्र के विषयों के भी वे सम्पर्क में पाए। विश्व-विद्यालयी पद्धति से अध्ययन करने का क्रम चालू होने व तथाकथित परीक्षाएं देने से संत-सतियों के चिन्तन-फलक का विस्तार हुप्रा तथा व्याख्यान एवं विवेचना शैली वस्तुनिष्ठ, तर्कसम्मत और परिष्कृत बनी। इधर मुद्रण और प्रकाशन की सुविधाएं भी विशेष रूप से बनीं। राजस्थान से ही कई मासिक एवं पाक्षिक जैन पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगी। इन सबका सम्मिलित प्रभाव साहित्य-सर्जना पर भी पड़ा। राजस्थान में रचित आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य को अभिव्यक्ति के माध्यम की दृष्टि से मख्यत: दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-पद्य और गद्य। यद्यपि मानव जीवन के दैनिक व्यवहार में गद्य का ही विशेष महत्त्व है तथापि साहित्य में गद्य का विकास पद्य के बाद ही हा परिलक्षित होता है। इसके मूल मानव की भावनात्मक प्रवृत्ति ही प्रधान कारण रही है। सामान्यतः पद्य को ही काव्य या कविता कहा जाता है। बन्ध की दृष्टि से कविता के दो भेद किए जाते हैं--प्रबंध और मुक्तक। प्रबंध में पूर्वापर का तारतम्य होता है. मक्तक में यह तारतम्य नहीं पाया जाता। प्रबंध में छन्द एक दूसरे से कथानक की शृंखला में बंधे रहते हैं। उनका क्रम उलटा-पलटा नहीं जा सकता। वे एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं। मस्तक स्वतः पूर्ण होते हैं, वे क्रम से रखे जा सकते हैं पर एक छंद दूसरे छंद की क्रमबद्धता की Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 अपेक्षा नहीं करता। प्रबंध में संपूर्ण काव्य के सामूहिक प्रभाव पर अधिक ध्यान दिया जाता है जब कि मुक्तक में एक-एक छंद की अलग-अलग साज-संभाल की जाती है। पद्य की भांति गद्य की भी अपनी विशेष विधाएं हैं। प्रमुख विधानों में नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, जीवनी, निबन्ध, प्रवचन, संस्मरण, यात्रावृत्त, गद्य-काव्य प्रादि सम्मिलित किए जा सकते हैं। कहना न होगा कि अाधुनिक हिन्दी जैन साहित्यकारों ने इन सभी विधानों में साहित्य रचा है । अध्ययन की दृष्टि से आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य को विधागत प्रवृत्ति की दृष्टि से इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है:-- (1) पद्य साहित्य : (क) प्रबन्ध काव्य (ख) मुक्तक-काव्य (2) गद्य साहित्य : (क) नाटक, एकांकी (ख) उपन्यास, चरिताख्यान (ग) कहानी, लघु कथा, प्रेरक प्रसंग, गद्यकाव्य (घ) जीवनी (ङ) निबन्ध, प्रवचन (च) शोध-समालोचना (1) पद्य साहित्य : (क) प्रबन्ध काव्यः--प्राचार्यों ने प्रबन्ध काव्य के दो भेद किए हैं-- महाकाव्य और खण्डकाव्य। महाकाव्य का क्षेत्र विस्तृत होता है। उसमें संपूर्ण जीवन के विविध रूप चित्रित किए जाते हैं। खण्डकाव्य में किसी एक ही घटना को प्रधानता दी जाती है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और राजस्थानी में प्रबन्ध काव्य के रूप में विपुल परिमाण में साहित्य रचा गया है। महाकाव्य के रूप में पुराण तथा चरित-संज्ञक अनेक रचनाएं लिखी गयी हैं। छोटी प्रबन्ध रचनाओं में रास, फागु, वेलि, चौपई आदि नामों से अभिहित रचनायें विपुल परिमाण में मिलती हैं । इसी परम्परा में आधुनिक हिन्दी प्रबन्ध काव्य लिखे गए हैं। वर्ण्य-विषय और पात्रसृष्टि की दृष्टि से अाधुनिक कवियों ने भी जैन परम्परा में मान्य शलाकापुरुषों, गणधरों, युगप्रधान प्राचार्यों तथा अन्य महापुरुषों कोही मूल आधार बनाया है पर कथावस्तु का गठन, उसका उठाव, विकास आदि में नई तकनीक का समावेश किया गया है। अब वे ढालबद्ध न होकर सर्गबद्ध हैं। इनमें नया छन्द विधान और नई राग-रागनियों का समावेश है। प्रकृति चित्रण, सौन्दर्य बोध, युग-चिन्तन आदि की दृष्टि से वे अधिक युगीन और सम-सामयिक सन्दभों से सम्पृक्त हैं। (ख) मुक्तक काव्यः--मुक्तक के भी स्थूल रूप से दो भेद किए जा सकते हैं--गेय मुक्तक और पाठ्य मुक्तक। गेय मक्तकों में गायन तत्त्व की प्रधानता रहती है। सामान्यत: Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 259 इनका प्रानन्द गाकर लिया जाता है। राजस्थान के आधुनिक जैन कवियों में जैन-संतों की विशेष भूमिका रही है। भक्त श्रद्धालों को प्रतिदिन नियमित रूप से प्रवचन या व्याख्यान सुनाना इन संतों का दैनन्दिन कार्यक्रम है। व्याख्यान में सरसता बनाए रखने के लिए सामान्यत: कविता का सहारा लिया जाता है। परम्परा रूप से ढाल और भजन गाने की परिपाटी रही है पर धीरे-धीरे उसका स्थान गेय मक्तक लेते रहे हैं। इस दृष्टि से इन मुक्तकों की रचना विपूल परिमाण में हई है। इनका मुख्य उद्देश्य सदाचारमय नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा देना है। ये शद्ध संवेदनात्मक गीतों के रूप में भी लिखे गए हैं और कथा को आधार बनाकर भी। शुद्ध संवेदनात्मक गीतों में कवि स्वयं ही अपना आत्म निवेदन करता है जब कि कथाधारित गीतों में कवि प्रात्म-निवेदन तो करता है पर किसी दूसरे पात्र द्वारा कथा को प्राधार बना कर । अध्ययन की दष्टि से गेय मक्तकों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है--- स्तवन मूलक, प्रेरणा मूलक और वैराग्य मूलक । स्तवन मूलक गीत विशेषतः प्रार्थनापरक और अपने आराध्य की गरिमा-महिमा के सूचक हैं। पूजा-गीत इसी श्रेणी में आते हैं। प्रेरणा मूलक गीतों का मूल स्वर सुषुप्त पुरुषार्थ को जगा कर मनुष्यत्व से देवत्व की ओर बढ़ने तथा आत्मविजेता, शुद्ध बुद्ध परमात्म बनने का है। सामाजिक धरातल से प्रेरित होकर लिखे गए प्रेरणा गीतों में प्रगतिशील मानववादी स्वर मुखरित हुआ है। इसमें आधुनिक जीवन की विसंगतियों, भौतिक सभ्यता के कृत्रिम अावरणों, शोषणपरक प्रवृत्तियों, अंधविश्वासों और थोथे अादर्शों पर कटु व्यंग्य किया गया है। अणुव्रत आन्दोलन, विभिन्न पर्व-तिथियों और जयन्तियों को आधार बना कर लिखे गए प्रेरणा-गीत हृदय में उत्साह और उमंग, शक्ति और स्फति संचरित करने में सक्षम बने हैं। वैराग्यमलक गीतों में जीव को संसार से विरत होकर आत्मकल्याण की ओर उन्मुख होने की उद्बोधना दी गई है। मन की चंचल वत्तियों, विषयवासना और सप्त-कूव्यसनों के दुष्परिणामों व जीवन की क्षण भंगुरता और संसार की असारता के प्रात्मस्पर्शी चित्रण के साथ-साथ आध्यात्मिक रहस्यात्मकता और परम आनन्दा नभति का मार्मिक चित्रण यहां प्रस्तुत किया गया है । पाठ्य मक्तकों में गेय मुक्तकों की तरह गायन तत्त्व की प्रधानता नहीं है। ये सामान्य रूप से मात्रिक एवं वर्णिक छन्दों में लिख गए हैं। विषय की दृष्टि से इन्हें दो भेदों में रखा जा सकता है--तत्त्व प्रधान और उपदेश प्रधान । तत्त्व-प्रधान मुक्तकों में प्रात्म-स्वातन्त्रय. कर्मफल, पुनर्जन्म, अहिंसा, अनेकान्त, ब्रह्मचर्य, क्षमा जैसे उदात्त सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। उपदेश प्रधान मक्तकों में जीव को लोक व्यवहार एवं अध्यात्म भाव की शिक्षा दी गई है। इन उपदेशों में यों तो सामान्य स्तर पर नोति की बातें कही गयी हैं पर कहीं-कहीं चुटीले-चु भते हुए व्यंग्य के भी दर्शन होते हैं । इन मक्तकों में प्रकृति का शीलनिरूपक रूप ही विशेषतः उभर कर सामने आया है। मानव जीवन की पृष्ठभमि एवं सहानुभूति के रूप में प्रकृति के विभिन्न रंग मर्मस्पर्शी बन पडे हैं। विराट-प्रकृति के विविध उपादानों को माध्यम बना कर शाश्वत जीवन सत्य की सटीक व्यंजना की गई है। इन मक्तकों की भाषा सहज, सरल और प्रवाहपूर्ण है। भावों को विशेष प्रेषणीय बनाने के लिए प्रश्नोत्तर, आत्मकथात्मक, सम्बोधन आदि विविध शैलियों का प्रयोग किया गया है। अलंकारों में सादृश्यमूलक अलंकारों का विशेष प्रयोग किया गया है. पर मानवी करण, बिम्ब विधान, विशेषण विपर्यय, प्रतीकात्मकता आदि से ये अछूते नहीं है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 छन्दविधान की दृष्टि से ये मुक्तक वैविध्यपूर्ण हैं। जहां इनमें परम्परागत, दोहा, सोरठा, कुण्डलिया, सवैया जैसे छन्द प्रयुक्त हुए हैं वहां नवगीत, फिल्मी धुनों और लोक गीतों की पद्धति पर भी अच्छे गीत लिखे गए हैं। गज़ल और रुबाइयां लिखने में भी ये कवि पीछे नहीं रहे। मुक्त छंदों में भिन्न तुकान्त ढंग की यथार्थवादी कविताएं लिखने में भी इन्हें विशेष सफलता मिली है। (2) गद्य साहित्यः (क) नाटक-एकांकी:---ये दोनों दृश्य काव्य की श्रेणी में आते हैं। इनमें रंगमंच पर पात्रों के द्वारा किसी कथा या घटना का प्रदर्शन होता है। यह प्रदर्शन अभिनय, रंग सज्जा, संवाद, नृत्य-गीत, ध्वनि आदि के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। नाटक का फलक उपन्यास की भांति विस्तत होता है। इसमें कई अंक, घटनायों, दश्यों और समस्याओं का आयोजन होता है। एकांकी में एक अंक, एक घटना, एक कार्य और एक समस्या मख्य होती है । इसका प्रारम्भ सामान्यतः संघर्ष से होता है जो शीघ्र ही गति पकड़ कर चरम सीमा की ओर अग्रसर हो जाता है। आकाशवाणी के विकास के साथ अब रेडियो नाटक अधिक लोकप्रिय बनते जा रहे हैं। जैन-परम्परा में नाट्य रूपों का विशेष महत्त्व रहा है। विभिन्न पर्यों और कल्याणक महोत्सवों पर नाट्य प्रदर्शित करने की यहां सुदीर्घ परम्परा रही है। आज नाटक और एकांकी जिस रूप में हैं उनका मूल प्राचीन दीर्घ और लघु रास काव्यों में देखा जा सकता है। प्रारम्भिक रास नृत्य, संगीत और अभिनय प्रधान होते थे। बाद में चलकर वे पाख्यान प्रधान बन गए । आधुनिक युग में नाट्य विधा की ओर जैन साहित्यकार विशेष आकर्षित नहीं हुए । इसके कई धार्मिक और सामाजिक कारण हैं। इनमें एक प्रमुख कारण वीतरागी पात्रों को मंच पर उपस्थित न करने की प्रवृत्ति है । राजस्थान के साहित्यकार भी कथा साहित्य की अपेक्षा नाटय साहित्य की ओर कम आकर्षित हुए हैं। पूरे नाटक के रूप में श्री महेन्द्र जैन द्वारा लिखित “महासती चन्दन बाला" नाटक ही उल्लेख योग्य है। साहित्यिक और रंगमंचीय दोनों तत्त्वों की दष्टि से यह एक सफल नाट्य कृति है।। भगवान महावीर के 2500वें परिनिर्वाण वर्ष के अवसर पर लोक नाट्य शैली पर आधारित दो विशेष नाट्य तैयार किए गए हैं जिनकी भगवान महावीर के जीवनादर्शों को लोकमानस तक लोकोनरंजन परक शैली में प्रेषित करने में विशेष भमिका रही है। ये हैं-- "भगवान महावीर स्वामी की पड़" और "वैशाली का अभिषेक" । __ "महावीर स्वामी की पड़", राजस्थानी पड़ परम्परा में एक विशेष उपलब्धि है। पड़ो में पाबूजी तथा देवनारायण की पड़े तो लोकप्रिय हैं ही पर भीलवाड़ा के श्री निहाल अजमेरा ने जिनेन्द्र कला भारती की ओर से इस पड़ नाट्य को प्रस्तुत कर निश्चय ही एक अभिनव प्रयोग किया है। पड़ के चारों ओर बाउण्ड्री में जैन प्रतीकों (यथा--अष्टमंगल, धर्मचक्र, स्वस्तिक आदि) व पट्टियों का सुन्दर संयोजन किया गया है। पड़ में भगवान महावीर की प्रभाव पूर्ण जीवन गाथा चित्रित है। इसका प्रदर्शन करते समय यह मंच पर दर्शकों के सम्मुख लगा दी जाती है। तत्पश्चात् इसका वाचन प्रारम्भ होता है। एक व्यक्ति चित्रों के सम्बन्ध में पूछता है और दूसरा उनके सम्बन्ध में नाटकीय लहजे में उत्तर देता चलता है। इसका चित्रांकन श्री राजेन्द्रकुमार जोशी ने बड़े मनोयोग पूर्वक किया है। इसकी प्रदर्शन-अवधि डेढ़ घण्टे की है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 261 “वैशाली का अभिषेक" कठपुतली नाटय की रचना, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर के संचालक श्री देवीलाल सांमर की पूतली नाटय क्षेत्र में मौलिक देन है। कठपुतलियों की छड़ दस्ताना शैली में इसका निर्माण किया गया है। इसके लिए मंच पर पूरा अन्धेरा कर दिया जाता है। दर्शक हाल भी इसके मंचन के समय पूर्ण अंधेरे में रहता है। इसमें पुतलियाँ विशेष रंग फ्लोरोसेण्ट और विशेष रोशनी अल्ट्रावायलेट में मंच पर प्रदर्शित की जाती हैं । लगभग एक घण्टे की इस नाटिका को देखते समय दर्शक माता त्रिशला के रंगीन आकर्षक स्वप्न लोक, शूलपाणि यक्ष के लोमहर्षक उपसर्ग और उससे अविचल बने भगवान महावीर के प्रशांत ज्योतिर्मय भव्य व्यक्तित्व से अभिभत हो एक अनोखी विस्मय विमग्धकारी रसानुभूति में डूबते-तरते रहते हैं। ब्लैक थियेटर की तकनीक के प्रयोग से रंग-योजना में विशेष चमत्कृति आ गई है। पूरी नाटिका भगवान महावीर के लोकोपकारी व्यक्तित्व और आत्मौपम्य मैत्री भाव के पालोक से विमण्डित है । एकांकी के क्षेत्र में जैन सांस्कृतिक धरातल से लिखे गए डा. नरेन्द्र भानावत के नौ एकांकी 'विष से अमत की ओर' संग्रह में संकलित हैं। इनमें 'यात्मा का पर्व' अन्तरावलोकन पर बल देकर जीवन में संयम, नैतिकता और मर्यादा की प्रतिष्ठा करता है। एटम, अहिसा और शांति' में यद्ध और शांति की समस्या को उठा कर एटम के सृजनात्मक पक्ष को उभारने पर बल दिया गया है। 'इन्सान की पूजा का दिन' दीपावली की रूढ़िगत पूजन विधि पर करारी चोट है। 'सच्चा यज्ञ' यज्ञ के लोक-कल्याणकारी रूप पर छाए हुए क्षुद्र स्वार्थी, विकारा और कर्म-काण्डों को धुनने का सबल माध्यम है। 'अनाथी मुनि' म सनाथ-अनाथ विषयक तात्त्विक चर्चा के माध्यम से प्रात्मशक्ति और यात्म विश्वास जागत करने पर बल दिया गया है। 'तीर्थकर' में तीर्थकर के धर्मवक्र प्रवर्तन, उपदेश और लोककल्याणकारी स्वरूप की भव्य झांकी प्रस्तुत की गयी है। 'नमिराज और इन्द्र' में प्रात्म-साधना का माहात्म्य प्रकट किया गया है। ये सभी एकांकी जैन विचारधारा से सम्बन्धित होते हुए भी अपने मूल रूप में मानव संस्कृति के प्रतिपादक हैं ।। श्री चन्दनमल 'चांद' ने प्रण व्रत आन्दोलन की चेतना से प्रेरित होकर प्रवेशक अणुव्रत के ग्यारह नियमों पर आधारित ग्यारह एकांकी लिखे हैं जिनका संकलन 'कंचन और कसाटी' नाम से हुआ है। इन एकांकियों की भावभ मि लोकजीवन से सम्बन्धित है और ये बड़े प्रभावक बन पड़े हैं। (ख) उपन्यास-चरिताख्यान:--उपन्यास अपेक्षाकृत नवीन विधा है। इसमें चरित्र-परिवर्तन व चरित्न-विकास के लिए पर्याप्त अवसर होता है। मख्य कथा के साथ यहां कई प्रासंगिक कथाए जड़ी रहती हैं। युग विशेष के सांस्कृतिक चित्रण के लिए यहां पर्याप्त गजाइश होती है। मनोरंजन के साथ लोक-शिक्षण का आज उपन्यास सशक्त माध्यम बना हुआ है। जैन पृष्ठभूमि को लेकर राजस्थान के साहित्यकारों ने बहुत अधिक उपन्यास नहीं लिखे हैं। जो उपन्यास लिखे गए हैं उनको कथा के जल प्रेरणास्रोत जैन आगम, पुराण या चरित ग्रन्थ रहे हैं। श्री ज्ञान भारिल्ल का 'तरंगवती प्राचार्य पादलिप्त की प्राकृत रचना 'तरंगवई' का हिन्दी रूपान्तरण है। प्राचार्य अमतकुमार का 'कपिल' उत्तराध्ययन सूत्र के आठवें अध्ययन पर आधारित है। ज्ञान भारिल्ल के ही अन्य उपन्यास 'भटकते-भटकते' की कथा उद्योतनगरि कृत प्राकृत रचना 'कुवलयमाला' से ली गई है। महावीर काटिया के पात्मजयी' और 'कणिक' लघु उपन्यास तथा डा. प्रेम सूमन जैन के 'चितेरों के महावीर' भी परम्परागत जन आख्यानों से संबद्ध हैं, पर इससे इनका महत्त्व कम नहीं होता। इन उपन्यासकारों की मौलिकता कथा में निहित न होकर उसके प्रस्तुतीकरण और समसामयिक जीवन संदर्भ के सन्निवेश में है। प्रवाहपूर्ण भाषा, वर्णन-कौशल, चित्रोपम क्षमता, संवादयोजना, नलन शैली और नये रचनातन्त्र के कारण ये उपन्यास रोचक और मार्मिक बन पड़े हैं। परम्परागत कथाचयन Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 की लीक से हटकर कमला जैन 'जीजी' ने 'अग्निपथ' में अपने ही बीच घमती-फिरती सती साध्वा उमरावकुंवर जी 'अर्चना' को प्रकारान्तर से नायिका के रूप में खड़ा किया है और जानकी के रूप में लेखिका स्वयं प्रकट हुई है। यह उपन्यास वात्सल्य, करुणा और अध्यात्म भावों से लबालब भरा है। जीवनचरित को उपन्यास के रूप में प्रस्तुत करने का यह प्रयत्न बड़ा सफल बन पड़ा है। नवीन औपन्यासिक शैली में न सही, पर कथा की मनोरंजकता और औत्सुक्य-वृत्ति का निर्वाह करते हुए राजस्थान के कथाकारों ने कई सून्दर चरिताख्यान प्रस्तुत किए है। इन कथाकारों में बम्बोरा के श्री काशीनाथ जैन का नाम विशेष उल्लेखनीय है । इनके पचास के लगभग चरिताख्यान प्रकाशित हए हैं। जैन संत अपने प्रतिदिन के चार्तमास कालीन प्रवचनो के अन्त में सामान्यतः धारावाही रूप में कोई न कोई चरिताख्यान प्रस्तुत करते हैं। ये चरिताख्यान यो तो परम्परागत ही होते हैं पर समसामयिक जीवन-प्रसंगों और समस्याओं का उनसे संबंध जोड़कर व उसे अधिक रोचक. प्रेरक और मार्मिक बना देते हैं। धारावाही रूप से कह गए ऐसे चरिताख्यानों के कई संकलन प्रकाशित हए हैं, उनमें आचार्य श्री जवाहरलालजी म. सा. तथा जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म.सा. के पाख्यान विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। श्री जवाहरलाल सा. क चरिताख्यानों में सूबाहुकूमार, सती राजमती, सती मदनरेखा, रुक्मणि विवाह, अजना, शालिभद्र चरित, सुदर्शन चरित, सेठ धन्ना चरित, पाण्डव चरित, राम वन गमन, हरिश्चन्द्र-तारा अादि उल्लेखनीय हैं । (ग) कहानी, लघ कथा, प्रेरक प्रसंग, गद्य काव्यः--कहानी आज गद्य की सबसे लोकप्रिय विधा है। वह सतत विकासोन्मुख और प्रयोगशील रही है। आधुनिक हिन्दी कहानी क आविभाव से पूर्व हमारे यहां कहानी की एक सूदीर्घ परम्परा रही है। दार्शनिक और तात्विक सिद्धान्तों की विवेचना के लिए कथाओं का प्राधार लिया जाता रहा है। ये कथाएं रूपकात्मक, ऐतिहासिक, पौराणिक, लौकिक आदि रूपों में आज भी मनोरंजन और उपदेश का माध्यम बनी हुई हैं। आगम ग्रन्थों की टीका, निर्यक्ति, भाप्य, चणि, अवणि आदि में इनके दर्शन होते हैं। जैन कथा साहित्य का यह विशाल भण्डार आधनिक कथाकारों के लिए विशेष प्रेरणास्रोत बना हया है। यह अवश्य है कि प्राधुनिक जैन कथाकारों ने प्राचीन कथा को मूलाधार बनाते हुए भी उसके शिल्प तन्त्र में परिवर्तन किया है। काल्पनिक और अलौकिक घटनामों को जीवन की यथार्थ परिस्थितियों का धरातल और बौद्धिक, मनोवैज्ञानिक आधार दिया है। घटनाओं को चरित्र-विश्लेषण और मानसिक द्वन्द्व से सम्पक्त किया है। सक्षेप में दैववाद एवं आकस्मिक संयोग के प्रति अाग्रह कम करते हुए स्वाभाविकता, यथार्थवादिता, विचारात्मकता, पुरुषार्थवाद और कार्य-कारण श्रृंखला पर अधिक बल देने का प्रयत्न किया है। मोटे तौर से कहानी साहित्य की प्रवृत्तियों को इस प्रकार विश्लेषित किया जा सकता (i) संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश परम्परा से प्राप्त कथाओं को सरल सुबोध भाषा और रोचक शैली में आधुनिक ढंग से प्रस्तुत करने की एक मुख्य प्रवृत्ति उभर कर सामने आयी है। मनि महेन्द्रकुमार जी 'प्रथम' की जैन कहानियां भाग 1 से 25, श्री मधुकर मुनि की "जैन कथामाला" भाग 1 से 12, श्री रमेश मनि की 'प्रताप कथा कौमदी' भाग 1 से 5, श्री भगवती मनि 'निर्मल' की 'मागम युग की कहानियां' भाग 1--2, श्री देवेन्द्र मुनि की 'महावीर युग की प्रतिनिधि कथाएं', पुष्कर मुनि की 'जैन कथाएं', माग 1 से 5 इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 263 (ii) वर्तमान जीवन की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को, प्राचीन कथ्य को आधार बना कर प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति भी कुछ कहानीकारों में परिलक्षित होती है । ये कहानीकार परम्परागत धार्मिक कथानक को आधार अवश्य बनाते हैं पर उसके माध्यम से आधुनिक जीवन-संवेदन को व्यंजित करना चाहते हैं । डा. नरेन्द्र भानावत के 'कुछ मणियां कुछ पत्थर', श्री महावीर कोटिया के 'बदलते क्षण', श्री शांतिचन्द्र मेहता के 'सौन्दर्य - दर्शन' और श्री केसरीचन्द सेठिया के 'मुक्ति के पथ पर कहानी संग्रहों में यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है । इन कहानीकारों ने कतिपय ऐसी कहानियां भी लिखी हैं जिनका कथ्य परम्परागत न होकर आधुनिक जीवन स्थितियों से लिया गया है और उसमें जैन-संस्कृति के आदर्शों को प्रतिष्ठित करने की प्रवृत्ति रही है । (iii) जैन आगम और पुराण ग्रन्थों में इतिहास और धर्म शास्त्रों में तथा लोक जीवन और लोक-साहित्य में ऐसे कई प्रेरणादायी प्रसंग, रूपक, दृष्टान्त भरे पड़े हैं। जिन्हें पढ़ कर जीवन में हारा-थका निराश व्यक्ति आस्था और विश्वास का सम्बल पाकर अपने जीवन को सतेज और सार्थक बना सकता है । ऐसे मार्मिक, ज्ञानवर्धक, प्रेरणादायी और वृत्तिपरिष्कारक प्रसंगों का चयन कर, लघुकथा, बोध कथा, और संस्मरणों के रूप में कई सुन्दर संकलन प्रकाशित किए गए हैं । व्याख्यान देते समय जैन संत ऐसे दृष्टान्तों, संस्मरणों और रूपकों का विशेष रूप से प्रयोग करते हैं । आचार्य श्री जवाहरलालजी म. सा. के प्रवचनों से संकलित ऐसी कथाएं 'उदाहरणमाला' भाग 1, 2, 3 में प्रकाशित की गई हैं । इसी प्रकार के अन्य प्रमुख संकलन हैं--श्री देवेन्द्र मुनि कृत 'प्रतिध्वनि', श्री गणेश मुनि कृत 'प्रेरणा के बिन्दु', श्री भगवति मुनि 'निर्मल कृत'लो कहानी सुनो' 'लो कथा कहदूं', मुनि श्री छतमलजी कृत 'कथा कल्पतरु, श्री अशोक मुनि कृत 'इनसे सीखें, श्री उदय मुनि कृत 'प्रिय दृष्टान्तोदय', आदि । (iv) दैनन्दिन जीवन में व्यवहृत विभिन्न वस्तुओं, जीवन की साधारण घटनाओं और प्रकृति के विविध उपादानों को माध्यम बनाकर भी कथात्मक ढंग से मार्मिक संस्मरण और भाव भीने गद्य काव्य लिखे गये हैं । इनमें अनुभूति की प्रधानता और भावों की गहराई रहती है । साधारण बातों को पकड़ कर सार्वभौमिक जीवन सत्यों को उद्घाटित करने में ये विशेष सफल होते हैं । आज के आस्थाहीन युग में ये छोटे-छोटे जीवन-प्रसंग महान् शक्ति और स्फूर्ति का अहसास कराते हैं । दार्शनिक संवेदना के धरातल से लिखे जाने के कारण कहीं-कहीं ये विचार बोझिल अवश्य हो गये हैं। श्री चन्दनमुनि कृत "अंतर्ध्वनि”, साध्वी राजीमती कृत "पथ और पथिक", श्री देवेन्द्र मुनि कृत “चिन्तन की चांदनी", "अनुभूति के आलोक में", श्री भगवती मुनि “निर्मल" कृत “अनुभूति के शब्द - शिल्प" इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं । (घ) जीवनी : -- कथा साहित्य की घटनाएं या पात्र काल्पनिक हो सकते हैं परन्तु जीवनी में वर्णित घटनायें या पात्र सच्चे होते हैं । जीवनी, इतिहास और उपन्यास के बीच की चीज़ है जिसका नायक वास्तविक होने के कारण अधिक व्यक्तित्वपूर्ण होता है । जीवनी का उद्देश्य किसी ऐसे चरित्र को प्रकाश में लाना होता है जिसका समाज की प्रगति और राष्ट्र की उन्नति में विशेष सहयोग रहा हो । सफल जीवनी लेखक के लिये आवश्यक है कि वह चरित्रनायक के भावों, विचारों तथा जीवन-दर्शन से पूर्णतया परिचित होकर भी उससे निर्लिप्त Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 हो यक्तिगत देष और राग के भाव से ऊपर उठा हो और साथ ही अपने वर्णन में सच्चा और प्रामाणिक हो। इन गुणों के अभाव में लिखी हुई जीवनी या तो स्तुति मात्र होगी या निन्दा। आधुनिक ढंग से जीवनिया लिखा जाना इस युग की विशेष प्रवृत्ति है। प्राचीन यग में जो महापरुष हए हैं, वे यात्म-विज्ञापन से प्रायः दूर रहते थे। अतः अन्तक्ष्यि के रूप में उनके सम्बन्ध में बहत क ज्ञातव्य प्राप्त होता है। जैन परम्परा में गुर्वावली, पट्टावली आदि के रूप म धर्माचाया बार मनियों के महत्त्वपूर्ण जीवन-प्रसंग लिखित मिलते हैं। समसामयिक शिष्य भनियों और भक्त श्रावकों द्वारा लिखित छोटे-छोटे पद्यबद्ध पाख्यान चरित आदि मिलते हैं। ग्रन्थों की हस्तलिखित पांडुलिपियों के अन्त में प्रशस्ति रूप में रचनाकार, लिपिकार अपनी गरुपरम्परा का निर्देश भी करते रहे है। इन सब स्रोतों से जीवनी लेखक सामग्री संकलित करता है। __ यह सही है कि चरितनायक के महत्त्वपूर्ण प्रसंगों को सुरक्षित रखने के प्रयत्न तो यहां अवश्य होते रहे पर जीवनी लेखन का व्यवस्थित कार्य प्राधुनिक युग की ही देन है। राजस्थान में जैन धर्माचार्यों का आध्यात्मिक जीवन और सामाजिक चरित्र के उन्नयन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जैन श्रमण ग्रामानुग्राम पद विहार करते हुए जन-मानस को सदाचार-निष्ठ साहित्यिक जीवन जीने को प्रेरणा देते रहे हैं। पादविहारी होने से वे जन-जीवन के निकट संपर्क में तो पाते ही हैं, विविध प्रकार की अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से गुजरने के कारण उनका स्वयं का जोवन भी नानाविध अनुभवों का संगम बन जाता है। अनेक व्यसनग्रस्त दिग्भ्रमित लोग उनसे प्रेरणा पाकर सन्मार्ग की ओर बढ़ते हैं। ऐसे महान् प्रभावक प्राचार्यों और मनियों की जीवनियां लिखने की और राजस्थान के जीवनी लेखकों का ध्यान गया है और कतिपय प्रामाणिक जीवन ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। इनमें उल्लेखनीय ग्रन्थों के नाम हैं--पूज्य श्री जवाहरलालजी म. सा. की जीवनी (पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल, डा. इन्द्रचन्द शास्त्री), पूज्य गणेशाचार्य जीवन चरित (श्री देवकुमार जैन), मुक्ति के पथ पर--श्री सुजानमल जी म. सा. की जीवनी (मनि श्री लक्ष्मीचन्द्रजी म.) अमरता का पुजारी-प्राचार्य श्री शोभाचन्द जी म. की जीवनी (पं. दुःखमोचन झा), राजस्थान कसरी-पुष्कर मुनिजी म. जीवनी और विचार (श्री राजेन्द्र मनि) यग प्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि (श्री अगरचन्द भंवरलाल नाहटा), प्राचार्य तुलसीः जीवन दर्शन (मनि श्री बद्धमल जी), दिव्यतपोधन-तपस्वी श्री वेणीचन्दजी म. की जीवनी (मनि श्री महेन्द्र कुमारजी “कमल"), दिव्य जीवन-श्री विजय वल्लभ सूरि जी म. की जीवनी (श्री जवाहरचन्द पटनी),जय ध्वज-प्राचार्य श्री जयमल्ल जी म. का जीवन वृत्त, (गुलाबचन्द जैन) जैन कोकिला साध्वी श्री विचक्षणश्री जी म. की जीवनी (भंवरी देवी रामपुरिया), साधना पथ की अमर साधिका-महासती श्री पन्ना देवी जी म. की जीवनी (साध्वो सरला, साध्वी चन्दना), महासती श्री जसकवर-एक विराट व्यक्तित्व (आर्या प्रेमकुवर), विश्व चेतना के मनस्वी संत मनि श्री सुशील कुमार जी की जीवनी (मुनि श्री समन्त भद्र), उपाध्याय श्री प्यारचन्दजी म. का जीवन-चरित्र (रतनलाल संघवी)। स्वतन्त्र जीवनी ग्रन्थों के अतिरिक्त सम्बद्ध महापुरुषों और साहित्यकारों के कृतित्व और व्यक्तित्व की विवेचना करने वाले समीक्षा ग्रन्थों में भी जीवनी अंश दिया जाता रहा है। इसी तरह महापुरुषों की स्मति या उनके अभिनन्दन में प्रकाशित किये जाने वाले स्मति ग्रन्थों व अभिनन्दन ग्रन्थों में भी जीवनी का प्रामाणिक अंश जड़ा रहता है। ऐसे समीक्षा ग्रन्थ एवं अभिनन्दन ग्रन्थ भी कई प्रकाशित हुए हैं। इन जीवनी ग्रन्थों में जीवनी नायक के व्यक्तित्व के बहिरंग पक्ष में उन के जन्म, बाल्यकाल, वैराग्य, साधना, संयम, विहार, जन-सम्पर्क, धर्मप्रचार, धर्म परिवार आदि का तथा अन्तरंग पक्ष में उनके प्रांतरिक गुणों और महत्त्वपूर्ण विचारों का सुन्दर विवेचन-संकलन किया जाता है ।। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) निबन्ध-प्रवचन :-गद्य विधामों में सर्वाधिक शक्तिपूर्ण मौर प्रसरणशील विधा निबन्ध है। साहित्य की अन्य विधामों में तो गम को भाषा एक माध्यम मात्र का काम करतो है किन्तु निबन्ध में वह अपनी पूर्ण शक्ति वसामय के साथ प्रकट होती है, इसीलिये निबन्ध को गद्य की कसोटी कहा गया है। यों निबन्ध का निश्चित विषय नहीं होता। सभी प्रकार के विषय निबन्ध के लिये उपयोगी हो सकते हैं किन्तु शैली को रमणीयता और सरसता.. निबन्ध का अनिवार्य अंग है। विषय की दृष्टि से निबन्ध सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, माथिक, धार्मिक, साहित्यिक आदि अनेक प्रकार के हो सकते हैं फिर भी विद्वानों ने स्थल रूप से निबन्धों के पांच प्रकार बताये हैं-वर्णनात्मक, विवरणात्मक, भावात्मक, विचारात्मक और हास्य-व्यंग्यात्मक/वर्णनात्मक निबन्धों में दश्य जगत की किसी वस्तु या स्थल का सजीव वर्णन किया जाता है। विवरणात्मक निबन्ध में विचारों को प्रस्तुत करने का ढंग सूच्यात्मक होता है । इनमें इतिवृत्तात्मकता एवं कथात्मकता के तत्व भी समाविष्ट रहते है। भावात्मक निबन्धों में बौद्धिकता की अपेक्षा अनुभूति तत्व की प्रधानता रहती है। यहां लेखक के हृदय से निसृत भावधारा ही विचार सूत्र का नियन्त्रण करती है। विचारात्मक निबन्धों में हृदय के स्थान पर बुद्धि की प्रधानता होती है। इनमें अध्ययन की व्यापकता, गम्भीरता और भाषा की समाहार-शक्ति अपेक्षित होती है। हास्य-व्यंग्यात्मक निबन्धों में विषय हल्के और शैली सरस किन्तु तीखी होती है। ऐसे निबन्ध एक मोर जोवन की ऊब और थकान को दर कर स्वस्थ मनोरंजन की पूर्ति करते हैं तथा दूसरी भोर समाज, धर्म, प्रशासन मादि में व्याप्त कुरीतियों, रूढ़ियों और दुरवस्था पर तोव चोट करते हैं। उपर्युक्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य में जब हम राजस्थान के जैन निबन्धकारों पर दष्टिपात करते हैं तो निबन्ध कला पर खरे उतरने वाले निबन्धों की संख्या विरल है। यों जैन पत्रपनिकायों के माध्यम से प्रति माह संपादकीय टिप्पणियों भोर धार्मिक, सामाजिक, दार्शनिक सांस्कृतिक निबन्धों के रूप में काफी सामग्री छपती रहती है पर इनमें से अधिकांश सामान्य कोटि के लख होते हैं। भावात्मक और हास्य-व्यंग्यात्मक निबन्ध तो बहुत ही कम हैं। अधिकांश निबन्ध जैन तत्व ज्ञान से सम्बन्धित होते हैं। सामाजिक भावभभि को लेकर लिखे जाने वाले निबन्धों की संख्या भी पर्याप्त है। निबन्ध-लेखन में गहस्थों का ही विशेष योगदान रहा है। जैन-संत अपनी मर्यादा में बंधे रहने के कारण सामान्यतः सीधे निबन्ध नहीं लिखते। निबन्ध साहित्य की इस कमी को पूरा किया है प्रवचन साहित्य ने। निबन्ध पौर प्रवचन का मूल मन्तर इसकी रचना प्रक्रिया में है। निबन्ध सामान्यतः लेखक स्वयं लिखता है या बोलकर दूसरे से लिखवाता है पर प्रबचन-एक प्रकार का प्राध्यात्मिक भाषण है जो श्रोता मण्डली में दिया जाता है। यह सामान्य व्यक्ति द्वारा दिया गया सामान्य भाषण नहों। किसो ज्ञानो, साधक एवं अन्तर्मुखी चिन्तनशील व्यक्ति की वाणी हा प्रवचन कहलाती है। इसमे एक पद्धत बल, विशिष्ट प्रेरणा मोर मान्तरिक साधना का चमत्कार पिाहता है। श्रोता के हृदय को सीधा स्पर्श कर उसे प्रान्दोलित-विलोडित करने की क्षमता उसमें निहित है,ती है। जैन संत-सतियां आध्यात्मिक-पथ पर बढ़ने वाली जागरूक प्रात्माएं हैं। उनकी अनुभूत वाणी प्रवचन की सच्ची प्राधिकारिणी है। जैन धर्म लोक-धर्म है व लोक-भूमि पर प्रतिष्ठित है। लोक-मानस तक अपनी बात पहुंचाने के लिये जैनाचार्य और जैन संत लोक भाषा में ही अपना प्रवचन देते रहे हैं। स्वतन्त्रता के पूर्व तक राजस्थान के अधिकांश जैन सांघराजस्थानी में ही प्रवचन दिया करते थे पर ज्यों ज्यों हिन्दी का प्रचार-प्रसार बढ़ता गया, उन्होंने हिन्दी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। चातुर्मास काल में तो प्रतिदिन नियमित रूप से व्यांच्यान होते ही हैं, उस के बाद भी शेषकाल Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :266 में ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए भी व्याख्यान देने का क्रम जारी रहता है। राजस्थान में *कड़ों व्याख्यानी साध हैं अतः यदि लिपिबद्ध किया जाए तो प्रवचन-साहित्य प्रति वर्ष दिपक परिमाण में सामने प्रा सकता है। पर वर्तमान में सर्वत्र ऐसी व्यवस्था नहीं है। जो प्रभावशाली प्राचार्य और संत हैं, उनके चातुर्मास कालीन प्रवचनों को लिपिबद्ध करने की माडी- कहीं व्यवस्था है। परिणामस्वरूप संपादित होकर कई प्रवचन-संग्रह प्रकाशित हए.लोकन अप्रकाशित प्रवचन-साहित्य बड़ी मात्रा में संरक्षित है। जो ज्वचन-संचालन प्रमाणित हुए है उनमें प्रमुख हैं-जवाहर किरणावली भाग 1-35 (आचार्य श्री जवाहरलालजी), संस्कृति का राजमार्ग, प्रात्म दर्शन (आचार्य श्री गणेशीलालजी म.), दिवाकर दिव्य ज्योति भाग 1-21 (जन दिवाकर श्री चौथमलजी म.), हीरक प्रवचन भाग 1-10 (श्री हीरालालजी न.), प्रवचन डायरी भाग 1-4(प्राचार्य श्री तुलसी), प्राध्यात्मिक प्रालोक भाग 1-4. मायात्मिकसाधना भाग 1-2, प्रार्थना-प्रवचन, गजेन्द्र व्याख्यानमाला भाग 1-3(प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म.), साधना के सूत्र, अन्तर की ओर भाग-1-2 (श्री गध कर मुनि) प्रवचन भा, प्रवचन सुधा, धवल ज्ञान धारा, साधना के पथ पर, जीवन ज्योति (मरुधर केसरी श्री मिश्रीमर जी म.), पावस प्रवचन भाग 1-5, ताप और तप, समता दर्शन और व्यवहार, शान्ति के सोपान (सराचार्य श्री नानालालजी म.), जिन्दगी की मुस्कान, साधना का राज मान(श्रीकर मणिका और पालोक (साध्वी श्री उमराव कुंवरजी), पर्युषण पाराधना, दुर्लभ मंग चतुष्टय (शाबी भी मनासुन्दरीजी) । संक्षेप में प्रवचन साहित्य की विशेषताओं को इस प्रकार रखा जा सकता है :--- . (1) इनमें किसी शास्त्रीय विषय को बड़ी गहराई के साथ उटाकर किसोरतिर कथानक या प्रसंग के माध्यम से इस प्रकार प्रा बढ़ाया जाता है कि वह कथा था प्रसंग अपने मल आगमिक भाव को स्पष्ट करता हया हमारे वर्तमान जीवन की समस्यामों एवं उलझनों का भी समाधान देता चलता है। (3) इनके विषय उन प्रवृत्तियों और विचारों से सम्बन्ध होते हैं जिनसे व्यक्ति को अपना पान्तरिक जीवन शुद्ध, समाज को स्वस्थ्य और प्रगतिशील तथा सर्वजाति समभाव, सर्व धर्म समभाब पौर विश्वमंत्री भाव जागत करने की प्रेरणा मिलती है। (3) ये प्रवचन मूलतः आध्यात्मिक होने पर भी सगसानयिक जीवन संदर्भो और विश्व समस्याओं से जुड़े होते हैं। इनमें प्रात्मानुशासन, विश्वबन्धुप, एकता, का सहयोग, सहअस्तित्व जैसी जीवन निर्माणकारी और बिहारी भावनामों पर विशेष बल होने से इनकी अपील सदं जन-हितकारो और काहि मुक्त होती है। (4) ये प्रवचन प्रवचनकार की पदयात्रा के अनुभवों को साजगी, कासार रम की पवित्रता, प्रसंगानुकूल असरकारक कथानों, दृष्टान्तों और रूपकों से एक होते ये प्रवचन प्रालंकारिक बनाव शृंगार से परे धनमति की गहराई, प्रतस्पौं मार्मिकता, ज्ञात-अज्ञात कवियों की पदावली, लोकधनों.विविध-राग-रागिनियों, संस्कृत श्लोकों, प्राकृत गाथाभोंऔर मर्मस्पशी सूक्तियों से रहते हैं। साधारण कथ्य मौर घटना में भी ये प्राण फूंक देते हैं जो जीवन मोड़ का कारण बनता है। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "867 (च) शोध-समालोचना :-यों तो जैन भागमों, दार्शनिक और तात्विक प्रन्यों की व्याख्या-विवेचना (टाका-भाष्य) के रूप में शोध की प्रवृत्ति प्राचीन काल से चली पारही है। पर उस प्रवत्ति का क्षेत्र मुख्यतः धार्मिक और दार्शनिक जगत तक ही सीमित रहा है। लम्बे समय तक जैन साहित्य को केवल धार्मिक साहित्य कहकर उपेक्षा की जाती रही पर बब पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान आगम ग्रन्थों और उनके समीक्षात्मक अध्ययन तथा हस्तलिखित जैन ग्रन्थों के सूनीकरण की ओर गया तो जैन साहित्य का दायरा व्यापक हुमा और शोध की दिशाएं विस्तृत हई। इधर हिन्दी साहित्य के प्रादिकाल की अधिकांश आधारभूत सामग्री जैन साहित्यकार द्वारा ही रजित मिली है। जैन अपभ्रंश साहित्य धारा के अध्ययन से यह स्पष्ट होने लगा कि हिन्दी के संत काव्य, प्रेमाख्यानक काव्य और भक्ति काव्य के रचना तन्त्र मार शिल्पविधान पर जैन साहित्य का व्यापक प्रभाव है। प्राचीन इतिहास, संस्कृति पौर पुरातत्व तथा भारतीय दर्शन के तुलनात्मक अध्ययन में भी जैन आगम और पुराण अन्यों का उपयोग करने की प्रवृत्ति विशेष बड़ी है। इन सब का परिणाम यह हुआ कि अब जैन वांड मय धन्तर अनुशासनीय शोध-क्षेत्र का मुख्य आधार बन गया है । जैन साहित्य का अधिकांश भाग अब भी अज्ञात और अप्रकाशित है। राजस्थान में सैकड़ों मन्दिर, उपाश्रय और स्थानक हैं जहां हस्तलिखित पांडुलिपियों के रूप में यह मूल्यवान साहित्य संगृहीत-संरक्षित है। यह साहित्य केवल धार्मिक नहा है और न केवल जन धर्म से ही सम्बन्धित हैं। इनमें साहित्य के अतिरिक्त इतिहास, दर्शन, भूगोल, आयुर्वेद, ज्योतिष भादि की अलभ्य सामग्री छिपी पड़ी है। इनका समुद्धार किया जाना मावश्यक है। विश्वविद्यालय स्तर पर अब तक जैन विद्या के अध्ययन-अध्यापन की स्वतन्त्र व्यवस्था महोने से जन शोध की प्रवत्ति वैज्ञानिक रूप धारण न कर सकी। प्रसन्नता का विषय है कि भगवान महावीर के 2500 वें परिनिर्वाण वर्ष के उपलक्ष्य में राजस्थान सरकार के सहयोग से राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर तथा उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर में जैन अनुशीलन केन्द्र की स्थापना की गई है। इससे निश्चय ही जैन शोध की सम्भावनामों के मयेद्वार लेंगे। जैन विद्या का व्यवस्थित अध्ययन-अध्यापन न होने पर भी शोध क्षेत्र में राजस्थान प्रजगी है। इसका मुख्य कारण यहां पर्याप्त संख्या में हस्तलिखित ग्रन्थ भंडारों का होना है। कई संस्थाएं और व्यक्ति शोध कार्य में मनोयोग पूर्वक लगे हए हैं। शोधरत संस्थानों में प्रमुख हैं-श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित साहित्य शोध विभाग, महावीर भवन, जयपुर, प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार शोध प्रतिष्ठान, लाल भवन जयपुर; जीन इतिहास समिति, जयपुर; जैन विश्व भारती लाडनूं; अपय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर। शोधरत विद्वानों में महत्वपूर्ण नाम हैं-मुनि श्री जिनविजयजी, मुनि श्री कल्याण विजाजीपतिश्री कान्ति सागरजी.पं.घासीलालजी स..प्राचार्य श्री प्रस्तीमलजी म.. पाना भी तुलसो, मुनि श्री नथमलजी, मुनि श्री नगराजजी, मुनि श्री बुखमलजी, मुनि धीलधमोदन्दजी म., श्री देवेन्द्र म नि जी, श्री भगरचन्द नाहटा, श्री भंवरलाल माहटा, डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, श्री श्रीचन्द रामपुरिया, डा. मरेन्द्र भानावत, महोपाध्याय विश्य सागर, हा. प्रेम सुमन जैन श्रादि । संक्षेप में जैन शोध-पवृत्तियों को इस प्रकार रखा जा सकता है (1) राजस्थान के ज्ञान भण्डारों में उपलब्ध हस्तलिखित परिधिपियों का विस्तृत सूचीकरण और प्रकाशन । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 (३) हस्तलिखित प्रतियों के प्राधार पर महत्वपूर्ण कवियों की रचनाओं का व्यवस्थित संकलन, सम्पादन और विस्तृत भूमिका के साथ कवि के कृतित्व का समीक्षात्मक . मूल्यांकन। (9) जैन मागमों का वैज्ञानिक पद्धति से प्रामाणिक सम्पादन, टिप्पण, समीक्षण पौर हिन्दी में अनुवादन । (4) जैन धर्म का प्रामाणिक इतिहास लेखन और इतिहास की प्राधार भूत सामग्री के रूप में पट्टावलियों, अभिलेखों आदि का संकलन-सम्पादन । (5) जैन दर्शन, साहित्य, तत्वज्ञान आदि से सम्बद्ध समीक्षात्मक, तुलनात्मक भौर माधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में पुस्तक-निबन्ध लेखन । (6) जैन पारिभाषिक शब्दों और तत्व विशेष को लेकर कोश-निर्माण । उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि राजस्थान में जैन साहित्य की पद्य और गद्य विषयक प्रवृत्तियां मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों दृष्टियों से मानवतावादी साहित्य निर्माण की मोर सतत अग्रसर हैं। उनमें निरी धामिकता के स्थान पर उदात्त व वैयक्तिकता के मारमरक्षी दायरे से निकल कर सामहिकता के व्यापक क्षेत्र में प्रवेश कर रही है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन साहित्य और साहित्यकार-2 अगरवाद न हटा महोपाध्याय विनय सागर राजस्थान प्रान्त ज कई विभागों में विभक्त था तब जो प्रदेश ब्रज व पंजाब के मासपास का था उसमें हिन्दी का प्रभाव व प्रचार अधिक रहा, जो प्रदेश गजरात से संलग्न था वहां पर गुजराती भाषा का प्रभाव अधिक रहा जो स्वाभाविक ही है। बाकी सारे प्रदेश को भाषा को राजस्थानो कहा जाता है, जिसको कई शाखाये व बालियां हैं। राजस्थानी भाषा का प्राचीन नाम मरु या मारवाड़ी भाषा था । __हिन्दी मूलतः जिसे खड़ी बोली कहा जाता है, वह तो मुसलमानी साम्राज्य के समय विकसित हुई। ब्रज हिन्दी का दूसरा साहित्यिक रूप है। प्राचीन हिन्दी साहित्य सवधिक ब्रज भाषा का है जिसे कई ग्रन्थों में "ग्वालरो" नाम भी दिया गया है, क्योंकि ग्वालियर के आसपास के क्षेत्र में इस भाषा का अधिक प्रचार व प्रसार रहा है। राजस्थान के भी कई साहित्यकारों ने "ग्वालेरी भाषा" का उल्लेख किया है। हिन्दी साहित्य वैसे अवधी आदि में भी मिलता है,पर राजस्थान में ब्रज भाषा और खड़ी बोली, हिन्दी को इन दोनों उप-भाषामों का ही अधिक प्रसार रहा है। मुगल साम्राज्य के समय से राजस्थान में हिन्दी का प्रचार बढ़ता रहा। इसलिये हिन्दी जन कवि सं. 1600 के बाद के ही अधिक मिलते हैं। इससे पहले की सारी रचनायें राजस्थानी में हैं। अभी तक जो श्वेताम्बर हिन्दी कवियों के सम्बन्ध में खोज हुई है, उनमें सर्वप्रथम कवि मालदेव हैं। ये अपने समय के बहुत समर्थ कवि थे। उसका भार उनकी रचनाओं का समुचित विवरण नीचे दिया जा रहा है: 1. कवि मालदेव बडगच्छ की भटनेर शाखा के प्रभावशाली आचार्य मावदेवसरि के शिष्य थे। इन्होंने अपनी रचनामों में अपना संक्षिप्त नाम "माल" का उपयोग किया है। भटनेर, सरसा के आसपास इस गच्छ का और इस कवि का अधिक विचरण तथा अधिक प्रभाव रहा है। यद्यपि सरसा अभी हरियाणा प्रदेश में है किन्तु पहले राजस्थान विशेषतः बीकानेर के राजाओं से ही शासित था। कवि ने अपने गच्छ और गुरु के सिवाय अपना विशेष परिचय रचनामों में नहीं दिया है। रचता काल का उल्लेख भी केवल दो रचनाओं में किया है। सं. 1612-1668 अर्थात् 56 वर्ष तक कवि रचना करता रहा है। इस लम्ब काल को देखते हुए तो उनको रचनायें बहुत अधिक मिलनी चाहिये, परन्तु भटनेरो बडगच्छ शाखा का भण्डार सुरक्षित नहीं रहने से कवि की छोटी-बड़ी 30-40 रचनाय हो अब तक उपलब्ध हई हैं। प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी राजस्थानी में गद्य और पद्य में कवि लिखता रहा है। यहां वो उनमें से हिन्दी रचनाओं का विवरण देना ही अभीष्ट है। यद्यपि कवि राजस्थान का होने के कारण इसका हिन्दी राजस्थानी मिश्रित है, फिर भी अन्य राजस्थानी कवियों की अपेक्षा कति रचनामों में हिन्दी कोही प्रधानता है। कवि की अधिकांश रचनायें मप्रकाशित हैं। उसकी 369 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 रचनाओं में सर्वाधिक प्रसिद्ध पुरंदर चौपई है। गुजरात के कवि ऋषभदास ने भी "सुकवि" के रूप में इनका उल्लेख किया है। रचनामों की सूची इस प्रकार है :(1) बीरांगद चौपई, पद्य सं. 758, र. स. 1612, (2) भविष्य-भविष्या कोपई, पद्य सं. 647, सं. 1668 पंचउर, रचना काल के उल्लेख वाली पहली रचना वीरांगनीपई और अंतिम रचना भविष्यभविष्या पई है। इसकी उसी समय की लिखित प्रति अभय जैन ग्रन्थालय में है। (3) विक्रम चौपई, 7 प्रस्तावों और 1725 पद्यों में है। (4) भोज चौपई, यह भी चार खण्डों में एवं 1700 पद्यों में है और पंचपूर में रची गई है। (5) अमरसेन वपरसेन चौपई, 410 पद्यों में रचित है। यह रचना शीलदेवसूरि को प्राज्ञा से रचो गई है अतः सं. 1624 के बाद को है। (6) कोतिघर सुकौशल मुनि सम्बन्ध, पद्य 427 है। (7) स्थूलभद्र धमाल, पद्य 101, यह प्राचीन फागु संग्रह में प्रकाशित हो चुकी है। (8) राजुल नमि धमाल, पद्य 631 (9) नेमिनाथ नवभव रास, पद्य 230 । (10) देवदत्त चौपई, पद्य 530। (11) धनदेव पद्मरथ चौपई। (12) अंजनासुन्दरी चौपई, प. 158। (13) नर्मदा सुन्दरी गोपई। (14) पुरन्दर चौपई, पद्य 37। (15) पद्मावती पद्मश्री रास, पद्य 815 । (16) मृगांक-पद्मावती रास, पर 487। (17) माल शिक्षा चौपई, पद्य 67 | “(18) शील बावनी । (19) सत्य की चौपई, पद्म 446 । (20) सुरसुन्दर राजर्षि धौपई, पद्य 669 । (21) महावीर पारणा और स्तवन सहाय-पद प्राधि पापके रचित प्राप्त है। ' 2. समयसुन्दर राजस्थान के महाकवियों में महोपाध्याय समयसुन्दर बहुत बड़े ग्रन्थकार हुए हैं, जिनकी 563 लघ रचनाओं का संग्रह इनकी विस्तत जीवनी और रचनाओं की सूची के साथ "समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जली" नामक पुस्तक में प्रकाशित हो चुका है। सं. 1649 में अपने प्रगुरु युगप्रधान जिनचन्द्र सूरि जी के साथ लाहोर में सम्राट अकबर से कवि का परिचय हुआ था और वहां सम्राट के काश्मीर प्रयाण के समय "राजानो ददते सौप्यम्" के 10 लाखसर्थ किये थे। तभी से कवि की रचनाओं में कई तो हिन्दी की ही हैं और कई राजस्थानी में होने पर भी हिन्दी का प्रभाव पाया जाता है ! जिनचन्द्रसूरि और अकबर के मिलन सम्बन्धी प्रष्टक में सर्वप्रथम हिन्दी भाषा का प्रयोग हुआ है। प्रतः एक पद्य नमूने के तौर पर नीचे दिया जा रहा है : ए जी संतन के मुख वाणी सुणी, जिणचन्द मणिद महंत यति, तप जाप करइ गुरु गुर्जर मैं, प्रतिबोधत है भविकुसुमति । सब ही चित चाहन द्रूप भई, समयसुन्दर के प्रमु गच्छापति, पठइ पतिसाहि मजब्ब को छाप, बोलाए गुरु गजराज गति ॥1॥ सं. 1658 में अहमदाबाद में रचित होने पर भी कवि ने चीबीसी की रचना हिन्दी में की है। "ध्र पद छत्तीसी" और कई भक्ति पद कवि के रचे हुए बहुत ही भव्य एवं याकर्षक है। उदाहरण के तौर पर एक पद यहां दिया जा रहा है: Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 271 मेरी जीयु आरति काइ घरइ । जइसा वखत मई लिखति विधाता, तिग मई कुछ न टरई । में 1 कई चक्रवर्ती सिर छत्र धरावत, केइ कण मांगत फिरइ । hs सुखिए केइ दुखिए देखत, ते सब करम करइ मे. 21 आरती अंदोह छोरि दे जीयुरा, रोवत न राज चरइ । समयसुन्दर कहा जो सुख वंछत, तर करि भ्रम चित खरइ । मे. 31 कवि समयसुन्दर का जन्म सांचोर में हुआ था । राजस्थान में विचरण करते हुए मापने बहुत सी महत्वपूर्ण रचनायें की हैं । इनका विशेष परिचय संस्कृत और राजस्था मी विभाग में दिया जा चुका है । 3. जिन राजरि अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के ये प्रशिष्य थे । सं. 1647 में बीकानेर बोयरा धर्मसी की पत्नी धारलदेवी की कुक्षि से श्रापका जन्म हुआ था । 10 वर्ष की अल्पायु में जैन म ुनि दीक्षा ग्रहण की थी। इनका दोक्षानाम राजसमुद्र रखा गया था । ये प्रपने समय के बहुत बड़े विद्वान और सुकवि थे । सं. 1674 में मेड़ता में श्रापको प्राचार्य पद मिला था । इन्होंने काव्य पर 36000 श्लोक प्रमाण की संस्कृत टीका बनाई और गांगाणी के प्राचीन लेखों को पढा था । सं. 1686 आगरा में ये सम्राट शाहजहां से मिले थे। इनकी "शालिभद चौपई" सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है । उसके साथ बाकी रचनाओं का संग्रह भी “जिनराजसूरि कृति संग्रह" में प्रकाशित किया जा चुका राजस्थानी के साथ-साथ आपने हिन्दी में भी बहुत ' से सुन्दर पदों की रचना की है, उनमें से रामायण संबन्धी एक पद नीचे दिया जा रहा है: मंदोदरी बार बार इम भाखर । दस सिरि अरु गढ लंका चाहइ, तर पर स्त्री जन राखइ (मं. 1) पलय दिवस विभीषण पलटयउ, पाज जलधि परि झाखह । बौव पेड़ आक के प्रांगण, अंब किहां थइ चाखह | मं. 21 जीती जाई सकइ नहीं कोऊ, बलि एहि जगि आखई । 'राज' वदत रावण क्युं समझइ, होणहार लंकाखद || मं. अ 4. कवि दामो ये मंच लगच्छ के वाचक उदयसागर के शिष्य थे । इनका दीक्षा नाम दयासागर था । सं. 1669 जालोर में इन्होंने 'मदन नरिद चौपई” की रचना की जिसके अन्त में इन्होंने मपदे पूर्व रचित " मदन - शतक" का उल्लेख इस प्रकार किया है: "मदन शतक" ना दूहडा, एकोत्तर सौ सार । मदन नारद तण चरित, मंई विरच्यं विस्तारि ॥165 || मदनशतक हिन्दी भाषा का एक सुन्दर प्रेम काव्य है । यह बहुत लोकप्रिय रहा है। इसकी अनेकों हस्तलिखित प्रतियां बीकानेर की अनूप संस्कृत लायब्रेरी, अभयजैन ग्रंथालय आवि में प्राप्त हैं । जिनमें से एक प्रति में आठ चित्र भी हैं। जैसाकि उपरोक्त उद्धरण में लिखा गया है कि इसमें 101 दोहे थे, किन्तु आगे चलकर इसकी पद्य संख्या में भी वृद्धि हुई और गद्य वार्ता का भी इसमें समावेश हो गया। आगरा विश्वविद्यालय के "भारतीय साहित्य" जुलाईअक्टूबर, 1962 के अंक में मदनशतक प्रकाशित हो चुका है, जिसमें 132 पथ और वार्ता भी है। इस रचना के बीच में गुप्तलेख जो रतिसुन्दरी ने अपने प्रियतम को भेजा था, वह विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इस शतक की हिन्दी भाषा के नमूने के रूप में एक पद्म और वार्ता उद्धस की जा रही है: Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया । 272 "विरह आणि उपजी अधिक, ग्रहनिस दहे सरीर । साहित्र देहूं पताऊ करि दरसन रूपी नोर ॥ 58|| वार्ता कागद बाच्चा | राजा हर्षित भया । शुभ मूहर्त पंच कन्या सेती मदन को ब्याह करमोवन अर्द्ध राज्य दिया । मदन पंच स्त्रो के संग सुख भोग ।" 6 5. कवि कुशललाभ ये खरतरगच्छ के वाचक अभयधर्म के शिष्य थे । "ढोलामारू चौरई" आपको बहुत हो प्रसिद्ध रचना है । राजस्थान में तो ये उल्लेखनीय कवि थे हो, पर इनकी एक हिन्दी रचना " स्थूलभद्र छत्तासो" भी प्राप्त है जो अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर में संगृहीत है । के तोर पर प्रथम पद्य देखियेः- उदाहरण (1 'सारद शरद चन्द्र करि निर्मल ताके चरण कमल चित लायक । सुणत संतोष हुई श्रवण कुं नागर चतुर सुनह चित चायकई । कुशललाभ बुल्लति आनन्द भरि सुगुरु पसादि परम सुख पायकई । करहु थूलभद्र छत्रीसो प्रति सुन्दर पद बंध बनाय कई |1| अद्रसेन खरतरगच्छ के इस कवि का नामोल्लेख सं. 1675 के शत्रुंजय शिलालेख में पाया जाता हैं । इनको प्रसिद्ध रचना "चन्दन मलयागिरि चौपई" बीकानेर में रची गई, क्योंकि इसके प्रारम्भ में कवि ने विक्रमपुर का उल्लेख किया है। यह रचना बहुत लोकप्रिय रही है और इसकी कई सचिन प्रतियां भी त्रास है । इसको एक सचित्र प्रति प्रभय जैन ग्रंथालय में भी प्राप्त है । श्री सातभाई नवाब ने इसका सचित्र संस्करण “श्राचार्य आनन्दशंकर ध्रुव स्मारक ग्रन्थ" में मन् 1944 में प्रकाशित किया था । रचना दोहा छन्द में है, बोच-बीच में कुछ गाथायें भी पाई जाता है। प्रारम्भ के 4 दोहे उद्धत किये जा रहे हैं: we appr स्वस्ति श्री विक्रमपुरे, प्रणमी श्री जगदीश । तन मन जीवन सुखकरण, पूरण जगत जगीस 111 वरदायक वर सरसती, मति विस्तारण मात । प्रणामी मनि धर मोद सुं, हरण विधन संघात 121 मम उपगारी परम गुरु, गुण अक्षर दातार । चांदी ताके चरण युग, भद्रसेन मुनि सार | 3 | कहां चन्दन कहां मलयागिरि, कहां सायर कहां नीर । कहि हइ ताकी वारता, सुणउ सबै वरंबीर 141 7 मानसिंह 'मान' खरतरगच्छ के उपाध्याय शिवनिधान के शिष्य और सुकवि थे । कवि का दीक्षानाम महिमासिंह था । सं. 1670 से 1693 तक को इनकी बहुत सा रचनायें प्राप्त हैं, जिनमें राजस्थानी काव्य हो अधिक है । हिन्दी को भी आपकी तीन रचनायें मिली हैं -- 1. योग बावनी, 2. उत्पत्तिनामा, श्रीर 3. भाषा कवि रस मंजरी । इनमें से 'भाषा कवि रस मंजरी' की एक प्रति अभय जैन ग्रन्थालय में है । नायक-नायिका वर्णन सम्बन्धी इसमें 107 पद्य हैं। शृंगार रस वाली जैन कवियों की ऐसी रचनायें बहुत कम मिलती हैं । रचना के प्रान्त के पद्य मीचे दिये जा रहे हैं:---- Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 273 सकल कलानिधि वादि गज, पंचानन परधान । श्री शिवनिधान पाठक चरण, प्रणमी वदे मुनि मान ।।। नव अंकुर जोवन भई, लाल मनोहर होइ। कोपि सरत भूषण ग्रहै, चेष्टा मुग्धा सोइ 120 X x X नारि नारि सब को कहे, किऊंनाइकासू होइ। निज गुण भनि मति रीति धरो, मान ग्रन्थ अवलोइ। 1071 8. उदयराज खरतरगच्छोय भद्रसार के शिष्य उदयराज 17वीं के उत्तरार्घ के अच्छे कवि थे। इनकी राजस्थानी रचनायें सं. 1667 से 1676 तक की प्राप्त है। इस कवि ने करीब 300 दोहे भी बनाये हैं। हिन्दी रचना में “वैद्य विरहिणी प्रबन्ध" 78 पद्यों में है। इसको एकमात्र प्रति अभय जैन ग्रन्थालय में प्राप्त है। 9. श्रीसार ये खरतरगच्छीय क्षेमकीर्तिशाखा के श्री रत्नहर्षजी के शिष्य थे। इनकी रचनाओं का रचनाकाल 17वीं शताब्दी का अंतिम चरण है। आप अच्छे कवि और गद्यकार थे। प्रापकी राजस्थानी में छोटी-मोटी तीसों कृतियां प्राप्त है। हिन्दी में आपका केवल "रघुनाथ विनोद" नामक ग्रन्थ, अपूर्ण ही प्राप्त है। उदाहरण के तौर पर एक पद्य देखिये:-- यां • शिव शिव करि घ्यावत है शैवमती, ब्रह्म ब्रह्म नामकरि वेद मांहि ध्याइये। बुद्ध बुद्ध नाम लै लै ध्यावत है बौधमती, कृष्ण कृष्ण राम राम ऐसे लिव लाइये। एकाएक वीतराग ध्यावे जिन सासनी, युं अल्ला अकबर कहि किसहि बताइये। कह कवि सार तीन लोक के है नाथ एकु, कथनी में भेद तापें नाम न्यारे पाइये। गोस्वामी तुलसीदास रचित कवितावली के पक्ष के साथ सीतागमन वर्णनात्मक इस पशु को तुलना कीजिये: खेद भयो परस्वेद चल्यो कहि सार कहावत अरछी कहानी। हाथ कटी डग ध्यारि चल फिर बैठ रहे रघुनाथ को रानी। पूछे यजू जाईबो कितनो अब दूरि रही अपनी 'जधानी। नैन सरोवर नीर भरे छिलकं निकस भसंवां मिसो पानी॥19॥ 10. कवि केशव ये खरतरगच्छोय दयारत्न के शिष्य थे। इनका जन्म नाम केशव और दीक्षानार कीर्तिवर्धन था। इन्होंने "सदैवच्छ सामलिंगा चौपई" सं. 1697 में रची, जो "सदयवस प्रबन्ध" के परिशिष्ट में प्रकाशित होचकी है। इस कवि न हिन्दी में भी कई उल्लेखनीय रचना की हैं जिनमें से "चतुरप्रिया" नायक-नायिका भेद सम्बन्धी रचना दो उल्लासों में प्राप्त है । इसकी पद्य संख्या 86 और 48 है। सं. 1704 में इसकी रचना पूर्ण हुई है। इसी कवि ने "जन्म प्रकाशिका" नामक ज्योतिषग्रन्थ मेड़ता के संघपति राजसिंह, अमीपाल, वीरपाल के लिये 278 दोहों में रची है। इसी तरह कवि को तीन अन्य रचनायें दोहा छंद में रचित प्राप्त है1. भ्रमर बत्तीसी 2. दीपक बत्तोसी और 3. प्रीत छत्तीसी। इन तीनों रचनामों में पीछे से स्वयं कवि ने कई दोहे बनाकर बढा दिये हैं। इसीलिये भ्रमरबत्तीसो में 48 पोर प्रोत छत्तीगी में 52 दोहे मिलते हैं। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 11. कवि जसराज (जिनहर्ष) ये खरतरगच्छीय शान्तिहर्ष के शिष्य थे। इनका प्रसिद्ध नाम जसराज और दीक्षा नाम जिनहर्ष था। प्रारम्भिक जीवन तो राजस्थान में घूमते ही बीता और पिछले कई वर्ष गुजरात-पाटन में रहे। राजस्थानी भाषा के तो ये बहुत बड़े कवि थे। इनकी रचनाओं का परिमाण लगभग एक लाख श्लोक का है। छोटी-मोटी करीब 500 रचनायें इनकी प्राप्त हैं। सं. 1704 से 1763 तक की इनकी रचनायें मिलती हैं, अर्थात 60 वर्ष तक ये निरन्तर साहित्य सर्जन करते रहे हैं। इस महाकवि के सम्बन्ध में डा. ईश्वरानन्द शर्मा ने शोध प्रबन्ध लिखकर पी-एच-डी प्राप्त की है। राजस्थानी के अतिरिक्त हिन्दी में भी इन्होंने कई उल्लेखनीय रचनायें की है। इनमें से "नन्द बहोत्तरी' सं. 1714 वील्हावास में रची गई है। इसमें नंदवश के महाराजा नन्द और उसके मन्त्री विरोचन की रोचक कथा 72 दोहों में है। इनकी दूसरी रचना 'जसराज बावनी' 57 सवैया छंदों में सं. 1738 में रची गई है। तीसरी रचना 'दोहा बावनी' सं. 1730 में रची गई है। चौथी रचना 'उपदेश छत्तीसी' 36 सवैया छंदों में सं. 1713 में रची गई है। इनके अतिरिक्त चौवीस तीर्थकरों के चौवीस पद, बारहमासा द्वय, पनरह तिथि का सर्वया आदि कई हिन्दी रचनायें 'जिनहर्ष ग्रन्थावली' में प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें से उपदेश छत्तीसी का एक छंद उदाहरण के तौर पर दिया जा रहा है:--- जैसे अंजुरी को नीर कोऊ गह नरधीर, छिन छिन जाइ वीर राख्यो न रहात है। तसे घटि जै है आऊ कोटिक करो उपाऊ, थिर रह नहीं सही बातन की बात है। ऐसे जीव जाणि के सुकृत करि धरि मन, समता मै रमता रहे तो नीकि घात है। प्रथिर देही सुं उपगार यौ हों सार जिन हरख सुथिर जस मौन मैं लहातु है ।। 25 ।। 12. आनन्दघन इनका मूलनाम लाभानन्द था। सं. 1730 के आसपास मेड़ता में इनका स्वर्गवास हुआ था। बड़े अध्यात्मयोगी पुरुष थे। इनकी चौवीसी और पद बहुतरी बहुत ही प्रसिद्ध है। वैसे पदों की संख्या करीबन 150 तक पहुंच चुकी है। इनमें से कई पद अन्य कवियों के रचित होने पर भी इनके नाम से प्रसिद्ध हो गए हैं। इनके पदों में से एक प्रसिद्ध पद नीचे दिया जा राम कहाँ रहिमान कहौ, कोउ कान्ह कही महादेव री। पारसनाथ कहो कोऊ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वमेव री ॥ राम .1 ।। भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री। तैसे खण्ड कलपना रोपित, आप अखण्ड सरूप री॥राम. 20 निज पद रमै राम सो कहिय, रहम कर रहमान री । . कर करम कान्ह सो कहिय, महादेव निरवाण री ॥राम. 3॥ परस रूप सो पारस कहिय, ब्रह्म चिन्ह सो ब्रह्म री । इहविध साध्यो पाप प्रानन्दघन, चेतनमय निःकर्मरी ॥राम.4॥ . जन दर्शन शास्त्र के महाविद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी ने आनन्दधनजी की जो भावपूर्ण अष्टपदी की रचना की है, उससे प्रानन्दघनजी की महानता और विशिष्टता का सहज ही पता चल जाता है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 215 13. मानववर्धन ये खरतरगच्छीय महिमासागर के शिष्य थे। इनकी सं. 1702 से 1726 तक की रचनायें प्राप्त है। इनमें से कुछ हिन्दी रचनायें उल्लेखनीय हैं। जैन समाज में भक्तामर और कल्याणमन्दिर दो स्तोत्र अत्यन्त प्रसिद्ध हैं, इनका आपने हिन्दी पद्यानुवाद किया है। भक्तामर पद्य का एक उदाहरण प्रस्तुत है: प्रणमत भगत अमर वर सिर पुर, अमित मुकुट मनि ज्योति के जगावना, हरत सकल पाप रूप अंधकार दल, करत उद्योत जगि त्रिभुव न पावनां। इसे आदिनाथ जकेचरन कमल जग, सूवधि प्रणमि करि कछ भावनां, भवजल परत लरत जन उधरत, जुगादि मानन्द कर सुन्दर सुहावनां। 1। 14. महिमसमुद्र (जिन-समुद्रसूरि) ये खरतरगच्छ की बेगड शाखा के प्राचार्य जिनचन्द्रसूरि के शिष्य थे। ये भी राजस्थानी और अच्छे कवि थे। इनके सम्बन्ध में राजस्थानी (निबन्ध-माला) भाग 2 में लेख प्रकाशित हो चुका है। हिन्दी भाषा में भी आपने कई उल्लेखनीय रचनायें की हैं जिनमें से भर्त हरि "वैराग्य शतक"पर 'सर्वार्थसिद्धि मणिमाला" नामक विस्तृत टीका है। इसकी रचना सं. 1740 में हई हैं। स्वतंत्र उल्लेखनीय कृतियों में 'तत्वप्रबोध नाटक सं. 1730 जैसलमेर में रचित है। इसकी तत्कालीन लिखित प्रति प्राप्त है। अन्य रचनाओं में "नेमिनाथ बारहमासा" "नारी गजल" “वैद्यचिन्तामणि" (समुद्रप्रकाश सिद्धान्त) आदि स्फुट कृतियें भी प्राप्त हैं। वैद्य चिन्तामणि की अभी तक पूर्ण प्रति प्राप्त नहीं हुई है। 18 वीं शताब्दी के गद्य के नमूने के रूप में वैराग्य शतक टीका का अंश उद्धृत है: "अब श्री वराग्यशतक के विष तृतीय प्रकाश बखान्यौ तो अब अनंतरि चोथा प्रकाश गुवालेरी भाषा करि बखानता हूं। प्रथम शास्त्रोक्त षडभाषा छोडि करि या अपभ्रंश भाषा वीचि ऐसा ग्रंथ की टीका करणी परीसु कौन वास्ता ताका भेद बतावता है जु उर भाषा षट है ताका नाम कहता है।" 15. लक्ष्मीवल्लभ ये खरतरगच्छीय क्षेमकीर्ति शाखा के लक्ष्मीकीर्ति के शिष्य थे। इनका मूल नाम "हेमराज" और उपनाम "राजकवि" था। संस्कृत, राजस्थानी और हिन्दी तीनों भाषाओं में इन्होंने काफी रचनाय की है। हिन्दी रचनाओं में वैद्यक सम्बन्धी दो रचनायें हैं:-1. मन परीक्षा, पद्य 36 और 2. काल ज्ञान, पद्य 178, सं. 1741 में रचित । इनकी दूहा बावनी,दहा 58;हेमराज बावनी, सवैया 573; चौवीसी स्तवन ; नवतत्व भाषा बन्ध, पद्य 82, सं. 17473;भावना विलास, पद्य 52, सं. 1727%; नेमि राजुल बारहमासा आदि हिन्दी की अन्य रचनायें भी प्राप्त है। इनमें से भावना विलास का प्रथम पद्य उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है: प्रणमी चरण युग पास जिनराज जू के, विध्न के चूरण हैं पूरण हैं पास के । दृढ दिल मांझि ध्यान धरि श्रुतदेवता को, सेवत संपूरन हो मनोरथ दास के । ज्ञान दृग दाता गुरु बड़ी उपगारी मेरे, दिनकर जैसे दीपे ज्ञान प्रकाश के । इनके प्रसाद कविराज सदा सुख काज, सवीये बनावति भावना विलास के ।1। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 16. धर्मसी (धर्मवर्धन) __में खरतरगच्छ के उ. विजयह के शिष्य थे। संस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी तीन' भाषाओं में इन्होंने उत्कृष्ट रचनायें की। ये बीकानेर राजमान्य कवि थे। अापकी हिन्द रचनाओं में "धर्मबानी" सं. 1725रिणी में रची गई। इसमें प्रौपदेशक 57 सवैये है। इसरी रचना दम्भठिया चौपई सं. 1740 की है। तथा सौदीस जिन पद, चौदीस जिन सवैया, मिराजुल बारहमाना और कुछ प्रबोधक पद भी प्राप्त है। इनमें से बारहमासा का एक पला मोचे उड़त किया जा रहा है: अपने गुण ध दीये जल कु, तिनकी जल नै पुनि प्रीति फैलाई। दूध के दाह कुं दूर कराइ, तहां जल आपनी देह जलाई। नीर विछोह भी खीर सहै नहीं, ऊफणि आवत हैं अकूलाई। सैन मिल्यै फुनि चैन लह यो तिण, ऐसी धर्मस प्रीति भलाई ।6। इनकी रचनाओं का संग्रह “धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली" के नाम से प्रकाशित हो चुका है। 17. विनयचन्द ये खरतरगच्छीय उपाध्याय ज्ञानतिलक के शिष्य थे। राजस्थान के उत्तम कवियों में इनका स्थान है। इनकी प्राप्त रचनाओं का संग्रह 'विनयचन्द्र कृति कुसुमांजली' के नाम से प्रकाशित हो चुका है। नेमि राजीमती बारहमासा और 'रहनेमि राजुल सज्झाय' ये दोनों हिन्दी की बहुत सुन्दर रचनायें हैं। इन दोनों रचनाओं के एक-एक उदाहरण प्रस्त है: दिहं दिसइ जलधर धार दीसत हार के आकार । ता वीचि पहुं नहीं कबही सूई को संचार। सा लगत है झरराट करती मध्यवरती बान । भर मास भाद्रव द्रवत अंबर सरर रस की खान 131 ___+ + + + सजि बून्द सारी हर्षकारी भूमि नारी हेत । भरलाय निर्झर झरत झरझर सजन जलद असेत । धन घटा गजित घटा तजित भय जजित गह। टब टबकि टबकत झबकि झबकत विचि विचि बीज की रेह । 21 कवि की संवतोल्लेख वाली र बनायें सं. 1752:1755 तक की पिलती हैं। थोड़े ही वर्षों में कवि ने जो उत्कृष्ट रचनायें दो हैं वे अन पम औ: बेजोड़ है। काश ! कवि लम्बे समय तक रहता और रनायें करता तो, राजस्थान के लिये बहुत ही गौरव की बात होती। 18. उत्यचन्द मथण खरतरगच्छीय जो जैन यति साध्वाचार को पूर्णतया पालन न कर सके, उनकी एक अलग से मथेण जाति बन गई। इस जाति के राज्या श्रेत सूकवियों में उदयचन्द विशेष 'रूप से उल्लेखनीय हैं। इनका संस्कृत में 'पाण्डित -दर्पण' ग्रन्थ प्राप्त है। बीकानेर के महाराजा अनूपसिंह जी के लिये नायक-नायिका और अलंकार वर्णन वाला 'अनप रसाल" नामक काव्य सं. 1728 में इन्होंने बनाया। इसकी एकमात्र प्रति अनप संस्कृत लायब्रेरी बीकानेर में माप्त है। वैसे तो इस पुस्तिका की पुष्पिका में इसे महाराजा अनूपसिंह विरचित लिखा है किन्तु पति की प्रारम्भिक सूची में 'मथेण उदयचन्द कृत" लिखा है। कवि उदयचन्द ने "बीकानेर की गजल" सं. 1765 में महाराजा सुजानसिंह जी के समय में बनाई है। इसमें बीकानेर का बहत सुन्दर वर्णन है। यह गजल "बैचारिकी" पनिका बीकानेर के विशेषांक में प्रकाशित हो च की है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. जिन गरि ये खरतरगच्छीय जिनराजसूरि के पट्टधर थे। सं. 1700 में इनसे स्वतंत्र खरतरकी शाखा पृथक हो गई। इन्होंने राजस्थानी रचनाओं के साथ-साथ हिन्दी में भी "जिनरंग बहोतरी” और “श्रात्म प्रबोध बावनी' (रचना सं. 1731) रची है। जिनरंग बहोतरी में 72 दोहे. हैं और आत्म प्रबोध बावनी एक सुन्दर प्रबोधक रचना है। जिन रंग बहोतरी का एक दोह प्रस्तुत है wchod 277 साख रहयां लाखों गयां फिर कर लाखों होय । लाख रयां साखां गया लाख न लख्खे कोय । 40 1 विनयलाभ 20. ये खरतरगच्छीय विनय प्रमोद के शिष्य थे । संस्कृत और राजस्थानी रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने भर्तृहरि शतकत्रय का पद्यानुवाद 'भाषाभूषण' के नाम से किया है। इसकी एक प्रति प्रभय जैन ग्रन्थालय में है । इसकी एक प्राचीन प्रति सं. 1727 की लिखित नागौर के भट्टारकीय भण्डार में है । उदाहरण के तौर पर प्रथम पद्य का अनुवाद प्रस्तुत है: 21. जाही कुं राखत हीं मन में तितस तिय मोसौं रहे विरची, वा जिनकी नित ध्यान धरे तिन तो फुनि औरसों रास रची। हम नित चाह धरे काई और तो विरहानल मैं जु नची, धिग ताही कुं ताकुं मदन कुं मोकुं इते पर बात कबू न बची 111 इनकी हिन्दी में बावनी भी प्राप्त है । रचनाओं में 'बालचन्द' नाम भी प्राप्त होता है । इनका मूल नाम बालचन्द था और दीक्षा नाम विनयलाभ था । केशवदास ये खरतरगच्छीय कवि लावण्यरत्न के शिष्य थे। राजस्थानी रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने हिन्दी में केसव बावनी सं. 1736 में बनाई है और नेमि राजुल बारहमासा सं. 1734 में बनाया है। केसवदास का एक और भी बारहमासा मिलता है परन्तु इसमें गुरु का नाम प्राप्त नहीं है । केसव नाम के कई कवि होने से इस के कर्ता का निर्णय करना संभव नहीं हैं । 22. खेतल ये खरतरगच्छीय दयावल्लभ के शिष्य थे। इनका दीक्षा नाम दयासुन्दर था । सं. 1743 से 1757 तक इनकी कई राजस्थानी रचनायें प्राप्त हैं । कवि की हिन्दी रचनाओं में "चित्तौड़ की गजल" सं. 1748 और "उदयपुर की गजल" सं. 1757 की प्राप्त है । ये गजलें प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्य प्रौर इतिहास की दृष्टि से ये दोनों रचनायें महत्वपूर्ण हैं । मानकवि I 23. विजयगच्छ के मान कवि ने उदयपुर के महाराणा राजसिंह सम्बन्धी "राजविलास " नामक ऐतिहासिक काव्य बनाया जो नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हो चुका है। 18 विलास में विभक्त यह ऐतिहासिक महाकाव्य है । सं. 1737 तक की ऐतिहासिक घटनाओं का इसमें वर्णन है । इसकी हस्तलिखित प्रति सं. 1746 की उदयपुर में प्राप्त है । कवि की अन्य रचनाओं में "बिहारी सतसई" टीका उल्लेखनीय है । यद्यपि डा. मोतीलाल मेनारिया ने इन दोनों रचनाओं के कर्ता भिन्न-भिन्न बतलाये हैं, परन्तु विजयगच्छ में उस समय में इस नाम के एक ही विद्वान् हुए हैं। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 24. मानकवि II ये खरतरगच्छ के वाचक सुमतिमेरु के शिष्य थे। इन्होंने “संयोग द्वालिशिका' नामक 73 पद्यों की श्रृंगारिक रचना अमरचन्द मुनि के लिये सं. 1773 में बनाई है। कवि की अन्य दो रचनायें वैद्यक सम्बन्धी हैं, पर हैं बड़े महत्व की। पहली रचना 'कवि विनोद' 7 खण्ड में सं. 1745 में लाहोर में रची गई, किन्तु इसमें कवि ने स्वयं को बीकानेर वागे स्पष्ट रूप से लिखा है। दूसरी रचना "कवि प्रमोद" 9.उल्लास में पूर्ण हुई है, पद्य संख्या 2944 है। सं. 1746 में इसकी रचना हुई है। कवि ने इसमें भी अपने को बीकानेर वासी तलाया . सुमतिमेरु वाचक प्रकट पाठक श्री विनैमेरु। ताको शिष्य मनि मानजी, वासी बीकानेर । 111 संवत सतर छयाल सुभ, कातिक सुदि तिथि दोज । 'कवि-प्रमोद' रस नाम यह, सर्वग्नथनि को खोज। 12 । 25. कवि लालचन्द इनका दीक्षानाम लाभवर्द्धन था। इनके गुरु शान्तिहर्ष थे और जिनहर्ष गुरुझाता थे। ये अपने गुरुभाई जिनहर्ष की तरह राजस्थानी के सुकवियों में से हैं। इनकी हिन्दी रचनाओं में "लीलावतीगणित"सं. 1736 बीकानेर में, 'अंक प्रस्तार' सं. 1761 में रचित गणित विषयक रचनायें प्राप्त व प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी 'स्वरोदय भाषा' और 'शकुन दीपिका चौपाई' भी अपने विषय की अच्छी रचनायें हैं । 26. जोशीराय मण ये बीकानेर के महाराजा अनूपसिंहजी से सम्मानित थे। जोशीराय ने राजस्थानी में बड़ी सुन्दर रचनायें की हैं। साथ ही इन्होंने हिन्दी में "महाराजा सुजाणसिंह सम्बन्धी वरसलपुर गढ़ विजय" इसका दूसरा नाम 'सुजाणसिंह रासो' सं. 1767 और 1769 के मध्य में बनाया है। यह रचना सं. 1769 की लिखित प्रति से संपादित होकर 'वरदा' के जर 1973 के अंक में प्रकाशित हो चुकी है। 27. जोगीदास मयेण ये जोशीराय मथेन के पुत्र थे। इन्होंने वैद्यकसार नामक हिन्दी पद्य ग्रन्थ सं. 1792 में बीकानेर महाराजकूमार जोरावर सिंह के नाम से बनाया है। इसमें जोशीराय को सम्मानित करने का उल्लेख इस प्रकार है : बीकानेर वासी विशद, धर्मकथा जिह धाम । स्वेताम्बर लेखक सरस, जोशी जिनको नाम 1721 अधिपति भूप अनप जिहि, तिनसों करि सुभभाय । दीय दुसालौ करि करै, कह यौ जु जोसीराय 1731 जिनि वह जोसीराय सुत,जान हु जोगीदास। संस्कृत भाषा भनि सुनत, भौ भारती प्रकाश 1741 जहां महाराज सुजान जय, वरसलपुर लिय प्रांन । छंद प्रबन्ध कवित्त करि, रासो कह.यो बखांन 1751 28. नयनसिंह ये खरतरगच्छ के पाठक जसशील के शिष्य थे। सं. 1786 में इन्होंने भत हरि शतकत्रय भाषा की रचना बीकानेर राजवंश के महाराज प्रानन्दसिंह के लिये की थी। इस. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 219 लिये इस रचना का नाम 'आनन्दभूषण' या 'मानन्द-प्रमोद' रखा गया है। इस रचना के गब वार्ता का कुछ अंश नीचे दिया जा रहा है :-- "उज्जैणी नगरी के विष राजा भतृहरिजी राज करतु है, ताहि एक समै एक महापुरुष योगीश्वरं एक महागुणवंत फल भेंट कीनी। फल की महिमा कही जो यह खाय सो अजर अमर होई। तब राना ये स्वकीय राणी पिंगला कुं भेज्या। तब राणी अत्यन्त कामातुर अन्य पर-पुरुषतें रक्त है, ताहि पुरुष को, फल दे भेजो अरु महिमा कही।" 29. देवचन्द्र ये खरतरगच्छीय दीपचन्दजी के शिष्य थे। बीकानेर के निकटवर्ती ग्राम में ही आपका जन्म हपा था। छोटी उम्र में ही सं. 1759 में ये दीक्षित हुए थे। इनका दीक्षा नाम 'राजविमल' था। जैन तत्ववेत्ता के रूप में आप बहुत प्रसिद्ध हैं। प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी, गजराती के अतिरिक्त हिन्दी में आपने कुछ पद और "द्रव्यप्रकाश" नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाया है। जैन धर्म मान्य जीव अजीवादि द्रव्यों के सम्बन्ध में यह ग्रन्थ प्रकाश डालता है। सं. 1763 में बीकानेर में इसकी रचना हुई है। द्रव्यप्रकाश का एक पद्य प्रस्तुत है: सहज सुभाव प्रथ गुरु के वचन सेती, जान्यो निज तत्व तब जाग्यो जीव राय है। मैं तो परद्रव्य नांहि परद्रव्य मेरो नांहि, ऐसी बुद्धि भासी तब बंध कैसे थाय है। देखि जांनि गहो तुम परम अनंत पद, जाकै पदमाग और पद न सुहाय है। प्रमाण निखेप नय जाक तेज आग मस्त, ___ ऐसी निज देव श द मोख को उपाय है। 30। 30. रूपचन्द (रामविजय) ये खरतरगच्छीय उपाध्याय दयासिंह के शिष्य थे। इनका दीक्षा नाम रामविजय था। इन्होंने 101 वर्ष की दीर्घाय पाई और कई रचनाय की है। संवतोल्लेख वाली इनकी पहली रचना सं. 1772 की 'जिनसुखसूरि मजलस' खड़ी बोली की है। दूसरी रचना लघस्तव टब्बा सं. 1798 की है। राजस्थानी की तो कई रचनायें हैं पर हिन्दी की दृष्टि से अन्य रचनाओं का अवलोकन आवश्यक है। जिनसुखसूरि मजलस बड़ी अनूठी एवं मजेदार रचना है। उदाहरण प्रस्तुत है: "अहो आवो बे यार, बैठो दरबार, ए चांदरणी रात, कहो मजलस की बात । कहो कुन कुन मुलक कुन कुन राजा देखै, कुन कुन बादसाह देखे, कुन कुन दीवान देखे, कुन कुन महिर्वान देखै ? तो कहेक-दिल्ली दईवान फररक साह सुलतान देखे, चितोड़ संग्रामसिंह दीवान देख,जोधाण राठोड़ राजा अजीतसिंह देख, बीकाण राजा सुजांणसिंह देख, प्रांवर कछवाहू राजा जैसिंघ देखे ।" 31. बीपचन्द ये खरतरगच्छीय थे। इनका प्रणीत "लंघनपथ्यनिर्णय" नामक संस्कृत वैद्यक ग्रन्थ सं.1792 जयपुर में रचित प्राप्त है। हिन्दी भाषा में इन्होंने "बालतन्त्र की भाषा वचनिका" बनाई । इसका कुछ उद्धरण प्रस्तुत है :-- तिसके पत्र कल्याणदास नामा होत भये। महा पण्डित सर्वशास्त्र के वक्ता जाणणहार वैद्यक चिकित्सा विषे महाप्रवीण सर्वशास्त्र वैद्यक का देखकर परोपकार के निमित्त पंडितां का ग्यान के वासत यह बाल चिकित्सा ग्रन्थ करण वास्ते कल्याणदास नामा पंडित होत Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 मये। तिसनै करी सलोक बंध। तिसकी भाषा खरतरगछ माही जनि वाचक पदवी धारक दीप इसे नामें । 32. अमरविजय ये खरतरगच्छीय उदयतिलक के शिष्य थे। इनकी 'अक्षर-बत्तीसी हिन्दी रचना प्राप्त है। राजस्थानी में तो इनकी अनेकों रचनायें प्राप्त हैं। 33. रघुपति ये खरतरगच्छीय विद्यानिधान के शिष्य थे। सूकवि थे। सं. 1787 से 1839 तक की इनकी रचनायें मिलती हैं। इनकी अधिकांश रचनायें राजस्थानी में हैं। हिन्दी में "जैनसार बावनी" और "भोजन विधि" नाम की रचनायें प्राप्त हैं। भोजन विधि में तो भगवान् महावीर के जन्म समय के दशोटन का वर्णन है। जैनसार बावनी प्रौपदेशिक मातृकाक्षरों पर रचित सुन्दर रचना है। इसमें 58 पद्य हैं। सं. 1802 नापासर में इसकी रचना हुई है। इसका प्रारम्भिक पद्य इस प्रकार है : ऊंकार बड़ी सब अक्षर में, इण अक्षर ओपम और नहीं। ऊंकारनि के गुण पादरि के, दिल उज्ज्वल राखत जांण दही। ऊंकार उचार बड़े बड़े पंडित, होति है मानित लोक यही। ऊंकार सदामद ध्यावत है, सुख पावत है रुघनाथ सही । 1। 34. विनयभक्ति ये खरतर गच्छीय वाचक भक्तिभद्र के शिष्य थे। इनका प्रसिद्ध नाम वस्ता था। इनकी पहली हिन्दी रचना "जिनलाभसूरि दवावत” है। जिनलाभसूरि का प्राचार्यकाल सं. 1804 से 1834 तक का है, अत: इसी बीच इसकी रचना हुई है। इसकी गद्य वचनिका का कुछ अंश उदाहरणार्थ प्रस्तुत है : ___ऐसी पद्मावती माई बड़े बड़े सिद्ध साधकुं ने ध्याई। तारा के रूप बौद्ध सासन समाई । गौरी के रूप सिद मत वालुनै गाई। जगत में कहानी हिमाचल की जाई। जाकी संगती काह सो लखी न जाई। कौसिक मत में वजा कहानी। सिवजू की पटरानी। सिव ही के देह में समानी। गाहनी के रूप चतुरानन मुखपंकज बसी । मच्छर के रूप चंद विद्या में विकसी।" इनकी दूसरी रचना 'अन्योक्ति-बावनी' महत्वपूर्ण है। इसमें 62 पद्य हैं। जैसलमेर के रावल मलराज के कथन से सं. 1822 में इसका प्रारम्भ हुअा था। अभय जैन ग्रन्थालय में इसकी प्रति सुरक्षित है। 35. क्षमाकल्याण ये खरतरगच्छीय वाचक अमृतधर्म के शिष्य थे। अपने समय के बहत बडे विद्वान और ग्रन्थकार थे। सं. 1826 से 1873 तक की इनकी अनेकों रचनायें प्राप्त हैं। इन्होंने सुदूर बंगाल मुर्शिदाबाद आदि में भी विहार किया था। अतः इनकी कई रचनाभों में हिन्दी का प्रभाव है ही। वैसे “हितशिक्षा द्वात्रिंशिका" प्रापकी सुन्दर व प्रौपदेशिक रचना है। इसका प्रारंभिक पद्य इस प्रकार है : सकल विमल गुन कलित ललित मन, मदन महिम वन दहन दहन सम । ममित सुमति पति दलित दुरित मति, निशित विरति रति रमन दमन दम। सघन विधन गन हरन मधुर धुनि, धरन धरनि नल अमल असम सम । जयतु जगति पति ऋषभ ऋषभ गति, कनक वरन दुति परम परम मम ।11, Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 281 अपभ्रंश भाषा के सुप्रसिद्ध जयतिहुप्रण स्तोत्र का हिन्दी पद्यानुवाद मुर्शिदाबाद के कातेला गजरमल और तनसुखराय के लिये बनाया था। इसकी प्रति अभय जैन प्रन्थालय में प्राप्त है। इनका 'अंबड चरित्र' सं. 185 3 में रचित महिमाभक्ति भण्डार में प्राप्त है । 36. शिवचन्द्र इनका पूर्वनाम शंभु राम था। ये खरतरगच्छ के पुण्यशील के प्रशिष्य और समयसुन्दर के शिष्य थे। संस्कृत और राजस्थानी रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने हिन्दी म जैसलमेर के रावल मूलराज की प्रशंसा में “समुद्रबद्ध काव्य वचनिका' की सं. 1851 जैसलमेर में रचना की है। इसके एक दोहा और वचनिका का उदाहरण प्रस्तुत है :-- "शुभाकार कौशिक त्रिदिव, अंतरिच्छ दिनकार । महाराज इन धर तपौ, मूलराज छत्रधार । अरुण अर्थलेश-जैसे शुभाकार कहि है भलो है प्राकार जिनको ऐसे, कौशिक कहिये इन्द्र सों त्रिदिव कहिये स्वर्ग में प्रतपै दनकार अंतरिच्छ कहतां जितने ताई सूर्य आकाश में तपै। महाराज कहतां इन रीते छत्र के धरनहार महाराज श्री मूलराज। धर तपौ कहिये पृथ्वी विषै प्रतापी ।" शिवचन्द्रजी की हिन्दी कृतियों में दो पूजायें भी प्राप्त हैं :---1. ऋषि मण्डल पूजा सं. 1879 और 2. नंदीश्वर द्वीप पूजा । 37. कल्याण कवि इन्होंने सं. 1822 में "जैसलमेर गजल" सं. 1838 में "गिरनार गजल" और 1864 में "सिद्धाचल गजल" ये तीनों नगर वर्णनात्मक गजलें बनाई हैं। ये भी खरतरगच्छ के थे। 38. ज्ञानसार ये खरतरगच्छीय रत्नराज गणि के शिष्य एवं मस्तयोगी तथा राजमान्य विद्वान् थे। कवि होने के साथ-साथ ये सफल पालोचक भी थे। इनकी समस्त लघुकृतियां "ज्ञानसार ग्रन्थावली" के नाम से प्रकाशित हो चुकी हैं। राजस्थानी के अतिरिक्त इनकी निम्नांकित हिन्दी रचनायें प्राप्त है :-- 1. पूर्वदेश वर्णन, कामोद्दीपन, सं. 1856 जयपुर के महाराजा प्रतापसिंहजी की प्रशंसा में रचित मालापिंगल (छंदशास्त्र) सं. 1876, 8. चारित्र छत्तीसी, 4. चन्द चौपाई समालोचना दोहा, 9. आत्म प्रबोध छत्तीसी, प्रास्ताविक अष्टोत्तरी, मति प्रबोध छत्तीसी 6. निहाल बावनी सं. 1881, 11. बहुतरी आदि के पद । 7. भावछत्तीसी सं. 1865, इन्होंने 98 वर्ष की दीर्घायु पाई और श्मशानों में रहते हुए योग और अध्यात्म की साधना की। 'पूर्वदेश वर्णन' में जब ये मुर्शिदाबाद चौमासा करने के लिये गये थे, तब वहां बंगाल की उस समय जो स्थिति देखी थी उसका चित्रात्मक वर्णन किया है। पर्वदेश से वापिस आने पर ये जयपुर में कई वर्ष रहे और वहां के महाराजा प्रतापसिंह की प्रशंसा में “कामोददीपन' ग्रन्थ बनाया। "माला पिंगल" इनकी छंदशास्त्र की महत्वपूर्ण रचना है। श्रीमद् आनन्दधनजी की रचनाओं का इन्होंने 30 वर्षों तक चिन्तन करके उनके चौवीसी और पदों पर विवेचन लिखा। 10 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 ये बहुत बड़े समालोचक भी थे। इन्होंने मोहनविजय की सुप्रसिद्ध "चन्द चौपाई" की समालोचना दोहों में की है। उसमें छंद शास्त्रादि की दृष्टि से गम्भीर आलोचना की है। वस्तुतः अपने ढंग की यह एक ही रचना है। आनन्दघनजी के प्राध्यात्मिक पदों का अनसरण करते हुए आपने बहुतरी पद भी बनाये हैं जो बहुत ही प्रबोधक हैं। पद बहुतरी का एक पद उद्ध त दिया जाता है :-- भोर भयो अब जाग बावरे। कौन पुण्य तें नर भव पायो, क्यू सता अब पाय दाव रे। भो. 1। धन वनिता सुत भ्रात तात को, मोह मगन इह विकल भाव रे। कोई न तेरो तू नहीं काकउ, इस संयोग अनादि सुभाव रे ।भो. 21 प्रारज देश उत्तम गुरु संगत, पाई पूरब पुण्य प्रभाव रे। ज्ञानसार जिन मारग लाधौ, क्यों डूबै अब पाव नाव रे। मो. 3। चन्द चौपाई समालोचना का एक उदाहरण देखिये :-- ए निच्चै निच्चे करौ, लखि रचना को मांझ । छंद अलंकारे निपुण, नहि मोहन कविराज । x x ना कवि की निन्दा करी. ना कछ राखी कान । कवि कृत कविता शास्त्र के, सम्मत लिखी सयान 121 दोहा त्रिक दश च्यार सै, प्रास्ताविक नवीन । खरतर भट्टारक गछ, ज्ञानसार लिख दीन ।। 39. उत्तमचन्द भण्डारी ये जोधपुर के महाराजा मानसिंह जी के मन्त्री थे। अलंकार और साहित्य के प्राप उच्च कोटि के विद्वान थे। “अलंकार प्राशय" अपने विषय का बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इसकी रचना सं . 1857 में हुई है। आपकी अन्य रचनाओं में "नाथ चन्द्रिका" सं. 1861 और तारक तत्व आदि प्राप्त हैं। 40. उदयचन्द भण्डारी ये भी जोधपुर के महाराजा मानसिंहजी के मन्त्री और उत्तमचन्द भण्डारी के भाई थे। आप काव्य, साहित्य, छंद, अलंकार और दर्शन के भी अच्छे विद्वान थे। इनका रचना काल 1864 से 1900 तक का है। आपके सम्बन्ध में डा. कृष्णा महणोत ने शोध प्रबन्ध लिखा है। प्राप्त रचनाओं की सूची इस प्रकार है :छंद प्रबन्ध 13. विज्ञ विनोद 2. छन्द विभषण 14. विज्ञ विलास 3. दूषण दर्पण 15. वीतराग वादना 4. रस निवासू 16. करुणा बत्तीसी शब्दार्थ चन्द्रिका साधु वन्दना ज्ञान प्रदीपिका जुलप्रकाश जलन्धरनाथ भक्ति प्रबोध 19. वीनती 8. शनिश्चर को कथा 20. प्रश्नोत्तर वार्ता 9. आनुपूर्वी प्रस्तारबन्ध भाषा 21. विवेक पच्चीसी 10. ज्ञान सत्तावनी 22. विचार चन्द्रोदय 11. ब्रह्माविनोद 23. आत्मरत्नमाला 12. ब्रह्मविलास 24. ज्ञानप्रभाकर 6. ज्ञा Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 283 25. आत्म ज्ञान पंचाशिका 32. सभासार 26. विचारसार 33. सिखनख 27. षट्मतसार सिद्धांत 34. कोकपद्य 28. अात्म प्रबोधभाषा 35. स्वरोदय 29. आत्मसार मनोपदेश भाषा 36. शृंगारकवित्त 30. बृहच्चाणक्य भाषा 37. सौभाग्यलक्ष्मी स्तोत्र 31. लघु चाणक्य भाषा इनकी समस्त रचनायें महो. श्री विनयसागरजी के संग्रह में उपलब्ध है। 41. गजल साहित्य हिन्दी साहित्य में नगर वर्णनात्मक गजलों की एक लम्बी परम्परा जैन कवियों की रचनाओं के रूप में प्राप्त है। राजस्थान के श्वेताम्बर जैन कवियों ने राजस्थान के अनेक ग्राम, नगरों और बाहर के भी स्थानों-तीर्थों आदि की अनेक गजलें बनाई हैं। उनमें से कुछ गजलों की सूची इस प्रकार है :-- जोधपुर वर्णन गजल जोधपुर वर्णन गजल जोधपुर वर्णन गजल हेम कवि मुनि गुलाबविजय सं. 1866 सं. 1901 महाराजा मानसिंह के समय में सं. 1862 सं. 1865 सं. 1863 नागर वर्णन गजल मेड़ता वर्णन गजल सोजत वर्णन गजल मनरूप,पद्य 83 मनरूप, पद्य 48 मनरूप, पद्य 67 बीकानेर वर्णन गजल लालचन्द (लावण्य कमल) सं. 1838 सचित्र विज्ञप्ति पत्र जो जैनाचार्यों को अपने नगर में पधारने व चातुर्मास करने के लिये लिखकर और चित्रित करके भिजवाये जाते थे, उनमें जिस नगर से और जिस स्थान को वह पत्र भेजा जाता था, उनमें उन नगरों का वर्णन गजल के रूप में प्रायः पाया जाता है। इनमें राजस्थान के अनेक नगरों का वर्णन तत्कालीन इतिहास और संस्कृति की दृष्टि से बहत ही महत्वपूर्ण पाया जाता है। 17 वीं शताब्दी से ऐसे नगर वर्णनों की परम्परा खड़ी बोली में 'गजल' के नाम से प्रारम्भ हई , जो 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक चलती रही। 20 वीं शताब्दी राजस्थान में हिन्दी का प्रभाव अंग्रेजों के शासन और मुद्रण युग में अधिक बढ़ा। राज दरबार में और शिक्षा-प्रचार में हिन्दी को प्रमुख स्थान मिलने से जिन्हों ने राजस्थानी में रचना की है, उनकी भाषा में भी हिन्दी का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। जैन लेखक सदा से जनभाषा का आदर करते रहे, इसलिए 20 वीं शताब्दी में अनेक विषयों के ग्रंथ हिन्दी में लिखे गये। जैन मन्दिरों में पूजा' गाने का प्रचार 19 वीं शताब्दी के उतरार्द्ध या अंतिमकाल से राजस्थान में अधिक बढा । अतएव खरतरगच्छ, तपागच्छ के प्राचार्यों, मुनियों और यतियों ने पूजा साहित्य काफी मात्रा में लिखा। उनमें से बहत सा साहित्य प्रकाशित भी हो चुका है और आज भी उसका अच्छा प्रचार है। गेय होने से संगीतात्मकता ने भी इसके प्रचार को विशेष प्रोत्साहन दिया। खरतरगच्छ के यतियों में सूगनजी (सुमति मण्डन) आदि ने काफी पूजाएं बनाई। इनसे पहिले यति बालचन्द जी ने 1913 बीकानेर में 'पंचकल्याणक पूजा' बनाई। इससे पहले उन्होंने 1909 में मुर्शिदाबाद में रहते हुए ‘सम्मेतशिखर पूजा' की रचना की थी। पूजायें सुगन जी रचित अधिक प्राप्त होती हैं, अतः सुगनजी का परिचय यहां दिया जा रहा है: Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42. सुगनजी (सुमतिमण्डन) ये खरतरगच्छीय महोपाध्याय क्षमाकल्याण की परम्परा में धर्म विशाल के शिष्य थे। इनका दीक्षानाम सुमतिमण्डन था परन्तु जन्म नाम ही अधिक प्रसिद्ध रहा है। इनका उपाश्रय आज भी रांगडी चौक बीकानेर में मौजूद है। सं. 1930 से 1961 तक आप पूजायें बनात रहे। संवतानुसार पूजा सूची निम्न प्रकार है:-- 1. सिद्धाचल पूजा, सं. 1930 बीकानेर 2. अष्ट प्रवचन माता पूजा, सं. 1940 बीकानेर पंच ज्ञान पूजा, सं. 1940 बीकानेर 4. सहस्रकूट पूजा, सं. 1940 बीकानेर 5. आबू पूजा, सं. 1940 बीकानेर 6. चौदह राजलोक पूजा, सं. 1953 बीकानेर 7. पंच परमेष्टि पूजा, सं. 1953 बीकानेर 8. एकादश गणधर पूजा, सं. 1955 बीकानेर 9. जम्बूद्वीप पूजा, सं. 1958 बीकानेर 10. संघ पूजा, सं. 1961 बीकानेर इनके अतिरिक्त इनकी चौवीसी और मूर्तिमण्डन प्रकाश नामक रचनायें भी प्राप्त हैं। 43. वैद्य शिरोमणि रामलालजी (राम ऋद्धिसार) आप खरतरगच्छीय क्षेमकीर्ति शाखा के कुशलनिधान के शिष्य थे। अपने समय के प्राप बहत प्रसिद्ध वैद्य थे। अापकी रचित 'दादाजी की पूजा' अत्यधिक प्रसिद्ध है। आपने दीर्धाय पाई और अनेक विषयों में बहुत से ग्रंथ बनाये। ग्रंथों का प्रकाशन भी स्वयं ने ही किया। ज्ञात ग्रन्थों की नामावली इस प्रकार है:-- 1. पैंतालीस आगम पूजा, सं. 1930 बीकानेर, 11. सन्तान चिन्तामणि 2. बीस विहरमान पूजा, सं. 1944 भागनगर, 12. गुण विलास 3. दादाजी की पूजा, सं. 1953 बीकानेर, 13. सिद्धमूर्ति विवेक विलास 4. अष्टापद पूजा ___ 14. असत्याक्षेप निराकरण 5. अट्ठाई व्याख्यान भाषा, सं. 1949 15. सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली 6. श्रीपाल चरित्र भाषा, सं. 1957 16. स्वप्न सामद्रिक शास्त्र 7. संघपटक बालावबोध, सं. 1967 17. शकुन शास्त्र वैद्यदीपक 18. श्रावक व्यवहारालंकार 9. महाजन वंश मुक्तावली 19. कल्यसूत्र बालावबोध 10. जैन दिग्विजय पताका 44. कपूरचन्द (कुशलसार) ये खरतरगच्छीय रूपचन्द गणि के शिष्य थे। इनकी वारहवत पूजा सं . 1936 बीकानेर में रचित, प्रकाशित है । ܇ 45. यति श्रीपालचन्द्र ये खरतरगच्छीय श्री विवेकलबिध के शिष्य थे। इनका दीक्षानाम शीलसौभाग्य था। ये विविध विषयों के अच्छे विद्वान थे। इनका एक मात्र हिन्दी का ग्रंथ "जैन सम्प्रदाय शिक्षा" अथवा 'गृहस्थाश्रम शील सौभाग्य भूषण माला' नामक संवत 1967 में आपका अकस्मात निधन । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 285 हो जाने से निर्णयसागर प्रेस बम्बई द्वारा प्रकाशित हुई थी। इस विशालकाय पुस्तक में लेखक ने वर्ण विचार, व्याकरण, नीति, गृहस्थ धर्म, वैद्यकशास्त्र, रोग परीक्षा, प्रोसवंश और गोत्रों की उत्पत्ति, सामान्य ज्योतिष, स्वरोदय, शकुन विचार आदि अनेक विषयों का विस्तार से पालेखन किया है। गृहोपयोगी इतने विषयों का एक ही प्रथ में समावेश अन्यत्र दुर्लभ है। 46. आत्मारामजी (विजयानन्दसूरि) ये तपागच्छीय श्री बूटेराय जी के शिष्य थे। इनका जन्म तो पंजाब में सं. 1893 में हुआ था। मूलतः स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे। बाद में मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में पुनःदीक्षा ग्रहण करली थी। इन्होंने पंजाब, राजस्थान और गुजरात में अधिक विचरते हुए जैन धर्म का अच्छा प्रचार किया था। इनके रचित "जैन तत्वादर्श, अज्ञान तिमिर भास्कर, तत्व निर्णय प्रसाद, सम्यक्त्व शल्योद्धार" आदि बड़े-बड़े ग्रंथ हैं। सं. 1940 बीकानर में रचित इनकी केवल 'बीस स्थानक पूजा' ही प्राप्त है। इन्हीं के पट्टधर प्राचार्य विजयवल्लभसूरि प्रसिद्ध प्राचार्य हुए। इन्होंने राजस्थान में रहते हुए चौदह राजलोक पूजा 1977 खुडाला, पंच ज्ञान पूजा 1978 बीकानेर और सम्यग् दर्शन पूजा सं. 1978 बीकानेर, रचनायें की हैं । 47. विजयराजेन्द्रसूरि ___ इनका जन्म सं. 1833 में भरतपुर में हुआ था। पहले आप यति थे, बाद में सं. 1925 में क्रियोद्धार करके संविग्न साधु बने। आपसे त्रि-स्तुतिक सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ। इनका सब से बड़ा काम "अभिधान राजेन्द्र कोष' प्राकृतशब्दों का कोष सात भागों में है। राजस्थान और मालवा में आप अधिक विचरे। आपकी हिन्दी रचनायें निम्न हैं: 1. कल्पसूत्र बालावबोध, सं. 1940, 8. प्रभु स्तवन सुधाकर, 2. पर्युषणाष्टाह्निका व्याख्यान, सं. 1927, 9. महावीर पंच कल्याणक पूजा, 3. धनसार अघट कुमार चौपाई, सं. 1932, 10. कमलप्रभा, 4. तत्व विवेक सं . 1945, 11. देववंदन माला, 5. पंच सप्तति शतस्थान चतुष्पदी, सं. 1946, 12. सिद्धचक्र पूजा 6. जिनोपदेश मंजरी, 13. 108 बोल का थोकडा, 7. प्रश्नोत्तर पुष्पवाटिका, सं. 1936, 14. शुद्धरहस्य, आदि । 48. चिदानन्दजी ये खरतरगच्छ में श्री शिवजीराम जी और सुखसागर जी से प्रभावित होकर दीक्षित हुए और गहन अध्ययन कर इन्होंने कई ग्रन्थों की रचनायें कीं। इनकी दीक्षा सं. 1935 में हुई थी Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 और स्वर्गवास सं. 1965 में हुआ था। इनकी निम्नलिखित रचनायें प्राप्त हैं : स्याद्वादानुभव रत्नाकर, सं. 1950 अजमेर, दयानन्द मत निर्णय (नवीन आर्य समाज भ्रमोच्छेदन कुठार), द्रव्यानुभवरत्नाकर, सं. 1952 मेडतारोड, प्रात्म भ्रमोच्छेदन भानु, अध्यात्म अनुभव योग प्रकाश, सं. 195 5, श्रु त अनुभव विचार, सं. 1952, शुद्ध देव अनुभव विचार, सं. 1952, जिनाज्ञा विधि प्रकाश, कुमत कुलिंगोच्छेदन भास्कर, सं. 1955, आगमसार अनुवाद, शुद्ध समाचारी मण्डन । उस समय का युग खण्डन-मण्डन का था। अतएव आपको कई ग्रन्थ खण्डन-मण्डनात्मक लखने पड़े। वैसे आप अष्टांग योग के बड़े जानकार व अनभवी थे। 'अध्यात्म अनुभव योग प्रकाश' में इस विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है। द्रव्यानुभव रत्नाकर, शुद्धदेव अनुभव विचार प्रादि दार्शनिक व आध्यात्मिक ग्रन्थ है। 49. जिनकृपाचन्द्रसूरि सं. 1913 में जोधपुर राज्य के चाम गांव में आपका जन्म हुआ था। खरतरगच्छीय जिनकीर्तिरत्नसूरि शाखा के युक्तिअमृत मुनि के शिष्य प्राप सं. 1936 में बने । पश्चात क्रियोद्धार किया। सं. 1973 में आपको प्राचार्य पद प्राप्त हुआ और स्वर्गवास सं. 1994 में हा। आप पागम साहित्य के विशिष्ट विद्वान थे। बीकानेर में श्री जिन कृपाचन्द्रसूरि उपाश्रय आज भी रांगडी चौक में विद्यमान है। आपके विद्वान शिष्य सुखसागर जी ने पचासों ग्रन्थों का सम्पादन व प्रकाशन किया था। आपके पट्टधर श्री जयसागर सरि बहत अच्छे विद्वान थे। उ. सूखसागर जी के शिष्य म नि कान्तिसागर जी बडे प्रतिभाशाली विद्वान और प्रसिद्ध वक्ता थे। __ श्री जिनकृपाचन्द्रसूरि जी ने साधारण जनोपयोगी स्तवन, स्तुतियां आदि बनाकर एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति की। इनकी पद्यात्मक कृतियों का संकलन "कृपाविनोद' के नाम से प्रकाशित हो चुका है। आपने कल्पसूत्र की टीका का भावानुवाद, श्रीपाल चरित्र प्राकृत काव्य का हिन्दी अनुवाद, द्वादशपर्व व्याख्यान अनुवाद, जीव विचारादि प्रकरण संग्रह अनुवाद और गिरनार पूजा की रचनायें की हैं। ये सब ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। इनके प्रशिष्य मुनि कान्तिसागर जी की निम्नोक्त रचनायें प्रकाशित हैं:1. खण्डहरों का वैभव, 2. खोज की पगडंडियां, 8. जैन धातु प्रतिमा लेख, 4. श्रमण संस्कृति और कला, 5. नगर वर्णनात्मक हिन्दी पद्य संग्रह, 6. सईकी, 7. जिनदत्तसूरि चरित्र आदि । आपके अनेक शोधपूर्ण लेख कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। उदयपुर महाराणा की प्रेरणा से आपने “एकलिंग जी का इतिहास" वर्षों तक परिश्रम करके तैयार किया था किन्तु वह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है । 50. ज्ञानसुन्दर (देवगुप्तसूरि) इनका जन्म 1937 वीसलपुर (मारवाड़) में हुआ था। इन्होंने सं. 1963 में स्थानकवासी दीक्षा ग्रहण की और सं. 1972 में स्थानकवासी संप्रदाय छोड़ कर तपागच्छीय Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 287 श्री रत्नविजय जी के पास पुनः दीक्षा ग्रहण की तथा रत्नविजय जी की सूचनानुसार उपकेशगच्छ के अनुयायी बने। आचार्य पद के समय इनका नाम देवगुप्तसूरि रखा गया। आपकी छोटी-मोटी शताधिक रचनायें रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला से प्रकाशित हुई हैं। जैनागमों का संक्षिप्त सार 'शीन बोध' के नाम से कई भागों में प्रकाशित हया है। छोटी-छोटी कथाओं के 51 भाग भी उल्लेखनीय हैं। आपका सब से बड़ा ग्रन्थ “पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास" है। वैसे मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास, श्रीमान् लोकाशाह, जैन जाति महोदय प्रमुख रचनायें हैं । प्रकाशित विशिष्ट कृतियां निम्नलिखित हैं: भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का पार्श्व पट्टावली) इतिहास मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास जैन जातियों का प्राचीन इतिहास कापरडा तीर्थ का इतिहास प्रोसवाल जाति का इतिहास श्रीमान् लोकाशाह प्राचीन जैन इतिहास संग्रह मा. 1-16 जैन जाति महोदय जैन जाति निर्णय आगम निर्णय मुखपट्टी मीमांसा कथा संग्रह मा. 1-51 आदि । ओसवाल जाति का समय निर्णय बत्तीस सूत्र दर्पण शीघ्रबोध 51. जिनमणिसागरसूरि आप खरतरगच्छ के महोपाध्याय सुमतिसागर जी के शिष्य थे। पापका जन्म सं. 1944 बांकडिया बडगांम और दीक्षा सं. 1960 में, प्राचार्य पद सं. 2000 और स्वर्गवास 2008 मालवाडा में हया था। जैनागमादि ग्रन्थों का आपने विशिष्ट अध्ययन किया और उस समय के विवादास्पद प्रश्नों पर विस्तार से प्रकाश डाला। वैसे आप सरल प्रकृति और मध्यस्थ प्रकृति के थे । आपकी बहुत बड़ी भावना रही थी कि समस्त जैनागम हिन्दी में सानुवाद प्रकाशित करवाये जावें, किन्तु आपके गरु श्री के नाम से स्थापित सूमति सदन, कोटा से कुछ ही ग्रन्थ प्रकाशित किये जा सके। कोटा जैन प्रिन्टिग प्रेस की स्थापना भी इसी उददेश्य से की गई थी। अापकी निम्नलिखित रचनायें प्रकाशित हैं :-- वृहत्पर्युषणा निर्णय, षट् कल्याणक निर्णय देव द्रव्य निर्णय, आगमानुसार मुहपति का निर्णय, साध्वी व्याख्यान निर्णय, देवार्चन एक दृष्टि, क्या पृथ्वी स्थिर है ?, कल्पसूत्र अनुवाद, दशयकालिक सूत्र अनुवाद, अन्तकृद्दशा सूत्र अनुवाद अनुत्तरोपपातिकदशा सूत्र भावानुवाद, साधु पंचप्रतिकमण सूत्र अनुवाद । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 52. जिनहरिसागरसूरि - आप खरतरगच्छीय श्री भगवानसागर जी के शिष्य थे। अापका जन्म सं. 1949 रोहिणा ग्राम, दीक्षा 1967, प्राचार्य पद सं. 1992 और स्वर्गवास सं. 2006 मेड़ता रोड़ में हुआ था। आप बहुत सरल प्रकृति के थे और अच्छे कवि थे। इनकी स्तवनादि की रचनायें "हरिविलास' 'जिन स्तुति चौवीसी' में प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके अतिरिक्त 'दादा गुरुदेवों की 4 पूजायें' और “महातपस्वी चरित्र' भी प्रकाशित हो चुके हैं। सुदूर कलकत्ते तक विचरते हुए इन्होंने अच्छा धर्म प्रचार किया था। जैसलमेर ज्ञान भण्डार के जीर्णोद्धार और सुव्यवस्था में भी आपका योग रहा है। बहुत सी हस्तलिखित प्रतियों की भी आपने नकलें करवाई और स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्रादि खरीद कर अपने ज्ञान भण्डार लोहावट में स्थापित करवायी। मड़ता रोड़ (फलोदी) में आपके नाम से एक विद्यालय भी चाल हुआ था। अनेकों स्थानों में विचरते हुए आपने सैकड़ों प्रतिमाओं के लेखों का संग्रह भी किया था जो अभी तक अप्रकाशित है। अापके सुयोग्य शिष्य कविवर कवीन्द्रसागर जी का आपकी साहित्य सेवा और धर्म प्रचार कार्य में बड़ा सहयोग रहा। 53. वीरपुत्र आनन्दसागरसूरि ये खरतरगच्छीय श्री त्रैलोक्यसागर जी के शिष्य थे। इनका जन्म 1946, दीक्षा सं. 1968, प्राचार्य पद 2006 प्रतापगढ़ (राजस्थान) और स्वर्गवास 2016 में हुआ था। इनका ज्ञान भण्डार सैलाना में सुरक्षित है। इनकी निम्नोक्त रचनायें प्रकाशित हो चुकी :-- विपाक सूत्र अनुवाद कल्पसूत्र अनुवाद, श्रीपाल चरित्र अनुवाद द्वादश पर्व व्याख्यान अनुवाद सुख चरित्र त्रैलोक्य चरित्र महावीर जीवन प्रभा सप्तव्यसन परिहार प्रानन्द विनोद आगमसार स्वरोदय सार गहूंली सरिता अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि कई छोटी-छोटी पुस्तिकायें। ये बहुत अच्छे वक्ता भी थे। 54. जिन कवीन्द्रसागरसूरि ये खरतरगच्छीय श्री जिनहरिसागरसूरि जी के शिष्य थे। इनका जन्म सं. 1964, दीक्षा सं. 1976 जयपुर, प्राचार्य पद सं. 2017 और स्वर्गवास सं. 2018 में हुआ। आप प्रतिभाशाली विद्वान एवं आशुकवि थे। आपका असामयिक स्वर्गवास हो गया अन्यथा साहित्य जगत को आपसे बहुत कुछ आशायें थीं। आपकी निम्नोक्त रचनायें प्राप्त हैं:-- कवीन्द्र केलि जिन स्तवन संदोह नवपद आराधन विधि आवश्यक विधि संग्रह रत्नत्रय पाराधन पूजा, सं. 2012 बीकानेर, पार्श्वनाथ पूजा,सं. 2013, महावीर स्वामी पूजा, सं. 2012 बीकानेर, प्रोत्साहन पच्चीसी चैत्री पूर्णिमा देववन्दन विधि तपोविधि संग्रह उपधान तप देववन्दन चौसठ प्रकारी पूजा, सं. 2013 मेडता रोड। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 289 55. यतीन्द्रसूरि ये त्रिस्तुतिक प्रसिद्ध आचार्य श्री विजय-राजेन्द्रसूरि के शिष्य थे। इनका जन्म सं. 1940 और दीक्षा सं. 1954, प्राचार्य पद सं. 1995 आहोर में हुआ था। विजय राजेन्द्रसूरि के कोष को अन्तिम रूप देने और प्रकाशित करने में इनका बड़ा योग रहा है। राजस्थान, गुजरात, मालवा आदि में विहार करते हुए आपने उन स्थानों और विहार के सम्बन्ध में कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें 'यतीन्द्र विहार दिग्दर्शन भाग 1-4, “मेरी गोडवाल यात्रा", 'मेरी मेवाड यात्र और 'कोरटाजी का इतिहास' उल्लेखनीय हैं। आपने राजेन्द्रसूरि और मोहनविजय जी के जीवन चरित्र और पौराणिक अघटकुमार, कयवन्ना, चम्पक माला, रत्नसार, जगडुशाह, हरिबल आदि के जीवन चरित्र लिखे हैं। आपके व्याख्यानों के भी कई संग्रह निकले हैं और प्रकरणों आदि के अनुवाद भी आपने किये हैं। आपके सम्बन्ध में “यतीन्द्रसूरि अभिनन्दन ग्रन्थ" द्रष्टव्य है । आपने भगवान् आपके सुशिष्य व पट्टधर विद्याचन्द्रसूरि अच्छे कवि व लेखक हैं। नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर पर हिन्दी में महाकाव्य लिखे हैं। 56. जीतमुनि ये तपागच्छीय थे और स्वयं को आनन्दघन जी का चरणोपासक मानते थे। योग में आपकी बड़ी रुचि थी। आपने कई प्राचीन ग्रन्थों का अनुवाद व संग्रह किया तथा कई स्वतंत्र रचनायें भी बनाई। प्रकाशित साहित्य इस प्रकार है: योगसार हिन्दी अनवाद सह, लघ प्रकरण माला हिन्दी अनवाद सह, अध्यात्म विचार जीत संग्रह, स्तवनादि संग्रह, भौले मूल अर्थ सहित, अनुभव पच्चीसी आदि। आपकी रचनाओं का काल 1970 से 1994 के आसपास का है। 57. मुनि जयन्तविजय ये तपागच्छीय श्री विजयधर्मसूरि के शिष्य थे। इनका जन्म सं. 1940, दीक्षा सं. 1971 है। इन्होंने आब और उसके निकटवर्ती जैन तीर्थों के प्रतिमा लेख संग्रह का काम कई वर्षों तक बडे परिश्रम से किया। वैसे 'अर्बुद प्राचीन जैन लेख संदोह', 'अर्बुदाचल प्रदक्षिणा' ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्वपूर्ण हैं। गुजराती में तो 'शंखेश्वर महातीर्थ, ब्राह्मणवाडा' आदि अनेकों ग्रन्थ भी लिखे हैं। हिन्दी में तो केवल एक ग्रन्थ “पाबू" सचित्र प्रथम भाग प्रकाशित है। इसमें प्राब के विश्व प्रसिद्ध मंदिरों का ऐतिहासिक परिचय व वैशिष्टय का चित्रों के साथ प्रालेखन किया है। 58. मुनि मगनसागर ये उणियारा (टोंक) निवासी थे । इन्होंने खरतरगच्छ में मुनि दीक्षा ग्रहण की थी। इनके समय में खण्डन-मण्डन का प्राबल्य था, अत: कई पुस्तकें 'मुनि मगनसागर के प्रश्न और शास्त्रार्थ आदि आपने लिखीं। इनके अतिरिक्त 'मौन पुराण भूमिका और सिद्धान्त सागर प्राथमिक शिक्षा तथा हमीररासो सार' ग्रन्थ प्रकाशित हैं । 59. पंन्यास कल्याणविजय गणि इनका जन्म वि. सं. 1944 में लास नाम (सिरोही) में ब्राह्मणकिशन के राम-कदीबाई घर में हुआ था। इनका जन्म नाम तोलाराम था। वि. सं. 1964 में जालो रतपागच्छीय . Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 मुनि श्री केसर विजय जी के पास इन्होंने दक्षा ग्रहण की थी । दीक्षा के समय इनका नाम कल्याणविजय रखा गया था । इन्हें सं. 1944 में पंन्यास पद प्राप्त हुआ था और सं. 2032 में जालोर इनका स्वर्गवास हुआ । कल्याणविजय जी जैन साहित्य, इतिहास, विधिशास्त्र ( प्रतिष्ठा ) आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे । इनकी लिखित निम्न पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं:-- वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना कल्याण कलिका प्रबन्ध पराग तित्थोगा लियपइण्णा (श्री गजसिंह राठोड़ के साथ सम्पादन एवं अनुवाद) आदि । श्रमण भगवान् महावीर पट्टावली प्रबन्ध 60. पुरातत्वाचार्य मुनि जिनविजय पद्मश्री मुनि जिनविजय रूपाहेली (मेवाड़) निवासी परमारवंशी वृद्धिसिंह के पुत्र थे । इनकी माता का नाम राजकुमारी था। इनका जन्म सन् 1888 में हुआ था । इनका जन्म नाम किशनसिंह था । बाल्यावस्था में ही ये यति देवीसिंह के शिष्य बने । यतिजी के देहावसान के पश्चात् स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित हुए । 6 वर्ष पश्चात् इस सम्प्रदाय को त्याग कर मूर्तिपूजक समुदाय में तपागच्छ में दीक्षा ग्रहण की, जहां इनका नाम मुनि जिनविजय रखा गया । रूढिवादी परम्परा के प्रति आक्रोश एवं वैचारिक क्रांति के कारण इन्होंने इस वेष को भी त्याग दिया । कुछ वर्षों तक महात्मा गांधी के निर्देश पर इन्होंने गुजरात विद्यापीठ के प्राचार्य पदका भार वहन किया । संशोधन-सम्पादन शैली का वैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए जर्मनी आदि यूरोपीय देशों में इन्होंने भ्रमण किया । भारत स्वतन्त्रता आन्दोलन में ये जेल भी गये । शान्ति निकेतन में रहते हुए इन्होंने श्री बहादुरसिंह जी सिंघी को प्रेरित कर 'संधी जै ग्रन्थमाला' की स्थापना की, जो आज भी भारतीय विद्या भवन, बम्बई के अन्तर्गत प्रकाशन कार्य कर रही है। मुनि जी भारतीय विद्या भवन, बम्बई तथा राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संस्थापक और वर्षों तक निदेशक भी रहे । सिंघी जैन ग्रन्थमाला और राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला के प्रधान संपादक पद पर रहते हुए इनके कार्यकाल में क्रमशः विविध विषयात्मक प्राचीन एवं दुर्लभ 55 तथा 83 ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है । मुनिजी भारतीय संविधान के संस्कृत भाषा के अनुबादकर्ताओं में भी थे । भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना तथा जर्मन ओरियन्टल सोसायटी के सम्मान्य: सदस्य भी रहे। भारत सरकार ने पद्मश्री अलंकरण प्रदान कर और राजस्थान साहित्यअकादमी, उदयपुर ने मनीषी उपाधि प्रदान कर मुनिजी को सम्मानित किया था । मुनिजी हरिभद्रसूरि स्मारक चित्तौड़, भामाशाह बाल विद्यालय चित्तौड़, सर्वोदय साधना आश्रम चंदेरिया तथा कई बाल विद्यालय आदि अनेक स्मारक अपने निजी द्रव्य से स्थापित किये। इसी वर्ष 2 जून, 1976 में मुनिजी का अहमदाबाद में स्वर्गवास हुआ और दाह संस्कार सर्वदेवम्यतन चंदेरिया में हुआ । मुनि जिनविजय जी न केवल संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी तथा गुजराती भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान ही थे, अपितु प्राचीन लिपि, पुरातत्व और इतिहास के भी धुरंधर विद्वान् थे । जैन साहित्य के तो मूर्धन्य विद्वान् थे ही। 'हरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णय:' (संस्कृत) और आत्मकथा के अतिरिक्त इनको स्वतन्त्र रूप से लिखित पुस्तकें प्राप्त नहीं हैं किन्तु इनके प्रधानसम्पादकत्व में और सम्पादकत्व में प्रकाशित पुस्तकों के प्रधान संपादकीय प्राक्कथनों में तथा विश्लेषणात्मक एवं शोधपूर्ण विस्तृत भूमिकाओं में इन्होंने इतना अधिक लिखा है कि इन समस्त Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 291 प्रस्तावनाओं का संकलन कर अलग से प्रकाशित किया जाय तो उसके कई खण्ड निकल सकते हैं । जिनविजय जी द्वारा सम्पादित साहित्य की तालिका निम्नांकित है विज्ञप्ति त्रिवेणी खरतरगच्छ पट्टावली संग्रह जैन लेख संग्रह भाग 1 व 2 गुजराती गद्य सन्दर्भ पुरातन प्रबन्ध संग्रह प्रबन्ध कोष कथाकोष प्रकरण जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह संदेश रासक कुमारपाल चरित्र संग्रह जय पायड निमित्त शास्त्र विज्ञप्ति लेख संग्रह कर्णामृत प्रपा प्राकृतानन्द पदार्थ रत्न मंजूषा कृपारस कोष आचारांग सूत्र प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह प्रबन्ध चिन्तामणि सुकृत कीति कल्लोलिनी विविध तीर्थ कल्प प्रभावक चरित्र धूर्ताख्यान कौतिकौमुदी महाकाव्य खरतरगच्छ बृहद गुर्वावली जम्बू चरियं, त्रिपुरा भारती लघु-स्तव बाल शिक्षा व्याकरण उक्ति रत्नाकर गोरा बादल चरित्र हम्मीर महाकाव्य ए केटलाग प्राफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्कृप्ट्स-पार्ट-1; पार्ट-2 ए, बी, सी; पार्ट3 ए, बी, इत्यादि। मुनि जी ने भारतीय विद्या, जैन संशोधक, आदि कई शोधपूर्ण त्रैमासिक पत्रिकाओं का संपादन किया था और अनेकों पत्रिकाओं में आपके गंवेषणा पूर्ण लेख प्रकाशित हो चुके हैं। 61. यति नेमिचन्द्र खरतरगच्छीय यति बख्तावर चन्द जी के शिष्य थे। इनका जन्म 1948 कुकणिया बेणासर (बीकानेर) रियासत और स्वर्गकाल सं. 2009 बाडमेर में हुआ था। ये विधि-विधान के अच्छे जानकार थे। आपकी निम्न रचनायें प्रकाशित हैं: नेमिविनोद स्तवन माला जिनदत्तसूरि चरित्र गुरुदेव गुण छंदावली जैन शकुनावली हरिश्चन्द्र नाटक लेखा लीलावती पत्र पद्धति आदि। कुलपाक मंडल पूजा स्तवन रत्न मंजूषा अयवंती सुकुमार हंसवच्छ नाटक स्थ लिभद्र नाटक जैन ज्योतिष दिवाकर 62. माणिक्यरुचि ये तपागच्छीय यति थे। भीडर (मेवार्ड) इनका निवास स्थान था। इनकी दो पुस्तकें माणिक्य मंजरी और माणिक्य मनन प्रकाशित हैं। ये अच्छे कवि व उपदेशक थे। मेवाड़ केभीलों में भी उपदेश देकर मांस-मदिराछडाने का विशेष प्रयास किया था। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 68. साध्वीवर्ग जैन परम्परा में प्रारम्भ से ही स्त्रियों को समान धार्मिक अधिकार दिये गये और चतुर्विध संघ में साधु के साथ साध्वी और श्रावक के साथ श्राविका भी सम्मिलित है। राजस्थान में खरतरगच्छ का अधिक प्रभाव व प्रसार रहा और इस गच्छ की अधिकांश साध्वियो राजस्थान में ही जन्मी हुई हैं। वैसे इनका विहार बहुत दूर-दूर तक भी होता रहा, परन्तु राजस्थान में इन्होंने सर्वाधिक धर्म प्रचार किया। इनमें से कुछ साध्वियां बहुत अच्छी लेखिकायें और कवयित्री भी रही हैं। कइयों ने प्राचीन प्रकरणादि ग्रन्थों का अनुवाद किया और कइयों ने मौलिक रचनर्यि भी की है। ज्ञात रचनाओं की सूची इस प्रकार है: प्रेमश्रीजी-जैन प्रेम स्तवन माला, गहूंली संग्रह बल्लभश्रीजी--पेंतीस बोल का थोकड़ा, वैराग्य शतक अनुवाद, संबोध सत्तरी अनुवाद प्रमोदश्रीजी--प्रमोद विलास, रत्नत्रय विनयश्रीजी-युगादिदेशना, उपासक-दशा सूत्र अनुवाद बुद्धिश्रीजी-चैत्यवन्दन चविंशतिका सानु वाद, श्रीचन्द्र चरित्र हीराश्रीजी-जन कथा संग्रह 64. पं. काशीनाथ जैन . श्वेताम्बर समुदाय में साधु-साध्वियों के अधिक होने से श्रावक समाज में विद्वान् और लेखक कम हुए हैं। इनमें से काशीनाथ जैन महापुरुषों के सचित्र जीवन-चरित्र प्रकाशित करने में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये वैसे तो यति शिष्य रहे हैं परन्तु इन्होंने स्वयं को यति शिष्य न लिख कर पंडित रूप में प्रसिद्ध किया। इनकी पुस्तकों का प्रचार भी बहुत अच्छा रहा। वर्षों तक यह एक ही काम में जटे रहे और इसे अपनी आजीविका का साधन बना लेने के कारण ही इतना साहित्य लिख सके। इनका मूल निवास स्थान बमोरा (मेवाड़ा) था। इनकी प्रकाशित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है:अभय कुमार अरणिक मुनि प्रानन्द श्रावक आदिनाथ चरित्र उत्तम कुमार कयवन्ना सेठ कामदेव श्रावक काम कुम्भ माहात्म्य चन्दन बाला जम्बूस्वामी चन्दराजा चम्पक सेठ जय विजय तेरह काठिये नल दमयन्ती नेमिनाथ चरित्न पार्श्वनाथ चरित्र ब्राहमी सुन्दरी महाशतक श्रावक मृगावती रत्नसार कुमार रत्न शेखर राजीमती सजा यशोधर राजा हरिश्चन्द्र लकडहारा ललितांग कुमार विजय सेठ विजया सेठानी शीलवती शुकराज कुमार सुर सन्दरी सुदर्शन सेठ सती सीता सुरादेव श्रावक हरिबल मच्छी आदि 65. दुस संपतराय भंडारी __ये अजमेर निवासी हैं। इनका जन्म सं. 1895 में हुआ था। आपकी 'हिन्दी इंग्लिश जिसनेरी भाग-7, भारत दर्शन, तिलक दर्शन, भारत के देशी राज्य, राजनीति विज्ञान' प्रादि Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 193 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। आप 'वैकटेश्वर समाचार' आदि कई पत्रों के संपादक भी रह चुके हैं। इस प्रकार आपने अपना अधिकांश जीवन साहित्य निर्माण में ही लगाया था। 66. कस्तूरमल बांठिया श्री बांठिया जी अजमेर में रहते थे। हिन्दी बहीखाता, इन्कम टैक्स के हिसाब, रूई और उसका मिश्रण' आदि पुस्तकें लिखी। प्रौढावस्था में आपने जैन साहित्य का विशेष अध्ययन किया और हेमचन्द्राचार्य जीवन चरित्र का अंग्रजी से अनवाद किया। समय-समय पर आपके अनेकों लेख भी सामयिक पत्र-पत्रिकायों में प्रकाशित हुये हैं। आपने कई जैनागमों के गजराती और अंग्रेजी ग्रन्थों के हिन्दी में अनुवाद किये हैं। इनमें से 'जैनिज्म इन विहार' का जैन-भारती में अन वाद प्रकाशित हया । 'जैनिज्म इन गुजरात' और 'जैन पार्ट' का भी आपने अनुवाद किया था। गोपालदास पटेल आदि के गुजराती भाषा में लिखित कई अागमों के अनुवाद भी आपने हिन्दी में किये थे, किन्तु वे अभी तक अप्रकाशित है। श्री भोगीलाल सांडेसरा की गुजराती पुस्तक 'वस्तु-पालनुं विद्यामण्डल' का हिन्दी में 'वस्तुपाल महामात्य का साहित्य-मण्डल और उसकी संस्कृत साहित्य को देन' नाम से अनुवाद भी किया था जो प्रकाशित हो चुका है। 67. दौलतसिंह लोढा 'अरविन्द' सं. 1914 धामणिया ग्राम (मेवाड़) में इनका जन्म हुआ था । बी. ए. तक अध्ययन करके राजेन्द्र गुरुकुल बागरा में प्रधानाध्यापक का कार्य किया । श्री विजय यतीन्द्रसरि की प्रेरणा से काव्य और गद्य रचनायें लिखनी प्रारम्भ करदी। इनका उपनाम 'अरविन्द' था। सर्व प्रथम, 'श्री मनोहर विजय', तदनन्तर 'जैन-जगती' हरिगीतिका छंदों में बनाई। जैन-जगती जैन समाज का सचित्र चित्रण करने वाला अच्छा काव्य है। इसके बाद व भोपालगढ, सुमेरपुर आदि में बोडिग सुपरिन्टेन्डेन्ट के रूप में रहे। अन्त में भीलवाडा में रहने लगे। छोटी-मोटी 33 पुस्तकें आपकी प्रकाशित हो चुकी है। जिसमें इतिहास सम्वन्धी 'प्राग्वाट इतिहास, पल्लीवाल जैन इतिहास, राणकपुर जैन इतिहास, श्री प्रतिमा लेख संग्रह' आदि उल्लेखनीय हैं। काव्यों में जैन-जगती के अतिरिक्त 'राजीमति, दस निकुंज, छत्र प्रताप, रसलता और वसुमती' आदि उल्लेखनीय हैं। आपके संपादित 'राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ' और 'यतीन्द्रसूरि अभिनन्दन त कर्मठ एवं सुकवि थे। आपसे समाज को बहुत कुछ आशायें थी किन्तु आपका असमय में 49 वर्ष में ही निधन हो गया। 68. उमरावचन्द जरगड इनका जन्म वि. सं. 1959 में जयपुर में हुआ । इनके पिता का नाम श्री मालवंशी नेमिचन्दजी जरगड था। इनका जैन-दर्शन और अध्यात्म की तरफ विशेष आकर्षण था। जवाहरात का व्यापार था। वि.सं. 2028 में इनका स्वर्ग हुआ। इनकी लिखित एवं सम्पादित पुस्तकें निम्न प्रकार हैं : देवचन्द्र जी कृत चतुर्विंशति जिन स्तवन (सानुवाद) प्रार्थना और तत्वज्ञान देव चन्द्र जी कृत स्नानपूजा (सानुवाद) आनन्दघन ग्रंथावली (सानुवाद) 69: पं. भगवानदास जैन इनका जन्म सं. 1945 में पालीताणा में हया। उनके माता-पिता का नाम कल्याण ई और गंगाबाई हैं। आचार्य विजय धर्मसूरि स्थापित यशोविजय जैन पाठशाला, Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारस में इन्होंने शिक्षा प्राप्त की । लगभग 45 वर्षों से इनका कार्य क्षेत्र जयपुर ही हैं । पंडित जी वास्तुशास्त्र, मूर्तिशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र के अद्वितीय विद्वान् हैं । इनके द्वारा अनुदित निम्न पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। -- रूपमण्डन देवतामूर्ति प्रकरण त्रैलोक्य प्रकाश, 294 वास्तुसार प्रकरण प्रसादमण्डन बेडाजातक पंडितजी द्वारा कई अनुदित ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित पड़े हुए हैं, यथा- आदि । मेघ महोदय वर्ष प्रबोध ज्योतिषसार नमस्कार महामन्त्र कल्प ऋषिमण्डल स्तोत्र विधि विधान सह घण्टाकर्ण कल्प केसरियाजी का इतिहास महाराणा प्रताप, आदि । ही कलश भुवनदीपक 70. चन्दनमल नागौरी I नागौरी जी छोटी सादडी (मेवाड़) के निवासी श्री मोतीराम जी के पुत्र हैं । छोटी सादडी में ही रहते हैं । इनकी अभी उम्र 91 वर्ष की है । ये प्रतिष्ठा विधि और मन्त्र साहित्य विशिष्ट विद्वान् हैं । इन्होंने अभी तक विभिन्न स्थानों पर 135 मन्दिरों की प्रतिष्ठायें करवाई हैं । इनका निजी पुस्तकालय भी है जिसमें 5000 से अधिक पुस्तकें संग्रहीत हैं। इनके द्वारा लिखित 75 के लगभग पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिसमें से कुछ पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं : : नमस्कार महात्म्य ह्रींकार कल्प यन्त्र मन्त्र संग्रह जाति गंगा 71. अगरचन्द्र नाहटा श्री शंकरदानजी नाहटा के यहां वि. सं. 1967 में बीकानेर में इनका जन्म हुआ । पाठशाला की शिक्षा ये पांचवीं कक्षा तक ही प्राप्त कर सके। प्राचार्य श्री जिन कृपाचन्द्रसूरिजी की प्रेरणा से सं. 1984 से इनकी और इनके भतीजे श्री भंवरलाल नाहटा की साहित्य की ओर रुचि जागृत हुई । सं. 1984 से लेकर आज तक निरन्तर अध्ययनशीलता और कर्मशीलता के कारण इन नाहटा - बन्धुत्रों (चाचा-भतीजों ने ) सामान्य शिक्षा प्राप्त होते हुए भी साहित्य जगत में जो कार्य किया है वह वस्तुतः अद्वितीय ही कहा जा सकता है । इन दोनों के प्रयत्नों से संस्थापित अभय जैन ग्रन्थालय में लगभग 60 हजार हस्तलिखित ग्रन्थों और 15 हजार के लगभग मुद्रित पुस्तकों का संग्रह, कलाभवन में मूर्तियां, सिक्के, चित्र, चित्रपट्ट, सचित्र प्रतियां, आदि हजारों की संख्या में संग्रहीत हैं । यह ग्रन्थालय शोध छात्रों के लिये शोध-केन्द्र बना हुआ है । दृढ अध्यवसाय और अजस्र स्वाध्याय परायणता के कारण श्री अगरचन्द जी आज जैन साहित्य के ही नहीं, अपितु राजस्थानी भाषा के भी श्रेष्ठ विद्वान् माने जाते हैं। यही नहीं, ग्रन्थों, ग्रन्थकारों, संग्रहालयों के सम्बन्ध में तो इन्हें साहित्य का कोष भी कह सकते हैं । इनके सहयोग से पचासों छात्र शोध-प्रबन्ध पू र्ण कर पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। पचासों Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 295 पत्र-पत्रिकाओं में इनके 3,500 के लगभग लेख प्रकाशित हो चुके हैं। पच्चीसों पुस्तकों की इन्होंने भूमिकायें लिखी हैं और शोधपूर्ण अनेकों पत्रिकाओं के संपादक एवं परामर्शदातामण्डल में रह च के हैं। अर्थाभिलाषी होते हए भी साहित्य की प्रेरणा और सहयोग देने में सर्वदा अग्रसर रहते हैं। अगरचन्द्र जी द्वारा लिखित एवं संपादित पुस्तकें निम्नांकित हैं : विधवा कर्तव्य जसवंत उद्योत दानवीर सेठ श्री भैरूदान जी कोठारी का संक्षिप्त जीवन चरित्र राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, द्वितीय भाग, बीकानेर के दर्शनीय जैन मन्दिर श्रीमद देववन्द्र स्तवनावली छिताई चरित्र पीरदान लालस ग्रन्थावली जिनहर्ष ग्रन्थावली जिनराजसूरि कृति कुसुमांजली धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली प्राचीन काव्यों की रूप परम्परा सभा शृंगार भक्तमाल सटीक राजस्थानी साहित्य की गौरवपूर्ण परम्परा अष्ट प्रवचनमाता सज्झाय सार्थ ऐतिहासिक काव्य संग्रह शिक्षा सागर बी बी बांदी का झगडा रुक्मणी मंगल, इत्यादि श्री अगरचन्द्र जी और श्री भंवरलाल जी इन दोनों बन्धुओं द्वारा संयुक्त रूप में लिखित और संपादित पुस्तके निम्नलिखित हैं : युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह समयसुन्दर कृति कुसुमांजली युगप्रधान जिनदत्त सूरि बीकानेर जैन लेख संग्रह क्यांम खां रासा ज्ञानसार ग्रन्थावली पंच भावनादि सज्झाय सार्थ सीताराम चोपाई मणिधारी जिनचन्द्र सूरि दादा जिनकुशल सूरि रत्नपरीक्षा बम्बई चिन्तामणि पार्श्वनाथादि स्तवन पद संग्रह श्री नाहटाजी कई संस्थाओं से सम्मानित हो चुके हैं और इसी वर्ष 11 अप्रैल, 1976 को इन्हें अभिनन्दन ग्रन्थ भी भेंट किया जा चुका है। 72. भंवरलाल नाहटा श्री अगरचन्द जी नाहटा के भतीजे हैं। श्री भैरोदान जी नाहटा के पुत्र हैं किन्तु श्री भैरोदानजी के अनुज श्री अभयराज जी के दत्तक पुत्र हैं। वि. सं. 1968 में इनका जन्म हुआ। इनकी भी स्कूली शिक्षा कक्षा 5 तक की है। श्री अगरचन्द जी और भंवरलाल जी दोंनों न केवल सहपाठी मात्र ही रहे अपितु साहित्य के क्षेत्र में भी सर्वदा से एक-एक के पूरक रहे हैं। संग्रह, संपादन और लेखन आदि समस्त कार्यों में दोनों संयुक्त एवं सहयोगी के रूप में कार्य करते श्री भंवरलाल जी संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, अवधि, बंगला, गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषाओं में पारंगत, प्राचीन ब्राह्मी, कुटिल आदि यग की भाषाओं की सतत परि'वर्तित लिपियों की वैज्ञानिक वर्णमाला के अभ्यासी, मूर्तिकला, चित्रकला एवं ललित कलाओं के पारखी हैं। इनकी अभिरुचि प्रायः भाषा-शास्त्र और लिपि-विज्ञान में है। प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में पद्यात्मक स्फुट रचनायें भी करते हैं। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 इनके द्वारा स्वतन्त्र रूप से संपादित व विरचित पुस्तकों की तालिका इस प्रकार है :-- सती मृगावती राजगृह समयसुन्दर रास पंचक हम्मीरायण, उदारता अपनाइये पद्मिनी चरित चौपई सीताराम चरित्र विनयचन्द्र कृति कुसुमांजली जीवदया प्रकरण काव्यत्रयी सहजानन्द संकीर्तन बानगी पावापुरी श्री जैन श्वेताम्बर पंचायती मन्दिर, कलकत्ता का सार्द्ध शताब्द नाहटावंश प्रशस्ति (संस्कृत) अप्रकाशित साहित्य निम्नलिखित है :-- चन्द्रदूत कीर्तिकला (अनुवाद) द्रव्य परीक्षा (अनुवाद) नगरकोट प्रशस्ति (अनुवाद) अलंकार दप्पणं (अनुवाद) सागरसेठ चौपई । इनके अतिरिक्त इनकी शताधिक कहानियां, संस्मरण तथा फटकर मालोचनात्मक लेख अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आजकल आप 'कुशल निर्देश' मासिक पत्रिका का संपादन कर रहे हैं। 73. महोपाध्याय विनयसागर फलौदी (जोधपुर) निवासी श्री सुखलाल जी झाबक के घर सन् 1929 में इनका जन्म हुआ। बाल्यावस्था में ही इन्होंने खरतरगच्छीय श्री जिनमणिसागरसूरि जी के पास दीक्षा ग्रहण की। वैचारिक क्रांति के कारण सन् 1956 में साधवेष का त्याग कर गृहस्थ बने। शिक्षा के क्षेत्र में इन्होंने साहित्य महोपाध्याय, साहित्याचार्य, जैन दर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न (संस्कृत) और शास्त्र विशारद आदि उपाधियां प्राप्त की हैं। ये प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और गुजराती भाषा के विद्वान्, प्राचीन लिपि पढने में निपुण, जन साहित्य के अच्छे निष्णात और पत्रकार हैं। इनके गंवेषणा पूर्ण अनेकों लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इनके द्वारा सम्पादित व लिखित निम्न पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं: सनत्कुमारचक्रि चरित्र महाकाव्य संघपति रूपजी वंश प्रशस्ति नेमिदूत खरतरगच्छ का इतिहास हैमनाममालाशिलोषछ सटीक चतुर्विंशति जिन स्तवनानि महावीर षट् कल्याणक पूजा शासन प्रभावक प्राचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य वल्लभ भारती वृत्तमौक्तिक, अरजिनस्तव, प्रतिष्ठा लेख संग्रह प्रथम भाग, महोपाध्याय समयसुन्दर, चतुर्विंशति, जिनस्तुतयः भावारिवारण पादपूादि स्तोत्र संग्रह खंड प्रशस्ति टीकाद्वय सहित, खरतरगच्छ साहित्य सूची सौभाग्य पंचम्यादि संस्कृत पर्वकथा संग्रह 74. महताब चन्द खारेड इनका जन्म वि. सं. 1960 में जयपुर में हुआ। इनके पिता का नाम जौहरी सुजानमल जी खारेड श्रीमाल था। ये संस्कृत, हिन्दी और डिंगली (राजस्थानी Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 297 भाषा के अच्छे जानकार है। इनका 'जयपुर राज्य के हिन्दी कवि और लेखक, नामक वृहत निबन्ध 'हिंदी साहित्यकार परिचय' में प्रकाशित हुआ था। स्वर्गीय कविया बारहठ श्री मरारिदान जी के साथ इन्होंने 'बांकीदास ग्रन्थावली भाग 2-3, रघनाथ रूपक गीतां रो' और श्री उमरावचन्द जी जरगड के साथ 'ग्रानन्दघन ग्रन्थावली' का सम्पादन किया है। स्वतंत्र रूप से इन्होंने 'लावा रासा' का सम्पादन किया है। इस ग्रन्थ पर इन्हें नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा 'रत्नाकर पुरस्कार, एवं 'बलदेवदास पदक' प्रदान किया गया। इन्होंने स्फट पद्य भी प्रबर परिमाण में बनाये हैं। आजकल आप श्रीमाल संघ, जयपुर से सम्बन्धित इतिवृत्त के संग्रह में लगे हुए हैं। इनके अतिरिक्त वर्तमान समय में अनेकों विद्वान व लेखक हए हैं तथा विद्यमान हैं जिन्होंने बहुत कुछ लिखा है किन्तु उनका साहित्य सन्मुख न होने के कारण लिखने में असमर्थता है फिर भी कतिपय विद्वानों के नामोल्लेख किये साध वर्ग में विजय ललितसूरि, विजय सुशीलसूरि, विजय दक्षसूरि, विजय कलापूर्ण सूरि, माणकमुनि (कल्पसूत्र), मुनि महेन्द्रसागर (महेन्द्र विलास), मुनि कान्तिसागर (कान्ति विनोद) अादि की कई पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। साध्वी वर्ग में विचक्षणश्री अच्छी विदुपी साध्वी हैं। इनके गुणकीर्तनात्मक स्तवनादि प्राप्त है। इसी प्रकार साध्वी सज्जनश्री ने कतिपय स्तवनादि तथा कल्पसूत्र आदि 3-4 ग्रन्थों के अनुवाद किये है। इसी प्रकार उपासक वर्ग में जवाहरलाल नाहटा (भरतपुर) के कई समाज सुधार सम्बन्धी लेख, शुभकरणसिंह बोथरा (जयपुर) के दार्शनिक लेख, जीतमल लूणिया (अजमेर), सिद्धराज ढड्ढा (जयपुर), पूर्णचन्द्र जन (जयपुर), भूरेलाल बया (उदयपुर), फलचन्द बाफना (फालना) आदि के मानवता और गांधीवाद से प्रभावित लेख, केसरीचन्द भाण्डावत (अजमेर) के जीव-हिंसा विरोधी लेख, बलवन्तसिंह मेहता (उदयपुर) के खोजपूर्ण लेख, ताजमल बोथरा (बीकानेर), पानमल कोठारी (नागौर), पारसमल कटारिया (जयपुर), हीराचन्द वैद (जयपुर), गोपीचन्द धाडीवाल (अजमेर), हस्तिमल धाडीवाल (अजमेर), चांदमल सीपाणी (अजमेर) के धर्मसम्बन्धी लेख एवं पुस्तकें, राजरूप टांक (जयपूर). के जवाहरात पर लेख, देवीलाल सांभर (उदयपुर) और श्री कोमल कोठारी के राजस्थानी लोक कला और साहित्य सम्बन्धी लेख प्रकाशित हो चुके हैं। बुद्धसिंह बाफना (कोटा) ने अंग्रेजी भाषा में अनेकों दर्शनिक कविताओं की रचना की है। प्रसिद्ध इतिहासविद् डा. दशरथ शर्मा ने अनेकों जैन पुस्तकों की भूमिकाये लिखी हैं तथा जैन साहित्य एवं शिलालेखों पर कई शोधपूर्ण लेख लिखे है। जैन शिलालेख और मतिलेखों पर श्री रत्नचन्द्र अग्रवाल और श्री रामवल्लभ सोमानी ने भी अनेकों खोजपूर्ण लेख लिखे हैं। स्वर्गीय पं. श्री जयदयालजी शर्मा (बीकानेर) ने मंत्रराज गण कल्प महोदधि'पादि पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद किया था। उपसंहार 17 वीं शताब्दी से 20 वीं शताब्दी तक जिन श्वेताम्बर लेखकों द्वारा हिन्दी साहित्य लिखा गया वह हिन्दी के बढ़ते हुए विस्तार का सूचक है, क्योंकि उस समय तक राजस्थान के कुछ हिस्से को छोड़ कर अधिकांश भाग में बोलचाल की भाषा राजस्थानी ही थी। वैसे जैन कवियों ने प्रायः सभी भाषाओं और विषयों पर सर्व-जनोपयोगी साहित्य विपुल परिमाण में लिखा है और जहां तक श्वेताम्बर हिन्दी साहित्य का प्रश्न है उसमें भी काफी विविधता पाई जाती है। कुछ हिन्दी रचनायों में रचना-स्थान का उल्लेख न होने से वे राजस्थान में ही रची गई हैं ऐसा निर्णय नहीं हो सका, अत: उन रचनाओं को इसमें सम्मिलित नहीं किया जा सका है। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 कई जैन लेखकों की रचनाओं में खड़ी बोली की प्रधानता है तो कइयों में ब्रजभाषा की। कुछ रचनाओं की भाषा ऐसी भी है जिसे राजस्थानी प्रभावित हिन्दी या हिन्दी प्रभावित राजस्थानी कह सकते हैं। बहुत से जैन लेखकों ने प्राकृत, संस्कृत और राजस्थानी में रचना करने के साथ-साथ थोड़ी बहत रचनाएं हिन्दी में भी की हैं। भक्ति और अध्यात्म के पद अधिकांशतः हिन्दी में रचे गये, क्योंकि ध्रुपद शैली का काफी प्रभाव व प्रचार बढ चका था। इसी तरह नगर वर्णनात्मक गजलें प्रायः सभी एक ही शैली में खड़ी बोली में रची गई हैं। बावनी, बारहमासा आदि भी एक ही कवि ने राजस्थानी में बनाये हैं तो साथ-साथ हिन्दी में भी बनाये हैं। जैन साहित्य रचना का प्रधान लक्ष्य जनता के नैतिक स्तर को ऊंचा उठाने का रहा है इसलिये काव्यात्मकता को प्रधानता न देकर सहज और सरल शैली में अधिक लिखा गया है। जैन साहित्य के निर्माताओं में सब से बड़ा योग जैनाचार्यों और मुनियों का रहा है। वे अपने मुनिधर्म के नियमानुसार एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में विचरते रहते हैं। इसलिए बहुत से प्राचार्य और मुनि राजस्थान प्रदेश में जन्में अवश्य किन्तु गुजरात में अधिक विचरे। इस प्रदेश की जनभाषा राजस्थानी रही। पहिले राजस्थानी और गजराती दोनों एक ही भाषायें थीं। जब हिन्दी भाषा का प्रचार राजस्थान में अधिक होने लगा तब से प्राकृत, संस्कृत और गजराती ग्रन्थों का अनुवाद हिन्दी में होना प्रारम्भ हवा किन्तु जितना श्वेताम्बर साहित्य गुजराती में लिखा गया , उतना हिन्दी में नहीं लिखा गया। कुछ हिन्दी रचनायें अन्य प्रान्तों में विचरते हुए रची गई हैं और उधर से ही प्रकाशित हुई हैं, इसलिये ऐसी बहुत सी हिन्दी रचनायें इस निबन्ध में सम्मिलित नहीं की जा सकीं। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन कवि--3 --डा. इन्दरराज बैद काव्य की रमणीयता का आधार पाकर अध्यात्म सहज ग्राहय हो जाता है। चिंतन और प्रवचन साहित्य की ललित शैलियों में प्रवाहित होकर अपनी प्रेषणीयता को कई गुना बढ़ा देते हैं। यही कारण है कि भारतवर्ष के मनीषी संत-महात्माओं ने जन-जन तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए काव्य का सहारा लिया। भक्ति काल का साहित्य अपने अमूल्य संदेश और अप्रतिम प्रभाव के कारण ही आज तक स्वर्णिम साहित्य कहलाता है। संत और भक्त कवियों ने कविता के माध्यम से आत्मा-परमात्मा की और लोक-परलोक की गंभीर से गंभीर गुत्थियों को सुलझाने में ही अद्भुत सफलता प्राप्त नहीं की, सुललित सूक्तियों और मनोरम शब्द-चित्रों से नैतिकता और मानवीयता की महत प्रतिष्ठा भी की है। यही नहीं, अपने काव्य के सुरम्य प्रसूनों को वाग्देवी के चरणों में समर्पित करके अपने सजन-धर्म की मर्यादा का पालन भी किया है। साहित्य की आराधना आदिकाल से ही जैन संतों और विचारकों के साधक जीवन का अटूट अंग रही है। जैन अनुशासन की स्थानकवासी परंपरा ने भी अन्य परंपराओं की तरह संदेश-प्रेषण के लिए काव्य की शैली का समुचित उपयोग किया है। मूर्ति-पूजा और धार्मिक क्रिया-कांडों के विरोध में उत्पन्न हई स्थानकवासी परंपरा ने अनेक कवि-रत्नों को जन्म दिया है। स्थानकवासी मान्यता के संत कवि और श्रावक-साहित्यकार भक्तिकाल की उस संत-परंपरा के अधिक निकट पड़ते हैं, जिसने साकार ब्रह्म की अपेक्षा निराकार ब्रह्म का, भक्ति की अपेक्षा ज्ञान का और प्रतिमा-पूजार्चना की अपेक्षा मानवीय नैतिकता की प्रतिष्ठा का अधिक समर्थन और प्रतिपादन किया है। स्थानकवासी संप्रदाय के मल प्रेरक थे श्री लोकाशाह, जिन्होंने 1451 ई. में मूर्ति पूजा और अन्य बाह्य प्राडंबरों के विरोध में आवाज उठाई थी। राजस्थान में इस परंपरा को सुदृढ़ किया श्री जीवराज जी, हरजी, धन्नाजी, पृथ्वीचन्द जी, और मनोहरजी जैसे धर्मनिष्ठ प्राचार्यों ने। आज भी इन आचार्यों की अनुयायी शिष्य-परंपरा उन्हीं के पद-चिह्नों पर चलती हुई स्वर और लेखनी से मानवता के उद्धार का महामन्त्र फंकती जा रही है। जैन शासन को इस अद्भुत क्रांतिकारी मानवतावादी परम्परा ने विपुल मात्रा में साहित्य का निर्माण करके अध्यात्म की सारस्वत सेवा की है। __ राजस्थान के आधुनिक स्थानकवासी जैन कवियों की पंक्ति में गौरवपूर्ण स्थान है जैन दिवाकर मनि श्री. चौथमलजी का.जिन्होंने जैन धर्म के सिद्धांतों का प्रचार अपने प्रोजस्वी व्याख्यानों द्वारा तो किया ही.सूरम्य काव्य-रचना द्वारा भी उसे संभव कर दिखाया। अपने समय के इन तेजस्वी संत ने अपने समस्त प्रोज़ और माधुर्य के साथ धर्म की साधु व्याख्या की। धर्म, ईश्वर, कर्म, मन, आत्मा, ज्ञान, प्रार्थना, सद्गुरु, सत्संग, पुनर्जन्म, भक्ति, दान, शील, तप, भाव आदि तत्वों का सुन्दर और तात्विक विश्लेषण उनके 'मुक्ति-पथ' नामक काव्य-रचना में मिलता है। 'धर्म' और 'तीर्थ' के सम्बन्ध में ये काव्योक्तियां कितनी सही हैं:___"(अ) खा-पीकर के हम पड़े रहें, यह जीवन का है सार नहीं, बस जीवदया के तुल्य जगत में, अन्य धमे व्यापार नहीं। (आ) है माता पिता तीर्थ उत्तम, और तीर्थ ज्येष्ठ जो भ्राता है, सद्गुरु तीर्थ है पदे-पदे, बस यही तीर्थ सुखदाता है।" --(मुक्ति पथ, पृ. 8-9) Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 धर्म की यह वास्तविक परिभाषा कवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी की थी। उन्होंने भी कहा था-"परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।" 'गज़ल गुल मन बहार' और जन सुबोध गुटका' जैसे रमणीय मुक्तक संग्रहों से लेकर तीर्थ कर चरित्रों तक का प्रणयन दिवाकर मुनि की मर्मस्पर्शी लेखनी ने किया है। क्षेत्रीय भाषा राजस्थानी का स्पष्ट प्रभाव इनकी रचनाओं की भाषा और शैली पर दिखाई पड़ता है। ‘गजल गुल चमन बहार' में छोटी-छोटी गजलों के द्वारा उन्होंने जैन युवा समाज का उद्बोधन किया और शास्त्रों के संदेश को सरल और मध र भाषा में उन तक पहुंचाया। विभिन्न सामाजिक कुरीतियों और पतन की भूमिका तैयार करने वाली व्यक्तिगत कुप्रवृत्तियों पर भी उन्होंने भीषण प्रहार किया। अपने ग्राह वान पूर्ण शब्दों में उन्होंने समाज को कहा:-- "संतान का जो चाहो भला रंडी नचाना छोड़ दो, वद्ध-बाल विवाह बन्द करो, करके कुछ दिखलाइयो । फिजूलखर्ची दो मिटा, मुंह फूट का काला करो, धर्म जाति की उन्नति करके कुछ दिखलाइयो।" --(गज़ल गुल चमन बहार- पृ. 14) प्राचार्य श्री हस्तीमल जी म. जैन संस्कृति, साहित्य और इतिहास के प्रकांड पंडित, अनुसंधायक और विश्लेषक के साथ-साथ मधर कवि भी हैं, जिनकी कविता में आत्म जागति का संदेश है, सामयिक-स्वाध्याय की प्रेरणा है और जीवन-सुधार का निर्देश है। राजस्थानी मिश्रित हिन्दी में की गई उनकी काव्य सर्जना उद्बोधन के अनेक जीवंत प्रकरणों से समृद्ध है। "जग प्रसिद्ध भामाशाह हो गये लोक चन्द इस बार, देश धर्म अरु आत्म धर्म के हए कई अाधार । तुम भी हो उनके ही वंशज कैसे भूले आन ? कहां गया वह शौर्य तुम्हारा, रक्खो अपनी शान । --(गजेंद्र पद मुक्तावली, पृ. 4) गंभीर एवं उच्च कोटि के धर्म ग्रंथों के प्रणेता प्राचार्य हस्तीमलजी ने जैन समाज में स्वाध्याय का विलक्षण मंत्र फंका है जो घर-घर में घट-घट के लौकिक अंधकार को ध्वस्त करके अध्यात्म का अलौकिक आलोक बिखेर रहा है। 'स्वाध्याय सद्गुरु की वाणी है, स्वाध्याय ही आत्म कहानी है, स्वाध्याय से दूर प्रमाद करो स्वाध्याय करो, स्वाध्याय करो' जैसे सीधी सरल और प्रभावी वाणी से ओत प्रोत गीत आज उनके सहस्रों अनुयायियों के अधरों पर ही नहीं थिरक रहे हैं, बल्कि स्वाध्याय की कर्म प्रेरणा देकर उनके उद्धार का मार्ग भी प्रशस्त कर रहे हैं। आपने “जैन आचार्य चरितावली" में ढाई हजार वर्ष की जैन प्राचार्य परम्परा के संक्षिप्त इतिहास को राग-रागिनियों में बांधकर, उसे सरल बनाकर प्रस्तुत किया है। स्थानकवासी समाज में कविजी' के नाम से विख्यात उपाध्याय श्री अमर मुनि का राजस्थान से काफी पुराना और निकट का संबंध रहा है। यहां के संत और श्रावक समाज को आप सदैव प्रिय रहे हैं। अपनी वाणी के जादू और लेखन की चातुरी से कवि-कुल में श्री अमर मुनि ने अमिट यश अजित किया है। वे एक सह दय मरस गीतकार, भावक मक्तककार और सिद्धहस्त प्रबन्धकार के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी प्रमुख काव्य-कृतियां हैं-अमर पद्य मुक्तावली, अमर पुष्पांजलि, अमर कुसुमांजलि, अमर गीतांजलि, संगीतिका , कविता-कुंज, अमर-माधुरी, श्रद्धांजलि, धर्मवीर सुदर्शन और सत्य हरिश्चन्द्र । अंतिम दो प्रबन्धात्मक रचनाएं हैं। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 301 कविजी ने अपने काव्य की अभिधा में पोज, माधुर्य और प्रसाद का अद्भुत मिश्रण घोलकर उसे इतना सरस और रमणीय बना दिया है कि आज वह हजारों श्रोताओं और पाठकों के मानस में . धुल चुका है। इनकी कविता मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा तो देती ही है, जीवन जगत के वैविध्यपूर्ण वातावरण को उसकी संपूर्णता के साथ चित्रित कर मनुष्य को उसमें जीने की कला भी सिखाती है। कविजी मूलत: मानववादी चेतना के कवि है। आत्म विश्वास, आत्माभिमान, पूरुषार्थ और मानवीय गरिमा का स्वर उनकी कविताओं में अनेक स्थलों पर मुखरित हुआ है । यथा आत्म लक्ष्य से मुझे डिगाते हों अरबों प्राघात, बज्र-प्रकृति का बना हुआ हं क्या डिगने की बात ! स्वप्न में भी न बनूंगा हीन । ----- (संगीतिका , पृ. 168) अपनी प्रबन्धात्मक कृतियों में वे एक कुशल कथाकार और नाटककार के रूप में भी सामने आते हैं। उनके वर्णन की शैली इतनी विलक्षण है कि पाठक को यह पता नहीं चलता। वह काव्य पढ़ रहा है या देख रहा है। यही कारण है कि आज उनका 'सत्य-हरिश्चन्द्र' काव्य व्याख्यानों का गौरवमय विषय बना हुआ है। यों यह काव्य सत्य की महिमा-प्रतिपादन हेतु राजा हरिश्चन्द्र के चरित्र पर लिखा गया है, पर कवि ने इसमें तारा के चरित्र को उजागर करने में जो प्रयास किया है वह अद्भुत और स्तुत्य है। राज्य-त्याग के बाद अपने पति हरिश्चन्द्र के साथ चलने का आग्रह करती हुई तारा का भव्य चरित्र श्रद्धापूर्वक द्रष्टव्य है:-- कष्ट आपके संग जो होगा, कष्ट नहीं वह सुख होगा, और आपके पथक् रहे पर सुख भी मुझ को दुख होगा। बिना अापके स्वर्ग लोक को नरक लोक ही जानूंगी, किंतु आपके साथ नरक को स्वर्ग बराबर मानूंगी। सौ बातों की एक बात, चरणों के साथ चलंगी मैं, आप नहीं टलते निज प्रण से कैसे नाथ टलंगी मैं ? --(सत्य हरिश्चन्द्र, पृ. 89) भारतीय सहधर्मिणी अर्धा गिनी नारी का कितना तेजस्वी और पावन रूप उभरकर पाया है इन सीधी सरल पंक्तियों में । ऐसे भव्य, प्रेरक और पूज्य स्वरूपों को उभारने में सिद्धहस्त है कवि अमर मुनि । पूज्य धन्नाजी की परम्परा को गौरवान्वित करने वाले संत मरुधर केसरी श्री मिश्रीमल जी ने काव्य को मानों अपना अन्तरंग मित्र ही बना लिया है। वे जितने प्रखर संत है उतने ही प्रखर कवि भी है। जैन दर्शन के मिद्धांतों की सरल से सरल शब्दावली में उदाहरणपरक व्याख्या इनके काव्य की विशेषता है। जीवन की क्षणभंगरता को कितने सहज ढंग से विश्लेषित करते है मरुधर केसरी! यथा:-- तन धन परिजन मस्त जवानी बिजुरी के झबकार समानी मिट जासी मझधार, करै क्यों तौफानी ? ग्रौस बिंदु सम काया माया मान मान रे बादल छाया ज्यों पप्पल का पान, नमक जैसे पानी। --(मधुर स्तवन बत्तीसी, पृ. 4) Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 मरुधर केसरी ने विविध छंदों में अनेक काव्य रचनाएं की हैं। उनकी प्रमुख कृतियां हैं-बुध विलास, यशवन्त चरित्र, साध्वी रत्नकुंवर, कविता-कुंज, मधुर स्तवन-बत्तीसी, मनोहर मंगल प्रार्थना, भक्ति के पुष्प, मनोहर फूल, मधुर शिक्षा, संकल्प विजय, मधुर दृष्टान्त मंजूषा आदि। 'संकल्प विजय' में उनके पांच स्फुट काव्य संगृहीत हैं, जिनमें चेलना, समरसिंह, नंदशाह, स्थूलिभद्र और शीलसिंह के चरित्रों को उजागर किया गया है। काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से 'स्थूलिभद्र' काफी सशक्त और रमणीय रचना है जिसमें स्थान-स्थान पर उनका कला-प्रिय, कवि-रूप उभर कर आया है। अनुप्रास मरुधर-केसरी का प्रिय अलंकार है। इसकी एक छटा देखिए-- भव जल तरणी करणी वरणी शांत सूधा रस झरनी है। वेतरणी हरणी अग जरनी गुरु भक्ति चित्त भरनी है ।। --(वही, पृ. 8) मरुधर केसरी जी ने अनेक छंदों का प्रयोग किया है-जैसे दोहा, चौपाई, छप्पय, कंडलिया ग्रादि । मख्य रूप से इनकी भाषा राजस्थानी है। विहारी के दोहों की इनके दोहे भी गंभीर भावों से भरे हैं। दृष्टान्तः उनके 'वचन महिमा' से संबंधित दोहे देखे जा सकते हैं। एक दोहे में वे वचन की तुलना सधवा के सिन्दूर से करते हैं। जिस प्रकार सिंदूर सधवा के ललाट की अक्षर शोभा है, उसी प्रकार वचन दढ़-प्रतिज्ञ लोगों की अक्षर शोभा है। सधवा सिंदूर नहीं त्यागती, उसी प्रकार वचन का परित्याग भी सत्पुरुष नहीं करते । यथा-- गुनिजन, मुनिजन, वीरजन, वचन विसारे नांय । जिमि सधवा सिंदूर की, टीकी भाल सुहाय ।। --(मधुर शिक्षा, पृ. 16) श्री गणेश मुनि शास्त्री स्थानकवासी कवि-समाज के एक सम्माननीय हस्ताक्षर हैं जिन्होंने प्राचीन और अधुनातन काव्य-शैलियों का सफल प्रयोग करके अपने कौशल का सुन्दर परिचय दिया है। जैन-जगत् में वे एक गढ़ चिन्तक, मध र व्याख्यानी और सहृदय कवि के रूप में विख्यात हैं। वे सन्त पहले हैं, कवि बाद में। उनका संत-रूप जितना दिव्य है, कवि रूप भी उतना ही भव्य है। उनकी अपनी मान्यता है कि संत हुए बिना कोई कवि नहीं हो सकता। संत हृदय अर्थात् सदाशयता, शालीनता, सच्चरित्रता और मानवता से युक्त हृदय ! सत्साहित्य का सजन संत-कवि ही कर सकते हैं। अभद्र साहित्य का निर्माण करने वाले संत हो ही नहीं सकते। (दे. डा. रामप्रसाद द्विवेदी कृत श्री गणेश मुनि शास्त्री : साधक और सर्जक, पृ. 111) इनकी प्रमुख काव्य रचनाएं हैं--गणेश गीताजंलि, संगीत-रश्मि, गीत-झंकार, गीतों का मधुवन, महक उठा कवि-सम्मेलन, वाणी-वीणा, सुबह के भूले और विश्व ज्योति महावीर (प्रबंध)। सीधी और सरल भाषा का उन्होंने सदैव प्रयोग किया है, क्योंकि उनकी मान्यता है कि इससे जन-मानस भाषा के जटिल शब्द-जाल में न उलझ कर कविता की आत्मा से सीधा संबंध स्थापित कर सकेगा। जीवन और जगत् की निस्सारता के बारे में उनके ये सूक्त्यात्मक विचार कितने जीवन्त हैं:-- (अ) “भाग्यवान इतरा मत इतना, नहीं समय रहता इक सा। देख सूर्य के तेजस्वी की होती दिन में तीन दशा ॥" -~(वाणी-वीणा, पृ. 43) Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 303 ( आ ) " पल-पल में यहां मधुर मिलन, पल-पल में यहां बिछुड़ना है । जग ग्रांख मिचौनी की क्रीड़ा, खिलना और सिकुड़ना है ।" - ( वही, पृ. 46 ) संसार को असार मानने वाले जैन कवियों की रचनाओं में स्वाभाविक रूप से ऐसे स्थल कम मिलेंगे, जिसमें कल्पना और रमणीयता अपेक्षाकृत अधिक पायी जाती हो । धर्म की मर्यादा में बंधा जैन कवि मुक्तक रचनाओं में हरी भरी प्रकृति की रमणीयता का वर्णन यदाकदा ही कर पाता है । श्री गणेश मुनि इसके अपवाद हैं । कवि की लेखनी ने प्रकृति के मनोहारी बिंब उभारे हैं । एक छटा द्रष्टव्य हैः- "चांद सितारे नभ प्रांगण में पुलक पुलक रस नाच रहे, फलित पादपों की डाली पर लचक लचक खग नाच रहे । सागर के वक्षस्थल पर यह मादक लहरों का अभिनर्तन, fee प्रत्याशित अतिथि के आने का है मौन निमंत्रण ।” --- (वही, पृ. 165 ) गणेश मुनि ने नयी शैली में भी रचनाएं की हैं। नयी कथात्मक शैली में लिखी गई रचनाएं 'सुबह के भूले" नामक संग्रह में संकलित हैं । इन कविताओं में उन्होंने प्ररणक, रथनेमि, आषाढ़ भूति,, बाहुबलि, गौतम, कपिल, त्याग-भद्र, अर्जुनमाली, चन्दनबाला, आदि के उदात्तजीवन-प्रसंगों को प्रभावकारी ढंग से उजागर किया है । सम्राट दशार्णभद्र को श्रमण के वेश में देख कर दर्पोद्धत देवराज इन्द्र भी पानी-पानी हो गए और कहने लगे- "संसार के वैभव को दे सकता है चुनौती इंद्र पर त्याग के ऐश्वर्य से टकराने का नहीं है सामर्थ्य उसमें, आध्यात्मिक बल समक्ष टिक नहीं सकती देव शक्ति एक पल भी, -- ( सुबह के भूले, पृ. 62-63) राजस्थान की स्थानकवासी जैन परम्परा के पोषक आधुनिक हिन्दी कवियों में मुनि श्री महेन्द्रकुमार 'कमल' का नाम बड़े आदर और गौरव के साथ लिया जाता है । 'विधि के खेल, भगवान् महावीर के प्रेरक संस्मरण, मन की वीणा, मन के मोती, प्यासे स्वर, प्रादर्श महासती राजुल, फूल और अंगारे, प्रकाश के पथ पर' आदि अनेक काव्य-कृतियों के माध्यम से प्राध्यात्मिकता, नैतिकता और मानवीयता की त्रिवेणी प्रवाहित करने वाले इस प्रोजस्वी संत कवि ने हिन्दी का अलख जगाने का साधु प्रयास भी किया है। इनकी कविताओं में जहां एक ओर अध्यात्म-सुरभि से परिपूर्ण सुमनावलियों के दर्शन होते हैं। से श्रोतप्रोत शब्दों के अंगारे भी दमकते हुए दिखाई पड़ते हैं। यह है आह्वानः- वहां उद्बोधन के श्रोज चुनौतीपूर्ण शब्दों में उनका जड़ सिद्धांतों की लाशों का कब तक भार उठाओगे, परित्याग ही श्रेष्ठ श्रन्यथा मिट्टी में मिल जाओगे । ओ प्रतीत में रमने वालो, वर्तमान भी पहचानो, सोचो, समझो, भांखें खोलो, केवल अपनी मत तानो । उठो साथियों, गलत रूढियां कब तक कहो, करोगे सहन, एक नया परिवर्तन ला दो या फिर लो चूडियां पहन ।" - ( मन के मोती, पृ. 96 ) Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 सामाजिक कुरीतियों और शोषण के आधारभूत कारणों पर इस संत-कवि की लेखनी ने कठोर प्रहार किए हैं। दहेज, बाल-विवाह, छाछत, जाति-भेद, शोषण, काला-व्यवसाय, परिग्रह जैसी रूढ़ियों और प्रवत्तियों पर कवि ने सैकड़ों रचनाएं की हैं। इन रचनायों ने समाज की विचारधारा को ही प्रभावित नहीं किया, उसे बहुत कुछ मोड़ा भी है। 'जीवन में यदि आचार न हो तो विचार किस काम का? कर्म की प्रवृत्ति न हो तो ज्ञान के संग्रह का क्या लाभ ?' (मन के मोती, पृ.93) कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहने का भाव तो उनकी रचनाओं में सर्वत्र ही देखा जा सकता है। आधुनिक युग विज्ञान का युग है, भौतिक उन्नति और उपलब्धियों का युग है। इसे नकारा नहीं जा सकता। जैन साधु भी वर्तमान जीवन की इस वस्तुस्थिति की उपेक्षा नहीं करते, परन्तु वे ऐसे विज्ञान का कभी समादर या समर्थन नहीं कर सकते, जिसमें धर्म की प्रेरणा के लिए किंचित् भी अवकाश न हो। ऐसे विज्ञान से मनुप्यता के कल्याण की कामना नहीं की जा सकती। कवि ने कितने प्रभावी ढंग से अपने इस दष्टिकोण को अभिव्यक्त किया है : "धर्म शून्य विज्ञान प्रेम के पुष्प न कभी खिला सकता, विद्युत दे सकता किन्तु मैत्री के दीप न कभी जला सकता।" --(मन के मोती, पृ. 66) कर्मवाद जैन दर्शन का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। मानव-जीवन की नियति कर्माधीन है। कर्म ही सुख के आधार हैं और कर्म ही दुःख के कारण होते हैं। शुभ और अशुभ कर्म ही जीवन में उजियाली और कालिमा लाते रहते हैं। मानव का उद्धार या जीवात्मा की मक्ति तब तक संभव नहीं होती जब तक कि उसके सब कर्म, शभ-अशभ, क्षय नहीं हो जाते । जिस क्षण ऐसा होता है, व्यक्ति व्यक्तित्व बन जाता है व आत्मा परमात्मा में बदल जाती है। परन्तु जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक तो मनुष्यों को अपने कर्मानसार सुख-दुःख के साथ प्रांखमिचौनी करनी ही होती है। मानव जीवन के इस सत्य को व्यक्त करते हैं मुनि महेन्द्र 'कमल' इन शब्दों में:-- "पूर्व जन्म के शुभ कर्मों से कोई मार नहीं सकता, अशुभ कर्म हों यदि प्राणी के, कोई तार नहीं सकता। भोग बिना कर्म फल, सुनिए होता नहीं भव-भ्रमण विनाश, यहां कर्म ही सूख पहंचाते और कर्म देते संत्रास ।" --(भगवान महावीर के प्रेरक संस्मरण, पृ. 14) समाजोद्धारक जै. रत्न दिवाकर मुनि श्री चौथमलजी की शिष्य-परम्परा में अनेक कवि-रत्न हैं। उनमें उल्लेखनीय हैं श्री केवल मनि। अपने गुरु की भांति ही इन्होंने भी समाज के हर अंग के संपूर्ण विकास के लिए उद्बोधन दिया है, साहित्य-सृजन किया है । इनके कवि-रूप में इनका गायक-रूप पूरी तरह घुला हुआ है । इनकी माधुर्य-युक्त वाणी समाज के लोगों पर जादू सा असर डालती रही है। इनकी रचनाएं गेय होने के कारण अधिक लोकप्रिय और ग्राह्य सिद्ध हुई हैं। इनकी मुख्य रचनाएं हैं--मेरे गीत, कुछ गीत, मधुरगीत, सुन्दरगीत, सरस गीत, गीत लहरियां, गीत सौरभ, महकते फूल, मेरी बगिया के फूल, वीरांगद सुमित्र-चरित्न, गीत-गुजार ग्रादि। इनकी कविताओं की भाषा सीधी सरल हिन्दी है। जैन धर्म के सिद्धान्तों के प्रचार के साथ-साथ इनकी रचनाओं में समाजोद्धार और राष्ट्रोत्थान का स्वर भी मुखरित हुआ है। राष्ट्र की महत्ता स्वीकारते हुए वे कहते हैं:--- “कुटुम्ब व्यक्ति से ऊंचा है और जाति कुटुम्ब से बढ़ कर । प्रान्त जाति से ऊपर लेकिन राष्ट्र पर सब न्योछावर ।" -(गीत-गुंजार, पृ. 212) Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 305 केवल मुनि की गीतात्मक पंक्तियों में पर्याप्त भाव निहित रहता है। अपनी बात को समझाने का उनका अपना विशिष्ट ढंग है। वे ऐसे दृष्टान्त या उपमान चुनते हैं जिनका प्रभाव सीधा और गहरा पड़ता है। प्रस्तुत उद्धरणों में से एक में उन्होंने चिन्ता को ऐसा बोझा माना है, जिसे ढोने पर कोई मजदूरी मिलने की संभावना नहीं है और दूसरे में वे काले धन को ऐसी कागज की नाव मानते हैं, जिसके गलने में कोई आशंका नहीं की जा सकती। कितने स्पष्ट पर गहन अर्थ से पूर्ण हैं ये काव्यांश :-- ) सिर पं लगालो प्रानन्द की रोली, फेंक दो साथी चिन्ता की झोली. जिसकी मज़दूरी भी मिले नहीं, ऐसे भार को ढोना क्या ? --(कुछ गीत, पृ 15) (आ) पापों की पूंजी प्यारे, पचती नहीं कभी भी, कागज़ की नाव पल में डूबेगी, जब गलेगा।" --(गीत-गुंजार, पृ. 56) स्थानकवासी जैन परम्परा के कवियों की पंक्ति में कुछ और भी उल्लेखनीय हस्ताक्षर हैं, जैसे रमेश मनि, सुभाष मनि, अशोक मनि और मल मनि। मेवाड़ भषण श्री प्रतापमल के शिष्य रत्न श्री रमेश मुनि एक उदीयमान कवि हैं। “बिखरे मोती, निखरे हीरे" उनकी महत्वपूर्ण काव्य कृति है, जिसमें उनकी काव्य सृजन प्रतिभा के संकेत मिलते हैं। उन्होंने अपने ढंग से अत्यन्त सरल भाषा में वैराग्य शतक, सतयुग शतक, और कलयुग शतक की रचना की है। सौ-सौ छंदों में उन्होंने सतयुग और कलयुग की प्रवृत्तियों का सुन्दर चित्र समुपस्थित किया है। इसी प्रकार वीर-गण इक्कीसी, पर्व इक्कीसी और प्रार्थना पच्चीसी उनक आध्यात्मिक भावों से ओत-प्रोत सुन्दर रचनाएं हैं। जैन दिवाकर मनि श्री चौथमलजी की शिष्य परम्परा में श्री सुभाष मुनि और श्री अशोक मुनि ने भी अनेक रचनाएं लिखी हैं। इन कवि-द्वय ने संगीत का अधिक सहारा लिया है। इनके गीतों में जहां आध्यात्मिक प्रकाश की झलक है, वहीं सामाजिक उद्धार के स्वर भी विद्यमान हैं। नवकार चालीसा, जिन-स्तुति -- और संगीत संचय के रचयिता श्री अशोक मनि की ये मानवतावादी पंक्तियां द्रष्टव्य हैं : "सूरज सब के घर जाता, पानी सब की प्यास बुझाता, पवन जगत के प्राण बचाता, धरती तो है सबकी माता, इसपै कोई अधिकार जताए कैसा है अज्ञान ! मानव मानव एक समान । --संगीत संचय, पृ. 15) श्री मल मुनि ने “समरादित्य चरित्र, कुवलयमाला-चरित्र, अजापुन चरित्र, अम्बड चरित्र' आदि प्राचीन कथानों को लेकर लघ चरित काव्य लिखे हैं। "अपना खे चरित काव्य लिखे हैं । “अपना खेल : अपनी मुक्ति” गौतम पृच्छा के ढंग पर लिखी गई कृति है जिसमें अच्छे-बुरे कर्म के पुण्यफलपापफल की प्रश्नोत्तर शैली में विवेचना की गई है। श्रमणों की भांति काव्य के क्षेत्र में जैन श्रावक कवियों का भी अमूल्य योगदान रहा है। वर्तमान काल में सैकड़ों ऐसे काव्यधर्मी साहित्यिक हैं जिन्होंने अपनी शब्द साधना से धर्म और समाज की महनीय सेवा की है। ऐसे श्रमणेतर श्रावक कवियों में श्री नैनमल जैन का नाम आदर के साथ लिया जा सकता है। जालोर जिले में साहित्य की दिव्य ज्योति को अपनी मूक गम्भीर साधना से प्रदीप्त रखने वाले नैनमल जैन ने करुणा सिंध नेमिनाथ और Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 पतिव्रता राजल, पंचवर्णा, पवनांजना, विधुवन और नैन-काव्य-संग्रह जैसी अभिराम काव्य कृतियों के माध्यम से स्वधर्म और स्वभाषा के प्रति जो श्रद्धा-सेवा अर्पित की है, वह स्तत्य है। कवि ने द्विवेदीकालीन इतिवत्तात्मकता को उसकी समस्त सरसता और रोचकता के साथ जीवित रवखा है। इस संदर्भ में उनका खण्ड-काव्य 'पवनांजना' विशेष रूप से उल्लेख्य है। सती अंजना के महिमामय चरित्र को उजागर करने वाली यह छोटी सी प्रबंधात्मक काव्य रचना हिन्दी साहित्य की एक सरस और प्रभावी कविता है। यद्यपि कवि ने यत्र-तत्र वर्णनों में पारम्परिक प्रतीकों और शैली को अपनाया है, पर प्रस्तुति इतनी सुगठित और ललित है कि वह नवता का रमणीय आनन्द भी प्रदान करती चलती है। काव्य में अंजना का सौंदर्य-वर्णन हो अथवा विरह-वर्णन, दोनों ही स्थितियों में कवि ने पारम्परिक शैली का निर्वाह किया है। प्रकृति के वे सारे उपादान जो संयोग में सुख कर लगते हैं, विरह काल में असीम दःख के कारण बन जाते हैं। विरहिणी अंजना की दशा भी वैसी ही है जैसी सूर, जायसी और बिहारी की नायिकाओं की रही है । यथा-- "कोकिल का स्वर कट लगता था जला रहे थे पुष्प पलाश मकूलित आम्र टीसता मन को, विष-सा दाहक था मधमास । ज्येष्ठ मास की ल सम उसको तपा रही थी शीत बयार, कर्णपुटों को कटु लगती थी मधुर मधुकरों की गुंजार ।" ---(पवनांजना, पृ. 57) 'पवनांजना कर्मवाद पर आधारित काव्य-रचना है। प्रथम रात्रि को पति की स्नेहानुकम्पा से वंचित रह जाना, बारह वर्षों तक वियोग की अग्नि में जलते रहना. फिर प्रियसमागम का सूख उपलब्ध होना, गर्भवती होने के पश्चात् सास-ससुर और माता-पिता के घर से लांछित होकर निकाला जाना, अन्त में प्रियतम का स्थायी रूप से मिल जाना--ये सब अंजना के लिए कर्म के ही खेल थे। यथा-- कर्म सत्र से बंधे हए सब कठपुतली से करते खेल. किसके लिए रुदन व्याकुलता किसके लिए शत्रता मेल ? रे मन निस्पृह होकर झेलो, जो कुछ है कर्मों का खेल, है प्रतिरोध अशक्त, अतः मन कैसा मीन और क्या मेष ।" --(वही, पृ. 51) डा. नरेन्द्र भानावत मानवतावादी विचारधारा के कवि हैं, जिनकी रचनाओं में आशा, विश्वास, कर्म, पुरुषार्थ और मानवादर्श के तत्वों का जीवन्त समुच्य मिलता है । अनेक साहित्यिक और धार्मिक ग्रंथों के लेखक-संपादक डा. भानावत की दो काव्य पुस्तके उल्लेख नीय हैं ----"एक -पादमी, मोहर और कूर्सी" तथा दूसरी "माटी-कुंकुम" | "ग्रादमी, मोहर. और कर्सी" में उनकी नयी काव्य शैली में लिखी गई यथार्थपरक रचनाएं संग्रहीत हैं और "माटी कंकम" में उनकी मानवतावादी रस-प्रधान रचनाएं संकलित हैं। प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने करुणा, प्रेम, श्रम, मानवीय गरिमा और धामिक रूढ़ियों की निरर्थकता को सुन्दर ढंग से रूपायित किया है:-- यदि नहीं पांव की धलि भाल पर चढ़ा सके, यदि नहीं किसी की पीड़ा को उर बसा सके, श्मशानों में जलने वाली चीत्कारों को, Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 307 यदि नहीं प्रेमकी जलधारा में बहा सके, तो गंगा में डुबकी लेने से क्या होगा ? तुम श्रम की पावन बन्दों में गोते खाओ । होगा पाषाणों के पूजन-अर्चन से, मानव मूरत जब तक मन में नहीं बसायो । क्या - ( माटी कुंकुम, पृ. 17 ) श्री शोभाचन्द्र भारिल्ल का भी कविता के क्षेत्र में प्रशंसनीय योगदान है । अपने “भावना” नामक काव्य संग्रह में वे एक सशक्त और प्रभावशील कवि के रूप में समक्ष प्राते हैं । स्व, संवर, निर्जरा, लोक आदि तत्वों का उन्होंने सुन्दर ढंग से काव्यात्मक विश्लेषण किया है। इनकी कविताओं में कर्मचालित नियति की चर्चा अनेक स्थानों पर देखी जा सकती है । अपने एक छन्द में उन्होंने कर्म को मदारी और जीवों को बन्दरों का प्रतीक बना कर कर्मवाद की स्थापना को रूपकात्मक ढंग से चित्रित किया है: "कर्म और कषायों के वश होकर प्राणी नाना, कायों को धारण करता है तजता है जग नाना, है संसार यही, अनादि से जीव यहीं दुख पाते, कर्म मदारी जीव वानरों को हा, नाच नचाते ।" -- ( भावना, पृ. 7) उपर्युक्त कवियों के प्रतिरिक्त श्रमणवर्ग और गृहस्थवर्ग में अनेक कवि हैं जो समयसमय पर अपनी काव्याराधना से मां भारती का भण्डार समृद्ध कर रहे हैं । श्रमण वर्ग के कवियों में सर्वश्री सूर्य मुनि, मधुकर मुनि सौभाग्य मुनि 'कुमुद', उमेश मुनि 'अणु', सुमेर मुनि, मदन मुनि 'पथिक', भगवती मुनि 'निर्मल', मगन मुनि 'रसिक', रजत मुनि, सुकन मुनि, रमेश मुनि, अजित मुनि 'निर्मल', रंग मुनि, अभय मुनि, विनोद मुनि, जिनेन्द्र मुनि, हीरा मुनि 'हिमकर', वीरेन्द्र मुनि, राजेन्द्र मुनि, शांति मुनि, पारस मुनि यादि तथा गृहस्थ वर्ग के कवियों में सर्व श्री डा. इन्दरराज बैद'], सूरजचन्द सत्यप्रेमी ( डांगीजी), पं. उदय जैन, रत्नकुमार जैन 'रत्नेश,' दौलतरूपचन्द भण्डारी, जीतमल चौपड़ा, ताराचन्द मेहता, डा. महेन्द्र भानावत, चम्पालाल चौरड़िया, विपिन जारोली, हनुमानमल बोथरा, मदनमोहन जैन 'पवि', जितेन्द्र धींग आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि राजस्थान की स्थानकवासी जैन परम्परा ने हिन्दी साहित्य क्षितिज पर ऐसे अनेक नक्षत्रों को प्रस्तुत किया है जिन्होंने अपनी शब्द - साधना के ग्रालोक से धर्म और समाज के अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त किया है । इन कवियों की काव्य-साधना के मुख्यतः दो लक्ष्य रहे हैं-- एक, अपनी विचारधारा का पोषण और दूसरा हिन्दी की सेवा । प्रस्तुत लेख में विवेचित कवि इन दोनों ही लक्ष्यों की पूर्ति में लगे हुए शताधिक कवियों का प्रतिनिधित्व करते हैं । ये केवल स्थानकवासी चिन्तन को ही व्याख्यायित- प्रतिपादित नहीं करते, हिन्दी कविता की विविध शैलियों, प्रयोगों और आयामों का भी स्वरूप दर्शन कराते हैं । 1 इस लेख के लेखक डा. इन्दरराज बैद प्रोजस्वी कवि होने के साथ-साथ सुधी समीक्षक और प्रबुद्ध विचारक भी हैं। "राष्ट्र मंगल" नाम से इनका एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है । इसमें कवि की मानवतावादी राष्ट्रीय भावना की संपोषक, लोकमंगलवाही 41 कविताएं संग्रहीत 1 आवेगमयी भाषा और उद्बोधन भरा जागृति स्वर इन कविताओं की मुख्य विशेषता है । -संपादक । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन काव्य-4 -डॉ. मूलचन्द सेठिया प्राचार्य भीखणजी द्वारा प्रवर्तित तेरापंथ की साहित्य साधना के अनेक आयाम हैं, जिनमें हिन्दी काव्य-रचना नवीनतम और अन्यतम है। प्रथमाचार्य भीखणजी और चतुर्थ प्राचार्य जीतमलजी राजस्थानी भाषा के महान कवि थे, जिन्होंने दर्शन और अध्यात्म के निगूढ तत्वों को काव्य के कलात्मक परिधान में जन-मन के सम्म ख उपस्थित किया था। उनके काव्य में प्रबोधन के स्वर है, जो व्यक्ति को प्रमाद से मुक्त कर आध्यात्मिक जागरण के नव-प्रभात में प्रांखें खोलने के लिए प्रेरित करते हैं। संस्कृत काव्य-रचना का श्रीगणेश जयाचार्य के युग में हो गया था, यद्यपि इस धारा का वेगमय प्रवाह अष्टमाचार्य काल गणी के युग में दृष्टिगोचर होता है। परन्तु, हिन्दी काव्य-रचना का प्रारम्भ तो वर्तमान प्राचार्य तुलसी गणी की प्रेरणा से विक्रम की इक्कीसवीं शताब्दी के साथ ही हमा है। प्राचार्य श्री तुलसी की प्रेरणा और प्रोत्साहन से ही तेरापंथ के साधु और साध्वी या समाज में अनेकानेक लब्धप्रतिष्ठ कवियों का साहित्य सृजन उपलब्ध होता है। आचार्यप्रवर ने हिन्दी को कई महत्वपूर्ण काव्य ही नहीं दिए हैं, अनेक प्रतिभाशाली कवि भी प्रदान किए हैं। प्राचार्य श्री तुलसी के काव्य-सजन को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम प्रबन्ध-काव्य (जिनमें 'भरतमुक्ति' और 'आषाढभूति' प्रधान हैं) और द्वितीय मुक्तक रचनाएं जो अणुव्रत गीत' में संकलित हैं। 'भरत मुक्ति' प्राचार्य श्री तुलसी का प्रथम प्रबन्ध काव्य है। आपके ही शब्दों में प्रस्तुत काव्य-निर्माण के मख्यतया दो उद्देश्य थे-1. साध-संघ में हिन्दी काव्य की धारा को प्रवाहित करना, 2. ऋषभपुत्र भरत चक्रवति को काव्य-शैली में प्रस्तुत करना।' भरत और बाहुबली का युद्ध एक ऐसा कथावृत्त है, जो पूर्णतया इतिहाससिद्ध नहीं होते हुए भी अपने आप में भारतीय समाज-विकास के अनेक सूत्रों को समेटे हुए है। यह प्रबन्ध-काव्य तेरह सर्गों में विभक्त है और इसमें शान्त, वीर, रोद्र और बीभत्स आदि अनेक रसों का पुष्ट परिपाक हुआ है। इसमें जहां एक ओर राजप्रासादों में चलने वाले छल-छन्दों का चित्रण किया गया है, वहां दूसरी ओर वन्य जीवन की शान्त मधुरिमा भी शब्दों में साकार हो गई है। तेरहवें सर्ग में भरत का चरित्र शरदाकाश की भांति नितान्त निर्मल होकर निखर उठा है, परन्तु पूर्ववर्ती सर्गों में जीवन के अनेक प्रारोहों और अवरोहों का सविस्तार वर्णन किया गया है। इस काव्य में जीवन की विविधता, विपूलता और विराटता का अद्भुत संगम हुआ है। यद्ध-वर्णन में कवि की लेखनी ने कहीं-कहीं काव्योत्कर्ष के उत्कृष्ट उदाहरण उपस्थित किये हैं । क्रोधोद्धत बाहुबली का यह चित्र अपने आप में अपर्व है मंदराद्रि विचलित हुआ अविचल धृति को छोड़ मानो अम्बुधि अवनि पर झपटा सीमा तोड़ । महा भयंकर रूप से प्रकुपित हुआ कृतान्त लगता ऐसा सन्निकट है अब तो कल्पान्त । 'आषाढभूति' एक चरितात्मक प्रबन्ध-काव्य है। प्राचार्य आषाढभूति, जिनकी वक्तृता के प्रभाव से उज्जयनी नगरी झूम उठी थी, परिस्थितियों की विडम्बनावश छह सुकुमार बालकों का वध कर डालते हैं। अन्ततः उनका प्रिय शिष्य विनोद देवयोनि से पाकर अपने पथभ्रष्ट गुरु को Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 309 प्रबोधित करता है और उनकी विचलित आस्तिकता को पूनः प्रतिष्ठित करता है। 'आषाढभूति के सम्पादकों ने इसे 'नास्तिकता पर आस्तिकता की विजय का अभिव्यंजक प्रबन्ध काव्य' कहा है, जो उचित ही है। तात्विक विषयों के प्रतिपादन में कवि ने कहीं-कहीं दार्शनिक की मुद्रा धारण कर ली है। प्राचार्य श्री तुलसी के ये दोनों प्रबन्ध-काव्य सामान्य प्रबन्ध काव्यों से भिन्न कोटि इनमें साहित्यिकता की अपेक्षा लोकतात्विकता का प्राधान्य है। इनकी रचना नाना रागोपेत गीतिकात्रों के संकलन के रूप में की गई है। ये काव्य पाठय से अधिक गेय हैं और इनमें वैयक्तिकता की अपेक्षा सामहिकता का स्वर अधिक प्रबल है। 'अणुव्रत गीत' में अनेक शैलियों और रागिनियों में लिखी हुई बहुविध गीतिकाएं संकलित है। केवल साहित्यिक दष्टि से इनका मूल्यांकन करना असमीचीन होगा क्योंकि ये स्पष्टतः जन-जागरण एवं नैतिक प्रबोधन के प्रचारात्मक उद्देश्य से लिखी गई है। फिर भी, कतिपय गीतिकाओं में भावना और अभिव्यंजना का स्वाभाविक सौन्दर्य दृष्टिगत होता है । यथा :-- छोटी-सी भी बात डाल देती है बड़ी दरारें, गलतफहमियों से खिच जाती प्रांगन में दीवारें। इसका हो समुचित समाधान तो मिट जाए व्यवधान रे। बड़े प्रेम से मिल जुल सीखें मंत्री मंत्र महान् रे । प्राचार्य प्रवर ने अनेक गीतिकाओं में अपने आराध्य देवों के प्रति भावभरी श्रद्धांजलियां अर्पित की हैं। वस्तुतः प्राचार्य श्री तुलसी कवि होने के पूर्व एक युगप्रधान धर्माचार्य, महान् अध्यात्म-साधक और नैतिक जागरण के अग्रदत हैं। भरतमक्ति की भमिका में आपने लिखा भी है ‘कविता की प्रसन्नता का प्रसाद पाने के लिए मैंने कभी प्रयत्न नहीं किया, उसका सहवतित्व ही मुझ हितकर लगा ।' ‘ार पार' में संकलित सेवाभावी म नि श्री चम्पालालजी की अधिकांश रचनाएं राजस्थानी भाषा में हैं। परन्तु, इस संकलन में कतिपय हिन्दी रचनाएं भी हैं। चम्पक मनि की रचनाओं में उनका सरल-निश्छल व्यक्तित्व प्रतिबिम्बित हुआ है। अभिव्यक्ति की सरलता में भी एक स्वाभाविक सुन्दरता है: उच्च शिखर से गल-गल कर, कल-कल कर निर्झर बहता बुरा-भला यश-अपयश सुनता, विविध ठोकरें सहता। तुम करो न मन को म्लान, मिलेंगे प्यासों को प्रिय प्राण नीर ! तुम ढलते ही जाग्रो ॥ मनि श्री नथमलजी जैन दर्शन के एक दिग्गज विद्वान और महान अध्यात्म-साधक हैं। उन्होंने धर्म, दर्शन, अध्यात्म और न्याय विषयक अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। परन्तु, वे जीवन के अनतिगंभीर क्षणों में अपनी मर्मान भूतियों को काव्य के माध्यम से भी अभिव्यक्त करते रहे हैं। उन्होंने स्वयं लिखा है: "कविता मरे जीवन का प्रधान विषय नहीं है। मैंने इसे सहचरी का गौरव नहीं दिया। मुझे इससे अनुचरी का-सा समर्पण मिला है।" 'फूल और अंगारे' तथा 'गूंजते स्वर बहरे कान' में मुनि श्री की कविताए संकलित है। मुनिश्री ने अपने काव्य के द्वारा उस सहजानन्द को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है, जो मानस की परतों के नीचे सोया हुआ रहता है। इस सहजानन्द के मल में जीवन के प्रति समता का दष्टिकोण है। इस समत्व बुद्धि से प्रेरित होकर ही आप यह कह सके है:-- कोंपल और कुल्हाड़ी को भी साथ लिए तुम चल सकते हो । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 जो कोंपल और कुल्हाड़ी को साथ लेकर चल सकता है, उसे ही रजकण और हीरकहार तुल्य मूल्य के प्रतीत हो सकते हैं। मनीषी कवि की दष्टि 'मैं' और 'तुम' की संकीर्ण सीमाओं का अतिक्रमण कर मानवीय अस्तित्व की चरम सार्थकता पर केन्द्रित है। परन्तु, इस चरमानुभूति के अन्तराल से यदा-कदा विचार के अनेक छोटे-बड़े कण झांकते हए प्रतीत होते हैं, जो जीवन का एक नई मूल्य-मीमांसा प्रस्तुत करते है:-- फूल को चाहिए कि वह कली को स्थान दे कली को चाहिए कि वह फूल को सम्मान दे पतझड़ को रोका नहीं जा सकता कोंपल को टोका नहीं जा सकता। मुनिश्री बद्धमलजी दीर्घकाल से काव्य की सफल साधना करते रहे हैं। वे भावुक हैं, परन्तु उनकी भावकता में भी चितन का उन्मेष है। उनके स्वर की कोमलता जीवन की कठोरता के 'चैलेन्ज' को स्वीकार करने में नहीं हिचकिचाती। भावाभिव्यक्त की चारुता के लिए उन्होंने सजग प्रयास नहीं किया है, परन्तु उनकी कविताओं का कला-पक्ष भी पर्याप्त परिपुष्ट है। मुनिश्री की कविताओं का प्रथम संकलन 'मन्थन' नाम से प्रकाशित हुआ था, जिसकी भूमिका यशस्वी कवि स्व. रामधारीसिंह 'दिनकर' ने लिखी थी। द्वितीय संकलन 'मावर्त' है, जिसमें अापके भावचक्र की अनेक गति-भंगिमाओं को लक्षित किया जा सकता है। आपकी जीवनदष्टि व्यष्टि और समष्टि के समन्वय पर अाधारित है। अपनी काव्य-साधना के सम्बन्ध में आपने लिखा है 'मुझे न केवल अपना ही सुख-दुःख इस ओर प्रेरित करता रहा है, अपितु, दूसरों का सुखदुःख भी मेरी अनुभति के क्षेत्र में आता रहा है, आपकी रचनाओं में अद्वैतमूलक दार्शनिक चिन्तन भी है, परन्तु सूलत: ग्राप पौरुष के कवि है। संकल्प का सबल स्वर आपकी कविताओं को विशिष्टता प्रदान करता है: मैं रुकं प्रतीक्षा को, इससे तो अच्छा है तुम अपनी ही गति के क्रम में त्वरता भरलो। मैं तो बीहड़ में भी एकाकी चल लूंगा तुम साथ चलो, न चलो, अपना निर्णय करलो । मनिश्री नगराजजी का योगदान गद्य साहित्य को अधिक है। परन्तु आपने कतिपय मामिक कवितारों का भी सर्जन किया है। आपकी कविताओं में साधक के लिए उद्बोधन है, प्रतिकूलताओं के साथ संघर्ष करते हुए निरंतर प्रागे बढ़ते रहने की प्रवल प्रेरणा है। परन्तु, मुनिश्री की कुछ ऐसी भी रचनाएं हैं, जिनमें युग-भावना के अनुरूप न्याय की पुकार को प्रतिध्वनित किया गया है। इन पंक्तियों में यग-मानव का पाहत अभिमान ही नहीं, उसकी न्याय की मांग भी गूजती हुई सुनाई पड़ती है: रहने दो बस दान तुम्हारा रहने दो सम्मान तुम्हारा । ग्राज मुझे तो न्याय चाहिए अपने श्रम की आय चाहिए। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $11 उनकी वाणी का वैभव उनकी पंखुड़ियां' में पांच चरित हैं, जो आपने अनेक लोकधुनों का प्रयोग ये कविताएं प्रबन्धात्मक होते घटना-प्रसार को सूक्त सांकेतिकता मुनिश्री चन्दनमलजी एक प्रभावशाली व्याख्याता हैं । वक्तृता में ही प्रगट होता है । उनके द्वारा रचित 'शतदल की व्याख्यान में उपयोग करने के उद्देश्य से छन्दोबद्ध किए गए हैं। करते हुए कविता में विभिन्न रागिनियों का समावेश किया है । हुए भी इनमें प्रबन्ध काव्य का वैविध्य और विस्तार नहीं है । के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । 'कुछ कलियां कुछ फूल' में मुनिश्री सागरमलजी 'श्रमण' की कविताएं संकलित की गई हैं । 'श्रमण' में सहज काव्य-प्रतिमा है और उन्होंने अपनी काव्यानुभूतियों को रसमय अभिव्यक्ति प्रदान की है, जो अनायास ही हृदय को स्पर्श करती है । आपके काव्य में जहां समर्पण के स्वरों का गुंजार है, वहां जीवन के संघर्षो की चुनौती का सहज स्वीकार भी है । यह संघर्ष किसी शक्ति के साथ नहीं, अपने ही मन के श्रावर्त -विवर्त के साथ है । कवि ने अपनी अन्तर्दृष्टि के द्वारा जीवन का एक समन्वित चित्र अंकित किया है: किन्तु, अभी तक जितना भी पढ़ सुन पाया हूं, मित्र, मिलन से घाव हृदय का खुलता भी है, मिलता भी है। तेज पवन से रंग मेघ का उड़ता भी है, घुलता भी है आड़ बड़े की लेकर छोटा पलता भी है, गलता भी है । मुनि रूपचन्द्रजी एक लब्धप्रतिष्ठ कवि हैं, जिनके प्रथम काव्य-संकलन 'अन्धा चांद' ने ही उन्हें एक नए कवि के रूप में मान्यता प्रदान कर दी थी। 'अन्धा चांद' और 'कला कला' की रचनाएं अपने भाव-बोध और भाव-संप्रेषण की उभय दृष्टियों से नई कविता की समीपवर्तिनी हैं। परन्तु, मुनिश्री कविता के किसी वर्ग विशेष से परिबद्ध नहीं रहे हैं। उन्होंने नई कविताओं के साथ ही रुबाइयां भी लिखी हैं, जो 'खुले आकाश" 'इन्द्र धनुष' और 'गुलदस्ता' में संकलित हैं । मुनिश्री रूपचन्द्रजी काव्य में सहज के उपासक हैं। उन्होंने स्वयं लिखा है- 'लय-गीत, तुकान्तअतुकान्त आदि को समान रूप मैंने सम्मान दिया है।' उनकी अनुभूतियों की सहजता उनकी अभिव्यक्ति में भी प्रतिबिम्बित हुई है: आस्था की इन गायों को जड़ता के खूंटे से मत बांधो तुम किन्तु भटकने दो इन्हें बीहड़ की इन टेढी-मेढी पगडंडियों में और चरने दो इन्हें खुले आकाश में सांझ होते-होते ये स्वयं घर का रास्ता ले लेंगी । आपकी रुबाइयों में रागात्मक संवेदन विशेष रूप से पाया जाता है । ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने लोक-जीवन के जिस कटु यथार्थ का साक्षात्कार किया है, उसने उसे काफी झकझोरा है । कहीं-कहीं कवि की अभिव्यक्ति काफी तीखी हो गई है: अब जरूरत नहीं सलीब पर लटकने की खुद क्रॉस बन कर रह गई यह जिन्दगी । मुनिश्री मोहनलालजी 'शार्दूल' के कई कविता-संग्रह प्रकाशित हुए हैं । 'पथ के गीत,' 'बहता निर्झर', 'मुक्त मुक्ता' और 'मुक्तधारा' में श्री 'शार्दूल' की रचनाएं संग्रहीत हैं । आपके • Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 मुक्तक अपने रागात्मक संवेदन और सहजभाव-सम्प्रेषण के कारण हृदय को स्पर्श करते हैं। उनके व्यष्टि जीवन के सत्य के साथ ही समष्टि जीवन का यथार्थ भी अभिव्यंजित हया है: आदमी प्रभाव से ही नहीं, भाव से भी आक्रान्त हो जाता है और कोरे दु:ख से ही नहीं, सुख से भी आक्लान्त हो जाता है। दुनियां का अजीब रहस्य बिल्कूल ही समझ नहीं पाता, आदमी तप से ही नहीं, उजालों से भी उद्भ्रान्त हो जाता है। 'अनायास' मनिश्री सखलालजी की कवितानों का संग्रह है। मनि रूपचन्द्रजी ने इस संग्रह की रचनाओं का परिचय देते हुए जो कुछ लिखा है, वह सत्य के बहुत निकट है। 'अनायास की कविताएं अनायास ही लिखी हुई हैं। अत्यन्त सहज और अत्यन्त सादगीपूर्ण सज्जा अपने में लिए हुए है। स्पष्ट भाव और स्पष्ट भाषा, कहीं कोई घुमाव और उतार-चढ़ाव नहीं। जैसा सामने आया, उसे अत्यन्त अकृत्रिम भाव से शब्दों का परिधान दे दिया।' इस वक्तव्य की सार्थकता प्रमाणित करने को यह एक उद्धरण पर्याप्त होगा: मील के पत्थर नहीं करते मंजिल की दूरी को कम । पर एक भ्रम बनाए रखता है अपना क्रम । मुनिश्री दुलहराजजी काव्य के मूक साधक हैं। उनकी कविताओं में अन्तवत्तियों की सूक्ष्म गतिविधियों का पालेखन हुआ है। भाषा पर भी उनका अबाध अधिकार है, परन्तु न जाने क्यों उन्होंने अपनी रचनाओं को अद्यावधि अप्रकाशित ही रखा है। 'कालजयी' और 'परतों का दर्द' मुनिश्री विनयकुमारजी 'आलोक' की दो कृतियां हैं, जिनमें कुछ कविताएं और कुछ क्षणिकाए संकलित की गई हैं। इन रचनाओं के सम्बन्ध में प्रख्यात अालोचक डा. विजेन्द्र स्नातक का मत उल्लेख्य है 'अनुभव और चितन से संग्रथित होकर जो विचार-कण मुनिश्री के मन में उभरा है, वही कविता बना है। मुनिश्री अन्तःस्फूर्त कवि हैं।' 'परतों का दर्द' में कवि अभिव्यक्ति की नई भंगिमा को ग्रहण करता प्रतीत होता है: जीवन बज-बज कर घिस जाने वाला रिकार्ड खरखराता स्वर ही इसकी नियति है । मुनिश्री मणिलालजी ने कुछ क्षणिकाएं लिखीं हैं जो अपनी सूक्त सांकेतिक अभिव्यक्ति के कारण काफी प्रभावशाली बन पड़ी हैं :-- महानता समुद्र के रूप में बंद का अस्तित्व हीनता बीज के बदले में वृत्त का अहम् । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 813 मुनिश्री वत्सराजजी की कविताओं के दो संग्रह 'उजली आंखें' और 'अांख और पांख' के नाम से प्रकाशित हुए हैं। मापकी दृष्टि में 'सहज अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति ही काव्य की परिभाषा है।' वत्स मुनि की कविताएं अपनी इस कसौटी पर खरी उतरती है, परन्तु उनकी अनुभूति में जिज्ञासामूलक चितन भी सम्मिलित है। जीवन के प्रति एक उद्दाम आस्था ने आपको प्रतिकूलताओं के साथ संघर्ष करने की शक्ति प्रदान की है : गरल की प्यालियां कितनी ही विकराल क्यों न हों ? मधुरता की मीरा जब उन्हें पीएगी मधुधार बना लेगी। मुनिश्री मानमलजी चिरकाल से कविताएं और चतुष्पदियां लिखते रहे हैं। उनकी रचनाएं विषय-वैविध्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। राजस्थानी के कई सिद्धहस्त कवि भी हिन्दी में यदा-कदा लिखते रहते हैं। मुनि मधुकरजी ने मधुरस्वर ही नहीं पाया है, उनके 'गुंजन' के गीत भाव और भाषा के माधुर्य से ओत-प्रोत हैं। तेरापंथ के साध-समाज में ही नहीं, साध्वो-समाज में भी काव्य-साधना का क्रम वर्षों से पल रहा है। 'सरगम' की भूमिका में स्वयं प्राचार्यश्री तुलसी ने लिखा है, 'भावना नारी का सहज धर्म है। अतः नारी ही वास्तविक कवि हो सकती है। तेरापंथ के साध्वी समाज ने प्राचार्य प्रवर इस उक्ति को अपनी प्रखर साहित्य-साधना के द्वारा सत्य सिद्ध कर दिया है। अनेकानेक साध्वियां काव्य-क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का परिचय दे रही हैं। साध्वी मुखा श्री कनकप्रभाजी स्वयं एक रससिद्ध कवयित्री है, जिनकी कविताओं का थिम संकलन 'सरगम' के नाम से प्रकाशित हया है। वस्तुतः कनकप्रभाजी की कविताएं उनके भावों का इतिहास' हैं। उन्होंने भाषा की संप्रेषण-शक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए लिखा है : आज स्वयं में भावों का लिखने बैठी इतिहास, पर भाषा पहुंचाएगी क्या उन भावों के पास ? परन्, भाषा ने बहादर तक साध्वीप्रमुखाश्री का साथ निभाया है। उनकी भाषा सादिक होते हए भी सुक्ष्म भाव-छायापों को ग्रहण करने में सर्वथा समर्थ है। सहज सरल शब्दावली में उन्होंने जीवन के गहरे रहस्यों को उद्घाटित करने में सफलता पाई है: सत्य एक है लेकिन कितनी हुई आज व्याख्याएं मूल एक पादप की फिर भी है अनगिन शाखाएं । साध्वीश्री मंजलाजी के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हए.'प्रधखली पलके'. "जलती प्रशास' और 'चहरा एक हजारों दर्पण' । मंजुलाजी ने अपने काव्यदर्पण में मानव-मन की अनेक स्थतियों को प्रतिबिम्बित किया है। कवयित्री में अपने पाप के प्रति अटूट विश्वास है, जो उसे संघर्षों में शक्ति और सम्बल प्रदान करता है: जानते हो स्वय का विश्वास ही जब तब जिलाता मारता है । समझ लो विष को सुधा फिर तो वही सच एक बार उबारता है। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 मंजुलाजी के काव्य में कहीं-कहीं वे रहस्यात्मक संकेत भी प्राप्त होते हैं जिनके मूल में मानव की अपने आपको जानने की जिज्ञासा होती है। आत्मोपलब्धि के चरणों में कवयित्री ने इस चिर पुरातन सत्य का नवाम्देष किया है: हम भी भोले हिरणों की ज्यों बहुत बार धोखा खाते हैं। जिनको पाना बहुत सरल है उनके लिए उलझ जाते हैं । सूई जो खो गई सदन में बाहर कैसे मिल पाएगी ? जिसको हम ढूंढते युगों से वह अपने में ही अन्तर्हित । । 'साक्षी' है शब्दों की' साध्वी संघमित्राजी की कविताओं का संकलन है । safrat के हो शब्दों में 'अपने भावों और कल्पनाओं को शब्दों के सांचे में ढाल कर कविताओं की काया की गढ़ा गया है।' इसमें कुछ गीतिकायें है और कुछ मुक्त छन्द में लिखी हुई कविताएं । साध्वी संताजी न किसी वाद से प्रतिबद्ध हैं और न उनका कोई वैचारिक आग्रह है । साधना पथ की अनुभूतियों को प्रकृत्रिम अभिव्यक्ति प्रदान करने के अतिरिक्त कवयित्री ने युग-जीवन की यथार्थता को भी चित्रित करने का प्रयास किया है । निकट के यथार्थ को छोड़कर आज का मानव सुदूर स्वप्नों के पीछे दौड़ रहा है: वसुधा का विस्तार बहुत कोई बसना भी जाने लगा रहा इन्सान किन्तु चन्दा पर नए निशाने मोर पपीहे आकाशी बूंदों पर प्राण गंवाते । साध्वी सुमनश्री जी के 'सांसों का अनुवाद' में जीवन और जगत के रहस्यों को अनुभूति के धरातल पर लिपिबद्ध किया गया है। आपकी काव्य-दृष्टि अन्तर्मुखी है और आप बाह, य-जीवन का चित्रांकन भी अपने अन्तर की ही रंग-रेखाओं से करती हैं । इस संग्रह की सभी कविताओ का एक ही रूपाकरण है और अपनी भाषा को एक परिष्कृत सौन्दर्य प्रदान करने की दिशा में सुमनश्रीजी विशेष सक्रिय रही है: धूल भरा श्राकाश हो जाता है धूप छांह का कभी-कभी प्राभास दिन घटना चक्रों के रथ हैं थामे हाथ क्षणों को श्लथ हैं दौड़ रहा है अश्व समय का ले जीवन का श्वास । प्राचार्य श्री तुलसी के धवल समारोह के अवसर पर सोलह साध्वियों की कविताओं का एक प्रतिनिधि संकलन 'सीप और मोती' के नाम से प्रकाशित हुआ था । इस संग्रह की रचनाओं पढ़कर ही यह प्रतिति होती है कि ये कवयित्रियां अगर वागदेवता की प्राराधना करती रहीं तो एक दिन साहित्य-जगत् का अपनी अमूल्य भेंट अर्पित कर सकेंगी। इन कविताओं में सुख-दुःख के प्रति समभावना, लक्ष्य के प्रति मटूट विश्वास, साधना - मार्ग की प्रतिकूलताओं को हंसते हंस सहन करने का संकल्प और जीवन के प्रति एक उदात्त दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति हुई है। कविताओं के उद्धरण अप्रासंगिक नहीं होंगे: कुछ मेरा प्रेय मिले मुझको यह जब जब सोचा तब तब बाधाओं ने आकर उसको नोचा Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 813 किन्तु प्राण का मोह त्याग जो निकल पड़ा है। उस जन को बाधाओं ने है कब कब रोका? -साध्वी श्री जयश्री मुझे न जाने सहजतया क्यों प्रिय लगता संघर्ष ? और उसी में प्रांका करती मैं अपना चिरहर्ष । ---साध्वीश्री कमलश्री युग-युग चलती रहूं इसी पथ, ले संयम का भार। थकने का क्या प्रश्न ? अगर कुछ है चलने में सार।। -साध्वीश्री राजीमती हिन्दी कविता को तेरापंथ की देन व्यापक और बहुमुखी है। तेरापंथी साधु और साध्धियों के काव्य का अध्ययन किया जाए तो हिन्दी कविता की प्रायः सभी शैलियों और प्रवृत्तियों को इसमें खोजा और पाया जा सकता है। एक ओर प्राचार्यश्री तुलसी के प्रबन्ध काव्य हैं तो तो दूसरी ओर मुनिश्री नथमलजी, मुनिश्री रूपचन्द्रजी की नई कविताएं हैं, जो अपनी भावाभिव्यक्ति की नई भंगिमा के कारण ही नहीं, अपने नए भावबोथ के कारण भी अधुनातन कविताओं में सम्मिलित की जा सकती है। गीत और मक्तक लिखने वाले कवियों की संख्या सबसे अधिक है। परन्तु मुनि विनयकुमार 'आलोक' और मुनि मणिलाल ने लघु कविताओं के क्षेत्र में भी नए प्रयोग किए हैं। संभवतः कुछ कवि अकविता के आन्दोलन से भी प्रभावित हुए हो। परन्तु, इस सम्पूर्ण वैविध्य में एक समानसूत्रता भी पाई जाती है। कथ्य की दृष्टि से इस संपूर्ण काव्य-साहित्य में नैतिक मल्यों की प्रतिष्ठा है और व्यक्ति को 'असंयम' से 'संयम' की ओर ले जाने की प्रवृत्ति का प्राधान्य है। किसी भी कवि ने मानव की क्षुद्र कामनाओं और वासनाओं को नहीं उभारा है और नहीं जीवन के प्रति कोई अनुदात्त दृष्टिकोण ही उपस्थित किया है। इस काव्य-सृजन का लक्ष्य राग-रंजन नहीं, मनुष्य का नैतिक उन्नयन और आध्यात्मिक उन्मेष है। इस काव्य का महत्व इस बात में है कि इस महत उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उपदेश और प्रवचन की मुद्रा को अपना कर केवल नीवन की सतह पर उतारने का प्रयास नहीं किया गया है। कवियों ने जीवन के अन्तस्तल में अवगाहन कर गहन भावानुभूतियों का स्वयं साक्षात्कार ही नहीं किया है, उन्हें सह दयों के लिए शब्द के माध्यम से संप्रेषित भी किया है। अनेक और कवयित्रियों का उल्लेख नहीं किया जा सका है, क्योंकि लेखक के परिचय कीप्रपनी सीमाए हैं। इसे किसी के प्रति उपेक्षा और अवज्ञा का सूचक नहीं माना जाना चाहिए। डा. मूलचन्द सेठिया के. 7, मालवीया मार्ग सी-स्कीम, जयपुर (राजस्थान) । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी पद्य साहित्य एवं साहित्यकार-5 पं. भंवरलाल न्याय तीर्थ राजस्थान में हिन्दी पद्य साहित्य का निर्माणकाल 100-150 वर्ष पूर्व से प्रारम्भ होता है । इसके पूर्व राजस्थानी की विभिन्न शाखाओं में जैसे राजस्थानी, हूंढारी, मेवाती आदि भाषाओं में लिखा जाता रहा था। यद्यपि संवत् 1900 के पूर्व निबद्ध कृतियों, काव्यों एवं मुक्तक रचनाओं में हिन्दी का पुट मिलता है लेकिन हम उन्हें पूर्ण हिन्दी की कृतियां नहीं कह सकतं । ज्यों-ज्यों खडी बोली का प्रचार-प्रसार होता गया और गद्य-पद्य में रचनाएं होने लगी तो जैन कवियों ने भी विभिन्न विषयों में लिखना प्रारम्भ कर दिया। दिगम्बर जैन कवियों ने प्रात्मापरमात्मा के अतिरिक्त सामाजिक, राष्ट्रीय एवं साहित्य के अन्य अंशो पर भी बहत लिखा है। हिन्दी पद्य साहित्य के विकास में उन्होने अपना अच्छा योगदान दिया है। सारे राजस्थान में विशेषत: जयपुर, कोटा, बूंदी, अलवर, भरतपुर, सीकर व उदयपुर जैसे प्रदेशों में अनेक कवि हुए जिन्होंने हिन्दी भाषा में छोटी-बड़ी अनेक रचनाएं कीं। लेकिन माहित्य निर्माण के इस काल का इतिहास में कोई उल्लेख न होने के कारण अभी तक न किसी कविका और न उसकी कृति का कोई मल्यांकम हो सका है। इसलिये ऐसे कदियों का आज भी पूरा परिचय उपलब्ध नहीं हो सका है। प्रस्तुत लेख में ऐसे ही कुछ कवियों का परिचय प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है 1. पं. महाचन्द सीकर निवासी पं. महानन्दजी हिन्दी गद्य व पद्य के अच्छे लेखक थे। सम्बत 1915 में उन्होंने विलाकसार पूषा लिखी जो अत्यधिक लोकप्रिय है। तत्वार्थ मूत्र की हिन्दी टीका इन्होंने की तथा अनेक भक्ति परक पद लिखे । प्रापके पदों की भाषा हिन्दी है परन्तु इस पर राजस्थानी का भी प्रभाव है। इन्होंने प्रत्येक पद में नाम के साथ "बध" शब्द का प्रयोग किया है। ईश्वर के दर्शन बिना कवि का एक क्षण भी कटना कठिन लगता है :---- कैसे कटे दिन रैन , दरश बिन • • • • • • • जो पल घटिका तुम बिन बीतत सो ही लगे दुख देन' - - - - 'दरश बिन कवि मक्ति जाना चाहता है, पर कैसे जाय-मार्ग तो भूल रहा है...-- मैं कैसे शिव जाऊं रै डगर भलावनी, बालपने लरकन संग खोयौ, त्रिया संग जवानी । बद्ध भयो सब सुधि गयी भजी जिनवर नाम न जानी अत: जिनवाणी का अध्ययन करो---- जिनवाणी सदा सुखकारी जानि तुम सेवो भबिक जिनवानी । 2. थानसिंह अजमेरा अजमेरा जयपुर में 20 सदी के पूर्वार्द्ध में हुए थे। थानविलास इनकी प्रमुख कृति है जिसमें इनकी विविध रचनाओं का संग्रह है। कवि की भाषा और शैली दोनों ही अच्छे स्तर की है। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 317 संवत् 1934 में इन्होंने बीस तीर्थंकर पूजा लिखी। चैतन आत्मा को भ्रमर की उपमा देते हुये कवि ने एक भावपूर्ण पद लिखा है चेतन भौग पर में उलझ रहा रे छक मद मोह में प्रयानो भयो होले । 3. जवाहरलाल शाह ये भी जयपुर के निवासी थे तथा 20वीं सदी में हुए थे । वि. सं. 1952 में इनका स्वर्गवास हा । इनके द्वारा रचित चेतनविलास, आलोचना पाठ, वीस तीर्थंकर पुजा. स पूजा आदि पद्यमय रचनाएं मिलती हैं। हिन्दी में अनेक पद भी लिखे हुये मिलते हैं :-- ऐसा जग मोहि नजर नहिं प्रावे, पर तज अपनी अपनाये। जड पूदगल से पाप भिन्न लखि, चेतन गण कर भावे ।। 4. चैनसुख लुहाडिया इनका जन्म जयपुर में संवत् 1887 में और स्वर्गवास सं. 1949 में हुआ था। ये हिन्दी के अच्छे कवि थे। आत्मबोध में दर्शन दशक, श्रीपति स्तोत, कई गुजाएं तथा फटकर रचनाएं पर्याप्त संख्या में उपलब्ध होती हैं। लुहाड़िया जी को समस्या पूर्ति का शौक था। संगमरदान की शीर्षक समस्या पूर्ति देखिये :-- रानी जिनवच प्रतीत लांची सन तत्वरीत स्वातम अभीत जिन चाहे चिद बाने की, चाह पाकशासन, सुरासन की रही नांहि, कौन गिनती है मुकरण राष रानै की । उखरि गये मदन कभाव के प्राडारब फहरे है जिनन्द की पताका जीत पाने की, . ठोकि भुजदण्ड रण भूमि में पछारचो मोह शक्ल ध्यान चण्डा ये तंग मरदान की। 5. पं. चिमनलाल ये बीसवीं शती के प्रारम्भ के कवि थे। सं. 1969 तक मौजूद रहने की बात कई लोगों से सुनी है। अर्हन्नीति और प्रायश्चित ग्रन्थों का इन्होंने हिन्दी अनवाद किया है। इनके अनेक फुटकर पद्य भी मिलते हैं। संसार की दशा का वर्णन करते हए कवि कहता है :-- जगत में कोई न दम की बात । मूंठी बांधे आया बन्दे, हाथ झुलाये जात । धन यौवन का गर्व न करना, यह नहिं जानत साथ। देख संभल प्रबल रिपू सिर पर काल लगावे बात । कोई बचाय सके नहिं उसमें पिता मित अरु भ्रात । छोड़ असत्य चोट पर - बनिता ये नित ठग ठग खात । 6. मानन्दोपाध्याय पूरा नाम श्री आनन्दीलाल जैन है। जन्म जयपुर में वि. सं. 1970 तथा स्वर्गवास वि. सं. 2000 में हुआ था। यद्यपि इन्होंने शास्त्री की परीक्षा उतीर्ण की थी लेकिन उपाध्याय Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 परीक्षा पास करने के बाद ही ये कविताएं करने लग गये थे और अन्त तक अपना नाम आनन्दोपाध्याय ही लिखते रहे। अनेक पत्रों में आपकी कविताएं छपी हैं। विपदाओं से सदा कान्त हो, लगता जीयन भार भयो। कभी रहसि मैं रो लेता हूं, मन भावन को मार वियो । नाथ। उबारोद्रततर मझको, देख रहा सूख का सपना । अन्तस्तल में शान्ति प्राप्तकर आखिर विश्व समझे अपना । 7. पाश्र्वदास निगोत्या 20वीं शती के पूर्वार्द्ध के इस कवि ने अनेक पद लिखे हैं। जो हाल ही में पार्श्वदास पदावलि के नाम से प्रकाशित हुए हैं। इसमें विभिन्न रागों में 423 पद हैं हिन्दी के भी और ढूंढारी मन प्राणिधि की वा सगुण तुम दृष्टि हो, हो दयित आंसू बहाते तुरन्त ही, दूसरों के दर्द दुख को देखकर , पर रहा तुमसे जाता नहीं, बोर अत्याचार को अवलोक कर । 8. श्री अनलाल सेढी जन्म जयपुर में 9 सितम्बर 1888 । स्वर्गवास 22 सितम्बर 1941। शिक्षा बी.ए. 1902 में। होश संभालने के साथ ही देश प्रेम के दीवाने हो गये। राजनैतिक अपराध में जेल के सींकचों में बहुत समय गुजरा। ये पक्के समाज सुधारक, अद्भुत विद्वान तथा प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे। राजस्थान में कांग्रेस के चोटी के नेता बने । उन्होंने वर्धमान विद्यालय की स्थापना की। ये पुज्य गांधी जी के सहयोगी रहे। हिन्दी के अनन्य भक्त थे। आपने महेन्द्रकुमार नाटक, मदन पराजय नाटक और पारसयज्ञ पूजा लिखी तथा इनके अतिरिक्त और भी कितनी ही रचनाएं की दुर्दशा पर दो अांसू बहाते हुए कवि ने अपने निम्न विचार व्यक्त किये :-- पड़े हैं घोर दुःखों में सभी क्या रंक और राजा, हुई भारत की यह हालत नहीं है आब अरु दाना। धर्म के नाम पर झगड़े यहां पर खूब होते हैं, बढाके फट आपस में दु:खों का बीज बोते हैं। निरुद्यमी आलसी हो, द्रव्य अपने आप खोते हैं, हुना है भोर उन्नति का यह भारतवासी सोते हैं। और फिर देशवासियों में जोश भरते हुए कवि प्रेरणा देता है : संभालो अपने घर को अब जगादो बूढ़े भारत को, यह गरु है सर्व देशों का, उठो प्यारो उठो प्यारो। जहां के अन्न पानी से बनी यह देह हमारी है, करो सब उसपै न्यौछावर, उठो प्यारो उठो प्यारो। 9. पं. चनसुख दास न्यायतीर्थ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य के समान पंडित जी हिन्दी के भी उच्च कोटि के विद्वान थे। पंडित जी कवि हदय थे। दार्शनिक, भक्तिपरक व आध्यात्मिक कवितायें लिखने में भापकी Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 319 विशेष रुचि थी। आपकी सैकड़ों कवितायें जैन पत्रों के अतिरिक्त सुधा, माधुरी, अर्जुन, विश्ववाणी, कल्याण, विश्वामित्र, रलाकर जैसे अनेक हिन्दी के चोटी के पत्रों में प्रकाशित हई। पंडित जी की कविताओं का संग्रह 'दार्शनिक के गीत' नाम से प्रकाशित हो चुका है। कवि की भक्ति में भी दार्शनिकता है। एक कविता में उनसे सनातन सत्य में मिलाने की प्रार्थना निम्न शब्दों में की है: ज्ञान के आलोक में जहां वासनाएं भाग जाती, जो निरापद चिन्तनाएं जहां सदा विश्राम पाती। वह निरामय धाम भगवान् है कहां मुझको बतादो, उस सनातन सत्य में है नाथ तूं मुझको मिलादो। एक अन्य कविता में कवि ने दार्शनिकता के द्वार की ओर संकेत करते हुए लिखा है किदुःखमय क्षण भंगुर संसार, कौन साधन से होगा पार, प्रतिक्षण जीवन का यह लक्ष्य, दार्शनिकता का उत्तम द्वार । कवि एक अोर अध्यात्म और दर्शन की चर्चा करता है तो दूसरी ओर संसार की वस्तुस्थिति को सोशल नहीं करता। सारा संसार पैसे के पीछे क्यों दौड़ता है : इसका उत्तर कवि ने निम्न शब्दों में दिया है: नर से नर के पेट पुजाता, विपुल राशि में जब तूं आता। नाम धाम सब काम बदल जाते, तेरे आ जाने से, होती क्षमता श्रीगरो। कवि ने किसी एक विषय पर बहत्त काव्य ग्रन्थ लिखने के स्थान पर छोटी-छोटी कविताप्रो के माध्यम से बहुत उत्तम विचार प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। 10. बांदमल बैन 'शशि' जन्म बगवाडा ग्राम (जयपुर) में 13-6-1910 को, स्वर्गवास 7-2-74 का, शिक्षा साहित्यरत्न, एम.ए.हिन्दी व संस्कृत, बी.टी.। इनकी बचपन से ही कविता करने में रुचि थी. शशि जी का पूरा जीवन अध्यापन के रूप में बीता था। अापकी कवितायें जैन बन्ध,जैन दर्शन मादि अनेक पत्रों में प्रकाशित हुई हैं। इन कविताओं में प्रकृति वर्णन के साथ ही उदबोधक तत्व अच्छी संख्या में मिलते हैं। निर्धन की यातना बताते हुए कवि लिखता है:-- अहह ! निर्धनते ! तव पाश में, फंस न पा सकता नर शान्ति है। मलिन है, रहता मन सर्व का, विकलता बढती दिन रात है। 11, मास्टर नानूलाल भावसा जयपुर में जन्म, चेन कृष्णा 4 विक्रम संवत् 1950, स्वर्गवास पौष कृष्णा 11 सं. 2002 अध्ययन इंटर तक। गणित के विशेषज्ञ। बड़े सौम्य और शान्त प्रकृति के थे। खरताल हाथ में लेकर भजन गाते तो मात्मविभोर हो जाते। भक्तिपरक आध्यात्मिक कई पदापते लिखे हैं। आपके छोटे भ्राता भाई छोटेलाल जी पहले क्रांतिकारी थे जोलार्ड हाडिग पर बम फेंकने के सिलसिले में गिरफ्तार हए। पीछे गांधीजी के अनन्य भक्त बने और आजीवन गांधीजी के साथ रहे। मास्टर साहब के भजनों की एक पुस्तक 'नानू भजन संग्रह प्रकाशित होचका है। इस संग्रह में सभी भजत माध्यात्मिक और भक्तिपरक हैं। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 है यह संसार अमारा, भवसागर ऊंडी धारा, इस भंबर में जो कोई रमता, वह लहे म क्षण भरममता। 12. 4. चौथमल शर्मा __ जयपुर के रहने वाले थे। विक्रम की बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में इनका जन्म हुप्रा।दिगम्बर जैन पाठशाला जयपूर (वर्तमान कालेज) में अध्यापक होने से ये जैनों के सम्पर्क में काफी प्राये। विभिन्न राग-रागिनियों में आपने कई जैन कथानकों को गंथा। चारुदत्त, महीपाल, सुखानन्द, मनोरमा, ब्रजदन्त, नीली, धन्यकुमार, विष्णु कुमार, यमपाल चाण्डाल आदि कितने ही वर्णन इनके लिखे हैं। शांतिनाथ भगवान की स्तुति करता हुमा कवि लिखता है-- श्री शांतिनाथ त्रिभुवन आधार, गुण गुण अपार, सोहे निर्विकार, कल्याणकार जग अति उदार, म्हें उन्हीं को शिर नावों नावों नांवां । 13. पं. इन्द्र लालजी शास्त्री जयपुर में जन्म 21-9.1897 । स्वर्गवास सन् 1970 । शिक्षा साहित्य शास्त्री तक । शास्त्री जी संस्कृत व हिन्दी के अच्छे विद्वान थे साथ ही अच्छे वक्ता, लेखक व कवि । धर्म सोपान, प्रात्म वैभव, तत्वालोक, पशु वध सबसे बडा देशद्रोह' प्रादि स्वतन्त्र पद्यमय रचनाएं तथा भक्तामर स्तोत्र, एकीभाव स्तोत्र, कल्याण मन्दिर, विषापहार, भूपाल चतुर्विशति, प्रात्मानुशासन, स्वयंभू स्तोत्र, सामायिक पाठ आदि का हिन्दी अनुवाद किया। अनेक फुटकर कवितायें भी लिखी। कवि की कविता का एक उदाहरण इस प्रकार जो पाशा के दास हैं वे सब जग के दास है, आशा जिनकी किकरी उनके पग जगवास । जो चाहो जिस देश का कल्याण मरु उत्थान, करो धर्म का अनुसरण, समझो धर्म प्रधान । 14. जवाहिरलाल जैन इनका जन्म जयपुर में दिसम्बर 1909 में हुमा। इनके पिताश्री जीवनलाल थे। शिक्षा एम. ए. इतिहास व राजनीति शास्त्र में, हिन्दी में विशारद। श्री जैन गय और पद्य के प्रच्छे लेखक हैं। गद्य की अनेक रचनायें छप की है। पद्य की देखने में नहीं पायीं। किन्तु फिर भी समय समय पर कई पत्रों में इनकी कवितायें प्रकाशित हुई है। संसार को छलिया बताते हुए कवि लिखता है: कैसा है छलिया संसार, किसने पाया इसका पार, फूल फूल कर बल खाते हैं, हंसते हैं वे प्यारे फूल, मधुप गान करते आते हैं, जाते हैं मधु प्यालों में झूल वाय का झोंका पाता है, भ्रमर झटपट उड जाता है, फल सोता मिट्टी की गोद टूट जाता सपनों का तार। 15. श्री अनूपचन्द्र न्यायतीर्थ इनका जन्म जयपुर में दिनांक 10-9-1922 को हुआ। ये पं. चैनसुखदास जी के प्रमुख शिष्यों में गिने जाते हैं। अनेक ग्रन्थों के सम्पादन में डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल के Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 321 सहयोगी हैं। आप एक पाश कवि भी हैं। आपकी कविताओं की भाषा सरल व माधर्य लिए हुए है। यद्यपि इनकी कविताओं का संग्रह रूप में तो अभी तक प्रकाशन नहीं हया किन्तु 300 से अधिक कविताएं आजतक जैन संदेश, अनेकान्त, वीरवाणी आदि पत्रों में छप चुकी है। भारत बाहुबलि संवाद, बाहुबलि वैराग्य, (खण्डकाव्य) इनकी सुन्दर कृतियां हैं। रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा लिखित गीतांजली के करीब 60 गद्यांशों का पापने पद्य में सुन्दर अनवाद किया है। इसके अतिरिक्त कांजीबारस, चन्दन एवं रोहिणी ब्रत की पूजा लिखी है जो प्रकाशित हो चकी है। गीतांजली के एक गद्यांश का एक अनुवादित पद्य इस प्रकार है: दूर कर यह धूप खेना, और फूलों को चढ़ाना, तोड व्यर्थ समाधियों को क्योंकि वह उनसे मिले ना। क्या बिगडता ! अगर तेरे वस्त्र मंले पौ फटे हैं, वह मिलेगा पूर्व श्रम के स्वेद कण में चमचमाता। वह नहीं यों नजर पाती। अकेले भगवान महावीर और इसके सिद्धान्तों पर कवि ने 60 से भी अधिक कविताओं में बड़ा सुन्दर भावार्थ डाला है। भगवान महावीर के संदेश का निचोड कवि के शब्दों में पढियेः ये सत्य अहिसा ब्रह्मचर्य जीवन को उच्च बनाते हैं , इच्छा निरोध ही उत्तम लय भावों में जाग्रति लाते है। बन राग द्वेश का भाव हटे कर्मों का बन्धन कटता है, भगवान् बनाये न बनता भगवान् स्वयं ही बनता है। कवि के साथ ही पं. अनुप चन्द अच्छे लेखक, अन्वेषक तथा पुरातत्व विशेषज्ञ है। अापने राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची सम्पादन का अच्छा कार्य किया है। 16. प्रसन्न कमार सेठी कवि का जन्म 14 जुलाई 1935 में जयपुर में हुआ। शिक्षा एम. काम. व विशारद । य युवा कवि, लगन शील सेवाभावी व्यक्ति हैं। इनका रहन-सहन सादा व शरीर पतला दुबला है। अध्यात्म में डबा हुया इनका व्यक्तित्व सहज में ही देखा जा सकता है। संसार की असारता का वर्णन करते हुए कवि कहता है:-- किसका घोडा, किसका हाथी, किसकी मोटर रैल है, वही निराकुल है जिसने समझा हो, जीवन खेल है। कवि की हर रचना प्राध्यात्मिकता से प्रोत-प्रोत है। कवि ने सैकडों कवितायें लिखी है। प्रेरणा नामक प्रथम व द्वितीय पुष्प, सोलह कारण भावना, व दश लक्षण नामक पद्य रचनायें प्रकाशित हो चुकी है। कवि अलौकिक प्रतिभा का धनी है तथा ये अपनी कविताओं का सस्वर पाठ करते हैं। 17. डा. हुकमचन्द भारिल्ल आप मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं। कई वर्षों से आप जयपुर में रह रहे हैं। आप आध्यात्मिक प्रवक्ता के रूप में जाने जाते हैं। पंडित टोडरमल व्यक्तित्व और कृतित्व पर आपको डाक्टरेट की उपाधि मिली। आप कवि भी हैं। वैराग्य महाकाव्य, पश्चाताप खण्ड काव्य, Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कई पूजायें व कविताएं आपने लिखी हैं । की है:-- 18. 322 'हूं स्वभाव से समय-सार, परणति हो जावे समयसार, है यही चाह, है यही राह, जीवन हो जावे समय-सार । राजमल जैन बेगस्या जन्म 17 मार्च, 1937 जयपुर में 1 शिक्षा एम. ए. इतिहास व समाज शास्त्र । युवा कवि हिन्दी व राजस्थानी में पर्याप्त कविताएं लिखता है। अच्छे गायक हैं । व्यायात्मक तथा उपदेशात्मक पद्य बहुत लिखते हैं। इनकी कविता का एक उदाहरण निम्न है: कवि ने एक कविता में अपनी चाह निम्न प्रकार व्यक्त सुख ढूंढ रहा बाहर मानव, वह अन्तर में बसता; स्व में लीन संतोषी है, सुख का झरना वहीं बहता । बाल्यकाल, यौवन आये और अन्त बुढापा है प्राता, पर तृष्णा रहे सदैव षोडशी इसका नहीं यौवन जाता । कवि राजस्थानी भाषा में भी काव्य रचना करते रहते हैं । प्राप जब गाकर अपनी कविताों को सुनाते हैं तो उपस्थित जन समुदाय को भाव विभोर कर देते हैं । 19. मुंशी हीरालाल छाबडा जन्म संवत् 1920। उर्दू व फारसी के अच्छे विद्वान् थे । की सरल पद्यों में रचना की है जो वीर नि. सं. 2446 में छपी थी । माधुर्य युक्त है । ढूंढारी शब्दों का भी इसमें प्रयोग है। दश धर्म के क्षमा आदि है धर्म जीव के, योगी इनमें रमते हैं, ये ही हैं शिव मारग जग में, भव्य इन्हीं से तिरते हैं । पूजा में कवि ने अपनी अन्तिम भावना निम्न प्रकार व्यक्त की है:-- 20. पं. गुलाबचन्द जैन दर्शनाचार्य सुख पावें सब जीव, रोग शोक सब दूर हो | मंगल होय सदीव, यह मेरी है भावना | यह श्राप आपने चौबीस तीर्थंकर पूजा पूजन की भाषा सरल और सम्बन्ध में कवि कहता है 9 नवम्बर 1921 का जन्म | शिक्षा आचार्य जैन दर्शन तथा एम. ए. हिन्दी व संस्कृत में। साहित्यरत्न व प्रभाकर । अच्छे विद्वान् हैं । हिन्दी में सुगन्ध दशमी आदि पूजाएं लिखी हैं । प्रिय प्रवास की शैली में इन्होंने अंजना काव्य लिखा है जिसका कुछ अंश वीरवाणी में प्रकाशित हो चुका है। इसी काव्य का एक अंश निम्न प्रकार है: -- अमित कोमल केश कलाप था, फणि सलज्जित का उपमान में । विधुसमान प्रफुल्लित कंजसा, सुमुख था जिसका प्रति शोभना । शुक समान समुन्नत नासिका, अधर रक्त पीयूष भर लसै । वर कपोल सुडोल ललाम थे, चिबुक की क्षमता कवि खोजते । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 323 21. पं. गिरधर शर्मा (झालरापाटन) इन्होंने कुछ स्तोत्रों के अनुवाद एवं कुछ स्वतन्त्र रचनायें भी लिखी हैं। जैन समाज में सर्वाधिक प्रचलित भक्तामर काव्य का इन्होंने सरल सुबोध पद्यों में बड़ा सुन्दर अनुवाद किया। हिन्दी भाषी जैन इनके पद्यान वाद को बड़े चाव से पढ़ते हैं। आपके पद भावपरक हैं । 22. डा. सौभागमल दोसी (अजमेर) गत 45 वर्षों से दोसी जी साहित्यिक क्षेत्र में बराबर कार्य कर रहे हैं। जैन समाज की प्रत्येक गतिविधियों में आपका योगदान रहता है। संगीत मण्डली के साथ आप विशेष धार्मिक उत्सवों में भाग लेकर अपनी कविताओं व भजनों को सुनाते रहते हैं। इस प्रसार संसार में छोटे से जीवन पर क्या इतराना इसी को लक्ष्य कर कवि कहता है:-- नव विकसित कलियों से संचित करके अभय मधुकर मकरंद, फल फल को गूंज रहे हो, लघु से जीवन पर मति मन्द । पतझड के दिन भूल, फूल तो फूल रहा है अज्ञान, तुम किस मद में गूंज रहे हो, भूला पात्म का समकित ज्ञान । 23. युगलकिशोर (कोटा) आध्यात्मिक प्रवक्ता, लेखक व कवि युगल जी के नाम से प्रख्यात हैं। आपने अनेक पद्य व कवितायें लिखी हैं। सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक देवशास्त्र गुरु पूजा है। पूजा समूचे भारत में बडी भक्ति से पढ़ी जाती है। प्रत्येक मन्दिर में प्रतिदिन पूजा करने वाला भक्त पूजारी अपनी पूजा में युगल जी के साथ-साथ अपने मनोगत भावों को व्यक्त करता है इन्द्रिय के भोग मधुर विष सम, लावण्यमयी कंचन काया, यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है म अबतक जान नहीं पाया। मैं भूल स्वयं के वैभव को पर ममता में अटकाया हं, अब सम्यक निर्मल नीर लिए, मिथ्या मन धोने पाया हं। कवि प्राध्यात्म रस से प्रोत-प्रोत कविता करने में दक्ष है तथा अपने काव्य पाठों से जनजन के ह दय में सहज ही समा जाते हैं। 24. अनूपचन्द जैन (कोटा) आपके कतित्व की समचित जानकारी जिन लोगों को है वे जानते हैं कि श्री जैन अत्यन्त भावक तथा कल्पनाशील व्यक्ति है। कविता करने में आपको प्रारम्भ से ही रुचि है। तथा आपकी कवितायें लोकप्रिय रही है। वीरवाणी' शीर्षक कविता का एक अंश देखिये-- मखरित हई किसकी गिरा वह शून्य के संकेत पट पर. कौन जीवन में जगा यह विवशता के मत्यु घर पर। किन्तु जिसने भी सुनी समझी भ्रमर यह वीरवाणी हो गया गंधा वही उन्मुक्त वसुधा के डगर पर। उक्त कवियों के अतिरिक्त और भी कवि हैं जो समय-समय पर कविताएं लिखते रहत हैं। श्रीमती सुशीला कासलीवाल गद्य गीत लिखती हैं। श्री नाथूलाल जैन लेखक एवं कवि के रूप में राजस्थान में सुपरिचित व्यक्ति हैं। शरद जैन कोटा के उदीयमान कवि हैं । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन गद्य साहित्य-6 डॉ. शान्ता भानावत राजस्थान में स्थानकवासी परम्परा की बड़ी समृद्ध परम्परा रही है। उसके उन्नयनसंगठन और अभिवर्धन के लिए यहां अनवरत प्रयत्न होते रहे हैं। प्रात्मोद्धार, लोक-शिक्षण और जन-कल्याणकारी प्रवृत्तियों में यह परम्परा और इसके अनुयायी सदैव उत्साही और अग्रणी रहे हैं। भारतीय राष्ट्रीयता और समाज सुधारात्मक आन्दोलनों के साथ-साथ इस परम्परा में संस्कृत और हिन्दी के अध्ययन की प्रवृत्ति पर विशेष बल दिया जाने लगा। फलस्वरूप समाज में नई चेतना और नव समाज निर्माण का वातावरण मुखरित हुआ। स्थानकवासी परम्परा धार्मिक क्षेत्र में क्रांतिवाही परम्परा रही है। समय समय पर करूढियों, बाह्य पूजा-विधानों और ग्राडम्बरपूर्ण क्रियाकाण्डों की धूल को झाडकर धर्म के दर्पण को यह साफ-सुथरा करती रही है, उसकी आन्तरिक तेजस्विता को चमकाती-दमकाती रही है। प्रात्मपरकता के साथ धर्म की समाजपरकता को यहां बराबर महत्त्व दिया जाता रहा है। यही कारण है कि इस परम्परा के साधु, साध्वी और श्रावक-श्राविका निरन्तर समाज सेवा में सक्रिय साहित्य के क्षेत्र में पद्य की तरह गद्य में भी इस परम्परा की महत्त्वपूर्ण देन रही है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के बढ़ने के साथ-साथ जैन सन्त-सतियों ने अपने व्याख्यान खड़ी बोली हिन्दी में देने प्रारम्भ किये। प्रारम्भिक अवस्था में यह हिन्दी राजस्थानी बोलियों के स्थानीय प्रभाव से युक्त थी। पर धीरे-धीरे यह प्रभाव कम होता गया और परिष्कृत हिन्दी का शिष्ट सामान्य रूप प्रतिष्ठित हुआ। गद्य को लगभग सभी विधाओं में यथेष्ट साहित्य रचना की गई है। इस क्षेत्र में संतसतियों के साथ-साथ गहस्थ लेखक भी बराबर सक्रिय रहे हैं। इस दृष्टि से इन गद्य लेखकों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है--(क) संतवर्ग (ख) साध्वी वर्ग और (ग) गृहस्थ वर्ग। [क] संतवर्ग : यहां प्रमुख गद्य संत साहित्यकारों का परिचय देने का प्रयत्न किया जा रहा है। 1. प्राचार्य श्री जवाहरलालजी म. -- अाप यग प्रवर्तक महान क्रान्तिकारी प्राचार्य थे। अापने परम्परागत प्रवचन शैली और अध्ययन क्रम को नया मोड दिया। उसमें समसामयिकता और राष्ट्रीय भावधारा का रंग भरा। संकीर्ण अर्थों में केद प्राचीन धर्म-ग्रन्थों को नया अर्थ-बोध देकर उनकी रूढ़ि-उच्छेदमूलक समाजोद्धार और राष्ट्रोद्धार की प्रवृत्तियों को उजागर किया। अापकी वाणी वागविलास न होकर अन्तःस्तल से निकली सच्ची युगवाणी थी। तत्कालीन राष्ट्रनायकों से प्रापका संपर्क था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, सरदार पटेल आदि के साथ आपका विचार-विमर्श और संपर्क-सूत्र बना रहा। स्वाधीनता आन्दोलन के अहिंसात्मक प्रतिरोध, सत्याग्रह, खादी Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 325 धारण, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, हरिजनोद्धार, नारी जागरण, व्यसनमुक्ति , संतति नियमन, दहेज़ निवारण जैसे सभी रचनात्मक कार्यक्रमों के आप समर्थक थे। अापके उपदेशों से प्रभावित होकर तत्कालीन कई श्रीमंतों ने खादी धारण का व्रत लिया और राष्ट्रीय आन्दोलन में सहयोगी बने। अापके प्रवचनों की यह विशेषता थी कि वे युग की धड़कन को संभाले हुए शाश्वत सत्यों के व्यंजक, और उदात्त जीवनादर्शो के उद्घाटक होते थे। उनमें विचार शक्ति और व्याख्या शक्ति की प्रदर्भ त क्षमता थी। उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन सम्यकत्व पराक्रम गहस्थ धर्म, भक्तामर स्तोत्र आदि पर दिये गये आपके प्रवचनों में एक प्रबुद्ध विचारक और शास्त्रदोहक व्याख्याता के दर्शन होते हैं। प्रवचनों के बीच-बीच पौराणिक, ऐतिहासिक और लोक जीवन से सम्बद्ध छोटे-छोटे कथानक, दृष्टान्त और रूपक न केवल सरसता का संचार करते हैं वरन् श्रोता समुदाय के हृदय पर गहरा प्रभाव भी डालते हैं। आपकी आवेगमयी भाषा और चेतावनी परक उद्बोधन का एक नमूना देखिये "मित्रो ! आप लोगों के पास जो द्रव्य है उसे अगर परोपकार में, सार्वजनिक हित में और दीन-दुखियों को सहायता पहुंचाने में न लगाया तो याद रखना, इसका ब्याज चकाना भी तम्हें कठिन हो जायेगा। ऐसे द्रव्य के स्वामी बनकर आप फूले न समाते होंगे कि चलो हमारा द्रव्य बढ़ा है, मगर शास्त्र कहता है और अनुभव उसका समर्थन करता है कि द्रव्य के साथ क्लेश बढ़ा है। जब आप बैंक से ऋण रूप में रुपया लेते हैं तो उसे च काने की कितनी चिन्ता रहती है। उतनी ही चिन्ता पुण्य रूपी बैंक से प्राप्त द्रव्य को चुकाने की क्यों नहीं करते? समझ रखो, यह संपत्ति तम्हारी नहीं है। इसे परोपकार के प्रथअपंण करदा। याद रखो. यह जोखिम दूसरे की मेरे पास धरोहर है। अगर इसे अपने पास रख छोडूगा तो यह यहीं रह जायेगी, लेकिन इसका बदला चुकाना मेरे लिये भारी पड़ जायेगा"। (दिनांक 30-9-31 को दिया गया व्याख्यान, दिव्य जीवन से उद्धृत) अापका विशाल गद्य साहित्य 'जवाहर किरणावली' के 35 भागों में प्रकाशित हना है जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं:-दिव्य दान, दिव्य जीवन, दिव्य संदेश, जीवन धर्म, सबाह कुमार, रुक्मणी विवाह, जवाहर स्मारक प्रथम पुष्प, सम्यक्त्व पराक्रम भाग 1 से 5, धर्म और धर्मनायक, रामवनगमन भाग 1 व 2, अंजना, पाण्डव चरित्र भाग 1 व 2, बीकानेर के व्याख्यान, शालिभद्र चरित्न, मोरबी के व्याख्यान, संवत्सरी, जामनगर के व्याख्यान. प्रार्थना प्रबोध, उदाहरण माला भाग1 से 3, नारी जीवन, अनाथ भगवान भाग 1 व 2, गहस्थ धर्म भाग 1 से 3, सती राजमती और सती मदनरेखा। इसके अतिरिक्त तीन भागों में राजकोट के व्याख्यान, छह भागों में भगवती सूत्र पर व्याख्या और कथा साहित्य में हरिश्चन्द्र तारा, सदर्शन चरित्र, सेठ धन्ना चरित, शकडाल पूत्र व तीर्थकर चरित दो भागों में प्रकाशित हए हैं। 2. जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म.-- आप प्रभावशाली वक्ता होने के साथ-साथ सफल कवि भी थे। आपका शास्त्रीय ज्ञान गहरा था, पर व्याख्यान शैली इतनी सहज, सरल और सुबोध थी कि थोता आत्मविभोर हो जाते थे। सीधी सादी भाषा में साधारण सी छोटी लगने वाली बात आप इस ढंग से कह जाते थे कि उसका प्रभाव देर तक गंजता रहता था। अापके व्याख्यानों का मूल स्वर जीवन को शुद्ध, वातावरण को पवित्र और समाज को व्यसन-विकार मुक्त बनाना था। आपका राजस्थान के राजा-महाराजाओं, ज़मींदारों, जागीरदारों और रईसों पर बड़ा प्रभाव था । आपके उपदेशों से प्रभावित होकर कईयों ने मांसाहार, मदिरापान, आखेट और जीवहिंसा का त्याग किया था । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 अापके व्याख्यानों में सभी धमों के प्रति आदर भाव रहता था। जैन कथाओं के अतिरिक्त रामायण और महाभारत पर भी आपके प्रात्मस्पर्शी व्याख्यान हाते थे। राजा से लेकर रंक तक आपके उपदेशों की पहुंच थी। आपके व्याख्यानों में बड़े-बड़े सेठ साहकारों से लेकर धोबी, कुम्हार,नाई, तेली, मोची, रंगर आदि सभी वगा के लोग सम्मान पूर्वक सम्मिलित होते थे। मसलमान मात्रामा आपके विचारों से प्रभावित थे। संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फारसी, राजस्थानी, हिन्दी प्रादि भाषाओं के श्राप विद्वान् थे। आपके व्याख्यानों में भाषागत पाण्डित्य का प्रदर्शन नहाकर तदभव शब्दावती का विशेष प्रयोग होता था। प्राकृत गाथायों संस्कृत श्लोकों, हिन्दो दोहा, पदो और दूं और - शायरी का आप नि:संकोच प्रयोग करते थे। अधिकांश उदल कापताएं स्वरचित हाता था। आपका जीवन कल्पनाविवार में विचरण करने वाले साहित्यिक कवि का जीवन नहाकर कर्तव्य क्षेत्र में दढता से बढ़ने की प्रेरणा देने वाले एक कर्मठ कविका जीवन था। धर्म के नाम पर दी जाने वाली बलि को निस्सारता और भक्तों की अज्ञानता पर जा प्रहार आपने किया, उसका एक नमना देखिये :-- "माताजी के स्थान पर बकरों और भैंसों का वध किया जाता है। लोग अज्ञानवश होकर समझते हैं कि ऐसा करक व माताजा का प्रसन्न कर रहे हैं और उनको प्रसन्न करेंगे तो हमें भी प्रसन्नता प्राप्त हागःएसा तचना मूर्खता है। लोग माताजो का स्वरूप भल गये हैं और उनको प्रसन्न करने का तरीका भी पूल गया है। इसी कारण वेनशंस पोर अनर्थ तरीके आज भी काम में लात है.--.-सर्व मनारथा का पूरा करने वालोग्रार सबगख देने वाली उन माता का नाम है दया माता। दया माता को चार भुजाएं हैं। दोनों तरफ़ दो-दो हाथ हैं। पहला दान का, दूसरा शील बा, तासरा तपस्या का भार चाथा भावना का। जो अादमो दान नहीं देता, समझलोक उस दया माता का पहला हाथ तोड़ दिया है। जाब्रह्मचर्य नहीं पालता उसने दाराहायडया है। तपस्या नहीं की ता तीसरा हाथ खंडित कर दिया है और जो भावना नहीं भाता सन चाथा हाथ काट डाला है। एसा जीव मरकर वनस्पतिकाय श्रादि में जन्म लेगा। जहा उसे हाथ पैर नहीं मिलेंगे। (दिवाकर दिव्य ज्योति भाग-7 में से उद्धृत, पृष्ठ 75 व 82) प्रापका विशाल प्रवचन साहित्य दिवाकर दिव्य ज्याति' नाम से 21 भागों में प्रकाशित हा है। इसके प्रतिरिक्त जम्बू कुमार, पाश्वनाथ, रामायण, ग्रादि कथा ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए है। 3. प्राचार्य श्री गणेशीलालजी म.-- पाप प्राचार्य श्री जवाहरलालजी म.के पट्टधर शिष्य थे। अापके प्रवचनों के तीन संग्रह प्रकाशित हुए हैं-जैन संस्कृति का राजमार्ग, आत्म-दर्शन और नवीनता के अनगामी। इनमें जैन संस्कृति के प्रमुख सहान्त भार जीवात्मा की परिणति का सरल सुबोध भाषा शैली में विगत विवेल किया गया है। आपको व्याख्यान शैली तीर्थकर स्तुति से प्रारम्भ होकर शास्त्रीय विषय को पकड़ती है और नानाविध कथा-प्रसगों को स्पर्श करती हई आगे बढ़ती है। उसमें स्वानभूत वाणी का तजादीप्त स्वर प्रमुख रहता है। एक उदाहरण देखिये जैन दर्शन में न तो व्यक्ति पूजा को महत्त्व दिया गया है न ही संचित घरों में सिद्धान्तों को कसने की कोशिश की गई है। प्रात्म विकास संदेश को न सिर्फ समच विश्व की बल्कि समचे जीव-जगत को सुनाया गया है। जैन शब्द का मूल भी इसी भावना कानाव पर अंकरित दया है।मल संस्कृत धातु है 'जि' जिसका अर्थ होता है जातना। जीतने का प्राय कोई क्षेत्र या प्रदेश जोतना नहीं बल्कि आत्मा को जीतना, प्रात्मा की बुराइयों और कमज़ारियों का जीतना न संस्कृति के राजमार्ग से उद्धृत, पृष्ठ-9) Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 327 4. प्राचार्य श्री प्रानन्द ऋणि जी आप प्रखर चिन्तक, मधुर व्याख्याता और विशिष्ट साधनाशील संत हैं। अपने सुदीर्घ साधनामय जीवन में जहां पाप अात्म कल्याण की ओर प्रवृत्त रहे वहीं जनकल्याण की ओर भी सदैव सचेष्टरहे। सरलता के साथ भव्यता, विनम्रता के साथ दढ़ता और ज्ञान-ध्यान के साथ संघ-संचालन की क्षमता प्रापके व्यक्तित्व को विशेषताएं हैं। यों अापकी जन्मभमि और कर्मभमि महाराष्ट है पर सन्त किसी प्रदेश विशेषनबन्धे हुए नहीं रहते।श के कई भ भाग यापकी देशना से लाभान्वित हुए है। राजस्थान भी उनमें से एक है । ब्यावर, उदयपुर, भीलवाडा, माथद्वारा, जोधपुर, बड़ी मादड़ी, बदनौर, प्रतापगढ़, जयपुर, कुशलपुरा आदि स्थानों पर बातुमास कर अपने राजस्थान-बासियों को साध्यात्मिक प्रेरणा और सामाजिक नव-चेतना प्रदान की है। श्री वर्धमान स्थानकवासोश्रमण संघ के प्राचार्य के रूप में प्रापका व्यक्तित्व बहमुखी एवं महान् है । आपकी प्रेरणा से देश के विभिन्न भागों में कई संस्थाओं का जन्म हुअा। जिनमें मुख्य हैंश्री त्रिलोकरत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बाई, पाथर्डी, जैन धर्म प्रचारक संस्था, नागपुर, श्री प्राकृत भाषा प्रचार समिति प्रादि । आचार्य श्री का प्राकृत, संस्कृत, मराठी, हिन्दी सादि भाषाओं पर पूर्ण अधिकार है। आपने कई ग्रन्थों का मराठी में अनुवाद किया है जिनमें मुख्य है.--यात्मोन्नति चा सरल उपाय, जैन धर्मा विषयी अजैन विद्वाना अभिप्राय (दो भाग), जैन धर्माचे हिसा तत्त्व, वैराग्य शतक, उपदेश रत्नकोष आदि। हिन्दी आवामी यापकी कई पुस्तके हैं। ऋषि सम्प्रदाय का इतिहास में आपका इतिहासज्ञ और गवेषक का रूप सामने आया है। ज्ञान-कुंजर दीपिका और अध्यात्म दशहरा (श्री त्रिलोक ऋषि प्रणीत ) में आपका विवेचक और व्याख्याकार का रूप प्रकट हुना है। त्रिलोक ऋषि , रत्न ऋषि, देवजी ऋषि आदि के पापने जीवन चरित्र भी लिखे हैं। पाप धीर, गम्भीर और मधुर व्याख्याता हैं। अापकी वाणी में विचारों की स्थिरता, निर्मलता और भद्रता का रस है। आगम और पासमेतर साहित्य का आपका गढ़ और व्यापक अध्ययन है। इसकी झांकी आपके प्रवचनों में सर्वत्र देखी जाती है। आपके प्रवचनों के 'प्रानन्द-प्रवचन' नाम से छह भाग प्रकाशित हुए है। जीवन को सदाचारनिष्ठ बनाने में ये प्रवचन बड़े सहायक हैं। इनमें प्रयुक्त सूक्तियां हृदयस्पशी हैं तथा स्थान-स्थान पर आये हुए प्रासंगिक दृष्टान्त और कथा-प्रसंग प्रभावकारी हैं। एक उदाहरण देखिये --- "बीज छोटा सा होता है किन्तु उसी के द्वारा एक बड़ा भारी वृक्ष निर्मित हो जाता है। कहां बड़ का छोटा सा वीज केवल राई के समान और कहां विशालकाय तरुवर, जिस पर सैकड़ों पक्षी बसेरा लेते हैं तथा सैकड़ों थके हाए पसाफि जिसकी शीतल छाया में रुक विश्राम लेकर अपने को तरोताजा बना जाते है। छोटे गे बीज का महत्व बड़ा भारी होता है क्योंकि उसके अन्दर महान् फल छिपा हुया होता है। एक सुन्दर य में कहा भी है ----- बीज बीज ही नहीं, ताज में तरुबर भी है। मनुज मनुज ही नहीं, मनुज में ईश्वर भी है । कितनी यथार्थ बात है। एक बीज केवल वीज ही नहीं है, वह अपने में एक विशाल वृक्ष समाये हुए है, जो सींचा जाने पर संसार के समक्ष आ जाता है। इसो प्रकार मनुष्य केवल नामधारी मन प्य ही नहीं है, उसमें ईश्वर भी है जो आत्मा को उमति की ओर ले जातामा अपने सदृश बना लेता है। (मानन्द-प्रवनन, भाग-2, पृष्ट-371 से उदधृत) Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 5. प्राचार्य श्री हस्तीमल जी म.-- ग्राप जैन समाज के क्रियाशील संत, उत्कृष्ट साधक,प्रखर व्याख्याता और गंभीर गवेषक विद्वान् हैं। आपकी वाणी में परम्परा और प्रगतिशीलता का हितवाही सामंजस्य है। गजेन्द्र मुक्तावली, आध्यात्मिक साधना, आध्यात्मिक पालोक, प्रार्थना प्रवचन, गजेन्द्र व्याख्यान माला भाग 1 से 3 में आपके कतिपय चात मास-कालीन प्रवचन संकलित किये गये हैं। आपके प्रवचन में कथा भाग कम, स्वानुभत साधना से प्रसूत वाणी का अंश अधिक रहता है। शास्त्र-सम्मत यह वाणी समाज और राष्ट्र की व्यापक समस्याओं का समाधानात्मक स्वरूप प्रकट करती हुई जब श्रोताग्रों के हृदय को स्पर्श करती है तो वे प्राध्यात्मिक रस में डबने-तैरने लगते हैं। प्राकृत, संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् होने के कारण आपकी भाषा परिष्कृत और प्रांजल होती है। वाणी से सहज ही सूक्तिया प्रस्फटित होती रहतो हैं। शास्त्र की किसी घटना या चरित्र को प्राध निक संदर्भ में आप इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि वह हमारे लिए अत्यन्त प्रेरणादायी और मार्गदर्शक बन जाता है। अापके प्रवचन मूलतः आध्यात्मिक होते हए भी सामाजिक चेतना और राष्ट्रीय एकता के भाव व्यंजित करने में विशेष सहायक रहते हैं। 'पाध्यात्मिक पालोक' में संग्रहीत प्रवचनों में प्रात्म-जाग्रति का स्वर प्रमख है। श्रमणोपासक मानन्द के जीवन का चित्रण करते हए एक ग्रादर्श सद्गृहस्थ के जीवन की भव्य झांकी प्रस्तुत की हुई है। आपकी ये पंक्तियां कितनी प्रेरणा दायक हैं "जिस प्रकार एक चतुर किसान पाक के समय विशाल धान्य राशि पाकर खूब खाता, देता और ऐच्छिक खर्च करते हुए भी बीज को बचाना नहीं भूलता वैसे ही सम्यक् दृष्टि गृहस्थ भी पुण्य का फल भोग करते हुए सत् कर्म साधना रूप धर्म बीज को नहीं भूलता।' (आध्यात्मिक साधना से उद्धृत, पृष्ठ-3) 'प्रार्थना प्रवचन' में प्रार्थना के स्वरूप, प्रार्थना के प्रकार, उसके प्रयोजन और उसकी सिद्धि पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विवेचन उपलब्ध होता है। इसका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हो च का है। 'गजेन्द्र व्याख्यानमाला' के पहले भाग में पर्वाधिराज पर्युषण के आठ दिनों में दिये गये पाठ प्रवचन संकलित हैं। प्राचार्य श्री ने पर्युषण के आठ दिनों को क्रमश: दर्शन दिवस,ज्ञान दिवस, चारित्र दिवस, तप दिवस, भक्ति दिवस, स्वाध्याय दिवस, दान दिवस और अहिंसाप्रतिष्ठा दिवस नाम से सम्बाधित कर तत्-सम्बन्धी विषयों पर मार्मिक उद्बोधन दिया है। प्राचार्य श्री प्रखर व्याख्याता होने के साथ-साथ इतिहासज्ञ और शोधकर्मी विद्वान भी है। आप ही की प्रेरणा से जयपुर में आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार व जैन इतिहास समिति की स्थापना हुई है। इनके माध्यम से लगभग 30,000 हस्तलिखित प्रतियों का विशाल संग्रह अस्तित्व में आया और 'पट्टावली प्रवन्ध संग्रह' तथा 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' के दो भाग प्रकाशित हुए। इन पत्थों में आचार्य श्री की श्रमशीलता, अध्ययन की व्यापकता, प्रमाण-पुरस्सरता, तथ्य भेदिनी सूक्ष्म दृष्टि और तुलनात्मक विवेचना पद्धति का परिचय मिलता है। 6. प्राचार्य श्री नानालाल जी म.-- आप प्राचार्य श्री गणेशीलाल जी म. के पट्टधर शिष्य हैं। आपका व्यक्तित्व भव्य और प्रभावक है। वाणी में पोज और आधनिक जीवन संवेदन है। आपके उपदेश सर्वजनहितकारी और समता दर्शन पर आधारित समाज के नव निर्माण के लिए प्रेरक और मार्गदर्शक होते हैं । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 329 आपके प्रवचनों में आत्म साधना, सेवा, व्यसन मुक्ति और विकार विजय पर विशेष बल रहता है। श्रापसे उद्बोधित होकर समाज में अस्पृश्य समझे जाने वाले बलाई जाति के हजारों परिवारों ने व्यसनमुक्त, शुद्ध सात्विक संस्कारी जीवन जीने का व्रत लिया और ये 'धर्मपाल' नाम से सम्बोधित किए जाने लगे । आपकी व्याख्यान शैली रोचक और बुद्धिजीवियों को प्रभावित करने वाली होती है । अपने व्याख्यान का प्रारम्भ आप भी तीर्थ करों की स्तुति से करते हैं और उसी को माध्यम बनाकर आत्मतत्त्व को छूते हुए परमात्म दर्शन की गहराइयों में उतरते चलते हैं । व्याख्यान के अन्त में कोई न कोई चरिताख्यान धारावाही रूप से अवश्य चलता है। ये चरिताख्यान घटनाओं की मात्र विवृत्ति न होकर आधुनिक जीवन समस्याओं के समाधान कारक प्राख्यान होते हैं । भाषा की प्रांजलता, भावों की तीव्रता और शैली की प्रवाहमयता आपके व्याख्यानों की मुख्य विशेषता है । आपके व्याख्यानों के अब तक कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 'पावस - प्रवचन' नाम से पांच भागों में आपके जयपुर के चातुर्मास कालीन व्याख्यान संग्रहीत हैं । 'ताप और तप' में मंदसौर के 'शान्ति के सोपान' में ब्यावर के तथा 'आध्यात्मिक वैभव', 'आध्यात्मिक आलोक' में बीकानेर व्याख्यान संग्रहीत है। 'समता दर्शन और व्यवहार' प्रापकी ग्रन्य उल्लेखनीय कृति है जिसमें समता सिद्धान्त का दर्शन और व्यवहार के धरातल पर विवेचन प्रस्तुत करते हुए समतामय प्राचरण के 21 सूत्नों और साधक के तीन चरणों समतावादी, समताधारी और समतादर्शी का स्वरूप निरूपित किया गया है । अन्त में समता समाज की रूपरेखा और उसके निर्माणों के लिए सक्रिय होने की प्रेरणा दी गई है। प्रापकी व्याख्यान - विवेचन शैली का एक उदाहरण इस प्रकार है : -- 'ताप से अगर मुक्ति पानी है तो उसका उपाय है तप । तप करोगे तो ताप से छुटकारा मिल जायेगा । पर-पदार्थों का मोह और विकारों की अग्नि ग्रन्तचतना को ताप से जलाती है क्योंकि उनमें फंसे रहने के कारण आत्मा की दशा लकड़े की सी बनी रहती है, किन्तु तप उस दशा को बदलता है, उसमें फौलादी शक्ति भर कर उसे सोने की सी उज्ज्वल बनाता है । तप में आत्मा जब तपती है तो उसका सोना तप कर अपना चरम रूप प्रकट करता है । ताप से आत्मा काली होती है और तप से वह निखरती है ।' ( ताप और तप से उद्धृत, पृष्ठ-10 ) 7. उपाध्याय श्री अमर मुनि - आपका व्यक्तित्व सर्वतोमुखी प्रतिभा का धनी है । आप ओजस्वी वक्ता, ख्याति प्राप्त लेखक, सफल कवि, गूढ़ विवेचक और विद्वान् संत हैं । आपक अध्ययन और अनुभव का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । जैन, बौद्ध और वैदिक तीना परम्पराओं का आपन गम्भीर अध्ययन किया है । आप व्यवहार में जितने विनम्र और मधुर हैं विचारों में भी उतने ही उदार और सहिष्णु हैं । कविजी का मुख्य कार्य क्षेत्र आगरा रहा है । सन्मति ज्ञान पीठ के माध्यम से आपने अब वीरायतन योजना का साकार रूप देने के लिए आपने राजस्थान से भी प्रापका निकट का संपर्क रहा है और आपने साहित्य की अमूल्य सेवा की है । अपना क्षेत्र राजगृही बनाया है । कई चातुर्मास इस क्षेत्र में किये हैं । कवि श्री मूलतः साहित्यकार हैं । पद्य और गद्य दोनों क्षेत्रों में श्रापकी लेखनी अविराम चलती रही है । विरूप में तो आप इतने प्रसिद्ध हैं कि कवि जी महाराज के रूप में ही Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 आप जाने जाते हैं । प्रबन्ध काव्य के रूप में 'धर्मवीर सुदर्शन' और 'सत्य हरिश्चन्द्र' आपकी लोकप्रिय कृतियां हैं। मुक्तक काव्य के क्षेत्र में कविता कुंज, अमर माधुरी, अमर गीतांजली, अमर पद्य मुक्तावली, संगीतिका यदि आपको कई कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। आपका गद्य साहित्य भी विपुल और वैविध्यपूर्ण हैं । आपने गद्य की सभी विधात्रों में लिखा है -- क्या कहानी, क्या निबन्ध, क्या संस्मरण, क्या यात्रावृत्त, क्या गद्य काव्य । सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा से आपके अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं । कविजी शास्त्रज्ञ, होते हुए भी प्राचीन शास्त्रीय परम्परा से बन्धे हुए नहीं हैं । आप युग चेतना और आधुनिक जीवन संवेदना के क्रांतदर्शी कवि और व्याख्याता है । इस कारण आपके विचारों में नया चिन्तन और विषय को नवीन परिप्रेक्ष्य में प्रतिपादित और पुनर्व्यख्यायित करने की क्षमता है। आपकी भाषा में प्रवाह और माधुर्य देखते ही बनता है । आपके विचारों में स्पष्टता, निर्भीकता और समन्वयशीलता का गहरा पुट है । हृदय और बुद्धि, भावना प्रौर तर्क, नम्रता और दृढता के मेल से निसृत आपके विचार सबको प्रेरित प्रभावित करते हैं । एक उदाहरण देखिए- " सह अस्तित्व का नारा हैं-- हम सब मिलकर चलें, मिलकर बैठें, मिलकर जीवित रहें और मिलकर मरें भी 1 परस्पर विचारों में भेद है, कोई भय नहीं । कार्य करने की पद्धति विभिन्न है, कोई खतरा नहीं । क्योंकि तन भले ही भिन्न हो, पर मन हमारा एक है। जीना साथ हैं, मरना साथ है, क्योंकि हम सब मानव हैं और मानव एक साथ ही रह सकते हैं, बिखर कर नहीं, बिगड़ कर नहीं" । ( उपाध्याय अमरमुनि - - एक अध्ययन, पृष्ठ 301 से उद्धृत ) 8. मरुधर केसरी मुनि श्री मिश्रीमलजी म. -- आप राजस्थानी और हिन्दी के यशस्वी कवि होने के साथ-साथ प्रखर व्याख्याता श्रीर सबल संगठक भी हैं । अपने सुदीर्घकालीन संयम निष्ठ साधनामय जीवन में आपने लोक मानस को आत्मोत्थान की और प्रेरित करते हुए समाज को संस्कारनिष्ठ और आत्म निर्भर बनाने की दृष्टि से विभिन्न जनकल्याणकारी संस्थाओं, शिक्षणालयों और छात्रावासों को स्थापित करने की प्रेरणा दी है । आपकी प्रवचन शैली में मिश्री सी मधुरता और समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार करने की कठोरता एक साथ देखी जाती है । किसी गंभीर विषय को उठाकर भी आप छोटे-छोटे पौराणिक प्रसंगों, प्रेरणादायी एतिहासिक घटनाओं और अपनी पदयात्रा तथा चातुर्मास काल से सम्बद्ध विविध संस्मरणों और संपर्क में आये हुए विभिन्न व्यक्तियों को जीवन स्थितियों का पुट देकर उसे सहज, सरल और रोचक बना देते हैं । कत्रि होने के कारण यापके व्याख्यातों में काव्यात्मक अश का विशेष पुट रहता है । आप अपनी स्वरचित राजस्थानी, हिन्दी कविताओं के प्रतिरिक्त अन्य साहित्यिक कवियों और उर्दू शायरों के उदाहरण भी देते चलते हैं । आपका प्रवचन साहित्य विविध और विशाल है। अब तक जो प्रवचन संग्रह प्रकाशित हुए हैं, उनमें मुख्य हैं- जीवन ज्योति, साधना के पथ पर, प्रवचन प्रभा, धवल ज्ञान धारा और प्रवचन सुधा । 'जैन धर्म में तप स्वरूप और विश्लेषण' आपकी अन्य महत्वपूर्ण कृति है जिसमें तप का सांगोपांग समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है । आपके द्वारा श्रीमद् देवेन्द्र सूरि विरचित 'कर्म ग्रन्थ' की छह भागों में विस्तृत व्याख्या, विवेचन और समीक्षा की गई है । 'श्री मरुधर केसरी सुधर्म प्रवचन माला' के अन्तर्गत श्रापकी क्षमा, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 331 सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्य, इन दस धर्मों पर दस लघ पुस्तिकायें प्रकाशित की गई है। आपकी प्रवचन शैली का एक उदाहरण देखिए 'अब कचरे का ढेर कौनसा है ? हमारे भीतर जो ये क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय हैं ये ही सारे कचरे के ढेर हैं। इसी कचरे के ढेर में अपनी आत्मा के गुणरूपी अमूल्य रत्न दबे हुए हैं। इस ढेर में से जो प्रात्मार्थी पुरुष अन्वेषक बनकर, पक्का ढूंढ़िया बनकर अपने आपको उसमें आत्मसात करके खोजता है तो वे अमूल्य रत्न उसे मिल जाते हैं। भाई, ढूंढ़िया (अन्वेषक) बने बिना वे रत्न नहीं मिल सकते। ढूंढिया बने बिना न अाज तक किसी को मिले हैं और न आगे मिलेंगे इसीलिए कहा है 'जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठा' (प्रवचन प्रभा से उद्धृत, पृष्ठ-254) 9. श्री मधुकर मुनि-- ___ सौम्य और मधुर व्यक्तित्व के धनी मुनि श्री मिश्रीमल जी 'मधुकर', मधुकर की तरह ही गुणग्राही और आध्यात्मिक भावों की गुजार करने वाले हैं। मुनिश्री मधुर व्याख्याता होने के साथसाथ सरस कथाकार भी हैं। जीवन के नैतिक और धार्मिक अभ्यत्थान में आपकी रचनायें बड़ी प्रेरक और सहायक हैं। गहन विषयों को भी सरल ढंग से समझाने की आपकी अनूठी कला है। व्याख्यानों के पीछे आपका गहन चिन्तन और आत्म साधना का तेजोदीप्त अनुभव है। आपके प्रकाशित प्रवचन संग्रहों में 'अन्तर की अोर' दो भागों में तथा 'साधना के सूत्र' मुख्य है। 'अन्तर की ओर' में हृदय को शुद्ध, पवित्र और उज्ज्वल बनाने वाले प्रेरक तत्त्वों को लेकर दिये गये प्रवचन संकलित है। 'साधना के सूत्र' में आत्मा को साधुत्व के मार्ग पर बढ़ाने वाले मार्गानुसारी 35 दिव्य गणों का पौराणिक एवं नवीन उदाहरण देकर इस ढंग से विवेचन किया गया है क उनका कथन बड़ा ही स्पष्ट, रोचक, प्रभावक और मौलिक बन पड़ा है। साधना के ये सूत्र एक प्रकार से जीवन निर्माण के सूत्र कहे जा सकते हैं। एक नमूना देखिए-- "सद्गृहस्थ के जीवन को एक महावृक्ष की तरह माना गया है , जिसकी डालियों पर हजारों प्राणी अपना घोंसला बनाए जीवन गुजारते हैं। सैकड़ों हजारों प्राणों का आधार होता है और उसकी छाया में प्राणियों को जीवन मिलता है। वह वृक्ष यदि यह सोचे कि ये डालियां, शाखायें, पत्तियां और फूल निरे भार हैं, इनसे मुझे क्या करना है, मैं तो अकेला नंगा खड़ा रहूंगा तब भी अपना जीवन गुजार लूंगा तो इससे न उन प्राणियों को आश्रय मिलेगा और न वृक्ष की शोभा बढ़ेगी। वृक्ष का वृक्षत्व इसी में है कि वह अपने फल, फूल, शाखा, प्रशाखाओं का विस्तार करके हजारों जीवों को प्राश्रय देता रहे। इसी प्रकार हमारा जीवन है, जो स्वयं का विकास करता हया दूसरों के विकास में सहायक बने। निराश्रितों को प्राश्रय दे, शक्तिहीनों को शक्ति दे और जिन्हें पोषण की आवश्यकता है, दया की आवश्यकता है उन्हें संपोषण एवं शीतल छाया से रक्षित करे। (साधना के सूत्र से उद्धृत, पृष्ठ 337) । सुगम साहित्यमाला के अन्तर्गत अनेकान्त, कर्म, अहिंसा, गृहस्थ धर्म, अपरिग्रह, तप, गुणस्थान, जैनतत्त्व, जैन संस्कृति, भगवान महावीर और उनकी शिक्षाओं पर मायकी 12 लघ, पुस्तिकाएं भी प्रकाशित हुई हैं। मनि श्री का कथाकार रूप 'जैन कथामाला' के अद्यावधि प्रकाशित 12 भागों में प्रकट हना है। जैन आगमों और उनसे सम्बद्ध टीका ग्रन्थों में हजारों कथाएं बिखरी पड़ी हैं। उनका चयन कर आधुनिक शैली में उन्हें लिखने की महती आवश्यकता थी। यह ऐतिहासिक उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य इस शृंखला द्वारा पूरा हो रहा है। प्रारम्भ के छः भागों में सोलह सतियों और चौबीस तीर्थ करों की पावन जीवन कथायें दी गई है। सातवें और आठवें भाग में मगध के Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 राजा श्रेणिक, नौवें भाग में महामन्त्री अभय कुमार, दसवें भाग में महावीर के सुप्रसिद्ध दस श्रावकों, ग्यारहवें भाग में अन्य प्रसिद्ध श्रमणोपासकों तथा बारहवें भाग में जम्बू कुमार की कथायें हैं। सभी कथाओं की शैली रोचक, प्रवाहपूर्ण और आकर्षक है । 10. पं. मुनि श्री हीरालाल जी म.-- आप समाज के प्रोजस्वी व्याख्याता और शास्त्र मर्मज्ञ विद्वान् संत हैं। आपके व्याख्यान अत्यन्त मनोहारी, सारगभित और हृदय को पिघला देने वाले होते हैं। आत्मोत्थान के साथ समाज में नव चेतना जाग्रत करना आपका मुख्य उद्देश्य रहता है। शास्त्रीय दुरुह विषय को भी आप लोक कथाओं, लोक गीतों, महापुरुषों की घटनाओं, च टकलों आदि का पट देकर लोकभोग्य बना देते हैं। हीरक प्रवचन' नाम से दस भागों में आपके प्रवचन प्रकाशित हुए हैं। आपकी भाषा शैली देहाती संस्कार लिए हुए है । घरेल वातावरण से युक्त होने के कारण वह अत्यन्त सरल और सहज बन गई है। एक उदाहरण देखिए-- 'देखो! इस संसार में ऐसे तो अनेक माताएं हैं जो अनेकों पूत्रों को जन्म देती है परन्तु उसी माता का पूत्र को जन्म देना सार्थक है और वही माता इस संसार में धन्यवाद की पात्र है जिसका बेटा दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की भी पाहुति दे डालता है। परन्तु वही वीर पुत्र दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाता है जिसके हृदय में कोमलता और सहृदयता होती है। एक कठोर हृदय में दया का निवास नहीं रहता। ज्ञानी पुरुषों ने बताया है कि मानव वही है जिसके हृदय में निम्न चार बातें पाई जाती है अर्थात मानवता प्राप्त करने के लिए एक मानव के हृदय में भद्रिकता, विनय संपन्नता, दयालु ता और अमत्सरता का होना परमावश्यक है।' (हीरक प्रवचन भाग 1 से उद्धृत, पृष्ठ-161) 11. श्री पुष्कर मुनि आप समाज के चिन्तनशील मनीषी सन्त है। साहित्य और शिक्षण के प्रचार-प्रसार में आपका विशेष योगदान रहा है। आपके प्रवचनों के प्रमुख संकलन हैं 'साधना का राजमार्ग और जिन्दगी की मुसकान'। 'साधना का राजमार्ग', में सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, और सम्यक चारित्र तथा उसके प्रमुख तत्त्वों का सरल ढंग से शास्त्रसम्मत विवेचन प्रस्तुत किया गया है। जिन्दगी की मुस्कान' में जीवन की जीवन्तता बनाये रखने वाले मल तत्त्वों को लेकर भावात्मक शैली में बहुत ही मर्मस्पर्शी विचार प्रकट किए गये हैं। भावों की गम्भीरता के साथ भाषा की सजीवता देखते ही बनती है। एक उदाहरण देखिए -- 'हां, तो जीवन का सही विकास करना हो तो गति-प्रगति करिये। 'चर' धातु से ही आचार, विचार, संचार, प्रचार, उच्चार आदि शब्द बनते हैं। इन सबके मूल में चलना है, 'चर' क्रिया है। आप भी अपने जीवन में 'चर' को स्थान दीजिए, घबराइ , आपका व्यक्तित्व चमक उठेगा, आपका विकास सर्वतोमखी हो सकेगा, आपकी प्रतिभा चहंमर्ख उठेगी, आपके मनमस्तिष्क का प्रवाह इसी ओर मोडिये। श्रमण संस्कृति का आकर्षण इसी ओर रहा है। चरैवेति, चरवति, चले चलो बढ़े चलो । (जिन्दगी की मुस्कान से उद्धृत, पृष्ठ-149) 12. श्री देवेन्द्र मुनि-- आप सरस व्याख्याता, सफल लेखक और गढ गवेषक विद्वान् संत हैं। आपने विद्वानों और सामान्य पाठकों दोनों के लिए विपुल साहित्य का निर्माण किया है। भगवान महाबीर एक Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333 अनुशीलन, भगवान अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण एक अनुशीलन, भगवान पार्श्व एक समीक्षात्मक अध्ययन, ऋषभदेव एक परिशीलन, जैन दर्शन, स्वरूप और विश्लेषण प्रादि आपकी समीक्षात्मक ढंग से लिखी गयी शोध कृतियां हैं। इनसे आपके गहन अध्येता, प्रबुद्ध चिन्तक, और सधी समीक्षक रूप का पता चलता है। इन कृतियों में आपकी शैली ऐतिहासिक और तुलनात्मक रही है। आपका अन्य रूप सरस कथाकार और मधुर चिन्तक का है। आपकी हृदयहारिणी भावुकता, कल्पनाशीलता और साधना का स्वानुभव जिन कृतियों में प्रतिफलित हुआ है, उनमें प्रमख है--चिन्तन की चांदनि, अनुभति के आलोक में, विचार रश्मियां, विचार और अनभतियां, बिन्दू में सिन्ध, प्रतिध्वनि, खिलती कलियां:मस्कराते फूल आदि। ये कृतियां जीवन पथ पर बढ़ने वाले लोगों के लिए दीप स्तम्भ के समान हैं। इनमें मुनि श्री ने अपने व्यापक ज्ञान और अनुभव से समय-समय पर जो कुछ चिन्तन किया, उसे विभिन्न दृष्टान्तों, कथाओं, रूपकों और प्रसंगों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। इनमें प्रकट किए गये विचार मात्र अध्ययन के लिए न होकर मनन और आचरण की प्ररणा देने वाले हैं। मुनि श्री का प्रवचन और निबन्ध साहित्य भी विशाल है। संस्कृति के अंचल में, साहित्य और संस्कृति, धर्म और दर्शन आदि कृतियों में यह संगृहीत है। आपकी शैली सहज, सरल और प्रभावपूर्ण है। कहीं भी वह दुर्बोध नहीं बनती। एक विशेष प्रकार के आन्तरिक अनुशासन से वह अनुगुंजित रहती है। एक उदाहरण देखिए-- "संस्कृतनिष्ठ व्यक्ति का जीवन कलात्मक होता है। वह जीवन अगरबत्ती की तरह सुगन्धित, गुलाब की तरह खिला हुआ, मिश्री की तरह मीठा, मखमल की तरह मुलायम, सूर्य की तरह तेजस्वी, दीपक की तरह निर्भीक और कमल की तरह निलिप्त होता है। उसके जीवन में प्राचार की निर्मल गंगा के साथ विचार की सरस्वती और कला की कालिन्दी का सुन्दर संगम होता (संस्कृति के अंचल में से उद्धृत, पृष्ठ-4) 13. श्री गणेश मुनि-- आप सरस कवि और प्रोजस्वी व्याख्याता होने के साथ-साथ प्रबद्ध चिन्तक और शोधकर्मी विद्वान संत हैं। गद्य और पद्य दोनों पर आपका समान अधिकार है। पद्य के क्षेत्र में जहां आपने कई नये प्रयोग किए वहां अनुसन्धान के क्षेत्र को भी आपने नई दिशा दी। 'इन्द्र भति गौतम एक अनुशीलन' आपकी एक ऐसी ही कृति है। आगम साहित्य का अधिकांश भाग इन्द्रभूति गौतम और भगवान महावीर के संवाद-रूप में है। ऐसे महिमामय, असाधारण व्यक्तित्व पर जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर पहली बार विशद विवेचन प्रस्तुत किया गया है। अहिंसा जैन धर्म का ही नहीं भारतीय संस्कृति का प्राण तत्त्व है। इस पर विपुल परिमाण में तात्विक और सैद्धान्तिक निरूपण किया गया है। पर मुनि श्री ने वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान के रूप में अहिंसा के रचनात्मक उपयोग का व्यावहारिक रूप प्रस्तुत कर उसे एक बहु-आयामी धरातल प्रदान किया है। 'आधुनिक विज्ञान और अहिंसा' तथा 'अहिंसा की बोलती मीनारें' पुस्तकों में मुनि श्री का धर्म और विज्ञान को एक दूसरे के पूरक के रूप में प्रस्तुत करने का चिन्तन अभिनन्दनीय है । "हवाई जहाज के अन्दर दो यन्त्र होते हैं। एक यन्त्र हवाई जहाज की रफ्तार को घटाता-बढ़ाता है और दूसरा यन्त्र दिशा का बोधक होता है जिससे चालक हवाई जहाज की गति विधि को ठीक से संभाले रहता है। इसी प्रकार विश्व में दो शक्तिरूप यन्त्र अविराम गति से Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 काम कर रहे हैं। एक भौतिक और दूसरा श्राध्यात्मिक । भौतिक यन्त्र विविध सुख सुविधा व कार्यों की रफ्तार बढ़ाता है, और उसके वेग को कम ज्यादा करता है, तो अध्यात्म यन्त्र दिशा दर्शन देता है, हानि-लाभ का परिज्ञान करवाता है और मंजिलें मकसद तक पहुंचाने का प्रयास करता है । शक्ति ( हिंसा) के द्वारा हम विश्वविनाशक तत्त्व के निर्माताओं का मन, मस्तिष्क बदल सकते हैं और उनके प्रयासों की अनुपयुक्तता को समझा सकते हैं ।" ( 'हिंसा की बोलती मीनारें' से उद्धृत, पुष्ठ - 161 ) 'प्रेरणा के बिन्दु' में मुनि श्री ने छोटे-छोटे रूपकों के माध्यम से जीवन यात्रा पर बढ़ने वाले पथिकों को आस्था, विश्वास और साहस का सम्बल लुटाया है । 14. श्री भगवती मुनि 'निर्मल'-- आप समाज के युवा साहित्यकार और प्रबुद्ध तत्त्व चिन्तक हैं। कवि, कथाकार और ग्रागम व्याख्याता के रूप में श्रापका व्यक्तित्व उभर कर सामने आ रहा है । 'लो कहानी सुनो', 'लो कथा कह दूं' पुस्तकों में धर्म-ग्रन्थों, इतिहास, पुराण, प्रकृति आदि विविध क्षेत्रों तथा जीवन की साधारण घटनाओं से प्रसंग जुटाकर छोटी-छोटी कहानियां लिखी गयी हैं जो बड़ी प्रेरणादायी और जीवन के उत्थान में सहायक हैं । आपकी भाषा प्रभावमयी और शैली रोचक है । 'आगम युग की कहानियां' भाग-1, 2 में आगमिक धरातल से प्रेरित होकर कहानियां लिखी गई हैं । पठन से तत्कालीन युग की सामाजिक और सांस्कृतिक झांकी भी मिलती चलती है । 'प्रेरणा के प्रकाश स्तम्भ', 'जीवन के पराग कण', बिखरे पुष्प, 'अनुभूति के शब्द शिल्प' आदि प्रापकी अन्य कृतियां हैं जिनमें अध्यात्म जगत से निसृत अनुभूत विचारों को कथात्मक और गद्य काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है । एक उदाहरण देखिए--' इनके 'कटोरा पास में रखने से प्यास नहीं बुझेगी, उसमें रखे हुए पानी को अपने गले में उतारना होगा । शरीर की पूजा छोड़कर आत्मा के सहज स्वाभाविक गुणों को अपनाना ही सच्चे साधक का लक्ष्य होना चाहिए। शरीर की पूजा तो अनन्त काल से होती ही रही है, उससे श्रात्मा भटकी है, किनारे पर नहीं आयी । बहुधा साधक ने आत्मा के गुणों के गीत तो गाये, परन्तु उनमें आत्मा को भिगो कर उसे तृप्त नहीं किया ।' ( अनुभूति के शब्द शिल्प से उद्धृत, पृष्ठ- 108 ) 15. श्री रमेश मुनि- आप मेवाड़ भूषण श्री प्रतापमलजी म. के विद्वान शिष्य हैं । तत्त्व चिन्तक और सफल afa होने के साथ साथ श्राप सरस कथाकार भी हैं । 'प्रताप कथा कौमुदी' के पांच भागों में जैन आगमों और जैन चरित्रों में आये हुए विविध प्रसंगों को लेकर आपने जो कथायें लिखी हैं वे बड़ी प्रेरणादायी हैं । आप में वर्णन की क्षमता, चित्रोपमता तथा भाषा का अच्छा प्रवाह है। 'भगवान् महावीर के पावन प्रसंग' में आपने भगवान महावीर के 65 घटनात्मक और 22 संवादात्मक प्रसंगों को बड़े ही रोचक कथात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है । 'चिन्तन के आलोक में सामाजिक तथा दार्शनिक चिन्तन के धरातल से लिखे गये श्रापके छोटे-छोटे सुभाषित संगृहीत है । इनका अध्ययन करते समय शास्त्र और लोकजीवन की अनुभूति साथ-साथ होती चलती है । एक उदाहरण देखिए- 'कीमती जवाहरात जैसे सोना, मणि माणिक्य, हीरे, पन्ने, रत्न आदि को मेधावी मानव तिजोरी में छिपा कर रखता है । कारण कि बहुमूल्य वस्तु बराबर नहीं मिला करती है। उन्हें पाने के लिए उन पर बहुतों की आंखें ताका करती हैं। थोड़ी सी असावधानी हुई कि माल, माल Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 335 के ठिकाने पहुंच जाता है। उसी प्रकार भव्यात्माओं के लिये मल्यवान आभूषण माने हैं उनके द्वारा गृहीत व्रत। व्रतदेही के अलंकार हैं जो उत्तरोत्तर आत्म ज्योति को तेजस्वी एवं ऊर्ध्वमुखता की ओर प्रेरित करते हैं। कहा भी है--'देहस्य सारं व्रतधारणम' मानव देह की सार्थकता इसी में है कि वह यथाशक्ति सुव्रतों को अपनाकर असंयमी वृत्तियों को नियन्त्रित करे।' (चिन्तन के आलोक में से उद्धृत, पृष्ठ-37) उपर्युक्त संत लेखकों के अतिरिक्त कई युवा संत कथा और निबन्ध क्षेत्र में बराबर अपना योगदान दे रहे हैं। विस्तार भय से यहां प्रत्येक के सम्बन्ध में लिखना शक्य नहीं है। इन संत लेखकों में श्री अजितमुनि 'निर्मल', श्री सौभाग्य मुनि 'कुमुद', श्री उदय मुनि, श्री महेन्द्र मुनि 'कमल', श्री राजेन्द्र मुनि, श्री रमेश मुनि (पुष्कर मुनिजी के शिष्य ) श्री मदन मुनि, मुनि श्री नेमिचन्दजी आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। [ख] साध्वी वर्ग: जैन संतों की तरह जैन साध्वियों की भी साहित्य सर्जना और संरक्षणा में विशेष भूमिका रही है। स्थानकवासी परम्परा में कई ऐसी साध्वियां हुई हैं जिन्होंने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रतिलेखन कर उन्हें सुरक्षित रखा है। ऐसी साध्वियों में आर्या उमा, केसर, गंगा, गुलाबा, चन्दणा, छगना, जेता, ज्ञानी, पन्ना, पदमा, प्रेमा, फूलां, मगना, रुकमा, लाछा, संतोखा, सरसा आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है । महासती भर सून्दरी और जड़ावजी ने काव्य क्षेत्र में सून्दर आध्यात्मिक गीत प्रस्तुत किए हैं। गद्य क्षेत्र में भी ये पीछे न रहीं। आधुनिक युग में शास्त्रीय अध्ययन के साथ-साथ संस्कृत और हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति साध्वी समुदाय में भी विशेष रूप से बढ़ी। कई साध्वियां अच्छी व्याख्याता होने के साथ-साथ सफल लेखिकाएं भी हैं। इनमें साध्वी उमराव कुंवर जी 'अर्चना' और मैना सुन्दरी जी का नाम विशेष उल्लेखनीय है। 1. साध्वी उमराव कुंवर जी 'अर्चना'-- आप स्थानकवासी समाज की विदुषी विचारक साध्वी हैं। जैन दर्शन व अन्य भारतीय दर्शन का आपका गहन अध्ययन है। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी,गुजराती, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं का आपको अच्छा ज्ञान है। अपने पाद विहार से आपने राजस्थान के अतिरिक्त पंजाब, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश की भूमि को भी पावन किया है। आपके व्यक्तित्व में प्रोज और माधुर्य का सामजस्य है। आपकी प्रवचन शैली स्पष्ट व निर्भीक है। आपकी कई साहित्यक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। उनमें मुख्य है--हिम और प्रातप, आम्रमंजरी, समाधि मरण भावना, उपासक और उपासना तथा अर्चना और आलोक । 'अर्चना और आलोक' में शास्त्रीय और लौकिक विषयों से सम्बद्ध 21 प्रवचन संकलित है। पौराणिक और आधुनिक जीवन से प्रेरक कथानों और मार्मिक प्रसंगों का उल्लेख करते हुए आपने प्रवाहमयी भाषा और प्रोजस्वी शैली में अपने विषय का प्रतिपादन किया है। आपके विचारों में उदारता और चिन्तन में नवीन दृष्टि का उन्मेष है। धर्म की विवेचना करते हुए आपने लिखा है-- 'धर्म के दो रूप हैं--पहला मनः शद्धि और दूसरा बाह्य व्यवहार । मन की शद्धि से तात्पर्य है-मन में अवतरित होने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मोह आदि मनोविकारों को क्षमा, नम्रता, निष्कपटता, संतोष, संयम आदि आत्मगुणों में परिणत कर लेना तथा बाह्य व्यवहार का अर्थ है-आत्म गुणों को जीवन-व्यापार में क्रियान्वित करने के लिए सामायिक, संवर, प्रतिक्रमण तथा व्रत-उपवास आदि क्रियाएं करना। मन को विकारों से मुक्त करना विचार Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 836 धर्म है और उन निर्विकारी भावों को विवेकपूर्वक जीवन व्यवहार में उतारना आचार धर्म है । यदि विचारों में राग, द्वेष ग्रादि विकारों का विष नहीं है, तो प्रचार में भी उनका कुप्रभाव प्रतिलक्षित नहीं होगा ।' ( अर्चना और आलोक से उदधृत, पृष्ठ-303) 2. साध्वी मैना सुन्दरी जी - सौम्य स्वभाव और मधुर व्यक्तित्व की धनी साध्वी श्री मैनासुन्दरी जी अपनी प्रोजस्वी प्रवचन शैली और स्पष्ट विचार धारा के लिए प्रसिद्ध हैं । आपके विषय - प्रतिपादन में शास्त्रीय धार तो होता ही है, वह नानाविध जीवन प्रसंगों, ऐतिहासिक घटनाओं और काव्यात्मक उदाहरणों से सरस और रोचक बनकर श्रोता समुदाय को आत्म विभोर करता चलता है । विशेष पर्व तिथियों और पर्युषण पर्वाराधन के 8 दिनों में दिये गये आपके प्रवचन विशेष प्रभावशाली और प्रेरक सिद्ध हुए हैं । आपके प्रवचनों के दो संग्रह, प्रकाशित हो चुके हैं - दुर्लभ अंग चतुष्टय और पर्युषण पर्वाराधन । पहली कृति में मनुष्यत्व, श्रुतवाणी श्रवण, श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थ इन चार दुर्लभ अंगों पर मार्मिक प्रवचन और परिशिष्ट में इन पर दो-दो कथाएं संकलित हैं । दूसरी कृति में सम्यग्ज्ञान, सम्यक्दर्शन, सम्यक् चारित्र, तप, दान, संयम, आत्म शुद्धि और क्रोधविजय पर जीवन निर्माणकारी सामग्री प्रस्तुत की गई है। आपकी शैली सरस एवं सुबोध हैं, भाषा में प्रवाह है, माधुर्य है और विषय का आगे बढ़ाने की अपूर्व क्षमता है । एक उदाहरण देखिए- लूला 'किसी भयानक वन में बहुत जोरों से आग लगी हो और उसमें एक अन्धा और दूसरी तरफ एक लूला व्यक्ति झुलस रहा हो, ऐसी विषम वेला में दोनों आपस में प्रेम करलें और कहदें कोई बात नहीं यदि हमें अंग अपूर्ण मिले हैं, परन्तु हम एक दूसरे के सहायक बनकर इस बीहड़ भूमि से पार हो जायेंगे । अन्धा अपने कन्धे पर लूले को चढ़ाले और उन्हें मार्ग-दर्शन करता रहे तो वे दोनों सरलता से पार होंगे या नहीं ? उत्तर स्पष्ट है कि अवश्य ही होंगे । तो आइये हम अपने जीवन को ज्ञान और क्रिया के समन्वय से सुन्दर, समुज्ज्वल स्वरूप प्रदान करें ताकि हमारे लड़खड़ाते कदम अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर और मृत्यु अमरत्व की ओर बढ़ सकें । (पर्युषण पर्वाराधन से उद्धृत, पृष्ठ 66 ) उक्त साध्वी द्वय के अतिरिक्त अन्य साध्वी लेखिकाओं में साध्वी श्री रतनकंवर जी और निर्मल कंवरजी के नाम उल्लेख योग्य हैं। इन उदीयमान लेखिकाओं के निबन्ध 'जिनवाणी' मासिक पत्रिका में समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं । इनके अतिरिक्त महासती जसकंवरजी, छगन कंवरजी, कुसुमवती जी श्रादि प्रभावशाली व्याख्यानकती साध्वियां हैं । [ग] गृहस्थ वर्ग : -- जैन संत-सतियों के समानान्तर ही जैन गृहस्थ वर्ग का भी साहित्य सर्जना में योग रहा है। यों जैन समाज मुख्यतः व्यावसायिक समार्ज है पर राष्ट्रीय जीवन के सभी पक्षों को पुष्ट करने में उसकी सबल भूमिका रही है । साहित्य का क्षेत्र भी उससे अछूता नहीं रहा । में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ श्रावाज बुलन्द करने, नैतिक शिक्षण को बढ़ावा देने, स्वाधीनता आन्दोलन को गतिशील बनाने, धर्म और दर्शन को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने तथा समाज में ऐक्य और सेवा भावना का प्रसार करने जैसे विविध लक्ष्यों को ध्यान में रख कर गद्य समाज Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 साहित्य का निर्माण होता रहा है। कुछ प्रमुख गद्य लेखकों का उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है-- 1. पं. उदय जन -- श्री जवाहर विद्यापीठ, कानोड़ के संस्थापक, संचालक, पं. उदय जैन प्रारम्भ से ही प्रोजस्वी वक्ता और मौलिक चिन्तक रहे हैं। आपकी यह प्रखरता और मौलिक चिन्तना आपके लेखन में भी प्रतिफलित हुई है। स्वतन्त्र विचारक होने के नाते आप निर्भीक होकर स्पष्ट बेलाग भाषा में अपनी बात कहते हैं। भगवान महावीर के जीवन और सिद्धान्तों से सम्बन्धित 'वीर विभूति' नामक आपका एक ग्रन्थ प्रकाशि का है जिसके वर्धमान महावीर, तीर्थंकर महावीर और सर्वज्ञ महावीर तीन खण्ड हैं। य परी पुस्तक है 'साम्प्रदायिकता से ऊपर उठो'। इसमें 30-35 वर्षों के मध्य समय-समय पर लिखे गए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित जैन धर्म, धार्मिक शिक्षा, जैन सिद्धान्त, समाज संगठन, संघ सेवा प्रादि से संबद्ध विचारोत्तेजक, प्रेरणादायी लेख संकलित हैं। नवयुवकों को प्रेरणा देते हए आप कहते हैं-- "वीर नवयुवकों ! अपना समाज धनलोलुप बना हुआ है। वीर के तप और त्याग को भल गया है। गौतम जैसे शिष्य ने निर्वाणोत्सव मनाया था। आज हमें उसी तरह सज्ञान का प्रदीप जला कर मनाना है। संसार को शांति, अहिंसा का पाठ पढ़ा कर मनाना है। संसार में प्रज्वलित हिंसा की आग अब शांत करना है। यह कार्यवीर के अनुयायी ज्ञान और क्रिया की दो पांखों वाले जैन युवक ही कर सकते हैं। अतः हे नवयुवाओं आप उठो, निर्भय होकर अपने पुरुषार्थ को बताओ और अपनी सारी प्रवृत्तियां समाजोत्थान के कार्य में समर्पण कर दो।" (24-4-45 के 'जैन प्रकाश' में प्रकाशित लेख से उद्धृत) 2. डा. मोहनलाल मेहता कानोड़ (उदयपुर) के ही डॉ, मेहता जो वर्तमान में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी के अध्यक्ष और बनारस हिन्द युनिवर्सिटी में जैन दर्शन के सम्मान्य प्राध्यापक हैं. सफल लेखक और विचारक विद्वान हैं । आपका संस्कृत और प्राकृत के साथ हिन्दी, अंग्रेजी और गुजराती भाषामों पर अच्छा अधिकार है। जैन दर्शन और जैन संस्कृति पर आपने हिन्दी और अंग्रेजी में कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें मुख्य हैं--जैन धर्म दर्शन, जैन आचार, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, प्राकृत और उसका साहित्य, गणितानुयोग। जैन दर्शन, जैन मनोविज्ञान, जैन संस्कृति और जैन कर्म सिद्धान्त पर लिखी हुई आपकी अंग्रेजी पुस्तकें बुद्धजीवियों के लिए विशेष उपयोगी रही है। आपकी लेखन शैली स्पष्ट और सटीक है। सहज, सरल भाषा में आप सीधे ढंग से प्रमाण पुरस्सर बात कह जाते हैं। एक उदाहरण देखिए "मरण दो प्रकार का होता है--बाल मरण और पंडित मरण । अज्ञानियों का मरण बाल मरण एवं ज्ञानियों का पंडित मरण कहा जाता है। जो विषयों में आसक्त होते हैं एवं मत्य से भयभीत रहते हैं वे अज्ञानी बाल मरण से मरते हैं। जो विषयों में अनासक्त होते हैं यथा मृत्यु से निर्भय रहते हैं, वे ज्ञानी पंडित मरण से मरते हैं। चुकि पंडित मरण में संयमी का चित्त समाधियुक्त होता है अर्थात् संयमी के चित्त में स्थिरता एवं समभाव की विद्यमानता होती है, अतः पंडित मरण को समाधि मरण भी कहते हैं ।" (जैन धर्म दर्शन से उवृत्त, पृ. 11) Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. डा. नरेन्द्र भानावत राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक डा. नरेन्द्र भानावत प्रोजस्वी वक्ता होने के साथ-साथ सफल साहित्यकार भी ह। पद्य और गद्य दोनों क्षेत्रों में प्रापने समान रूप से लिखा है। आप प्रगतिशील चेतना और जीवन आस्था के कवि हैं। आपका इन्सान को कर्मठता, अदम्य जिजीविषा और यातनाओं के खिलाफ अस्तित्व रक्षा के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहने का साहसिक स्वर 'माटी कुकम' तथा 'आदमी, मोहर और कुर्सी पुस्तकों में संकलित कविताओं में मुखरित हुआ है। मानवीय संवेदना और प्रगतिशील उदार सांस्कृतिक चेतना के धरातल से लिखी गई पापको कहानियां 'कुछ मणियां कुछ पत्थर' में तथा एकांकी 'विष से अमृत की ओर' में संगृहीत हैं । कवि, कहानीकार और एकांकीकार होने के साथ-साथ आप मौलिक चिन्तक और प्रौढ़ निबन्धकार भी हैं। आपने साहित्यिक और सामाजिक संवेदना के धरातल से जैन धर्म और दर्शन को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। 'साहित्य के त्रिकोण' में आपके जैन साहित्य सम्बन्धी समीक्षात्मक निबन्ध संग्रहीत है। राजस्थानो वलि साहित्य' में जैन वेलि परम्परा का विवेचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। जिनवाणी' के संपादक के रूप में समय-समय पर लिखी गई आपकी विशिष्ट संपादकीय टिप्पणियां धर्म का तजस्विता और उसके सामाजिक दाय को उभारने में विशेष सहायक हुई है। आपके निबन्धों में पालोचना और गवेषणा के सम्यग योग से एक विशेष चमत्कृति आ जाती है। आपकी भाषा प्रांजल, शैली रोचक और विचार परिष्कृत होते हैं। एक उदाहरण देखिए "किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि प्राधनिकता और वैज्ञानिक युग धर्म के लिए अनुकूल नहीं हैं या वे धर्म के शत्रु हैं। सहो बात तो यह है कि आधुनिकता हो धर्म की कसौटो है। धर्म सहज अंधावश्वास या अवसरवादिता नहीं है। कई लोकसम्मत जीवनादर्श मिल कर ही धर्म का रूप खड़ा करते हैं। उसमें जो अवांछनीय रुढ़ि तत्त्व प्रवेश कर जाते हैं, आधुनिकता उनका विरोध करती है। आधुनिकता का परम्परा या धर्म के केन्द्रीय जोवन तत्त्वों से कोई विरोध नहीं है। उदाहरण के लिये परम्परागत मानवीय आदर्श-प्रेम, सुरक्षा, सहयोग, ममता, करुणा, सवा आदि गुण लिए जा सकते हैं। हमारी दृष्टि से आधुनिकता इन गुणों से रहित नहीं हो सकती। यह अवश्य है कि ज्यों-ज्यों सामाजिक सुरक्षा के विविध साधन अधिकाधिक प्रस्तुत हाते जा रहे हैं त्यों त्यों इन मानवीय गणों का स्थानान्तरण होता जा रहा है। पेन्शन, प्रावीडेण्ट फण्ड, जोवन बोमा आदि एजेन्सियों में व सरकारी संस्थानों में। पर यह स्मरणीय है कि धर्म को भावना ही एक ऐसा रस तत्त्व-संजीवन तत्त्व है जो आधुनिकता के परिपक्व फल को सड़ने से बचायेगा, अन्यथा उसमें कीड़े पड़ जायेंगे और वह खाने के योग्य नहीं रहेगा। ('जिनवाणी' के श्रावक धर्म विशेषांक से उधत, पृष्ठ 4) उपर्युक्त लेखकों के अतिरिक्त ऐसे लेखकों की संख्या पर्याप्त है जिनके स्फुट लेख समयसमय पर विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। श्रा कन्हैयालाल लोढ़ा और श्री हिम्मतसिंह सरुपरया ने आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में जैन धर्म और दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने में अच्छा पहल का है। डा. महेन्द्र भानावत ने जैन साहित्य की लोकधर्मी परम्पराओं को उजागर करने का प्रयास किया है। श्री शान्तिचन्द्र मेहता, श्री मिट्ठालाल मरडिया, श्री रिखबराज कर्णावट, डा. इन्द्रराज बैद, श्री रत्नकुमार जैन 'रत्नेश', श्री चांदमल कर्णावट, श्री रतनलाल संघवी, श्री सुरजचन्द डांगी, श्री संपतराज डोसी, श्री जशकरण डागा, श्री प्रतापचन्द भूरा, श्री उदय नागारी आदि लेखकों ने धार्मिक-सामाजिक संवेदना से प्रेरित होकर कई लेख लिखे हैं। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 339 महिला लेखिकानों में शान्ता भानावत (लेखिका) ने जीवन की सामान्य घटनाओं को लेकर नैतिक प्रेरणा देने वाली धार्मिक-सामाजिक कहानियां और दैनन्दिन जीवन में घटने वाली बातों को लेकर कई जीवनोपयोगी प्रेरक लेख लिखे हैं। श्रीमती सुशीला बोहरा और रतन चौरड़िया के भी कुछ लेख प्रकाशित हए हैं । जैन संत सामान्यतः सीधे लेख नहीं लिखते। उनका अधिकांश साहित्य संपादित होकर प्रकाश में आया है। संपादकों की इस पंक्ति में यशस्वी नाम हैं पं. शोभाचन्द भारिल्ल और श्री श्रीचन्द सुराणा 'सरस'। भारिल्ल जी ने अपने जीवन का अधिकांश भाग संपादनसेवा में ही समर्पित किया है। जवाहर किरणावली, दिवाकर दिव्य ज्योति, हीरक प्रवचन आदि के रूप में जो प्रवचन साहित्य प्रकाशित हुआ है उसका श्रेय आप ही को है। इधर सरसजी के संपादन में अधिकांश साहित्य प्रकाशित हो रहा है । समग्र रूप से कहा जा सकता है कि हिन्दी गद्य साहित्य के क्षेत्र में जैन संतों, साध्वियों और गृहस्थों की महत्त्वपूर्ण देन रही है। इस साहित्य में उत्तेजना का स्वर न होकर प्रेरणा का स्वर है। यह हमारी बाह्य वृत्तियों को उभाड़ता नहीं वरन् उन्हें अनुशासित कर अन्तर्मुखी बनाता है। जीवन को पवित्र, समाज को प्रगतिगामी और विश्व को शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की ओर उन्मुख करने में यह साहित्य बड़ा उपयोगी है। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन गद्य साहित्य-7. मुनि श्रीचन्द 'कमल' तेरापंथ तीसरे शतक के दूसरे दशक में चल रहा है। इस कालावधि में अनेक साधसाध्वियां साहित्यकार हुए हैं। जैन परम्परा के अनुसार वे पाद-विहार व्रती हैं । 'तिन्नणं तारयाण' सूत्र के अनुसार वे आत्म-साधना के माथ-साथ जन कल्याण की भावना लेकर चलते है। इसलिये वे सदा लोक भाषा को महत्व देते रहे हैं। तेरापंथ के नवमाचाय श्री तुलसी गणी के प्राचार्यकाल में साधु-साध्वियों का विहार क्षेत्र व्यापक हुअा है । जन सम्पक और आवश्यकता वश तेरापंथ के साधु-साध्वियों ने हिन्दी साहित्य में प्रवेश किया । हिन्दी की मर्वप्रथम पुस्तक जीव-अजीव वि. सं. 2000 में प्रकाश में पाई जो मनिश्री नथमलजी की प्रथम कृति थी। आपकी दूसरी पुस्तक थी अहिंसा। फिर धीरे-धीरे साहित्य सर्जन में गति होती गई। इन तीस वर्षों में साधु-साध्वियों की छोटी-मोटी लगभग तीन-चार सौ कृतियां प्रकाशित हो चकी हैं। गद्य साहित्य अनेक विषयों को लक्ष्यकर लिखा गया मुख्य विषय है-- विचार प्रधान निबन्ध, योग, जैन दर्शन, यात्रा,संस्मरण, इतिहास, पागमों की व्याख्या, जीवनी, प्रणव्रत, उपन्यास-कथा, प्रवचन, काव्य, विविध विषय आदि-आदि । विचार प्रधान निबन्ध साहित्य : 1 मेरा धर्म केन्द्र और परिधि-लेखक प्राचार्य तुलसी :--पच्चीस निबन्धात्मक इस कृति में धर्म के तेजस्वी रूप को केन्द्र में प्रतिष्ठित करके विविध सम्प्रदायों को परिधि माना गया है। धर्म बुद्धि की दौड़ से दूर अनुभूतिगम्य है। वह व्यक्ति को बांधता नहीं, मुक्त करता है। धर्म की रूढ धारणाओं के प्रति इसमें एक क्रान्तिकारी स्वर मखरित किया गया है। आज वही धर्म जीवित रह सकता है जिसमें बौद्धिक चुनौतियों को झेलने की क्षमता हो, मन को स्थिरता, बुद्धि को समाधान और हृदय को श्रद्धा का संबल प्रदान करने वाले ये लघ निबन्ध धर्मानुभूति की दिशा में प्रेरणा देने वाले हैं। 2. क्या धर्म बुद्धि गम्य है --प्राचार्य तुलसी :--प्रस्तुत पुस्तक में धर्म का जो स्वरूप उपस्थित किया गया है उससे धर्म का द्वार उन लोगों के लिए भी खुल जाएगा जो बुद्धिवाद के रंग में रंगकर उसे कपोलकल्पित मात्र समझते हैं। वे भी लाभान्वित होंगे जो धर्म को केवल परलोक की छाया में ही देखते हैं। वे भी उपकृत होंगे जो धर्म को प्रात्मानुभूति का तत्व मानते 3. धर्म एक कसौटी एक रेखा--प्राचार्य तुलसी :--भारत में धर्म शब्द बहुत प्रिय रहा है। उसकी अत्यन्त प्रियता के कारण उसकी मर्यादा में कुछ उन वस्तुओं का भी समावेश हो गया है, जो इष्ट नहीं है। अनिष्ट का प्रवेश होने पर उसकी परीक्षा का प्रश्न उपस्थित हुआ। परीक्षा का पहला प्रकार कसौटी है। उस पर रेखा खींचते ही स्वर्ण परीक्षित हो जाता है। धर्म की कसौटी है मानवीय एकता की अनभूति। हृदय और मस्तिाक पर अभेद की रेखा बचित होते ही धर्म परीक्षित हो जाता है। प्रस्तुत पुस्तक में धर्म को इसी कसौटी पर रखा गया है। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 341 4. तट दो प्रवाह एक--मुनि नथमल :--प्रस्तुत कृति दार्शनिक परिवेश में दर्शन, जावन, समाज-व्यवस्था के साथ अनिवार्यतः सम्बद्ध जीवन धर्म, राष्ट्र धर्म, एकता, अभय, अहिंसा, सह अस्तित्व आदि प्रश्नों की बुद्धिगम्य और तर्क संगत व्याख्या देती है । 5. समस्या का पत्थर अध्यात्म की छेनी--मनि नथमल:---जहां अध्यात्म है वहाँ व्यावहारिकता का सामंजस्य नहीं है, यह एकांगीपन समस्या है। दूसरी ओर व्यवहार को पकड़ने वाले व्यक्ति सभी समस्याओं को सुलझाने में केवल व्यवहार को ही उपयोगी मानते हैं। हमारी समस्याएं बाहर के विस्तार से आ रही है किन्तु उनका मूल हमारे मन में है। 95 प्रतिशत समस्यायें हमारे मन से उत्पन्न होती हैं। अध्यात्म एक छेनी है, उससे समस्या के पत्थर को तराशा जा सकता है। मन की गहराई में पनपने वाली समस्याओं की गांठ खुलने पर मुक्ति की अनुभूति सहज हो जाती है। प्रस्तुत पुस्तक इसी सत्य की परिक्रमा किए चलती है। ____6. महावीर क्या थे?-मुनि नथमल:--महावीर क्या थे यह प्रश्न पहले भी पूछा जाता रहा है और आज भी पूछा जाता है। इसका उत्तर एक-सा नहीं दिया जा सकता। महावीर के जीवन के अनेक पायाम हैं। सभी पायाम यशस्वी और उज्ज्वल हैं। उन्होंने सत्य-संधित्सा की भावना से अभिनिष्क्रमण किया. सत्य की साधना की ओर एक दिन स्वयं सत्य हो गए। इस पुस्तक में उनके व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों की स्फट व्याख्या है और सत्य बनने का प्रशस्त मार्ग निर्दिष्ट है। योग साहित्य : 1. तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो--मुनि नथमल:-प्रस्तुत पुस्तक अपनी अनन्त शक्तियों के प्रकटन का मार्ग दिखाती है। जैन योग और प्रासन, कायोत्सर्ग, भाव-क्रिया, मोह व्यह, संवेग निर्वेद प्रादि 24 योग विषयों पर जैन साधना की दृष्टि स्पष्ट की गई है। 2. मैं मेरा मन मेरी शान्ति--मुनि नथमल:--प्रस्तुत ग्रंथ में मन की एकाग्रता, अमनावस्था की उपलब्धि, धर्मतत्व का चिन्तन, व्यष्टि और समष्टि में अविरोध की साधना पर प्राधृत शास्वत प्रश्नों को विवेचित किया गया है। इसके तीन खण्ड हैं-मैं और मेरा मन, धर्म क्रान्ति और मानमिक शांति के 16 सूत्र । 3. चेतना का ऊर्ध्वारोहण-मुनि नथमल:--अनेक लोगों की यह धारणा है कि जैनों की साधना-पद्धति व्यवस्थित नहीं है, या जैन योग नहीं है। यह पुस्तक इस धारणा को निराधार सिद्ध करती है। इस कृति में जैन योग पर दिए गए प्रवचनों तथा प्रश्नोत्तरों का संकलन है। इसमें अनुपलब्ध जैन साधना-पद्धति को अपने अनुभवों तथा साधना के प्रकाश में खोजने का प्रयत्न किया गया है । 4. भगवान महावीर की साधना का रहस्य भाग, 1-2--मुनि नथमल:-भगवान् महावीर के युग में जो साधना सूत्र ज्ञात थे, आज वे समग्रतया ज्ञात नहीं है। इसमें उन साधना सूत्रों के स्पर्श का प्रयत्न किया है, जो अज्ञात से ज्ञात बने हैं। साधना के क्षेत्र में शरीर, श्वास, वाणी और मन को साधना पावश्यक होता है। इन पुस्तकों में इनकी साधना का मर्म उद्घाटित किया गया है। शरीर का संवर, श्वांस संवर, इन्द्रिय संवर, वाक संवर, प्राण आदि योग विषयों पर वर्तमान में प्रचलित साधना-पद्धतियों के परिप्रक्ष्य में जैन दृष्टिकोण उपस्थित किया गया है । इसमें चार अध्याय हैं-आत्मा का जागरण, आत्मा का साक्षात्कार, समाधि और इतिहास के संदर्भ में। तीसरे अध्याय में समाधि को जैन परिप्रेक्ष्य में उपस्थित करते हुए सामायिक सामाधि, ज्ञान समाधिः Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 दर्शन समाधि, चारित्न समाधि प्रादि की विस्तृत व्याख्या की है। अन्तिम अध्याय में जैन परम्परा में ध्यान का ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत है। इस लम्बी कालावधि में इतर साधना पद्धतियों से जो आदान-प्रदान हुआ है उसका सुन्दर विश्लेषण इस पुस्तक में है। इसे जैन योग का प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जा सकता है। 5. योग की प्रथम किरण--साध्वी राजीमती:-प्रस्तुत पुस्तक में योग साधना के प्रारंभिक अंश आहार शुद्धि, शरीर शुद्धि, इन्द्रिय शुद्धि, श्वासोच्छवास शुद्धि आदि विषयों पर चिन्तन किया गया है। प्रासन प्रयोगों से होने वाले हानि-लाभ के विवरण के साथ-साथ स्वयं की अनुभूतियों का भी उल्लेख किया है। 6. अस्तित्व का बोध--मुनि नथमल:-प्रस्तुत पुस्तक में योग सम्बन्धी विचार अभिव्यक्त हुए हैं। 7. जागरिका--सं. मुनि श्रीचन्द्र, मुनि किशनलाल:-इस पुस्तक में लाडनूं में आयोजित एक मासीय साधना-सत्र में विभिन्न प्रवक्ताओं द्वारा प्रदत्त योग विषयक पचास प्रवचनों का संकलन है। इनमें जैन साधना पद्धति या जैन योग के मूलभूत तथ्यों का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत है। प्रश्नोत्तरों के कारण विषय बहुत स्पष्ट होता गया है। कुछ क्रियात्मक प्रयोग भी विनिर्दिष्ट हैं। 8. मनोनिग्रह के दो माग-मनि धनराज (सरसा):-प्रस्तुत पुस्तक में स्वाध्याय और ध्यान को मनोनिग्रह के दो मार्ग बताकर जैनागमों में वर्णित ध्यान के चार प्रकारों का विवेचन किया गया है। अनूदित : 9. मनोनुशासनम्-प्राचार्य श्री तुलसी, व्याख्याकार मुनि नथमलः-प्रस्तुत ग्रन्थ में मन के अनुशासन की प्रक्रिया निरूपित की गई है । यह ग्रन्थ जैन योग में पातंजल योग सूत्र के समान सूत्रबद्ध तथा व्याख्या सहित है। 10. ध्यान शतक-जिनभद्रगणि, अन. मनि दलहराजः---इसमें ध्यान के भेद-प्रभेद,ध्यान का स्वरूप आलम्बन, प्रक्रिया और फल आदि का विवेचन है। सौ श्लोकों का यह लघुकाय ग्रन्थ जैन ध्यान पद्धति को समझाने में बहत सहायक हो सकता है। जैन दर्शन साहित्य : 1. जैन दर्शनः मनन और मीमांसा-मनि नथमल:--यह ग्रन्थ जैन दर्शन को समग्रता से प्रस्तुत करता है। इसके पांच खण्ड हैं। ग्रन्थ का पहला खण्ड भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर की परम्परा और कालचक्र का बोध देता है। दूसरे खण्ड में पुद्गल परमाणु,जीवन, प्राण, आत्मवाद, कर्मवाद, स्यादवाद के गहन-गम्भीर विषय पाटक के लिए सुगम्य बन गए हैं। तीसरे खण्ड में आचार मीमांसा है। इसमें मोक्ष प्राप्ति के लिए साधक को जीवन साधना का पथ दर्शन मिलता है। चौथे खण्ड में ज्ञान मीमांसा है। इसमें ज्ञान, इन्द्रिय, मन, मनोविज्ञान, चेतना का विकास, कषाय, भावना,ध्यान आदि विषयों पर विस्तृत चर्चा है। पांचवें खण्ड में प्रमाण मीमांसा है । ये पांचों खण्ड अपने आप में स्वतन्त्र ग्रन्थ रूप लिये हुए हैं । इनका एकत्र समाकलन जैन दर्शन को समग्रता से प्रस्तुत करने में सक्षम है। समीक्षकों ने इसे जैन दर्शन का प्रतिनिधि ग्रन्थ मानते हुए इस विद्या का अलभ्य ग्रन्थ माना है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 343 2. जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान--मुनि नगराजः-बुद्धिजीवी स्वीकार करते हैं कि जैन दर्शन वैज्ञानिक दर्शन है। प्रस्तुत पुस्तक दर्शन और विज्ञान की समीक्षात्मक सामग्री प्रस्तुत करती है। इसमें परमाण, भू-भ्रमण, स्याद्वाद आदि की जैन दर्शन सम्मत विवेचना प्रस्तुत करते हए आधनिक विज्ञान की मान्यताओं के साथ उसकी तुलना प्रस्तुत की गई है। लेखक जैन दर्शन के मूलभूत कतिपय तथ्यों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसकर उनकी सारगभिता प्रतिपादित कर पाठक के मन पर जैन दर्शन की वैज्ञानिकता की अमिट छाप छोड़ जाता है। 3. अतीत का अनावरण-मुनि नथमल:-प्रस्तुत कृति शोधपूर्ण ग्रन्थ है। श्रमण संस्कृति का प्रागवैदिक अस्तित्व, श्रमण संस्कृति आत्म विद्या के संधानी क्षत्रियों की उपलब्धि, प्रार्य-अनार्य, बद्ध और महावीर, आगम ग्रन्थों का विचार और व्यवहार तत्व, बृहत्तर भारत के दक्षिणार्ध और उत्तरार्ध की विभाजन रेखा वैताद्य पर्वत आदि विषयों पर 25 निबंधात्मक इस कृति में अनेक तथ्य उद्घाटित हुए हैं जो धर्म और दर्शन जगत में पहेली बने हुए थे। 4. अहिंसा तत्व दर्शन---मुनि नथमल:--प्रस्तुत कृति अहिंसा विश्वकोश है। इसमें अहिंसा पर समग्र दृष्टिकोण से विचार प्रस्तुत करते हुए पागम तथा उत्तरवर्ती प्राचार्यों के दृष्टिकोण प्रतिपादित किए गए हैं। अहिंसा के क्रमिक विकास पर एतिहासिक विश्लेषण भी इसमें : विस्तार से हुआ है। 5. अहिंसा और विवेक-~-मुनि नगराज:-प्रस्तुत पुस्तक में अहिंसा का विकास अहिंसा का स्वरूप तथा उसकी अवस्थाओं का चित्रण बहुत सहज ढंग से किया गया है। प्राचार्य भिक्ष की अहिंसा दृष्टि को महात्मा गांधी की अहिंसा दृष्टि के साथ तोलते हुए दोनों में कहां भेद अभेद है उसका सुन्दर विवेचन प्रस्तुत किया गया है । 6. विश्व प्रहेलिका-मुनि महेन्द्र कुमार:-इस कृति में वैज्ञानिक सिद्धान्तों और उनसे सम्बद्ध दार्शनिक प्रतिपादनों का पालोचनात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ विश्व सम्बन्धी जैन सिद्धान्तों का विशद निरूपण भी हुआ है। प्रस्तुत कृति में विज्ञान, पाश्चात्य दर्शन और जैन दर्शन के आलोक में विश्व की वास्तविकता, स्वरूप और उसकी स्थिति की गणित के माध्यम से मीमांसा की गई है। 7. सत्य की खोज अनेकान्त के पालोक में--मुनि नथमल:---यह 13 शीर्षकों में विभक्त जैन दर्शन के मलभूत सिद्धान्तों को अाधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने वाली मौलिक कृति है। इसमें भगवान महावीर की अर्थ नीति, समाज शास्त्र, कर्मवाद, परिणामि नित्यवाद आदि विषयक मान्यताओं को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है। 8. अहिंसा पर्यवेक्षण--मुनि नगराज:--समाज में अहिंसा का विकास क्यों, कब और कैसे हुआ इसका क्रमिक ब्यौरा प्रस्तुत पुस्तक में उपस्थित किया गया है । कालक्रम के साथ अहिंसा के उन्मेष और निमेष देखे गए हैं। 9. शब्दों की वेदी अनुभव का दीप--मुनि दुलहराजः-प्रस्तुत पुस्तक भगवान महावीर के जीवन प्रसंग, प्रेरक कथाएं, पागम-संपादन सम्बन्धी विशेष जानकारी, संप्रदायों का इतिहास, ग्रन्थों का समीक्षात्मक अध्ययन, आगम वाक्यों की व्याख्या आदि 119 लेखों में वह विविध सामग्री प्रस्तुत करती है। 10. अहिंसा के अंचल में--मुनि नगराजः-प्रस्तुत पुस्तक में समय-समय पर लिखे गए अहिंसा विषय के लेखों का संग्रह है। इसमें अहिंसा के विभिन्न पहलों पर चिन्तन किया गया है। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. अहिंसा की सही समझ--मुनि नथमल:-प्रस्तुत पुस्तक अहिंसा की अधूरी समझ के प्रत्युत्तर में लिखा गया वृहत्तर निबन्ध है । इसमें अहिंसा के विषय में उटने वाले प्रश्नों का प्रागम व तर्क के आधार पर समाधान दिया गया है। 12. जैन तत्व चिन्तन-मुनि नथमल:-प्रस्तुत पुस्तक में जैन दर्शन के विभिन्न पहलों वर्तमान के सन्दर्भ में विचार किया गया है । 13. जैन धर्म बीज और बरगद--मुनि नथमल:-बीजावस्था में जैन धर्म एक और अविभक्त था। विस्तारावस्था में वह अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं में विभक्त हो गया है। तेरापन्थ जैन धर्म की एक शाखा है। शाखा मूल से भिन्न नहीं होती, इसमें जैन धर्म और तेरापन्थ सम्बन्धी बहुविध सामग्री का संकलन है। 14. ज्ञान प्रकाश--मुनिधनराज (सरसा):-इस कृति में मतिज्ञान. श्रतज्ञान. अवधि ज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवल ज्ञान के भेद-प्रभेद तथा तत्सम्बन्धी सामग्री संकलित है। विषय की प्रमाणिक जानकारी के लिए प्रागमों के प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं अतः यह ग्रन्थ अनधित्सुत्रों के लिए बहुत उपयोगी है। 15. चारित्न प्रकाश-- मुनि धनराज (सरसा):-इस कृति में 9 प्रकाश पुज है। महावत, समिति, गुप्ति आदि मुनि धर्मों का विस्तृत विवेचन है । 18. मोक्ष प्रकाश--मुनि धनराज (सरसा):--इस कृति में बारह पज है । इसमें मोक्ष के स्वरूप पर विशद प्रकाश डाला गया है। मोक्ष के साधक (निर्जरा) और बाधक (पाश्रव) आदि तत्वों का सुन्दर विवंचन हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ में सर्व साधारण के उपयोगी कर्म सिद्धान्तों की जानकारी प्राप्त है। 17. जीवन -अजीव-मुनि नथमल:-इस कृति में पच्चीस बोल पर विस्तृत चर्चा की गई है। जैन दर्शन सम्मत गति, पर्याप्ति, प्राण, नौ तत्व, चारित्र आदि-आदि विषयों की प्रारंभिक जानकारी देने वाला यह ग्रन्थ जैन दर्शन का प्रवेश द्वार है। 18. लोक प्रकाश-मुनि धनराज (सरसा):-इस कृति में लोक की आकृति, स्वरूप तथा उसके आधार का विवेचन हुआ है। नरक, तिर्यन्च, मनुष्य और देवता के भेद-प्रभ द स्वरूप, आवागमन, जीवन विधि आदि प्रश्नों का जैन मान्यता के अनुसार समाधान दिया गया है। 19. ज्ञान वाटिका--मुनि छनमल:-प्रस्तुत पुस्तक में 21 कलिका (प्रकरण) है । इसमें ज्ञान, दर्शन, स्यादवाद, सप्तभंगी, प्राचार और इतिहास आदि जैन दर्शन सम्बन्धी सामग्री प्रश्नोत्तर के रूप में प्रस्तुत की गई है। बालकों को तत्व ज्ञान में प्रवेश कराने के लिए यह पस्तक उपयोगी है । 20. श्रावक धर्म प्रकाश--मुनि धनराज:-प्रश्नोत्तरात्मक प्रस्तुत कृति श्रावक धर्म के 12 व्रतों का सरल भाषा में विवेचन देती है। श्रावक की पडिमाएं, संलेखना करने की विधि श्रावक की दिनचर्या व तीन मनोरथ तथा चार विश्रामों पर भी पुस्तक प्रकाश डालती है। 21. नई समाज व्यवस्था में दान-दया-मुनि नगराज:-प्रस्तुत पुस्तक में दान-दया का तार्किक और बौद्धिक स्तर से वर्णन किया गया है। 22. तत्व प्रवेशिका--सं. मुनि मधुकर:-जैन तत्वों में प्रवेश करने वाले विद्यार्थियों के लिए कन्ठस्थ करने योग्य सामग्री संकलित है । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुदित:-- 345 23. संबोधि——व्याख्याकार मुनि शुभकरणः - प्रस्तुत ग्रन्थ मुनि श्री नथमल जी कृत संबोधि की विस्तृत व्याख्या है । इसे जैन गीता भी कहते हैं । गीता का अर्जुन कुरुक्षेत्र के समरांगण में क्लीव होता है तो संबोधि का मेघकुमार साधना की समर भूमि में वलीब बनता है। गीता के गायक योगिराज कृष्ण हैं और संबोधि के गायक भगवान् महावीर । अर्जुन का पौरुष - जाग उठा कृष्ण का उपदेश सुनकर और महावीर की वाणी सुन मेघकुमार की आत्मा चैतन्य से जगमगा उठी । मेघकुमार ने जो प्रकाश पाया वही प्रकाश प्रस्तुत ग्रन्थ में व्यापक बना है । संवाद शैली में लिखा गया यह ग्रन्थ समग्र जैन दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है । 24. अध्यात्म धर्म जैन धर्म -- अनु. मुनि शुभकरण :- उडीसा के ख्याति प्राप्त विद्वान पंडित नीलकन्ठ दास ने गीता पर उडिया भाषा में टीका लिखी थी । उसकी भूमिका में जैन धर्म सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण अध्याय लिखा था । प्रस्तुत पुस्तक उसी का हिन्दी अनुवाद है । इसमें ऐतिहासिक दृष्टि से जैन धर्म की प्राचीनता अनेक उद्धरणों से सिद्ध की गई है तथा समस्त भोगवादी या श्रात्मवादी धर्मों पर जैन धर्म दर्शन का प्रतिबिम्ब माना गया है । 25. उडीसा में जैन धर्म-मुनि अनु. शुभकरणः - सम्राट खारवेल ने कलिंग में जैन धर्म को बहुत प्रभावी बनाया । उस समय उडीसा जैन धर्म और जैन श्रमणों के परिव्रजन का महान केन्द्र था । खारवेल ने ग्रागम वाचना की योजना की थी । जैन परम्परा में सम्राट खारवेल का वही स्थल है जो बौद्ध परम्परा में सम्राट अशोक का है । में कलिंग में जैन धर्म के प्रभाव की परिस्थितियों का इतिहास का विस्तृत अध्याय इस पुस्तक से पुनः प्रकाश में में डा. लक्ष्मीनारायण साहू द्वारा लिखित प्रोडिसा रे जैन धर्म का हिन्दी अनुवाद है । प्रस्तुत पुस्तक में इतिहास के संदर्भ विशद विवेचन किया गया है । जैन आएगा । प्रस्तुत पुस्तक उडिया भाषा यात्रा साहित्य: 1. नव निर्माण की पुकार -- सं. सत्यदेव विद्यालंकारः -- प्रस्तुत पुस्तक में अणुवृत आन्दोलन के प्रर्वतक आचार्य श्री तुलसी की दिसम्बर 1956 की 39 दिन की दिल्ली यात्रा का वर्णन है । इसमें प्रेरणाप्रद संदेशों, दार्शनिक प्रवचनों, देश-विदेश के लब्ध प्रतिष्ठित विचारकों, पत्रकारों, धार्मिक नेताओं, राजनीतिज्ञों तथा कूटनीतिज्ञों के साथ जीवन निर्माण सम्बन्धी चर्चा, विचार-विनिमय का दिन क्रम से विवरण प्रस्तुत किया गया है । प्रस्तुत पुस्तक में 23 प्रायोजनों, 19 प्रवचनों तथा 32 चर्चा वार्ताओं की सामग्री है । 2. कुछ देखा कुछ सुना कुछ समझा- - मुनि नथमल:- प्रस्तुत पुस्तक प्राचार्य तुलसी की राजस्थान (लाडनू') से कलकत्ता और वहां से वापस राजस्थान ( सरदारशहर) आने तक की यात्रा का इतिहास है । उपन्यास की शैली से लिखा गया यह यात्रा विवरण बहुत ही रोचक और तत्कालीन घटनाओं का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत करता है । इसके परिशिष्ट में तारीख क्रम से दो वर्षों की विशेष घटनाओं की संकलना प्रस्तुत की गई है । 3. पदचिन्ह - मुनि श्री चन्द्रः - इस कृति में 27-3-62 से 3-2-63 तक आचार्य श्री तुलसी के परिव्रजन का इतिहास बोलता है । यात्रा के साथ घटने वाले संस्मरण, प्रश्नोत्तर, प्रवचन, प्रोग्रामों आदि का सजीव वर्णन है । इस कृति में न केवल यात्रा का दर्पण ही दिया गया है अपितु प्रसंगोपात विचार भी दिए गए हैं जिससे इसकी रोचकता और ग्राह्यता अधिक बढ़ गई है । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 4. जन जन के बीच-भाग-1-मुनि सुखलाल:--प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य श्री तुलसी की यात्रा का वर्णन संकलित है। 5. जन जन के बीच-भाग-2--मुनि सुखलाल:-इस पुस्तक में प्राचार्य श्री की विद्युत्वेग यात्रा में बंगाल विहार से वापस आते उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा राजस्थान की यात्रा क आचार्य श्री के जीवन प्रसंग, स्थानीय लोगों की मनोवृत्ति, प्राकृतिक चित्रण, इतिहास और यात्रा में घटने वाली घटनाओं का सूक्ष्म दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। 6. बढते चरण--मुनि श्री चन्द्र:-बंगाल से राजस्थान की ओर आते हुए आचार्य श्री तुलसी की विद्युत्वेग यात्रा के 40 दिन (बंगाल और बिहार प्रदेश की यात्रा) का विवरण इस कृति में दिया गया है। इसमें यात्रा के बीच आने वाले गांव या शहरों का इतिहास भी संकलित है। संस्मरण और इतिहास प्रधानात्मक इस कृति में प्रवचनों का स्पर्श नहीं के बराबर हया है। संस्मरण साहित्य 1. रश्मियां-मुनि श्रीचन्द्रः-इस कृति में प्राचार्य श्री तुलसी के ऐसे क्षणों को सूक्ष्मता से पकड़ा गया है जो जीवन की पगडंडी पर दिशा-संकेत बनकर मार्ग दर्शन करते हैं और व्यवहार में सरस जीवन जीने की कला सिखाते हैं। प्राचार्य श्री तुलसी की पैनी दृष्टि ने हर वस्तु में गुणों को ग्रहण किया है। 2. आचार्य श्री तुलसी अपनी छाया में-मुनि सुखलाल:-इस कृति में प्राचार्य श्री तुलसी के ऐसे संस्मरण संकलित है जो शिक्षाप्रद होने के साथ-साथ जीवन को समरस बनाने में उपयोगी हैं । इन संस्मरणों में प्राचार्य श्री तुलसी के विचार, स्वभाव और प्रकृति का प्रतिबिम्ब बहुत सुन्दर ढंग हया है। 3. जय सौरभ--मुनि छनमलः-एक पद्य पर एक संस्मरण को कहने वाली यह कृति जयाचार्य के जीवन के सौ संस्मरणों का संग्रह है। 4. महावीर की सूक्तियां--मेरी अनुभूतियां-मुनि छत्रमल:-प्रस्तुत पुस्तक में भगवान महावीर की वाणी के संदर्भ में अपनी विभिन्न घटनाओं को देखा गया है। 5. बुद्ध की सूक्तियां मेरी अनुभूतियां--मुनि छनमल:-प्रस्तुत पुस्तक में अपनी अनुभूतियां और संस्मरणों के आलोक में भगवान बुद्ध की वाणी की तुलनात्मक स्मृति की गई है। इतिहास साहित्य: 1. तेरापन्थ का इतिहास भाग1--मुनि बुद्धमल:-इस ग्रन्थ में दस परिच्छेद तथा दस परिशिष्ट हैं। प्रथम परिच्छेद में प्राग ऐतिहासिक काल और ऐतिहासिक काल में होने वाली जैन धर्म की स्थितियों का संक्षिप्त विवरण है। दूसरे परिच्छेद से लेकर दसवें परिच्छेद तक तेरापन्थ के नौ प्राचार्यों का क्रमशः एक-एक परिच्छेद में वर्णन है। प्रत्येक प्राचार्य का जीवन तथा उसका व्यक्तित्व और कृतित्व, संत सतियों की ख्यात, संप्रदाय की परम्परा, आन्तरिक व्यवस्था, अनुशासन, मर्यादा, विकास क्रम, युगानुकुल परिवर्तन आदि विविध सामग्री इस ग्रन्थ में संग्रहीत की गई हैं। इसमें उन घटनाओं का भी उल्लेख है जो संघ में श्रुतानु श्रुतिक रूप से प्रचलित थी। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 347 2. इतिहास के बोलते पृष्ठ--मुनि छत्रमल:-प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य भिक्षु के उत्क्रान्तिमय जीवन से जुड़ी घटनावलियों को शब्दों का आकार दिया गया है। घटनाओं की प्रामणिकता के लिए संदर्भ ग्रन्थों का भी उल्लेख किया गया है। 3. चमकते चांद--मुनि धनराजः-इस लघु कृति में तेरापन्थ के नव प्राचार्यों का अति संक्षिप्त जीवन इतिहास है । मागम साहित्यः आगम संपादन का कार्य 25 वर्षों से चल रहा है। आगमों की भाषा प्राकृत है। मूल पाठ का संशोधन, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, तुलनात्मक टिप्पणियां, शब्दानुक्रम, नामानुक्रम और समीक्षात्मक अध्ययन ये पागम संपादन के प्रमुख अंग है। इस शोध कार्य के वाचना प्रमुख हैंप्राचार्य श्री तुलसी और प्रधान संपादक तथा विवेचक है-मनि श्री नथमल जी। इस गुरुतर कार्य को सम्पन्न करने के लिए लगभग 20-25 साधु-साध्वियां जुटे हुए हैं। काल की इस लम्बी, अवधि में जितना कार्य हुआ है उसका कुछ भाग प्रकाशित हुआ है। हिन्दी में अनूदित और विवेचित आठ ग्रन्थ इस प्रकार हैं:-- 1. आयारो (आचारांग) :- यह भगवान महावीर की वाणी का सबसे प्राचीन संकलन है। इसकी भाषा अन्यान्य आगमों से पृथक् पड़ती है। यह सूत्रात्मक है किन्तु यत्र तत्र विभिन्न छन्दों के एक-एक दो-दो तीन-तीन चरण भी उपलब्ध होते हैं। भगवान महावीर के जीवन और दर्शन का यह प्राचीनतम श्रोत है। इसका आधुनिक शैली में हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पणी बहुत अपेक्षित थे। यह ग्रन्थ इसकी पूर्ति करता है। टिप्पणों तथा मूल के अनुवाद से जैन साधना पद्धति का सुन्दर चित्र प्रस्तुत होता है। 2. ठाणं (स्थानांग):- यह तीसरा अंग आगम है। इसमें एक से दस तक की संख्या के आधार पर हजारों विषयों की सूचना दी गई है। यह ग्रन्थ आध्यात्मिक तथ्यों तथा जैन परम्परा के मूलभूत सिद्धान्तों और परम्परा का आकर ग्रन्थ है। इसके विस्तृत टिप्पण जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परागत अनेक नई सूचनाएं प्रस्तुत करता है। इस रूप में ग्रन्थ के प्रस्तुतीकरण अपने आप में एक अनोखा अनुष्ठान है। 3. समवायो (समवायांग):- यह चौथा अंग आगम है। यह भी सांख्यिक विधि से संकलित ग्रन्थ है। इसमें विविध प्रकार की सूचनाएं संकलित हैं। 4. उत्तरज्झयणाणि (उत्तराध्ययन):-यह संकलन सूत्र है। इसके छत्तीस अध्ययन है। इसमें अनेक ऐतिहासिक कथाओं के माध्यम से जैन परम्परा के अनेक तथ्यों को उजागर किया गया है। इसमें जैन योग तथा जैन तत्ववाद और परम्परा के अनेक अध्ययन है।। __5. दसवे आलियं (दसर्वकालिक):--यह प्राचार्य शय्यंभव की रचना है। इसका रचना-काल वीर निर्वाण की पहली शताब्दी है। इसमें लगभग 750 श्लोक है। साधारणतया यह माना जाता है कि यह बहुत सरल सूत्र है। किन्तु संक्षिप्त शैली में लिखा गया यह सूत्र बहुत गढ़ है। प्रस्तुत संस्करण में इसके एक एक शब्द की मीमांसा प्रस्तुत की गई है। यह संस्करण इस ग्रन्थ गत विशेषताओं की अभिव्यक्ति करने में पूर्ण सक्षम है। ____6. उत्तराध्ययन एक समीक्षात्मक अध्ययन:- प्रस्तुत ग्रन्थ श्रमण परम्परा का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। यह दो खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड में श्रमण और वैदिक परम्परायें, Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 श्रमण संस्कृति का प्रागैतिहासिक अस्तित्व, श्रमण संस्कृति के मतवाद, आत्मविद्या, तत्वविद्या, जैन धर्म का प्रचार-प्रसार, साधना पद्धति, योग आदि अतीव महत्वपूर्ण और गम्भीर विषयों पर प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध की गई है। द्वितीय खंड में उत्तराध्ययन सत्र से संबंधित विषयों पर विस्तार से चर्चा की गई है। उसमें व्याकरण विमर्श, छन्दो विमर्श, चूर्णिकृत परिभाषायें, कथानक संक्रमण, भौगोलिक व व्यक्ति परिचय, तत्कालीन संस्कृति और सभ्यता आदि की चर्चा है। 7. दशवकालिक-एक समीक्षात्मक अध्ययन :-प्रस्तुत ग्रन्थ में दशवकालिक सूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। यह पांच अध्यायों में विभक्त है --प्रथम अध्याय में दशवकालिक का महत्व, उपयोगिता, रचनाकाल, रचनाकार का जीवन परिचय, रचना शैली, न्याकरण विमर्श, छन्द विमर्श तथा भाषा दृष्टि से चिन्तन किया गया है। द्वितीय अध्याय में साधना तथा साधना के अंग पर विचार हुआ है। तृतीय अध्याय में महाब्रत और चतुर्थ अध्याय में चर्या और बिहार, ईर्योपथ, वाकशद्धि, एषणा, इन्द्रिय और मनोनिग्रह आदि विषयों को विस्तार से विवेचित किया गया है। पांचवें अध्याय में आहार चर्या, निक्षेप पद्धति.निरुक्त, तत्कालीन सभ्यता और संस्कृति पर प्रकाश डाला गया है। 8. दशवकालिक उत्तराध्ययन (अनुवाद):- ये दोनों आगम जैन आचार-गोचर और दार्शनिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते है। दशवकालिक में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि धर्म तत्वों का, साधनों की भिक्षाचर्याविधि, भाषा विवेक, विनय तथा व्यावहारिक शिक्षाओं का विस्तत और सूक्ष्म विवेचन है। उत्तराध्ययन में वैराग्यपूर्ण कथा प्रसंगों द्वारा धार्मिक जीवन का अति प्रभावशाली चित्रांकन तथा तात्विक विचारों का ह्यदयग्राही संग्रह है । पागम और त्रिपिटक एक अनुशीलन--मुनि नगराज :- श्रमण परम्परा की दो मुख्य धारायें हैं --जैन और बौद्ध । जैन परम्परा का नेतृत्व भगवान महावीर ने किया और बौद्ध परम्परा का नेतृत्व महात्मा बुद्ध ने। दोनों सम-सामयिक थे। दोनों का कर्मक्षेत्र लंगभग एक ही रहा। दोनों अहिंसा,संयम और करुणा को लेकर बढे । अतःदोनों में अभिन्नता के अंश अधिक थे, भिन्नता के कम। प्रस्तुत ग्रन्थ में दोनों श्रामणिक परम्पराओं के कतिपय विषयों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । इसके एक अध्याय में महावीर और बद्ध में ज्येष्ठ कौन? इस प्रश्न को विभिन्न प्रमाणों से समाहित किया है। महावीर और बद्ध के समकालीन राजा श्रेणिक, बिम्बिसार, कणिक, चण्डप्रद्योत, प्रसेनजित, चेटक आदि पर प्रागमों तथा त्रिपिटकों के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। भगवान महावीर और जैन धर्म विषय के जितने भी समल्लेख त्रिपिटक साहित्य में है वे सब प्रस्तुत ग्रन्थ के एक अध्याय में संकलित कर दिए गए है। शोधनकर्ताओं के लिये इनका बहुत महत्व है। __10. महावीर और बुद्ध की समसामयिकता-मुनि नगराज:-प्रस्तुत पुस्तक में महावीर और बुद्ध की काल गणना पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया गया है। इतिहास के विद्वानों ने प्रस्तुत पुस्तक को मान्यता दी है। जीवनी साहित्य :-- 1. भगवान महावीर-आचार्य तुलसी:- प्रस्तुत पुस्तक में भगवान महावीर को सरल सुबोध भाषा में प्रस्तुत किया गया है। बड़े बूढे, स्त्री, पुरुष, सभी के लिये सुपाच्य है। इसमें न सैद्धान्तिक जटिलतायें हैं और न दार्शनिक गुत्थियां ही। सब कुछ सरल भाषा में Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 349 समझाया गया है । इसके अन्त में महावीर वाणी के रूप में लगभग सौ श्लोकों का संग्रह श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्परात्रों के मान्य ग्रन्थों से किया गया है । 2. श्रमण महावीर - - मुनि नथमल :- इस कृति में भगवान महावीर के जीवन का ऐसा चित्र है जिसमें श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा की भेद रेखायें अव्यक्त रही हैं और उनका साधनामय जीवन का विराट व्यक्तित्व पक्ष उभर कर आया है । इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि भगवान महावीर को दैवीकरण से दूर रखकर मानव की भूमिका से देखा गया है । ध्यान साधना आदि की प्रतिक्रियाओं से उनका व्यक्तित्व क्रमशः प्रारोहण होता हुआ अंत में अपने लक्ष्य तक पहुंच गया है । यह ग्रन्थ काल्पनिक नहीं है लेकिन दिगम्बर और श्वेताम्बर के आधार ग्रन्थ, सूत्र और आलेखन आदि 250 प्रामाणिक स्रोतों के अध्ययन के बाद लिखा गया है। इसकी प्रामाणिकता इससे और बढ़ जाती है कि सारे प्रयुक्त ग्रन्थों के संदर्भ परिशिष्ट में दिए गए हैं। महावीर का जीवन इतिहास, महावीर की आध्यात्मिक साधना और महावीर की खोज का एक ऐसा सुस्वादु मिश्रण इस ग्रन्थ में है कि आप इसे पढ़ना प्रारम्भ करेंगे तो पढ़कर ही उठेंगे और अनुभव करेंगे कि पने महावीर की हजार-हजार भव्य प्रस्तर मूर्तियों के अन्तराल को झांक लिया है और महावीर आपके सामने एक दम निकट खड़े हैं । 3. भिक्षु विचार दर्शन - मुनि नथमल :- प्रस्तुत कृति में 7 अध्याय हैं । उनमें प्राचार्य भिक्षु के सिद्धान्तों, मन्तव्यों, विचारों एवं निष्कर्षों का गहराई से प्रतिपादन हुआ है। आचार्य भिक्षु क्रान्तद्रष्टा थे 1 प्रस्तुत कृति में उनके क्रान्ति बीज तथा साध्य - साधन शुद्धि की सूक्ष्म मीमांसा की गई है। रोचक शैली में लिखा गया यह ग्रन्थ आचार्य भिक्षु के जीवन और दर्शन को समग्रता से प्रस्तुत करने के साथ-साथ जैन दर्शन की कई उलझी गुत्थियों को सुलझाता है । आचार्य भिक्षु धार्मिक संघ के नेता ही नहीं, राजस्थानी साहित्य के सफल स्रष्टा भी थे। अनेक रूपों में उनका व्यक्तित्व उभरा है। प्रस्तुत कृति में उनके दो रूप बहुत ही स्पष्ट और प्रभावशाली हैं: 1. विचार और चारित शुद्धि के प्रवर्तक 2. संघ व्यवस्थापक कुल मिलाकर प्राचार्य भिक्षु के विचार बिन्दुओं का एक समाकलन है । 4. आचार्य श्री तुलसी - जीवन दर्शन --मुनि नथमल : - आचार्य श्री तुलसी ने बहुत किया, बहुत संघर्ष झेले, चरित्र विकास के लिए बहुत यत्न किया, बहुत परिव्रजन किया, बहुत चिन्तन किया और बहुत कार्य किया । इन सारे बहुत्वों का विस्तार भी बहुत हो सकता है। प्रस्तुत पुस्तक में इस विस्तार को भी शाब्दिक अल्पत्व में कुशलता से संजोया गया है। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि यह जीवनी गुणात्मक न होकर समीक्षात्मक है । इसमें प्राचार्य श्री की व्यक्तिगत डायरी के अंश भी यत्र-तत्र उद्धृत हैं । 5. आचार्य श्री तुलसी जीवन पर एक दृष्टि-मुनि नथमल:- प्रस्तुत कृति प्राचार्य श्री तुलसी के 37 वर्षीय जीवन पर प्रकाश डालने वाली प्रथम कृति है । इसमें आचार्य श्री के बहुमुखी व्यक्तित्व, कृतित्व, विचार और जीवन प्रसंगों का हृदयग्राही विवेचन है । 6. आचार्यश्री तुलसी जीवन और दर्शन – मुनि बुद्धमल:- प्रस्तुत कृति प्राचार्य श्री तुलसी के जन्म से लेकर धवल समारोह तक उनकी बहुमुखी प्रवृत्तियां तथा उनके कर्तृत्व और व्यक्तित्व पर पूर्ण प्रकाश डालती है । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 7. बंद बंद बन गई गंगा--साध्वी संघमित्राः-प्रस्तुत कृति में साध्वी प्रमुखा लाडांजी के जीवन-प्रसंग, व्यक्तित्व-दर्शन और उनका कर्तत्व बोलता है। साथ में साध्वी प्रमुखा के प्रति साध-साध्वियों तथा श्रावक-श्राविकाओं की श्रद्धान्जली भी संकलित है। अणुव्रत साहित्यः-- ___ 1. अणुव्रत के संदर्भ में--प्राचार्य तुलसी:-प्रस्तुत पुस्तक प्रश्नोत्तरात्मक हैं। इसमें धर्म, नैतिकता, आर्थिक विषमता, राष्ट्र की प्रवृत्ति, चन्द्रलोक, शोषण विहीन समाज, साधु संस्था आदि सम सामयिक अनेक प्रश्नों को उपस्थित किया गया है और उनका अणुव्रत के संदर्भ में प्राचार्यश्री तुलसी से समाधान लिया गया है। 2. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण--मुनि नथमल:-प्रस्तुत कृति में नैतिकता के मूलभूत प्रश्नों को उपस्थित कर वर्तमान के संदर्भ में नैतिकता की मान्यताओं पर अणुव्रत के माध्यम से चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। इसमें अणुव्रत को वैचारिक धरातल पर उपस्थित कर वर्तमान के वादों में अणुव्रत की उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है। 3. प्रश्न और समाधान--मुनि सुखलालः-विश्व संघ और अणुव्रत, युवक समाज और अणुव्रत, अस्पृश्यता और अण व्रत, अणवतों का रचनात्मक पक्ष, राजनीति और अणुव्रत आदि वर्तमान के संदर्भ में उपस्थित होने वाले प्रश्नों को उपस्थित कर अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक प्राचार्य श्री तुलसी से समाधान लिए गए हैं। 4. अणुव्रत दर्शन--मुनि नथमल:-आज का युग नैतिक समस्या का युग है। कुछ विकासमान गरीब देशों में अर्थ विषयक अनैतिकता चल रही है। मानवीय घणा के रूप में समाज विषयक अनैतिकता विकसित और अविकसित दोनों प्रकार के देशों में चलती है। राजनीति विषयक अनैतिकता की भी यही स्थिति है। यह बहुरूपी अनैतिकता मानवीय दष्टिकोण आध्यात्मिक समानता की अनुभूति होने पर ही मिट सकती है। प्रस्तुत पुस्तक में इन दोनों दृष्टिकोणों से अनैतिकता की चर्चा की गई हैं । 5. अणुव्रत विचार दर्शन-मुनि बुद्धमल:-प्रस्तुत पुस्तक में अणुव्रत आन्दोलन के विचार पक्ष के परिप्रेक्ष्य में लिखे गए 16 निबन्धों का संकलन है । 6. अणुव्रत जीवन दर्शन--मुनि नगराजः-प्रस्तुत पुस्तक में अणुव्रत आन्दोलन के प्रत्येक नियम में अन्तहित सूक्ष्मतम भावनाओं का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है। अन्त में अणुव्रतियों के जीवन संस्मरण भी प्रस्तुत किए गए हैं। 7. अणुव्रत दृष्टि--मुनि नगराज:-अणुव्रत के निययों की विस्तृत व्याख्या के रूप में प्रस्तुत पुस्तक लिखी गई है । ___8. अणु से पूर्ण की ओर--मुनि नगराजः-प्रस्तुत पुस्तक रोटरी क्लबों आदि विभिन्न स्थलों पर दिए गए अणुव्रत सम्बन्धी भाषणों का संकलन है। 9. अणुव्रत विचार:--मुनि नगराजः-दैनिक पत्रों में प्रकाशित अणुव्रत सम्बन्धी भाषणों का संकलन है। 10. अणुव्रत क्रान्ति के बढते चरण-मुनि नगराजः-इसमें अणुव्रत के उद्गम और उसके क्रमिक विकास का ब्यौरा प्रस्तुत है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 351 11. अणुव्रत आन्दोलन और विद्यार्थी वर्ग--मुनि नगराजः-विद्यार्थियों में चल रही अणुव्रत गतिविधियों का लेखा जोखा इसमें प्रस्तुत किया गया है। 12. प्रेरणा दीप--मुनि नगराज:-अणुवतियों के रोचक और प्रेरक संस्मरणों का संकलन 13. अणुव्रत-आचार्य तुलसी:-प्रस्तुत पुस्तक में अणुव्रतों के नियम-उपनियम तथा लक्ष्य-साधना और श्रेणियों की परिचर्या की गई है। साथ में वर्गीय अणुव्रतों के भी नियम संकलित हैं। एक प्रकार से यह पुस्तक नैतिक विकास की आचार संहिता है। उपन्यास कथा साहित्यः-- 1. निष्पत्ति---मुनि नथमल:-यह विचार प्रधान लघु उपन्यास है। हिंसा की प्रतिहिंसा की प्रतिक्रिया हिसा को जन्म देती है, हिंसा से कभी हिंसा नहीं मिटती, इसी तथ्य के परिप्रेक्ष्य में इस निष्पत्ति की निष्पत्ति हुई है। 2. बंधन टूटे-भाग 1, 2, 3--अनु मुनि दुलहराजः-यह कृति जन कथानक महासती चन्दनबाला पर आधारित गुजराती उपन्यास का हिन्दी अनुवाद है। कथा प्रसंग में अनेक मोड़ हैं। तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक तथा धार्मिक स्थितियों का तथा तन्त्र-मन्त्र-वादियों की प्रवृत्तियों का सुन्दर समावेश इसमें है। 3. गागर में सागर--मुनि नथमल:-प्रस्तुत कृति में 47 लघु कथाएं है। प्रत्येक कथा हृदय को स्पर्श करती हुई आगे बढ़ती है और दिशा बोध में उसकी परिसमाप्ति होती है। शब्द थोडे भाव गहरे की उक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत पुस्तक है। 4. जैन जीवन--मुनि धनराज (सरसा) :-प्रस्तुत पुस्तक में जैन जगत के ऐसे 24 कथानक व प्रसंग हैं जो प्राचीन परम्परा से सम्बन्धित हैं । 5. विजास-मुनि राकेश कुमार:-इस पुस्तक में भारत तथा विश्व के 118 जीवनप्रसंग तथा लघ कहानियां है । 6. प्रकास-मुनि राकेशकुमारः-प्रस्तुत पुस्तक में कालिदास, स्वामी विवेकानन्द, प्राचार्य बहुश्रुति महात्मा गांधी, तिलक, जार्ज वाशिंगटन, अब्राहमलिंकन, आइंस्टीन आदि अनेक भारत, ग्रीक एवं पर्शियन चिन्तकों के 112 जीवन प्रसंग व संवाद है । 7. विश्वास-मुनि मोहन शार्दूल:-प्रस्तुत पुस्तक में 84 लघु कथानक संग्रहीत हैं जो नैतिकता और सदाचार का पाठ पढ़ाते हैं। 8. अंगड़ाई--मुनि मोहन शार्दूल:-प्रस्तुत पुस्तक अणुव्रत भावना के प्रकाश में लिखी गई 15 काल्पनिक कहानियों का संग्रह है। 9. आदमी की राह-मुनि मोहनलाल शार्दूल:-प्रस्तुत पुस्तक में 15 नई कहानियां है। इन काल्पनिक कहानियों में मनुष्य को अपने मानवता के पथ पर आने के लिये प्रेरणा दी गई है। 10.. बाल कहानियां भाग 1, 2, 3---मुनि कन्हैयालालः-प्रस्तुत तीन पुस्तकों में बच्चों के लिए शिक्षाप्रद कहानियां संकलित है। 11. आदर्श पोथी--मुनि छनमल:-प्रस्तुत पुस्तक में अ से लेकर ज्ञ तक के वर्णों पर 50 कथानक है। प्रत्येक वर्ण का अर्थ वही किया गया है जो कथानक का सार है। प्रत्येक वर्ण पर होने वाली कथा अन्त्याक्षरी के लिए उपयोगी है। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 पाठ्यक्रम साहित्य: 1. नैतिक पाठमाला-मूनि नथमल:-प्रस्तुत कृति स्कूलों में नैतिक शिक्षा के अन्तर्गत 11 वीं कक्षा के लिए लिखी गई पाठ्य पुस्तक है। इसमें नैतिकता के मूलभूत तथ्यों को रोचक कथानकों, संस्मरणों तथा संवादों से प्रस्तुत किया गया है, जिससे विद्यार्थी उन्हें सहजतया अपना सके । 2. नैतिक पाठमाला-मुनि सुखलाल:-प्रस्तुत कृति स्कूलों में नैतिक शिक्षा के अन्तर्गत 7 वीं कक्षा के लिए लिखी गई पाठ्यपुस्तक है। 3. नया युग नया दर्शन-मुनि नगराज:-प्रस्तुत पुस्तक अणुव्रत विशारद द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम में निर्धारित थी। इसमें धर्म, संस्कृति, विज्ञान, शिक्षा आदि जीवन के मूलभूत विषयों को वर्तमान के संदर्भ में सजगता से खोला गया है। 4. नैतिक विज्ञान-मुनि नगराज:-प्रस्तुत पुस्तक नैतिक प्रशिक्षण की दृष्टि से लिखी गई है। इसमें ह्रदय स्पर्शी उदाहरणों के द्वारा नैतिकता का विश्लेषण किया गया है। अणुव्रत परीक्षा के प्रथम वर्ष की यह पाठ्यपुस्तक है। 5. धर्मबोध भाग-1, 2, 3-मुनि नथमल:-प्रस्तुत तीनों कृतियां जैन धर्म के पाठ्यक्रम की पाठ्य पुस्तकें हैं। इनमें जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता परम्परा, तत्व विद्या आदि का ज्ञान क्रमशः कराने का प्रयत्न किया गया है। इनमें जैन कथानक, जैन साहित्य आदि के भी पाठ हैं। धार्मिक क्रियाओं के प्रति बच्चों का सहज आकर्षण हो, इसको ध्यान में रखते हए मनोवैज्ञानिक ढंग से तत्वों का प्रतिपादन किया गया है। 6. आत्मबोध भाग-1 व 2-मुनि किशनलाल, आत्मबोध भाग-3, 4-मनि सुदर्शनःप्रस्तुत चार पुस्तक महासभा धार्मिक पाठ्यक्रम में पाठ्यपुस्तक के रूप में निर्धारित थी। इसमें विविध लेखकों की जैन दर्शन और तेरापन्थ संप्रदाय सम्बन्धी सामग्री संकलित है। प्रवचन साहित्यः-- 1. प्रवचन डायरी भाग-1-आचार्य तुलसी:-प्रस्तुत ग्रन्थ प्राचार्य तुलसी के ई. सन् 1953 के प्रवचनों का संग्रह है। प्रवचनों में विविध विषय है, उन विविधताओं का लक्ष्य एक ही है जीवन निर्माण। जीवन निर्माण की दिशा में दिए गए ये प्रवचन मानव समाज को एक नया दिशा संकेत देते हैं। 2. प्रवचन डायरी भाग-2-प्राचार्य तुलसी:-इसमें प्राचार्य तुलसी ई. सन् 1954 के 163 और ई. सन् 1955 के 158 प्रवचनों का संग्रह है। प्रवचनों के नीचे दिनांक और स्थान का उल्लेख किया गया है । 3. आचार्य श्री तुलसी के अमर संदेश:-प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य तुलसी के विभिन्न अवसरों पर दिए गए प्रवचनों का संग्रह है। प्रस्तुत पुस्तक स्वतन्त्रता, शान्ति और मानवता के नव निर्माण में एक मूल्यवान विचार निधि है। 4. पथ पाथेय-सं. मुनि श्रीचन्द्र:-प्रस्तुत कृति प्राचार्य तुलसी के प्रवचनों के विचार बिन्दुओं का संकलन है। गद्य काव्य के रूप में चुने गए ये विचार विषय क्रम से हैं तथा इनमें Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iss I मार्मिक बेद्यडकता है । संक्षेप में प्राचार्यश्री के विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रथम पुस्तक है । 5. शांति के पथ पर भाग-1, 2 -- प्राचार्य तुलसी:- प्रस्तुत दोनों पुस्तकों में श्राचार्य श्री तुलसी के प्रवचनों का संग्रह है । सांस्कृतिक सम्मेलन, दर्शन कान्फ्रेन्स, युवक सम्मेलन, विचार परिषद्, साहित्य परिषद्, संस्कृत साहित्य सम्मेलन, महावीर जयन्ती, दीक्षा समारोह, स्वतन्त्रता दिवस, पर्युषण पर्व, अहिंसा दिवस आदि विशेष अवसरों पर दिए गए प्रवचन तथा संदेश संकलित हैं । 6. तुलसी वाणी - मुनि दिनकरः - प्रस्तुत पुस्तक में प्राचार्य श्री तुलसी के प्रेरणाप्रद छोटे-छोटे प्रवचनों का संकलन है । काव्य साहित्यः- 1. भाव और अनुभाव --मुनि नथमल : - प्रस्तुत कृति सूक्तियों और नीतिः प्रवचनों का भण्डार है । भाषा की सरसता और सौम्यता के कारण सूक्तियों में निखार आ गया है । प्रस्तुत कृति में अनुभूतियों का तीखापन है और व्यापक दर्शन है । 2. अनुभव चिन्तन मनन --‍ --मुनि नथमल :- प्रस्तुत कृति में दार्शनिक चिन्तनशीलता और अनुभूतियों की प्रखरता मुखरित हुई है । 3. आखों ने कहा --मुनि बुद्धमल:- प्रस्तुत कृति में परिस्थितियों का ऊबड़-खाबड तथा अज्ञात पगडण्डी पर बढने वाले मानव संकल्प को विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया गया है । 4. पथ और पथिक - साध्वी राजीमतीः - इस लघु कृति में निराश व्यक्ति को उसके कर्तब्य-बोध के प्रति जागरुक किया गया है । पथिक संबोधन से लिखे गए य गद्य प्रकृति की मूक भाषा में प्रेरणा के स्वर निकालते हैं। 5. रेखाचित्र -- मुनि श्रीचन्द्र: - 51 गद्यात्मक प्रस्तुत कृति में प्राचार्य श्री तुलसी के जीवन का ऐसा शब्द चित्र खींचा गया है जिसकी प्रत्येक रेखा जीवन की विशेष घटना या विचारों का प्रतिनिधित्व करती है । 6. प्रकृति के चौराहे पर - साध्वी मंजुला:- प्रस्तुत कृति में संवेदनशील मानस का शब्द-मय प्रतिबिम्ब है। प्रकृति की विचित्रता में 88 जिज्ञासानों को उपस्थित करके उनका समाधान भी प्रश्नों के माध्यम से दिया गया है । 7. वर्तमान भारत का नक्शा: 8. मौन वाणी --मुनि चन्दन (सरसा ) : - प्रस्तुत कृति में सरल व सीधी भाषा में व्यावहारिक तथ्यों से प्रेरणा का स्वर मुखरित किया गया है । 9. अन्तर्ध्वनी --- मुनि चन्दन (सरसा ) :- इस लघु कृति में अनुभूतियों और कल्पनाओं का संगम हुआ है । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 10. राजहंस के पंखों पर---मुनि चन्दनः-प्रस्तुत कृति में विविध रूपकों द्वारा धार्मिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक विधा पर प्रतीकात्मक गद्य लिखे हुए हैं। 11. प्रकृति और प्रेरणा--मुनि कन्हैयालाल:-प्रस्तुत कृति में प्रकृति के माध्यम से अनेक प्रेरणाएं दी गई हैं। कुछ गद्य उपदेशात्मक भी हैं। 12. विजय यात्रा--मुनि नथमल:-आत्मा की साक्षात् अनुभूति ही विजय है। तप, संयम, स्वाध्याय, ध्यान, जप, कायोत्सर्ग आदि योगों में जागरुकता यात्रा है। प्रस्तुत कृति में भगवान महावीर की विजय यात्रा को काव्य में प्रस्तुत किया गया है। 13. विचार विकास--मुनि धनराज (लाडनं):-प्रस्तुत कृति में 71 विषयों पर लघु निबन्धात्मक गद्य हैं। इसमें सामान्य जीवन-व्यवहार में उपयोगी विषयों पर अपने अनुभवों तथा विचारों को शब्दों का आकार दिया गया है। 14. नास्ति का अस्तित्व-मुनि नथमल:-प्रस्तुत कृति में जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आत्मा का अस्तित्व जैसे गम्भीर विषय को काव्य का परिधान देकर सरस व सुगम बनाया गया है। दर्शन के क्षेत्र में यह नया उपक्रम है। 15. उठो जागो---मुनि बुद्धमल:-प्रस्तुत पुस्तक संस्कृत के गधों का हिन्दी अनुवाद है। इसमें 54 गद्य युवक को संबोधित कर लिखे गए हैं ,ये गद्य निराश युवक के मानस को झकझोर कर उसमें कर्तव्य बोध को जागत करते हैं। विविध साहित्य: - 1. सास और बहु-मुनि श्रीचन्द्रः-प्रस्तुत पुस्तक पारिवारिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में परिवार के सदस्यों-सास, बह, पति-पत्नी, नौकर आदि के सम्बन्धों पर पूर्ण प्रकाश डालती है । सरल भाषा में सत्य घटनाओं पर आधारित यह पुस्तक हर परिवार के लिए उपयोगी है। 2. स्मृति विज्ञान-मुनि श्रीचन्द्र:-प्रस्तुत पुस्तक में स्मरण शक्ति के विकास के साधनों पर प्रकाश डाला गया है और प्रयोग भी प्रस्तुत किए गए हैं। 3. विसर्जन--मुनि नथमल:-प्रस्तुत पुस्तक में वर्तमान के संदर्भ में विसर्जन के विभिन्न पहलुओं पर समग्रता से विचार किया गया है। ___4. बाल दीक्षा एक विवेचन--मुनि नगराजः-प्रस्तुत पुस्तक में जैन दीक्षा पर सर्वांगीण विवेचन और बाल दीक्षा की उपादेयता पर बौद्धिक तथा ताकिक रूप से विवेचन किया गया है। भारतीय संस्कृति के तथा रूप अनेकों उदाहरणों से पूर्ण है। 5. मर्यादा महोत्सव इतिहास और परिचय-मुनि नगराजः-मर्यादा शताब्दि समारोह के अवसर पर प्रस्तुत पुस्तक लिखी गई है। इसमें तेरापन्थ के मर्यादा महोत्सव का आदि से अन्त तक का वर्णन प्रामाणिकता से प्रस्तुत किया गया है। 6. जयाचार्य की कृतियां--मुनि मधुकरः-प्रस्तुत पुस्तक में महामनीषी जयाचार्य के सम्पूर्ण साहित्य (हस्तलिखित पुस्तकों) का विस्तृत परिचय दिया गया है। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 855 लघु पुस्तिका ( ट्रेक्ट) साहित्य: 1. विजय के आलोक में --मुनि नथमल : - प्रस्तुत कृति भगवान महावीर के वाङमय पर आधारित चिन्तन प्रधान लेख हैं । 2. श्रमण संस्कृति की दो धाराएं जैन और बौद्ध-मुनि नथमलः - श्रमण संस्कृति पर एक निबन्धात्मक लघु कृति है । 3. विश्व स्थिति --मुनि नथमल:- विश्व स्थिति के परिप्रेक्ष्य में लिखे गए 11 लघु निबन्धात्मक प्रस्तुत कृति है । 4. शान्ति र समन्वय का पथ - नयवादः -- इसमें नयवाद के दार्शनिक पहलुओं के साथ आज की राजनैतिक गुत्थियों का तुलनात्मक विवेचन देते हुए शान्ति और समन्वय का एक व्यावहारिक हल प्रस्तुत किया गया है । 5. भारतीय भाषाओं को जैन साहित्यकारों की देन --मुनि बुद्धमलः - प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश हिन्दी, गुजराती, मराठी, राजस्थानी, कन्नड, तमिल आदि भाषाओं में योग, दर्शन, तत्व - निरूपण, इतिहास, पुराण, नीति, राजनीति, अर्थशास्त्र, व्याकरण, कोष, छन्द, ग्रलंकार, भूगोल, गणित, ज्योतिष, प्रायुर्वेद, मन्त्र तन्त्र, संगीत, रत्न परीक्षा प्रादि विषयों पर जो साहित्य लिखा गया है उसका संक्षेप में ब्योरा दिया गया है । 6. तेरापन्थ की विचारधारा और वर्तमान लोक चिन्तन-मुनि बुद्धमल:- इसमें तेरापन्थ की विचारधारा को वर्तमान के चिन्तकों विचारकों के परिप्रेक्ष्य में देखा गया है। 7. तेरापन्थ शासन प्रणाली --म --मुनि नगराज:-त :- तेरापन्थ की शासन व्यवस्था को वर्तमान समाजवादी आदि शासन प्रणालियों के साथ तोला गया है । 8. युग प्रवर्तक भगवान महावीर - - मुनि नगराज:- भगवान महावीर के जीवन पर और उनके अहिंसा अनेकान्त के सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है । 9. सर्वधर्म सदभाव ---‍ --मुनि नगराजः - सब धर्मों में नवीनता होते हुए भी हम एकता कैसे खोज सकते हैं । यह इस ट्रेक्ट का विषय है । 10. अणुव्रत आन्दोलन - - मुनि नगराजः प्रणुव्रतों के प्रादर्शों को संक्षेप में विवेचित किया गया है । 11. प्राचार्य श्री तुलसी एक अध्ययन --मुनि नगराजः - प्राचार्यश्री के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक परिचय पुस्तिका है । 12. तेरापन्थ दिग्दर्शन - मुनि नगराजः - तेरापन्थ की संक्षिप्त परिचयात्मक पुस्तिका है । 13. मानवता का मार्ग अणुव्रत आन्दोलन-मुनि बुद्धमलः - मानवता की भूमिका पर अणुव्रत आन्दोलन को प्रस्तुत किया गया है । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 14. जैन धर्म एक परिचय--मुनि दुलहराजः-जैन धर्म की प्रारम्भिक जानकारी के लिए यह उपयोगी पुस्तिका है। 15. एक आदर्श आत्मा--मुनि धनराज (सरसा):-मुनि श्री केवलचन्द जी स्वामी का संक्षिप्त जीवन परिचय है। 16. अणुव्रत आन्दोलन एक परिचय--मुनि रूपचन्द्रः-उस समय तक अणुव्रत आन्दोलन की गति विधि तथा प्रमुख प्रवृत्तियों का दिशा बोध इसमें है। 17. आचार्यश्री तुलसी एक परिचय--मुनि रूपचन्द्रः-प्राचार्य श्री तुलसी के जीवन का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत पुस्तिका में है। ___18. तेरापन्थ एक परिचय-मुनि रूपचन्द्रः-तेरापन्थ की आज तक की प्रगति का प्रति संक्षेप में दिग्दर्शन किया गया है । __19. तेरापन्थ-मुनि बुद्धमल:--तेरापन्थ का संक्षिप्त परिचय इसमें प्रस्तुत किया गया है। 20. हिन्दी जन-जन की भाषा—मुनि नथमल:-हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा का गौरव प्रदान करने के लिए कई तर्क इसमें प्रस्तुत किए गए हैं। धर्म रहस्य, दर्शन प्रकाश, वर्तमान भारत का नक्शा, आदि बीस-तीस पुस्तकें वर्तमान की स्थिति में उपलब्ध न होने के कारण इनसे मैं आपका परिचय नहीं करा सकता। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन गद्य साहित्य-8. --पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ राजस्थान प्राचीन काल से ही साहित्य व संस्कृति का केन्द्र रहा है। यहां की भूमि में जिस प्रकार अनेक रण-बांकुरों ने जन्म लेकर इसके कण-कण को पवित्र किया है उसी प्रकार अनेक साहित्यकारों व कलाकारों ने साहित्य की सर्जना कर तथा कला द्वारा इसका सम्मान बढ़ाया है। अनेक शास्त्र भण्डार और विशाल कलापूर्ण मन्दिर इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं। साहित्य समाज का दर्पण है। समाज की उन्नति, अवनति, अधोपतन, विनाश व पूनरुत्थान आदि सभी उसके साहित्य में सम्मिलित हैं। यदि किसी समाज का साहित्य सम्पन्न, उच्च कोटि का व लोकोपकारी भावनाओं से प्रोत-प्रोत है, आत्मा के उद्धार में सहयोग देने वाला है, उसी समाज की स्थिति अक्षण्ण बनी रहती है अन्यथा बनती व बिगड़ती रहती है और कभीकभी तो समूल नष्ट हो जाती है। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि राजस्थान में अनेक शास्त्र भण्डार हैं जिनमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी व हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में लिपिबद्ध प्रागम-सिद्धान्त, ज्योतिष, व्याकरण, आयर्वेद, इतिहास, चरित्र पूराण, काव्य, कथा, रस, पिंगल कोश आदि अनेक विषयों के ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इन भण्डारों के सुचीपत्र भी छपे हैं। वैसे सभी भाषाओं का साहित्य पद्य व गद्य में मिलता है किन्तु पद्य में प्रचर मात्रा में उपलब्ध है। इसका कारण यह है कि गेय होने के कारण स्वांतःसूखाय और मनोरंजक होने के कारण साहित्यकारों की रुचि पद्य-रचना की ओर अधिक रही है। राजस्थान में आज भी बड़े-बड़े आख्यान गीत रूप में गा कर सुनाए जाते हैं। वक्ता और श्रोता को जितना अानन्द गेय पद्यों में आता हैं और किसी में भी नहीं। पद्यों की गद्यात्मकता से मनष्य ही नहीं पश-पक्षी भी झम उठते हैं और आनन्द-विभोर हो जाते हैं। गद्य का विकास बहत पीछे का है। डा. राम चन्द्र शुक्ल के अनुसार तो हिन्दी साहित्य के सर्वप्रथम गद्यकार लल्ल लाल तथा संदल मिश्र माने जाते हैं किन्तु यह धारणा अब गलत सिद्ध हो चुकी है क्योंकि हिन्दी गद्य साहित्य का विकास 18वीं शताब्दी से पूर्व हो चुका था । पं. दौलतराम कासलीवाल, महापण्डित टोडरमल, पं. जयचन्द छाबड़ा आदि दिगम्बर जैन गद्य साहित्यकार हुए हैं किन्तु इनकी रचनाएं अधिकतर राजस्थानी, ढढारी तथा ब्रज मिश्रित है। कहीं-कहीं गुजराती व पंजाबी का भी पुट है। यद्यपि डा. रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में पं. दौलतराम के गद्य को खड़ी बोली का गद्य स्वीकारा है (पत्र 411), किन्तु इनकी भाषा ढंढारी तथा ब्रज होने के कारण पूरी तरह से खड़ी बोली की गणना में नहीं पाती। खड़ी बोली का गद्य साहित्य गत 100 वर्षों से ही मिलता है। खड़ी बोली का तात्पर्य जनसाधारण की सीधी सादी बोली है। इस भाषा में रचना करने वाले राजस्थान के दिगम्बर जैन साहित्यकारों में से कुछ प्रमुख साहित्यकारों का परिचय इस प्रकार है। 1. पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ:--पंडितजी प्राकृत, संस्कृत के समान हिन्दी भाषा के भी प्रमुख विद्वान थे। प्रारम्भ से ही इन्हें लिखने में रुचि थी तथा आपके लेख विश्वामित्र, कल्याण, अनेकान्त, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि पत्रों में प्रकाशित होते रहते थे। आप वर्षों तक विभिन्न पत्रों के सम्पादक रहे। वीरवाणी की सम्पादकीय टिप्पणियांपकी विद्व सूझबूझ के अतिरिक्त आपको हिन्दी गद्य के प्रमुख लेखकों में प्रस्तुत करने वाली है। आप कभी Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 कभी कहानियां भी लिखते थे । पंडितजी के गद्य का एक नमूना इस प्रकार है: __ "क्षमा हमें विवेक देती है और प्रत्येक विषय पर गहराई से विचार करने का अवकाश प्रदान करती है। क्षमा को ठीक समझने के लिए हमें उसके दो भेद करने होंगे। एक साधु की तथा दूसरी गहस्थ की। साधु की क्षमा प्रतिकार रहित होती है जब कि गहस्थ की क्षमा आतताइयों का प्रतिकार करती है। क्षमा मनुष्य को अकर्मण्यता का पाठ नहीं पढ़ाती, वह तो मनष्य को काम करना सिखाती है और प्राध्यात्मिक योगी को आत्म-समर्पण की शिक्षा देकर मुक्ति की राह बतलाती है।" पंडितजी इस शताब्दि के अच्छे हिन्दी गद्य लेखक माने जाते हैं । 2. श्री श्रीप्रकाश शास्त्री:--आपका जन्म सं. 1972 में जयपुर में हुआ। आपके पिता श्री बालचन्द जी सोनी थे। आपने सन 1934 में न्यायतीर्थ. 1935 में शास्त्री व 1936 में काव्यतीर्थ की परीक्षा पास की। सन् 1933 से ही आपके लेख जैन पत्र-पत्रिकाओं में छपने लग गए थे। पाप दर्शन व प्राध्यात्मक परक लेख लिखने में विशेष रुचि लेते थे। पंडितजी प्राचीन साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान थे और हिन्दी जैन साहित्य पर आपके कितने ही लेख वीरवाणी में प्रकाशित होते रहते थे। अापने पं. चैनसुखदास जी के संस्कृत ग्रन्थ 'निक्षेपचक्र' का हिन्दी अनुवाद किया था। वीरवाणी में आपने ‘जयपुर राज्य के दिगम्बर जैन साहित्यकार लेख माला के माध्यम से सारे साहित्यकारों का पूर्ण परिचय प्रस्तुत किया । आपने सूर्यसागर ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित तथा प्राचार्य सूर्यसागर जी द्वारा लिखित 'संयम प्रकाश' ग्रन्थ का संपादन किया था। आप महान साहित्यसेवी थे। आपका असमय में निधन होने से साहित्य जगत को गहरी क्षति पहुंची है । 3. पण्डित इन्द्रलाल शास्त्री:--आपका जन्म 21-9-1897 को जयपुर में हुआ। आप मुंशी मालीलाल जी चांदवाड़ के पुत्र थे । आपने सं. 1972 में शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की। प्रापका अध्ययन गहन एवं विद्वत्ता अगाध थी। हिन्दी पद्य के समान हिन्दी गद्य के भी शास्त्री जी अच्छे लेखक थे। खण्डेलवाल जैन हितेच्छ, अहिंसा जैसे पत्रों के सम्पादक रह कर हिन्दी गद्य साहित्य की अच्छी सेवा की थी। अापकी निम्न रचनायें इस प्रकार हैं:--धर्म सोपान, तत्वालोक, आत्म वैभव, पशुबध सबसे बड़ा देशद्रोह, शांति पीयूषधारा, अहिंसा तत्व, विवेक मंजूषा, दिगम्बर जैन साधु को चर्या, जैन धर्म और जाति भेद, महावीर देशना, भारतीय संस्कृति का महारूप आदि । आप अपने समय के अच्छे वक्ता, लेखक, कवि तथा अनेक पत्रों के सम्पादक रहे हैं। 4. पं. मिलापचन्द शास्त्रीः--आपका जन्म जयपुर राज्य के प्रतापपुरा ग्राम में वि. स. 1971 में हुअा था किन्तु कुछ समय बाद आप जयपुर में श्री मगनलाल जी पहाड़िया के यहां गोद पा गए। यहां पाने के पश्चात आपने शास्त्री व न्यायतीर्थ की परीक्षाएं उत्तीर्ण की। आपकी प्रवचन शैली और लेखन शैली दोनों ही मंजी हई है। आपने 'पावन-प्रवाह' एवं 'जैन दर्शनसार' पर सून्दर हिन्दी गद्य टीकाएं लिखी है। समय-समय पर आपके लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। 5. डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल :---डा. कासलीवाल का जन्म दिनांक 8 अगस्त, 1920 को जयपर जिलान्तर्गत सैथल ग्राम में हमा। अापके पिताजी श्री गैदीलालजी ग्राम के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से थे। ग्राम में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद आप अपने छोटे भाई के साथ जयपुर में पं. चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ के संरक्षण में पाए और यहीं एम. ए. तथा Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 359 शास्त्री की परीक्षा पास की। आप पंडितजी के प्रमुख शिष्यों में हैं। सन् 1961 में राजस्थान विश्वविद्यालय ने 'पापको राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों पर शोधकार्य करने पर पी. एच. डी. को उपाधि से सम्मानित किया। गत 25 वर्षों से डा. कासलीवाल प्राचीन साहित्य की खोज एवं प्रकाशन में लगे हुए हैं। अब तक आपकी 20 से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों की ग्रन्थ सूची पांच भाग, प्रशस्ति संग्रह, प्रद्युम्न चरित, जिणदत्त चरित, राजस्थान के जैन सन्त, हिन्दी पद संग्रह, महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व और कृतित्व, शाकम्भरी प्रदेश के सांस्कृतिक विकास में जैन धर्म का योगदान और वीर शासन के प्रभावक प्राचार्य आदि हैं। राजस्थान के जैन सन्त विद्वत परिषद तथा महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व और कृतित्व साहित्य परिषद् द्वारा पुरस्कृत हो च की है। राजस्थान में जैन साहित्य को प्रकाश में लाने का प्रमुख श्रेय आपको ही है। आपके 350 से भी अधिक खोजपूर्ण लेख देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी भाषा व शैली दोनों ही सरल किन्तु भावपूर्ण हैं। आपकी भाषा शैली का नमूना इस प्रकार है:-- "राजस्थान के मध्य में स्थित होने तथा प्राकृतिक साधनों से रक्षित होने के कारण अजमेर अपने जन्म से ही देश के सर्वोच्च शासकों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। यह नगर पृथ्वीपुर, अजयमेरु, अजयदुर्ग, अजयगढ़, अजयनगर, अजीर्णगढ़ जैसे विभिन्न नामों से प्रसिद्ध रहा है। सर्व प्रथम यह प्रदेश शाकम्भरी प्रदेश के अधीन रहा है लेकिन कुछ ही समय पश्चात् इसे इसकी राजधानी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुा ।" (शाकम्भरी प्रदेश पृष्ठ 15) - अपनी विद्वता एवं महती साहित्य सेवा के कारण आप अब तक कितनी ही सामाजिक व साहित्यिक संस्थानों से सम्मानित हो चुके हैं। डा. कासलीवाल को राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में से कितनी ही रचनाओं को प्रकाश में लाने का श्रेय है। साहित्यान्वेषण उनके जीवन का स्वभाव बन गया है। इनकी लेखन शैली में माधुर्य है तथा अपनी बात को अत्यधिक स्वाभाविकता में रखते हैं । 6. पण्डित गुलाबचन्द जैन दर्शनाचार्य :--पं. गुलाबचन्द का जन्म जयपुर जिले के गोनेर ग्राम में दिनांक 9-11-21 को हुआ। आपके पिता का नाम भूरामल जी छाबड़ा है। पंडित जी जैन दर्शन के अच्छे विद्वान् हैं। सन् 1969 से आप दिगम्बर जैन संस्कृत कालेज, जयपुर के प्राचार्य हैं। पंडित जी हिन्दी गद्य के अच्छे लेखक हैं। अब तक आपके एकांकी, नेमिराजुल संवाद आदि प्रकाशित हो चुके हैं । 7. पं. भंवरलाल न्यायतीर्थ :--आपका जन्म जयपुर में संवत् 1972 में हुआ था। आपके पिता श्री गेंदीलाल जी भांवसा जयपुर के प्रसिद्ध संगीतज्ञों में से थे। पाप जयपूर नगर के प्रसिद्ध विद्वान्, पत्रकार , लेखक एवं कुशल वक्ता माने जाते हैं। गत 30 वर्षों से प्राप वीरवाणी का सम्पादन कर रहें हैं तथा इसके पूर्व जैन बन्धु तथा जैन हितेच्छु के सम्पादक रह चुके हैं। जयपूर के जैन दीवानों पर लेखमाला के रूप में आपके द्वारा लिखित खोज पूर्ण सामग्री शित हो च की है। संयम-प्रकाश एवं बनारसी-विलास ग्रन्थों का अापने सम्पादन किया है। आपकी गद्य शैली सुन्दर है। पंडित जी साहित्यसेवी के साथ ही समाज सेवी भी हैं तथा वीर निर्वाण भारती मेरठ द्वारा आप समाजरत्न की उपाधि से सम्मानित हो चुके हैं । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 8. प्रो. प्रवीणचन्द जैन :--प्रो. प्रवीणचन्द जी जैन का जन्म सन 1909 जयपुर में श्री लक्ष्मणलाल जी पाटनी के यहां हुप्रा। आपकी प्रारम्भ से ही अध्ययन की ओर विशेष रुचि रही। आपने एम. ए. हिन्दी व संस्कृत, शास्त्री व साहित्यरत्न की परीक्षा उत्तीर्ण की। शिक्षा जगत में आपका विशेष योगदान रहा तथा भरतपुर, डूंगरपुर, बीकानेर, वनस्थली महाविद्यालयों के वर्षों तक प्राचार्य रहे । आज कल आप उच्चस्तरीय अनुसंधान केन्द्र, जयपुर के संचालक हैं तथा पौराणिक साहित्य पर विशेष अनुसन्धान में लगे हुए हैं । ___9. डा. हुकुमचन्द भारिल्ल :--आप हंसराज भारिल्ल के पुत्र हैं। आप शास्त्री, न्यायतीर्थ, साहित्य रत्न तथा एम. ए., पी. एच. डी. हैं। आप हिन्दी के अच्छे विद्वान् हैं। ग्राप उच्च कोटि के निबन्धकार तथा प्राध्यात्मिक वक्ता हैं। गत 10 वर्षों से आप जयपूर में पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के संयक्त मंत्री हैं। आपकी कितनी ही रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं-बालबोध पाठमाला भाग 1 से 3, वीतराग विज्ञान पाठमाला भाग 1 से 3, तीर्थंकर महावीर, भगवान महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ तथा पंडित टोडरमल व्यक्तित्व और कृतित्व आदि। आपकी भाषा सरस व प्रांजल है। आपकी भाषा का नमूना इस प्रकार है:-- "भोले भक्तों ने अपनी कल्पना के अनुसार तीर्थंकर भगवन्तों में भी भेदभाव कर डाला है। उनके अनुसार पार्श्वनाथ रक्षा करते हैं तो शान्तिनाथ शान्ति । इसी प्रकार शीतलनाथ शीतला (चेचक) को ठीक करने वाले हैं और सिद्ध भगवान को कुष्ठ रोग निवारण करने वाला कहा जाता है। भगवान तो सभी वीतरागी, सर्वज्ञ, एक सी शक्ति, अनन्तवीर्य के धनी हैं। उनके कार्यों में यह भेद कैसे सम्भव है ? एक तो भगवान कुछ करते ही नहीं है, यदि करें तो क्या शान्तिनाथ पार्श्वनाथ के समान रक्षा नहीं कर सकते ? ऐसा कोई भेद तो अरहन्त सिद्ध भगवन्तों में है नहीं।" (सर्वोदय तीर्थ पृष्ठ 115) 10. डा. कमलचन्द सौगानी :--डा. सौगानी का जन्म 25 अगस्त 1928 को जयपुर में हमा। आप उदयपुर विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के प्रोफेसर एवं अपने विषय के अधिकारी विद्वान हैं। आप 'एथिकिल डाक्ट्रिन्स इन जैनिज्म' शोध प्रबन्ध पर राजस्थान विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. की उपाधि से सम्मानित हो चुके हैं। मनि श्री मिश्रीलाल जी महाराज तथा पं. चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ द्वारा संकलित 'अर्हत् प्रवचन' तथा 'प्रवचन प्रकाश' के हिन्दी रूपान्तर में आपका बहुत बड़ा हाथ रहा है । 11. पं. मूलचन्द शास्त्री :--श्री शास्त्री जी वर्षों से श्री महावीर जी (राज.) में रह कर मां सरस्वती की सेवा कर रहे हैं। आप हिन्दी व संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् हैं। आपने जैन दर्शन के उच्च ग्रन्थ प्राप्त-मीमांसा तथा युक्त्यनुशासन का विस्तृत अनुवाद किया है। स्वतन्त्र ग्रन्थ "जैन दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन" अभी अप्रकाशित है। आपने महाकवि कालिदास के मेघदूत के अन्तिम चरण की समस्या पूर्ति करते हुए राजल की विरह वेदना को व्यक्त करने वाले 'वचन-द्रतम' संस्कृत काव्य की रचना की है। साथ ही उसका पद्यानुवाद तथा Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 361 गद्यानवाद भी आपने ही किया है। आपकी भाषा बहुत ही सम्पन्न तथा प्रांजल है। पंडितजी के दार्शनिक विचारों का दिग्दर्शन कराने वाला गद्य का एक नमूना इस प्रकार है:-- शामा में अल्पज्ञता एवं सदोषता ज्ञानावरणादिक पौद्गलिक कर्मों के सम्बन्ध से आती है। जब उनका अपने विरोधी कारणों के उत्कर्ष से अभाव- सर्वथा क्षय होता है तब प्रात्मा निर्दोष होकर सर्वज्ञ हो जाता है।" 12 पं. मिलापचन्द रतनलाल कटारिया :--आप केकड़ी के रहने वाले दिगम्बर जैन कटारिया गोत्रीय श्रावक हैं। केकड़ी जैन विद्वानों का केन्द्र रहा है और आपने सो चार चांद ही लगाए हैं। जैन साहित्य सेवियों में इन पिता-पुत्र के जैसे कम ही देखने को मिलेंगे। दोनों ही संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा हिन्दी के अच्छे विद्वान, सिद्धान्त, पुराण. कथा-चरित्र, व्याकरण, दर्शन, पूजा विधान आदि सभी विषयों के ज्ञाता, सफल समालोचक एवं अधिकारी लेखक हैं। आप दोनों के अच्छे लेखे अनेक पत्र-पत्रिकाओं में निकलते हैं। आपके अनेक शोधपूर्ण निबन्धों का संकलन "जन निबन्ध रत्नावली" में निकल चका है। इसे वीर शासन संघ, कलकत्ता ने अप्रैल, 1966 में प्रकाशित कराया है। 13. श्री भंवरलाल पोल्याका :--पोल्याका जी का जन्म जयपुर में सन 1918 में श्री पारसमलजी पोल्याका के यहां हआ। आपकी शिक्षा जैन संस्कृत कालेज में हुई जहां से आपने जैन दर्शनाचार्य तथा साहित्य शास्त्री की परीक्षाएं उत्तीर्ण की। आप कुशल वक्ता, लेखक और समालोचक हैं। जयपर से प्रकाशित होने वाली "महावीर जयन्ती स्मारिका" के आप कई वर्षों से प्रधान सम्पादक आपकी भाषा लालित्य व प्रसादगुण युक्त होती है। तमिल भाषा का जैन साहित्य" पुस्तक जो आपके द्वारा लिखित है, प्रकाशित हो चुकी है । 14. पं. वंशीधर शास्त्री :--आपका जन्म अाज से करीब 40 वर्ष पूर्व चौम् में हा। आपका अध्ययन पंडित चैनसुखदासजी के सानिध्य में हुआ। शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आपने एम. ए. तथा साहित्यरत्न की परीक्षा उत्तीर्ण की। आपके खोजपूर्ण लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। आप अधिकतर समालोचनात्मक लेख लिखते हैं। आप आजकल बारह भावना तथा बारह मासा साहित्य पर कार्य कर रहे हैं। 15. पं. श्री हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री :--पं. हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री मध्यप्रदेश के निवासी हैं लेकिन गत 15-20 वर्षों से वे राजस्थान में रहते हए जैन साहित्य की अपूर्व सेवा कर रहे हैं। सर्व प्रथम 'जयधवला' की हिन्दी टीका में उन्होंने प्रमुख योग दिया। 16. श्री नाथूलाल जैनः--श्री नाथूलाल जैन कोटा निवासी हैं तथा हिन्दी के अच्छे लेखक एवं कवि हैं। आप भाषा आयोग के सदस्य भी रह चुके हैं। उक्त जैन हिन्दी विद्वानों एवं लेखकों के अतिरिक्त डा. लालचन्द जैन बनस्थली. डा. गंगाराम गर्ग भरतपूर, महावीर कोटिया जयपुर, श्रीमती सुशीला देवी बाकलीवाल, श्रीमती सुदर्शन छाबड़ा जयपूर, श्रीमती सुशीला कासलीवाल, पं. सत्यन्धरकुमार सेठी, श्रीमती Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 स्नेहलता जैन, सुश्री सुशीला वैद, प्रेमचन्द रांवका, भंवरलाल सेठी, माणिक्यचन्द्र जैन आदि के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। इनमें से श्री डा. लालचन्द जैन नाटयकार हैं और अब तक आपके दो तीन लघ नाटक प्रकाशित हो चुके हैं। डा. गंगाराम गर्ग ढढारी भाषा के कवियों पर लेख प्रकाशित करते रहते हैं। श्रीमती सुशीला देवी बाकलीवाल उदीयमान लेखिका है और आप समालोचनात्मक लेख लिखने में विशेष रुचि लेती हैं। श्रीमती सुदर्शन छाबडा जैन तत्वज्ञान पर लेख लिखती रहती हैं। श्री प्रेमचन्द रांवका भी यवा लेखक हैं और ब्रह्म. जिनदास पर खोज कार्य कर रहे हैं। जैन साहित्य पर कार्य करने वाले विद्वानों में प्रमुख रूप से साहित्य, दर्शन एवं सिद्धान्त पर लिखने वाले लेखकों की सबसे अधिक संख्या है। प्राचीन जैन साहित्य को प्रकाश में लाने का सर्वाधिक श्रेय डा. कस्तुरचन्द कासलीवाल को है जिन्होंने सैंकड़ों संस्कृत, अपभ्रंश एवं राजस्थान के कवियों पर अपनी कृतियां एवं लेखों में प्रकाश डाला है तथा जो मदा लेखकों एवं विद्वानों को आगे बढ़ाने में सतत प्रयत्नशील रहते हैं । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कथा साहित्य की प्रवृत्तियां - 9 धर्म और कथाएं : कथाएं जन-मानस के लिए सदा ही प्रिय और प्रह्लादकारी रही हैं । धर्म-प्रवर्तकों, धर्माचार्यों तथा प्रचारकों ने मानव-मन के इस मूलभूत मनोविज्ञान को बड़ी सावधानी से पहचाना और धार्मिक भावना के प्रचार में इसका भरपूर उपयोग किया । यही कारण है कि संसार के धार्मिक साहित्य का अधिकांश कथा-कहानियों में है । कथाओं के द्वारा धार्मिक सिद्धान्तों को जन-मन के लिए सुगमतापूर्वक ग्राह्य बनाया जा सका । इस तरह धर्म लोकप्रिय बन सका, परलोक सुधार के साथ-साथ लोकरंजन का भी साधन बन सका । बड़ी ही रोचक और प्रेरणास्पद कथा-कहानियों का अक्षय भण्डार विविध धर्मों में उपलब्ध है । जैन कथा साहित्य : साहित्य का उत्स धर्म रहा है । धार्मिक कथायें साहित्य का मूलाधार रही हैं । तदनुसार जैन साहित्य भी मूलतः धामिकता परक है । ग्रनेकानेक कथाओं, उपकथाओं, प्रसंगों आदि के द्वारा जैन दार्शनिक सिद्धान्तों, जैन आचार तथा विचार को लोकमानस के लिए सुलभ कराया गया ताकि जन-सन अधिकाधिक धर्म के प्रति आकृष्ट हो सके । यही कारण है कि जैन परम्परा का कथात्मक साहित्य विशाल परिमाण में उपलब्ध है । -श्री महावीर कोटया इस समग्र जैन साहित्य को चार अनुयोगों में विभाजित किया गया है -- ( 1 ) चरणकरणानुयोग, ( 2 ) धर्मकथानुयोग, ( 3 ) द्रव्यानुयाग एवं ( 4 ) गणितानुयोग | विभाजन में धर्मकथानुयोग का एक स्वतन्त्र वर्ग रखा जान, जैन साहित्य में कथाओं के माहात्म्य का प्रमाण है । वस्तुतः कथाओं के माध्यम से उपदेश, ज्ञान प्रतिबोध देने की जैन परम्परा की प्राचीनतम शैली है। प्राप्त ग्रागम ग्रन्थों, जिनमें भगवान महावीर की वाणी का संकलन है, में ही हजारों कथाएं तथा प्रसंग संकलित हैं । ज्ञाताधर्म कथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, ग्रनुत्तरोपपातिकदशा, विपाकश्रुत, निरयावलिका, कप्पवडंसिया, पुफिया, पुष्पचलिका, वह्निदशा, यदि आगम ग्रन्थ इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं । प्राचीन जैन साहित्यकारों में आचार्य भद्रबाहु, जिनदास गणि व संघदास गणि, विमलसूरि, अभयदेव, शीलांक. आचार्य जिनसेन, आचार्य गुणभद्र, प्राचार्य हरिभद्र, प्राचार्य हेमचन्द्र प्रभृति ने अनेक जैन कथाओं को साहित्यिक रूप देकर सदा-सर्वदा के लिए सुरक्षित व अमर बना दिया है। इन द्वारा प्रणीत चरित ग्रन्थों, पुराणों तथा शाधुनिक भारतीय भाषाओं विशेष कर राजस्थानी व गुजराती के अनेक साहित्यकारों ने अपने रास ग्रन्थों, फागु, चर्चरी, वेलि संज्ञक कृतियों में जैन कथाओंों को सुन्दर साहित्यिक रूप में प्रस्तुत कर जैन साहित्य की महान् सेवा की है। हिन्दी में जैन कथा सहित्य : हिन्दी के प्रारम्भिक जैन के रूप में प्रणीत हुए। ग्रनकरण कथा ग्रन्थ संस्कृत पुराणों व चरितादि ग्रन्थों के अनुवादपरन्तु यह प्रवृत्ति प्रारम्भिक ही रही । कालान्तर में जैन Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 प्रागमिक व पौराणिक साहित्य में बिखरी कथानों को हिन्दी गद्य में स्वतन्त्र रूप से प्रस्तुत किया जाने लगा। आज स्थिति यह है कि जैन कथाएं विविध साहित्यिक विधानों के स्वरूप में मण्डित होकर समकालीन हिन्दी साहित्य कृतियों के समानान्तर लिखी जा रही है। उपन्यास, लघु उपन्यास, कहानी, लघ कथाएं, नाटक-एकांकी प्रादि विधाओं में प्राज जैन कथा साहित्य उपलब्ध है । राजस्थान का जैन कथा साहित्य : जैन साहित्य के उन्नयन में राजस्थान का सदा ही अग्रणी स्थान रहा है। इस तथ्य का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस प्रदेश में लगभग तीन हजार ग्रन्थागार हैं जिनमें लगभग तीन लाख पाण्डुलिपियां एकत्रित हैं। यह अधिकांश साहित्य अप्रकाशित है क्योंकि इस युग में साहित्य प्रकाशन की आज की जैसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी। आज का जैन साहित्यलेखन' इस दृष्टि से भाग्यवान है कि उसका अधिकांश भाग प्रकाशित है , प्रकाशित होता रहता है। अनेक जैन पत्र-पत्रिकाओं ने साहित्य-प्रकाशन की स्थिति को अधिक सुविधाजनक बना दिया है। पुनः साधु-साध्वियों के प्रभाव व जैन धनिकों की उदार सहायता के कारण भी आधुनिक जैन साहित्य के प्रकाशन का क्षेत्र उज्ज्वल रहा है। हिन्दी जैन साहित्य की अधनातन प्रवत्तियों में निबन्ध, समालोचना, शोध-प्रबन्ध तथा प्रवचन-साहित्य का प्रणयन व प्रकाशन अधिक हुआ है, अपेक्षाकृत विविध विधापरक स्वतन्त्र कथा साहित्य का प्रणयन व प्रकाशन स्वल्प है। यहां हम राजस्थान के उपलब्ध जैन कथा साहित्य का विधापरक व प्रवत्तिमूलक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस अध्ययन से प्राधनिक जैन कथा साहित्य लेखन की विशिष्टिता तथा दिशा का प्रकटीकरण हो सकेगा, ऐसा विश्वास है । उपन्यास-लघु उपन्यास : -कमला जैन 'जीजी', प्रकाशित उपन्यासों की संख्या बहुत सीमित ही है। जिन उपन्यासों की जानकारी मिल सकी है. व हैं. चितेरों के महावीर--डा. प्रेम समन जैन, अग्निपथ--कमला जैन 'ज कपिल--प्राचार्य अमृत कुमार, तरंगवती, शली और सिंहासन, भटकते भटकते--- तीनों कृतियों के लेखक हैं ज्ञान भारिल्ल। लघु उपन्यासों में प्रस्तुत लेखक के दो उपन्यास 'जिनवाणी' (मासिक पत्रिका जयपुर) में धारावाहिक प्रकाशित हुए हैं, वे हैं आत्मजयी और कणिकः । ___ 'चितेरों के महावीर' उपन्यास में महावीर के परम्परा से मान्य जीवन प्रसंगों को नवीन शैली में प्रस्तुत किया गया है। मध्यप्रदेश में विदिशा के पास अवस्थित उदयगिरि की गुफाओं को पृष्ठभूमि के रूप में लेकर और आचार्य कश्यप तथा उनके कलाकार शिष्यों की कल्पना कर लेखक ने उपन्यास में धाराप्रवाहिकता, रोचकता व महावीर सिद्धान्तों के प्रस्तुतिकरण में सहजता का समावेश किया है। उपन्यास की यह नवीन शैली एक उपलब्धि है। 'कपिल' नामक उपन्यास में लेखक प्राचार्य अमतकुमार ने 'उत्तराध्ययन सूत्र' के आठवें अध्ययन में उपलब्ध कथासूत्र को आधुनिक उपन्यास की शैली में प्रस्तुत कर, सार्वजनिक बना दिया है। उपन्यास का कथानक सार्वकालिक और सार्वभौमिक है। शकुनीदत्त के चरित्र द्वारा मनुष्य का स्वार्थ और उसकी प्रेरणा से किए जाने वाले मानवीय दुष्कर्म प्रकट हो च के हैं, वही व्यक्ति की अपराध प्रवृत्ति का मनोवैज्ञानिक स्वरूप रपष्ट हो सका है । कपिल' के पात्र हमारे ही समय के, हमारे गली-महल्ले केही पात्र है और इसमें उठाई गई समस्या भी पूर्णत: मानवीय है, अत: सबकी है। प्रानिक जैन साहित्यकार प्राचीन कथासूत्रों को किस सफलता से आधुनिकता Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 365 का जामा पहना रहा है और उन कथाओं में निहित शाश्वत मानवीय प्रादर्शो को प्रस्तुत कर नैतिक जागरण का जो प्रयत्न कर रहा है, उसका इस उपन्यास से आभास किया जा सकता है । कमला जैन 'जीजी' का उपन्यास 'अग्निपथ' जैन साध्वी श्री उमरावकुंवर जी 'अर्चना' की जीवन कथा पर आधारित है । इस महिमावान, परम विदुषी, महान तपस्विनी साध्वी का प्रदर्श जीवन प्रस्तुत कर लेखिका ने सामाजिक नैतिक जागरण को ही दिशा दी है । पवित्र आत्माओं के चरित्र हमारे लिए दीप-स्तम्भ है, जो ज्ञान की अंधियारी में भटकती मानवता को प्रकाश देते हैं । इस कृति की यह विशिष्टता है कि प्रत्यक्ष में जीए गए जीवन को सहज, सरल और रोचक औपन्यासिक शैली में सफलता पूर्वक प्रस्तुत किया गया है। श्री ज्ञान भारिल्ल का उपन्यास 'तरंगवती' एक प्राचीन जैन कथा का श्रात्म कथात्मक उपन्यास के रूप में किया गया रूपान्तर है । प्राचार्य पादलिप्त द्वारा मूल प्राकृत में लिखी गई इस कथा से पुनर्जन्म के सिद्धान्त की रोचक पुष्टि हुई है । लघु उपन्यास की दृष्टि से प्रस्तुत लेखक के दो उपन्यास 'आत्मजयी' और 'कूणिक' प्रकाश में आए हैं। 'आत्मजवी' में तीर्थ कर महावीर की जीवन घटनाओं को बौद्धिक व मनोवैज्ञानिक धरातल पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है । । उपन्यास द्वारा महावीर स्वामी के महामानव रूप और उन द्वारा प्रचारित धर्म का लोक कल्याणकारी स्वरूप प्रकट हुआ है। 'कूणिक' में जैन परम्परा में उपलब्ध प्रजात शत्रु के राज्य ग्रहण की घटना को आधार बनाकर पिता-पुत्र सम्बन्धों के भावनात्मक स्वरूप व आदर्श को वाणी दी गई है. जिसकी प्राज के घोर व्यक्तिगत स्वार्थी से परिचालित जीवन में नितांत आवश्यकता है । ऊपर जिन कतिपय कृतियों का परिचय दिया गया है, उसके आधार पर हम जैन उपन्यासों की प्रवृत्तियों का निम्न प्रकार उल्लेख कर सकते हैं : --: 1. प्राधुनिक जैन उपन्यास का कथासूत्र परम्परागत स्रोतों से प्राप्त किया जाता है । यही एक बडा आधार है जिस कारण हम इस प्रकार की कृतियों को जैन उपन्यास कह सकते हैं । गया है । 2. परम्परागत कथा सूत्र को कथाकारों ने नया रूप, नई शैली व नवीन विचारों से अनुप्राणित किया है । 3. उपन्यासों में याधुनिक संदर्भ तथा आज के युग की समस्याओं को भी प्रस्तुत किया 4. इन उपन्यासों का उद्देश्य नैतिक आदर्श प्रस्तुत कर पाठक को चरित्र निर्माण की दिशा संकेत करना है । 5. ये उपन्यास सुन्दर साहित्यिक कृतियां हैं जिनमें आधुनिक औपन्यासिक शैली का सफल निर्वाह हुआ है। कहानी-लघु कथाएं: कतिपय संकलन हैं कहानी संकलन अपेक्षाकृत अधिक परिमाण में प्रकाशित हुए हैं। कुछ मणियां कुछ पत्थर - डा. नरेन्द्र भानावत, बदलते क्षण - महावीर कोटिया, धार्मिक कहानियां Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 प्राचार्य श्री हस्तीमल जी, जैन कथामाला भाग 1 से 12-श्री मधुकर मुनि, जैन कहानियों भाग-1 से 25,-मुनि श्री महेन्द्र कुमार जी 'प्रथम', प्रताप कथा कामदी भाग-1 से 5-श्री रमेश मनि,सौन्दर्य दर्शन-श्री शान्ति चन्द्र मेहता, कथा कल्पतरु-मुनि श्री छत्रमल, लो कहानी सुनो, लो कथा कहदू-श्री भगवती मनि 'निर्मल', श्री देवेन्द्र मनि के संकलन-खिलती कलियां: मरकराते फल, प्रतिध्वनि, श्री गणेश मनि शास्त्री के संकलन-प्रेरणा के बिन्द्र. श्री विजय मुनि शास्त्री का 'पीयूष घट तथा' श्री केसरीचन्द्र सेठिया का संग्रह 'मुक्ति के पथ पर' आदि । उक्त कहानी व लघुकथा संकलनों को देखकर हमें हिन्दी जैन कथा साहित्य की निम्न तीन प्रवृत्तियां परिलक्षित होती हैं। (क) जैनागमों, पुराणों तथा अन्य धार्मिक साहित्य में उपलब्ध कथासूत्रों को प्राधार रूप में लेकर अपने वर्णन कौशल व कल्पना से उसे ग्रा न्दी कहानी के साहित्यिक रूप में प्रस्तुत करना। (ख) धार्मिक साहित्य में उपलब्ध कथा-कहानियों को ज्यों की त्यों हिन्दी में प्रस्तुत करना। (ग) जैन जैन धार्मिक तथा इतर ग्रन्थों में उपलब्ध प्रेरणात्मक चरित्र-निर्माण सम्बन्धी व जीवनोपयोगी प्रसंगों को अपनी टिप्पणियों के साथ सुन्दर साहित्यक भाषा में प्रस्तुत करना। उक्त तीन प्रवत्तियों के आधार पर जैन कहानी साहित्य तीन रूपों में उपलब्ध है (क) साहित्यिक कहानियां-यथा डा. नरेन्द्र भानावत के संकलन 'छ मणियां कुछ पत्थर' तथा प्रस्तुत लेखक के संकलन 'बदलते क्षण में उपलब्ध । (ख) धार्मिक कहानियां -यथा 'मुक्ति के पथ पर' (केसरी चन्द सेठिया) 'जैन कथामाला'(मधुकर मुनि) आदि। (ग) प्रेरक-प्रसंग वर्णन, यथा प्रतिध्वनि (देवेन्द्र मुनि शास्त्री) प्रेरणा के बिन्दु (गणेश मनि शास्त्री) आदि में संकलित है। तीनों शैलियों में उपलब्ध समग्र जैन कहानी साहित्य का एक समान उद्देश्य है-मानव जीवन का उत्थान, चरित्र का निर्माण। इसलिए भेद शैलीमाव का है, बाहय है, अन्तर सबका एक है, भाव भूमि समान है। नाटक-एकांकी यह विधा जैन साहित्यकारों से जैसे अछूती ही रही है। कहने मात्र को एक एकांकी संकलन 'विष से अमृत की ओर' डा. नरेन्द्र भानावत का है, जिसमें नौ एकांकी संकलित हैं। विष से अमृत की ओर, शराणागत की रक्षा, प्रात्मा का पर्व, एटम अहिंसा और शान्ति, इन्सान की पूजा का दिन, सच्चा यज्ञ, अनाथी मनि, तीर्थकर, नमिराज और इन्द्र । इनमें तीन एकांकी-प्रात्मा का पर्व, एटम अहिंसा और शान्ति तथा इन्सान की पूजा का दिन प्रागम सम्मत विचारधारा पर आधारित काल्पनिक एकांकी है, शेष रह एकांकी प्रसिद्ध जैन कथानकों पर आधारित है। सभी एकांकियों में जैन सांस्कृतिक परम्परा और जैन दर्शन की प्रात्मा का सफल प्रस्तुतिकरण है। डा. रामचरण महेन्द्र के शब्दो में-“लेखक ने इन एकांकियों के माध्यम से कर्ममूलक संस्कृति की प्रतिष्ठा, पुरुषार्थवाद की मान्यता और कर्तव्य की भावना को जाग्रत करने का प्रयत्न किया है। यद्यपि इन एकांकियों की कथावस्तु और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि जैन कथाओं से सम्बन्धित है-तथापि भानावत जी देश की प्राधनिक मामाजिक, सांस्कृतिक एवं Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 367 राजनैतिक परिस्थितियों से भी अपना मुख नहीं मोड़ सके हैं । उनमें से झलकी हैं ।" 1 - संकलन के प्राक्कथन पृ. 7-8 से सम्पूर्ण नाटक की दृष्टि से श्री महेन्द्र जैन का 'महासती चन्दनबाला' नाटक अभी प्रकाश ाया है। यह तीन अंकों में समाप्त सुन्दर, प्रभावोत्पादक नाटक है जिसको जयपुर व दिल्ली में सफलतापूर्वक रंगमंच पर खेला जा चुका है और सराहा गया है । भगवान महावीर के साध्वी संघ की प्रमुख चन्दनबाला का कथानक अत्यन्त कारुणिक है जो मानव मन की गहराई में सुषुप्त कोमल व मानवीय अनुभूतियों की जाग्रति में परम सहायक है | रंगमंचीय नाट्य - रचना की दृष्टि से लेखक ने इस प्रसिद्ध कथानक का सहज निर्वाह किया है, दृश्य परिवर्तन यथासंभव कम हैं तथा पात्र संख्या सीमित है । चन्दनबाला और साथ ही रानी धारिणी का चरितांकन प्रत्यन्त गरिमामय ढंग से हो सका है जो नारी की चारित्रिक दृढता, आत्म संयम, कष्ट सहिष्णुता, धैर्यशीलता और कोमल मानवीय भावनाओं का सुन्दर निदर्शन है । जैन दर्शन के कर्मवाद की पुष्टि इस प्रसिद्ध कथानक से होती है । लेखक ने भी चन्दनबाला के मुख से इसका समर्थन स्थान-स्थान पर कराया है, यथा-काल कोठरी से मुक्ति मिली पर भाग्य के खेल का अन्त कहां ? स्थितियां बदली हैं, बदलती चली गई, मानव अपनी सत्ता सम्पन्नता और सुन्दरता पर इतराता है, वह भूल जाता है- कर्मों में भी अपना विधान है, इसके आगे किसी की नहीं चलती ।. कर्मों ने मुझे कहां नहीं छला, देव ! आज वे फिर छल रहे हैं ।" अस्तु, , जैन साहित्य में अधुनातम नाट्य विधा की दृष्टि से कोई रचना नहीं थी, यह कृति उस प्रभाव की पूर्ति है । देश की वर्तमान परिस्थितियां उद्धृत । Page #421 --------------------------------------------------------------------------  Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिशिष्ट 1. राजस्थान का जैन लोक साहित्य -डॉ. महेन्द्र भानावत 2. राजस्थान के जैन ग्रन्थ संग्रहालय -डॉ. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल 3. राजस्थान के जैन शिलालेख -रामवल्लभ सोमानी 4. जैन लेखन कला -भंवरलाल नाइटर Page #423 --------------------------------------------------------------------------  Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान का जैन लोक साहित्य - डा0 महेन्द्र भानावत राजस्थान के लोकसाहित्य की बड़ी विविध एवं व्यापक पृष्ठभूमि रही है । विविध धर्मो, विविध जातियों, विविध संप्रदायों तथा विविध संस्कारों, त्योहारों और तौर तरीकों की भूतियों से जुड़ा यहां का लोकमत अपनी विराट संस्कृति की जड़ों को गहरी किये पल्लवित पुष्पित है। इस संस्कृति में जैन लोकसाहित्य की अपनी विशिष्ट भूमिका रही है । यह साहित्य म लतः धार्मिक, प्राध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का एक ऐसा पनघट है जिसका पानी पीकर व्यक्ति अपने घर-मरघट तक को परिष्कृत, सात्विक और सांसारिक उलझनों से मुक्त बनाये रखता है । इस साहित्य के सहारे कितनी ही विधवाएं अपने वैधव्य को अभिशाप होने से बचाती हैं । कितने ही बेसहारा मन इसकी शरण को जिन्दगी का सबसे बड़ा सहारा मान अपनी नैया पार लगाते हैं । पापी मन प्रायश्चित करते हैं । अपनी ग्रन्थियों को खोलते हैं । कुन्ठानों को कालिख देते हैं । चित का चंचलपन दूर करते हैं । अपने हाथी मन को अंकुश देते हैं। घोड़े मन को लगाम लगाते हैरत में सुखपूर्वक अमरापुर का ग्रासन ग्रहण करते हैं । इच्छाओं को मारना और जीवन को संयमित करना इस साहित्य का मूल दर्शन है । यह दर्शन सपनों, बधावों, स्तवनो, भजनों, ढालों, व्यावलों, थोकड़ों, सिलोकों, कथाओं, गर्भ - चिन्तारणियों तथा तीर्थंकरों, गणधरों, साधु संतियों सम्बन्धी गीतों से संपूरित है । तीर्थंकर सम्बन्धी गीत मुख्यतः सपनों के रूप में प्रचलित हैं । इन सपनों में उनके गर्भधारण से लेकर उनके जन्म, उनके विविध संस्कार तथा उनके जीवन की मुख्य प्रमुख घटनाओं का उल्लेख किया होता है। धर्म-स्थानों के अलावा विवाह शादियों में चाक नूतने से लेकर शादी के दिन तक प्रति प्रातः भी ये सपने गाये जाते हैं । पर्युषण के दिनों में भी इन्हें विशेष रूप से गाया जाता है । गर्भावास में तीर्थकरों की माताओं को ग्राने वाले स्वपनों के कई गीत इस साहित्य प्रमुख विषय बने हुए हैं। एक सपने में बाल जन्म का हरख किस खूबी से उमड़ पड़ा है-आंगण प्रवरिया चुणावा । नारियलों से नींव भरावो । दाई बुलाओ जो तीर्थं कर को झेले । सोने की छुरी से उसका नारा मोराम्रो । रूपों की कुण्डियों में स्नान कराओ । रानी के प्रांगन सास बुलाओ जो बालक को पटरी झेले। जोशी बुलाओ जो नाम निकाले । ढोली बुलाओ जो दस दिन ढोल बजावे | सेवक को बुलाओ जो दस दिन झालर बजाये । भुआ बुलाओ जो मंगल गाये । चौक पुरा । सुहागिन से सूरज पुजाओ । कुम्हार बुलाओ जो कुंभ कलश लाये । देराणियां- जेठानियां बुलाओ जो भारती उतारे । हौज खुदाम्रो, झलमा पूजो । ढोलिया ढराम्रो । सुहागिन पोढ़ेगी। हिंगलू ढोराम्रो, पगल्या मांडेगी । केल रूपाओ उनके पास हाथी घोड़े मंड़ेंगे । सबके मन में कितना उल्लास और उछाह है । गीतों की गंगायें छलक रिखदेव के लिये केसर तीर्थकरों की पूजा के लिए दूर-दूर से यात्री उमड़ पड़ते हैं । पड़ती हैं । पूजा के विविध था और पूजापा सजाया जा रहा है । नेमिनाथ के लिए फूल, पारसनाथ के लिए केवड़ा, महावीर स्वामी के लिए नारियल तथा शांतिनाथ के लिए खारकों के थाल भरे जा रहे हैं । कब दरवाजा खुले, पट खुले और दर्शन हो । भगवान के पांव पूजने और मुंह देखने के लिए प्रतीक्षा पंक्ति लगी हुई है सामी कदकी ऊबी ने कदकी खरी रे दरवाजे, तोई नी खोल्या दरवाजा रे । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 सामो पांव पूगण दोनी मुख देखण दोनी म्है दूरां सं आया जी । ये सपने बड़े मंगल और कल्याण सूचक है। इनका गाना बैकुंठ पाना और नहीं गाना अजगर का अवतार होना है, तो फिर कौन सपने गाना नहीं चाहेंगी? गाने वाली को चड़ा-चंदड़ी यानी सूहाग-सौभाग्य की प्राप्ति और जोड़ने वाली को झूलता हुआ पुत्र, रोग-शोक से मुवित और ज्ञानावरणीय से लेकर अन्तराय तक के पाठों कर्मों से छुटकारा । __कर्म को लेकर हमारे यहां जीवन की जड़ें बहुत खंखेरी गई हैं। मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। अच्छे काम का अच्छा फल और बुरे काम का बुरा फल । इस धारणा से हर व्यक्ति अपनी जिन्दगानी को बुरे फलों से बिगाड़ना नहीं चाहता। प्रति दिन उसके हाथों अच्छा काम हो, वह यही आशा लिए उठता है और इसी आशा में बिस्तरा पकड़ता है। इसलिए वह अपना आत्मचिन्तन करता है। गलत किये हुए पर प्रायश्चित्त करता है और आगे के जीवन का सुधारने का प्रण दोहराता है। आत्मा सो परमात्मा। इसलिए वह अपनी आत्मा को अपवित्र होने से बचाता है। प्रात्मा को लेकर ऐसे कई एक चौक प्रचलित है जिनमें अच्छी करणी के रूप में प्रात्मा को निर्मल, निरोग और निष्पाप रहने को सचेत, सजग किया गया है। इन चौकों के अतिरिक्त थोकडों में भी इसी प्रकार की,जीवन को धिककारने और प्रात्मानों को फटकारने की भावना भरी मिलती है। प्रात्मनिन्दा एवं भर्त्सना के साथ-साथ सांसारिक मोहमाया, रागद्वेष एवं कषाय आदि में निलिप्त जीवन को झकझोरते हुए उसे सवत्ति की ओर प्रेरित किया जाता है। इसीलिए मरणासन्न व्यक्ति को मृत्य से पूर्व भी ये थोकड़े सूनाये जाते हैं ताकि वह अपने जीवन को तोलता हुआ पापों का प्रायश्चित करे। ये थोकड़े मुख्यतः जीवन के कृष्णपक्ष को उद्घाटित कर उसे शुक्लजीवी बनाते हैं। एक उदाहरण देखिये ___ ज्यू समंदर में हिलोरा उछरे छ ज्यू थारे तिरसणा रूपी हिलोरा उछरे छ। अरे जीव थं करणी तो करे छ पर सूना मन संकरे छै। धीरप मन संकरसी तो थारे लखे लागसी । देखो देखो भरत महाराज की राज, रीति रमणीक, गेमणीक सोभाइमान बेइरी छ। जणा कई जाण्यो छ के धरकारपणों अणीराज ने, धरकारपणों अणी पाटने, धरकारपणों अणी चकरवती पदवी ने। असी चिन्तावणा करतां करता भरत म्हाराज केवल ग्यान दरसन पाया। अस्यो थारे पण उदे पावसी ? थारे कणस् उदे ग्रासी रे बापड़ा? करोध मान माया लोभ री चकरी ने पटरी पार । अकूल विकूल पणो थारे मरे न थी। करोध, मान, माया, लोभ, राग दवेस जगजगारमान हो रयो छ। थारी समाई तो या छ ने वा छ। अर्थात् ज्यों समुद्र की लहरें उछाल खाती है उसी तरह तुम्हारे तृष्णारूपी हिलोरें उछाल खा रही हैं। अरे जीव त कर्म तो करता है पर खाली मन से करता है। धैर्य से करेगा तो तो अपना लक्ष्य हाथ लगेगा। देखो महाराज भरत की राजरीति शोभित हो रही है जिन्होंने जाना कि धिक्कार है इस राजपाट को, घिक्कार है चक्रवती पदवी को। ऐसी चिन्तना करते भरत महाराज केवल ज्ञान केवल दर्शन को प्राप्त हो गये। ऐसा भाग्य तुम्हारे भी उदित होगा? तुम्हारे कैसे उदित होगा ! क्रोध, मान, माया, लोभ की चकरी का जीवन पटरी से पार लगा। आकूल-व्याकुलता तुमसे नहीं छूटती। क्रोध, मान, माया, लोभ राग, द्वेष की जगमगाहट हो रही है। तेरी सामयिक, कमाई तो यह है, यही है। , ये थोकड़े हमारे इस भव के ही नहीं अपितु परभव, भव-भव के चिकित्मक हैं। इनसे काया, कंचन बनती है। हमारा मन यदि अचंगा है तो काया चंगी कैसे होगी ? मन की उद्दाम Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 371 वासनाएं, अनन्त लालसाएं और प्रखूट तृष्णाएं जब तक काबू में नहीं पायेगी तब तक प्रात्मा का मैल कैसे कटेगा? विविध कथा-पाख्यानों और दृष्टान्तों के आधार पर इन थोकड़ों को बणगट मानव जीवन के शैक्षिक सांस्कृतिक पक्ष को मजबूती से पाटती है। गर्भ चिन्तारणियों में गर्भस्थ शिश की चिन्तना के साथ-साथ मानव जीवन को समतावान बनाने को सोख भी रहती है। ये गर्भवती महिलाओं को सुनाई जाती हैं ताकि गर्भ में -ही गर्भस्थ शिशु जोव योनि के स्वरूप, कर्नफल, सांसारिक मोहजाल, रोग-भोग तथा सुख-दुःख का सम्यक ज्ञान प्राप्त कर जीव धारण करे और मानव जीवन को सार्थक करता हा मरण को ममताविहीन रूप में वरण करे। इस दष्टि से ये चिन्तारणियां जीव योनि का गढ़ दर्शन लिए होती हैं। मरणासन्न व्यक्ति को भी ये चिन्तारणियां सुनाई जाती हैं ताकि वह अपने को सांसारिकताओं से मुक्त समझता या देह त्यागे और आगे कोई अच्छा जन्म प्राप्त करे। इसके अनुसार जीव जन्म धारण करता है, मरता है, पुनः-पुनः जीता है और इस प्रकार चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है । मनुष्य अकेला पाता है और अकेला जाता है। साथ न कुछ लाता है और न ले जाता है अतः बार-बार उसे अच्छे कर्म करने के लिए सचेत किया जाता है। एक पगल्या देखिए-- रतनां रा प्याला ने सोना री थाल । मंग मिठाई ने चावल दाल, भोजन भल भल भांतरा ।। गंगा जल पाणी दीधो रे ढार, वस्तु मंगावो ने तुरत त्यार, कमी ए नहीं किण, बात री॥ बड़ा बड़ा होता जी राणा ने राव, सेठ सेनापति ने उमराव, खाता में नहीं राखता ।। जी नर भोगता सुख भरपूर, देख तां देखता होयग्या धूर, देखों रे गत संसार री ।। करे गरब जसी होसी जी बास, देखतां देखतां गया रे विनास, यूं चेते उचेते तो मानवी।। किसी स्थान पर साधु संतों का आगमन बड़ा आह्लादकारी होता है, तब पूरा श्रावकश्राविका समुदाय उमड़ पड़ता है। इस दिन की खुशी का पार नहीं, जसे सोने और रत्नों का सूरज उदित हो पाया हो-- आज सोना रो सुरज उगियो, प्राज रत्नां रो सूरज उगियो, आज रो गोइरो लागे हगेमगे, म्हारासा प्रो लागे दीपतां ॥ कम और केसर के पगल्ये महाराज श्री का पदार्पण । सारा गांव लल-लल पांव लगने के लिए उमड़ पड़ा है। इनके दर्शनों से सारे पाप धुल गए हैं। बधावे पर बधावे गाए जा रहे हैं । भगवान महावीर के बाल जीवन के गीतों में उन्हें नहाने, कपड़े पहनाने तथा पालने में झलाने के बड़े रोचक वर्णन मिलते हैं। महावीर के जरी का रुमाल, मखमल का मागा और हीरे-मोती से जड़ी टोपी शोभित है। उनका पालना सोने की सांकल कड़ियों वाला, रत्नों से जड़ा, रेशम की डोर । उनके पांवों में झांझरिये वन-खनाते हुए, ठुमक ठुमक ठुमकती उनकी चाल और माता त्रिशला के उनके साथ बने नाना स्वप्न, कितनी रंगीन छटा और दश्यावली आंखों के सामने थिरक उठती है। माता त्रिशला तो भाग्यशाली है ही पर इन गीतों को गाने- सुनाने वाले भी अपने को कितना भाग्यवान समझते हैं, यह कल्पना सहज ही की जा सकती है। तीर्थकरों से सम्बन्धित शिलोकों का भी इधर विशेष प्रचलन रहा है। इनमें मुख्यत: देव, वासुपूज्य, नेमिनाथ. पार्श्वनाथ, शांतिनाथ के शिलोकों की संख्या अधिक है। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 तीर्थकरों के अतिरिक्त रामलखन, कृष्ण, बालाजी, गणपति एवं मुख्य प्रमुख सतियों के शिलोके भी मिलते हैं । पर्युषण के दिनों में कई तरह के गीत गाये जाते हैं । औरतें तीर्थंकरों से सम्बन्धित गीत गाती हुई मन्दिर जाती हैं, पूजा करती हैं और हरख मनाती हैं । किसी के बच्चा नहीं होने पर पत्नि पति सजोड़े उपवास करते हैं । धर्म के प्रताप से उनके कूख 'चलने लगती है । तब हाथ पावों में मेंहदी दी जाती है । नारियल या खड़िया बांटी जाती है । पारण के दिन सपने गवाये जाते हैं । संवत्सरी को प्रत्येक व्यक्ति उपवास करता है। कहावत ' थान ने बुडा ने नहीं धान" छोटे-छोटे बच्चे तक इस दिन स्तनपान नहीं करते हैं और बूढ़े भी भूख रहते हैं । लोकसाहित्य के इन विविध रूपों में कथा-कहानियों की संख्या सर्वाधिक है । इनकी आत्मा धार्मिक ताने-बाने से गुंथी हुई होती है । ये कहानियां सुखांत होती हैं । अधिकतर कहानियों की समाप्ति संयम मार्ग धारण कर दीक्षित होने में होती है । ये कहानियां गद्य, पद्य अथवा दोनों का संयुक्त रूप लिये होती हैं । इनमें शिक्षात्मक अंश भी खासा रहता है । जीवन निर्माण की दिशा में ये कहानियां बड़ी प्रेरक, शिक्षात्मक तथा बड़ी उपयोगी सिद्ध हुई हैं । गांवों में जहां मनोरंजन के कोई साधन नहीं होते वहां इन कहानियों का वाचन - कथन कइयों को सद्माचरण की ओर प्रेरित करता है । ढालों में भग, भरत, मेघकुमार, पवनकुमार, रावण, विजयासेठ, जम्बूस्वामी की ढालों का विशेष प्रचलन है । ये ढालें गद्य-पद्य मिश्रित सुन्दर संवाद लिए होती हैं । यहां रावण की ढाल का सीता मन्दोधर संवाद द्रष्टव्य है- सीता जी सूं मिलवा मंदोधर राणी आई, संग में सहेल्यां लाई । राजा की राणी आई ||टेर || मंदों -- किणरे घर थं जाई उपणी किणरे घर परणाई ? ओ सीता किण रे घर परणाई ? मंदों- कई थारो प्रीतम हुवो बावलो मोरे पिया संग चली आई, अरे सीता राणा की राणी आई ॥ सीता - जनकराय घर जाय उपणी दसरथ घर परणाई, प्रो मंदोधर दसरथ घर परणाई । नहीं म्हारो प्रीतम हुवो बावलो, सरन सोना री लंका देखण आई, प्रो मंदोधर राजा की राणी आई ॥ त तो कहीजै सत की सीता यां कैसे चली आई, कई थ प्रीतम वन में छोड़ी मोरे पिया संग चली आई, ओ सीता राजा की राणी आई ॥ सीता--म्हें तो कही जूं सत की सीता ऐसे ही चली आई, नहीं म्हारा प्रीतम वन में छोड़ी थने रंडापो देवण श्राई, यो मंदोधर राजा की राणी ग्राई ॥ इन ढालों की रागें बड़ी मीठी तथा मोहक होती हैं । इनके आधार पर नृत्य नाटक भी मंत्रित किए जा सकते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि यह साहित्य न केवल जनों के लिए अपितु आम लोगों के लिए भी उतना ही उपयोगी और आत्मशुद्धि मूलक है। जैन संप्रदाय और जैन वर्ग विशेष साहित्य होते हुए भी यह आम जनजीवन के सुख और कल्याण का वाहक है । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन ग्रन्थ संग्रहालय --डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल राजस्थान रजपूती आन बान का प्रदेश है। यह वीर भूमि है जहां देश पर अथवा मातृभूमि पर बलिदान होने में यहां के निवासियों ने सदा ही गौरव माना है। मुस्लिम शासन में म सलमानों से जितना यहां के वीरों ने लोहा लिया था, उतना किसी प्रदेश वाले नहीं ले सके। यहां की धरती महाराणा प्रताप की गौरव गाथा से अलंकृत है। महाराजा हम्मीर के शौर्य, पराक्रम एवं बहादुरी से कृतकृत्य है और यहां के असंख्य वीर योद्धाओं के खून से इस प्रदेश का चप्पा-चप्पा अभिसिक्त है लेकिन वीर भूमि के साथ-साथ राजस्थान कर्मभूमि भी रहा है। एक ओर यहां के वीर पुत्रों ने यदि मातृभूमि के लिए अपने जीवन को पाहुति दी तो दूसरी ओर यहां के वणिक् समाज ने देश को साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संपत्ति को भी सुरक्षित ही नहीं रखा किन्तु उसके प्रचार प्रसार में भी अपना अपूर्व योगदान दिया और इस दृष्टि से भी राजस्थान का महत्व कम नहीं है। जैसे चित्तौड़, रणथम्भौर, अजमेर जैसे दुर्गों के दर्शन करते ही हमारी भुजाएं फड़कने लगती हैं उसी तरह जैसलमेर, नागौर, अजमेर एवं बीकानेर, जयपुर के ग्रन्थ संग्रहालयों में सुरक्षित साहित्यिक धरोहर के दर्शन करके हम अपने भाग्य की सराहना करने लगते हैं। आज अकेले राजस्थान में जितनी हस्तलिखित पाण्डुलिपियां मिलती हैं उतनी देश के किसी अन्य प्रदेश में नहीं मिलती। यह सब राजस्थानवासियों के युगों की साधना का फल है। राजस्थान में जैन एवं जैनेतर शास्त्र संग्रहालयों में पांच लाख से भी अधिक पाण्डुलिपियां है। जिनके केन्द्र है : जैसलमेर, जयपुर, बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर, अजमेर, भरतपुर, बून्दी के ग्रन्थागार जिनमें पाण्डुलिपियों के रूप में साक्षात् सरस्वती एवं जिनवाणी के दर्शन होते हैं। अनुप संस्कृत लायब्ररी बीकानेर, राजस्थान पुरातत्व मन्दिर जोधपुर, जयपुर महाराजा का पोथीखाना एवं उदयपुरादि के महाराजाओं के निजी संग्रह में 11-2 लाख से कम ग्रन्थ नहीं होंगे, जिनमें सारी भारतीय विद्या छिपी पड़ी है और वह हमारे प्राचार्यों के असोम ज्ञान का एक जीता जागता उदाहरण है। राजस्थान में जैन ग्रन्थ संग्रहालयों की जितनी अधिक संख्या है उतनी गुजरात को छोड़ कर देश के किसी अन्य प्रदेश में नहीं है। लेखक द्वारा अब तक किए गए सर्वे के अनुसार राजस्थान में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही संप्रदायों के संग्रहालयों में ढाई-तीन लाख पाण्डुलिपियों से कम संख्या नहीं होगी। इनमें से 1-1 लाख पाण्डुलिपियां दिगम्बर भण्डारों में एवं इतनी ही पाण्डुलिपियां श्वेताम्बर भण्डारों में मिलेगी। ये पाण्डुलिपियां मुख्यतः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा के ग्रन्थों की हैं और 10 वीं शताब्दी से लेकर 20 वीं शताब्दी तक की हैं । जैनाचार्यों, साधुओं, भट्टारकों एवं पंडितों ने अपने ग्रन्थ संग्रहालयों को साहित्य संग्रह की दृष्टि से सर्वाधिक उपयोगी बनाने का सदैव प्रयास किया है। जहां कहीं से भी कोई हस्तलिखित ग्रन्थ मिल गया चाहे वह फिर किसी धर्म का हो अथवा विषय का उसे भण्डार में सुरक्षित रूप से विराजमान कर दिया गया या फिर उसकी प्रतिलिपि करवा कर संग्रहीत करने का प्रयास किया गया। इसलिए राजस्थान के ये जैन ग्रन्थ भण्डार साहित्यिक उपयोगिता को दष्टि से देश के महत्वपूर्ण संग्रहालय है। जैनों ने इन भण्डारों की रक्षा करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी और मगलों एवं शवों के अाक्रमण के समय में अपने जीवन की पाहुति देकर भी इन भण्डारों की सुरक्षा की थी। यही कारण है राज्याश्रय विहीन होने पर भी ये अब तक सुरक्षित रह सके और देश की महत्वपूर्ण सामग्री नष्ट होने से बचायी जा सकी । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 श्री महावीर क्षेत्र के साहित्य शोध विभाग की ओर से राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूचियों के पांच भाग प्रकाशित हो चुके हैं । जिनमें करीब पचास हजार प्रतियों का परिचय दिया हुआ है । इन ग्रन्थ सूचियों से सैकड़ों अज्ञात ग्रन्थों का परिचय विद्वानों को प्रथम बार प्राप्त हुआ है । स्व. डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने ग्रन्थ सूची चतुर्थ भाग की भूमिका में लिखा है कि " -- विकास की उन पिछली शतियों में हिन्दी साहित्य के कितने विविध साहित्य रूप थे, यह भी अनुसंधान के लिए महत्वपूर्ण विषय है । इस सूची को देखते हुए उनमें से अनेक नाम सामने आते हैं जैसे, स्तोत्र, पाठ, संग्रह, कथा, रासो, रास, पूजा, मंगल, जयमाल, प्रश्नोत्तरी, मन्त्र, अष्टक, सार, समुच्चय, वर्णन, सुभाषित, चौपई, शुभमालिका, निशाणी, जकड़ी, व्याहलो, बधावा, विनती, पत्नी, भारती, बोल, चरचा, विचार, बात, गीत, लीला, चरित्र, छन्द, छहप्पय, भावना, विनोद, कल्प, नाटक, प्रशस्ति, धमाल, चोढालिया, चौमासिया, वारामासा, बटोई, वेलि, हिंडोलणा, चुनड़ी, सज्झाय, बाराखड़ी, भक्ति, वन्दना, पच्चीसी, बत्तीसी, पचासा, बावनी, सतसई, सामायिक, सहस्त्रनाम, नामावली, गुरुवावली, स्तवन, सम्बोधन, मोडल आदि । इन विविध साहित्य रूपों में से किसका कब आरम्भ हुआ और किस प्रकार विकास और विस्तार हुआ यह शोध के लिए रोचक विषय है । उसकी बहुमूल्य सामग्री इन भण्डारों में सुरक्षित है ।" इसी तरह जयपुर के प्राचार्य विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, लाल भवन की ओर से ग्रन्थ सूची का एक भाग डा. नरेन्द्र भानावत के सम्पादन में अभी कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुका है। इन ग्रन्थ सूचियों ने देश के प्राच्यविद्या पर कार्य करने वाले विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया है और देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अब कितने ही रिसर्च विद्यार्थियों द्वारा शोध कार्य किया जा रहा है जो एक शुभ सूचना है और जिससे इन भण्डारों में सैकड़ों वर्षों से संग्रहीत ग्रन्थों का उपयोग होना प्रारम्भ हो गया है । राजस्थान के सभी शास्त्र भण्डारों का परिचय देना सम्भव नहीं है इसलिए प्रदेश के कुछ प्रमुख शास्त्र भण्डारों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है । " (1) बृहद ज्ञान भण्डार, जैसलमेर : विश्व के ग्रन्थ भण्डारों में जैसलमेर के इस ज्ञान भण्डार को सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप्त है । प्राचार्य जिनभद्रसूरि ने इसे संवत् 1497 (1440 ए. डी. ) में संभवनाथ मन्दिर में स्थापित किया था । यह ज्ञान भण्डार कितने ही आचार्यों एवं विद्वानों की साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र रहा। इनमें कमलसंयम उपाध्याय (1487 ए. डी. ) एवं समयसुन्दर ( 17 वीं शताब्दि ) के नाम उल्लेखनीय हैं । कर्नल जेम्सटाड, डा. व्हूलर, डा. जेकोबी जैसे पाश्चात्य विद्वानों ने तथा मुनि हंसविजयजी, सी. डी. दलाल, मुनि पुण्यविजय जैसे भारतीय विद्वानों ने इस शास्त्र भण्डार का अवलोकन किया था । श्री सी. डी. दलाल, पं. लालचन्द्र, म. गांधी एवं मुनि पुण्यविजयजी ने तो अपने इस भण्डार की ग्रन्थ सूची तैयार की जो प्रकाशित भी की जा चुकी है। इस भण्डार में ताड़ - पत्रों पर लिखे हुए ग्रन्थों की संख्या 804 है जिनमें सर्वतोलेख वाली प्रौधनियुक्ति वृत्ति की पाण्डुलिपि सबसे प्राचीन है जो सन् 1060 की लिखी हुई है। वैसे विशेषावश्यक भाष्य की प्रति 10 वीं शताब्दी की है । • इसके अतिरिक्त 12 वीं और 13 वीं शताब्दी में लिखे हुए ग्रन्थों की संख्या काफी अच्छी है । जैनाचार्यों द्वारा निबद्ध ग्रन्थों के अतिरिक्त यहां जैनेतर विद्वानों की कृतियों की भी प्राचीनतम पाण्डुलिपियां संग्रहीत । ऐसी पाण्डुलिपियों में कुवलयमाला, काव्य मीमांसा ( राज शेखर) काव्यादर्श ( सोमेश्वर भट्ट) काव्य प्रकाश (मम्मट) एवं श्री हर्ष का नैषधचरित के नाम उल्लेखनीय हैं । इसी भण्डार में विमलसूरि के पउमचरिय ( 1141 ), Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 375 हितोपदेशामृत ( 125 3) वसुदेवहिण्डो, शान्तिनाथ चरित (देवचन्द्रसूरि), नैषधटीका (विद्याधर) मुद्राराक्षस नाटक (विशाखदत्त), की कुछ ऐसी महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियां हैं जो अन्यत्र नहीं मिलती। उक्त भण्डार के अतिरिक्त जैसलमेर में (पंचानों शास्त्र भण्डार, बडा उपाधय ज्ञान भण्डार), तपागच्छीय ज्ञान भण्डार, लोकागच्छीय ज्ञान भण्डार, थारूसाह ज्ञान भण्डार और हैं जिनमें भी हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का अच्छा संग्रह है । (2) भट्टारकीय ग्रन्थ भण्डार, नागौर (राजस्थान) : नागौर राजस्थान के प्राचीन नगरों में से है । प्राचीन लेखों में इसका दूसरा नाम नागपुर एवं अहिपुर भी मिलता है। नागपुर (नागौर) का सर्व प्रथम उल्लेख जयसिंह सूरि की धर्मोपदेशमाला (9 वीं शताब्दी) में मिलता है। 11 वीं शताब्दी में जिनवल्लभ सूरि एवं जिनदत्तसरि ने यहां विहार किया था। 15 वीं शताब्दी में होने वाले पं. मेधावी ने अपने धर्मोपदेश श्रावकाचार ( 1484) में इसे सपादलक्ष प्रदेश का सर्वाधिक सुन्दर नगर माना है। सन् 1524 में भट्टारक रत्नकीति ने यहां भद्रारकीय गादी के साथ ही एक वहद ज्ञान भण्डार की स्थापना की थी। शताब्दियों से नागौर जैनों के दोनों ही संप्रदायों का प्रधान केन्द्र बना रहा है । शास्त्र भण्डार एवं भट्टारक गादी की स्थापना के पश्चात् यहां कितने ही भट्टारक हुए जिनमें भुवनकीर्ति (सन् 1529) धर्मकीर्ति (सन् 1533) विशालकीर्ति (सन् 1544) लक्ष्मीचन्द्र (सन् 1554) यशःकोति (सन् 1615) भानुकीर्ति (सन् 1633) के नाम उल्लेखनीय हैं। यहां के अन्तिम भट्टारक भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति थे जिनका कुछ ही वर्ष पहिले स्वर्गवास हुअा था । हस्तलिखित ग्रन्थों के संग्रह की दृष्टि से यह भट्टारकीय शास्त्र भण्डार अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यहां करीब 14 हजार पाण्डुलिपियों का संग्रह है जिनमें एक हजार से अधिक गटके हैं। जिनमें एक एक में ही बीसों पच्चीसों लघु ग्रन्थों का संग्रह होता है। भण्डार में प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा में निबद्ध कृतियों का उत्तम संग्रह है, जो सभी विषयों से सम्बन्धित है। अधिकांश पाण्डुलिपियां 14 वीं शताब्दी से लेकर 19 वीं शताब्दी तक की है जिनसे पता चलता है कि गत 100 वर्षों में यहां बहुत कम संख्या में ग्रन्थ लिखे गये। प्राकृत भाषा के ग्रन्थों में प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार की यहां सन 1303 की पाण्डुलिपि हैं इसी तरह मूलाचार की सन् 1338 की पाण्डुलिपि है। इसी तरह अपभ्रंश का यहां विशाल साहित्य संग्रहात है। कुछ अन्यत्र अनुपलब्ध ग्रन्थों में वरांग चरिउ (तेजपाल) वसुधीर चरिउ (श्री भूषण) सम्यकत्व कौमुदी (हरिसिंह) णेमिणाह चरिउ (दामोदर) के नाम उल्लेखनीय हैं । संस्कृत एवं हिन्दी भाषा की भी इसी तरह सैंकड़ों पाण्डुलिपियां यहां संग्रहीत हैं जिनका अन्यत्र मिलना दुर्लभ सा है। ऐसी रचनाओं में भाउकवि का नेमिनाथरास (16 वीं शताब्दी) जगरूप कवि का जगरूपविलास, कल्ह की कृपणपच्चीसी, मण्डलाचार्य श्री भ षण का सरस्वती लक्ष्मी संवाद, सुखदेव का क्रियाकोश भाषा, मानसागर की विक्रमसेन चौपाई के नाम उल्लेखनीय हैं। 17 वीं एवं 18 वीं शताब्दी में निबद्ध लोकप्रिय हिन्दी काव्यों का यहां अच्छा संग्रह है । जयपुर नगर के शास्त्र भण्डार : जयपुर नगर यद्यपि प्राचीनता की दृष्टि से 250 वर्ष से ही कम प्राचीन है लेकिन उत्तरी भारत में देहली के अतिरिक्त जयपुर ही दिगम्बर जैन समाज का प्रमुख केन्द्र रहा है और Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 इसीलिए 200 वर्ष पूर्व भाई रायमल्ल ने इसे जैनपुरी लिखा था । यह नगर सन् 1727 में महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा बसाया गया था । इससे पूर्व आमेर यहां की राजधानी थी । महाराजा साहित्य एवं कला के अत्यधिक प्रेमी थे । उन्होंने एक राज्यकीय पोथीखाना की स्थापना की। जयपुर नगर बसने के साथ ही यहां सांगानेर, आमेर एवं अन्य स्थानों में हजारों की संख्या में जैन बन्धु आकर बस गए थे । नगर निर्माण के साथ ही यहां बड़े-बड़े मन्दिरों का निर्माण हुआ और उनमें शास्त्रों को विराजमान किया गया । यह नगर 150 वर्षों तक विद्वानों का सारे देश में प्रमुख केन्द्र के रूप में माना जाता है । यहां एक के पीछे एक विद्वान् हो गए । आज कल जयपुर नगर में करीब 170 मन्दिर व चैत्यालय हैं। यद्यपि सभी मन्दिरों में स्वाध्याय निर्मित हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह मिलता है लेकिन फिर भी 25 मन्दिरों में तो अत्यधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का संग्रह है । इसमें महावीर भवन स्थित ग्रामेर शास्त्र भण्डार, तेरह पन्थी बडा मन्दिर का शास्त्र भण्डार, पाटोदी के मन्दिर का शास्त्र भण्डार, पाण्डे लूणकरण जी का मन्दिर का शास्त्र भण्डार, बधीचन्द जी के मन्दिर का शास्त्र भण्डार, ठोलियों के मन्दिर का शास्त्र भण्डार, चन्द्रप्रभ सरस्वती भण्डार, लाल भवन स्थित विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, खरतरगच्छ ज्ञान भंडार, संघीजी के मन्दिर का शास्त्र भण्डार, लश्कर के मन्दिर का शास्त्र भण्डार आदि के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं । ग्रामेर का शास्त्र भण्डार, पहिले ग्रामेर नगर के सांवला के मन्दिर में संग्रहीत था लेकिन गत 25 वर्षों से उसे महावीर भवन जयपुर में स्थानान्तरित कर दिया गया इसमें तीन हजार से भी अधिक पाण्डुलिपियां हैं । अपभ्रंश के ग्रन्थों के संग्रह की दृष्टि से ग्रामेर शास्त्र भण्डार अत्यधिक महत्वपूर्ण भण्डार है । पाटोदी के मन्दिर के शास्त्र भण्डारों में ग्रन्थों की संख्या 2257 एवं 308 गुटके हैं। इस भण्डार में वैदिक साहित्य का भी अच्छा संग्रह है। संवत 1354 में निबद्ध हिन्दी को प्रादिकालीन कृति जिणदत्तचरित की एक मात्र पाण्डुलिपि इसी भण्डार में संग्रहीत है । जयपुर के तेरह पंथी बडा मन्दिर में भी पाण्डुलिपियों का महत्वपूर्ण संग्रह मिलता है । जिनकी संख्या तीन हजार से भी अधिक है। यहां पर पंचास्तिकाय की पाण्डुलिपि सबसे प्राचीन है जो सन् 1272 की लिखी हुई है । यह देहली में बादशाह गयासुद्दीन बलवन के शासन काल में लिखी गयी थी । इसी शास्त्र भण्डार में आदि पुराण की दो सचरित्र पाण्डुलिपियां है । संवत् 1597 (सन् 1540) की है जो कला को दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस केली पाण्डुलिपि में सकड़ों चित्र हैं । बडे मन्दिर के शास्त्र भण्डार में प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी सभी भाषाओं की पाण्डुलिपि का अच्छा संग्रह है । गोरखनाथ, कबीर, बिहारी, केशव, वृन्द जैसे जैनेतर कवियों की हिन्दी रचनाओं का अपभ्रंश भाषा के कवि अब्दुल रहमान के सन्देश रासक एवं महाकवि भारवि के 'किरातार्जुनीय' पर प्रकाश-वर्ष की संस्कृत टीका की पाण्डुलिपियों का इस भण्डार में उल्लेखनीय संग्रह है । पांडया लूणकरणजी का शास्त्र भण्डार 18 वीं शताब्दि के अन्त में पंडित लूणकरण जी द्वारा स्थापित किया गया था । इस भण्डार में उन्हीं के द्वारा लिखी हुई यशोधरचरित की एक पाण्डुलिपि है जिसका लेखन काल संवत् 1788 है। पांडेजी ज्योतिष, आयुर्वेद, मंत्राशास्त्र के अच्छे विद्वान थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन स्वाध्याय एवं ज्ञानाराधना में समर्पित कर दिया था। इस भण्डार में 807 हस्तलिखित पत्राकार ग्रन्थ एवं 225 गुटके हैं जिनमें महत्वपूर्ण साहित्य संकलित है । संवत् 1407 में लिपिबद्ध प्रवचन सार की यहां प्राचीनतम पाण्डुलिपि है । इसी तरह भट्टारक सकलकीर्ति के यशोधर चरित की जो सचित्र पाण्डुलिपि है वह कला की दृष्टि से अत्यधिक महत्व - पूर्ण है । प्रारम्भ में इसमें पांडे लूणकरण जी का भी चित्र है । भण्डार का पूरा संग्रह अत्यधिक महत्वपूर्ण है। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 377 बाबा दुलीचन्द का शास्त्र भण्डार भी एक ही व्यक्ति द्वारा स्थापित एवं संकलित शास्त्र भण्डार है, जिसकी स्थापना सन् 1854 में बाबा दुलीचन्द ने की थी । वे पूना जिले के निवासी थे लेकिन बाद में जयपुर ग्राकर रहने लगे थे । भण्डार में 850 हस्तलिखित प्रतियों का संग्रह | कुछ पाण्डुलिपियां स्वयं बाबा दुलीचन्द ने लिखी थीं तथा शेष ग्रन्थ उन्होंने विभिन्न स्थानों से संग्रहीत किये थे । धीचन्द जी के मन्दिर का शास्त्र भण्डार पाण्डुलिपियों की संख्या की दृष्टि में ही नहीं " किन्तु उनकी प्राचीनता एवं प्रज्ञात ग्रन्थों की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है । इसमें 1278 प्रतियों का संग्रह है । जिनमें महाकवि स्वयम्भू रचित रिट्ठणोमि चरिउ, सधारु कवि कृत प्रद्युम्न चरित के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं । भण्डार में सकलकीर्ति छोहल, ठक्कुरसी, जिनदास, पूनों एवं बनारसी दास की हिन्दी रचनाओं का अच्छा संग्रह है । ठोलियों के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में भी 628 पाण्डुलिपियां एवं 125 गुटके हैं । इस भण्डार में हिन्दी कृतियों का अच्छा संकलन है जिनमें भट्टारक शुभचन्द ( 16वीं शताब्दी ), हेमराज ( 7वीं शताब्दी), रघुनाथ ( 17 वीं शताब्दी ), ब्रह्म जिनदास ( 15वीं शताब्दी), ब्रह्म ज्ञान सागर ( 17वीं शताब्दी), पद्यनाभ ( 16 वीं शताब्दी) की रचनायें विशेषतः उल्लेखनीय हैं। उक्त शास्त्र भण्डारों के अतिरिक्त नगर में और भी शास्त्र भण्डार हैं जिनमें पाण्डुलिपियों का निम्न प्रकार संग्रह है : भण्डार का नाम पाण्डुलिपियों की संख्या (1) श्री चन्द्रप्रभ सरस्वती भण्डार ( 2 ) जोबनेर के मन्दिर का शास्त्र भण्डार (3) पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन सरस्वती भवन ( 4 ) गोधों के मन्दिर का शास्त्र भण्डार (5) संधीजी के मन्दिर का शास्त्र भण्डार (6) दि. जैन मन्दिर लश्कर के मन्दिर का शास्त्र भण्डार ( 7 ) नया मन्दिर का शास्त्र भण्डार ( 8 ) चौधरियों के मन्दिर का शास्त्र भण्डार ( 9 ) काला छाबडों के मन्दिर का शास्त्र भण्डार ( 10 ) मेघराज जी के मन्दिर का शास्त्र भण्डार ( 11 ) यशोदानन्द जी के मन्दिर का शास्त्र भण्डार दिगम्बर जैन मन्दिरों एवं महावीर भवन के संग्रह के अतिरिक्त यहां लाल भवन में भी हस्तलिखित ग्रन्थों का महत्वपूर्ण संग्रह है । आचार्य श्री विनय चन्द्र ज्ञान भण्डार की ग्रन्थ सुची 830 340 558 718 979 828 150 108 410 249 398 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 भाग-1, कुछ समय पूर्व प्रकाशित हुई है जिनमें 3710 हस्तलिखित ग्रन्थों प्रतियों का परिचय दिया गया है। अभी भंडार में विशाल संग्रह है जिसके सूचीकरण का कार्य हो रहा है और इस प्रकार की और भी दस ग्रंथ सूचियां प्रकाशित की जा सकती हैं। उक्त भण्डार के अतिरिक्त और भी खरतरगछ ज्ञान भण्डारादि, श्वेताम्बर जैन मन्दिरों, उपासरों में ग्रन्थों का संग्रह है। अभी कछ समय पूर्व स्व. मुनि श्री कान्तिसागर जी का संग्रह यहां आया है जिसका अभी तक पूरा सूचीकरण नहीं हो सका है। भट्टारकीय शास्त्र भण्डार, अजमेर : अजमेर राजस्थान के प्राचीननतम नगरों में से है। इसका पूराना नाम अजय-मेर दर्ग था। इसको स्थापना सादलक्ष के राजा अजयपाल चौहान ने छठी शताब्दी में की थी। जैसलमेर के शास्त्र भण्डार में एक संवत् 1212 को प्रशस्ति है जिसमें इस नगर को अजयमेरु दूर्ग लिखा हया है। यह नगर भी प्रारम्भ से ही देश को राजनैतिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र रहा। जैन धर्म एवं साहित्य तथा संस्कृति के प्रचार प्रसार में इस नगर का महत्वपूर्ण योगदान रहा। एक पट्टावली के अनुसार सर्वप्रथम संवत् 1168 में भटटारक विशाल कीति ने इस नगर में भट्टारक गादी की स्थापना की थी। इससे पता चलता है कि इसके पूर्व यहां जैन साहित्य एवं संस्कृति को पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हो चुको थी। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में इस नगर में लिपिबद्ध की गयी अनेकों पाण्डुलिपियां उपलव्य होती है। यहां का भट्टारकीय शास्त्र भण्डार राजस्थान के प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण शास्त्र भण्डारों में से है। बड़े धड़े के मन्दिर में स्थापित होने के कारण इसे दिगम्बर जैन मन्दिर बड़ा धड़ा का शास्त्र भण्डार भी कहा जाता है। यह मन्दिर एक दीर्घकाल तक भट्टारकों का केन्द्र रहा। संवत् 1770(1713) में यहां पुनः विधिवत भट्टारक गादी को स्थापना की गई, जिसका वर्णन कविवर बखतराम साह ने अपने बुद्धिविलास में किया है । भट्टारक विजय-कीति तक यह भण्डार साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बना रहा क्योंकि भट्टारक विजय-कीर्ति स्वयं विद्वान ही नही कितने ही ग्रन्थों के रचयिता भी थे। स्वयं लेखक ने दिसम्बर 1958 में 2015 ग्रन्थों का सूची-पत्र बनाया तथा उन्हें पूर्ण व्यवस्थित करके रखा था। भण्डार में महापण्डित पाशाधर (13 वीं शताब्दी) के अध्यात्म-रहस्य को एक मात्र पाण्डलिपि संग्रहीत है इसे खोज निकालने का श्रेय स्व. श्री जगलकिशोर जी मखतार को है। इसी तरह जीतसार समुच्चय (वृषभनन्दि), समाधिमरण महोत्सव दीपिका (भट्टारक मकलकीर्ति), चित्र बन्धन स्तोत्र (मेधावो) जैसी संस्कृत कृतियों के नाम उल्लेखनीय हैं। भण्डार में प्राकृत भाषा की प्रसिद्ध कृति गोमट्टसार पर एक प्राकृत भाषा की टीका उपलब्ध हुई है। तेजपाल का पासणाह चरित (अपभ्रंश) की पाण्डुलिपि भी इसी भण्डार में सुरक्षित है। इसी तरह कुछ अन्य महत्वपूर्ण एवं प्राचीन पाण्ड लिपियों में प्रभाचन्द्र की प्रात्मानशासन टोका (संवत् 1580), मल्लिषेण का नागकुमार चरित (संवत 16751वीरलान्द का चन्द्रप्रभकाव्य (संवत् 1678), सकलकोति का प्रश्नोत्तर श्रावकाचार (संवत् 1553), अमितगति की धर्मपरीक्षा (संवत् 1537) आदि भी उल्लेखनीय प्रतियां है। भरतपुर प्रदेश (राजस्थान) के शास्त्र भण्डारः भरतपर प्रदेश ही पहिले भरतपुर राज्य कहलाता था। इस प्रदेश की भमि व्रज भमि कालाती है तथा डीग, कामां ग्रादि नगर राजस्थान में होने पर भी त्रज प्रदेश में गिने जाते हैं। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची पंचम भाग में-इस भण्डार की विस्तृत सूची प्रकाशित हो चकी है। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379 यह प्रदेश प्राचीन काल मे ही जैन साहित्य एवं संस्कृति का केन्द्र रहा। 18वीं शताब्दी से यहां कितने हो साहित्यकार हुए जिन्होंने हिन्दी में काव्य रचना करके अपने पांडित्य का परिचय दिया । इस प्रदेश में मुख्य रूप से भरतपुर, डीग, कामां, कुम्हेर, वैर, बयाना आदि स्थानों में शास्त्र भण्डार मिलते हैं। पंचायती मन्दिर भरतपुर में सबसे बड़ा संग्रह है. जिनकी संख्या 800 से अधिक है।। इसमें वृहद तपागच्छ पट्टावली को प्रति सबसे प्राचीन है जो संवत् 1490 (सन् 1433) की लिखी हुई है। इसी तरह अपभ्रन्श की कृति सप्तव्यसन कथा महत्वपूर्ण कृति है जो इस भण्डार में संग्रहीत है। यह माणिकचन्द्र को रचना है तथा संवत 16 34 इसका रचनाकाल हैं। प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी ग्रन्थों की भी यहां अच्छी संख्या है । भक्तामर स्तोत्र की एक सचित्र प्रति है जिसमे 51 चित्र है तथा जो अत्यधिक कलापूर्ण है। यह पाण्डुलिपि सन् 1769 की है। भरतपुर के ही एक अन्य मन्दिर में हस्तलिखित ग्रन्थों का एक छोटा सा संग्रह और है। डोग नगर के तीन मन्दिरों में ग्रन्थों का संग्रह है, इससे पता चलता है कि प्राचीन काल में ग्रन्थों को लिखने-लिखाने के प्रति जनता की काफी अच्छी रुचि थी । सेवाराम पाटनी जो हिन्दी के अच्छे कवि माने जाते हैं, इसी नगर के थे। उनके द्वारा रचित मल्लिनाथ चरित (सन 1793) की मूल पाण्डलिपिन्यी डीग के पंचायती मन्दिर में संग्रह त है। रामचन्द्ररि द्वारा विरचित विक्रमचरित की एक महत्वपूर्ण प्रति भी यहां उपलब्ध होती है। जिन गण विलास (रचना संवत 1822) पुरानी डीग के मन्दिर में संवत् 182 3 को पाण्डुलिपि मिलती है। भरतपुर से कामां कोई 40 मील दूरी पर स्थित है जो राजस्थान के प्राचीनतम नगरों में गिना जाता है। इस नगर का खण्डेलवाल दिगम्बर जैन मन्दिर का शास्त्र भण्डार प्राचीन एवं महत्वपूर्ण पाण्ड लिपियों की दृष्टि से सारे प्रदेश के भण्डारों में उल्लेखनीय है। दौलतराम के पुत्र जोधराज कासलीवाल यहीं के रहने वाले थे। प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय पर प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान हेमराज द्वारा संवत् 1719 व 1737 में इसी नगर में पाण्डुलिपियां लिखी गई थीं। इसी तरह देवप्रभसूरि का पांडव चरित्र (संवत् 1454),प्रभाचन्द्र कृत प्रात्मानशासन की टीका (संवत 1548) का शुद्ध पाण्डुलिपियों का संग्रह भी इसी भण्डार में मिलता है। यहां भट्टारक शुभचन्द्र कृत समयसार की टीका की एक पाण्डुलिपि है जो अन्यत्र नहीं मिलती। इस शास्त्र भण्डार में 578 प्रतियों का संग्रह है। नगर के दूसरे अग्रवाल मन्दिर में 105 हस्तलिखित प्रतियों का संग्रह मिलता है। बयाना भी राजस्थान का प्राचीन नगर है एवं भरतपुर जिले के प्रमुख नगरों में से है। दो दशक पूर्व ही वहां गप्त काल के सिक्के मिले थे जिनके आधार पर इस नगर की प्राचीनता सिद्ध होती है। यहां पंचायती मन्दिर एवं तेरहपंथी मन्दिर दोनों में ही शास्त्र भण्डार है। दोनों ही मन्दिरों में 150-150 से भी अधिक पाण्डुलिपियों का संग्रह है। वैर, जो बयाना से 15 मील पूर्व की पार है वहां भी एक दिगम्बर जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में 120 हस्तलिखित प्रतियों का संग्रह मिलता है। श्री महावीरजी राजस्थान का सर्वाधिक लोकप्रिय दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र है। गत 300 वर्षों से यह क्षेत्र जैन साहित्य संस्कृति का केन्द्र रहा है और यहां पर दिगम्बर भट्टारकों की गादी भी है । इस गादी के भट्टारक चन्द्रकीर्ति का अभी कुछ ही वर्ष पहिले स्वर्गवास हुआ था। यहां के शास्त्र भण्डार में 400 से अधिक प्रतियां हैं जिनमें प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत एवं हिन्दी ग्रन्थों का अच्छा संग्रह है। इन ग्रन्थों की सूची राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची (प्रथम भाग) में प्रकाशित हो चुकी है। प्राचीन पाण्डुलिपियों का यहां अच्छा संग्रह है जिनके आधार पर इतिहास के कितने ही नवीन तथ्यों की जानकारी मिलती है। 1. विस्तृत सूची राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची पंचम भाग में देखिये। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 बीकानेर के शास्त्र भण्डार : बीकानेर नगर की स्थापना सन 1488 में बीकाजी द्वारा की गई थी। इस नगर का प्रारम्भ से ही राजनैतिक महत्व रहा है। साहित्य की दृष्टि से भी बीकानेर की लोक-प्रियता रही है। अकेले बीकानेर शहर में 1 लाख से भी अधिक ग्रन्थों का संग्रह मिलता है। इनमें से 15 हजार पाण्डुलिपियां तो अनूप संस्कृत लायब्रेरी में हैं और शेष 85 हजार पाण्डलिपियां नगर के जैन शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं। हस्तलिखित ग्रन्थों का इतना भारी भण्डार जयपुर के अतिरिक्त राजस्थान के अन्यत्र किसी नगर में नहीं मिलता। इन भण्डारों में प्राचीन तथा स्वर्ण एवं रजत की स्याही द्वारा लिखे हए ग्रन्थ भी अच्छी संख्या में मिलते हैं। बीकानेर नगर के अतिरिक्त चूरू एवं सरदारशहर में भी शास्त्र भण्डार हैं। बीकानेर में सबसे बड़ा संग्रह अभय जैन ग्रन्थालय, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान एवं बड़े उपासरे में स्थित वृहत ज्ञान भण्डार में है। इनमें दानसागर भण्डार, महिमा-भक्ति भण्डार, वर्द्धमान भण्डार, अभयसिंह भण्डार, जिनहर्षसूरि भण्डार, भुवन भक्ति भण्डार, रामचन्द्र भण्डार और महरचन्द्र भण्डार के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त श्री पूज्य जी का भण्डार, जैन लक्ष्मी मोहन शाला ज्ञान भण्डार, मोतीचन्द जी खजाञ्ची संग्रह, क्षमाकल्याणजी का ज्ञान भण्डार, छती बाई के उपासरे का भण्डार आदि के नाम भी उल्लेखनीय है । इनमें सबसे प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण अभय जैन ग्रन्थालय है जिसमें अकेले में करीब 60 हजार प्रतियां संग्रहीत है। यह संग्रह सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । इस भण्डार की स्थापना करीब 40 वर्ष पूर्व हुई थी। यहां कागज के अतिरिक्त ताडपत्र पर भी ग्रन्थ मिलते हैं। इतिहास से सम्बन्धित ग्रन्थों का भण्डार में उत्तम संग्रह हैं। जैनाचार्यों एवं यतियों द्वारा लिखे हुए सैकड़ों पत्र भी यहां संग्रहीत हैं। भण्डार में पुराने चित्र, सचित्र विज्ञप्तियां, कपड़े के पट्ट, सिक्कों एवं दावात पर लिखे हुए पत्र संग्रहीत हैं। यह भण्डार पूर्णतः व्यवस्थित है तथा सभी ग्रन्थ वर्णक्रमानुसार रखे हुए हैं। इस ग्रन्था लय के प्रबन्धक एवं स्वामी श्री आरचन्द्र नाहटा है जो स्वयं भी महान साहित्य सेवी हैं। उक्त संग्रहों के अतिरिक्त सेठिया पुस्तकालय, गोविन्द पुस्तकालय, पायचन्द गच्छ उपासरा का संग्रह भी उल्लेखनीय है। इन सभी में पाण्डुलिपियों का उत्तम संग्रह मिलता है। नगर में कुछ और भी हस्तलिखित भण्डार हैं । राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान को श्री पूज्य जी का, उ. जयचन्दजी का, उ. समीरमलजी का, मोतीचन्दजी खजांची ग्रादि का 22000प्रतियों का संग्रह भेंट स्वरूप दिया गया है। वास्तव में इन भण्डारों की दष्टि से बीकानेर का अत्यधिक महत्व है और इसे हम पाण्डुलिपियों का नगर ही कह सकते हैं। चरू में यति ऋद्धिकरणजी का शास्त्र भण्डार है जिसमें करीब 3800 पाण्डुलिपियों का संग्रह है। यहां पृथ्वीराज रास, काव्य कौस्तुभ (वैद्य भूषण), अलंकार शेखर (केशव मिश्र) जैसी महत्वपूर्ण प्रतियों का संग्रह मिलता है । इसी तरह सरदारशहर की तेरापन्थी सभा में करीब 1500 प्रतियों का संग्रह है। जिनमें अमरसेन रास, नैषधीय टीका का उत्तम संग्रह है। बीकानेर प्रदेश के अन्य नगरों में शास्त्र भण्डारों की उपलब्धि निम्न प्रकार होती है: 1. यति सुमेर मल संग्रह, भीनासर (रा. प्रा. वि. प्र. को प्रदान) । 2. बहादुरसिंह बांठिया संग्रह, भीनासर । 3. श्वेताम्बर तेरहपंथी पुस्तकालय, गंगाशहर । 4. यति किशनलाल का संग्रह, काल । 5. खरतरगच्छ के यति दुलीचन्द, सुजानगढ़ का शास्त्र भण्डार । 6. सुराना पुस्तकालय, चूरू । 7. श्रीचन्द गदहिया संग्रह, सरदारशहर । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 381 8. ताराचन्द तातेर संग्रह, हनुमानगढ़ (वीरायतन को प्रदत्त) । 9. वेदों का पुस्तकालय, रतनगढ़ । उक्त शास्त्र भण्डारों में भारतीय साहित्य एवं संस्कृति का अमूल्य संग्रह बिखरा हमा 2. जोधपुर संभाग के ज्ञान भण्डार : जोधपुर राजस्थान की ऐतिहासिक नगरी है। इसकी स्थापना राठौड़ जोधाजी ने की थी। इसकी पुरानी राजधानी मण्डौर थी। यहां श्वेताम्बर जैनियों की अधिकता है। वर्तमान में कई मन्दिर, दादावाड़ियां, उपासरे और स्थानक हैं। कई मन्दिरों व उपासरों में ज्ञानभण्डार विद्यमान हैं जिनमें सहस्रों की संख्या में हस्तलिखित पाण्डुलिपियां उपलब्ध हैं। केसरियानाथजी मन्दिर में स्थित ज्ञानभण्डार में लगभग 2000 पाण्डलिपियां संग्रहीत हैं । इनमें सुरचन्द्र उपाध्याय रचित स्थलिभद्र गणमाला काव्य आदि की दुर्लभ पाण्ड लिपियां प्राप्त हैं। कोटड़ी के ज्ञानभण्डार में लगभग एक हजार प्रतियां और जिनयशस्सरि ज्ञानभण्डार में अच्छा साहित्य संग्रहीत है। जयमल ज्ञानभण्डार, जैनरत्न पुस्तकालय, मंगलचन्द्रजी ज्ञानभण्डार आदि में भी अच्छा संग्रह है। राजस्थान राज्य सरकार द्वारा स्थापित राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान का मख्य कार्यालय यहां है। इस प्रतिष्ठान का विशाल हस्तलिखित ग्रन्थागार है। जिसमें लगभग 45,000 हस्तलिखित प्रतियां सुरक्षित हैं। इनमें से लगभग 30,000 जैन पाण्डुलिपियां हैं । इस प्रतिष्ठान में अनेक दुर्लभ प्रतियां हैं जिनका ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं भाषावैज्ञानिक दृष्टि से विशेष महत्व है। इस प्रतिष्ठान की अन्य शाखाएं बीकानेर, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, कोटा, टोंक, जयपूर और अलवर में स्थित हैं जिनमें लगभग 65,000 हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहीत हैं। राजस्थानी शोध संस्थान चौपासनी में भी 17 हजार हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है। जोधपुर के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी हस्तलिखित ग्रंथों को संग्रह करने का कार्य हा है इनमें पीपाड सिटी का जयमल ज्ञान भण्डार, यति चतुरविजयजी का संग्रह, सोजतसिटी का रघनाथ ज्ञान भण्डार, पाली स्थित श्री पुज्यजी का संग्रह, जैन स्थानक, खरतरगच्छ व तपागच्छ मन्दिर, उपासरे के भण्डार, बालोतरा का यति माणक चन्दजी का संग्रह, बाड़मेर का यति नेमिचन्द्रजो का संग्रह, घाणेराव का हिमाचलसूरि का ज्ञान भण्डार, प्रोसियां के जैन विद्यालय में स्थित भण्डार, फलौदी के तीन छोटे ज्ञानभण्डार, मेड़ता का पंचायती ज्ञान भण्डार, सिरोही का तपागच्छीय भण्डार, जालौर का मुनि कल्याणविजयजी का संग्रह, आहोर का राजेन्द्र सुरि का ज्ञान भण्डार आदि उल्लेखनीय हैं। उदयपुर के शास्त्र भण्डार : राजस्थान के पश्चिमी भाग में उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ आदि प्रदेशों का भाग जैन संस्कृति, साहित्य एवं पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रदेश माना जाता है। चित्तौड़, सागवाड़ा, डूंगरपुर, ऋषभदेव जैसे नगर जैन सन्तों के केन्द्र रहे हैं। इन नगरों में Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी की कितनी ही रचनायें रची गयीं, लिपिबद्ध की गयी एवं स्वाध्यायार्थ जन-जन में वितरित की गयीं । उदयपुर में 9 जैन मन्दिर हैं जिनमें सभी में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का संग्रह मिलता है लेकिन सबसे अधिक एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ दिगम्बर जैन मन्दिर संभवनाथ, खण्डेलवाल जैन मन्दिर, अग्रवाल जैन मन्दिर एवं गोडीजी का उपासरा में संग्रहीत हैं । संभवनाथ मन्दिर के शास्त्र भण्डार में 517 हस्तलिखित ग्रन्थ हैं । सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि सन् 1408 की है जो भट्टोत्पल की "लघु जातक" टीका की है । यहा सकलकीर्ति रास की भी पाण्डुलिपि है जिसमें भट्टारक सकलकीर्ति का जीवन वृत्त दिया हुआ है । अग्रवाल दिगम्बर जैन मन्दिर में यद्यपि करीब 400 ग्रन्थ हैं लेकिन अधिकांश पाण्डुलिपियां प्राचीन हैं । सबसे प्राचीन पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धि की पाण्डुलिपि जिस पर संवत् 1370 का लेखन काल दिया हुआ है । इसकी प्रतिलिपि योगिनीपुर में की गयी थी । इस भण्डार में सबसे अधिक संख्या हिन्दी ग्रन्थों की है । जिनमें कल्याणकीर्ति कृत चारुदत्त प्रबन्ध ( 1635 ए. डी.), अकलंक यति रास ( जयकीर्ति सन् 1710), दौलतराम कासलीवाल कृत जीवन्धर चरित ( संवत् 1805), अम्बिका रास ( ब्र. जिनदास ) आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दौलतराम कासलीवाल ने इसी मन्दिर में बैठ कर जीवन्धर नरित की रचना की थी । इस भण्डार में उसकी एक मात्र पाण्डुलिपि संग्रहीत है । 1 खण्डेलवाल जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार में करीब 200 प्रतियां हैं और संवत् 1363 की भूपाल स्तवन की पाण्डुलिपि है । इसी तरह गौडीजी के मन्दिर, उपासरे में करीब 625 पाण्डुलिपियां हैं 1 इस भण्डार में ग्रागम शास्त्र, आयुर्वेद एवं ज्योतिष आदि विषयों के ग्रन्थों का अच्छा संग्रह है । डूंगरपुर राजस्थान प्रान्त का जिला मुख्यालय है । यह पहिले बागड़ प्रदेश का सर्वाधिक प्रसिद्ध राज्य था । जैन संस्कृति की दृष्टि से यह प्रदेश का एक संपन्न क्षेत्र रहा है । 15वीं शताब्दी में भट्टारक सकलकीर्ति एवं उसके पश्चात् होने वाले भट्टारकों का यह नगर प्रमुख केन्द्र था । सकलकीर्ति ने संवत 1483 में यहीं पर भट्टारक गादी की स्थापना की थ 1 सकलकीर्ति के पश्चात होने वाले सभी भट्टारकों ने अपने ग्रन्थों में डूंगरपुर, गिरिपुर के नाम का बहुत उल्लेख किया है । इन भट्टारकों में भुवनकीर्ति, ज्ञानभूषण, विजयकीर्ति, शुभचन्द्र आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । ब्र. जिनदास ने अपने प्रसिद्ध रास ग्रन्थ रामतीता रास की समाप्ति यहीं पर संवत् 1508 में की थी । यहां के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में 553 प्रतियां है जिनमें अधिकांश ग्रन्थ अत्यधिक महत्वपूर्ण है । भण्डार में चन्दनमलयागिरि चौपई, प्रादित्यवार कथा एवं राग रागिनियों की सचित्र पाण्डुलिपियां हैं जो चित्रकला एवं शैली को दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं । केसरियानाथ के नाम से प्रसिद्ध 'ऋषभदेव' जैनों का अत्यधिक प्राचीन एवं लोकप्रिय तीर्थ माना जाता है जहां जैन एवं जैन बन्धु प्रति वर्ष लाखों की संख्या में प्राते हैं । जैन जाति भट्टारकों का यह प्रमुख स्थान माना जाता है । यहां उनकी गादी भी स्थापित है यहां का शास्त्र भण्डार भट्टारक यशकीर्ति जैन सरस्वती भवन के नाम से प्रसिद्ध है जिसमें हस्तलिखित ग्रन्थों की संख्या करीब 1100 से भी अधिक है । 15वीं, 16वीं एवं 17वीं शताब्दी में लिखे हुए ग्रन्थों की संख्या सबसे अधिक है जो भण्डार की प्राचीनता की ओर एक स्पष्ट संकेत है । शास्त्र भण्डार में राजस्थानी, हिन्दी एवं मेवाड़ी भाषा में लिखे हुए ग्रन्थ सर्वाधिक है जिससे ज्ञात होता है कि इन ग्रन्थों के संग्रहकर्ता इन भाषाओं के प्रेमी रहे थे । ऐसे ग्रन्थों में पद्ध कवि का महावीर रास ( संवत् 1609), नरसिंहपुरा जाति रास, भ. रतनचन्द्र का शान्ति नाथ पुराण (संवत् 1783), भट्टारक महीचन्द्र का लवकुश प्राख्यान श्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं । 1. ग्रन्थों का विशेष विवरण देखिये- राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची पंचम भाग | Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 283 सागवाड़ा बागड़ प्रदेश का प्रमुख नगर है जो सैकड़ों वर्षों तक भट्रारकों का प्रभाव केन्द्र रहा। यहां के मन्दिरों में विशाल एवं कलापूर्ण मूर्तियां विराजमान हैं जो इन भट्रारकों द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी थी। सागवाड़ा को हम विशाल जैन मन्दिरों का नगर भी कह सकते हैं। यहां को प्राचीनता एवं भट्टारकों के केन्द्र स्थान की दृष्टि से शास्त्र भण्डार उतना महत्वपूर्ण नहीं है। फिर भी यहां अधिकांश भट्टारकों को कृतियां उपलब्ध हैं। कोटा-बन्दी के ग्रन्थ भण्डार : कोटा, बन्दी, झालावाड़ हाडौती प्रदेश के नाम से विख्यात है। राजस्थान में इस प्रदेश की संस्कृति एवं सभ्यता का इतिहास काफी पुराना है। जैन धर्म एवं संस्कृति ने इस प्रदेश को कब से गौरवान्वित किया यह अभी तक खोज का विषय बना हुआ है। लेकिन बन्दी, नैणवा, झालरापाटन का जैन ग्रन्थों में काफी वर्णन मिलता है क्योंकि इन नगरों ने जैन संस्कृति के विकास में खब योग दिया था। खरतरगच्छीय शास्त्र भण्डार, कोटा में 1177 हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है जो प्रमुखतः 15वीं, 16वीं एवं 17वीं शताब्दी में लिखे हुए हैं। सबसे प्राचीन पाण्डलिपि रामलक्ष्मण रास की है जो संवत् 1415 को लिखी हुई है। इसी भण्डार में हिन्दी की प्रसिद्ध कृति बीसलदेव चौहान रास की पाण्डुलिपि भी उपलब्ध है। इसी प्रकार महोपाध्याय विनयमागरजी का संग्रह भी उल्लेखनीय है जिसमें लगभग 1500 पाण्डुलिपियां प्राप्त हैं। दिगम्बर जैन मन्दिर बोलसिरी के शास्त्र भण्डार में करीब 735 हस्तप्रतियों का भी संग्रह है। इस भण्डार के संग्रह से पता चलता है कि यहां 18वीं शताब्दी में हस्तलिखित ग्रन्थों का सबसे अधिक संग्रह हया था। सबसे प्राचीन पाण्डुलिपि भट्टारक शुभचन्द्र कृत पाण्डवपुराण की है जो संवत 1548 में प्रतिलिपि की गयी थी। शुभचन्द्र का पल्य विधान रास, भट्टारक नरेन्द्रकीति का चन्द्रप्रभु स्वामी विवाहलो (संवत् 1702) एवं मुनि सकलकीर्ति की रविव्रत कथा का नाम उल्लेखनीय है। बन्दी नगर में दिगम्बर जैन मन्दिर पार्श्वनाथ, आदिनाथ, अभिनन्दनस्वामी, महावीर एवं नेमिनाथ इन सभी मन्दिरों में हस्तलिखित भण्डार उपलब्ध हैं। यद्यपि इनमें किसी में भी 500 से अधिक प्रतियां नहीं हैं। लेकिन फिर भी यहां के शास्त्र भण्डार पूर्ण रूप से व्यवस्थित हैपार्श्वनाथ मन्दिर के शास्त्र भण्डार में ब्रह्म जिनदास के रामसीतारास की अब तक उपलब्ध पाण्डलिपियों में सबसे पुरानी पाण्डुलिपि है जो संवत् 1518 की लिखी हई है। इसी तरह नेमिनाथ (नागदी) के मन्दिर में रचित माधवानल प्रबन्ध की संवत 1594 की प्रति है। यहां कवि बचराज की कृतियों का अच्छा संग्रह है जो अन्यत्र नहीं मिलती। झालरापाटन में ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन है जिसमें 1436 पाण्डलिपियां संग्रहीत हैं। हस्तलिखित ग्रन्थ संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषा में उपलब्ध हैं तथा सिद्धान्त. राण काव्य, कथा, न्याय एव स्तोत्र प्रादि विषयों से सम्बन्धित हैं। यह भण्डार पूर्णतः व्यवस्थित है। नबी के समान नैणवा में भी प्रायः प्रत्येक मन्दिर में शास्त्र भण्डार हैं जो दिगम्बर जैन सरापन्थी मन्दिर एवं अग्रवाल जैन मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन भण्डारों में पचासों ऐसी पाण्डुलिपियां हैं जो नणवा में ही लिखी गयी थीं। सबसे अधिक पाण्डलिपि 18वीं एवं 19वीं शताब्दी में लिखी गयी हैं। सबसे अच्छा संग्रह बघेरवाल मन्दिर का के जिसमें सार सिखामण रास (भट्टारक सकलकोति), ब्रह्म यशोधर का नेमिनाथ गीत (18 जोत का पन्चेन्द्रियगीत (16वीं शताब्दी) आदि के नाम उल्लेखनीय है। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 शास्त्र भण्डार दबलाना एक छोटा सा गांव है, यह बून्दी से पश्चिम की ओर दस मील सड़क पर स्थित यहां के मन्दिर में भी ग्रन्थों का अच्छा संग्रह है जिनकी संख्या 416 है । ऐसा मालूम पड़ता है कि यह भण्डार किसी दिगम्बर साधु (पाण्डे) का था जो उसकी मृत्यु के पश्चात यहीं के मन्दिर में स्थापित कर दिया गया। इसमें सबसे प्राचीन षडावश्यक बालावबोध का है जिसका लेखन काल सन् 1464 का है। किए हुए ग्रन्थ हैं जिनमें बून्दी, नैणवा, गोठड़ा, सीसवाली के नाम उल्लेखनीय हैं । भण्डार में राजस्थान के विभिन्न नगरों में लिपि इन्दरगढ़, जयपुर, जोधपुर, सागवाड़ा एवं इन्दरगढ़ सवाई माधोपुर से कोटा जाने वाले रेल्वे लाइन पर स्थित है । यहां के पार्श्वनाथ मन्दिर में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का भण्डार है जिसमें 289 हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है । इनमें से अधिकांश ग्रन्थ स्वाध्याय में काम में आने वाले हैं । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन शिलालेख -रामवल्लभ सो नानो राजस्थान से प्राप्त शिलालेखों में जैन शिलालेखों की संख्या अधिक है। ये लेख प्रायः मन्दिरों, मूर्तियों, स्तम्भों, निषेधिकारों और कीर्तिस्तम्भों पर विशेष रूप से उत्कीर्ण मिलते हैं। इनके अतिरिक्त सुरह लेख एवं चट्टानों पर खुदे लेख भी कुछ मिले हैं। मोटे तौर पर जैन लेखों को निम्नांकित पांच भागों में बांट सकते हैं:-- (1) ऐतिहासिक लेख, 2) मन्दिरों की प्रतिष्ठा एवं व्यवस्था सम्बन्धी लेख, 3) यात्रा सम्बन्धी विवरण, (4) मतियों के लेख, (5) निषेधिकारों और कीर्तिस्तम्भों के लेख । राजस्थान से प्राप्त लेखों में बडली का बहुचर्चित लेख प्राचीनतम माना जाता है, किन्तु इस लेख के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों में मतभेद रहा है। मध्यमिका से एक खण्डित लेख मिला है जिसमें 'सब जीवों को दया के निमित्त' भावना युक्त कुछ खण्डित ग्रंश है। इसे जैन अथवा बौद्ध लेख मान सकते हैं। इसके अतिरिक्त राजस्थान से प्राचीनतम जैन लेख अपेक्षाकृत कम मिले हैं, यद्यपि यहां ख्याति प्राप्त प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्रसूरि, उद्योतनसुरि, एलाचार्य जैसे विद्वान हुए है। साहित्यिक आधारों से यहां कई प्राचीन मन्दिरों की स्थिति का पता चलता है किन्तु प्राचीनतम शिलालेखों का नहीं मिलना उल्लेखनीय है। मथुरा प्राचीन काल से जैन धर्म का केन्द्र स्थल रहा है। यहां से जैन साधुओं को दक्षिणी भारत अथवा गुजरात में जाने के लिए, नि:संदेह राजस्थान से होकर यात्राएं करनी पड़ती थीं किन्तु इनके कोई शिलालेख नहीं मिले हैं। राजस्थान से प्राप्त जैन लेखों का विवेचन इस प्रकार है:-- 1. ऐतिहासिक लेख जैन शिलालेखों का ऐतिहासिक महत्व अत्यधिक है। प्राचीन काल से हो जैनियों में इतिहास लिखने की सुदढ़ परम्परा रही है। कालगणना सम्बन्धी जैनियों का ज्ञान उल्लेखनीय रहा है। जैन विद्वानों द्वारा किंचित् प्रशस्तियों में ऐतिहासिक महत्व की सामग्री अत्यधिक पाई गई है। इस सम्बन्ध में एक रोचक वृत्तान्त प्रस्तुत किया जा सकता है। वि. सं. 1330 की चीरवा की प्रशस्ति एवं वि. सं. 1324 की घाघसा की अजैन प्रशस्तियों की रचना जैन विद्वान चैत्रगच्छाचार्य रत्नप्रभसूरि ने की थी। दोनों प्रशस्तियों में मेवाड़ के महाराणाओं के सम्बन्ध में कई महत्वपूर्ण सूचनायें दी गई हैं। लगभग इसी समय वेदशर्मा नामक चित्तौड़ निवासी ब्राह्मण ने दो प्रशस्तियां वि. सं. 1331 की चित्तौड़ की और वि. सं. 1342 की अचलेश्वर मन्दिर प्राबू की प्रशस्तियां बनाईं। दोनों में भी मेवाड़ के राजारों का वर्णन है। इन दोनों की तुलना करने पर पता चलता है कि वेद शर्मा द्वारा विरचित प्रशस्तियां ऐतिहासिक तथ्यों से परे अलंकारिक एवं परम्परागत वर्णन लिए हुए ही हैं। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 राजस्थान से ऐतिहासिक महत्व की कई जैन प्रशस्तियां मिली हैं। घटियाला का वि. सं. 918 का लेख पूरा प्राकृत भाषा में निबद्ध है एवं इसका भारत के जैन लेखों में बड़ा महत्व है। इस लेख मे प्रतिहार राजवंश का वर्णन है। इसमें दी गई वंशावली वि.सं. 894 के जोधपुर अभिलेख से भी मिलती है। लेख कीर्तिस्तम्भ पर उत्कीर्ण है। प्रोसियां के जैन मन्दिर के वि. सं. 1013 के शिलालेख के सातवें श्लोक में प्रतिहार राजा वत्सराज (8वीं शताब्दी) द्वारा वहां जैन प्रतिमा स्थापित करने का उल्लेख है। आहड के जैन मन्दिर के 10वीं शताब्दी के एक शिलालेख में (जिसे मैंने अनेकान्त पत्र (दिल्ली से प्रकाशित) में सम्पादित करके प्रकाशित कराया है) मेवाड़ के शासक अल्लट द्वारा प्रतिहार राजा देवपाल के मारने का उल्लेख मिलता है। लकुलीश मन्दिर एकलिंगजी के राजा नरवाहन के समय के शिलालेख वि. सं. 1028 में शैवों, बौद्धों और जैनों के मध्य वाद-विवाद करने का उल्लेख किया गया है। दिगम्बर जैन परम्पराओं से भी इसकी पुष्टि होती है। काष्ठासंघ की लाट बागड़ को गुर्वावली के अनुसार प्रभाचन्द्र नामक साधु को "विकटशैवादिवृन्दवनदहनदावानल" कहा गया है। इनके उक्त राजा नरवाहन की सभा में शास्त्रार्थ करने का भी उल्लेख किया गया है। इस प्रकार यह एक महत्वपूर्ण सूचना है। वस्तुतः एकलिंगजी से 2 मील दूर "पालाक पार्श्वनाथ का मन्दिर" नागदा में स्थित है। यह दिगम्बर सम्प्रदाय का 10वों शताब्दी का बना हुआ है। इसमें 11वीं शताब्दी का एक शिलालेख भी मनि कान्तिसागरजी ने देखा था जिस उन्हांने प्रकाशित भी कराया है, लेकिन इस समय अब केवल 13वीं शताब्दी के शिलालेख ही उपलब्ध ह। वि. सं. 1226 के बिजोलिया के शिलालेख में इस मन्दिर का विशिष्ट रूप से उल्लेख होन से यह माना जा सकता है कि उस समय नागदा एक दिगम्बर तीर्थ के रूप में प्रसिद्धि पा चुका था। समस्त तीर्थ नमस्कार, चैत्यवन्दना आदि ग्रन्थों में भी इसका इसी रूप में उल्लेख किया गया है। अतएव प्रतीत होता है कि मेवाड़ में कई साधु रहते होंगे और उनसे ही शैवों का शास्त्रार्थ हुअा हागा। प्रभाचन्द्र साधु भी मेवाड़ में दीर्घकाल तक रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं । 11वीं शताब्दी के आसपास जैन धर्म को राज्याश्रय मिलना शुरू हो गया था। दिगम्बरों के चित्तौड़, नागदा, केसरियाजी, बागड़क्षेत्र, हाड़ौती, लाडन, आमेर, चाटसू आदि मख्य केन्द्र थे। श्वेताम्बरों के केन्द्रस्थल प्रोसियां, किराडवाली, पाब, जालोर आदि मुख्य रूप से थे। मेवाड़ में श्वेताम्बर साधु भी प्रभाव बढ़ाते जा रहे थे। पश्चिमी राजस्थान में बड़ी संख्या में जैन शिलालेख मिले है। राठौड़ों के राज्याश्रय में हस्तीकुण्डो का वि. सं. 1053 का महत्वपूर्ण जैन लेख खुदवाया गया था। इसमें कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सूचनायें दी गई हैं। इसमें परमार राजा मुंज के मेवाड़ पर आक्रमण करने और आघाट को खण्डित करने का उल्लेख है। इसी लेख में गुजरात के राजा द्वारा धरणीवराह परमार पर आक्रमण करने और उसके हळूडी में शरण लेने का उल्लेख है। हठूडी और सेवाड़ी गोडवाड़ में हैं और जैनियों के तीर्थस्थलों में से एक हैं। सेवाड़ी से वि. सं. 1172 और 1176 के प्रसिद्ध जैन लेख मिले। इन लेखों के अवलोकन से पता चलता है कि राठोड़ों के अतिरिक्त गहिलोत और चौहान भी व्यापक रूप से जैन मन्दिरों के लिए दान देते आ रहे थे। इनके दानपत्रों में जो वंश वर्णन दिया गया है वह ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। नाडाल के वि. सं. 1218 और नाडलाई के भी वि. सं. 1218 के ताम्रपत्र इसी कारण बहुत ही प्रसिद्ध हैं। 2. मन्दिरों की प्रतिष्ठा एवं व्यवस्था सम्बन्धी लेख प्रायः मन्दिरों की व्यवस्था गोष्ठिकों द्वारा की जाती थी। इन गोष्ठिकों का चनाव समाज के प्रतिनिधि व्यक्ति अथवा मन्दिर बनाने वाले या उसके निकट परिवार के सदस्य करते थे। इन्हें मन्दिर की आय, व्यवस्था, व्यय, पूजा-प्रतिष्ठा, स्थायी सम्पत्ति की प्राप्ति Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 387 के और बिक्री, ब्याज पर पूंजी नियोजन आदि का पूर्ण अधिकार रहता था । वि. सं. 1287 Shahar ही के लेख से पता चलता है कि मंत्री वस्तुपाल तेजपाल ने अपने सभी निकट सम्बन्धियों को पूजा सम्बन्धी विस्तृत अधिकार दिए थे । रत्नपुर के शिलालेख से पता चलता है कि गोष्ठिकों की संस्था को "भाटक" संस्था भी कहते थे । वि. सं. 1235 के सच्चिका देवी के मन्दिर के शिलालेख में "सच्चिकादेवी गोष्ठिकान् भगित्वा तत्समक्षत इयं व्यवस्था लिखापितं " एवं सेवाड़ी के वि. सं. 1192 के लेख में "गोष्ठ्या मिलित्वा निषेधीकृतः' कहकर व्यवस्था की गई है। ऐसे ही वर्णन वि. सं. 1236 के सांडेराव के लेख में है । " मन्दिरों की व्यवस्था के लिए कई दान देने का भी उल्लेख है । इनमें पूजा के अतिरिक्त वार्षिक उत्सव, रथयात्रा आदि के लिए भी व्यवस्था कराने का उल्लेख है । इनके अतिरिक्त कई बार कर लगाने के भी उल्लेख मिलते हैं जिनकी आय सीधी मन्दिर को मिलती थी । इनमें से कुछ का वर्णन इस प्रकार है: वि. सं. 1167 के सेवाड़ी के शिलालेख में महाराज प्रश्वराज द्वारा धर्मनाथ देव की पूजा के निमित्त ग्राम पदराडा, मेंदरचा, छोछड़िया और मादड़ी से प्रति रहट जव देने का उल्लेख किया गया है । वि. सं. 1172 के इसी स्थान के लेख में जैन मन्दिर के निमित्त प्रति वर्ष 8 द्रम्म देने का उल्लेख है । वि. सं. 1198 के नाडलाई के लेख में महाराज रायपाल के दो पुत्रों और उसकी पत्नी द्वारा जैन यतियों के लिये प्रति घाणी दो पल्लिका तेल देने की व्यवस्था की सूचना मिलती है । वि. सं. 1187 के संडेरगच्छ के महावीर देशी चैत्य के निमित्त मोरा गाम में प्रति घाणी तेल देने का इसी प्रकार उल्लेख मिलता है । वि. सं. 1195 के लेख में, हिल वंशीय राऊल उद्धरण के पुत्र ठक्कुर राजदेव द्वारा नेमिनाथ की पूजा निमित्त नाडलाई में आने-जाने वाले समस्त भारवाहक वृषभों से होने वाली आय का 1.10 भाग देने का उल्लेख है । वि. सं. 1200 के नाडलाई के लेख में रथ यात्रा के निमित्त उक्त राजदेव द्वारा 1 विशोषक और 2 तेल पल्लिका देने का उल्लेख है । वि. सं. 1200 के बाली शिलालेख में इसी प्रकार रथ यात्रोत्सव के लिए 4 द्रम्म देने की सूचना दी गई है । वि. सं. 1202 के नाडलाई के लेख के अनुसार उक्त राजदेव गुहिलोत द्वारा महावीर चैत्य के साधुओं के लिए दान दिया गया था । वि. सं. 1218 के ताम्रपत्र में संडेरगच्छ के महावीर चैत्य के लिए प्रतिमास 5 द्रम्म दान में देने का उल्लेख किया गया है । वि. सं. 1218 के नाडलाई के ताम्रपत्रों में कीतु चौहान द्वारा 12 ग्रामों में प्रत्येक से 2 द्रम्म महावीर मन्दिर के निमित्त दान में देने का उल्लेख है । वि. सं. 1221 के कल्हण के सांडेराव के लेख से ज्ञात होता है कि चैत्र बदि 13 को होने वाले भगवान् महावीर के कल्याणक महोत्सव के निमित्त राजकीय प्राय में से दान देने का उल्लेख है । इसी प्रकार के उल्लेख दंताणी के वि. सं. 1345, हटंडी के पास स्थित राता महावीर मन्दिर के सं. 1335, 1336 और वि. सं. 1345 के लेखों में है । चाचिगदेव सोनगरा ने मेवाड़ के करेडा मन्दिर के निमित्त नाडोल की मंडपिका से दान दिया इसका उल्लेख उसने वि. सं. 1326 के शिलालेख में किया । यह मन्दिर उसकी राज्य के सीमाओं में नहीं था फिर भी दान देना विचारणीय है । था । जालौर क्षेत्र से भी इस प्रकार के कई लेख मिल चुके हैं। वहां से प्राप्त वि. सं. 1320 के एक शिलालेख के अनुसार नानकीयगच्छ के चन्दन-विहार नामक मन्दिर के निमित्त लक्ष्मीधर श्रेष्ठि ने 100 द्रम्म दान में दिए थे । जिसकी आय में से नियमित रूप से ग्रासोज मास के प्रष्टान्हिक महोत्सव कराए जाने की व्यवस्था कराने का उल्लेख है । वि. सं. 1323 के इसी मन्दिर के लेख के अनुसार महं. नरपति ने 50 द्रम्म दान में दिए थे भाय से मन्दिर के लिए नेचक ( माला) की व्यवस्था कराने का उल्लेख है । जिसके ब्याज की । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 चित्तौड़ से वि. सं. 1335 का एक शिलालेख मिला है। इसमें भर्तृ पुरीय गच्छीय प्राचार्य प्रद्यम्नसरि के उपदेश से महारावल समरसिंह ने अपनी माता जयतल्लदेवी की इच्छ नुसार श्याम पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया एवं मठ की व्यवस्था के लिए पर्याप्त राशि दान में दी। चित्तौड़, सज्जनपुर, खोहर, पाघाट आदि की मंडपिकानों से होने वाली आय में से पर्याप्त राशि देने का उल्लेख मिलता है । बिजोलिया क्षेत्र में दिगम्बर जैनों का अधिक प्रभाव रहा था। वहां से दो प्रसिद्ध लेख मिले हैं। पहला लेख वि. सं. 1226 का है। इसमें चौहानों की विस्तृत वंशावली दी हुई है। यह वंशावली हर्षनाथ के वि. सं. 1030 के शिलालेख और पृथ्वीराज विजय काव्य से मिलती है और प्रामाणिक है। इसी सामग्री से पृथ्वीराज रासो नामक ग्रन्थ को जाली सिद्ध करने में सहायता मिली है। दूसरा लेख "उन्नत शिखर पुराण" का अंश है। इसे मैंने अनेकान्त में संपादित करके प्रकाशित कराया है। चित्तौड़ से परमार राजा नरवर्मा के समय का लेख मिला है। इस लेख के प्रारम्भ में मालवे के परमार राजाओं की वंशावली दी हई है। इसमें चित्तौड़ में स्थापित विधिचैत्य के लिए दान देने की व्यवस्था भी की गई है। चित्तौड़ से ही वि. सं. 1207 की कुमारपाल की शिवमन्दिर की प्रशस्ति मिली है। इसकी रचना दिगम्बर जैन विद्वान रामकीर्ति ने की थी जो जयकीर्ति के शिष्य थे। इस लेख में कुमारपाल के शाकम्भरी जीतने की महत्वपूर्ण सूचना है । 13वीं शताब्दी में राजस्थान में प्राबू, चित्तौड़, जालौर, गौड़वाड आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण निर्माण कार्य हया था। आब में प्रसिद्ध 'लणिग वसही" नामक जैन मन्दिर बना था। इसके वि. सं. 1287 के शिलालेख में कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सूचनाएं हैं। इसमें गुजरात के शासकों और आबू के परमारों की विस्तृत वंशावली दी हुई है एवं कई राजाओं का विस्तृत वंशवृक्ष भी दिया हआ है। यह मन्दिर परमार राजा सोमसिंह के समय बना था। इसकी मां श्रृंगारदेवी भी जैन धर्म रो प्रभावित थी। झाडोली के वि. सं. 1255 के जैन मन्दिर के लेख में इसका उल्लेख भी किया हुअा है। वि. सं. 1350 का परमार राजा वीसलदेव का आबू से प्राप्त महत्वपूर्ण लेख है। इस राजा के 4 अन्य जैन लेख वि. सं. 1345 से 1351 तक के भी मिले हैं। प्राब के अन्तिम परमार शासकों के सम्बन्ध में जानकारी देने वाले ये लेख महत्वपूर्ण हैं। वस्तुतः वि. सं. 1344 के पाटनारायण के लेख के बाद प्राब में परमारों के सम्बन्ध में क्रमबद्ध सूचना नहीं मिलती है। अतएव यह लेख भी महत्वपूर्ण है। नाडोल के चौहानों और जालोर के सोनगरों के सम्बन्ध में सूढ़ा पहाड़ का महत्वपूर्ण शिलालेख मिला है। इस लेख के माध्यम से इनकी विस्तृत वंशावली तैयार की गई है। सोनगरों के बचे हुए राजाओं के नामों की विस्तृत सूची वि. सं. 1378 के देलवाड़ा के विमल वसही के लेख में है। __अल्लाउद्दीन खिलजी ने प्राब के जैन मन्दिरों को विध्वंस किया था और उनका जीर्णोद्धार वि. सं. 1378 के आसपास मण्डोर के जैन श्रेष्ठि परिवारों ने कराया था। सैणवा (जिला चित्तौड़) और गंगरार (जिला चित्तौड़) से भी वि. सं. 1372 और वि. सं. 1389 तक के कई दिगम्बर जैन लेख मिले हैं। ये लेख प्रायः निषेधिकारों के हैं। इन लेखों से पता लगता है कि अल्लाउद्दीन के आक्रमण के बाद कुछ दिनों में वहां स्थिति में परिवर्तनपा गया था और जैन साधु वापस वहां आकर रहने लग गए थे। जैसलमेर में भी अल्लाउद्दीन का आक्रमण हुआ था। इस आक्रमण के सम्बन्ध में फारसी तवारीखें प्रायः मौन हैं और एक मात्र सूचना वहां के जैन मन्दिरों की प्रशस्तियों से ही मिलती है। अल्लाउद्दीन के आक्रमण के बाद राजस्थान में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। मेवाड़ के सिसोदियों का उदय एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। इनके राज्य में श्वेताम्बर जैनियों Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 389 का बड़ा अभ्युदय हुआ। देवकुलपाटक (देलवाड़ा), चित्तौड़ और करेडा में कई मन्दिर बने। यहां से कई शिलालेख, ग्रन्थ, प्रशस्तियां आदि मिली हैं। इन लेखों में वि. सं. 1495 का चित्तौड़ वि. स. 1496 का राणकपुर का शिलालेख मुख्य है। राणकपूर का शिलालेख मेवाड़ इतिहास के लिए बहुत ही उपयोगी है। मैंने "महाराणा कुम्भा" पुस्तक में इस पर विस्तार से लिखा है। शत्रुन्जय का जीर्णोद्धार चित्तौड़ के जैन श्रेष्ठि तोलाशाह ने कराया 'था। इसका एक शिलालेख वि.सं. 1587 का मिला है। इसमें प्रारम्भ में मेवाड़ के राजवंश का वर्णन आदि का उल्लेख है। बागड प्रदेश भी मेवाड़ की तरह जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा था। यहां से ऊपर गांव की वि. सं. 1461 की एक महत्वपूर्ण प्रशस्ति मिली है जिसे मैंने "अनेकान्त" में प्रकाशित भी कराई है। इसमें प्रथम बार बागड के शासकों पर प्रामाणिक सामग्री प्रकाशित हुई है । इस प्रकार मध्यकाल में और भी कई लेख मिले हैं । महता नैनसी और उसके पिता जयमल के जालौर, फलोदी और नाडोल के लेख, थाहरुशाह भणशाली के जैसलमेर एवं लोद्रवा के लेख, मोहनदास मंत्री परिवार के आमेट आदि के लेख हैं। इस प्रकार कई महत्वपूर्ण सामग्री जैन लेखों से प्राप्त हुई है। इन शिलालेखों का क्रम इस प्रकार से मिलता है। प्रारम्भ में जैन तीर्थ करों की स्तुति, और बाद में सरस्वती आदि की वन्दना भी दी गई है। इसके बाद राजवंश वर्णन रहता है। बाबू की लूणिग वसही की प्रशस्ति में पहले श्रेष्ठि परिवार का वर्णन है और राजवंश वर्णन बाद में दिया गया है, किन्तु अधिकांश लेखों में राजवंश वर्णन के बाद ही श्रेष्ठि वंश वर्णन रहता है। श्रेष्ठि वंश के बाद साधुओं के गच्छ, परम्परा आदि का वर्णन रहता है, किन्तु कहीं-कहीं श्रेष्ठि वंश के पूर्व भी साधुओं का वर्णन दिया गया है। अंत में प्रशस्तिकार का वर्णन, खोदने वाले, लिखने वाले आदि का उल्लेख रहता है। सुरह लेखों में परम्परा इससे कुछ भिन्न होती है। ये दानपत्र के रूप में होते हैं। इसमें प्रायः न तो राजा का वंश वर्णन रहता है और न जैन साधनों का। इसमें केवल राजा विशेष द्वारा दिये गये दान ग्रादि का उल्लेख रहता है। अगर भमि दान में दें तो भूमि की सीमायें भी अंकित रहती हैं। अन्य दान पन होगा तो उसमें विशेष प्रयोजन का भी उल्लेख होगा। 3. यात्रा सम्बन्धी विवरण यात्रा सम्बन्धी विवरण प्रायः दो प्रकार के मिलते हैं। कुछ विवरण संघ यात्राओं के हैं जो मख्य-मख्य तीर्थों, जैसे प्राव, राणकपूर, चित्तौड, केसरियाजी ग्रादि स्थानों पर यात्रार्थ जाने के हैं। ये यात्री भारत के अन्य जैन-तीर्थों की यात्रा करते-करते राजस्थान में भी पाये प्रतीत होते हैं। दूसरे विवरण उन यात्रियों से सम्बन्धित हैं जो अकेले ही यात्रा करते थे। संघ यात्रानों के विशद वर्णन मिलते हैं। वस्तुपाल तेजपाल द्वारा संघ निकालकर यात्रा पर जाने का वर्णन बहुत ही विस्तार से मिलता है। चित्तौड के वि. सं. 1495 के शिलालेख में श्रेष्ठि गुणराज द्वारा संघ यात्रा निकालने यादि के वर्णन है। इस यात्रा में राणकपूर मंदिर के निर्माता श्रेष्ठ धरणा भी सम्मिलित हुआ था। मालवे से आये संघयात्री जसवीर को महाराणा कुम्भा ने तिलक लगाया और सम्मानित किया था। आबू में संघ यात्राओं के कई शिलालेख लगे हैं। वि. सं. 1358 जेठ सूदि 5 के लेख में लखावी के संघ की यात्रा की सूचना दी गई है। वि. सं. 1378 में रणस्तम्भपुर के विस्तृत संघ के वहां पाने का उल्लेख भी शिलालेख से ज्ञात होता है। इसी प्रकार वि. सं. 1503 में चन्देरी से संघ के पाने की सूचना मिलती है। राजस्थान में ऐसे संघ यात्रा सम्बन्धी कई और लेख मिले हैं। इनसे ज्ञात होता है कि राजस्थान में श्रेष्ठिगण Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 अपने धर्म स्थानों की यात्राओं पर प्रायः जाया करते थे। उनके साथ जैन साधु भी होते थे। प्राचार्य सोमसुन्दरसूरि, हीरविजयसूरि आदि ने कई उल्लेखनीय संघ यात्रायें कराई थीं। मूर्तिलेख राजस्थान से श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों की असंख्य मूर्तियां लेखयुक्त मिलती हैं। ये लेख प्रायः तीर्थंकरों की प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण मिलते हैं किन्तु, कहीं- कहीं प्राचार्यों की प्रतिमाओं, जीवन्तस्वामी की प्रतिमानों, जैन सरस्वती, अम्बिकादेवी, सच्चिका देवी प्रादि की प्रतिमाओं पर भी लेख मिलते हैं। 10वीं शताब्दी के पूर्व की लेख यक्त प्रतिमायें अत्यल्प हैं। 10वीं शताब्दी से बड़ी संख्या में मूर्तियां मिलती हैं। औसियां के मंदिर में वि. सं. 1040 में प्रतिष्ठापित प्रतिमा विराजमान है। अमरसर से खुदाई में प्रतिमाओं में संवत् 1063, 1104, 1112, 1129, 1136 और 1160 की प्रतिमायें मिली हैं। इसी प्रकार बघेरा से खुदाई में प्राप्त प्रतिमायें भी 11वीं और 12वीं शताब्दी की है। रूपनगढ़ से प्राप्त प्रतिमायें भी इसी काल की हैं। सांचोर में विशालकाय पीतलमय मति वि. सं. 1134 में प्रतिष्ठित की गई थी जो वि. सं. 1562 में प्राब में लाई गई थी। वि.सं. 1102 में पाबू में सलावटों ने अपनी अोर से जिन प्रतिमा निर्मित कराके प्रतिष्ठित कराई थी। इन मतियों की प्रतिष्ठायें विशेष प्राचार्यों द्वारा कराई जाती थीं। दिगम्बरों द्वारा मति प्रतिष्ठानों में मोजमावाद में वि.सं.1664 में, चांद खेडी खानपुर में वि.सं. 1746 में, बांसखों में वि.स. 1783 में, सवाई माधोपुर में वि.सं. 1826 में हुई प्रतिष्ठानों के समय बड़ी संख्या में मूर्तियां और यंत्र प्रतिष्ठापित हुये थे। वि. सं. 1508 में नाडोल में महाराणा कुंभा के समय जब प्रतिष्ठा हई थी तब भी कई प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई गई थी, जो बाद में कुंभलगढ़, देवकुल पाटन आदि स्थानों को भेजी गई थी। इन मूर्ति लेखों से कई रोचक वृत्तान्त भी मिलते हैं। जैसे वि. सं. 1483 के जीरापल्ली के लेखों से ज्ञात होता है कि इस वर्ष वहां 4 गच्छों के बडे-बडे प्राचार्यों ने एक साथ चौमासा किया था। वि. सं. 1592 के बीकानेर के शिलालेख से वहां कामरां के आक्रमण की सूचना दी गई है जो महत्वपूर्ण है। कई बार जैन प्रतिमायें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई गई थीं। वि. सं. 1408 डस्थला में प्रतिष्ठित प्रतिमायें प्राब ले जायी गई जो आजकल विमल वसही में मुख्य मन्दिर के बाहर लग रही है। इसी प्रकार वि. सं. 1518 में कुम्भलगढ़ में महाराणा कुम्भा के राज्य में प्रतिष्ठित प्रतिमा वि.सं. 1566 में अचलगढ ले पाई गई थीं। मंत्री कर्मचन्द्र अकबर से स्वीकृति लेकर सिरोही और आबू क्षेत्र की कई प्रतिमायें देहली से बीकानेर ले गया था। तीर्थ करों की प्रतिमानों के अतिरिक्त जीवन्त स्वामी की पीतलमयी प्रतिमायें बहुत ही प्रकाश में आई हैं। 10वीं शताब्दी की लेखयुक्त एक सुन्दर पत्थर की प्रतिमां सरदार म्युजियम जोधपुर में भी है। प्राचार्यों की प्रतिमायें 10 वीं शताब्दी से ही मिलनी शुरू हो जाती हैं। लेखयुक्त प्रतिमायें सांडे राव, देवकुल पाटक आदि कई स्थानों पर उपलब्ध हैं। प्राचार्यों की प्रतिमानों के स्थान पर चारण पादुकायें भी बनाई जाती थीं। जयपुर से 2 मील दूर पुराने घाट पर दिगम्बर प्राचार्यों से सम्बन्धित वि.सं. 1217 का शिलालेख हाल ही में मैने प्रकाशित कराया है। इसमें भी लेख के एक और चरण पादुका बनी है। इस लेख से ग्रामर और जयपुर क्षेत्र में दिगम्बर जैनों के 10 वीं शताब्दी में अस्तित्व होने की सूचना मिलती है। इन तियों के अतिरिक्त कई पट्ट, यन्त्र आदि भी लेखयुक्त मिलते हैं। अन्य देवियों के साथ सरस्वती देवी की उपासना जैनियों में विशेष रही प्रतीत होती है । चित्र कला में इसका अंकन बहुत ही अधिक है। मूर्तियों में पल्लु की जैन सरस्वती प्रतिमायें बड़ी प्रसिद्ध हैं। वि. सं. 1202 को लेखयुक्त सरस्वती प्रतिमा नरेणा के जंन Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 391 मन्दिर में है। इसी प्रकार वि. सं. 1219 की लेख युक्त प्रतिमा लाडनू के दिगम्बर जैन मन्दिर में है। इसी प्रकार जैन श्रेष्ठियों या उपासकों की मूर्तियां भी मिलती हैं। प्राब के विमलवसही के सभा मण्डप में वि. सं. 1378 में जीर्णोद्धार कराने वाले परिवार की प्रतिमायें बनी हई हैं। इसी मन्दिर में कुमारपाल के मंत्री कपर्दि के मां की प्रतिमा वि.सं. 1226 के लेख युक्त वहां लग रही है। व समसामयिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति के अध्ययन के लिये बहुत ही उपयोगी हैं। इनमें श्रेष्ठियों के वंशों का विस्तृत वर्णन, उनके पूर्वजों द्वारा समय-समय पर कराये गये धार्मिक कार्यों का विवरण आदि रहता है। श्रेष्ठियों के आगे भंडारी, व्यवहारी, महत्तर, मंत्री, श्रेष्ठ, शाह, ठक्कुर, गोष्ठिक, संघपति आदि कई शब्द भी मिलते हैं। आब के पित्तलहर मंदिर में वि. सं. 1225 के लेख में श्रेष्ठ रामदास को राजाधिराज उपाधि युक्त लिखा है। यह पदवी उसे गुजरात के सुल्तान द्वारा दी गई थी। गुजरात के सुल्तान ने चित्तौड़ के जैन श्रेष्ठि गुणराज को सन्मानित किया था । इन लेखों में खंडेलवाल, अग्रवाल, धर्कट, पोरवाल, पल्लीवाल,श्रीमाल, प्रोसवाल, बघेरवाल आदि के उल्लेख विशेष रूप से मिलते हैं। कुछ ब्राह्मणों द्वारा जैन प्रतिमायें बनाने के भी रोचक वतान्त मिलते हैं। डंगरपुर से 15वीं शताब्दी के कई श्रेष्ठियों ने विष्णु की प्रतिमाय बनाई थीं। मूर्तियों के लेखों से ही चन्द्रावती के व मंडोर के जैन श्रेष्ठियों आदि के बारे में जानकारी मिली है। ये लेख नहीं होते तो कवीन्द्र बन्धु यशोवीर, नागपुरिया, बाहडिया परिवार तथा देवकुल पाटक के जैन परिवारों के बारे में हमारे पास सूचना नहीं के बराबर होती। 5. निषेधिकाओं और कीर्तिस्तम्भी के लेख निषेधिकाओं और कीर्तिस्तम्भों के लेख अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। निषेधिकारों के प्राचीनतम लेख राजस्थान से सम्भवतः रूपनगढ से 10वीं शताब्दी के मिले हैं। 14वीं शताब्दी के बाद से ऐसे लेख अधिक संख्या में मिलते है। चितौड़ के पास गंगरार, सैणवा और बिजौलिया से जो लेख मिले हैं ये उल्लेखनीय है। इनमें प्राचार्य या आर्थिका जो मरग-समाधि लेती है उसका माम और उसके पूर्व-प्राचार्यों की परम्परा का उल्लेख रहता है। कीर्तिस्तम्भों के लेखों में वि. सं. 918 का घटियाला लेख और चित्तौड़ के जैन कोर्तिस्तम्भ सम्बन्धी शिलालेख उल्लेखनीय है। घटियाला का पूरा लेख प्राकृत में है और बहुत ही महत्वपूर्ण है। चित्तौड़ के कीर्तिस्तम्भ से सम्बन्धित 3 शिलालेख हाल ही में मैंने अनेकान्त में प्रकाशित कराये हैं। यह कीर्तिस्तम्भ 13 वीं शताब्दी में बघेरवाल श्रेष्ठ जीजा ने शुरु कराया था जिसकी प्रतिष्ठा उसके पुत्र पूर्णसिंह ने की थी। इसे माणस्तम्भ कहा गया है। इसी प्रकार पट्टावली स्तम्भ भी बनते हैं। वि. सं. 1706 का पट्टावली स्तम्भ लेखयुक्त चाकसू के जैन मन्दिर का आमेर में लग रहा है। शिलालेखों की विशेषताएं जैन लेखों की शैली भी उल्लेखनीय है। मन्दिर को प्रतिष्ठा में प्रायःप्रारम्भ में तीर्थंकरों की स्तुति, राजवंश वर्णन, वंश वर्णन आदि रहता है। मूर्ति लेख इससे कुछ भिन्न होते हैं। इनमें संवत् और उसके बाद श्रेष्ठि वर्ग का नाम और उसके वश का वर्णन, उसके बाद बिम्ब का उल्लेख और प्रतिष्ठा करने वाले साधु का प्रायः वर्णन रहता है। इन लेखों से जैन धर्म को जो राज्याश्रय मिला उसकी पूर्ण सूचना मिलती है। वि.सं. 1372 और 1373 के महारावललका के और वि.सं. 1506 के महाराणा कुम्भा के लेखों से सूचित होता है कि आबू पर आने वाले यात्रियों से लिये जाने वाले करों की छुट थी। बरकाणा के जैन मन्दिर में महाराजा जगतसिंह प्रथम और जगतसिंह द्वितीय के शिलालेख में इसी प्रकार वहां लगने वाले मेले के लिये कुछ विशेष रियायतें देने के उल्लेख हैं । केसरियाजी के मन्दिर के बाहर भी कई सुस्पष्ट लेख लग रहे है जिनमें 2 भीलों और मेवाड़ के महाराणा के मध्य समझौते की प्रतिलिपि खदी हई है। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन लेखन कला -भंवरलाल नाहटा गजरात की यह कहावत सर्वथा सत्य है कि सरस्वती का पीहर जैनों के यहां है। भगवान ऋषभदेव ही मानव संस्कृति के जनक थे, उन्होंने ही परम्परागत युगलिक धर्म को हटाकर कर्मभूमि के असि, मसि और कृषि लक्षण को सार्थक किया। समस्त ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के वे प्रथम शिक्षक आदि पुरुष होने से उन्हें आदिनाथ कहा जाता है। सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लेखन-कला लिपिविज्ञान सिखाया, इसी से उसका नाम ब्राह्मी लिपि पड़ा। आवश्यक नियुक्ति भाष्य गाथा 13 में "लेहं लिवी विहाणं जिणेण बंभीइ दाहिण करेण” लिखा है एवं पंचमांग भगवती सूत्र में भी सर्वप्रथम 'नमो बंभीए लिवीए' लिखकर अठारह लिपियों में प्रधान ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया है। बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तरा में 64 लिपियों के नाम हैं जिनमें भी प्रथम ब्राह्मी और खरोष्टी का उल्लेख है। बायीं ओर से दाहिनी ओर लिखी जाने वाली समस्त लिपियों का विकास ब्राह्मी लिपि सेहआ है। दाहिनी ओर से बायीं ओर लिखी जाने वाली लिपि खरोष्टी है और उसी से अरबी, फारसी, उर्दू आदि भाषाए निकली है। चीनी भाषा के बौद्ध विश्वकोश के अनुसार ब्रह्मा और खरोष्ट भारत में हुए हैं और उन्होंने देवलोक से लिपियां प्राप्त की तथा ऊपर से नीचे खत्री लिखी जाने वाली लिपि संको है जो चीन के अधिवासी त्संकी ने पक्षियों आदि के चरण चिन्हों से निर्माण की थी। यद्यपि भगवान ऋषभदेव को असंख्य वर्ष हो गए और लिपियों का उसी रूप मे रहना असंभव है और न हमारे पास उस विकास क्रम को कालावधि मे पाबद्ध करने वाले साधन ही उपलब्ध है। वर्तमान लिपियों का सम्बन्ध ढाई हजार वर्षों की प्राप्त लिपियों से जुड़ता है। यों मोहन-जोदडो और हडप्पा आदि की संस्कृत में पाच हजार वर्ष को लिपियां प्राप्त हुई हैं तथा राजगह एवं वाराणसी के अभिलेख जिसे विद्वानों ने “शंख लिपि" का नाम दिया है, पर अद्यावधि उन लिपियों को पढ़ने में पुरातत्वविद् और लिपि विज्ञान के पण्डित भी अपने को अक्षम पाते हैं। ब्राह्मी लिपि नाम से प्रसिद्ध लिपि का क्रमिक विकास होता रहा और उसी विकास का वर्तमान रूप अपने-अपने देशों व प्रान्तों की जलवायु के अनुसार विकसित वर्तमान भाषा-लिपियां हैं। खरोष्टी लिपि 'सैमेटिक वर्ग' की है और उसका प्रचा।कारी शती पर्यन्त पंजाब में था और उसके बाद वह लुप्त हो गई । पन्नवणा सूत्र में कुल लिपियों के नामोल्लेख के अतिरिक्त समवायाग सुरू के 18वे समवाय में अठारह लिपियों के नाम एवं विशेषावश्यक टीका के अठारह लिपि नामों में कुछ अन्तर पाया जाता है। जो भी हो हमें यहां जैन लेखन कला और उसके विकास पर प्रकाश डालना अभीष्ट है। भगवान् महावीर की वाणी को गणधरों ने ग्रथित को तथा भगवान पार्श्वनाथ के शासा का वाङमय जो मिल-जुलकर एक हो गया था विशेषत: मौखिक रूप में ही निग्रंथ परम्परा में चला आता रहा । आचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने वीर निर्वाण संवत् 980 में वल्लभी में आगमों को ग्रन्थारूढ लिपिबद्ध किया तब से लेखन-कला का अधिकाधिक विकास प्रा । आः पूर्व कथंचित् आगम लिखाने का उल्लेख सम्राट खारवेल के अभिलेख में पाया जाता है एवं अनुयोगद्वार सूत्र में पुस्तक पनारूढ श्रुत को द्रव्य-श्रुत माना है पर अधिकांश आगम मौखिक ही रहते थे, लिखित Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 391 प्रागमों का प्रचलन नहीं था, क्योंकि श्रमण वर्ग अधिकतर जंगल, उद्यान और गिरिकन्दराओं में निवास करते और पुस्तकों को परिग्रह के रूप में मानते थे। इतना ही नहीं, वे संग्रह करना असंभव और प्रायश्चित योग्य मानते थे, निशीथ भाष्य, कल्प भाष्य, दशवकालिक चणि में इसका स्पष्ट उल्लेख है। परन्तु पंचम काल के प्रभाव से क्रमशः स्मरण शक्ति का ह्रास हो जाने से श्रुत साहित्य को ग्रन्थारूढ करना अनिवार्य हो गया था। अतः श्रुतधर प्राचार्य ने समस्त संघ समवाय में श्रुतज्ञान की वृद्धि के लिए ग्रन्थारूढ करने की स्वीकृति को संयम व द्धि का कारण मान्य किया और उसी सन्दर्भ में ग्रन्थ व लेखन सामग्री का संग्रह व विकास होने लगा। लिपि और लेखन उपादान : श्रुत लेखन में लिपि का प्राधान्य है । जैनाचार्यों ने भगवती सूत्र के प्रारम्भ में 'नमो बंभीए लिवीए' द्वारा भारत की प्रधान ब्राह्मी लिपि को स्वीकार किया। इसी से नागरी शारदा, ठाकरी, गुरुमुखी, नेवारी, बंगला, उड़िया, तेलगु, तामिल, कन्नडी, राजस्थानी, गुप्त, कूटिल, गजराती, महाजनी और तिब्बती आदि का क्रमिक विकास हुआ। उत्तर भारत के ग्रन्थों में देवनागरी लिपि का सार्वभौम प्रचार हुआ। स्थापत्य लेखों के लिए अधिकतर पाषाण शिलाफलकों का उपयोग हुआ। कहीं-कहीं काष्ठ-पट्टिका और भित्ति लेख भी लिखे गये पर उनका स्थायित्व अल्प होने से उल्लेख योग्य नहीं रहा। दान-पत्रादि के लिये ताम्र धातु का उपयोग प्रचुरता से होता था, पर ग्रन्थों के लिए ताडपत्र, भोजपत्र और कागज का उपयोग अधिक हया । यों काष्ठ के पतले फलक एवं लाक्षा के लेप द्वारा निर्मित फलकों पर लिखे ग्रन्थ भी मिलते है जिनका सम्बन्ध ब्रह्म देश से था । जैन ग्रन्थ लिखने में पहले ताडपत्र और बाद में कागज का उपयोग प्रचुरता से होने लगा। ग्रन्थ लेखन में वस्त्रों का उपयोग भी कभी-कभी होता था, परन्तु पत्राकार तो पाटण भण्डारस्थ सं. 1410 की धर्म विधि आदि की प्रति के अलावा टिप्पणाकार एवं चित्रपट आदि में प्रचुर परिमाण में उसका उपयोग होना पाया जाता है। हमारे संग्रह में ऐसे कई ग्रन्थादि हैं। ताडपत्र और वस्त्र पर ग्रन्थ लेखन का उल्लेख अनुयोग चूणि तथा टीका पुस्तक लेखन के साधन : जैनागम यद्यपि गणधर व पूर्वधर आचार्यों द्वारा रचित हैं। इनका लेखनकाल विक्रम सं.500निर्णीत है। उपांग सुत्न राजप्रश्नीय में देवताओं के पढने के सत्र का जो वर्णन पाता है व समृद्धि पूर्ण होते हुए भी तत्कालीन लेखन सामग्री और ग्रन्थ के प्रारूप का सुन्दर प्रतिनिधित्व करता है। इस सूत्र में लिखा है कि पुस्तक-रत्न के सभी साधन स्वर्ण और रत्नमय होते हैं। यतः 'तस्स णं पोत्थ रयणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णते, तं जहा रयणमयाइ पत्तगाई, रिटामई कंबियाओ, तवणिज्जमए दोरे, नाणामणिमए गंठी, वेरुलिय-मणिमए लिप्पासणे, रिटामए छंदणे, तवणिज्जमई संकला, रिट्ठामई मसी, वइरामई लेहणी, रिट्ठामयाई अक्खराइं, घम्मिए सत्थे ।' (पृष्ठ 96) प्रस्तुत उल्लेख में लेखन कला से सम्बन्धित पत्र, कांबिका, डोरा, ग्रन्थि-गांठ, लिप्यासनदवात. छंदणय(ढक्कन), सांकल, मषी-स्याही और लेखनी साधन हैं। ये-1-जिस रूप में ग्रन्थ लिखे जाते थे, 2-लिखने के लिए जो उपादान होता, 3-जिस स्याही का उपयोग होता और, -लिखित ग्रन्थों को कैसे रखा जाता था, इन बातों का विवरण है। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 पत्र:-जिस पर ग्रन्थ लिखे जावें उसे पत्र या पन्ना कहते हैं । पत्र-वक्ष के पत्ते ताडपत्र, भोज पत्रादि का और बाद में कागज का उपयोग होता था, पर बांधने आदि के साधन से विदित होता है कि वे पत्ते अलग अलग खुले होते थे। कंबिका:-ताडपत्रीय ग्रन्थ के संरक्षण के लिए रखी जाने वाली काष्ठपट्टिका को आगे कांबी कहा जाता था। आजकल जो बाद की बनी हुई कांबिका प्रयोग में आती है वह बांस, लकडी, हाथीदांत आदि की चीप होती है, जिस पर हाथ रखने से पन्नों पर पसीने के दाग आदि न लगें। रेखा खींचने के लिए भी उसका उपयोग होता व कुछ चौड़ी पट्टियों पर पत्र रखकर पढने के उपयोग में भी आती थीं। डोरा:-ताडपत्रीय ग्रन्थों के पन्ने चौड़ाई में संकडे और लम्बाई में अधिक होने से वे एक दूसरे से संलग्न न रहकर अस्त-व्यस्त हो जाते हैं , इसलिए उन्हें व्यवस्थित रखने के लिए बीच में छेदकर बांध देना अनिवार्य था। बांधने के लिए डोरे का प्रयोग होता और उस लंबे डोरे को फिर कसकर बांध देते जिससे वह दोनों पुट्ठों-काष्ठफलकों के बीच कसा हया सुरक्षित रहता। ताडपत्रीय ग्रन्थों के पश्चात् जब कागजों पर लिखने की प्रथा हो गई तो भी उसके मध्य में छेद करके डोरा पिरोया जाता। वह अनावश्यक होने पर भी ताडपत्रीय पद्धति कायम रही और मध्य भाग में चौरस या वृत्ताकार रिक्त स्थान छोड दिया जाता था। यह प्रथा उन्नीसवीं शती तक चलती रही। फिर भले ही उसमें अलंकरण का रूप ताडपत्रीय ग्रन्थों की स्मति रूढिमात्र रही हो। ग्रन्थिः-ताडपत्रीय पुस्तक में डोरा पिरोने के बाद वे निकल न जाएं तथा ग्रन्थ नष्ट न हो जाए इसलिए हाथीदांत, सीप, काष्ठ आदि के चपटे वाशर लगाए जाते थे जिसे ग्रंथी कहते थे। लिप्यासन:-शब्दार्थ के अनुसार तो इसका अर्थ लेखन के उपादान कागज, ताडपत्रादि होता है परन्तु प्राचार्य मलयगिरि ने इसका अर्थ मषि-भाजन अर्थात् दवात किया है। गुजरात में खडिया कहते हैं, राजस्थान में विज्जासणा कहते थे । कविवर समयसुन्दरजी ने मर्जी शब्द का प्रयोग किया है, पर सबका प्राशय इंकपोट ( Ink-pot) से है। विज्जासणा-विद्यासन और मजीसणां-मषीप्रासन, मषीभाजन से बना प्रतीत होता है। छंदण और सांकल:-दवात के ऊपर ढक्कन जो लगाया जाता है उसे छंदण (पाच्छादन) कहते हैं तथा उसे सम्बन्धित रखने वाली सांकल होती है जो दवात से ढक्कन को संलग्न रखती है परानी पीतल आदि की भारी भरकम शिखरबद्ध ढक्कनवाली दवातें आज भी कहीं-कहीं देखने को मिलती है । मषी:--अक्षरों को साकार रूप देने वाली मषी-स्याही है। मषी शब्द कज्जल का द्योतक है जो काली स्याही का उपयोग सूचित करता है। रायपसेणी सूत्र का 'रिटठामई मसी' और अक्षर रिष्ट रत्न के श्याम वर्ण होने से उसी का समर्थन करते है। आजकल दूसरे सभी रंगों के साथ काली स्याही शब्द प्रयोग में आता है। ए लेखनी:-जिसके द्वारा शास्त्र लिखे जाएं उसे लेखनी कहते हैं। साधारणतया कलम ही लिखने के काम में आती थी पर दक्षिण भारत, उडीसा और बर्मा की लिपियों को ताडपत्र पर लिखने के लिए लोह लेखनी का आज भी उपयोग होता है पर कागज और उत्तर भारत के ताडपत्रादि पर लिखने वाली कलम का ही यहां प्राशय समझना चाहिए। यों बंगाल आदि में पक्षियों की पांख से भी लिखा जाता है। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 395 लेखन उपादान के प्रकारान्तर : जैसे आजकल छोटी-बड़ी विविध प्रकार की पुस्तकें होती हैं उसी प्रकार प्राचीन काल में 'वविध आकार-प्रकार की पुस्तकें होने के उल्लेख दशवेकालिक सूत्र की हरिभद्रीय टीका, निशीथचूर्ण, वृहत्कल्पसूत्रवृत्ति आदि में पाये जाते हैं। यहां उनका संक्षिप्त परिचय दिया जाता है: गंडी पुस्तक:-चौड़ाई और मोटाई में समान किन्तु विविध लंबाई वाली ताडपत्रीय पुस्तक को गंडी कहते हैं । इस पद्धति के कागज के ग्रन्थों का भी इसी में समावेश होता है । कच्छपी पुस्तक:- जिस पुस्तक के दोनों किनारे संकडे तथा मध्य में कछुए की भांति मोटाई हो उसे कच्छपी पुस्तक कहते हैं । यह आकार कागज के गुटकों में तो देखा जाता है पर ताडपत्रीय ग्रन्थों में नहीं देखा जाता । मुष्टि पुस्तकः - जो पुस्तक चार अंगुल लम्बी और गोल हो, मुट्ठी में रख सकने योग्य पुस्तक को मुष्टि पुस्तक कहते हैं । छोटी-मोटी टिप्पणकाकार पुस्तकें व ग्राज की डायरी का इसी में समावेश हो जाता है । संपुट फलक :- व्यवहार पीटिका गा. 6 की टीका व निशीथ चूर्णि के अनुसार काष्ठफलक पर लिखे जाने वाले पुस्तक को कहते हैं । विविध यंत्र, नक्शे, समवसरणादि चित्रों को जो काष्ठ संपुट में लिखे जाएं वे इसी प्रकार में समाविष्ट होते हैं । छेद पाटी :- थोड़े पन्नों वाली पुस्तक को कहते थे, जिस प्रकार आज कागजों पर लिखी पुस्तकें मिलती हैं । उनकी लम्बाई का कोई प्रतिबन्ध नहीं, पर मोटाई कम हुआ करती थी । उपर्युक्त सभी प्रकार विक्रम की सातवीं शताब्दी तक के लिखित प्रमाण से बतलाए हैं। जब कि उस काल की लिखी हुई एक भी पुस्तक ग्राज उपलब्ध नहीं है । वर्तमान में जितने भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, पिछले एक हजार वर्षों तक के प्राचीन हैं। अतः इस काल की लेखन सामग्री पर प्रकाश डाला जा रहा है । लिप्यासन: - लेखन उपादान, लेखनपात्र - ताडपत्र, वस्त्र, कागज इत्यादि । जैसा कि ऊपर बतलाया है राजप्रश्नीय सूत्र में इसका अर्थ मषीभाजन रूप में लिया पर यहां ताडपत्र, वस्त्र, कागज, काष्ठपट्टिका, भोजपत्र, ताम्रपत्र, रौप्यपत्र, सुवर्णपत्र, पत्थर यादि का समावेश करते हैं । गुजरात, राजस्थान, कच्छ और दक्षिण में स्थित ज्ञान भण्डारों में जो भी ताडपत्रीय ग्रन्थ उपलब्ध हैं, तेरहवीं शती से पूर्व ताडपत्र पर ही लिखे मिलते हैं । बाद 'कागज का प्रचार अधिक हो जाने से उसे भी अपनाया गया । मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी के समय विक्रम सं. 1204 का 'ध्वन्यालोकलोचन' ग्रन्थ उपलब्ध है, पर टिकाऊ होने के नाते ताडपत्र हो अधिक प्रयुक्त होते थे । महाराजा कुमारपाल और वस्तुपाल तेजपाल के समय में भी कुछ ग्रन्थ कागज पर लिखे गए थे, फिर भी भारत की जलवायु में अधिक प्राचीन ग्रन्थ टिक न रह सकते थे, जबकि जापान में तथा यारकन्द नगर के दक्षिण 60 मील पर स्थित कुगियर स्थान से भारतीय लिपि के चार ग्रन्थ वेबर साहब को मिले, जिन्हें ईसा की पांचवीं शती का माना जाता है । ताडपत्रीय ग्रन्थों में सबसे प्राचीन एक त्रुटित नाटक की प्रति का 'भारतीय प्राचीन लिपि माला' में उल्लेख किया है जो दूसरी शताब्दी के आसपास की मानी गई है । ताडपत्रों में खास करके श्रीताल के पत्र का उपयोग किया जाता था । कुमारपाल प्रबन्ध के अनुसार श्रीताल दुर्लभ हो जाने से कागज का प्रचार हो गया । पाटण भण्डार के एक विकीर्ण ताडपत्र के उल्लेखानुसार एक पत्र का मूल्य छः ग्राना पड़ता था । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 वस्त्र पर लिखे ग्रन्थों में धर्मविधि प्रकरण वृत्ति , कच्छूली रास और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र (अष्टम पर्व) की प्रति पत्राकार पायी जाती है जो 25X5 इंच की लम्बी चौड़ी है परन्तु लोकनालिका, अढाई द्वीप, जम्बद्वीप, नवपद, ह्रींकार, घण्टाकर्ण, पंचतीर्थापट आदि के वस्त्रपट चित्र प्रचर परिमाण में पाये जाते हैं। सिद्धाचलजी के पट तो आज भी बनते हैं और प्राचीन भी ज्ञान भण्डारों में बहत से हैं। जम्बद्वीप आदि के पटों में सबसे बड़ा पट कलकत्ता जैन मन्दिर में है जो 16-16 फट माप का है। टिप्पणकाकार में बने कर्मप्रकृति, बारह व्रत टीप, अनान पूर्वी, शत्रजंय यात्रांपट प्रादि एक दो फट से लेकर 30-30 फट जितने लम्बे पाए जाते हैं। पाटण भण्डार का संग्रहणी टिप्पणक सं. 1453 का लिखा हया 166X111 इंच का है। पन्द्रहवीं शताब्दी तक के प्राचीन कई पंचतीर्थी पट भी पाए गए हैं। भोजपत्र पर बौद्ध और वैदिक लोग अधिकांश लिखा करते थे, जैन ग्रन्थ अद्यावधि एक भी भोजपत्र पर लिखा नहीं मिलता। हां, यति लोगों ने पिछले दो-तीन सौ वर्षों में मंत्र-तंत्र-यंत्रों में उसका उपयोग भले किया हो। बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद व संयुक्तागम अवश्य ही भोजपत्र पर लिखे दुसरी से चौथी शताब्दी के माने गए हैं। शिलापट्ट पर लिखे जनेतर नाटकादि अनेक ग्रन्थ पाए जाते हैं पर जैन ग्रन्थों में उन्नतिशिखर पुराण सं. 1226 का लिखा हा वीजोल्या में है। श्री जिनवल्लभसूरिजी ने चित्रकूटीय प्रशस्ति प्रादि ग्रन्थ खुदवा कर मन्दिरों में लगवाये थे। इसके सिवा मन्दिरों के प्रतिष्ठा लेख, विस्तृत श्लोकबद्ध प्रशस्ति काव्य, कल्याणक पट, तप पट्टिका, स्थविरावली पट्टक, लोकनाल, ढाई द्वीप, शतदलपद्म यंत्र पट्टक, समवशरण पट्ट, नंदीश्वर पट्ट, शत्रुजय गिरनारादि पट्ट प्रचुर परिमाण में बने पाए जाते हैं। बीसवीं शताब्दी में सागरानन्दसूरिजी ने पालीताना एवं सूरत के आगम मन्दिरों में सभी आगम मार्बल एवं ताम्रपट्टों पर लिखवा दिए हैं तथा वर्तमान में समयसारादि दिगम्बर ग्रन्थ भी लिखवाए जा रहे हैं । ताम्रपत्र, रौप्यपत्र, स्वर्णपत्र , कांस्यपत्र, पंचधातु पत्रादि का प्रयोग अधिकांश मंत्र और यन्त्र लेखन में हुआ है। राजाओं के दानपत्र ताम्रपत्रों पर लिखे जाते थे। जैन शैली में नवपद यंत्र, विशतिस्थानक यंत्र, घण्टाकर्ण, ऋषिमण्डल आदि विविध प्रकार के यन्त्र आज भी लिखे जाते हैं और मन्दिरों में पाए जाते हैं। ताम्रपत्र पर ग्रन्थ लेखन का उल्लेख वसुदेवहिण्डी जैसे प्राचीन ग्रन्थ में पाया जाता है। सूरत के प्रागम-मन्दिर में ताम्र पर शास्त्र लिखाए गए हैं। बौद्धों ने हाथी दांत आदि का उपयोग ग्रन्थ लेखन में किया है, पर जैनों में उसके कांबी, ग्रन्थी, दाबड़ा एवं स्थापनाचार्य (ठवणी) रूप में किया है, पर ग्रन्थ लेखन में नहीं। इसी प्रकार से चमड़े के सम्बन्ध में समझना चाहिए। ग्रन्थों के पूठे, पटड़ी, दाबड़े आदि में उसका उपयोग हुआ है पर ग्रन्थ-लेखन में नहीं । वृक्ष की छाल का उपयोग जैनेतर ग्रन्थों में प्राप्त हुआ है। अगुरु छाल पर सं . 770 में लिखी हुई ब्रह्मवैवर्त पुराण की प्रति बड़ौदा के ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट में है। हमारे संग्रह में कुछ बंगला लिपि के ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें लकड़ी के फलक का उपयोग हुआ है तथा उनके पूठे वृक्ष की छाल व बांस पट्टी के बने हुए हैं। जैन ग्रन्थों में ऐसे उपादानों का उपयोग नहीं हुआ है। ताड़पत्र:-ये ताल या ताड़ वृक्ष के पत्ते हैं। ताड़ वृक्ष दो प्रकार के होते हैं (1) खरताड़ और (2) श्रीताड। खरताड़ के पत्ते लम्बाई और चौड़ाई में छोटे और चटक जाने पाल अल्पायु के होते हैं अतः इनका उपयोग ग्रन्थ लेखन में नहीं होता। श्रीताड़ के वृक्ष मद्रास, Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 397 ब्रह्मदेश आदि में होते हैं जिसके पत्ते बड़े चिकने, लचीले और टिकाऊ होते हैं। ये ताड़पत्र ग्रन्थ-लेखन में काम आते हैं। इन्हें प्रौढ हो जाने पर सीधे करके एक साथ जमीन में डाल कर सुखाए जाते हैं जिससे इनका रस धप के साथ न उड कर उसी में रहता है और कोमलता प्रा जाती है। ये पत्ते लम्बाई में 37 इंच तक के मिलते हैं। पाटण के भण्डार की प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रति 37 इंच लम्बी है । कागजः--इसे संस्कृत में कागद या कदगल नाम से और गजराती में कागल नाम से सम्बोधित किया है। जैसे आजकल विविध प्रकार के कागजाते हैं, प्राचीन काल में भी भिन्न-भिन्न देशों में बने विविध प्रकार के मोटे पतले कागज होते थे। काश्मीर, दिल्ली, बिहार, वाड, उत्तर प्रदेश (कानपर) गजरात (अहमदाबाद). खंभात, देवगिरि (कागजापुरा), उड़ीसा (बालासोर) प्रादि के विविध जाति के कागजों में विशेषतः काश्मीरी, कानपुरा, अहमदाबादी व्यवहार में आते हैं। काश्मीरी कागज सर्वोत्तम होते हैं। प्राचीन ज्ञान भण्डारा में प्राप्त 14वीं, 15वीं शताब्दी के कागज आज के से बने हए लगते हैं पर 18वीं, 19वीं शताब्दी के कागजों में टिकाऊपन कम है। मिल के कागज तो बहुत कम वर्ष टिक पाते हैं। कागज काटनाः---आजकल की भांति इच्छित माप के कागज न बनकर प्राचीन काल में बने छोटे-मोटे कागजों को पेपर कटिंग मशीनों के अभाव में अपनी आवश्यकतानुसार काटना होता था और उन्हें बांस या लोहे की चीपों में देकर हाथ से काटा जाता था। घोटाई:--ग्रन्थ लेखन योग्य देशी कागजों को घोटाई करके काम में लेते थे जिससे उनके अक्षर फटते नहीं थे। यदि बरसात की सील से पॉलिश उतर जाती तो उन्हें फिर से घोटाई करनी होती थी। कागजों को फिटकड़ी के जल में डुबो कर अधसूखा होने पर अकीक, कसौटी आदि के घंटे-अोपणी से घोट कर लिखने के उपयक्त कर लिए जाते थे । अाजकल के मिल कारखानों के निर्मित कागज लिखने के काम नहीं आते। वे दीखने में सुन्दर और चमकदार होने पर भी शीघ्र गल जाते हैं । वस्त्रपट:--कपड़े पर यन्त्र, टिप्पण आदि लिखने के लिए उसे गेहूं या चावल की लेई द्वारा छिद्र बन्द होने पर, सुखाकर के घोटाई कर लेते । जिस पर चित्र, यंत्र, ग्रन्थादि सुगमता से लिखे जा सकते थे । पाटण भण्डार के वस्त्र पर लिखित ग्रन्थ खादी को दुहरा चिपका कर लिखा हुआ है। टिप्पणक:-जन्म कुण्डली, अणुपुर्वी, विज्ञप्ति-पत्र, बारहव्रतटीप आदि Serole कागज के लीरों को चिपका करके तैयार करते तथा कपड़े के लम्बे थान में वे आवश्यकतानुसार बना कर उसके साथ चिपका कर या खाली कागज पर लिखे जाते थे, जिन पर किए हुए चित्रादि सौ-सौ फीट लम्बे तक के पाए जाते हैं। काष्ठ पट्टिका:-काष्ठ की पट्टियां कई प्रकार की होती थीं। काष्ठ की पट्टियों को रंग कर उस पर वर्णमाला आदि लिखी हुई 'बोरखा पाटी' पर अक्षर सीखने-जमाने में काम लेते थे । खड़ी मिट्टी के घोल से उस पर लिखा जाता था तथा ग्रन्थ निर्माण के कच्चे खरड़े भी पाटियों पर लिखे जाते थे। उत्तराध्ययन वृत्ति (सं. 1129) को नेमिचन्द्राचार्य ने पद्रिका पर लिखा था जिसे सर्वदेव गणि ने पूस्तकारूढ़ किया था। खोतान प्रदेश में खरोष्टी लिपि में लिखित कई प्राचीन काष्ठ पट्टिकाएं प्राप्त हुई हैं। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 लेखनी:-आजकल लेखन कार्य फाउण्टेनपैन, डॉटपेन आदि द्वारा होने लगा है पर प्रागे होल्डर, पैन्सिल आदि का अधिक प्रचार था। इससे पूर्व बांस, बेंत, दालचीनी के अण्ट इत्यादि से लिखा जाता था। आजकल उसकी प्रथा अल्प रह गई है, पर हस्तलिखित ग्रन्थों को लिखने में आज भी कलम का उपयोग होता है। कागज, ताडपत्र पर लिखने के उपयुक्त ये लेखनियां थीं, पर कर्नाटक, सिंहल, उत्कल, ब्रह्मदेशादि में जहां उत्कीणित करके लिखा जाता है वहां लोहे की लेखनी प्रयुक्त होती थी। कागजों पर यंत्र व लाइनें बनाने के लिए जजवल का प्रयोग किया जाता था जो लोहे के चिमटे के आकार की होती थी। लोह लेखनी में दोनों तरफ ये भी लगे रहते थे। आजकल के होल्डर की निबें इसी का विकसित रूप कहा जा सकता है। कलमों के घिस जाने पर उसे चाक से पतला कर लिया जाता था तथा बीच में खड़ा चीरा देने से स्याही उसमें से उतर पाने में सुविधा होती है। निबों में यह प्रथा कलम के चीरे का ही रूप है। लेखनियों के शभाशभ कई प्रकार के गण दोषों को बताने वाले श्लोक पाए जाते हैं जिनमें उनकी लम्बाई, रंग, गांठ आदि से ब्राह्मणादि वर्ण, पाय, धन, संतानादि हानि वद्धि आदि के फलाफल लिखे हैं। उनकी परीक्षा पद्धति, ताडपत्रीय यग की पुस्तकों से चली पा रही है। रत्न-परीक्षा में रत्नों के श्वेत, पीत, लाल और काले रंग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र की भांति लेखनी के भी वर्ण समझना चाहिए। इसका कैसे उपयोग व किस प्रकार करना, इसका पुराना विधान तत्कालीन विश्वास व प्रथानों पर प्रकाश डालता है। वतरणा:--लेखनी-कलम की भांति यह शब्द भी लिखने के साधन का द्योतक है । लिपि को लिप्यासन पर 'अवतरण' करने के संस्कृत शब्द से यह शब्द बनना संभव है। काठ की पाटी जिसे तेलिया पाटी कहते थे, धुल डाल कर लिखने का साधन वतरणा था। फिर स्लेट की पाटी पर व टीन व गत्ते की पाटी पर लिखने की स्लेट पंसिल को भी भाषा में वतरणा कहते हैं। ललितविस्तर के लिपिशाला संदर्शन परिवर्त में 'वर्णातिरक' शब्द से वतरणा बनने का कुछ लोग अनुमान करते हैं । जुजवल:--इस विषय में ऊपर लेखनी के संदर्भ में लिखा जा चुका है। इसका स्वतंत्र अस्तित्व था और संस्कृत 'युगबल' शब्द से इसकी व्युत्पत्ति संभव है। यह चिमटे के आकार की दोनों ओर लगी लेखनी वाली लोह लेखनी थी। पुराने लहिये इसका प्रयोग लेखन समय में हांसिया आदि की लाल लकीरें खींचने में किया करते थे। प्राकार:--चित्रपट, यंत्र आदि लेखन में गोल प्राकृति बनाने में आजकल के कम्पास की भांति प्रयोग में आता था। विविध शिल्पी लोग भी इसका उपयोग करते हैं। मोलिया फांटिया:-कागज की प्रतियां लिखते समय सीधी लकीरें जिसके प्रयोग में पाती है वह गुजरात में पोलिया व राजस्थान में फांटिया कहलाता है। लकड़ी के फलक या गत्त के मजबूत पूठे पर छेद कर मजबत सीधी डोरी छोटे-बड़े अक्षरों के चौड़े-संकड़े अन्तरानुसार उभय पक्ष में कसकर बांध दी जाती है और उस पर इमली, चांवल या रंग-रोगन लगाकर तैयार किये फांटिये पर कागज को रख कर अंगलियों द्वारा टान कर लकीर चिन्हित कर ली जाती है। ताडपत्रीय प्रतियों पर फांटिये का उपयोग न होकर छोटी-सी बिन्द सीधी लकीर पाने के लिए कर दी जाती थी। श्रावकातिचार में लेखन-ज्ञानोपकरण में इसे अोलिया लिखा है। राजस्थान में आजकल कागज के लम्बे टकड़ों को पोलिया कहते हैं जिस पर चिट्ठी लिखी जाती है। कंबिका:--ताडपत्रीय लेखनोपकरण के प्रसंग में ऊपर कांबी के विषय में बतलाया जा चुका है। आजकल फट की भांति चपटी होने से माप करके हांसिये की लकीर खींचने व ऊपर अंगुलियां रख कर लिखने के प्रयोग में आने वाला यह उपकरण है। यह बांस, हाथीदांत या चन्दन काष्ठादिक की होती है । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 399 लिपि की स्वरूप शिका--स्याही या रंग :-पुस्तक लिखने के अनेक प्रकार के रंग या स्याही में काला रंग प्रधान है। सोना, चांदी और लाल स्याही से भी प्रन्थ लिखे जाते हैं पर सोना, चांदी की महयता के कारण उसका प्रयोग अत्यल्प परिमाण में ही विशिष्ट शास्त्र लेखन में श्रीमन्तों द्वारा होता था। लाल रंग का प्रयोग बीच-बीच में प्रकरण समाप्ति व हांसिए की रेखा में तथा चित्रादि अालेखन में सभी रंगों का प्रयोग होता था। एक दूसरे रंग के मिश्रण द्वारा कई रंग तैयार हो जाते हैं। पूर्व काल में ताड़पत्र, कागज आदि पर लेखन हेतु किस प्रकार स्याही बनती थी? इस पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जाता है। ताड़-पत्न काष्ठ की जाति है, जब कि कागज व वस्त्र उससे भिन्न है। अतः प्रकति भिन्नता के कारण तदनकल स्याही की रासायनिक विधि भिन्न होना स्वाभाविक है। आजकल ताड़-पत्र लेखन प्रचलित न होने से उसकी स्याही का स्वरूप प्राचीन उल्लेखों पर आधारित है । प्रथम प्रकारः--कांटोसेरिया (धमासा), जल भांगरा का रस, त्रिफला, कसीस, लोहचूर्ण को उकाल कर, क्वाथ बना कर, गली के रस को बराबर परिमाण में मिला कर, काजल व बीजाबोल मिलाने से ताड-पत्न लेखन-योग्य स्याही बनती है। इन्हें तांबे की कढ़ाई में घोट कर एक रस कर लेना चाहिए। द्वितीय प्रकार:--काजल, पोयण, बीजाबोल, भूमितला, जलभांगरा और पारे को उबलते हुए पानी में मिला कर, तांबे की कढाई में सात दिन तक घोट कर एक रस कर लेना। फिर उसकी बड़ियां बना लेना। उन्हें कट कर रखें। फिर जब आवश्यक हो उन्हें गरम पानी में खूब मसल कर स्याही कर लेना। तुतीय प्रकार:--कोरे काजल को मिट्टी के कोरे सिकोरे में अंगुली से मसल कर उसकी चिकनाई मिटा देना। थोड़े से गोमत्र में भिगो देने से भी चिकनास मिट जाती है। फिर उसे निब या खैर के गंद के साथ बीमारस में भिगो कर खब घोटना। फिर बड़ी सुखा कर ऊपर की भांति करना । चतुर्थ प्रकार:--गूद, नींब के गूद से दुगना बीजाबोल, उससे दुगुना काजल (तिल के तेल से पाड़ा हुआ) को घोट कर गोमूत्र के साथ आंच देना, पात्र ताम्र का होना चाहिए। सूखने पर थोड़ा-थोड़ा पानी देते रहें व पांच तोला एक दिन परिमाण से घोट कर लोद, साजीखार युक्त लाक्षारस मिलाना। गोमन में धोये भीलामा चूंटा के नीचे लगाना। फिर काले भांगर के रस के साथ मर्दन करने से उत्तम स्याही बनती है। . पंचम प्रकार:-ब्रह्मदेश, कर्णाटक, उल्कलादि देशों में ताड़पत्र लोहे की सूई से को कर लिखे जाते हैं। उनमें अक्षरों में काला रंग लाने के लिए नारियल की टोपसी या बादा के छिलकों को जला कर, तेल में मिला कर लगा देना। पोंछने से ताड़-पत्न साफ हो जाएगा अक्षरों में कालापन आ जायेगा । कागज और कपड़ों पर लिखने योग्य काली स्याही : जितना काजल उतना बोल, तेथी दणा गंद झकोल । जो रस भांगरा नो पड़े, तो अक्षरे अक्षरे दीवा बले ॥ काजल से आधा गूंद, गूंद से आधा बीजाबोल, लाक्षारस, बीयारस के स तांबे के भाजन में मर्दन करने से काली स्याही होती है। . Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 (3) बीमाबोल अनइ लक्खारस, कज्जल वज्जल नइ अंबारस ॥ भोजराज मिसी निपाई। पानउ फाटइ मिसी नवि जाई ॥ लाख टांक बीस मेल , स्वाग टांक पांच मेल , नीर टांक दो सौ लेई हांडी में चढ़ाइये। जो लौं प्राग दीजे तो लौं और खार सब लीजे, लोद खार बाल वाल पीस के रखाइये। मीठा तेल दीप जार काजल सोले उतार, नीकी विधि पिछानी के ऐसे ही बनाइये। चाहक चतुर नर लिख के अनुप ग्रन्थ, बांच बांच बांच रिझरिझ मौज पाइये । स्याही पक्की करने की विधि:--लाख चोखी या चीपड़ी पैसा 6, तीन सेर पानी में डालना, सूहागा पैसा 2 डालना, लोद पैसा 3, पानी तीन पाव, फिर काजल पैसा 1 घोट के सुखा देना । फिर शीतल जल में भिगो कर स्याही पक्की कर लेना। काजल 6 टांक, बीजाबोल 12 टांक, खेर का गूद 36 टांक, अफीम आधा टांक, अलता पोथी 3 टांक, फिटकड़ी कच्ची on टांक, नीम के घोटे से 7 दिन ताम्रपात्र में घोटना । इन सभी प्रकारों में प्रथम प्रकार उपयोगी और सुसाध्य है। कपड़े के टिप्पणक के लिए बीजाबोल से दुगुना गूद, गूंद से दुगुनी काजल मिली स्याही दो प्रहर मर्दन करने से वज्रवत् हो जाती है। सुन्दर और टिकाऊ पुस्तक लेखन के लिए कागज की श्रेष्ठता जितनी आवश्यक है उतनी ही स्याही की भी है। अन्यथा प्रमाणोपेत विधिवत् न बनी हुई स्याही के पदार्थ रसायनिक विकृति द्वारा कागज को गला देती है, चिपका देती है, जर्जर कर देती है। एक ही प्रति के कई पन्ने अच्छी स्थिति में होते हैं और कुछ पन्ने जर्जरित हो जाते हैं, इसमें लहिया लोगों की अज्ञानता से या प्रादतन गाढ़ी स्याही करने के लिए लोह चर्ण, बीयारस आदि डाल देते हैं जिससे पुस्तक काली पड़ जाती है, विकृत हो जाती है। सुनहरी रूपहली स्याही: सोना और चांदी की स्याही बनाने के लिए वर्क को खरल में डाल कर धव के गंद के स्वच्छ जल के साथ खब घोटते जाना चाहिए। बारीक चूर्ण हो जाने पर मिश्री का पानी डाल कर खब हिलाना चाहिए। स्वर्ण चूर्ण नीचे बैठ जाने से पानी को धीरे-धीरे निकाल देना चाहिए। तीन चार बार धु लाई पर गूंद निकल जाएगा और सुनहरी या रूपहली स्याही तैयार हो जाएगी। लाल स्याही: गिल को खरल में मिश्री के पानी के साथ खुब घोट कर ऊपर पाते हुए पीलास लिए हए पानी को निकाल देना। इस तरह दस पन्द्रह बार करने से पीलास निकल कर श.द्ध लाल रंग हो जाएगा। फिर उसे मिश्री और गूंद के पानी के साथ घोट कर एकरस कर लेना। फिर सूखा कर टिकड़ी की हुई स्याही को आवश्यकतानुसार पानी में घोल कर काम में लेना चाहिए। मिश्री के पानी की अपेक्षा नींबू का रस प्रयुक्त करना अधिक उपयोगी है। प्रष्टगन्ध: अगर, तगर, गोरोचन, कस्तूरी, रक्त चन्दन, चन्दन, सिंदूर और केशर के मिश्रण से अष्ट Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 401 गन्ध बनता है। कपूर, कस्तूरी, गोरोचन, सिंगरफ, केशर, चन्दन, अगर, गेहूंला से भी अष्टगन्ध बनाया जाता है । यक्षकईम : चन्दन, केशर, अगर, बरास, कस्तूरी, मरजकंकाल, गोरोचन, हिगुल, रतजन, सुनहरे वर्क और अंबर के मिश्रण से यक्षकर्दम बनता है। अष्टगन्ध और यक्ष कर्दम गुलाब जल के साथ घोटते हैं और इनका उपयोग मंत्र यंत्र तंत्रादि लिखने में, पूजा प्रतिष्ठादि में काम आता है। मषी-स्याही शब्द काले रंग की स्याही का द्योतक होने पर भी हर रंग के साथ इसक वचन प्रयोग-रूढ़ हो गया। लाल स्याही, सुनहरी स्याही, हरी स्याही प्रादि इसा प्रकार बंगाल में लाल काली, ब्लकाली आदि कहते हैं। स्याही और काली शब्द ये हरेक रंग वा की स्वरूप दर्शिका के लिए प्रयुक्त होते हैं। चित्रकला के रंग : सचित्र पुस्तक लेखन में चित्र बनाने के लिए ऊपर लिखित काले, लाल, सनतो रूपहले रंगों के अतिरिक्त हरताल और सफेदा का भी उपयोग होता था। दया भी विधि है। हरताल और हिगुल मिलाने पर नारंगी रंग, हिंगुल और सफेदा मिलाने गलाबी रंग, हरताल और काली स्याही मिल कर नीला रंग बनता था। (1) सफेदा 4 टांक व पेवड़ो 1 टांक व सिंदूर || टोक से गौर वर्ण । (2) सिदर 4 टांक व पोथी गली 1 टांक से खारिक रग । (3) हरनाल 1 टांक व गली प्राधा टांक से नीला रंग । (4) सफेदा 1 टांक व अलता प्राधा टांक से गलाबी रंग। (5) सफेदा 1 टांक व गली 1 टांक से पासमानी रंग । (6) सिंदर 1 टांक व पवडी प्राधा टांकरा नारंगा रंग होता है। हस्तलिखित ग्रन्थ पर चित्र बनाने के लिए इन रगो के साथ गाद का स्वच्छ जल मिला जाता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न चित्रकला के याग्य रंगों के निर्माण की विधि प्रयोग पुराने पत्रों में लिख पाये जाते है। जैन लिपि की परम्परा भगवान महावीर का विहार अधिकाश विहार प्रान्त (अग-मगध-faia बंगाल और उत्तर प्रदेश महा था। अत: व अद्धमागधी भाषा में उपदेश देते का सम्बन्ध मगध से अधिक था। जैनागमों की भाषा प्राकृत है, दिगम्बर साहित्य सौरसेनी प्राकृत में और श्वेताम्बर अागम महाराष्ट्री प्राकृत म है। जिस प्रकार अन्य भाri पाक से अपभ्रंश के माध्यम स हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती आदि हुई, इसी प्रकार बंगला नाषा और लिपि का उदगम प्राकृतरा हा है। मगध से पड़ी मात्रा का प्रयोग बंगला में गया। जब पाय लेनोन श्रमण संघ दक्षिण और पश्चिम देशों में चला गया, परन्तु अपनी लिपि गत कटिल और देवनागरी के विकास मब्राह्मी-देवनागरी मनाही-बगला का प्रभाव नेता गा| गटी कारण है कि सेकडो वर्षों तक पड़ी मात्रा का जनों में प्रचलन रहा। बंगला Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 लिपी में आज भी पड़ी मात्रा है। अतः प्राचीन जैन लिपि के अभ्यासी के लिए बंगला लिपि का ज्ञान बड़ा सहायक है। जिस प्रकार ब्राह्मी-देवनागरी लिपि में जलवाय-देशपद्धति और शिक्षक द्वारा प्रस्तुत अक्षर जमाने के उपकरणों की लिपि विविधता, रुचि-भिन्नता के अन्यान्य मरोड़ के कारण अनेक रूपों में प्रान्तीय लिपियां विभक्त हो गई, उसी प्रकार जैन लिपि में भी यतियों की लिपि, खरतरगच्छीय लिपि, मारवाड़ी लहियों की लिपि, गुजराती लहियों की लिपि-परम्परा पायी जाती है। कोई गोल अक्षर, कोई खड़े अक्षर, कोई बैठे अक्षर, कोई हलन्त की भांति पूंछ वाले अक्षर, तो कोई कलात्मक अलंकृताक्षर, कोई टुकड़े-टुकड़े रूप में लिखे व कोई घसीटवें अक्षर लिखने के अभ्यस्त थे। एक ही, शताब्दी के लिए ब्राह्मण, कायस्थादि की लिपि में तो जैन लिपि से महद अन्तर है ही परन्तु जैन लिपि में भी लेखनकाल निर्णय करने में बहुत सावधानी और सतर्कता आवश्यक है। लेखन सौष्ठव : सीधी लकीर में सघन गोल, एक दूसरे से अलग्न, शीर्ष-मात्रादि अखण्ड एक जैसे, न खाली, न भीड़-भाड़ वाले अक्षर लिखने वाले लेखक भी आदर्श और उनकी लिपि भी ग्रादर्श कहलाती है। जैन शैली में इस ओर विशेष ध्यान दिया है जिससे पिछली शताब्दियों में क्रमशः लेखनकला विकसित होती गई थी। लिपि का माप:--फाटिये द्वारा यथेच्छ एक माप की पंक्तियों में लगभग तृतीयांश या इससे कम-बेश अन्तर रख कर एक समान सून्दर अक्षरों से प्रतियां लिखी जाती थी जिससे अक्षर गणना करने वाले को सुविधा रहती और अक्षर भी सरल, सुवाच्य और नयनाभिराम लगते थे । पडो मात्रा:--ब्राह्मी लिपि से जब वर्तमान लिपियों का विकास हया, मात्राए सूक्ष्म रूप में प्रथवा स्वर संलग्न सकेत से लिखी जाती थीं। व अपना बड़ा रूप धारण करने लगी और वतमान में अक्षर व्यजन के चतूदिक लिखी जाने लगी। पष्ठि मात्रा, अपमात्रा, उध्वंमात्रा में "उ.ऊ' की अग्रमावा 'रु,रू' के अतिरिक्त अधोमात्रा का रूप धारण कर लिया। पष्ठि मात्रा में हस्व इकारान्त संकेत के अतिरिक्त उर्ध्व और अग्रमात्रा बन गई है, जैसे के कै.को,कौ। जब कि प्राचीन काल में बंगला लिपि की भांति काकाकाको लिखे जाते थे. दीर्घ ईकार का संकेत अपरिवर्तित ही रहा। संयक्ताक्षर एवं मात्राओं के प्रयोग के कारण अक्षरो के माप में अन्तर या जाना स्वाभाविक था, अस्तु । पड़ी मात्रा लिखने की पद्धति प्रायः सतरहवीं शताब्दी के पश्चात् लुप्त हो गई । जैन लेखक : जैन साहित्य के परिशीलन से विदित होता है कि जैन विद्वानों-श्रतधरों ने जो विशाल साहित्य रचना की उन्हें वे पहले काष्ठपट्टिका पर लिख कर फिर ताडपत्र, कागज ग्रादि पर उतारते थे। श्री देवभद्राचार्य ने जिस काठोत्कीण पट्टिका पर महावीर चरित्र, पार्श्वनाथ चरित्रादि लिखे थे वे उन्होंने सोमचन्द्र मुनि (श्री जिनदत्तसूरिजी) को भेंट किए थे। अतः इन वस्तुओं का बड़ा महत्व था। ग्रन्थकार अपने महान् ग्रन्थों को स्वयं लिखते या अपने प्राज्ञांकित शिप्य वर्ग से प्रथमादर्श पुस्तिका लिखवाते, जिनका उल्लेख कितने ही ग्रन्थों की प्रशस्तियों में पाया जाता है। मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, स्थिरचन्द्र', ब्रह्मदत्त आदि की लिखित प्रतियां आज भी उपलब्ध हैं। श्री जिनभद्रसूरि, कमलसंयमोपाध्याय, यगप्रधान श्री Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 403 जिनचन्द्रसूरि, समयसुन्दरोपाध्याय, गुणविनयोपाध्याय, यशोविजय उपाध्याय, विनयविजय, नयविजय, कोतिविजय, जिनहर्षगणि, क्षमाकल्याणोपाध्याय, ज्ञानसार गणि आदि बहसंख्यक विद्वानों के स्वयं हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं। जैन यति-मुनियों, साध्वियों आदि के अतिरिक्त श्रीमन्त श्रावकों द्वारा लहिया लोगों से लिखवाई हुई बहुत सी प्रतियां हैं। इस प्रकार जैन ज्ञान भण्डारों में लाखों प्राचीन ग्रन्थ अाज भी विद्यमान हैं। पुस्तकों के लिपिक लहिए कायस्थ, ब्राह्मण, नागर, महात्मा, भोजक आदि जाति के होते थे, जिनका पेशा ही लिखने का था और उन सैकड़ों परिवारों की आजीविका जैनाचार्यों व जैन श्रीमन्तों के आश्रय से चलती थी। वे जैन लिपि व लेखन पद्धति के परम्परागत अभिज्ञ थे और जैन लहिया-जैन लेखक कहलाने में अपना गौरव समझते थे। महाराजा श्रीहर्ष, सिद्धराज जयसिंह, राजा भोज, महाराणा कुम्भा आदि विद्याविलासी नरेश्वरों को छोड़ कर एक जैन जाति ही ऐसी थी जिसके एक-एक व्यक्ति ने ज्ञान भण्डारों के लिए लाखों रुपये लगा कर अद्वितीय ज्ञानोपासना-श्रतभक्ति की है। लाखों ग्रन्थों के नष्ट हो जाने व विदेश चले जाने पर भी आज जो ग्रन्थ भण्डार जैनों के पास हैं वे बड़े गौरव की वस्तु है। ज्ञान पंचमी का पाराधन एवं सात क्षेत्रों में तथा स्वतन्त्र ज्ञान द्रव्य की मान्यता से इस ओर पर्याप्त ज्ञान सेवा समद्ध हई। साध- यतिजनों को स्वाध्याय करना अनिवार्य है। श्रुत-लेखन स्वाध्याय है और इसीलिए इतने ग्रन्थ मिलते हैं। आज मुद्रण युग में भी सुन्दर लिपि में ग्रन्थ लिखवा कर रखने की परिपाटी कितने ही जैनाचार्य मुनिगण निभाते पा रहे हैं। तेरापन्थी श्रमणों में आज भी लेखन कला उन्नत देखी जाती है क्योंकि उनमें हस्तलिखित ग्रन्थ लिखने और वर्ष में अमक परिमाण में लेखन-स्वाध्याय की पूर्ति करना अनिवार्य है। लेखक के गुण-दोष : लेख पद्धति के अनसार लेखक सुन्दर अक्षर लिखने वाला, अनेक लिपियों का अभिज्ञ, शास्त्रज्ञ और मर्वभाषा विशारद होना चाहिए, ताकि वह ग्रन्थ को शुद्ध अविकल लिख सके । मेधावी, वाक्पट, धैर्यवान्, जितेन्द्रिय, अव्यसनी, स्वपरशास्त्रज्ञ और हलके हाथ से लिखने वाला सुलेखक है। जो लेखक स्याही गिरा देता हो, लेखनी तोड़ देता हो, आमपास की जमीन बिगाड़ता हो. दवात में कलम इबोते समय उसकी नोक तोड़ देता हो वह अपलक्षणी और कूट लेखक बतलाया गया है। लेखक की साधन समग्री: ग्रन्थ लेखन के हेतु पीतल के कलमदान और एक विशिष्ट प्रकार के लकड़ी या कटे के कलमदानों-लेखन मामनी का संग्रह रहता था। हमारे संग्रह में ऐसा एक गचित्र कटे का कलमदान है जिस पर दक्षिणी गोली से सुन्दर कृष्णलीला का चित्रांकन किया हया है। एक मादे कलमदाल में पुरानी लेखन मामग्री का भी संग्रह है। यह लेखन सामग्री विविध प्रकार की होती थी जिसका वर्णन ऊपर किया जा च का है। एक श्लोक में 'क' अक्षर वाली 17 बयों की सूची. उल्लिखित है:-- कंपी (दवात), (2) काजल (माही). (3) के (मिर के बाल या रेशम), (4) ऋग-दर्भ, (5) कम्बल, (6) कांबी, ( कलम, (3) कृपाणिका, (क). !) कतारनी (कैची), (10) काठपदिका, (11) नागज, (12) का-यांख, (13) कोटड़ी (कम), (14) कलमदान, (15) माण-पैर, (16) कटि-कमर, प्रौर (17) कंकड़ । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 इनमें ग्रांख, पैर और कमर की मजबती आवश्यक है। बैठने के लिए कंबल-दर्भासन व कोठरी-कमरा के अतिरिक्त अवशिष्ट स्टेशनरी-लेखन सामग्री है । लहिये लोग विविध प्रकार के पासनों में व विविध प्रकार से कलम पकड़ कर या प्रतियां रख कर लिखने के अभ्यस्त होने से अपने लेखनानकल कलम का पर व्यक्ति को देने में माते थे। अतः पुस्तकों की पुप्पिका के साथ निम्न सुभाषित लिख दिया करते थे:--- लेखिनी पुस्तिका रामा परहस्ते गता गता । कदाचित पुनरायाता लष्टा भ्रष्टा च धर्षिता (या चम्बिता) । लखन विराम: लिखते समय यदि छोड़ कर उठना पड़े तो वे अपने विश्वास के अन सार ‘घ झट ड़ त प ब ल व श' अक्षर लिखते छोड़ कर या अलग कागज पर लिख के उठते हैं। अवशिष्ट अक्षर लिखते उठ जाने पर उन्हें पुस्तक के कट जाने, जन्त खा जाने तथा नष्ट हो जाने के विविध संदेह हते थे। इन विश्वासों का वास्तविकता में क्या सम्बना है? कहा नहीं जा सकता। नातक की निर्दोषता :: जिस प्रकार ग्रन्थकार अपनी रचना में हुई स्खलना के लिए क्षमा प्रार्थी बनता है वैसे ही लखक अपनी परिस्थिति और निर्दोषता प्रकट करने वाले शलाक लिखा है-- यादशं पुस्तके दष्ट तादश लिखित मया । यदि शमशुद्ध वा मम दोषो न दीयते ।। भग्नपाठ-कटिग्रीवा-बक्रदष्टिरधोमखम् । काप्टेन लिखितं शारत्रं यत्नेन परिपालयेत ।। बद्धमष्टि-कटिग्रीवा--चक्रप्टिरधामखम । काटेन लिखितं शास्वं यत्नन पतिपालयेत् ॥ इत्यादि । भ्रांतिमूलक अशुद्धियां : प्राचीन प्रतियों की नकल करते समय लिपि अल्पज्ञता से या भ्रांत पठन से, अक्षराकृति माम्प या संयुक्ताक्षरों की दुरुहता से अनेकश: अशद्ध परम्परा चल पड़ती थी। एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, मिलते-जुलते अणद्ध वाक्यों का शुद्ध करने जाते नवीन पाठान्तरों की सृष्टि हामाती, जिमका संशाधन विभीनमवी विज्ञान मंणोधक के हाथों में पड़ने पर ही संभव होता। का 'त्थ' और 'स्थ' का 'क' ही जाना तानामली वाल थी। ग्रन्थ लेखनारंभ : भारतीय संस्कृति में न केवल ग्रन्थ रलना में ही विन्तु ग्रन्थ लेखन के समय नहिय लोग सर्वप्रथम मंगलाचरण करते थे, यह चिरपरिपाटी है। जंगलखक "ॐ नमः, ऐ गम..ना Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 405 जिनाय, नमः श्री गरुभ्यः, नमो वीतरागाय, जयत्यनेकान्तकण्ठीरवः, ॐ नमः सरस्वत्ये, ॐ न सर्वज्ञाय, नमः श्रीसिद्धार्थसुताय" इत्यादि अपने देव, गुरु, धर्म, इष्टदेव के नाम मंगल के निमित्त लिखते थे। जैन मंगलाचरण का सार्वत्रिक प्रचार न केवल भारत में ही, चीन, तिब्बत तक में लिखे ग्रन्थों में कातन्त्र व्याकरण का 'ॐनमः सिद्धं' प्रचुरता से प्रचलित हुया था। प्राचीन लिपियों के प्रारम्भिक मंगल-चिन्ह शिलालेखों में, ताडपत्रीय ग्रन्थों में व परम्परा से चलते हुए अर्थ न समझने पर भी रूढ़ हो गए थे। ब्राह्मी लिपि के ॐकार, ऐंकार सहस्राब्दी पर्यन्त चलते रहे और आज भी ग्रन्थ लेखन के प्रारम्भ में उन्हीं विविध रूपों को लिखने की परम्परा चल रही है। भारतीय प्राचीन लिपि माला एवं प्राचीन शिलालेखों व ग्रन्थों से उन मंगलचिन्हों का विकास चारुतया परिलक्षित होता है। राजस्थान में सर्वत्र कातन्त्र व्याकरण का प्रथम अपभ्रष्ट पाठ बड़े ही मनोरंजक रूप में बच्चों को रटाया जाता था। लेखकों की ग्रन्थ लेखन समाप्ति : ग्रन्थ लेखन समाप्त होने पर ग्रन्थ की परिसमाप्ति सूचन करने के पश्चात् लेखन संवत् पूर्णिपका लिख कर "शुभंभवतु, कल्याणमस्तु, मंगल महा श्रीः, लेखक-पाठकयोः शुभंभवतु, शुभं भवतु संघस्य, आदि वाक्य लिख कर ॥छः।। ब।। प्राकृतियां लिखा करते थे जो पूर्णकुम्भ जैसे संकेत होने का मुनि श्री पुण्यविजयजी ने अनुमान किया है। और भी प्राचीन ग्रन्थों में विभिन्न चिन्ह और अक्षरों पर गेरु आदि लाल रंग से रंजित ग्रन्थों के अन्तिम पत्र पाये जाते हैं। गन्थ के अध्ययन, खण्ड, उद्देश्य, सर्ग, परिच्छेद, उच्छवास, लंभक, काण्ड आदि की परिसमाप्ति पर सहज ध्यान आकृष्ट करने के हेतु भी इन चिन्हों का उपयोग किया जाता था। लेखकों द्वारा अंक प्रयोग : यद्यपि ग्रन्थ की पत्र संख्या प्रादि लिखने के लिए अंकों का प्रयोग प्राचीन काल से होता पाया है, पर साथ-साथ रोमन लिपि की भांति , I,III, IV, V आदि सांकेतिक अंक प्रणाली भी नागरी लिपि में प्रचलित थी, जिसके संकेत अपने ढंग के अलग थे। ताडपत्रीय ग्रन्थों में और उसके पश्चात् कागज के ग्रन्थों में भी इसका उपयोग किये जाने की प्रथा थी। पत्र के दाहिनी पोर अक्षरात्मक अंक संकेत व बायीं तरफ अंक लिखे रहते थे। यह पद्धति जैन छेद अागमों, चूणियों में एक जैसे पाठों में प्रायश्चित्त व भांगों के लिए भी प्रयुक्त हुई है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत जीतकल्पसूत्र के भाष्य में सूत्र की मल गाथाओं के अक अक्षरात्मक अंकों में दिए हैं। इस पद्धति के ज्ञान बिना मूल प्रति की नकल करने वालों द्वारा भयंकर भूल हो जाने की संभावना है। इस प्रथा का एक दुसरा रूप नेवारी ग्रन्थों में देखा गया है। बात यह है कि श्री मोतीचन्दजी खजान्ची के संग्रह की एक प्रति को जब 1900 वर्ष प्राचीन बताया गया नो असंभव होते हुए भी मैंने स्वयं उसे देखना चाहा। प्रति देखने पर राज खला कि संवत् वाला अंक 1 बंगला लिपि का 7 था जो कि पत्रांकों पर दी हुई उभयपक्ष की संख्या से समर्थित हो गया। इस प्रकार 600 वर्ष का अन्तर निकल गया और नेवारी संवत् व विक्रम संवत का अंक निकालने पर उसकी यथार्थ मिती बतला कर भ्रांति मिटा दी गई। अस्तु । हमें जैन लखकों द्वारा अक्षरात्मक अंक संकेतों का समीचीन ज्ञान प्राप्त करने के हेतु चमकी तालिका जान लेना यावश्यक समझ कर यहां दी जा रही है। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ = १, 3. स, छ,श्री.श्री २ = २, न, लि,नि श्री.श्री ३ - ३.मः,श्री, श्री श्री ४- कककका ,कों क, का, क, क्रा, ए, ५० सईई), तान, नाजानी हावी. ६- फ..फा,,मार्क,फ्राओ, फ फफ, यर. ७ .ग्रा या की बातो. ( उट Pra Errrr95 । ० २ = छ, धा. ३- ल, ला. ५%Cc... से. ६च्च स्त, सं. ई. . ४.६३, oso, यहां इकाई, दहाई और सैकड़ों की संख्या लिखने के समय पथक-पथक अंक दिए गा। हैं। पत्रांक लिखने में उनका उगो प्रकार उपयोग होता है ताकि संख्या का मही प्राकलन किया जा सके। चाल अंक सीधी लाइन में लिखे जाते हैं, परन्तु नाड़पत्रीय व उमी शैली के कागज के ग्रन्थों का पत्रांक देते समय पर नीचे लिखने की प्रथा थी। जैन छेद सूत्र यादिव भाष्य, चूणि, विशेष चणि, टीका ग्रादि में अक्षरांक सीधी पंक्ति में ही लिखे गए हैं। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 407 उपयुक्त तालिका के अनुसार इकाई, दहाई और सैकड़ों के अंक का उपयोग इस प्रकार किया जाता था:-- . + १. फोantert० १२, , 5 H४०, ७० , १ ४५, e; (५०, bh५४ ६५८ ६५४ : g co.. ४.००.६ ७२. १७५.५.७७ ०.१८८.४.४०,४ ४७. ०४: 300, प ४७ 99." ०० ..do, से मा सोला स्ले तोर + 38. ६४७, थुEEN: ०७००, 2 ७२२, ७४७. ७७ यह ताडपत्रीय पत्रांक लेखन पद्धति कागज पर लिखे ग्रन्थों पर चली पाती थी किन्तु कई कागज की प्रतियों में इकाई, दहाई, सैकड़ों के संकेत न व्यवहृत कर केवल इकाई अक्षरांकों का भी व्यवहार हुआ है । यतः-- स्व 10, इत्यादि स्ति 20, एक 40, स्व100, स्व स्व115, 0 ल एक400, स्व स्ति 1240 एक 1 त्रिशती नामक गणित विषयक संग्रह ग्रन्थ में जैन "के" रूप में एक से दस हजार तक के अक्षरांक लिखे हैं। उपयुक्त तालिका में पाये हुए एक से तीन सौ तक के अंकों के पश्चात् अधिक की तालिका यहां दी जाती है : "स्तू 400, स्ते 500, रते 600, स्ता 700, स्तिो 800, स्तं 900,स्त: 1000, क्षु 2001 क्ष 3000,क्षा 4000, क्ष 5000, पक्ष 6000, क्षिा 7000, क्षो 8000,क्ष9000, क्षः10001 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 इति गणितसंख्या जैनाङ्कानां समाप्ता। इन अक्षरात्मक अंकों की उत्पत्ति की प्रादि कैसे हुई ? यह बता सकना कठिन है, पर प्रारम्भ के दो तीन अक्षरों के लिए लिखे जाते स्व, स्वि, स्ति, श्री अथवा ऊं नमः या श्री श्री श्री ये मंगलीक के लिए प्रयवत अक्षरों से प्रारम्भ हुअा विदित होता है। आगे के संकेतों का वास्तविक बीज क्या है? शोधकर वास्तविक निर्णय में अब तक विद्वानों की कल्पना सफल नहीं हो सकी है। शुन्यांक : जैन छेद आगमों की चूणि में जहां मास, लघु मास, गुरु, चतुर्लघु ,चतुर्गुरु, षड्लघु, षड्गुरु प्रायश्चित के संकेत लिखे हैं वहां उस संख्या का निदेश एक,चार, छ: शून्य के द्वारा किया गया है। यत: ., 00 .. 000 000, 00 .., ००० इस प्रकार खाली शून्य लघुता सूचक और काले भरे शून्य गुरुत्व सूचक हैं। शब्वात्मक अंक: जैनागम सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययनादि में वैदिक ग्रन्थों एवं ज्योतिष छंदादि विविध विषयक ग्रन्थों में, शिलालेखों, ग्रन्थ प्रशस्तियों व पुष्पिकानों में शब्दांकों का प्रयोग प्राचीन काल से चला पाता है। कुछ सार्वजनिक और कुछ सांप्रदायिक, पारिभाषिक, धार्मिक, व्यावज स्त यों के भेद की संख्या के आधार पर रूढ शब्दांकों का बिना भेद भाव से ग्रन्थकारों. कवियों और लेखकों ने उन्म क्त प्रयोग किया है, जिसकी तालिका बहुत बडी तैयार हो सकती है। यहां जिस-जिस अंक के लिए जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है उसे दिया जा रहा है : 0 शून्य, बिन्दू, रन्ध्र, ख, छिद्र, पूर्ण, गगन, आकाश, वियत्, व्योम, नभ, अभ्र, अन्तरिक्ष, अम्बरादि । 1. कलि, रूप, आदि, पितामह, नायक, तनु, शशि, विधु, इन्दु, चन्द्र, शीतांशु, शीतरश्मि, सितरुच, हिमकर, सोम, शशांक, सुधांशु, निशेश, निशाकर,क्षपाकर, औषधीश, दाक्षायणी प्राणेश, अब्ज (चन्द्रवाचक अन्य शब्द भी),भू, भूमि, क्षिति, क्षमा, धरा, वसुधा, वसुन्धरा उर्वरा, गा. पथवी, धरणी, इला, कु, मही (पृथ्वी वाचक अन्य शब्द भी) जैवाकृत इत्यादि। 2. यम, यमल, युगल, द्वंद्व, युग्म, द्वय, पक्ष, अश्विन, नासत्य, दम, लोचन, नेत्र, नयन इक्षण, अक्षि.दष्टि, चक्ष, (नेत्र वाचक अन्य शब्द भी) कर्ण, श्रुति, श्रोत्र, कान वाचक शब्द, बाह, कर, हस्त, पाणी, दोष, भुज, (हाथ वाचक शब्द समूह), कर्ण, कूच, पोष्ठ गल्फ, जान, जंघा, (शरीर के यग्म अवयव वाचक अन्य शब्द), अयन, कुटुम्ब, रविचन्द्री इत्यादि। 3. राम, त्रिपदी, त्रिकाल, त्रिगत, त्रिनेत्र, लोक, जगत, भवन, (विश्व वाचक शब्द समह), गण, काल, सहोदरा, अनल, अग्नि, वह्नि, ज्वलन, पावक,वैश्वानर, दहन, तपन, हताशन, शिखिन, कृशानु, (अग्नि वाचक अन्य शब्द समूह), तत्व, त्रैत, होत, शक्ति, पुष्कर, संध्या, ब्रह्मा, वर्ण, स्वर,पुरुष, वचन, अर्थ, गुप्ति इत्यादि। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 409 4. वेद, श्रुति, समुद्र, सागर, अब्धि, जलधि, जलनिधि, वाधि, नीरधि, नीर, निधि, वारिधि, वारिनिधि, उदधि, अम्बुधि, अम्बुनिधि, अंभोधि, अर्णव (समुद्रवाचक अन्य शब्द भी), केन्द्र, वर्ण, पाश्रम, युग, तुर्य, कृत, अय, प्राय, दिश (दिशा), बन्धु, कोष्ठ, ध्यान, गति, संज्ञा, कषाय इत्यादि। 5. बाण, शर, सायक, इषु, (बाण वाचक शब्द), भूत, महाभूत, प्राण, इन्द्रिय, अक्ष, विषय, तत्व, पर्व, पाण्डव, अर्थ, वर्म, व्रत, समिति, कामगुण, शरीर, अनुत्तर, महाव्रत, इत्यादि। ___6. रस, अंग, काय, ऋतु, मासार्ध, दर्शन,राग, अरि, शास्त्र,तर्क, कारक, समास, लेश्या, क्षमाखण्ड, गुण, गुहक, गुहवक्त्र इत्यादि । 7. नग, अग, भूभृत, पर्वत, शैल, अद्रि, गिरि, (पर्वत वाचक शब्दावली), ऋषि, मुनि, अत्रि, वार, स्वर, धातु, अश्व, तुरग, वाह, हय, वाजिन (अश्व वाचक शब्द), छंद, धी, कलत्र, भय, सागर, जलधि (समुद्र वाचक शब्द समूह) लोक इत्यादि। 8. वसू, अहि, सा, (सर्प वाचक अन्य शब्द भी), नागेन्द्र, नाग, गज, दन्तिन, दिग्गज, हस्तिन, मांतग, करि, कुंजर, द्विप, करटिन्, (हस्ति वाचक शब्द), तक्ष, सिद्धि, भूति, अनुष्टब, मंगल, मद, प्रभावक, कर्मन्, धी गुण, बुद्धि गुण, सिद्ध गुण इत्यादि। 9. अंक, नन्द, निधि, ग्रह, खग, हरि, नारद, रंध्र, ख, द्रि, गो, पवन, तत्व, ब्रह्मगुप्ति, ब्रह्मवृत्ति, ग्रेवेयक इत्यादि । 10. दिश, (दिशा, आशा, ककुभ, दिशा, वाचक शब्द) , अंगुली, पंक्ति, रावणशिरस, अवतार, कर्मन्, यतिधर्म, श्रमणधर्म, प्राण इत्यादि । 11. रुद्र, ईश्वर, हर, ईश, भव, भर्ग, शूलिन्, महादेव, 'शुपति, शिव, (महादे' वाचक शब्द), अक्षौहणी इत्यादि । 12. रवि, सूर्य, अर्क, मार्तण्ड, धुमणि, भानु, आदित्य, दिवाकर, दिनकर, उष्णांशु, इन, (सूर्य वाचक शब्दावली), मास, राशि, व्यय, चक्रिन्, भावना, भिक्षु,प्रतिमा, यति प्रतिमा इत्यादि । __13. विश्व, विश्वदेवा, वाम, अतिजगती, अघोष, क्रिय स्थान, यक्ष इत्यादि । 14. मनु , विद्या, इन्द्र, शक्र, वासव, (इन्द्र वाचक शब्द) लोक, भुवन, विश्व, रत्न, गुणस्थान, पूर्व, भूतग्राम, रज्जु इत्यादि। 15. तिथि, घस्र, दिन, अहन्, दिवस, (दिवस वाचक शब्द) पक्ष, परमाधार्मिक इत्यादि। 16. नृप, भूप, भूपति, अष्टि, कला, इन्दुकला, शशिकला इत्यादि । 17. अत्यष्ठि। 18. धृति, अब्रह्म, पापस्थानक इत्यादि। 19. अतिघुति। 20. नख, कृति इत्यादि। 21. उत्कृति, प्रकृति, स्वर्ग। 22. कृश, जाति, परीषह इत्यादि । 23. विकृति । 24. गायत्री, जिन, अहंन् इत्यादि। 25. तत्व। 27. नक्षत्र, उडु,भ । 32. दंत, रद, इत्यादि। 33. देव, अमर, त्रिदश, सुर इत्यादि । 40. नरक। 48. जगती। 49. तान। 64. स्त्री कला। 72. पुरुष कला । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 यहां दी गई शब्द सूची में कितनी ही वैकल्पिक हैं, अतः किस प्रसंग प्रयोग में कौन सा चालू अंक लेना है यह विचारणीय रहता है । रंध्र, ख और छिद्र का उपयोग शून्य के लिए हुआ है और नौ के लिए भी हुआ है। गो एक के लिए व नौ के लिए भी व्यवह त हुआ है । पक्ष दो के लिए व पन्द्रह के लिये भी व्यवहृत हुआ है । इसी प्रकार श्रुति दो के लिये व चार के लिये, लोक और भुवन तीन, सात और चौदह के लिए, गुण शब्द तोन और छ: के लिए, तत्व तीन, पांच, नौ और पच्चीस के लिए, समुद्र वाचक शब्द चार और सात के लिए तथा विश्व तीन, तेरह और चौहद के लिए व्यवहृत देखने में आते हैं। पुस्तक लेखन ताडपत्रीय ग्रन्थ:-छोटे साइज के ताडपत्त्रीय ग्रन्थ को दो विभाग ( कॉलम) में एवं लम्बे पत्रों पर तीन कालम में लिखा जाता था । विभाग के उभय पक्ष में एक डेढ इन्च का हांसिया (मार्जिन) रखा जाता था। बीच के हांसिया में छिद्र करके डोरा पिरोया जाता था ताकि पत्र अस्त व्यस्त न हो । पत्र के दाहिनी ओर अक्षरात्मक पत्रांक एवं बायीं तरफ अंकात्मक पत्रांक लिखे जाते थे । कितनी ही प्रतियों में उभय पक्ष में एक ही प्रकार के अंक लिखे मिलते हैं । बीच में छिद्र करने के स्थान में तथा कई प्रतियों में किनारे के हांसिये में भी हिंगुली का बड़ा टीका (अंगूठे से किया जाता था । विभागीय लेख के उभय पक्ष में सुन्दरता के लिए बोर्डर या दो तीन खड़ी लकीरें खींच दी जाती थीं । ताडपत्र के पत्ते चौड़े-संकड़े होते थे, अतः कहीं अधिक व कहीं कम पंक्तियां सम विषम रूप में हो जाती थीं । लिखते-लिखते जहां पत्र संकडा हो जाता था, पंक्ति को शेष करके चन्द्र (स्टार) आदि प्रकृति चिन्हित कर दी जाती थी । अन्त और प्रारम्भ जहां से होता वैसा ही चिन्ह संकेत सम्बन्ध मिलाने में सहायक होता था । ܐܕ पुस्तक लेखन प्रारम्भ में 'दो पाई, भले मीडा' के बाद जिन, गणधर, गुरु, इष्टदेव, सरस्वती आदि के सूचक नमस्कार लिखा जाता और जहां श्रुतस्कन्ध, सर्ग, खण्ड, लभक, उच्छ्वास आदि की पूर्णाहूति होती वहां ॥ छ ॥ एवं समाप्ति सूचक अन्य चिन्ह लिखकर कुछ खाली जगह छोड़ कर उसी प्रकार नमस्कारादि सह आगे का विभाग चालू हो जाता। कहीं-कहीं ग्रन्थ के विभाग के शेष में या ग्रन्थ पूर्णाहूति में चक्र, कमल, कलशादि को प्राकृति बनाई जाती थी । बीच-बीच में जहां कहीं गाथा का टोका, भाष्य, चूणि शेष होने के अन्त में भी ॥छ । लिख दिया जाता था । किन्तु रिक्त स्थान नहीं छोड़ा जाता था । कागज के ग्रन्थ :-- प्रारम्भ में कागज के ग्रन्थ भी ताडपत्रीय ग्रन्थों की तरह लम्बाई चौड़ाई में छाटे मुष्टि-पुस्तक के आकार में लिखते, किन्तु दो तीन विभाग करने आवश्यक नहीं थे । कितन हा ग्रन्थों की लम्बाई ताडपत्त्रीय ग्रन्थों की भांति करके चौड़ाई भी उनसे डबल अर्थात् 4।। इंच का रखा जाती । किन्तु बाद में तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् सुविधा के लिए 12X5 या इससे कमबेश साइज कर दिया गया । प्रारम्भ में कागज के ग्रन्था पर बोर्डर की लकीरें काली होती थीं, पर सोलहवीं शताब्दी से लाल स्याही के बोर्डर बनने लगे । ताडपत्त्रीय ग्रन्थों में पत्रों के न सरकने के लिए खाली जगह में छिद्र करके डोरी पिरोई जाती थी । उसी प्रकार कागज ग्रन्थों में भी उसी पद्धति का अनुकरण कर, खाली जगह रखी जाती; पर डोरी के लिए छिद्र किए ग्रन्थ क्वचित ही पाये जाते हैं, क्योंकि कागज के पत्नों के सरकने का भय नहीं था । खाली जगह लाल रंग आदि के टीके या फूल आदि विविध अलंकार किये हुए ग्रन्थ भी पाये जाते हैं । उभय पक्ष में ताडपत्रीय पत्रांक लेखन पद्धति उभय प्रकार पहले पहले पाई जाती है, बाद में केवल अंकों में पत्नांक एवं एक ओर ग्रन्थ के नाम की हुण्डी (Heading) लिख दी जाती थी । कितने ही संग्रह ग्रन्थों में सीरियल क्रमिक अंक चालू रखने पर भी विभागीय सूक्ष्म चोर अंक कोने में लिखे जाते थे । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 411 Antar at साइज एक होने से सभी पत्तों में एक जैसी लकीरें पंक्तियां श्राती थीं। जहां विभागीय परिसमाप्ति होती वहां लाल स्याही से विराम चिन्ह एवं प्रारम्भ में ||60|| श्रादि तथा अंत में ॥ छ ॥ की पद्धति ताडपत्रीय लेखन के अनुसार ही प्रचलित थी । पुष्पिका संवृत आदि पर ध्यान श्राकर्षण करने के लिये लाल स्याही से अथवा जैसे लाल पैंसिल फिरा दी जाती है वैसे गेरु यदि से रंग दिया जाता था । प्राचीन लेखन वैशिष्ट्यः ग्रंथ-लेखन में जहां वाक्यार्थ या सम्बन्ध पूर्ण होता था वहां पूर्ण विराम, दोहरा पूर्ण विराम एवं अवांतर विषय अवतरण आदि की परिसमाप्ति पर || छ || लिखा जाता था एवं श्लोकांक भी इसी प्रकार लिखा जाता था । विशिष्ट ग्रन्थों में मूलग्रन्थ के विषय को स्पष्ट करने वाले यन्त्र, चिन्ह, लिखने के साथ-साथ श्लोक संख्या, गाथा संख्या, ग्रथांग्रंथ, प्रशस्ति प्रादि लिखी जाती थी। कुछ अविवेकी लेखक इन्हें न लिखकर ग्रन्थ के महत्व और वैशिष्ट्य को कम कर देते थे ! ताडपत्रीय ग्रन्थों के चित्र व टीके आदि के अतिरिक्त केवल काली स्याही ही व्यवहृत होती थी । जबकि कागज के ग्रन्थों के लेखन में काली के अतिरिक्त सुनहरी, रूपहली और लाल स्याही का प्रयोग छूट से हुआ है । सुनहरी, रूपहली स्याही में समग्र ग्रन्थ लिखे गए हैं, वैसे लाल रंग का प्रयोग पूरे ग्रन्थ में न होकर विशिष्ट स्थान, पुष्पिका, ग्रन्थाग्र, उक्तं च, तथाहि, पूर्ण विराम आदि में हुआ है । पर पत्नों की पृष्ठभमि में लाल, नीला, हरा आदि सभी रंगों से रंग कर उस पर अन्य रंगों का प्रयोग हुआ है । पुस्तक लेखन के प्रकार: पुस्तकों के बाह्य प्रकार को लक्षित करके आगे गंडी, कच्छपी, मुष्टि आदि पुस्तकों के प्रकार बतलाए गए हैं पर जब कागज के ग्रन्थ लिखे जाने लगे तो उनकी लेखन पद्धति व आभ्यन्तरिक स्वरूप में पर्याप्त विविधता आ गई थी । कागज पर लिखे ग्रन्थ, त्रिपाठ, पंचपाठ, टब्बा, बालावबोध शैली, दो विभागी ( कालम), सूड़ ( Running ) लेखन, चित्रपुस्तक, स्वर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी, सूक्ष्माक्षरी, स्थूलाक्षरी, मिश्रिताक्षरी, पौथियाकार, गुटकाकार यदि अनेक विधाओं के संप्राप्त हैं । त्रिपाठ या त्रिपाट: ग्रन्थ के मध्य में बड़े अक्षर व ऊपर नीचे उसके विवेचन में टीका टबा आदि सूक्ष्माक्षरों की पंक्तियां लिखी गई हों वह त्रिपाठ या त्रिपाट ग्रन्थ कहलाता है । पंचपाठ या पंचपाट:- जिस ग्रन्थ के बीच में मूलपाठ व चारों ओर के बड़े बोर्ड र हांसिया में विवेचन, टीका, टबादि लिखा हो, अर्थात्, लेखन पांच विभागों में हुआ हो वह पंचपाठ या पंचपाट ग्रन्थ कहलाता है । सूड़ या सूढ़ :- जो ग्रन्थ मूल टीका आदि के विभाग बिना सीधा लिखा जाता हो वह सूड़ या सूठ ( Running ) लेखन कहलाता है । प्राचीन ग्रन्थ मूल, टीका आदि अलग-अलग लिखे जाते थे तब ताडपत्रीय ग्रन्थों में ऐसे कोई विभाग नहीं थे, जब मूल के साथ टीका, चूर्णि, निर्युक्ति, भाष्य, बालावबोध आदि साथ में लिखे Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 जाने लगे तो त्रिपाठ या पंचपाठादि विभागीय लेखन प्रारम्भ हुआ । इससे एक ही प्रति में टीका आदि पढ़ने की सुगमता हो गई । टबा या बालावबोध ली : - त्रिपाठ, पंचपाठ से भिन्न टबा लिखने की शैली में एक-एक पंक्ति के मूल बड़े अक्षरों के ऊपर छोटे अक्षरों में विवेचन, टबा व थोड़े से बड़े अक्षरों के ऊपर नीचे विशद विवेचन छोटे अक्षरों में लिखा जाता था । श्रानन्दघन चौबीसी बालावबोधादि की कई प्रतियां इसी शैली की उपलब्ध है। विभागीय ( कालम) पुस्तक, कुछ सुक्ष्माक्षरी आदि दो विभाग में लिखी हुई पुस्तकें मिलती हैं तथा कई प्रतियों में नामावली सूची, बालावबोध आदि लिखने में सुविधानुसार कालम बनाकर के लिखे हुए कागज के ग्रन्थ उपलब्ध हैं । चित्र पुस्तक: - यहां चित्र पुस्तक का ग्राशय सचित्र पुस्तक से नहीं पर यह वह विद्या है। जिससे लेखनकला की खूबी से इस प्रकार जगह छोड़कर अक्षर लेखन होता है जिससे चौपट, वज्र, स्वस्तिक, छत्र, फूल आदि विविध आकृतियां उभर आती हैं और व्यक्ति का नाम भी चित्र रूप में परिलक्षित हो जाता है । कभी-कभी यह लेखन लाल स्याही से लिखा होने से लेखन कला स्वयं बोल उठती है । हांसिया और मध्य भाग में जहां छिद्र की जगह रखने की ताड़पत्त्रीय प्रथा थी वहां विविध फूल आदि िित्रत होते । स्वर्णाक्षरी-रौप्याक्षरा ग्रन्थः- आगे बतायी हुई विधि के अनुसार स्वर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी और गंगा-जमनी ग्रन्थ लेखन के लिये इस स्याही का प्रयोग होता । ग्रन्थों को विशेष चमकदार दिखाने के लिए कागज के पत्रों की पृष्ठभूमि ( बैकग्राउण्ड) लाल, काला ग्रासमानी, जामुनी यादि गहरे रंग से रंग कर अकीक, कमाटी, कोडा आदि से घोटकर मुलायम, पालिसदार बना लिया जाता था । फिर पूर्वोल्लिखित सोने चांदी के वर्क चूर्ण को धव के गोंद के पानी के साथ तैयार की हुई स्याही से ग्रन्थ लिखा जाता था । लिखावट सूख जाने पर अकीक आदि की प्रोपणी से घोटकर प्रोपदार बना लिए जाते थे । इन पत्रों के बीच में व हांसिये में विविध मनोरम चित्र हंसपवित, गज पंक्ति श्रादि से अलंकृत करके अद्वितीय नयनाभिराम बना दिया जाता था । स्वर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी स्याही की लिखी हुई ताडपत्रीय पुस्तकें अब एक भी प्राप्त नहीं हैं पर महाराजा कुमारपाल और वस्तुपाल महामात्य ने अनेक स्वर्णाक्षरी ग्रन्थ लिखाए थे वर्तमान में प्राप्त जिसका उल्लेख कुमारपाल प्रवन्ध व उपदेशतरंगिणी में पाया जाता है । स्वर्णाक्षरी ग्रन्थ पन्द्रहवीं शती से मिलते हैं । रौप्याक्षरी उसके परवर्ती काल से मिलते हैं । स्वर्णाक्षरी प्रतियां कल्पसूत्र और कालकाचार्य कथा की प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं और क्वचित् भगवती सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, नवस्मरण, अध्यात्मगीता, शालिभद्ररास एवं स्तोत्रादि भी पाये जाते हैं । सूक्ष्माक्षरी ग्रन्थः - तापत्त्रीय युग में सूक्ष्माक्षरी प्रतियां नहीं मिलतीं, पर कागज के ग्रन्थ लेखन में सूक्ष्म प्रक्षरों का त्रिपाठ, पंचपाठ आदि लेखन में पर्याप्त प्रयोग हुआ। साधुनों को बिहार में अधिक भार उठाना न पड़े इस दृष्टिकोण से भी उसका प्रचलन उपयोगी था । ज्ञान भण्डारों में कई एक सूक्ष्माक्षरी ग्रन्थ पाये जाते हैं । यो केवल एक पत्र में दशवेकालिकादि आगम लिखे मिलते हैं । तरापंथी साधुयों ने तथा कुछ कलाकारों ने सूक्ष्माक्षर में उल्लेखनीय कीर्तिमान कायम किया है, पर वे पठन-पाठन में उपयोगी न होकर प्रदर्शनी योग्य मात्र हैं । स्थूलाक्षरी ग्रन्थः- पठन-पाठन के सुविधार्थं विशेष कर सम्वत्सरी के दिन कल्पसूत्र मूल का पाठ संघ के समक्ष बांचने के लिये स्थूलाक्षरी ग्रन्थ लिखे जाते थे । पर्याप्त विकास दृष्टिगोचर होता कागज युग में इसका I Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 413 कर्त्तरित ग्रन्थ:--कागज को केवल अक्षराकृति में काटकर बिना स्याही के आलेखित ग्रन्थों में मात्र एक 'गीतगोविन्द' की प्रति बडौदा के गायकवाड ओरिएण्टल इन्स्टीट्यूट में है। बाकी फुटकर पत्र एवं चित्रादि पर्याप्त पाये जाते हैं । मिश्रिताक्षरी:-छोटे-बड़े मिश्रित अक्षरों की प्रतियों का परिचय वर्णन टबा, बालावबोध की एवं सपर्याय प्रतियों में चारुतया परिलक्षित होता है । ____गुटकाकार ग्रन्थ:-इनका एक माप नहीं होता। ये छोटे-बड़े सभी आकार-प्रकार के पाये जाते हैं। पोथिये, गटके ग्रादि बीच में सिलाई किए हए, जज सिलाई वाले भी मिलते हैं। बराबर पन्नों को काटकर सिलाई करने से आगे से तीखे और अवशिष्ट एक से होते हैं। उनकी जिल्दें भी कलापूर्ण, सुरक्षित और मखमल, छींट, किमख्वाप-जरी आदि की होती हैं। कुछ गुटके सिलाई करके काटे हुए आजकल के ग्रन्थों की भांति मिलते हैं। माप में वें दफ्तर की भांति बड़े-बड़े फलस्केप साइज के, डिमाई साइज के वक्राउन व उससे छोटे लघ और लघतर माप के गुटके प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं। उनमें रास, भास, स्तवन, सज्झाय, प्रतिक्रमण, प्रकरण संग्रहादि अनेक प्रकार के संग्रह होते हैं। हमारे संग्रह में ऐसे गुटके सैकड़ों की संख्या में हैं जो सोलहवीं शताब्दी से बीसवीं शती तक के लिखे हुए हैं। ___ पुस्तक संशोधन हस्तलिखित ग्रन्थों में प्रति से प्रति की नकल की जाती थी। ऊपर वाली प्रति यदि अशुद्ध होती तो उस बिना संशोधित प्रति से नकल करने वाला भाषा और लिपि का अनभिज्ञ लेखक भ्रान्त परम्परा और भूलों की अभिवृद्धि करने वाला ही होता। फलस्वरूप ग्रन्थ में पाठान्तर, पाठभेद का प्राचर्य हाता जाता और कई पाठ तो अशुद्ध लेखकों की कृपा से ग्रन्थकार के प्राशय से बहुत दूर चले जाते थे। एक जैसी प्राचीन लिपि और मोड़ के भेद से, भाषा व विषय की अनभिज्ञता से जो भ्रान्तियां नजर आती हैं उनके कुछ कारण अक्षरों की मोड़ साम्य व अन्य भ्रान्तियां हैं यहां कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं: 1. लिपिभ्रमः-- खर व स्व गरा घप्प व थ प्य चवठध to ho If two म स राग व बत ह इ त्त तू था थ्य पा प्य सा स्य षा ष्य ग्र ग्गग्ज त्त न च्च थ जज्ञ जज टठद ड र म त व ध व न त व नु तु प य ए वु तु प्प प्य थ घ ज्ज व्व द्य सूस्त स्वम् त्थ च्छ कृक्ष त्व च न प्रा था टाय व थ एय गा एम एप य ऐ पेये क्व क कुक्ष प्त पू पृ सु मु ष्ठ ष्व ष्ट षब्द त्म त्स ता त्य कू क्त क भ सम य ध Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 इस प्रकार कितनी ही लम्बी सूची दी जा सकती है। अक्षरभ्रांति से उत्पन्न पाठ भेद में भिन्नार्थ, समानार्थ भी घटित हो सकता है और इस चक्कर में बड़े-बड़े विद्वान् भी फंस जाते हैं । भ्रांत लेखन से उत्पन्न पाठ भेदों को देखिए: (1) प्रभवः - प्रसव, स्तवन- सूचन, यच्चान्यथा, प्रत्यक्षतोवगम्या- प्रत्यक्षबोधगम्या, नवा तथा नच-तव, तद्वा-तथा, पवत्तस्स - पवन्नस्स, जीवसात्मीकृतं जीवमात्मीकृतं, परिवुडढि - परितुट्टि, नचैवं- नर्दवं अरिदारिणी प्ररिवारिणी प्रविदारिणी, दोहलक्खेविया-दोहलक्खेदिया, नंदीसरदीवगमणसंभवजणमंडियं- नंदीसरदीवगमणसंभव जिणमंडियं, घाणामय पसादजणण- घणोगय पसादं जणण, गयकुलासण्ण-रायकुलासण्ण, सच्च-सत्वं सत्तं विच्छूढदाणजलाविलकपोला विगजा-विच्छूढदाणजलवित्त घोलविवजा, इत्यादि । ( 2 ) पड़ी मात्रा विषयक भ्रमः -- कितने ही लेखक पड़ीमात्रा-पृष्ठमात्रा का रहस्य न समझ कर एक दूसरे अक्षर के साथ उसकी मात्रा को लगा कर भ्रान्तपाठ की सृष्टि कर डालते हैं जिससे संशोधन कार्य बड़ा दुरूह हो जाता है । यतः- किसलयकोमलपसत्थपाणी- किंसयलक्खामलपत्थपाणी; तारानिकर-तरोनिकर तमोनिकर; आसरासीओ-असेरासीओ-असेससीओ, इत्यादि । (3) पतितपाठ स्थान परिवर्तनः -- कितनी ही बार छूटे हुए पाठ को हांसिए में संशोधन द्वारा लिखा जाता है जिसे प्रतिलिपिकार संकेत न समझ कर अन्य स्थान में उसे लिख देते हैं। ऐसे गोलमाल प्रतिलिपि करते समय आए दिन देखने में आते हैं । ( 4 ) टिप्पण प्रवेशः -- संशोधक द्वारा हांसिए पर किए गए टिप्पण पर्याय को प्रतिलिपि कार भ्रान्तिवश ग्रन्थ का छूटा हुआ पाठ समझ कर मूल पाठ में दाखिल कर देते हैं । ( 5 ) शब्द पण्डित लेखकों के कारणः -- कितने ही लेखक अमुक शब्दों के विशेष परिचित होने से मिलते-जुलते स्थान में अघटित फेरफार कर डालते हैं—- भ्रान्तिवश हो जाता है जिससे संशोधक के लिए बड़ी कठिनाई हो जाती है । ( 6 ) अक्षर या शब्दों की अस्तव्यस्तताः -- लेखक लिखते-लिखते अक्षरों को उलट-पुलट कर डालते हैं जिससे पाठान्तरों की अभिवृद्धि हो जाती है । यतः दाएइ दाइए । ( 7 ) डबल पाठ: - - कितनी ही बार लेखक ग्रन्थ लिखते हुए पाठ को डबल लिख डालते हैं जिससे लिखित पुस्तक में पाठ भेद की सृष्टि हो जाती है । जैसे-सव्व पासणिएहिं सव्व पासणिएहि सव्वपासत्थपासणिएहि, तस्सरूव--तस्सरू वस्सरूव इत्यादि । ( 8 ) पाठ स्खलन: - -ग्रन्थ के विषय और अर्थ से अज्ञात लेखक कितनी ही बार भंगकादि विषयक सच्चे पाठ को डबल समझ कर छोड़ देते हैं जिससे गम्भीर भूलें पैदा होकर विद्वानों को भी उलझन में डाल देती हैं । इस प्रकार अनेक कारणों से लेखकों द्वारा उत्पन्न भ्रान्ति और अर्ध- दग्ध-पण्डितों द्वारा भ्रान्ति भिन्नार्थ को जन्म देकर उपरिनिर्दिष्ट उदाहरणों की भांति सही पाठ निर्णय में विद्वानों को बड़ी असुविधा हो जाती है । संशोधकों की निराधार कल्पना : प्रायोगिक ज्ञान में अधूरे संशोधक शब्द व अर्थ ज्ञान में अपरिचित होने से अपनी मतिकल्पना से संशोधन कर नए पाठ भेद पैदा कर देते हैं, तथा सच्चे पाठ के बदले अपरिचित प्रयोग Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 415 देकर अनर्थ कर डालते हैं। खण्डित पाठ की पूर्ति करने के बहाने संशोधकों की मति-कल्पना भी पाठभेदों में अभिवृद्धि कर देती है क्योंकि पत्र चिपक जाने से, अक्षर उड़ जाने से, दीमक खा जाने से रिक्त स्थान की पूर्ति दूसरी प्रति से मिलाने पर ही शुद्ध होगी अन्यथा कल्पना प्रसृत पाठ भ्रान्त परम्परा को जन्म देने वाले होते हैं । ग्रंथ संशोधन की प्राचीन अर्वाचीन प्रणाली: ज्ञान भण्डारस्थ ग्रन्थों के विशद अवलोकन से विदित होता है कि लिखते समय ग्रन्थ में भल हो जाती तो ताडपत्रीय लेखक अधिक पाठ को काट देते या पानी से पोंछ कर नया पाठ लिख देते थे। छूटे हुए पाठ को देने के लिए "A" पक्षी के पंजे की आकृति देकर किनारे XX के मध्य में 'A' देकर लिखा जाने लगा था। अधिक पाठ को हटाए हुए रिक्त स्थान को लकीर तथा अन्याकृति से पूर्ण कर दिया जाता था। सोलहवीं शताब्दी में प्रति संशोधन में आई हई काटाकाटी की असुन्दरता को मिटाने के लिए सफेदा या हरताल का प्रयोग होने लगा। अशुद्धि पर हरताल लगा कर शुद्ध पाठ लिखा जाने लगा। अशुद्ध अक्षर को सुधारने के लिए जैसे 'च' का 'व' करना हो, 'ष' का 'प' करना हो 'थ' का 'य' करना हो तो अक्षर के अधिक भाग को हरताल आदि से ढक कर शुद्ध कर दिया जाता, यही प्रणाली आज तक चालू है। वटक पाठ को लिखने के लिए तो उन्हीं चिन्हों को देकर हांसिये में लिखना पड़ता व आज भी यही रीति प्रचलित है । ग्रंथ संशोधन के साधन : ग्रन्थ संशोधन करने के लिए पीछी, हरताल, सफेदा, चूंटो (अोपणी), गेरू और डोरे का समावेश होता है। अतः इन वस्तुओं के सम्बन्ध में निर्देश किया जाता है। ____ पीछी:-चित्रकला के उपयोगी पीछी-ब्रुश आदि हाथ से ही बनाने पड़ते और उस समय टालोरी-खिसकोली के बारीक बालों से वह बनती थी। ये बाल स्वाभाविक ग्रथित और टिकाऊ होते थे। कबतर की पांख के पोलार में पिरो कर या मोटी बनाना हो तो मयर के पांखों के ऊपरी भाग में पिरोकर तैयार कर ली जाती थी। डोरे को गोंद प्रादि से मजबत कर लिया जाता और वह चित्रकला या ग्रन्थ संशोधन में प्रयुक्त हरताल, सफेदा आदि में प्रयुक्त होती थी। हरताल:--यह दगड़ी और वरगी दो तरह की होती है। ग्रन्थ संशोधन में 'वरगी हरताल' का प्रयोग होता है। हरताल के बारीक छने हए चूर्ण को बांवल के गोंद के पानी में मिला कर, घोटकर, आगे बताई हुई हिंगल की विधि से तैयार कर सुखा कर रखना चाहिए। सफेदा:--सफेदा आज कल तैयार मिलता है। उसे गोंद के पानी में घोट कर तैयार करने से ग्रन्थ संशोधन में काम आ सकता है। पर हरताल का सौन्दर्य और टिकाऊपन अधिक घूटा या प्रोपणी:--आगे लिखा जा चुका है कि अकोक, कसौटी या दरियाई कांडों से कागज पर पालिस होती है। हरताल, सफेदा लगे कागजों पर प्रोपणी करके फिर नए अक्षर लिखने से वे फैलते नहीं--स्याही फूटती नहीं । गेरू:--जैसे आजकल विशिष्ट वाक्य, श्लोक, पुष्पिका आदि पर लाल पैन्सिल से अण्डर लाईन करते हैं वैसे हस्तलिखित ग्रन्थों में भी आकर्षण के लिए पद, वाक्य, गाथा, परिच्छेद, परिसमाप्ति स्थान गेरू से रंग दिए जाते थे । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 डोरा:--ताड़पत्रीय युग में स्मृति योग्य पंक्ति, पाठ, अधिकार, अध्ययन, उद्देश्य आदि की परिसमाप्ति स्थान में बारीक डोरा पिरो कर बढ़ा हया बाहर छोड़ दिया जाता था । जैसे आजकल फ्लेग चिन्हित किया जाता है और उससे ग्रन्थादि का प्रसंग खोजने में सुविधा होती है, वैसे ही ताडपत्रीय युग की यह पद्धति थी। पुस्तक संशोधन के संकेत चिन्ह : जिस प्रकार लेखन और संशोधन में पूर्ण विराम, अर्द्ध विराम, अल्प विराम, प्रश्नविराम आश्चर्यदर्शक चिन्ह, अर्थद्योतक चिन्ह, छन्द समास द्योतक चिन्ह, शंकित पाठ द्योतक चिन्हादि प्रचलित हैं, पूराकालीन जैन विद्वानों ने भी लेखन सौष्ठव को ध्यान में रख कर विविध चिन्हों का प्रयाग किया है। वे चिन्ह कब और किस स्थिति में प्रयुक्त होते थे ? उसका यहां निर्देश किया जाता है। शोध के TE: 1) .,.x.x,x.. (३) x. (३) .. .. (४ . 1) २.१. CE) •s, आ4055, इ. ९ ३. ३ 3: ७ 3, ॐ. . . , ए.५,ऐ - ए.5,आ%.. ७) प्र.पा., प्रत्यं.'पाग०, प्रबतरे' पातरम्. (G), पं.,3.उ.'पं.न. है.दी. पं.नी.. ():. (१०)". ) ' '. (१३) १,१२.१३,२३, ३२.४१,५३, ६२,७३,८१ ३मारि (१३) १,२,३,४.५.६. Scaric १४)-,, (१५) ७,८०. (98)..... ..... . ....... . ७.० ७.०, m, G., , T. T, ना, 1,a, Alt +, म. .. .. इन चिन्हों की पहचान इन नामों से कीजिए:-- (1) पतितपाठ दर्शक चिन्ह:--लेखकों की असावधानी से छूटे हुए स्थान पर यह चिन्ह करके हांसिये पर त्रुटक पाठ लिखा जाता है और दोनों स्थान में चिन्ह कर दिए जाते हैं। (2) पतित पाठ विभाग दर्शक चिन्हः- यह चिन्ह छूटे हुए पाठ को बाहर लिखने के उभय पक्ष में दिया जाता है जिससे अक्षर या पाठ का सेल-भेल न हो जाय। इसके पास 'नो' या 'पं.' करके जिस पंक्ति का हो नम्बर दिया जाता है। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 417 (3) आकारान्त -- 'काना' दर्शक चिन्हः -- यह ग्रक्षर के ग्रागे की मात्रा '' छूट गई हो वहां अक्षर के ऊपर दी जाती है । ( 4 ) प्रत्याक्षर वाचन दर्शन चिन्ह: -- यह चिन्ह लिखे गए अक्षर के बदले दूसरा अक्षर लिखने की हालत में लगाया जाता है । जैसे 'श' के बदले 'ष', 'स' के बदले 'श', 'ज' के बदले 'य', 'ष' के बदले 'क्ष' आदि । यतः -- सतु शत्रु, खट् षट् जज्ञ यज्ञ, जात्रा यात्रा आदि । (5) पाठ परावृत्ति दर्शक चिन्ह: -- अक्षर या वाक्य के उलट-पुलट लिखे जाने पर सही पाठ बताने के लिए अक्षर पर लिख दिया जाता है । यतः -- ' वनचर' के बदले 'वचनर' खाल गया हो तो वचनर शब्द पर चिन्ह कर दिया जाता है । ( 6 ) स्वर सन्ध्यंश दर्शक चिन्ह: -- यह चिन्ह सन्धि हो जाने के पश्चात् लुप्तस्वर को बताने वाला है । इन चिन्हों को भी ऊपर और कभी नीचे व अनुस्वार युक्त होने पर नु स्वार सहित भी किया जाता है । यतः - ssi sss इत्यादि । (7) पाठ भेद दर्शक चिन्ह: -- एक प्रति को दूसरी प्रति से मिलाने पर जो पाठान्तर, त्यिन्तर हो उसके लिए यह चिन्ह लिख कर पाठ दिया जाता है । ( 8 ) पाठानुसंधान दर्शक चिन्ह: -- छूटे हुए पाठ को हांसिए में लिखने के पश्चात् किस पंक्ति का वह पाठ है यह अनुसंधान बताने के लिए प्रो. पं. लिख कर प्रोली, पंक्ति का नम्बर दे दिया जाता है । ( 9 ) पदच्छेद दर्शक चिन्ह: -- प्राजकल की तरह वाक्य शब्द एक साथ न लिख कर आगे अलग-अलग अक्षर लिखे जाते थे, अतः शुद्ध पाठ करने के लिए ऊपर खड़ी लाईन का चिन्ह करके शब्द अक्षर पार्थक्य बता दिया जाता था । ( 10 ) विभाग दर्शक चिन्ह: -- ऊपर दिए गए सामान्य पदच्छेद चिन्ह से डबल लाइन देकर सम्बन्ध, विषय या श्लोका की परिसमाप्ति पर यह लगाया जाता है । ( 11 ) एक पद दर्शक चिन्ह: -- एक पद होने पर भी भ्रान्ति न हो इसलिए दोनों ओर ऊपर खड़ी लाइन लगा देते थे । यतः - - ' स्यात्पद' एक वाक्य को कोई स्यात् और पद अलगअलग न समझ बैठे इसलिए बाक्य के दोनों ओर इसका प्रयोग होता था । ( 12 ) विभक्ति वचन दर्शक चिन्ह:- :--यह चिन्ह अंक परक है । सात विभक्ति और संबोधन मिलाकर आठ विभक्तियों को तीन वचनों से संबद्ध - सूचन करने के लिए प्रथमा का द्विवचन शब्द पर 12, अष्टमी के बहुवचन पर 83 प्रादि अंक लिख कर निर्भ्रान्ति बना दिया जाता था । संबोधन के लिए कहीं कहीं 'है' भी लिखा जाता था । ( 13 ) अन्वय दर्शक चिन्ह: - - यह चिन्ह भी विभक्ति वचन को चिन्ह की भांति क लिख कर प्रयुक्त किया जाता था। ताकि संशयात्मक वाक्यों में अर्थ भ्रान्ति न हो, श्लोकों में पदों का अन्वय भी अंकों द्वारा बतला दिया जाता था । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 ( 14 ) टिप्पणक दर्शक चिन्ह: - - यह चिन्ह सूत्रपाठ के भेद - पर्याय प्रादि दिखाने के लिए वाक्य पर चिन्ह करके हांसिए में वही चिन्ह करके पर्यायार्थ या व्याख्या लिख दी जाती थी । ( 15 ) विशेषण विशेष्य सम्बन्ध दर्शक चिन्हः - - दूर-दूर रहे हुए शब्दों का विशेषणविशेष्य आकलन करने के लिए ये चिन्ह कर देने से प्रबुद्ध वाचक तत्काल संबंध को पकड़ लेतासमझ सकता है । ( 16 ) पूर्वपद परामर्शक चिन्ह: - - ये चिन्ह दुरुह हैं । तर्क शास्त्र के ग्रन्थ में बार-बार आने वाले तत् शब्द को अलग-अलग अर्थ द्योतक बताने के लिए व्यर्थ के टिप्पण न देकर संकेत से अर्थ समझने के लिए इन चिन्हों का प्रयोग होता था । साधारण लेखकों का समझ से बाहर विचक्षण विद्वानों के ही काम में आने वाले ये चिन्ह हैं । दार्शनिक विषय के ग्रन्थों के लम्बे सम्बन्धों पर भिन्न-भिन्न विकल्प चर्चा में उसका अनुसंधान प्राप्त करने के लिए इस प्रकार के चिन्ह बड़े सहायक होते हैं । विद्वान जैन श्रमण वर्ग आज भी अपने गम्भीर संशोधन कार्य में इन शैलियों का अनुकरण करता है । जैन लेखन कला, संशोधन कला के प्राचीन अर्वाचीन साधनों पर यहां जो विवेचन हुआ है इससे विदित होता है कि जैन लेखन कला कितनी वैज्ञानिक, विकसित और अनुकरणीय थो । भारतीय संस्कृति के इतिहास में जैनों का यह महान् अनुदान सर्वदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा । जैन ज्ञान भंडारों का महत्त्व : प्रारम्भ में जो जैन श्रमण वर्ग श्रुतज्ञान को लिपिबद्ध करने के विपक्ष में था वह समय के अनुकूल उसे परम उपादेय मानने लगा और देवद्ध गणि क्षमाश्रमण के समय से ज्ञानोपकरण का सविशेष प्रयोग करने के लिए उपदेश देने लगा । आज हमारे समक्ष तत्कालीन लिखित वाङमय का एक पन्ना भी उपलब्ध नहीं है । अतः वे कैसे लिखे जाते थे, कैसे संशोधन किया जाता था, कहां और किस प्रकार रखा जाता था, इस विषय में प्रकाश डालने का कोई साधन नहीं है । गत एक हजार वर्ष के ग्रन्थ व ज्ञान भण्डार विद्यमान हैं जिससे हमें मालूम होता है कि श्रुतज्ञान की अभिवृद्धि में जैन श्रमण और श्रावक वर्ग ने सविशेष योगदान किया था । श्री हरिभद्रसूरिजी ने यागदृष्टिसमुच्चय में 'लेखना पूजना दानं' द्वारा पुस्तक लेखन को योग भूमिका का अंग बतलाया है । 'मह जिणाणं प्राण' सज्झाय में पुस्तक लेखन को निम्नोक्त गाथा में श्रावक का नित्य - कृत्य बतलाया है । संघोवरि बहुमाणो पुत्थयलिहणं पभावणा तित्थे । सड्ढाणकिच्चमेयं निच्च सुगुरूवएसेणं |15|| बारहवीं शताब्दी में सूराचार्य ने भी 'दानादिप्रकाश' के पांचवें प्रवसर में पुस्तक लेखन की बड़ी महिमा गायी है । "उस जमाने में ग्रन्थों को ज्ञान भण्डारों में रखा जाता था । एक हजार वर्ष पूर्व भी राजाओं के यहां पुस्तक संग्रह रखा जाता था, सरस्वती भण्डार होते थे । चैत्यवासियों से सम्बन्धित मठ-मन्दिरों में भी ज्ञानकक्ष अवश्य रहता था I सुविहित शिरोमणि श्री वर्द्धमानसूरि-जिनेश्वरसूरि के पाटन की राजसभा में चैत्यवासियों के साथ हुए शास्त्रार्थ में पाटण के सरस्वती भण्डार से ही 'दशव कालिक' ग्रन्थ लाकर प्रस्तुत किया गया था । मुसलमानी काल में नालन्दा विश्वविद्यालय के ग्रन्थागार की भांति प्रगणित ज्ञान Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 419 भण्डारों व ग्रन्थों को जला कर नष्ट कर डाला गया। यही कारण है कि प्राचीनतम लिखे ग्रन्थ ग्राज उपलब्ध नहीं हैं। जिस प्रकार देवालयों और प्रतिमाओं के विनाश के साथ-साथ नव-निर्माण होता गया उसी प्रकार जैन शासन के कर्णधार जैनाचार्यों ने शास्त्र निर्माण व लेखन का कार्य चाल रखा। जिसके प्रताप से आज वह परम्परा बच पाई। भारतीय ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जैन ज्ञान भण्डार एक अत्यन्त गौरव की वस्तु है। ज्ञान भंडारों की स्थापना व अभिवृद्धि : हस्तलिखित ग्रन्थों के पुष्पिका लेख तथा कुमारपाल प्रबन्ध, वस्तुपाल चरित्र, प्रभावक चरित्र, सुकृतसागर महाकाव्य, उपदेश तरंगिणी, कर्मचन्द मंत्रिवश-प्रबन्ध, अनेकों रास एवं ऐतिहासिक चरित्रों से समृद्ध श्रावकों द्वारा लाखों-करोड़ों के सद्व्यय से ज्ञान कोश लिखवाने तथा प्रचारित करने के विशद्ध उल्लेख पाए जाते हैं। शिलालेखों की भांति ही ग्रन्थलेखन-पुष्पिकाओं व प्रशस्तियों का बड़ा भारी ऐतिहासिक महत्व है। जैन राजाओं, मन्त्रियों एवं धनाढ्य श्रावकों के सत्कार्यों की विरुदावली में लिखी हुई प्रशस्तियां किसी भी खण्ड काव्य से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। गूर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह और कुमारपालदेव ने बहुत बड़े परिमाण में शास्त्रों को ताड़पत्रीय प्रतियां स्वर्णाक्षरी व सचित्रादि तक लिखवायी थीं। यह परम्परा न केवल जैन नरपति श्रावक वर्ग में ही थी परन्तु श्री जिनचन्द्रसूरिजी को अकबर द्वारा 'युगप्रधान पद देने पर बीकानेर महाराजा रायसिंह, कुंअर दलपतसिंह आदि द्वारा भी संख्याबद्ध प्रतियां लिखवा कर भेंट करने के उल्लेख मिलते हैं एवं इन ग्रन्थों की प्रशस्तियों में बीकानेर, खंभात प्रादि के ज्ञान भण्डारों में ग्रन्थ स्थापित करने के विशद वर्णन पाए जाते हैं। त्रिभुवनगिरि के यादव राजा कुमारपाल द्वारा प्रदत्त पुस्तिका के काष्ठफलक का चित्र, जिसमें जैनाचार्य श्री जिनदत्तसूरि और महाराजा कुमारपाल का चित्र है । इस पर "नपतिकुमारपाल भक्तिरस्तु' लिखा हुआ है। सम्राट अकबर अपनी सभा के पंडित यति पद्मसुन्दर का ग्रन्थ भण्डार, हीर दिजयसूरि को देना चाहता था, पर उन्होंने लिया नहीं, तब उनकी निष्पहता से प्रभावित होकर आगरा में ज्ञान भण्डार स्थापित किया गया था । जैन श्रावकों ने अपने गुरुओं के उपदेश से बड़े-बड़े ज्ञान भण्डार स्थापित किए थे। भगवती सूत्र श्रवण करते समय गौतम स्वामी के छत्तीस हजार प्रश्नों पर स्वर्ण मुद्राएं चढ़ाने का पेथडशाह, सोनी संग्रामसिंह आदि का एवं छत्तीस हजार मोती चढ़ाने का वर्णन मन्त्रीश्वर कर्मचन्द्र के चरित्र में पाया जाता है। उन मोतियों के बने हुए चार-चार सौ वर्ष प्राचीन चन्द्रवा पूठिया आदि चालीस वर्ष पूर्व तक बीकानेर के बड़े उपाश्रय में विद्यमान थे। श्री जिनभद्रसूरि जी के उपदेश से जैसलमेर, पाटण, खंभात, जालोर, देवगिरि, नागौर आदि स्थानों में ज्ञान भण्डार स्थापित होने का वर्णन उपाध्याय समयसुन्दर गणि कृत 'कल्पलता' ग्रन्थ में पाया जाता है। धरणाशाह, मण्डन, धनराज और पेथड़शाह, पर्वत कान्हा एवं भणशाली थाहरुशाह ने ज्ञान भण्डार स्थापित करने में अपनी लक्ष्मी का मुक्त हस्त से व्यय किया था। थाहरुशाह का भण्डार आज भी जैसलमेर में विद्यमान है। जैन ज्ञान भण्डारों में बिना किसी धार्मिक भेद. भाव के जो ग्रन्थ संग्रहीत किए गए, आज भी भारतीय वाङ्मय के संरक्षण में गौरवास्पद है। क्योंकि अनेक जैनेतर ग्रन्थों को संरक्षित रखने का श्रेय केवल जैन ज्ञान भण्डारों को ही है। वर्तमान में जैन ज्ञान भण्डार सारे भारतवर्ष में फैले हए हैं। यद्यपि लाखों ग्रन्थ अयोग्य उत्तराधिकारियों द्वारा नष्ट हो गए, बिक गए, विदेश चले गए, फिर भी जैन ज्ञान भण्डारों में स्थित अवशिष्ट लाखों ग्रन्थ शोधक विद्वानों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। गुजरात में पाटण, अहमदाबाद, पालनपुर, राधनपुर, खेड़ा, खंभात, छाणी, बड़ोदा, पादरा, दरापरा, डभोई, सिनोर, भरोंच, सुरत एवं महाराष्ट्र में बम्बई व पूना के ज्ञान भण्डार सुप्रसिद्ध है । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 सौराष्ट्र में भावनगर, पालीताना, घोघा, लींबडी, बढवाण, जामनगर, मांगरोल ग्रादि स्थानों में ज्ञान भण्डार हैं । कच्छ में कोडाय और माण्डवी का ज्ञान भण्डार विख्यात है। राजस्थान में जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर, बालोतरा, जोधपुर, नागौर, जयपुर, पीपाड़, पाली, लोहावट, फलौदी, उदयपूर गढ़सिवाना, पाहीर, जालौर, मुंडारा, चूरू, सरदारशहर, फतेहपुर, किशनगढ़, कोटा, झ झनं आदि स्थानों में नए-पुराने ग्रन्थ संग्रह ज्ञान भण्डार हैं। अकेले बीकानेर से हजारों प्रतियां बाहर चले जाने व कई तो समूचे ज्ञान भण्डार नष्ट हो जाने पर भी आज वहां लाखों की संख्या में हस्तलिखित प्रतियां विद्यमान हैं। राजकीय अनप संस्कृत लायब्रेरी में हजारों जैन ग्रन्थ हैं। पंजाब में अंबाला, होशियारपुर, जडियाला, आदि में ज्ञान भण्डार हैं तथा कतिपय ज्ञान भण्डार दिल्ली, रूपनगर में आ गए हैं। प्रागरा, वाराणसी आदि उत्तर प्रदेश के स्थानों के अच्छे ज्ञान भण्डार हैं। उज्जैन, इन्दोर, शिवपुरी आदि मध्य प्रदेश में भी कई ज्ञान भण्डार हैं। कलकत्ता, अजीमगज आदि बंगाल देश के ज्ञान भण्डारों का अपना अनोखा महत्व है। प्रागमों को प्रारम्भिक मुद्रण युग में सुव्यवस्थित और प्रचुर परिमाण में प्रकाशित करने का श्रेय यहां के राय धनपतसिंह दूगड़ को है। श्री पूरण चन्द जी नाहर की 'गलाबकुमारी लायब्रेरी' सारे देश में प्रसिद्ध है। ताड़पत्रीय प्राचीन ग्रन्थ संग्रह के लिए जिस प्रकार जैसलमेर, पाटण और खंभात प्रसिद्ध है, उसी प्रकार कागज पर लिखे ग्रन्थ बीकानेर और अहमदाबाद में सर्वाधिक हैं। दिगम्बर समाज के ताडपत्रीय ग्रन्थों में मडबिद्री विख्यात है तथा पारा का जैन सिद्धान्त भवन, अजमेर व नागौर के भट्टारकजी का भण्डार तथा जयपुर आदि स्थानों के दिगम्बर जैन ग्रन्थ भण्डार बड़े ही महत्वपूर्ण हैं । ज्ञान भण्डारों की व्यवस्था : प्राचीनकाल में ज्ञान भण्डार बिल्कुल बन्द कमरों में रखे जाते थे। जैसलमेर का सुप्रसिद्ध श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार तो किले पर स्थित संभवनाथ जिनालय के नीचे तलघर में सुरक्षित कोठरी में था। जिसमें प्रवेश पाने के लिए अन्तर्गत कोठरी के छोटे से दरवाजे में से निकलना पड़ता था। अब भी है तो वहीं, पर प्रागे से कुछ सुधार हो गया है। प्रागे ग्रन्थों को पत्थर की पेटियों में रखते थे जहां सदी व जीव जन्तुओं की बिल्कुल संभावना नहीं थी। ताडपत्रीय ग्रन्थों को लकड़ी की पट्रिकाओं के वीच खादी के वीटांगणों में कस कर रखा जाता था। आजकल आधनिक स्टील की अलमारियों में अपने माप के अत्युमिनियम के डब्बों में ताडपत्रीय ग्रन्थों को सुरक्षित रखा गया है और उनकी विवरणात्मक सूची भी प्रकाश में प्रा गई है। प्राचीनकाल में केवल ग्रन्थ के नाम मात्र और पत्र संख्यात्मक सूची रहती थी। कहींकहीं ग्रन्थकर्ता का नाम भी अपवाद रूप में लिखा रहता था। एक ही बण्डल या डाबड़े में कागज पर लिखे अनेक ग्रन्थ रखे जाते और उन्हें क्वचित् सूत के डोरे में लपेट कर दुसरे ग्रन्थ के साथ पन्नों के सेलभेल होने से बचाया जाता था। कागज की कमी से आजकल की भांति पूरा कागज लपेटना महओं पड़ने से कहीं-कहीं कागज की चीपों में ग्रन्थों को लपेट कर, चिपका कर रखे जाते थे। यही कारण है कि समुचित सार संभाल के अभाव में ग्रन्थों के खुले पन्ने अस्तव्यस्त होकर अपूर्ण हो जाते थे। बिछड़े पन्नों को मिलाना और ग्रन्थों को पूर्ण करना एक बहुत ही दुष्कर कार्य है । ताडपत्रीय ग्रन्थों को उसी माप के काष्ठफलकों के बीच कस कर बांधा जाता था। कतिपय काष्ठफलक विविध चित्र समद्धि यक्त पाए जाते हैं। शिखरबद्ध जिनालय, ती प्रतिमा चित्र, उपाश्रय में जैनाचार्यों की व्याख्यान सभा, चतुर्दश महास्वप्न, अष्टमंगलीक, बेल बटे, राजा और प्रधानादि राज्याधिकारी, श्रावक-श्राविकाएं, वादि देवसूरि और दि. कुमुदचन्द्र के शास्त्रार्थ आदि के चिवांकन पाए जाते हैं। कागज के ग्रन्थ जिन डाबड़े-डिब्बों में रखे जाते थे वे भी लकड़ी या कुटे के बने हुए होते थे। जिन पर विविध प्रकार के चित्र बना कर वानिश कर दिया जाता था। उन डब्बों Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 421 पर नम्बर लगाने की पद्धति भी तीर्थंकर नाम, गणधर, अष्ट मंगलीक आदि के अभिधान संकेत मय हा करते थे। हस्तलिखित कागज के ग्रन्थ पठा, पटडी, पाटिया आदि के बीच रखे जाते थे। पूठों को विविध प्रकार से मखमल, कारचोबी, हाथीदांत, कांच व कसीदे के काम से अलंकृत किया जाता था। कई पूठे चांदी, सोने व चन्दनादि के निर्मित पाए जाते हैं, जिन पर अष्ट मंगलीक, चतुदर्श महास्वप्नादि की मनोज्ञ, कलाकृतियां बनी हुई हैं। कूटे के पुठों पर समवशरण, नेमिनाथ बरात, दशार्णभद्र, इलापूत्र की नटविद्या प्रादि विषय विविध कथा-वस्तुओं से सम्बन्धित चित्रालंकृति पाई जाती हैं। कलमदान लकड़ी के अतिरिक्त कूटे के भी मजबूत हल्के और शताब्दियों तक न बिगड़ने वाले बनाए जाते थे। हमारे संग्रह में एक कलमदान पर कृष्णलीला के विविध चित्र विद्यमान हैं। जैसलमेर की चित्र समृद्धि में हंसपंक्ति, बगपंक्ति, गजपंक्ति और जिराफ जैसे जीव जन्तुओं के चित्र भी देखे गए हैं। जैन ज्ञान भण्डारों की व्यवस्था सर्वत्र संघ के हस्तगत रहती आई है तथा उनकी चाबियां मनोनीत ट्रस्टियों के हाथ में होते हए भी श्रमण वर्ग और यतिजनों के कुशल संरक्षण में रहने से ये संरक्षित रहे हैं। अयोग्य उत्तराधिकारियों के हाथ में आने से अनेक ज्ञान भण्डार रद्दी के भाव बिक कर नष्ट हो गए । पुस्तकों को रखने के लिए जहा चन्दन और हाथीदांत से निर्मित कलापूर्ण डिब्बे आदि होते थे वहां छोटे-मोटे स्थानों में मिट्टी के माटे, बैत के पिटारे व लकड़ी की पेटियां व दीवालों में बने बालों में भी रखे जाते थे। इन ग्रन्थों को दीमक, च हों व ठंडक से बचाने के लिए यथासंभव उपाय किए जाते थे। सांप की कुंचली, घोंडावज आदि औषधी की पोटली आदि रखी जाती तथा वर्षाती हवा से बचाने के लिए चौमासे में यथासंभव ज्ञान भण्डार कम ही खोले जाते थे। ग्रन्थों की प्रशस्ति में लिख श्लोकों में जल, तेल, शिथिल बन्धन और अयोग्य व्यक्ति के हाथ से बचाने की हिदायत सतत दी जाती रही है। ग्रन्थ रचना के अनन्तर ग्रन्थकार स्वयं या अपने शिष्य वर्ग से अथवा विशद्धाक्षर लेखी लहियों से ग्रन्थ लिखवाते थे और विद्वानों के द्वारा उनका संशोधन करा लिया जाता था। लहियां-लेखकों को 32 अक्षर के अनुष्टुप छंद की अक्षर गणना के हिसाब से लेखन शुल्क चुकाया जाता था। ग्रन्थ लिखवाने वालों के वंश की विस्तृत प्रशस्तियां लिखी जातीं और ज्ञान भण्डारों के संरक्षण की ओर सविशेष उपदेश दिया जाता था। ज्ञान पंचमी पर्व और उनके उद्यापनादि के पीछे ज्ञानोपकरण वृद्धि और ज्ञान प्रचार की भावना विशेष कार्यकारी हुई। ज्ञान की आशातना टालने के लिए जैन संघ सविशेष जागरूक रहा है और यही कारण है कि जैन समाज के पास अन्य भारतीय प्रजा की अपेक्षा सरस्वती भण्डार का सम्बन्ध सर्वाधिक रहा है। जैन समाज शास्त्रों को अत्यधिक सम्मान की दृष्टि से देखता है। ज्ञान का बहमान, ज्ञानभक्ति आदि की विशद उपादेयता नित्यप्रति के व्यवहार में परिलक्षित होती है। कल्पसूत्रादि आगमों की पर्युषण में गजारूढ शोभायात्रा निकाली जाती है, ज्ञानभक्ति, जागरणादि किए जाते हैं। भगवती सूत्रादि पागम पाठ के समय धूप-दीप तथा शोभायात्रा आदि जैनों के ज्ञान-बहुमान के ही प्रतीक है। ज्ञान पूजा विधिवत् की जाती है और ज्ञान द्रव्य के संरक्षणसंवर्धन का विशेष ध्यान रखा जाता है। पुस्तकों को धरती पर न रख कर उच्चासन पर रख कर पढ़ा जाता है। उसे सांपड़ा-सांपड़ी पर रखते हैं, जिसे रील भी कहते हैं। सांपड़ा शब्द सम्पूट या सम्पूटिका संस्कृत से बना है। माधु-श्रावक के अतिचार में ज्ञानोपकरण के पैर, थूक आदि लगने पर प्रायश्चित बताया है। इसलिए बैठने के प्रासन पर भी ग्रन्थों को नहीं रखा जाता। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवली : ग्रन्थ के पत्रों को अध्ययन के हेतु कवली-कपलिका में लपेट कर रखा जाता था, जिससे पत्रों के उड़ने का भय नहीं रहता। यह कवली बांस की चीप आदि को गंय कर ऊपर वस्त्रादि से मढ़ी रहती थी। बारहवीं शताब्दी में युगप्रधान श्री जिनदर सरि जी की जीवनी में कवली-कपलिका का प्रयोग होना पाया जाता है । कांबी: बांस, काष्ठ या हाथीदांत की चीजों की होती थी। उसी कम्बिकावली शब्द से कांबी शब्द बना प्रतीत होता है। चातुर्मास की वर्षाती हवा लग कर पत्रों को चिपक जाने से बचाने में कोबी का प्रयोग उपयोगी था । जैन समाज ज्ञान के उपकरण दवात, कलम, पाटी, पाठा, डोरा, कंवली, सांपडा-सांपडी कांबी, बन्धन, वीटांगणा-वेष्टन, दाबड़ा, करण्डिया आदि को महर्ध्य द्रव्य से निर्मित और कलापूर्ण निर्मित कर काम में लाया है। ग्रन्थों को जैसे ठण्ड से बचाते थे वैसे धूप से भी बचाया जाता था। स्याही में गोंद की अधिकता हो जाने से ग्रन्थ के पन्ने परस्पर चिपक कर थेपड़े हो जाते हैं जिन्हें खोलने के लिए प्रमाणोपेत साधारण ठंडक पहुंचा कर ठण्डे स्थान में रख कर धीरे-धीरे खोला जाता है और अक्षरादि नष्ट हो जाने से भरसक बचाने का प्रयत्न किया जाता है। ग्रन्थ और ग्रन्थ भण्डार से सम्बन्धित व्यक्ति को इन बातों का अनुभव होना अनिवार्य है। ग्रन्थों की रक्षा के लिए प्रशस्ति में लिपिकर्ता निम्नोक श्लोक लिखा करते थे:-- जलाद्रक्षेत स्थलाद रक्षेत रक्षेत शिथिलबन्धनात् । मूर्खहस्ते न दातव्या, एवं वदति पुस्तिका ।। 1।। अग्ने रक्षेत् जलाद् रक्षेत मूषकेभ्यो विशेषतः । कष्टेन लिखितं शास्त्र, यत्नेन प्रतिपालयेत् ।।2।। उदकानिलचौरेभ्यः, मूषकेभ्यो हुताशनात् । कष्टेन लिखितं शास्त्र, यत्नेन प्रतिपालयेत् ।।3। इत्यादि । ज्ञान पंचमी पर्व : ज्ञान की रक्षा और सेवा के लिए ज्ञान पंचमी पर्व का प्रचलन हया और इसके माध्यम से ज्ञानोपकरणों का प्रच रता से निर्माण होकर ज्ञान भण्डारों की अभिवद्धि की गई। ज्ञान पंचमी पर्वाराधन के बहाने ज्ञान की पूरी सार संभाल होने लगी। उद्यापनादि में आए हुए मूल्यवान चन्द्रवे, पुठिये, झिलमिल, वेष्टन आदि विविध वस्तुओं को आकर्षक और समृद्धिपूर्ण ढंग से सजाये जाने लगे। ज्ञान की वास्तविक सार संभाल को भल कर केवल बाह्य सजावट में रचे-पचे समाज को देख कर एक बार महात्मा गांधी जैसे सात्विक वृत्ति वाले महापुरुष को कहना पड़ा कि “यदि चोरी का पाप न लगता हो तो मैं इस ज्ञान उपादानों को जैन समाज से छीन लूं क्योंकि वे केवल सजाना जानते हैं, ज्ञानोपासना नहीं" । अस्तु । पारिभाषिक शब्द : प्रस्तुत निबन्ध में अनेक जैन पारिभाषिक शब्दों, उपकरणों आदि का परिचय कराया गया है फिर भी कुछ पारिभाषिक शब्दों का परिचय यहां उपयोगी समझकर कराया जाता है। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 423 1. हस्तलिखित पुस्तक को प्रति कहते हैं जो प्रतिकृति का संक्षिप्त रूप प्रतीत होता है। 2. हस्तलिखित प्रति के उभयपक्ष में छोड़े हुए मार्जिन को हांसिया कहते हैं और ऊपर नीचे छोड़े हुए खाली स्थान को जिव्हा या जिब्भा-जीभ कहते हैं। 3. हांसिये के ऊपरिभाग में ग्रन्थ का नाम, पत्रांक, अध्ययन, सर्ग, उच्छवास प्रादि लिखे जाते हैं जिसे हुण्डी कहते हैं । 4. ग्रन्थ की विषयानुक्रमणिका को बीजक नाम से सम्बोधित किया जाता है। 5. पुस्तकों के लिखित अक्षरों की गणना करके उसे ग्रन्थाओं तथा अंत में समस्त प्रध्यायादि के श्लोकों को मिलाकर सर्व ग्रंथ या सर्व ग्रन्थानं संख्या लिखा जाता है। 6. मूल जैनागमों पर रची हुई गाथाबद्ध टीकात्रों को नियुक्ति कहते हैं। 7. मूल आगम और नियुक्ति पर रची हुई विस्तृत गाथाबद्ध व्याख्या को भाष्य या महाभाष्य कहते हैं । भाष्य और महाभाष्य सीधे मूलसूत्र पर भी हो सकते हैं, यों नियुक्ति, भाष्य और महाभाष्य ये सब गाथाबद्ध टीका ग्रन्थ होते हैं । 8. मूल सूत्र, नियुक्ति, भाष्य और महाभाष्य पर प्राकृत-संस्कृत मिश्रित गद्यबद्ध टीका को चूणि और विशेष चूणि नाम से पहिचाना जाता है। 9. जैनागमादि ग्रन्थों पर जो छोटी-मोटी संस्कृत व्याख्या होती है उसे वृत्ति, टीका, व्याख्या, वार्तिक, टिप्पणक, प्रवचूरि, अवचूणि, विषम पद व्याख्या, विषम पद पर्याय आदि विविध नामों से संबोधित किया जाता है। 10. जैनागमादि पर गुजराती, मारवाडी, हिन्दी आदि भाषाओं में जो अनुवाद किया जाता है, उसे स्तबक टबा या टबार्थ कहते हैं। विस्तृत विवेचन बालावबोध कहलाता है। 11. मुल जैनागमों की गाथाबद्ध विषयानक्रमणिका व विषय वर्णानत्मक गाथाबद्ध प्रकरण को एवं कितनी ही बार प्राकृत-संस्कृत मिश्रित संक्षिप्त व्याख्या को भी संग्रहणी नाम दिया जाता है। इस निबन्ध में श्वेताम्बर ज्ञान भण्डारों के अनुभव के आधार पर प्राप्त सामग्री पर प्रकाश डाला गया है। दिगम्बर समाज के ज्ञान भण्डार व लेखन सामग्री पर अध्ययन अपेक्षित है। श्वेताम्बर समाज में विशेषकर मन्दिर पाम्नाय के साहित्य पर विशेष परिशीलन हरा है। आगमप्रभाकर परम पूज्य मुनिराज श्री पुण्यविजय जी महाराज की "भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखनकला" निबन्ध पर आधारित यह संक्षिप्त अभिव्यक्ति है। Page #479 --------------------------------------------------------------------------  Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ 427 1. ग्रन्थ-नामानुक्रमणी 2. विशिष्ट व्यवित एवं ग्रन्थकार-नामानुक्रमणी 3. ग्राम-नगर-नामानुक्रमणी 467 489 Page #481 --------------------------------------------------------------------------  Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम पृष्ठांक प्र अंक प्रस्तार 82,278 अंगड़ाई 351 अंगप्रज्ञप्ति 111 मंगपुरकन चौपई [1] ग्रन्थ-नामानुक्रमणो 142 अंगविज्जा 9, 17 अंगुत्तरनिकाय 3 गुलसत्तरी 23, 35 अंचलमत चर्चा 229 अंजना 262 अंजना काव्य 322 अंजना नो रास 182 अंजना सती को रास 187 पंजना सुन्दरी चरित 32 अंजना सुन्दरी चोपई 174, 277 अंजना सुन्दरी रास 175 कलंकाष्टक भाषा टीका 253 अक्खायण मणि-कोस 15, 42 अक्षर बत्तीसी 178, 280 अग्निपथ 262, 364, 365 अग्रायणी 1, 10 अघटकुमार 289 अजापुत्र चरित्र 305 अजितनाथ रास 204 अजितनाथ स्तवन 182 अजितसं तिथय 13 प्रजितसेन कनकावती रास 177 प्रजितसेन कु मार ढाल 196 भजीवकप्प 9 अज्ञानतिमिर भास्कर 285 मठाई को रासो 219 मठाई व्याख्यान 233 मठाई व्याख्यान भाषा 284 अठारह नाता 175 मठारह नाता को चोढालियो 185 अठारह पाप के सर्वये 188 प्रठावीस मूल गुण रास 204 भढाई द्वीप पूजा 112 प्रन्यनाम पृष्ठte शणगार भत्तिं 13 अणत्थमिय कहा 150 ffधया मोती 185 अणुट्ठाण विहि 13 ujarat 160 अणुव्रत 351 अणुव्रत आन्दोलन 355 प्रणुव्रत आन्दोलन एक परिचय 356 अणुव्रत आन्दोलन और विद्यार्थीवर्ग 351 अणुव्रत के संदर्भ में 350 व्रत क्रान्ति के बढते चरण 350 अणुव्रत गीत 308, 309 अणुव्रत जीवन दर्शन 350 अणुव्रत दर्शन 350 अणुव्रत दृष्टि 350 व्रत प्रदीप 147 अणुव्रत विचार 350 अणुव्रत विचार दर्शन 350 अणुव्रत शतक 94 णु से पूर्व की ओर 350 प्रतिचार 226, 227 अतीत का अनावरण 343 अधखुली पलकें 313 अध्यात्म अनुभव योग प्रकाश 286 अध्यात्म कमल मार्तण्ड 113, 114 अध्यात्मगीता बाला. 233 श्रध्यात्म तरंगिणी 111 अध्यात्म दशहरा 327 अध्यात्म धर्म जैन धर्म 345 श्रध्यात्म बारहखडी 213, 222 अध्यात्म रहस्य 86, 100 अध्यात्म विचार जीत संग्रह 289 धनगार धर्मामृत भव्य कुमुदचन्द्रिका टीका सहित 101 अनगारधर्मामृत स्वोपज्ञ पंजिका ज्ञानदीपिका 10 अनंतनाह वरियं 14 अनन्तनाथ पूजा 112 अनन्त चतुर्दशी पूजा 112 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 पन्यनाम पृष्ठाक अन्यनामः पृष्ठाक अनन्त व्रत कथा 103 अभिनिष्क्रमणं 87 अनन्त व्रत पूजा 112 अभिनिष्क्रमण हिन्दी अनुवाद 87 मनन्तवत रास 204 अमर कुसुमांजलि 300 प्रनाथी मुनि रोसत ढालियो 196 अमरकाष टीका 100, 101 मनायास 312 अमर गीतांजलि 300, 330 प्रनिटकारिका 68 अमरता का पुजारी प्राचार्य मनुकम्पा विचार 193 श्री शोभाचन्द जी म. की जीवनी 264 मनुत्तरोपपातिकदशांग, अणुत्तरोववाइयदसामो अमरदत्त मित्रानन्द रास 177 2, 5, 363 अमरपद्य मुक्तावली 300, 330 अमर पुष्पांजलि 300 मनुत्तरोपपातिकदशा सूत्र अनुवाद 287 अमर माधुरी 360, 330 अनभव चिन्तन मनन 353 अमरसेन वयरसेन चोपई 178, 270 अनुभव पच्चीसी 289 अमरसेन वयरसेन रास 177 अनुभव प्रकाश 248 अमरु शतक टीका 142 अनुभति के आलोक में 263, 333 अमृत काव्य संग्रह 192 अनुभति के शब्द शिल्प 263,334 अम्बड चरित्र 71, 77, 233,281,305 अनुभूति शतक 93 अंबड सन्यासी 183 अनुयोग चतुष्टय व्याख्या 65 अंबड सन्यासी चोढालिया 192 अनुयोगद्वार 8 अम्बिका कल्प 112 अनुयोगद्वार चूणि 10 अम्बिका रास 204 अनुयोगद्वार टोका 10, 40, 62 प्रयवन्ती सुकुमार 291 अनूप रसाल 276 अरजिनस्तव 296 अनेक शास्त्र समुच्चय 69 अरजिनस्तव स्वोपज्ञ टीका सह 69 अनेकान्त 321, 331, 357 अरणिक मुनि 292 अनेकान्तजयपताका 63 अरिदमन चौपई 196 अनेकान्तवादप्रवेश 63 अर्घकाण्ड (अग्धकण्ड) 36 अनेकार्थ संग्रह टीका 65 अर्चना 262, 365 अन्तकृदृशांग, अन्तगडदशाओ 2, 5,363 अर्चना और आलोक 266,335, 336 अन्तकृदशा सूत्र अनुवाद 287 अर्जुन 319 अन्तर की ओर (भाग 1-2) 266, 331 अर्बुद प्राचीन जैन लेख संदोह 289 अन्तर्ध्वनि 263, 353 प्रर्बुदाचल प्रदक्षिणा 289 अन्धा चान्द 311 महत् प्रवचन 360 अन्योक्ति बावनी 280 अर्हद् गीता 70 अपना खेल अपनी मुक्ति 305 प्रहन्नीति अनुवाद 317 अपरिग्रह 331 मलकार प्राशय 282 अपशब्द खण्डन 111 अलंकार दप्पण अनुवाद 296 अप्पसंबोह कव्व 156 प्रबंती सूकुमाल रास 177 अभय कुमार 292 प्रवयदी शकुनावली 82 अभय कुमार चरित्र 64,76 अवस्था कुलक 35 अभय कुमार चौपई 174 अविदपद शतार्थी 73 अभय कुमार रास 177 प्रश्रवीणा 88 89 मभिधान चिन्तामणि नाममाला टीका 69,81. अश्रुवीणा हिन्दी अनुवाद 89 .. अभिधान राजेन्द्र कीष 16, 45,285 मष्टक प्रकरण टीका 41,63,75 अभिनव प्राकृत व्याकरण 53 अष्टपदी 274 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 429 प्रन्यनाम पृष्ठांक अन्यनाम पृष्ठोक अष्टपाहुड वचनिका 252 भाचार दिनकर 72 . प्रष्ट प्रवचन माता पूजा-284 माचार दिनकर लेखन प्रशस्ति 76 अष्ट प्रवचन माता सज्झाय सार्थ 295 प्राचारसार 99 अष्टलक्षी 60, 68 भाचारांग, प्राचारांग सूत्र 2, 3, 5, 7, 291 प्रष्ट सप्ततिका 64,76 प्राचारांग चणि 10 (चित्रकटीय वीर चत्य प्रशस्ति) प्राचारांग सूत्र दीपिका 67,74 अष्टांग सम्यक्त्व कथा 204 आचारांग टब्बा 243 अष्टांग हृदय 101 . प्राचारांगटीका 10, 73 अष्टांग हृदय टीका 100 आचारांग नियुक्ति 9 अष्टापद पूजा 284 प्राचारांग पद्यबद्ध भाषाटीका 200 अष्टार्थी श्लोक वृत्ति 70 भाचारांग सूत्र बाला 229 अष्टातिका कथा 111,112,115,212 प्राचार्य प्रानन्द शंकर ध्र व स्मारक ग्रन्थ 272 अष्टाह्निकादि पर्व व्याख्यान 71 प्राचार्य चरितावली 202 अष्टाह्निका पूजा 105, 108, 112 अष्टाह्निका व्याख्यान 78 प्राचार्य तुलसी जीवन दर्शन. 264 . अष्टोत्तरी विधि 229. प्राचार्य श्री तुलसी अपनी छाया में 346. असत्याक्षेप निराकरण 284 भाचार्य श्री तुलसी एक अध्ययन 355 अस्तित्व का बोध 342 प्राचार्य श्री तुलसी एक परिचय 356 अस्तिनास्ति प्रवाद (पूर्व) 1 प्राचार्य श्री तुलसी के अमर संदेश 352 अस्तेय 288 प्राचार्य श्री तुलसी : जीवन और दर्शन 349 अहिसा 288,331, 340, 358 प्राचार्य श्री तुलसी : जीवन दर्शन 349 अहिमा और विवेक 343 प्राचार्य श्री तुलसी : जीवन पर एक दृष्टि 349 अहिमा की बोलती मीनारें 333.334 प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार ग्रन्थ सूची अहिमा की सही समझ 344 भाग-एक 181 अहिंसा के अंचल में 343 पाठ आत्मा रो थोकड़ो 238 अहिंसा तत्व 358 पाठ कर्मों की चौपई 184 अहिंसा तत्व दर्शन 345 मात्मकथा 290 अहिंसा पर्यवेक्षण 343 प्रात्म चिन्तण रो ध्यान 239 प्रात्मजयी 261, 364, 365 प्रा. मात्मज्ञान पंचाशिका 283 मात्म दर्शन 266,326 आउरपच्चक्खाण 8 मात्म द्वादशी 212 प्रांख और पांख 313 प्रात्मनिन्दा 194 भांखों ने कहा 353 मात्मबोध 4 भाग 352 पाख्यानक मणिकोष 26 प्रात्म प्रबोध छत्तीसी 281 प्राख्यानक मणि कोष टीका 26 प्रात्म प्रबोध बावनी 277 पागम और त्रिपिटक एक अनुशीलन 348 प्रात्म प्रबोध भाषा 283 मागम निर्णय 287 प्रागम युग की कहानियां दो भाग 262, 334 प्रात्म प्रबोध हिन्दी अनुवाद 233 आगमसार 105,232,288 प्रात्म प्रवाद पूर्व 1 प्रात्मसार अनुवाद 286 मात्मबोध कुलक 42 मागमाधिकार 244.. पात्मबोध में दर्शन दशक 317 प्रागमानुसार मुंहपत्ति निर्णय 71, 287 प्रात्मभ्रमोच्छेदन भानु 286 प्रागमिक-वस्तुविचारसार 64 प्रात्मरस्न माला 282 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम पृष्ठक मात्मराग रास 173 मात्मवैभव 320, 358 मात्मसम्बोधन काव्य 110 मात्मसार मनोपदेश भाषा 283 मात्मानुशासन टीका 102 श्रात्मानुशासन भाषा टीका 251 आत्मानुशासन अनुवाद 320 मात्मोन्नति चा सरल उपाय 327 प्रात्मावलोकन 248 प्रादमी की राह 351 मादमी, मोहर और कुर्सी 306, 3 मादर्श पोथी 351 आदर्श महाभारत 193 प्रादर्श महासती राजुल 303 आदर्श रामायण 193 प्रादित्यवार कथा 209 प्रादिनाथ चरित 22 श्रादिनाथ चरित्र 292 आदिनाथ पुराण 204 प्रादिनाथ वीनती 206 आदिनाथ स्तवन 177, 204 मादिपुराण 47,105, 128, 220, 249, 250 प्रादीश्वर फाग 110, 206 माधुनिक विज्ञान और अहिंसा 333 प्राध्यात्मिक आलोक 266, 328,329 प्राध्यात्मिक वैभव 329 प्राध्यात्मिक साधना भाग 1-2 मानंदघन ग्रन्थावली 297 मानन्दघन ग्रन्थावली सानुवाद 293 मानन्दधन चौबीसी बाला. 233 प्रानन्दघन चौवीसी विवेचन 281 प्रानन्द प्रवचन भाग 1-6 327 मानन्द विनोद 288 490 266, 328 भानन्द श्रावक 182, 292 भानुपूर्वी प्रस्तार बंध भाषा 282 प्राप्तमीमांसा अनुवाद 360 माबू पूजा 284 भाबूरास 142, 167, 168 माबू सचित्र प्रथम भाग 289 पाबू स्तवन 178 मात्रमंजरी 335 प्रायरिय भत्ति 13. भावारी (प्राचारांग ) 347 ग्रन्थनाम भार पार 309 आराधना 226 आराधना चोपई 175 माराधना प्रतिबोधसार 105,203 पृष्ठांक आराधनासार 49 आराधनासार टीका 101 श्रारामशोभारास 177 प्राराहणपगास 9 भाराहणापडाया 13 श्रार्जव 330 ग्रार्जन मालाकार 88 श्राजु नमालाकार हिन्दी अनुवाद 88 प्रार्द्र कुमार धमाल 175 भात प्रवचन 52 श्रर्हित लघु व्याकरण 45, 72 मार्हव्याकरण 45, 72 भात सिद्धान्त व्याकरण 45, 72 भालाप पद्धति 50 मालोचना जयमाल 204 प्रालोचना पाठ 317 प्रावर्त 310 आवश्यक सूत्र, आवश्यक, भावस्सय 2, 7. भावश्यक चूर्ण 10 आवश्यक टीका 10, 40 श्रावश्यक सूत्र वृहत् टीका 62 श्रावश्यक नियुि श्रावश्यक नियुक्ति टीका 62 श्रावश्यक बाला 229 श्रावश्यक भाष्य 9 भावश्यक विधि संग्रह 288 श्राषाढभूति 308 309 आषाढभूति धमाल 174 आषाढभूति मुनि को पंच ढालियो 184 आषाढभूति शतक 94 श्रासकरणजी महाराज के गुण 1.86 प्रासिक को गीत 218 आनव संवर री चरचा 237 महार- कोन छत्तीसी 177 इ इक्कीस ठाणा टब्बा 229 इतिहास के बोलते पृष्ठ 347 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यनाम पुष्ठीक इनसे सीखें 263 इन्कमटैक्स के हिसाब 293 इन्दुदूत 76 इन्द्र धनुष 11 इन्द्रभूति गौतम एक प्रनुशीलन 333 इन्द्रियवादी की चरचा -237 हरियावही मिध्या दुष्कृत वाण. 232 इलातीपुत समाय 173 इलायची चरित 187 इलायची पुत्र को चोढालियो 182 इलापुन चरित्र 172 इलापुत्र रास 176 इष्ट छत्तीसी 223 इष्टोपदेश टीका 100 इसिवत्तापरिस 16 उक्ति रलाकर 291 उक्ति व्यक्ति प्रकरण 226 उजली अांखें 313 उठो जागो 354 उडीसा में जैन धर्म 345 उत्तम कुमार 292 उत्तम कुमार चरित्र 173 उत्तमकुमार रास 177, 178 उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन सूत्र उत्तरायण | 2,7,261,347,364 उत्तरज्झयणाणि उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन 347 उत्तराध्ययन पूणि 10 उत्तराध्ययन सूत्र टीका 42, 68, 70, 74 उत्तराध्ययन सूत्र दीपिका 74 उत्तराध्ययन नियुक्ति 9 उत्तराध्ययन पधबद्ध भाषा टीका 200 उत्तराध्ययनवालावबोध 229, 230 उत्तराध्ययन भाष्य 9 उत्तराध्ययन सुखबोधा टीका -10, 21 उत्तराध्ययन शिष्यहिताटीका 10 उत्तरपुराण 105, 106, 220 उत्तिष्ठत जाग्रत (सानुवाद) 90 उत्पति नामा 272 उत्पाद पूर्व 1,6 उदयदीपिका 10 गन्दनाम . पृष्ठांक उदयपुर की गजल 277 उदरगीत 205 उदारता अपनाइये 296 उदाहरणमाला 3 भाग 263 उपकेश शब्द व्यत्पत्ति 76 उपदेश छत्तीसी 274 उपदेश छत्तीसी सवैया उपदेशपद 20, 24, 40, 63, उपदेशपद वृत्ति 75 उपदेश बतीसी 178, 179 उपदेशमाला उपदेशमाला प्रकरण) 15 उपदेशमाला टब्बा 229 उपदेशमाला टीका 58,75 उपदेशमाला बालावबोध 228 उपदेशमाला वहत्ति 63 उपदेशमाला लघु वत्ति 63 उपदे शमाला संस्कृत पर्याय 75 उपदेशरत्न कथाकोष 243 उपदेशरत्नकोष 3271 उपदेशरत्नमाला 248 उपदेशरत्नमाला प्रशस्ति 104 उपदेश रसायन रास 130,161 उपदेश रसायन विवरण 64 उपदेश रसाल बत्तीसी 179 उपदेश सप्तति 166 उपदेशात्मक ढाल 185 उपदेशामत 92,93 उपदेशी ढाल 186, 189 उपदेशी सज्झाय 287 उपधान तप देववन्दन 288 उपमिति भवप्रपंच कथा 21,58,63,76 उपमिति भव प्रपंचा रास 177 उपसग्गहर स्तोत्र 13 उपाध्याय श्री प्यारचन्द जी म.का जीवन! चरित 264, उपासकमोर उपासना 335 उपासकदशा 363 उपासकदशांग बाला. 230 उपासकदशा सूत्र अनुवाद 292 उपासकाध्ययन (उवासगदशाओ) 2, 5 उल्लासि स्तोत्र टीका 64 उवएस चिन्तामणि 12 उवएस पद 12 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम उवएस माला 12 वाय 6 उवासगदसा 6 उवासयाज्झयण 13 ] पृष्ठांक कंदर रासो 142 ऊ ऋ ऋजुप्राज्ञ व्याकरण 69 ऋषभ चरित 115, 116, 185 ऋषभदेव एक परिशालन 333 ऋषभनाथ स्तुति 206 ऋषभपंचाशिका 13 ऋषभ भक्तामर स्तोत्र 68 ऋषभ रास एवं भरत बाहुबली पवाडा 170 ऋषिदत्ता चौपई 177 ऋषिदत्ता रास 173, 177 ऋषिदेव ढाल 184 ऋषिभाषित नियुक्ति 9 ऋषिमण्डल प्रकरण अवचूरि 75 ऋषिमण्डल प्रकरण टीका 75 ऋषिमण्डल वृत्ति 68 ऋषिमण्डल स्तोत्र विधि विधान सह 294 ऋषिमण्डल पूजा 110, 112,281 ऋषि सम्प्रदाय का इतिहास 327 ए एक आदर्श आत्मा 356 एक फूल लारे कांटो 246 एकलिंगजी का इतिहास 286 एकसी इक्यासी बोलां री हुण्डी 236,237 एक सौ बोल का थोकडा 285, एकादशांग सज्झाय 178 एकादश गणधर पूजा 284 एकादशी व्रत कथा 16 एकान्हिक शतक 93 438 एकीभाव स्तोत्र अनुवाद 320 एकेटलाग श्राफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स पार्ट- 1, पार्ट-2 ए.बी.सी., पार्ट-3 ए.बी. 291, एथिकल डाक्ट्रिन्स इन जनिज्म 360 एवन्ता ऋषि की ढाल 184 ग्रन्यनाम पृष्ठांक ऐतिहासिक काव्य संग्रह 195, 295 ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 167, 295 नियुक्ति 7,9 प्रोघनियुक्ति टीका 40 मोघनियुक्ति वृहद् भाष्य 10 प्रो नियुक्ति भाष्य 9 मोघनियंक्ति लघु भाष्य 10 ओडिसा रे जैन धर्म 345 मोसवाल जाति का इतिहास 287 प्रोसवाल जाति का समय निर्णय 287 ओसवाल रास 178 श्री प्रौदार्य चिन्तामणि व्याकरण 36 श्रपपातिक सूत्र बाला. 229, क haar बत्तीसी 220 कंचन और कसौटी 261 कच्छुली रास 168 कडखो 218 कण्ह चरिय 22, 33 कथा कल्पतरु 263, 366 कथाकोष प्रकरण 21, 26, 291 कथाकोष प्रकरण स्वोपज्ञ टीका संग्रह 63, 78 कथाकोष भाषा 218 कथा संग्रह भाग 1 से 51, 287 कनकरथ राजानो चरित 186 कनकावली रास 177 कन्यानयन तीर्थंकल्प 72 कपिल 261, 364 कप्पवडिसिया 6, 363 कप्पिया 6 कफिणाभ्युदय काव्य 119 कमलप्रभा 285 कमलावती की ढाल 184 कयवन्ना 289 कयवन्ना रास 176, 178 कयवन्ना सेठ 292 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 433 ग्रन्थनाम पृष्ठांक करकण्डु चरित्र 129, 137, 138, 156 करकण्डु चरिउ 112 करकण्ड चौपाई 184 करकण्डु रास 204 करमचन्द जी रो ध्यान 239 करलक्खण 17 करुणसिन्धु नेमिनाथ और पतिव्रता राजुल 305, करुणा बत्तीसी 282 कर्णामृत प्रपा 291 कर्तव्य निशिका सानवाद 92, 93 कर्पूर प्रकर 60 कर्पूर प्रकर टीका 73 कर्पूर प्रकर बालाव. 229 कर्पूर मंजरी 14, 142 कर्पूर मञ्जरी सट्टक टीका 73 कर्ब र काव्य 89 कर्म 331 कर्मग्रन्थ (नव्य) 11 कर्मग्रन्थ बाला. 232 कर्मग्रन्थ विवेचन. 330 कर्मघटावली 254 कर्मचन्द्रवंश-प्रबन्ध टीका 69 कर्मदहन पूजा 111, 112, 113 कर्म प्रकृति 11 कर्मप्रकृति चूणि 11 कर्मप्रवाद पूर्व 1 कर्मप्राभूत 10 कर्मबत्तीसी 212 कर्मफल पद 183 कर्मविचार प्रकरण 35 कर्मविचारसार प्रकरण 23 कर्मविपाक 11, 105, 106 कर्मविपाक रास 204 कर्मस्तव 11 कर्मस्वरूप वर्णन 114 कर्म हिण्डोलना 209 कर्मों की लावणी 190 कलयुग शतक 305 कला : अकला 311 कलावती चौपई 184 कलावती रास 177 कलिकाल रास 169 कल्की की ढाल 182 ग्रन्थनाम पृष्ठांक कल्प व्यवहार 2 कल्पसूत्र 2, 45 कल्पसूत्र अनुवाद 287, 288 कल्पसूत्रटीका 68, 69, 70, 71, 73, 74 कल्पसूत्र टीका भाषानुवाद 286 कल्पसूत्र बालावबोध 228,229, 231, 232,285 कल्पसूत्र संदेह विषोषधि टीका 65 कल्पसूत्र सानुवाद 297 कल्पाकल्प 2 कल्पान्तर्वाच्य 73, 173 कल्याण 319, 357 कल्याण कलिका 290 कल्याणक परामर्श 71 कल्याणक रास 156 कल्याण मंगल स्तोत्र 45, 72 कल्याण मन्दिर स्तोत्र 91 कल्याण मन्दिर स्तोत्र अनुवाद 320 कल्याण मन्दिर स्तोत्र अवचरि 66 कल्याण मन्दिर स्तोत्र टबबा 232 कल्याण मन्दिर स्तोत्र टीका 66 कल्याण मन्दिर स्तोत्र पादपूर्ति 83 कल्याण मन्दिर स्तोत्र भाषा वचनिका 247 कल्याण मन्दिर हिन्दी पद्यानुवाद 275 कल्याणवाद पूर्व 1 कवच प्रकरण 9 कविता कुंज 300, 302, 330 कवितावली 273 कवि प्रमोद 278 कवि विनोद 278 कवीन्द्रकेलि 288 कषायप्राभूत (कसाय पाहुड) 11 कषाय प्राभूत उच्चारण वृत्ति 11 कषाय प्राभूत चूडामणि व्याख्या 11 कषाय प्राभूत चूर्णि सूत्र 11 कषाय प्राभूत जयघवला टीका 11, 47, 4 कषाय प्राभूत पद्धति टीका 11 कषाय प्राभूत व्याख्याप्रज्ञप्ति वृत्ति 11 कस्तुरी प्रकर 60 कहाणय कोस (कथानक कोष) 41 कहारयण कोस 15, 22, 26 कहावली 13, 39 कांजी बारस पूजा 321 कातन्त्र विभ्रम टीका 65 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 ग्रन्थनाम पृष्ठांक कातन्त्र विभ्रम वृत्ति 42 कादम्बरी 24,40, 41 कादम्बरी टीका 142 कान्ति विनोद 297 कापरडा तीर्थ का इतिहास 287 काम कुम्भ माहात्म्य 292 कामदेव श्रावक 292 कामोद्दीपन 281 कातिको पूर्णिमा व्याख्यान 78 कार्तिकेयानुप्रेक्षा 112 कालकाचार्य कथा 14, 44,70, 78, 228 कालजयी 312 कालज्ञान 275 कालवादी की चरचा 237 कालस्वरूप कुलक 161 कालू उपदेश वाटिका 201 कालू कल्याण मन्दिर स्तोत्र 91 कालूभक्तामर 91 कालू यशोविलास 201, 202 कालू शतक 94 काव्य प्रकाश टीका 69 काव्य प्रकाश नवमोल्लास टीका 81 काव्यानुशासन 102 काव्यालंकार टीका 100, 101 किरात समस्या पूर्ति 70 किरातार्जुनीय काव्य अवचूरि 66 कीर्तिकौमुदी महाकाव्य 291 कोर्तिधर सुकोशल मुनि संबध 270 कीर्तिध्वज राजा चौढालिया 192 कोतिरत्नसूरि विवाहलउ 172 कीर्तिलता अनुवाद 296 कुछ कलियां : कुछ फल 311 कुछ गीत 304, 305 कुछ देखा कुछ सुना कुछ समझा 345 कुछ मणियां कुछ पत्थर 263, 338, 365, 366 कुण्डरीक पुंडरीक चौढालिया 182 कूमत कूलिंगोच्छेदन भास्कर 286 कुमति विध्वंसन 175 कुमति विहंडन 241 कुमारपाल चरित 122 कुमारपाल चरित्र संग्रह 291 कुमारपाल प्रबन्ध 72, 142,166 कुमारपाल रास 177 प्रन्थनाम पृष्ठांक कुमार संभव 119 कुमार संभव प्रवचरि 61, 66 कुमार संभव टीका 68, 70 कुरगडु महर्षि रास 172 कुलध्वज कुमार रास 173 कुलपाक मण्डन पूजा 291 कुवलयमाला कुवलयमाला कहा 16, 19, 20, 28, 30, 41, 43, 144, 261, 305 कुशलनिर्देश 296 कुसुमंजलि कहा 159 कुसुमश्री रास 176 कूणिक 261, 364,365 कूर्मापुत्र चरित 33 कृतिकर्म 2 कृपण चरित्र 148, 205 कृपारस कोष 291 कृपा विनोद 286 कृष्ण कथा (हरिवंश पुराण) 144 कृष्ण रुक्मिणि वेलि टीका 76 कृष्ण रुक्मिणी वेलि बालावबोध 229, 230 कृष्ण वेलि बालावबोध 178 कृष्ण शतक 93 केसरियाज़ी का इतिहास 294 केशी गौतम चर्चा ढाल 185 केसव बावनी 277 कोइल पंचमी कहा 159 कोकपद्य 283 कोचर व्यवहारी रास 171 कोरटाजी का इतिहास 289 कोषीतिकी ब्राह्मण 132 क्या धर्म बद्धिगम्य है 340 क्या पृथ्वी स्थिर है 71, 287 क्यांम खां रासा 295 क्रियाकलाप 101 क्रियाविशाल पूर्व 1 क्रिसन वेली रुक्मिणी टीका 142 क्रोध की सज्झाय 182 क्रोध पच्चीसी 184 क्षपणासार 50 क्षपणासार भाषा टीका 251 क्षमा 330 क्षमाकल्याण चरित 83 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 435 ग्रन्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम पृष्ठांक क्षमा व तप ऊपर स्तवन 195 गणितसार चौपई 142 क्षुल्लक ऋषि प्रबन्ध 174 गणितसार संग्रह 16 क्षेत्रपाल गीत 208 गणितानयोग 337 क्षेत्र विचारणा 12 गणिविज्जा 8 क्षेत्र समास बालावबोध 228, 229, 230, गणेश गीतांजली 302 232 गद्य गीत 246 गयसुकुमार रास 167 गयसुकमाल रास 162 खण्ड प्रशस्ति टीका 69, 76 गहं ली संग्रह 292 खण्ड प्रशस्ति टीकादय सहित 296 गहली सरिता 288 खण्डहरों का वैभव 286 गागर में सागर 351 खण्डेलवाल जैन हितेच्छु 358 गाथाकोष सप्तशती 23 खन्दक जी की लावणी 186 गाथा कोष 41 खरतरगच्छ का इतिहास 296 गाथा सहस्री 43, 68 खरतरगच्छ पट्टावली 71 गायत्री विवरण 65 खरतरगच्छ पट्टावली संग्रह 291 गाहालक्खण 16 खरतरगच्छ वृहदगुर्वावली 291 गिरनार गजल 281 खरतरगच्छ साहित्य सूची 73, 296 गिरनार पूजा 286 खवगसढी 11 गीत 205 खिलती कलियां : मस्कराते फल 333, 366 गीत गजार 304, 305 खुमान रासो 142 गीत झंकार 302 खुली चरचा 237 गीत गोविन्द 71, 90 खुले प्राकाश 311 गीत लहरियां 304 खब कवितावली 192 गीत सौरभ 304 खटसिद्धि 70 गीतांजली अनुवाद 321 खोज की पगडंडियां 286 गीतिगुच्छ 91 गीतिगुम्फ 91 गीतिसंदोह 90, 91 गीतों का मधुवन 302 गच्छायार 8 गुंजन 313 गजल गल चमन बहार 300 गुणकित्व-षोडशिका 69 गजसिंह जी का चौढालिया 185 गुणट्ठाणसय 12 गजसिंह चरित चौपाई 177 गुणमाला प्रकरण 71, 75 गजसुकुमाल चौपई 175, 176 गुणरत्नसूरि विवाहलउ 172 गजेन्द्र पद मुक्तावली 300 गुणरत्नाकर छन्द 173 गजेन्द्र मुक्तावली 328 गणवम चरित्र 78 गजेन्द्र व्याख्यानमाला भाग 1-2 266, 328 गुणविलास 284 गणधर वलय पूजा 105, 108, 112 गणवेलि 148 गणधर सार्द्धशतक 33 गुणसून्दर चौपई 177 गणधर सार्द्धशतक लघुवृत्ति 75 गणस्थान 331 गणविसुद्धिकरण हाजरी 243 गणस्थान गभित जिन स्तवन बालाव. 2: गणितसार 44 गुणस्थान शतक बाला. 232 गणितसार कौमुदी 17, 23 गुणाकर चौपई 173 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 ग्रन्थनाम पृष्ठांक गुणावली चौपई 177 गणावली रास 177 गुरावली पूजा 112 गुरु गण वर्णन 167 गुरु गुण षट्त्रिंशिका टब्बा 232 गुरु गौरवं 91 गुरुदेव गुण छंदावली 291 गुरु छन्द 207 गुरु जयमाल 204 गुरु जोगी स्वरूप गीत 225 गुरु पारतन्य स्तोत्र टीका 67 गुरु पूजा 204 गुरु महिमा स्तवन 186 गुर्जर रासावली 167 गर्वावली97, 206 गुलदस्ता 311 गुरूपदेश श्रावकाचार 214 जते स्वर बहरे कान 309 गृहस्थ कल्पतरु 45, 72 गृहस्थ धर्म 331 गोमट्टसार 11, 50 टीका 222 , कर्मकाण्ड बालाव. 248 , भाषा टीका 251 ,, जीवकाण्ड भाषा टीका 251 गोरा बादल चरित्र 291 गौतम कुलक टीका 69 गौतम पच्छा टीका 72, 75 , बालाव. 228, 229 गौतमरास, गौतमस्वामी रास 169, 184, 185, 187 गौतम स्वामी चरित्र 113 गौतमीय महाकाव्य 71,76, 125, 126 टीका 71,76, 125 गोरा बादल चौपई 142 ग्रहलाघव वार्तिक 70 ग्रन्थ नाम पृष्ठांक चंदपण्णत्ति 6 चंदप्पह चरिउ 154 चउप्पन महापुरुष चरिय 13, 14 चउसरण 8 ,, बालाव. 228, 229 चण्डरुद्राचार्य की सज्झाय 19 0 चतुर प्रिया 273 चतुरायाम: 93 चतुर्गति वेलि 209 चतुर्दश गुणस्थान चर्चा 247 चतुर्दश स्वर स्थापन वादस्थल 69 चतुर्दशी कथा 214 चतुर्दशी चौपई 211 चविशति स्तव 2 चतुर्विंशति जिन स्तवन सानुवाद 293 , स्वोपज्ञ टीका 71 चतुर्विशति-जिन-स्तवनानि 296 चविंशति-जिन-स्ततयः 206 चतुर्विशति-जिन-स्तुति पंचाशिका 79 चतुर्विशति पूंजा 112 चतुर्विशति सन्धान काव्य स्वोपज्ञ टीका 114 चतुर्विशति स्तवन 91 चतुर्विंशति स्तुति 221 चंद चौपई समालोचना दोहा 281, 282 चन्दनबाला 292 की ढाल 184 सज्झाय 182 रास 167, 168 चन्दन मलयागिरि चौपई 176, 177, 272 , , रास 178 चन्दन षष्ठी पूजा 321 चन्दन षष्ठी व्रत पूजा 112 चन्दना कथा 111 चरित्र 112 चन्द राजा 292 चन्दसेन राजा की चौपई 188 चन्द्रगुप्त स्वप्न चौपई 209 चन्द्र दूत 296 चन्द्रप्रज्ञप्ति 2 चन्द्रप्रभ चरित 87, 111, 112 , द्वितीय सर्गवचनिका 252 चन्द्रप्रभा व्याकरण 70 चमकते चान्द 347 घटियाल का शिलालेख 14 घण्टाकर्ण कल्प 294 चंदण छट्ठी कहा 47 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 437 ग्रन्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम पृष्ठांक चमत्कार चिन्तामणि बालाव. 142 चम्पकमाला 289 चम्पक सेठ 292 चरखा चौपई 220 चरचा 244 चरचा रतनमाला 242 चरित भत्ति 13 चर्चरी 130, 161 " विवरण 64 चर्चासार भाषा 254 चाणक्य नीति टब्बा 142, 231 चातुर्मासक व्याख्यान 78, 79 , , वालाव. 230 चार मित्रों की कथा 220 चारित्त पाहुड 12 चारित्र चनडी 208 चारित्र छत्तीसी 281 चारित्र प्रकाश 344 चारित्र शद्धि विधान 111, 112 चारुदत्त चरित्र 210 ,, रास 210 चारुदत्त प्रबन्ध रास 204 चितेरों के महावीर 261, 364 चित्त निरोध कथा 211 चित्त समाधि पच्चीसी 184 चित्तौड़ की गजल 277 चित्रकूट वीरचंत्य प्रशस्ति 76 चित्रसेन पदमावती चौपई 178 चिन्तन की चान्दनी 263,333 चिन्तन के आलोक में 334, 335 चिन्तामणी जयमाल 148, 209 चिन्तामणी परीक्षा 70 चिन्तामणी पार्श्वनाथ पूजा 112 चिन्तामणी पूजा 111 चिन्तामणी प्राकृत व्याकरण 111 चिन्तामणी व्याकरण 23, 37 चिद्विलास 248 चिहंगति चौपई 169 चुनड़ी गीत 208 चुनड़ी रास 147, 148, 156 चेतन गीत 221 , चरित 190 ,, पच्चीसी 184 . चेतन पुद्गल धमाल 150, 158, 207 चेतन लू हरि, लोरी 218, 221 चेतन विलास 317 चेतना का ऊर्धारोहण 341 चेहरा एक-हजारों दर्पण 313 चैत्यवन्दनक 74 चैत्यवन्दन टीका (ललितविस्तरा) 40, 62 चैत्यवन्दन विवरण 21 चैत्यवन्दन कुलक 35 टीका 65, 74 चैत्यवन्दन चतुविशति 71 चैत्यवन्दन चतुर्विशतिका अनुवाद 292 , स्वोपज्ञ टीका 79 चैत्री पूर्णिमा देववन्दन विधि 288 चौइस तीर्थंकरां की बीनती 225 चौइस तीर्थंकरां की समच्चय वीनती 225 चौढालियो 219 चौदह राजलोक पूजा 284, 285 चौबोली कथा 177 चौमासी व्याख्यान 233 चौरासी जाति जयमाल 204 चौरासी लाख जीव योनि वीनती 208 चौवीस जिन पद 276 चौवीस जिन सवैया 178, 276 ,, ,, स्तुति 219 ,, तीर्थकर पूजा 220, 224, 322 ,, , स्तुति 220 तीर्थंकरों की जयमाल 220 ,, दण्डक 221 ,, ,, भाषा 222 " महाराज पूजा 221 चौवीसी 177, 178, 188, 200, 270, 274, 284 ,, बालावबोध 232 ,, स्तवन 275 चौसठ प्रकारी पूजा 288 चौसठ ऋद्धि विधान पूजा 225 छत्र प्रताप 293 छन्दःकोष 16 छन्दकोष 37 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 ग्रन्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम पृष्ठांक छन्द प्रबन्ध 282 जयघोष विजयघोष की सात ढालां 185 छन्दबद्ध समवसरण पूजा 224 जय चरिय 38 छन्दविभूषण 282 जयतिहमण स्तोत्र बालाव. 229 छन्दोनुशासन 102 ,हिन्दी पद्यानुवाद 281 छन्दोविद्या 23, 37, 113, जयधवला हिन्दी टीका 361 छप्पय 179 जयध्वज-प्राचार्य श्री जयमलजी म. का जीवन छह ढाला 223 वत्त 264 छिताई चरित 295 जयन्तविजय महाकाव्य 72, 124, 167 छियालीस ठाणा 209 जयपायड निमित्त शास्त्र 291 छोटी साध वन्दना 185 जयपायड 17 जयपुर राज्य के हिन्दी कवि और लेखक 297 जयपुराण 114 जयवन्ती की ढाल 184 जखड़ी 218 जयवाणी 182 जगडूशाह 289 जय विजय 292 जगत गुरु की वीनती 225 जय सौरभ 3461 जन जन के बीच 2 भाग 346 जयाचार्य की कृतियां 354 जन्मपत्नी पद्धति 70 जयाचार्य शतक 94 जन्म प्रकाशिका 273 जयोदय स्वोपज्ञ टीका 115, 116 जन्म प्रकाशिका ज्योतिष 82 जल गालण रास 206 जम्बू कुमार 326 जलती मशाल 313 " की सज्झाय 187 जलन्धरनाथ भक्ति प्रबन्ध 282 जम्बू गण रत्नमाला 194 जवाहर किरणावली 35 भाग 193, 266, जम्ब चरिय, चरित, चरित्र 14, 43, 184 325 339 188, 291 जसराज बावनी 177,274 जम्बू जी की सज्झाय 185 जसवन्त उद्योत 295 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, जंबूदीवपण्णत्ति 6, 20, 51 जसहर चरिउ 129, 138, 151, 154, चणि 10 155 टीका 40, 62,67,74 जसोधर गीत 208 जम्बूद्वीप पण्णत्ति संग्रह 35 जागरिका 342 जम्बूद्वीप पूजा 204, 284 जाति गंगा 294 जम्बूद्वीप समास टीका 744 जिणंद गीत 204 जंबूसामि चरिउ 136, 161 जिणदत्त चरिउ, चरित 137,359 जम्ब स्वामी 292 जिन आन्तरा 211 जम्ब स्वामी की सज्झाय 184 जिनकुशलसूरि पट्टाभिषेक रास 169 जम्बू स्वामी चरित्र 104, 105, 113, 212, जिन गीत 219, 220 220 जिन गुण विलास 212 जम्बूस्वामी चौपई 209 जिन चउवीसी 148 ___, रास 167, 168, 177, 178, 204 जिन चतुर्विशति स्तोत्र 52 जम्ब स्वामी रो सत ढालियो 196 जिन चविशिका 91 जम्ब स्वामी बेलि 211 जिनचन्द्रसूरि अष्टक 270 जयकुंजर 192 जिनजी की रसोई 220 जयकुमाराख्यान 208 जिनदत्त कथा, चरित 146, 147 जनचशिका 270 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम पृष्ठांक जिनदत्तसूरि चरित्र 286, 291 , स्तुति 166, 168 जिनपंजर काव्य 101 जिनपतिसूरि वधावणा गीत 167 जिनपालित जिनरक्षित रास 174 जिन प्रतिमा स्थापित ग्रन्थ 233 जिन प्रतिमा हंडी रास 176 जिनरंग बहोत्तरी 277 जिनरत्नकोष 73 जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि 295 जिनराजसूरि कृति संग्रह 271 जिनराज स्तुति 254 जिनरिख जिनपाल 184 जिनलाभसूरि दवावत 280 जिनवर स्वामी वीनती 211 जिनवल्लभसूरि गुणवर्णन 45 जिन वाणी 336, 338, 364 जिनसंत्तरी 23, 66 जिन सहस्रनाम 101 , टीका 1011 जिनसिंहसूरि पदोत्सव काव्य 68 जिनसुखसूरि मझलस 232, 279 जिनसुन्दरी 192 जिन स्तवन संदोह 288 जिन स्तुति 305 चौवीसी 288 जिनहर्ष-ग्रन्थावली 274,295 जिनाग्या मुख मंडन 241 जिनाग्या री चरचा 237 जिनाज्ञा को चौढालियो 201 जिनाज्ञा विधि प्रकाश 286 जिनोदयसूरि गच्छनायक विवाहलउ 169 जिनोदयसरि पट्टाभिषेक रास 169 जिनोपदेश मंजरी 285 जिन्दगी की मसकान 266,332 जिह वादन्त विवाद 211 जीतकल्प 78 , चूणि 10 ग्रन्यनाम पृष्ठांक जीवदया प्रकरण काव्यत्रयी 296 जीवदया रास 142, 166, 168 जीवन के पराग कण 334 जीवन ज्योति 266, 330 जीवंधर चरिउ 155 जीवन्धर चरित्र 111, 112, 212, 222 , रास 204 जीव लहरी 218 जीवविचार प्रकरण 12 टीका 71, 74 , बालाव. 229 जीवविचारादि प्रकरण संग्रह अनुवाद 286 जीवविभत्ति जीव सत्तरी 35 जीव समास 12 जीव समोधन लहरी 218 जीवाणुसासण 12 जीवा-जीवाभिगम संगहणी 12 जीवाभिगम 6 चूणि 10 ,टीका 40, 62 जुगमन्दिर स्वामी की सज्झाय 186 जुल प्रकाश 282 जैतपद वेलि 174 जैन प्राचार 337 जैन आचार्य चरितावली 300 जैन पार्ट का अनुवाद 293 जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय 167 जैन कथाऐं 5 भाग 262 जैन कथामाला 12 भाग 262, 331,366 जैन कथा संग्रह 292 जैन कहानियां 25 भाग 262, 366 जैन कुमारसम्भव 87, 119 टीका 119 जैन कोकिला साध्वी श्रीविचक्षण श्री जी म. की जीवनी 264 जन गर्जर कविप्रो 196 जैन जगती 293 जैन जाति निर्णय 287 जैन जाति महोदय 287 जैन जातियों का प्राचीन इतिहास 287 जैन जीवन 351 जैन ज्योतिष दिवाकर 291 जैन तत्व 331 , भाष्य 9 स्वोपज्ञ भाष्य 10 जीरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र अवचूरि 66 जीरावला स्तवन 173 जीरावली पार्श्वनाथ स्तवन 210 जीव अजीव 340, 344 जीवडा गीत 204 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 ग्रन्यनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम पृष्ठांक जैन तत्व चिन्तन 344 जैनिज्म इन बिहार का अनुवाद 293 जैन तत्वसार स्वोपज्ञ टीका 70 जैसलमेर अष्ट जिनालय स्तोत्र 79, जैन तत्वादर्श 285 जैसलमेर गजल 281 जैन दर्शन 319 जैसलमेर पार्श्व जिन स्तव 79, जैन दर्शन और आधनिक विज्ञान 343' जैसलमेर पार्वजिन स्तुति जैन दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन 360 __, ,स्तोत्र 79 जन दर्शन मनन और मीमांसा 85, 342 , लक्ष्मणविहार प्रशस्ति 77 जैन दर्शन सार 52, 216 शान्तिनाथ जिनालय प्रशस्ति 67 " ,टीका 358 जोइस करंडक 9 जैन दर्शन, स्वरूप और विश्लेषण 333 जोइसहीर 44 जैन दिग्विजय पताका 284 जोगा री चरचा 237 जैन धर्म एक परिचय 356 जोगि पाहुड 9 जैन धर्म और जातिभेद 358 जोणिपाहुड 17 जैन धर्म का मौलिक इतिहास 2 भाग 328 जोधपुर वर्णन गजल 283 जनधर्म दर्शन 337 जोबन पच्चीसी 184 जैन धर्म बीज और बरगद 344 जैन धर्म में तप, स्वरूप और विश्लेषण 330 ज्ञाताधर्म कथा 363 जैन धर्माचे अहिंसा तत्व 327 ,टब्बा 231 जैन धर्मा विषयी अजैन विद्वाना चे अभिप्राय टीका 74 2 भाग 327 , बालाव. 229 जैन धातु प्रतिमा लेख 286 ज्ञाता सूत्र सज्झाय 176 जैन निबन्ध रत्नावली 361 ज्ञातधर्म कथा (नायाधम्मकहानी) 2, 4 जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह 291 ज्ञानकला चौपई 178 जैन प्रेम स्तवनमाला 292 ज्ञानकुंजर दीपिका 327 जैन बन्धु 319,359 ज्ञानदर्पण 225, 248 जैन भारती 293 ज्ञान पच्चीसी 184 जैन लेख संग्रह 2 भाग 291 ज्ञानपंचमी कहा 21, 25 जन शकुनावली 291 ,, चौपई 169 जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास 73 ज्ञानपंचमी पर्व कथा बालाव. 230 जैन संस्कृति 331 ज्ञानपंचमी व्याख्यान 233 जैन संस्कृति का राजमार्ग 326 ज्ञानप्रकाश 344 जैन संदेश 321 ज्ञान प्रदीपिका 282 जैन संशोधक 291 ज्ञान प्रभाकर 282 जन सप्तपदार्थी 70 ज्ञान प्रवाद 1, 11 जैन सम्प्रदाय शिक्षा 233,284 ज्ञान लोचन स्तोत्र 114 जैन सार बावनी 280 ज्ञान वाटिका 344 जैन साहित्य का बहद इतिहास 337 ज्ञान सत्तावनी 282 जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास 73 ज्ञान समुद्र 217, 218 जैन सिद्धान्त दीपिका सानुवाद 85 ज्ञानसार ग्रन्थावली 281, 295 जन सुबोध गुटका 193, 300 ज्ञान सुखड़ी 233 जैन स्तवन तरंगिणी 191 ज्ञान सूर्योदय नाटक की वचनिका 223 जैन स्तवनावली 196 ज्ञानानन्द प्रकाश 71 जन हितेच्छु 359 ज्ञानार्णव 86,98 वचनिका 252 जैनागम तत्व दीपिका 45, 72 जैनिज्म इन गुजरात का अनुवाद 293 हिन्दी टीका 255 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 441 ग्रन्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम पृष्ठांक ज्येष्ठ जिनवर कथा 209 ,रास 204 ज्योतिः स्फूलिङ्गाः 89 ज्योतिष रत्नाकर 70 ज्योतिष सार 17, 23, 36, 82.294 ज्योतिस्मार 17, 23 ,, (नारचन्द्र ज्योतिष) 59 "ज्योतिषहीर 36 णमोकार सिद्ध 220 णाणपंचमी कहा 42 गाय कुमार चरिउ 129, 137, 138 णिज्झर पंचमी कहा 160 णिज्झर पंचमी कहा राम 148 णीइधम्मसुत्तीपा 38 मिणाह चरिउ (नेमिनाथ चरित) 136, 154, 156, 162 झाणज्झयण 12 झीणी चरचा 201 झीणी चरचा रा बोल 242 झीणो ज्ञान 201 टंडाणा गीत 150, 158, 207 टीकम डोसीरी चरचा 238 ठाठोठी 191 ठाणं (स्थानांग) 347 ठिवन्ध 11 तंदलवेयालिय 8 तंदलवेयालिय पयन्ना अवचरि 74 बालावबोध 229 तट दो प्रवाह एक 341 तत्त्वज्ञान तरंगिणी 109, 110 तत्त्वनिर्णय 111 तत्त्वनिर्णयप्रसाद 285 तत्त्वप्रदीप 45, 72 तत्त्वप्रबोध नाटक 275 तत्त्वप्रवेशिका 344 तत्त्वविचार प्रकरण 228 तत्त्वविवेक 285 तत्त्वसार 48, 49 तत्त्वसार दूहा 207, 208 तत्वानुशासन 97 तत्त्वार्थबोध 223 तत्त्वार्थसार 96 तत्वार्थसार दीपक 105, 106 तत्त्वार्थसूत्र 45, 85 तस्वार्थ सूत्र अर्थप्रकाशिका वहद 252 भाषा टीका तत्वार्थ सूत्र टीका 62 तस्वार्थ सूत्र भाषा टीका 254, ., लघु भाषा टीका 253 वचनिका 252 ,, श्रुतसागरी टीका 25-1 ,, हिन्दी टीका 316 तत्त्वालोक 320 तप 331 तपागच्छ गर्वावली 228 तपोविधि संग्रह 288 तरंगलोला 16 डालिम चरित्र 201, 202 डोरी का गीत 219 ढोला मारु 142, 164 ढोला मारु चौपई 272 र फल गीत 105, 203 र रास 221 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्यनाम पृष्ठांक तरंगवई, तरंगवई कहा, तरंगवती तर्कभाषा टीका 71 तर्कसंग्रह टीका तर्क संग्रह फक्किका ताप और तप तामली तापस चरित्र 266, 329 184 186 तामली तापस चौपई तामिल भाषा का जैन साहित्य तारक तत्त्व 282 69 80 146 45 तिजयपहुत्त स्तोत्र तित्थयरभत्ति 13 तित्थुगालिय, तित्थोगालिय पन्ना, तित्थोगाली 17 पइण्णा तिमरी ग्रामस्थ पार्श्वजिन स्तव 292 तियाल चउवीसी कहा 159 तिलक दर्शन तिलकमंजरी 146 तिलकमंजरीसार तिलोय पण्णत्ति तिहिइपण्णग 9 तीन चौवीसी पूजा 111, 112 तीन लोक पूजा 213 तीन सौ बोलां री हुंडी 236 2, 9, 290 79 170 तीर्थंकर वीनती 210 तीर्थमाला स्तवन तु गिया श्रावक की सज्झाय तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो तुलसीद्वात्रिशिका तुलसीमंजरी 92 16, 261 364, 365 361 तीर्थंकर चरित्र भाग 1, 2, 325 तीर्थंकर महावीर 360 तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा 53 38 तुलसीवचनामृत स्तोत्र 91 तुलसी वाणी 353 तुलसी शतक 94 तुलसी स्तोत्र 92 तुला- अतुला सानुवाद 90 तेरह काठिया की ढाल 185 तेरह काठिये 292 239 तेरह द्वार रह द्वीप पूजा 112 442 187 341 ग्रन्थनाम पृष्ठांक तेरापंथ 356 तेरापंथ एक परिचय 356 तेरापंथ का इतिहास 346 तेरापंथ की ख्यात 240, 245 तेरापंथ की विचारधारा और लोक चिन्तन 355 तेरापंथ दिग्दर्शन 355 तेरापंथ शतक 94 तेरापंथ शासन प्रणाली 355 तेरापंथी स्तोत्र 91 त्याग 331 291 त्रिभुवन दीपक प्रबन्ध 169 त्रिपुरा भारती लघु स्तव त्रिपुरा स्तोत्र अवचूरि 66 त्रिलोक दर्पण कथा 211 त्रिलोक पूजा 112 त्रिलोक सार 50 त्रिलोक सार टीका 222 त्रिलोक सार भाषा टीका 251 त्रिलोक सार पूजा 316 त्रिलोक सुन्दरी की ढाल 186 त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र 87 त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र 101 त्रेपन क्रिया गति त्रेपन क्रिया गीत 112 206 त्रेपन क्रिया कोष 221, 222 त्रेपन क्रिया रास 209 त्रैलोक्य चरित्र 288 त्रैलोक्य प्रकाश 294 थ थान विलास 316 थोड़े 245 द दंसण पाहुड 12 ause बालावबोध 229, 232, 233 दमघोष चौपई 184 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्यनाम पृष्ठांक दमयन्ती कथा 41 दमयन्ती कथा चम्पू टीका 69, 76 दम्भ क्रिया चीपई 276 दयानन्द मत निर्णय दयोदय चम्पू 115, 116 दर्शन पच्चीसी 223 286 दर्शन प्रकाश 356 दर्शनसार 48, 49 दर्शनवार भाषा 254 दश दृष्टांत कथानक बाला. 229 दश लक्षण 321 दश लक्षण कथा 150 दश लक्षण जयमान 156 दश लक्षण व्रतोद्यापन पूजा 110 दश लक्षण राम 204 दशवैकालिक सूत्र 2, 7 दवैकालिक सूत्र अनुवाद 287 दवैकालिक उत्तराध्ययन अनुवाद 348 दशवेकालिक: एक समीक्षात्मक अध्ययन 348 दशवेकालिक गीत 178 दशकालिक चूर्णि 10 दशवैकालिक टब्बा 229 दवैकालिक सूत्र टीका 10, 24, 40, 62, 68 दशवैकालिक नियुक्ति 9 दशवैकालिक बालावबोध 229 230 69 दशव कालिक भाष्य 9 दशाध्यान सूत्र टीका 213 दशार्णभद्र चौढालियो 183 दशा श्रुतस्कन्ध टीका दशा श्रुतस्कन्ध चूर्ण 10 दशा श्रुतस्कन्ध निर्युक्ति 9 दसवेप्रालियं, दसवेयालिय दशकालिक दस गीत 177 दस श्रावकों की ढाल 185 दसासुयक्बंध 7 दादा गुरुदेवों की 4 पूजायें 288 दादा जिनकुशलसूरि 295 दादाजी की पूजा 284 443 7, 347 ग्रन्थनाम पृष्ठांक दान शील तप भावना सज्झाय 182 दानोपदेशमाला 72 दार्शनिक के गीत 319 दिगम्बर जैन साधु की चर्या 358 दिग्विजय महाकाव्य 70, 124 दिणसुद्धि 17 दिलाराम विलास 212 दिवाकर ज्योति भाग 1-21; 193, 266, 326, 339, दिव्यजीवन - श्री विजयवल्लभ सूरिजी म. की जीवनी 264 दिव्य तपोधन- तपस्वी श्री वेणीचन्दजी म. की जीवनी 264 दीक्षा पच्चीसी 184 दीक्षा प्रतिष्ठा शुद्धि 82 दीपक बत्तीसी 273 दीप भजनावली 191 दीवसायर पण्णत्ति 9 दीवालीकल्प बालावबोध 177, 230 दुद्वाररि कहा 160 दुरियर स्तोत्र टब्बा 232 दान छन्द 207 दान प्रदीप 75 दानवीर सेठ श्री भैदान जी कोठारी का संक्षिप्त जीवन चरित्र 295 दान शील तप भाव तरंगिणी 230 दुरियर स्तोत्र बालावबोध 233 दुर्लभ अंग चतुष्टय 266,336 दुर्लभ मनुष्य जन्म की सज्झाय 182 दूषण दर्पण 282 हा बावनी 275 दृष्टिवाद (दिट्टिवाय) 2, 5, 10, 11 देवकी राणी की ढाल 184 देवगुरु द्वात्रिंशिका 92 देवगुरु धर्म द्वात्रिंशिका 91 देवगुरु शास्त्र पूजा 103 देवगुरु स्तोत्र 91 देवता मूर्ति प्रकरण 294 देवदत्त चौपई 270 देवद्रव्य निर्णय 71, 287 देवराज वच्छराज चौपई 174 देववन्दनमाला 285 देवशास्त्र गुरु पूजा 323 देवागम स्तोत्र वचनिका 252 देवानन्द महाकाव्य 70, 76, 120 देवार्चन एक दृष्टि 71,287 afar 8 देशाला 16 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम पृष्ठांक दोहा कोश 130 दोहा पच्चीसी 216, 225 दोहा बावनी 274 दोहा शतक 216, 218 दोहा संग्रह 177 द्रव्य जीव भाव जीव री चरचा 238 द्रव्य परीक्षा 17, 44 द्रव्य परीक्षा अनुवाद 296 द्रव्य प्रकाश 279 द्रव्य संग्रह 50, 98 द्रव्य संग्रह बालावबोध 232 द्रव्य संग्रह वचनिका 252 द्रव्यानुभवरत्नाकर 286 द्वादशकुलक 35, 64 द्वादशकुलक विवरण 64 द्वादश पर्व व्याख्यान अनुवाद 286, 288 द्वादश व्रतोद्यापन पूजा 103 द्वादशानुप्रेक्षा 10 5, 108 द्विसन्धान काव्य 60 द्वयाश्रय काव्य 60 द्वद्याश्रय काव्य टीका 65 द्वयाश्रय काव्य (श्रेणिक चरित्र) 60 द्वघाश्रय महाकाव्य 14 ग्रन्थनाम पृष्ठांक धम्मपद 7 धम्म परिक्खा 15 धम्म रसायण 12, 20, 35, 51 धम्म संगहणी 20 धर्म एक कसौटी एक रेखा 340 धर्म और दर्शन 333 धर्म परीक्षा 30, 145, 146, 211 धर्म परीक्षा रास 204 धर्म प्रश्नोत्तर श्रावकाचार 255 धर्म बाबनी 276 धर्म बद्धि पाप बुद्धि चौपई 178 धर्म बोध भाग 1-3; 352 धर्मरत्नकरण्डक स्वोपज्ञ टीका 75 धर्म रहस्य 356 धर्मवर्धन ग्रन्थावली 231, 276, 295 धर्मवीर सुदर्शन 300, 330 धर्म शतक 94 धर्मशर्माभ्युदय 87 धर्मशिक्षाप्रकरण 64 ,विवरण 64. धर्मसंग्रहणी 40 धर्म संग्रह श्रावकाचार 113 धर्म सरोवर 217, 2 18 धर्म सोपान 320, 358 धर्मोपदेशमाला विवरण 15, 21, 34, 44, 75 धवल ज्ञान धारा 266,330 धवला 47 धवला टीका 95 धातुत्पत्ति 17 धारदेव चरित 192 धार्मिक कहानियां 365 धर्ताख्यान 15, 19,20, 24, 30, 40, 72, 291 ध्यान 242 ध्यानशतक 342 ध्यानशतक बालावबोध 230 ध्र पद छत्तीसी 270 धनदेव पद्मरथ चौपई 270 ध्रनपाल कथा 228 धनपाल राम 204 धनसार अघटकूमार चौपई 285 धन्नाजी की सज्झाय 187 धन्नाजी की सात ढालां 185 धन्नाजी ढाल 183 धन्नाजीरी चौपी 186 धन्ना रास 172 धन्यकुमार चरिउ, धणकुमार चरिउ 154, 155, धन्यकुमार चरित्र 104, 105, 106, 221 धन्यकुमार चरित वचनिका 252 धन्यकुमार रास 204 धन्य शालिभद्र चरित्र 78 धमालि 225 नई समाज व्यवस्था में दया दान 344 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 445 ग्रन्थनाम पृष्ठांक नगरकोट प्रशस्ति अन वाद 296 नगर वर्णनात्मक हिन्दी पद्य संग्रह 286 नन्दन मणियार 184 नन्दन मनिहार 182 नन्दन मनिहार की चौपई 184 नन्द बहत्तरी 176, 274 नन्दराय चरित 187 नन्दिता 16 नन्दिषेण चौपई 179 नन्दीश्वर द्वीप पूजा 281 ,,पंक्ति पूजा 112 ,, पूजा 220 ,, भक्ति पूजा 105 नन्दीसूत्र , नन्दिसूत्र 4, 8 नन्दीसूत्र चूर्णी 10 नन्दीसत्र टीका 10, 40, 62, 72 नन्दीसूत्र मलयर्गािर टीकोपरि टीका 74 नमस्कार महामन्त्र कल्प 294 नमस्कार माहात्म्य 294 नमि नरेन्द्र स्तोत्र 114 नमि राजर्षि गीत 174 नमिरायजी सप्त ढालिया 185 नयचक्र 48, 49 नयचक्र बालाव० 248 नयचक्र मार बालाव. 232 नयमंजरी 14 नया युग नया दर्शन 352 नर्मदासुन्दरी चौपई 270 ,, सज्झाय 177 नल-दमयन्ती 292 नल-दमयन्ती रास 171 नल वर्णन महाकाव्य 73 नवकार चालीसा 305 नवकार मन्त्र की लावणी 190 नवकार व्याख्यान 226, 227 नवग्रह स्तवन 210 नवतत्व की ढाल 182 नवतत्व प्रकरण टब्बा 232 नवतत्व प्रकरण टीका 68 , बालाव० 228, 229 ,, भाषाबन्ध 275 ,, विस्तृत बाला, 233 नव नियाणा की ढाल 182 नव निर्माण की पुकार 345 ग्रन्थनाम पृष्ठांक नवपद अभिनव प्रकरण टीका 72 नवपद पाराधन विधि 288 नव पदार्थ सदभाव 200 नव स्मरण 45, 72 नवीनता के अनुगामी 326 नाग कुमार चरित्र 212 नाग कुमार रास 204 नागद्रा रास 206 नागविलास कथा संग्रह 231 नागश्री रास 204 नागाम्बर मंजरी 45,72 नागोर वर्णन गजल 283 नाण पंचमी कहाअो. 16 नाथ चन्द्रिका 282 नानार्थ उदयसागर कोष 45, 72 नान भजन संग्रह 319 नाभय चरिउ 129 नायाधम्म कहानो 6 नारिकेर कथा 150 नारी गजल 275 नास्ति का अस्तित्व 354 नाहटावश प्रशस्ति 296 निक्षेप चक्र 116 निक्षेप चक्र हिन्दी अनुवाद 358 निक्षेपांरी चरचा 238 निजात्माष्टक 13 निज्झर पंचमी महारास 156 नित्य नियम पूजा 253 निसि सत्तमी वय कहा 160 निन्दक पच्चीसी 184 निमित्त शास्त्र 17 नियमसार 2,12 निरयावलिका 6, 7, 363 निर्ग्रन्थ प्रवचन 93 निर्दोष सप्तमी कथा 209 निर्दोष सप्तमी ब्रत पूजा 204 निर्वाण काण्ड 13 निर्वाण कांड भाषा 221 निर्वाण लीलावती कथा 25,41,63 निव्याण भत्ति 13 निशीथ सुत्र, निसीह 2,7,8 निशीथ चणि 10,40 निशीथ निर्युषित 9 . Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 ग्रन्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थ नाम पृष्ठांक निशीथ पद्यबद्ध भाषा टीका 200 नेमि विनोद स्तवनमाला 291 निशीथ भाष्य 9 नेमिसुर को गीत 218 निशीथ रीहंडी 244 नमिसुर राजमती की लहरि 218 निषिद्धिका 2 नेमीश्वर का बारह मासा 150,158, 207 निष्पत्ति 351 नेमीश्वर गीत 105, 203, 209 निहाल बावनी 281 वेली 148 निन्हव भावना सप्त ढालिया 190 राजमती को व्याहलो 219 नीति शतक हिन्दी भाषा टीका 232 , रास 204,209,218 नेमजी की लहरि 219, 224 नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण 350 नेमजी को व्यावलो 187 नैतिक पाठमाला 352 नेमनाथ राजमती बारह मासियो 187 नैतिक विज्ञान 352 नेमवाणी 190 नैन काव्य संग्रह 306 नेमिगीत 172 नशं शतक 94 नेमिचरित्र 177 नैषध काव्य टीका 66,271 नेमिजिन चरित्र (हरिवंश पुराण) 105, 106 नैषध चरित टीका 61 तमिदूत 91,296 नैषधीय महाकाव्य जैनराजी टीका 68 नेमीदत टीका 69,76 नोकरवारी स्तवन 185 नेमिनाथ गीत 207, 208 न्याय पंचाशति 85 नेमिनाथ चरित्र 292 न्याय प्रवेश पंजिका 60 नेमिनाथ चरित्र भाषा 220 न्याय प्रवेश सूत्र टीका 60,63 नेमिनाथ छन्द 207 न्याय रत्नावली 73 नेमिनाथजी का दस भव वर्णन 219 न्यायविनिश्चय 63 नेमिनाथजी का सिलोका 183 न्यायावतार टीका 63 नेमिनाथ नव भव रास 270 नेमिनाथ नव रस फाग 170 नेमिनाथ नुति 92 नेमिनाथ फाग 169, 175, 177 बारह मासा 275 महाकाव्य 67, 117, 118 पउम चरिउ,पउम चरिय 13,127,129 रास 162, 178, 211 135,155 नेमिनाथ बसन्त फलडा 172 पउमसिरि चरिउ 129 ,, वसन्तु 150,158, 207 पच्चक्खाण सरुव 13 " वीनति 113 पच्चीस बोल अर्थ संग्रह 245 . व्याहलो 213 पञ्चकप्प 7 नेमि निर्वाण काव्य 87,102,117,118 पञ्चकल्प निय क्ति 9 नेमि राजमति वेलि 205 भाष्य 9 नेमि राजवलि वेलि 148 ,, महाभाष्य 10 नेमि राजीमती बारह मामा 276 पञ्च कल्याणक 150 नेमि राजल गीत 209 पञ्च कल्याणक गीत 208 नेमि राजल बारह मासा 275,276,277 ,, पूजा 112,213,223,283 नेमि राजल संवाद (एकांकी) 359 ,, ,, विधान 115 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 447. ग्रन्थ नाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम पृष्ठांक पञ्च कल्याणकोद्यापन पूजा 110 पट्टावली प्रबन्ध 290 पञ्च कल्लाण रासु 148 . , संग्रह 328 पञ्च कुमार कथा 78 पडिक्कमण समायारी 13 गति वेलि 209 पडिमा छत्तीसी 187 गुणमाल पूजा 112 पण्डित टोडरमल व्यक्तित्व और कृतित्व , गुरु भक्ति 13 321, 360. पञ्च ग्रन्थी 21 पण्णवणा 6 पञ्चग्रन्थी व्याकरण(बुद्धिसागर व्याकरण) 63,81 पण्णवणा तइय-पय संगहणी 12 पञ्च ज्ञान पूजा 284,285 पत्नपद्धति 291 तीर्थी 90 पत्रपरीक्षा वनिका 252 ... तीर्थी श्लेषालंकार चित्रकाव्य 70 पथ और पथिक 263, 353 पञ्चत्थिकाय संगह सुत्त 12 पथ के गीत 311 पञ्च परष्ठि गुणमाला 190 पथ पाथेय 352 ,, ,, गुणवर्णन 204 पथ्यापथ्य टब्बा 233 ,,, गुण स्तवन 224 पथ्यापथ्यनिर्णय 82 ,, पूजा 108,112,213,284 पद चिन्ह 345 ,,, स्तुति 214 पद बारह खड़ी 254 पञ्च प्रस्थान न्याय तर्क व्याख्या 64,65 पद बहतरी 274, 281, 282 पञ्च भावनादि सज्झाय सार्थ 295 पद संग्रह 218, 221, 223, 252 पञ्च भेद पूजा 213 पदार्थ रत्न मजूषा 291 पञ्च मास चतुर्दशी व्रतोद्यापन विधि 115 पदकविशति 70 पञ्च मेरु पूजा 220 पद्म चरित्र 128 पञ्चलिगी प्रकरण 41 पद्मनन्दि पञ्चविंशति 20 , टीका 64 ,, ,, हिन्दी भाषा टीका 231 पञ्च वत्थुग 13 पद्मनन्दि श्रावकाचार 103 पञ्च वर्णा 306 पद्मपुराण 95, 128, 220 249, 250 पञ्चवस्तु 40 पद्मानन्द महाकाव्य 87 पञ्च संग्रह 11, 97, 98 पद्मावत 129 पञ्च समवाय अधिकार 233 पद्मावती चौपई 169 पञ्च सहेली गीत 205 पद्मावती पद्मश्री रास 174,270 पञ्चसूत्र 92 पद्मिनी चरित्र चौपई 177, 296 पञ्चाख्यान 70 पंथी गीत 205 पञ्चांगानयन विधि 70 पनरह तिथि का सवैया 274 पञ्चाध्यायी 113, 114 पन्द्रमां शतक ना चार फाग काव्यो 167 पञ्चाशक 13, 40, 63 पञ्चास्तिकाय 2 पन्द्रमा शतक ना प्राचीन गुर्जर काव्य 16 पन्नवणा टीका 40 ,, टीका 96 ,, तात्पर्यवति 98, 99 ,, पद्यबद्ध भाषा टीका 200 परचनी बोल 241 पंचा स्तिकाय बालावबोध 248 परतों का दर्द 312 ,, भाषा 223 पञ्चेन्द्रिय वेलि 148, 205 परदेशी राजा रास 173 पज्जंताराहणा 9 . परमप्पयासू जोयसारु 138 परमहंस चौपई 209 पज्जण्ण चरिउ 96, 155, 157, 158 परमहंस रास 204 पावली 194 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम पृष्ठांक परमहंस संबोव चरित्र 78 परमात्मप्रकाश 130, 248, 249 , टीका 98 हिन्दी भाषा टीका 231 परमात्मराज स्तोत्र 103, 105, 108 परमार्थोपदेश 110 परम्परा बोल 242 पर समय विचार संग्रह 71 पर्युषण पर्वाराधना 266, 336 पर्यषणा अष्टान्हिका व्याख्यान 285 पर्थ षणा निर्णय 71 पर्य षणा परामर्श 71 पर्व इक्कीसी 305 पल्यव्रतोद्यापन 111, 112 पल्लीवाल जैन इतिहास 293 पवनांजना 306 पवयणसार 12 पवयणसारुद्धार 12 पशवध-सबसे बड़ा देशद्रोह 320, 358 पश्चात्ताप (खण्ड काव्य) 321 पाइय-गज्ज-संगहो 53 पाइय-पज्ज-संगहो 53 पाइय-लच्छी-नाममाला 16, 21, 35, 146 पाइय-विन्नाण-कहा 38 पाइय-सद्द-महण्णवो 16 पांच पांडव चरित 182 पांच पांडव रास 169 पांच भावरी चरचा 238 पांच भाव रो थोकडो 238 पांच व्यवहार ना बोल 240 पाण्डित्य दर्पण 81, 276 पाण्डव चरित 87, 262 पाण्डव पुराण 111, 112 पाण्डव यशेन्दु चन्द्रिका 165 पाण्डव यशोरसायन 194 पाण्डव विजय 89 पानीय वादस्थल 65 पारस यज्ञ पूजा 318 पारस विलास 223 पारस श्रवण सत्ताईसी 148 पाच जिन स्तुति 79 पार्श्वदास पदावली 224, 318 पार्श्वनाथ 326 ग्रन्थ नाम पृष्ठांक पार्श्वनाथ काव्य पंजिका 111, 112 पार्श्वनाथ चरित 87, 105, 106, 185, 292 पार्श्वनाथ जयमाल 219 पार्श्वनाथजी का सालेहा 220 पार्श्वनाथ नव ग्रह गर्भित स्तोत्रावचरि 79 पार्श्वनाथ पूजा 288 पार्श्वनाथ रासो 210 पार्श्वनाथ शकुन सत्तावीस 148 पार्श्वनाथ सत्तावीसी 205 पार्श्वनाथ स्तवन 185 पार्श्वनाथ स्तुति 185 पार्श्वनाथ स्तोत्र 45, 103 पार्श्वनाथ स्तोत्र अवचरि 66 पार्श्व पट्टावली 287 पार्वाभ्युदय 91 पावन प्रवाह 52, 116 पावन प्रवाह टीका 358 पावस प्रवचन भाग 1-5, 266, 329 पावापुरी 296 पासणाह चरिउ 136, 154, 155,160, 167 पासनाह चरिय 22 पाहुड दाहा 138 पिण्डनियुक्ति 7, 9, 10 टीका 40, 62 भाष्य 9, 10 पिण्डविशुद्धि 64, 71 बालावबोध 228 पिण्डविसोही 9 पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस 58 पीयूष घट 366 पीरदान लालस ग्रन्थावली 295 पुण्डरीक 2 पूण्णासव कहाकोसु 155 पूण्यवाणी ऊपर ढाल 185 पूण्यश्री चरित महाकाव्य 83 पुण्यश्री चरित महाकाव्य टीका 83 पुण्यसार कथानक 78 पूण्यास्रव कथाकोष 213,221, 249,250 पुप्फचला 6 पूप्फिया 6, 363 पुरंदर चौपई 174, 270 पुरंदर व्रतोद्यापन 115 पूरातन-प्रबन्ध संग्रह 142, 166,291 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149 न्थिनाम पृष्ठांक अन्यनाम पृष्ठांक पुराणसार संग्रह 108 प्रत्येकबुद्ध चरित महाकाव्य 64 पुरुषार्थसिद्धयुपाय 96, 249 प्रद्युम्न चरित 87, 97, 112, 154, 157, पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषा टीका 251 158,359 पुष्पचूलिका 363 प्रद्युम्न रास 209 पुष्पमाला 12,34 प्रद्युम्न लीला प्रकाश 71, 76 पुष्पमाला बालावबोध 229 प्रबन्धकोष 19, 142, 166, 169, 291 पुष्पांजलि कथा 150 प्रबन्धचिन्तामणि 141, 142, 166, 291 पुष्पांजलि रास 204 प्रबन्ध पराग 290 पुष्पांजलि व्रत कथा 112 प्रबोधोदय वादस्थल 64 पूजा पंचाशिका बालावबोध 177 प्रभव-प्रबोध काव्य 88 पूजाष्टक टीका 110 " " अनुवाद 88 पूज्य गुणमाला 193 प्रभावक चरित 19, 166, 291 पूज्य रामचन्द म. के गुणों की ढाल 185 प्रभु स्तवन सुधाकर 285 पूज्य श्री गणेशाचार्य जीवन चरित 264 प्रमाणवादार्थ 70, 80 पज्य श्री जवाहरलालजी म.सा.की जीवनी 264 प्रमालक्ष्म स्वोपज्ञ टीका 63.0 पूज्य श्रीमलजी की सज्झाय 195 प्रमयरत्नमाला वनिका 252 पूज्य श्रीलाल काव्य 45, 72 प्रमेयरत्नाकर 100 पूज्य हमीर चरित 194 प्रमोद विलास 292 पूर्वदेश वर्णन 281 प्रवचन डायरी 2 भाग 352 पृथ्वीचन्द्र चरित 33, 67, 228 प्रवचन डायरी 4 भाग 266 पृथ्वीराज वेलिटब्बा 231. प्रवचन परीक्षा 35 पृथ्वीशतक 94 प्रवचन प्रकाश 360 पैतालीस पागम पूजा 284 प्रवचन प्रभा 266, 330, 331 पैंतीस बोल का थोकड़ा 292 प्रवचन रचना वेलि 177 पोसह रास 206 प्रवचन सार 2,229 पोसहविहि पयरण 13 प्रवचन सार टीका 96, 98, 99 पौषधविधि प्रकरण टीका 67 प्रवचनसार पद्यानुवाद 218 प्यासे स्वर 303 प्रवचनसार बालावबोध 229 प्रकाश 351 प्रवचनसार भाषा 217, 248 प्रकाश के पथ पर 303 प्रवचन सुधा 266, 330 प्रकृति और प्रेरणा 354 प्रव्रज्याभिधान टीका 65 प्रकृति के चौराहे पर 353 प्रशस्ति संग्रह 104, 359 प्रज्ञापना सूत्र प्रदेश व्याख्या 62 प्रश्न और समाधान 350 प्रताप कथा कौमुदी 5 भाग 262, 334,368 प्रश्न चतुविंशतिका 59 प्रताप काव्य 115 प्रश्नप्रबोध काव्यालंकार स्वोपज्ञ टीका 73 प्रतिक्रमण 2 प्रश्न व्याकरण (पण्हवागरण) 2, 5 , टब्बा 229 प्रश्नव्याकरण बालावबोध 229 प्रतिक्रमण हेतु 74 प्रश्न शतक 59 प्रतिध्वनि 263, 333, 366 प्रश्नोत्तर 230 प्रतिमालेख संग्रह 293 प्रश्नोत्तर ग्रन्थ 229 प्रतिष्ठा लेख संग्रह 296 प्रश्नोत्तर तत्वबोध 201 प्रतिष्ठासार भाषा 254 प्रश्नोत्तर पूष्प वाटिका 285 प्रत्याख्यान पूर्व 1 . प्रश्नोत्तर रत्नमालाटीका 721 प्रत्येकबुद्धचरित 14, 65 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 पृष्ठांक प्रन्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम प्रश्नोत्तर वार्ता 282 प्रोत्साहन पच्चीसी 288 प्रश्नोत्तर शतक 75 प्रश्नोत्तर शतक भाषा 233 फ प्रश्नोत्तर श्रावकाचार 108 फलवद्धि पार्श्वजिन स्तोत्र 80 प्रश्नोत्तर सारध शतक 242 फलवद्धि पार्श्वनाथमहाकाव्य 77 प्रश्नोत्तर सार्द्ध शतक 71, 75 प्रश्नोत्तरकषष्टिशत काव्य 64 " पार्श्वनाथ माहात्म्य काव्य 69 , मंडन पाच जिन स्तव 79 प्रश्नोत्तरकषष्टिशत काव्य टीका 67, 76 फलवद्धि मंडन पार्श्वजिन स्तोत्र 79 प्रश्नोत्तरोपासकाचार 105 फूल और अंगारे 303,309 प्रसादमण्डन 294 प्राकृत और उसका साहित्य 337 प्राकृत काश्मीर 88 प्राकृत द्वथाश्रय काव्य टीका 64 बढ़ते चरण 346 प्राकृत प्रकाश 133 बत्तीस सूत्र दर्पण 287 प्राकृत प्रबोध 53 बदलते क्षण 263, 365,366 प्राकृत लक्षण टीका 112 बनारसी विलास 359 प्राकृत व्याकरण 16, 37, 45 बन्धन टूटे 3 भाग 351 प्राकृत शब्दानुशासन 16 बन्ध-स्वामित्व 11 प्राकृतानन्द 291 बन्धोदय सत्ता प्रकरण 12 प्राग्वाट इतिहास 293 बम्बई चिन्तामणि पार्श्वनाथादि स्तवन पद प्राचीन काव्यों की रूप परंपरा 295 प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ 167,226, 227 संग्रह 295 228, 291 बरसलपुरगढ़ विजय 278 प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह 167, 226, 291 बलहद्दी चरिउ 154 बलिभद्र चौपई 207 प्राचीन जैन इतिहास संग्रह 16 भाग 287 बहता निर्झर 311 प्राचीन फागु संग्रह 167,270 प्राणावाय पूर्व 1 बांकीदास ग्रन्थावली भाग 2, 3,297 प्रायश्चित्त अनुवाद 317 बानगी 296 प्रार्थना और तत्वज्ञान 293 बारवखडी (पाहुड दोहा) 149, 208 प्रार्थना पच्चीसी 305 बारली का अभिलेख 14 प्रार्थना प्रवचन 266, 328 बारसानवेक्खा 12 प्रास्ताविक अष्टोत्तरी 281 बारह भावना तथा बारह मासा साहित्य 361 प्रास्ताविक श्लोक शतक सानवाद 92, 93 बारह भावना पूजन 223 प्रास्ताविक श्लोक शतकजं 93 बारह मासा 142,274 प्रिय दृष्टान्तोदय 263 बारह व्रत गीत 204 प्रीतंकर चरित्र भाषा 218 बारह व्रत पूजा 284 प्रीतंकर चौपई 218 बारह व्रत रास 168 प्रीतंकर मोषिगामी चौपई 216 बारह सौ चौंतीस व्रत पूजा 112 प्रीत छत्तीसी 273 बाल कहानियां 3 भाग 351 प्रेम ज्योतिष 70 बालतन्त्र भाषा वचनिका 279 प्ररणा के प्रकाश स्तम्भ 334 बालतन्त्र हिन्दी भाषा टीका 232 प्ररणा के बिन्दु 263,334, 366 बालदीक्षा एक विवेचन 354 प्ररणा दीप 351 बालबोध पाठमाला 3 भाग 360 बालशिक्षा 173,226 प्रेरणा पुष्प 2 भाग 321 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 451 पृष्ठांक प्रन्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम बालशिक्षा व्याकरण 291 बाल्यवर्णन 220 भक्तमाल सटीक 295 बावनी 172, 179, 205 भक्तामर अवचरि 66, 174 बावनी (डूगर बावनी) 205 टब्बा 232 बाहुबलि चरित 146, 151 पूजा 110 बाहुबलि वेलि 211 पूजा विधान 112 बाहुबलि वैराग्य 321 बालावबोध 229 बिखरे पुष्प 334 स्तोत्र 91 बिखरे मोती निखरे हीरे 305 अनुवाद 320 बिन्दु में सिन्धु 333 पद्यानुवाद 275,323 बीकानेर की गजल 276 भक्तामर स्तोत्र पादपूर्ति 83 बीकानेर के दर्शनीय जैन मन्दिर 292 " " भाषा 212 बीकानेर जैन लेख संग्रह 295 ,,, वचनिका 247,252. बीकानेर वर्णन गजल 283 भक्तामर स्तोत्रोत्पत्तिकथा 223 बीबी बांदी का झगडा 295 भक्तामरोद्यापन 110 बुधजन सतसइ 216, 223 भक्ति के पुष्प 302 बुधविलास 302 भगवई आराहणा 13 बुद्ध की सूक्तियां मेरी अनुभूतियां 346 भगवती आराधना 2 बुद्ध चरित 60 .. भाषा वचनिका 253 बुद्धि प्रकाश 148 भगवती की जोड़ 200 बुद्धि रास 142,166, 168 भगवती री हुंडी 244 बुद्धिविलास 115, 214 भगवती सूत्र टीका 68 बुद बन गई गंगा 350 भगवती सूत्र पर व्याख्यान G भाग 325 बृहत्कल्प 7 भगवत्स्तुति 92 , चूणि 10 भगवान अरिष्टनेमि और कर्मयोगी , नियुक्ति 9 श्रीकृष्ण एक अनुशीलन 333 भाष्य 9, 10 भगवान नेमिनाथ काव्य 289 , महाभाष्य 10 भगवान पार्श्व एक समीक्षात्मक ,, लघु भाष्य 10 अध्ययन 333 ,, री हुंडी 244 भगवान पार्श्वनाथ काव्य 289 बहच्चाणक्य भाषा 283 भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा का इतिहास 287 बृहत्त्पर्युषणा निर्णय 287 भगवान महावीर 348 बृहत सिद्ध पूजा 112 भगवान महावीर एक अनशीलन 332, 332 बृहद् द्रव्यसंग्रह 50 भगवान महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ 36 , , टीका 50, 98 भगवान महावीर काव्य 389 बृहद् प्रश्नोतर तत्त्वबोध 242 बेडाजातक 294 भगवान महावीर की साधना का रहस्य 341 , वृत्ति 95 मगवान महावीर के पावन प्रसंग 334 बोधपाहुड 12 भगवान महावीर के प्रेरक संस्मरण 303, 30 ब्रह्मचर्य 288, 331 भटकते-भटकते 261, 364 ब्रह्म विनोद 282 भट्रारक देवसुन्दररि रास 169 ब्रह्म विलास 187,282 भट्टारक पट्टावली 115 ब्राह्मण वाडा 289 भट्टारक विद्याधर कथा 204 भद्रि काव्य 14,119 ब्राह्मी सुन्दरी 292 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक 452 न्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम मसपइण्णा 8 भाव पाहुड 12 भद्रबाह चरित्र 221, 255 भाव प्रकरण 12 , रास 204 भाव प्रदीप 7 भद्रोदय 115 भावभास्कर काव्य 89 भरत जी री ऋद्धि 185 भाव शतक 68 भरत बाहबकि चौढालिया 192 भाव संग्रह 48, 49 " " चौपई 175 भाव सप्ततिका 70 " " महाकाव्य 60, 87 भावारिवारण स्तोत्र 64 " , रास 162 " ,टीका 66, 67 , संवाद 321 , ,, पादपूर्ति स्तोत्र टीकासह 67, 80 भरत मुक्ति 308, 309 भरतेश्वर बाहुबलि घोर 142, 166,168 भावारिवारण पादादि स्तोत्र संग्रह 296 nी रास 142, 166,168 भरतेश्वराभ्युदय 100 भाषा कवि रसमंजरी 272 भर्तृहरि शतक त्रय टब्बा 231 भिक्खु दृष्टान्त 243 , इतक त्रय टीका 77 भिक्ख पिरछा 242 ,, शतक त्रय पद्यानुवाद भाषाभूषण 277 भिक्खू पिरिछा 238 ,, शतक त्रय बालावबोध 231,232 भिक्ष ग्रन्थ रत्नाकर 199 ,,तक त्रय भाषा प्रानन्द भषण 278 भिक्षु जस रसायण 201 भवभावना 12, 22 भिक्ष द्वात्रिंशिका 92 भवभावना बालावबोध 75,228 भिक्ष न्यायकणिकासानुवाद 85 भवभवना स्वोगज्ञ टीका 75 भिक्ष विचार-दर्शन 349 भव स्तोत्र 13 भिक्षु शतक 93, 94 भविष्यदत्त चरित्र 70 भिक्षु शब्दानुशासन 84 रास 204, 209 भुवन दीपक 294 भविष्य भविष्या चौपई 270 , बालावबोध 231, 233 भविस्सयत्त कहा, चरिउ 16, 129, 138 भूगर्भ प्रकाश 17 146,156, 161 भूधातुवृत्ति 71 भाग्योदय 115 भूपाल चतुर्विंशति अनुवाद 320 भारत के देशी राज्य 292 , टीका 100 भारत दर्शन 292 भपाल चौबीसी भाषा वचनिका 247 भारतीय भाषायों को जैन साहित्यकारों भूरसुन्दरी अध्यात्मबोध 197 की देन 355 जैन भजनोद्धार 197 भारतीय विद्या 291 ज्ञान प्रकाश 197 भारतीय संस्कृति का महारूप 358 बोध विनोद 197 भारतीय साहित्य 271 विद्या विलास 197 भाव और अनुभाव 353 , विवेक विलास 197 भाव छत्तीसी 281 भोज चरित्र 142 भावना 307 भोज चौपई 270 भावना चौतीसी 103 भोजन विधि 280 भावना प्रकाश 71 भोज प्रबन्ध 174 भावना विलास 275 भोले मूल अर्थ 289 भावना विवेक 52, 116 भ्रमर बत्तीसी 273 भाव पच्चीसी 178 भ्रम विध्वंसन 241 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम म 201, 202 उ सप्तमी कहा 159 मंगलकलश चौपई 176 मंगलवाद 68, 69 मगन चरित्र मणिधारी जिनचन्द्रसूरि मति प्रबोध छत्तीसी मत्स्योदर रास 176 मदन नरिंद चरित्र 78 चौपई मदन पराजय नाटक मदन शतक 271 मधुर गीत 304 मधुर दृष्टान्त मंजूषा 194, 302 मधुर शिक्षा 302 मधुर स्तवन बत्तीसी मध्यान्ह व्याख्यान पद्धति मन की वीणा 303 मन के मोती 303, 304 मनोनिग्रह के दो मार्ग 342 86, 342 177 " मनोनुशासन सानुवाद मनोरथमाला बावनी मनोरमा चरित मनोहर फूल 302 मनोहर मंगल प्रार्थना 63 मन्थन 310 295 281 271 318 "" 301, 302 68 मयणरेहा रास 172 मरणकरंडिया 36 मरणसमाहि 8 मरुधरकेसरी ग्रन्थावली 302 मयणजुज्झ 150, 158, 159, 206, 207 194 मर्यादा महोत्सव इतिहास और परिचय 354 मलय सुन्दरी चौपई 177 मल्लिनाथ गीत 206, 207 चरित 453 पृष्ठांक ग्रन्थनाम 304 मल्लिनाथ जी की चौपई महक उठा कवि सम्मेलन फूल महाकल्प 2 महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व और कृतित्व महाजन वंश मुक्तावली 184 302 222, 359 284 महातपस्वी चरित 288 महादेवी दीपिका 82 महानिशीथ, महानिसीह 7, 8 चूर्णि 10 8 "1 महापुण्डरीक 2 149 महापुराण 129, 135 महापुराण कलिका महाबल मलयासुन्दरी रास महाबाणप्रशस्ति 147 "" महाभारत 135 महाभारत ढालसागर महाराणा प्रताप 294 महावीर और बुद्ध की समसामयिकता 348 महावीर की सूक्तियां मेरी अनुभूतियां 346 महावीर के तेरह अभिग्रह की सज्झाय 185 महावीर क्या थे 341 महावीर चरित 14 "1 " 33 77 11 "} 19 33 21 "1 ور 33 31 " 27 " 184 टीका 78 चरिय 21, 33, 42 छन्द 207 जयन्ति स्मारिका 361 जी को चौढालियो 184 177 जीवन प्रभा 288 देशना 358 पंच कल्याण पूजा पारणा 270 युग की प्रतिनिधि कथाएं रास 168, 210 शतक 93 षट् कल्याणक पूजा स्वामी की पड़ स्वामी चरित्र स्वामी पूजा 288 महीपाल चरित्र महेन्द्रकुमार नाटक महेन्द्र विलास 37 292 महाशतक श्रावक महासती चतरुजी सज्झाय 105, 106, 182, महासती चन्दनबाला 367 213 चेलना की ढाल 184 195 श्री श्रमरुजी का चरित्र श्री जसकंवर - एक विराट व्यक्तित्व 264 297 285 201 318 260 188 296 पृष्ठांक 195 262 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 प्रन्यनाम पृष्ठांक प्रन्थनाम पृष्ठांक महोपाध्याय समयसुन्दर 296 मूलराज गुणवर्णन समुद्रबन्ध काव्य 71,77 माघ 121 मूलसिद्धि 13 माघ काव्य अवचूरि 61, 66 मूलाचार 2, 13, 52 माटी-कुंकुम 306, 307, 338 मूलाचार प्रदीप 105, 106 माणक महिमा 201, 202 मूलाचार भाषा वचनिका 253 माणिक्य मंजरी 291 मूलाराधना टीका 100 माणिक्य मनन 291 मृग लोढा की कथा 182 माताजी की वचनिका 232 मृगांक पद्मावती रास 270 मातकाधर्मोपदेश स्वोपज्ञ टीका 70 मृगापुत्र चौपई 176 मातृकाप्रसाद 70 मृगावती 292 मातृकाबावनी 176 मृगावती रास 175 मातुका श्लोकमाला 69, 77 मृत्यु महोत्सव 223, 253 मातृ कीर्तन 91 मेघ कुमार गीत 254 माथेरान सुषमा 89 मेघ कुमार चौढालिया 177, 178 माधवनिदान टब्बा 142 मेघदूत 91 माधुरी 319 , अवचूरि 61, 66 मान बावनी 214 " टीका 66, 68, 77 मानवता का मार्ग अणुव्रत आंदोलन 355 मेघदूत प्रथमपयस्य त्रयोः 68 माया पच्चीसी 184 मेघदूत समस्यालेख 70 मार्दव 330 दय वर्ष प्रबोध 70, 294 मालशिक्षा चौपई 270 मेघमाला व्रत कथा 148. मालापिंगल 281 मेड़ता वर्णन गजल 283 मिथ्या उपदेश निषेध सज्झाय 182 मेणरेहा कथा 187 मिथ्यात्व खण्डन नाटक 214 मेतारज मुनि चरित्र 184 मिथ्या दुकड़ बीनती 204 मेरा धर्मकेन्द्र और परिधि 340 मीनपुराण भूमिका 289 मेरी गोड़वाल यात्रा 289 मु कुलं सानुवाद 90 मेरी बगिया के फूल 304 मक्तधारा 311 मेरी मेवाड़ यात्रा 289 मुक्त मुक्ता 311 मेरु त्रयोदशी व्याख्यान 79 मुक्तावली गीत 105, 203 मेरे गीत 304 मुक्ति 330 मुक्ति के पथ पर 263, 366 मेहेसर चरिउ 154, 155 मुक्ति के पथ पर-श्री सुजानमलजी म.सा., की मैं मेरा मन मेरी शान्ति 341 जीवनी 264 मोक्खपाहुड 12 मुक्ति पथ 299 मोक्ष प्रकाश 344 मुखपट्टी मीमांसा 287 मोक्षमार्गप्रकाशक 251 मुणिसुव्वयसामि चरिय 14 मोक्षशास्त्र (तत्वार्थसूत्र) 55 मुनि अनाथी री सज्झाय 187 मोती कपासिया छंद 175 मुनि मगनसागर के प्रश्न और शास्त्रार्थ 289 मोरडा 209 मनिश्वरां की वीनती 225 मोहजीत चरित्र 78 महतचिन्तामणि बालावबोध 142 मोहनविजय जीवन चरित्न 289 महत मणिमाला 71 मौन इग्यारस व्याख्यान 233 मत्र परीक्षा 275 मौन एकादशी पर्व कथा बालाव. 230 • मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास 287 मौन वाणी 353 मूर्ति मण्डन प्रकाश 233, 284 मौनकादशी व्याख्यान 79 मोहन यासर्व कथा Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 ग्रन्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम पृष्ठांक यति पाराधना 229 यतीन्द्रविहार दिग्दर्शन 4 भाग 289 यतीन्द्रसूरि अभिनन्दन ग्रन्थ 289, 293 यत्याराधना 75 यन्त्र-मन्त्र-कल्प संग्रह 294 यशवन्त चरित्र 302 यशोधर चरित्र 71, 78,87, 105, 107, 210, 219, 220 यशोधर चौपई 220 यशोधर रास 177, 204, 206 यशोराजी पद्वति 70 यक्ति प्रबोध 70 यक्तिवाद और अन्यापदेश 85 युक्त्यनुशासन अनुवाद 360 युगप्रधान चतुष्पदिका 44 , जिनचन्द्रसूरि 264, 295 , जिनदत्त सूरि 295 , श्री जिनचन्द्रसूरि चर्चरी 168 युगप्रधानाचार्य गुर्वावली 64 युग प्रवर्तक भगवान महावीर 355 युगादिदेव स्तोत्र बालावबोध 229 युगादिदेशना 292 योग की प्रथम किरण 342 योग चिन्तामणी 58,86 बालाव. 231 योग दीपिका 86 योग दृष्टि समुच्चय 57, 63, 86 योग बावनी 272 योग बिन्दु 57, 63, 86 योगविशिका 40,57, 63 योग शतक 20, 33, 40, 63 योग शास्त्र 86 प्रवचरि 66 , चौपई 178 , बालावबोध 228, 229 योगसार 130 " भाषा 223 , हिन्दी अनुवाद 289 योनिपाहुड 47 रइध ग्रन्थावली 154 रघुनाथ रूपक गीतां रो 297 रधुनाथविनोद 273 रघुवंश अवचूरि 61, 66 , टीका 66, 68, 69, 77 रतनचन्द्रजी म. का गुण 187 रतनचूड चौपई 175 रत्नकरंड श्रावकाचार 213 " , भाषा टीका 253 रत्नचन्द्र पद मुक्तावली 186 रत्नचूड मणिचूड चरित्र 197 " , चौपई 177 रत्न चूड रास 172, 177 रत्न ज्योति 187 रत्नत्रय 292 रत्नत्रय पाराधना पूजा 288 रत्नत्रय पूजा 103 रत्नत्रय विधान 100,101 रत्न परीक्षा 17,44,295 रत्न परीक्षादि सप्त ग्रन्थ संग्रह 44 रत्नपाल चरित्र 88,89 ", हिन्दी अनुवाद 89 ॥ चौपई 179 रत्नशेखर 292 रत्नशेखर कथा 78 रत्नशेखर रत्नावली रास 177 रत्नसार 289 रत्नसार कुमार 292 " रास 177 रत्नसिंह रास 177 रत्नहास रास 178 रत्नाकर 319 रत्नावली 197 रमलशास्त्र 59 रयणचूडराय चरित्र 22,32 रयणवाल कहा 38, 46 रयणसार 2 रयणसेहर कहा 23 रयणसेहरी कहा 27 रविवय कहा 159212 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 ग्रन्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम पृष्ठांक रविव्रत कथा 204, 212 रश्मियां 346 रस निकुंज 293 रस निवास 282 रसलता 293 रस विलास 167 रसिक प्रिया टीका 82 रसिक प्रिया बालावबोध 142, 230 रसिक प्रिया संस्कृत टीका 82 रहनेमि राजुल सज्झाय 276 रहस्य कल्पद्रुम 65 रहस्य पूर्ण चिट्ठी 251 राक्षस काव्य टीका 73 राघव पाण्डवीय टीका 66, 73 राजकोट के व्याख्यान 3 भाग 325 राजगह 296 राजतरंगिणी 14 राजनीति विज्ञान 292 राजप्रश्नीय बालावबोध 229 राजमती विप्रलम्भ 100 राजमती सज्झाय 183, 185 राजविलास 277 राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डार 359 राजस्थान के जैन ग्रन्थ भंडारों की ग्रंथ सूची 5 भाग 359 राजस्थान के जैन सन्त 359 राजस्थान केसरी-पुष्कर मनिजी जीवनी और विचार 264 राजस्थान भारती 228 राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज भाग 28 295 राजस्थानी वेलि साहित्य 219, 338 गाजस्थानी साहित्य की गौरवपर्ण परम्परा 205 राजहंस के पंखों पर 354 राजा यशोधर 292 राजाश्रेणिक रो चौढालियो 184 राजा हरिश्चन्द्र 292 राजीमती 292, 293 राजुल नेमि धमाल 270 राजेन्द्रसूरि जीवन चरित्र 289 राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रन्थ 293 राठोरों की ख्यात 142 राठोरों की वंशावली 142 राणकपुर जैन इतिहास 293 राणकपुर स्तवन 170 रात्रिभोजन रास 177 रामकृष्ण चौपई 176 रामचरित मानस 129 रामचरित 78. राम पुराण 225 राम रास 203 राम वन गमन 262 राम सीता रास 204 रामायण 184,326 राय नमि का पंच ढालिया 184 रायपसेणिय 6 रावण विभीषण संवाद 182 राष्ट्र मंगल 307 रास और रासान्वयी काव्य 167 रिटुणेमि चरिउ 128 रिट्र समुच्चय 17, 21, 36 रिसिदत्ता चरिय 43 रुई और उसका मिश्रण 293 रुक्मणि विवाह 262 रुक्मणि मंगल 295 रुक्मणि मंगल (हरजी रो ब्यावलो) 164 रुक्मणि चरित्र 177 रुचित दण्डक स्तुति टीका 67, 80 रूपकमाला 172 रूपकमाला अवचूरि 68, 75 रूपकमाला टीका 172 रूपकमाला बालावबोध 172, 229 रूपमन्डन 294 रेखाचित्र 353 रेवंतगिरि रास 162, 167, 168 रोहिणी 183 रोहिणी रास 204 रोहिणी व्रत पूजा 321 रोहिणी स्तवन 173 रौहिणेय 89 लकडहारा 292 लक्ष्मी स्तोत्र 103 लग्गसुद्धि, लग्नशुद्धि 17, 40 लग्न कुंडलिया 40 लंघन पथ्य निर्णय 279 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 457 ग्रंन्थनाम पृष्ठक ग्रन्थनाम पृष्ठांक लघु चाणक्य भाषा 283 लघु जातक टीका 82 लघु जातक भाषा टीका 173 लघु त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र 70 लघु नयचक्र 12 लघु प्रकरणमाला हिन्दी अनुवाद 289 लघु बावनी 214 लघु शान्ति स्तव टीका 69, 80 लघु संग्रहणी बालाव. 229 लघु साधु वंदना 182 लघु सिद्धचक्र पूजा 112 लघु स्तव टब्बा 279 लघु स्तव भाषा टीका 232 लब्धि विधान कथा 221 लब्धिसार 11, 50 लब्धिसार भाषा टीका 251 ललितांग कुमार 292 लवजी मुनि काव्य 45, 72 लाघव 330 लाटी संहिता 113, 114 लालचन्द बावनी 188 लावा रासा 297 लिखत (मर्यादा पत्र) 239 लिंग पाहुड 12 लिङ्गानुशासन अवणि 68 लीलावती 16 लीलावती गणित 278 लीलावती भाषा चौपई 142 लीलावती रास 178 लेखा लीलावती 291 लो कथा कह दूं 263,334,366 लोकतत्वनिर्णय 56, 63 लोकनाल बालावबोध 230 लोकप्रकाश 344 लोक बिन्दुसार 1 लो कहानी सुनो 263, 334, 366 . लोचन काजल संवाद 142 लोभ पच्चीसी 184 लोकाशाह महाकाव्य 45, 72 वज्जालग्ग 12 वज्रपुरंदर चौढालिया 182 वड्ढकहा 133 वढमाण काव्य 150 वण्हिदसाप्रो 6 वद्धमाणदेसणा 12 वधावा 210 वन्दना 2, 220 वय पच्चीसी 184 वयरस्वामी रास 177 वरकाणा स्तवन 173 वरदा 231, 278 वरांग चरिउ, चरित 87, 160 वर्णक समुच्चय 228 वर्तमान भारत का नक्शा 353, 356 वर्धमान चरित, चरित्न 87, 105, 107 वर्धमान पारणउ 142 वर्धमान पुराण 221, 222 वर्धमान पुराण भाषा टीका 255 वर्धमान पुराण सूचनिका 2231 वर्धमान स्तोत्र 45, 72 (मेघ महोदय) वर्ष प्रबोध 59 वल्लभ-भारती 296 ववहार 7 वसन्तराज शकुन टीका 82 वसन्त विद्या विलास 211 वसुदेव चौपई 177 वसुदेव रास 177 वसुदेव हिण्डी 14 वसुनन्दि श्रावकाचार भाषा टीका 255 वसुमती 293 वस्तुपाल चरित 122, 123 वस्तुपाल चरित्र काव्य 77 वस्तुपाल तेजपाल रास 169 वस्तुपालनु विद्यामण्डल 293 वस्तुपाल महामात्य का साहित्य मंडल और उसकी संस्कृत साहित्य को देन 2933 वन्हिदशा 363 वाग्भटालंकार 94, 102 वाग्भटालंकार अवचूरि 66 वाग्भटालंकार टीका 65, 68,73, 114 वाग्भटालंकार बालाववोध 229 वाग्विलास 228 वाणी वीणा 302 व वंकचूल चरित्र 89, 188 वंकचूल रास 204 वचनदूत 116, 360 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 ग्रंथनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम पृष्ठांक वादार्थ निरूपण 70 विद्यानुवाद 1 वास्तुसार 17, 23 विद्याविलास चरित्र चौपई 172 वास्तुसार प्रकरण 294 विद्याविलास पवाड़ा 169 विकास 351 विद्याविलास रास 176, 178 विक्रम चरित्र 142 विद्वत्प्रबोध काव्य 69,77 विक्रम चरित्र चौपई 172 विधवा कर्तव्य 295 विक्रम चौपई 270 विधि-कन्दली स्वोपज्ञ टीका 23,76 विक्रम पंचदण्ड चौपई 174, 178 विधि के खेल 303 विक्रमपुर आदीश्वर स्तोत्र 80 विधि प्रकाश 229 विक्रमांकदेव चरित्र 14 विधि मार्ग प्रपा 42,65 विक्रमोर्वशीय नाटक 140 विधवन 306 विचार और अनुभूतियां 333 विनयचन्द्र कृतिकुसुमांजली 276, 296 विचार चन्द्रोदय 282 विनयचन्द्र चौवीसी 194 विचार छत्तीसी 232 विपाक सूत्र, विवाअसुय 5, 363 विचाररत्न संग्रह (हुडिका) 75 विपाक सूत्र अनुवाद 288 विचार रत्नसार प्रश्नोत्तर ग्रन्थ 232 विमलनाथ स्तवन 186 विचार रश्मियां 333 विल्हण पंचाशिका 142 विचार विकास 354 विविधतीर्थ कल्प 42, 59, 65,291 विचार शतक 76 विवेक पच्चीसी 282 विचार षत्रिशिका अवचूरि 70 विवेकमंजरी, विवेगमंजरी 22, 34 विच रसार 283 विवेक मंजूषा 358 टब्बा 232 विवेक विलास 12, 35, 216, 222 विजयकीर्ति गीत 150, 158, 207 विवेकोदय 115 विजयकीति छन्द 207 विशति पद प्रकाश 71 विजयकुमार चौढालिया 189 - विशति विशिका 40 विजयकुंवर व विजयक वरी का चौढालिया 188 विशाल लोचन स्तुति टीका 80 विजय के आलोक में 355 विशिका 35 विजयदेव माहात्म्य 69, 123 विशेषणवती 11 विजय प्रशस्ति काव्य टीका 77 विशेषनाममाला 174 विजय यात्रा 354 विशेष शतक 68,76 विजय सेठ विजया सेठानी 292 विशेषशतक बालाव. 233 विजय सेठ विजया सेठानी की सज्झाय 183 विशेष संग्रह 68 विज्ञप्तिका 77 विशेषावश्यक भाष्य 9 विज्ञप्तिज्ञप्ति पात्र पत्र 77 विश्वचेतना के मनस्वी सन्त मनि विज्ञप्ति पत्र 77 श्री सुशील कुमार जी की जीवनी 264 विज्ञप्ति-त्रिवेणी 67,291 विश्वज्योति महावीर 302 विज्ञप्ति लेख संग्रह 291 विश्व प्रहेलिका 343 विज्ञ विनोद 282 विश्ववाणी 319 विज्ञ विलास 282 विश्व स्थिति 355 विज्ञान चन्द्रिका 71,77 विश्वामित्र 319, 357 विदग्धमुखमंडन अवचरि 66 विश्वास 351 विदग्धमुख मण्डन टीका 61, 65, 69, 73,82 विष से अमत की ओर 261, 338, 366 विदग्धमुख मण्डन बालाव. 229 विषापहार स्तोत्र अनुवाद 320 विद्या 228 विषापहार स्तोत्र भाषा 212 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 459 ग्रन्थनाम पृष्ठांक विषापहार स्तोत्र वचनिका 247 विष्णु कुमार चरित 189 विसर्जन 354 विसालकीत्ति को देहुरो 218 विहारी सतसई टीका 277 विहिमग्गप्पवा 13 वीतराग वन्दना 282 वीतराग विज्ञान पाठमाला 3 भाग 360 वीतराग स्तुति 91 , स्तोत्र 103 ,, अवचूरि 66 वीनती 220, 224, 282 वीरगण इक्कीसी 305 वीर चरित्र 41 र, बालाव. 229, 232 वीर निर्वाण संवत और जैन काल गणना 290 वीर भक्तामर स्वोपज्ञ टीका 70 वीर वाणी 321, 357, 358, 359 वीर विभति 337 वीर विलास फाग 211 वीर शासन के प्रभावक प्राचार्य 359 वीरांगद चौपई 270 वीरांगद सुमित्र चरित्र 304 वीरोदय 115, 116 वीर्यानवाद 1 वीस तीर्थकर पूजा 317 वीसल देव रास 174 वीस विहरमान पूजा 284 , रास 169 वीस स्थानक पूजा 285 बीसा यन्त विधि 70 वीसी 177, 178 वत्तबोध 45,72 वृत्तमण्डली 196 वत मौक्तिक 296 वत्त रत्नाकर अवचरि 66 ,, टीका 68, 81 , बालावबोध 142,229 वृद्धाचार्य प्रबन्धावली 118 वेंकटेश्वर समाचार 293 वेटथ पद विवेचन 81 वलि 205 वैचारिकी : 276 वैद्यकसार 278 ग्रन्थनाम पृष्ठांक वैद्यचिन्तामणि (समुद्रप्रकाश सिद्धान्त) 275 वैद्य जीवन टब्बा 233 वैद्य दीपक 284 वैद्य वल्लभ 58 वैद्य विरहिणी प्रबन्ध 273 वैनयिक 2 वैराग्य छत्तीसी 177 वैराग्य महाकाव्य 321 वैराग्य रसायन प्रकरण 12 वैराग्यशतक 69, 77,305,327 , अनुवाद 292 टीका 69, 73,275 वैशाली का अभिषेक 260. 261 व्यवहार सूत्र 2, 8 चूर्णि 10 क्ति 9 भाष्य 9, 10 री हंडी 244 व्यसनराज वर्णन 213 व्याकरण चतुष्क बालावबोध 228 व्याख्यान नवरत्नमाला 193 व्याख्याप्रज्ञप्ति, विवाहपण्णत्ति, 2, 4 (भगवती सूत्र) ,, चणि 10 व्रत कथा कोष 105, 108, 204, 220 वत विधान रासो 212 शकडालपुत्र 325 शकुन दीपिका चौपई 278 शकुन शास्त्र 284 शकुन्तला रास 173 शंख पोरवली को चरित 186 शंखश्वर महातीर्थ 289 शतक 11 शत दल कमल मय पार्श्वजिनप्तव 69,80 शतदल की पंखुड़ियां 311 शतश्लोकी टब्बा 233 शत्रुजय माहात्म्य रास 177 शनुजय यात्रा स्तवन 177 श@जय रास 175, 178 शत्रं जय लघु माहात्म्य 66 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 ग्रन्थनाम पृष्ठांक शनिश्चर कथा 282 शब्दप्रभेद टीका 81 शब्दार्थ-चन्द्रिका 282 शब्दों की वेदी अनभव का दीप 343 शाकंभरी प्रदेश के सांस्कृतिक विकास में जैन धर्म का योगदान 359 . . शान्तरस 232 शान्त सुधारस 90 शान्ति और समन्वय का पथ: नयवाद 355 शान्ति के पथ पर 2 भाग 353 शान्ति के सोपान 266, 329 शान्तिनाथ चरित्र 70, 87, 105, 107, 148, 149, 213 शान्तिमाथ जयमाल 220 ,, जिनालय प्रशस्ति 77 शान्तिनाथ देव रास 168 शातिनाथ पुराण 209, 221 शान्तिनाथ फागु 105, 203 , स्तवन 103 शान्ति पीयूष धारा 358 शान्ति लहरी 70 शान्ति सिन्धु महाकाव्य 45, 72 शालिभद्र को षटढालियो 184 शालिभद्र चरित 262 , चौपई 271 शालिभद्र धन्ना अधिकार छह ढालिया 189 शालिभद्र फाग 169 , रास 168, 169 शाश्वत चैत्य स्तव 13 शाश्वत जिन स्तव टीका 80 शाश्वत स्तवन बालाव. 229 शासन-चतुस्त्रिशिका 98 शासनप्रभावक प्राचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य 296 शास्त्र पूजा 204 शास्त्र मण्डल पूजा 110 शास्त्र वार्ता समुच्चय 63 शिक्षा षण्णवति सानुवाद 92 शिक्षा सागर 295 शिवकोष 45, 72 शिवरमणी विवाद 220 शिशुपालवध 19, 121 टीका 66 तृतीय सर्ग टीका 68 ग्रन्थनाम पृष्ठोक शीघ्रबोध 287 शीतलनाथ गीत 211 , वीनती 208 शीलदूत 91 शील नववाड़ सम्यक 176 शील बत्तीसी 148, 205 शील बावनी 270 शील रास 173, 177, 178 शीलवती 292 शीलवती कथा 78 शीलोपदेशमाला टीका 72,75 बालाव. 229 लघु वृत्ति 69 शुकराज कुमार 292 शुकराज रास 176 शुद्ध देव अनुभव विचार 286 शुद्ध रहस्य 285 शुद्ध समाचारी मण्डन 286 शूली और सिंहासन 364 श्रृंगार कवित्त 283 शृंगार रसमाला 70 शृगार वैराग्य तरंगिणी 60 शृंगार शत 142 शृगार शतक 64 शेष संग्रह टीका 65 श्रद्धांजलि 300 श्रमण भगवान् महावीर 290 श्रमण महावीर 349 श्रमण संस्कृति और कला 286 श्रमण संस्कृति की दोधाराएं । जैन और बौद्ध 355 श्राद्धदिन कृत्य बाला. 233 श्रावक दृष्टान्त 243 श्रावक धर्म प्रकाश 344 श्रावक धर्म वृहद्वत्ति 64 श्रावक धर्म विधि प्रकरण 40 श्रावक विधि वृहद् वृत्ति 74 श्रावक धर्म विधि स्वोपज्ञ टीका 74 श्रावक विधि प्रकाश 76 श्रावक विधि रास 169 श्रावक व्यवहारालंकार 284 श्रावक व्रत कुलक 76 श्रावकाचार टीका 103 भावकाराधना भाषा 232 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 461 ग्रन्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम पृष्ठांक श्री गणेश मुनि शास्त्री : साधक और सर्जक 302 षट कल्याणक निर्णय 71, 287 । श्रीचन्द्र चरित्र 292 षट्खण्डागम 2, 5, 10, 47 श्री जैन श्वेताम्बर पंचायती मन्दिर 296 धवला टीका 11, 20, 47, 48 कलकत्ता का सार्द्ध शताब्दी स्मृति ग्रन्थ पद्धति टीका 11 श्री तुलसी महाकाव्य सानुवाद 87,88 प्राकृत टीका 11 श्रीधर चरित 125 , पंजिका 11 " , महाकाव्य 77 प्राकृत संस्कृत मिश्रित टीका 11 श्रीपति स्तोत्र 317 षट् पंचाशिका वृत्ति बालाव. 70 श्रीपाल चरित्र 78, 105, 107, 184 षट मत सार सिद्धान्त 283 214,222 षट् लेश्या वेलि 219 अनुवाद 288 षट् स्थानक प्रकरण टीका 64, 74 टीका 78 षडशीति 11 प्राकृत का हिन्दी अनुवाद षडावश्यक टीका 65 286 बालावबोध 227, 228,228 , भाषा 233, 284 षड्दर्शन समुच्चय टीका 72, 80 चौपई . 179 "" बालाव. 233 " रास 177, 178, 204,209 षड् भाषामय पत्र 71, 77 " " (संक्षिप्त) 177 षष्टिशत, षष्टिशतक 23, 35, 45 , स्तुति 254 , बालावबोध 228, 229 श्री भिक्षु महाकाव्य 87 षोडशकारण जयमाल 156 श्रीमती का चौढालिया 188 श्रीमती जी की ढाल 182 स श्रीमती रास 177 सईकी 286 श्रीमद गीता 45 संकल्प विजय 302 श्रीमद देवचन्द्र स्तवनावली 295 संगीत रश्मि 302 श्री मनोहरविजय 293 संगीत संचय 305 श्रीमान् लोकाशाह 287 संगीतिका 300, 301, 330 श्रीलाल नाममाला कोष 45,72 संग्रहणी बालावबोध 228 श्रुत अनुभवविचार 286 संघपट्टक 64 श्रुतपूजा 110 , बालावबोध 233,286 श्रुतस्कन्ध पूजा 112 , हद् वृति 64 श्रुतावतार 19, 47 , वृत्ति 174 श्रेणिक चरित्र 111, 112,222 संघपति मल्लिदास गीत 208 , (द्वयाश्रय काव्य) 42, 65 संघपति रूपजी वंश प्रशस्ति 69, 296 श्रेणिक चरित्र टीका 118, 119 संघ पूजा 284 श्रेणिक चौपई 178 संतिणाह चरिउ 136, 156 " प्रबन्ध 210 संतोष तिलक जयमाल 150, 151, 158 रास 204 207 श्रेयांस कुमार की ढाल 184 संथारक 8 श्लोक शतक 94 संदेसरासक 129, 291 टीका 72 संदेह दोलावलि 35 षट् कर्म रास 206 टीका 64,67 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 पृष्ठांक ग्रन्थनाम ग्रन्थनाम पृष्ठांक संदेहविसोसधि (कल्पसूत्र टीका) 241 सनत्कुमार चरिउ, चरित्र 162, 163 संबोध सत्तरी अनुवाद 292 सनत्कुमार चक्रि चरित्र महाकाव्य 64, संबोध सत्ताण 211 124, 296 संबोह पगरण, संबोहपयरण 12, 20 सनत्कुमार चौढालिया 184 संभवणाह चरिउ 160 सनत्कुमार राजर्षि चौढालिया 190 संयम 331 सनत्कुमार रास 174 संयम प्रकाश 358, 359 सन्त गुणमाला 200 संयम मंजरी 162 सन्तान चिन्तामणि 284 संयोग द्वानिशिका 278 सन्निपात कलिका टब्बा 232 संवर सुधा सानुवाद 90 सन्मतितर्क 19 संवेगरंगशाला 22, 34, 42 सप्तति का 11 संशयवदनविदारण 111 सप्ततिशतस्थान चतुष्पदी 285 संसक्त नियुक्ति 9 सप्त पदार्थी टीका 65, 80 संसारदावा पादपूात्मक पार्श्वनाथ स्तोत्र 70 सप्तर्षि पूजा 112 संस्कृत गीतिमाला 90 सप्त व्यसन परिहार 288 संस्कृत साहित्य का इतिहास 57 सप्त सन्धान काव्य 60, 70, 121, 122 संस्कृति का राजमार्ग 266 सप्त स्मरण टब्बा 231 संस्कृति के प्रांचल में 333 टीका 68, 80 सकलकीति रास 105 , बालावबोध 174,229, 232 सगर चरित्र 187 सभा शृंगार 228, 295 सच्चउरिय महावीर उत्साह 166, 168 सभा सार 283 सड्ढदिणकिच्च 13 समकित सतमी 176 सणंकुमार चरिय 14 समता दर्शन और व्यवहार 266, 329 सतयुग शतक 305 समयखित्त समास 12 सती चन्द्रलेखा 197 समयसार 12, 138 सती नरमदा की चौपई 184 टीका 96,98,99, 112, सती मदनरेखा 262 115 सती मृगावती 296 समयसार बालावबोध 232 सती राजमती 262 भाषा टीका 113 सती सीता 292 , वचनिका 252 सत्तरिसयठाण पयरण 12 समयसार कलश 96 सत्य 288,331 , , टीका पर टब्बा 96 सत्य की खोज अनेकान्त के पालोक में 343 , बालावबोधिनी टीका 247 सत्य की चौपई 270 समयसार नाटक भाषा वचनिका 253 सत्यपूरमण्डन महावीर जिन स्तव 80 समयसुन्दर कृति-कुसुमांजलि 175, 270, सत्यपुरमण्डन महावीर स्तोत्र 65 295 सत्य प्रवाद 1 समयसुन्दर रास पंचक 296 सत्यविजय निर्वाण रास 177 समराइच्च कहा 15, 20, 24, 30, 40, सत्य हरिश्चचन्द्र 300, 301, 330 63 सदयवत्स प्रबन्ध 273 समरादित्य केवली चरित्र 71, 78 सदयवत्स सालिंगा चौपई 142 समरादित्य चरित्र 305 सदेवच्छ सावलिंगा चौपई 273 समरा रास 162, 169 सदभाषितावली 105, 107, 220 समवायांग 2, 4, 5, 6 सदवत्तिशालिनी 111 , बालावबोध 229 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 463 अंन्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थनाम पृष्ठांक समवायो (समवायांग) 347 सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण 63 समस्या का पत्थर अध्यात्म की छैनी 341 सर्वधर्म सद्भाव 355 समस्या शतक 94 सर्वार्थसिद्धिमणिमाला 177 समाचारी शतक 68, 76 सर्वार्थ सिद्धि वचनिका 252 समाधितन्त्र 86,98 सब्वत्थ शब्दार्थ समुच्चय 69 , टीका 102 सहजानन्द संकीर्तन 296 समाधिमरण भावना 335 सहस्रकूट पूजा 284 समुच्चय पूजा 317 सहस्त्र गुणित पूजा 112 समुद्रदत्त चरित्र 115 सहस्रनाम पूजा 113 समुद्रबन्ध काव्य वचनिका 281 सांसों का अनुवाद 314 सम्ब प्रद्युम्न चौपई 175 साक्षी है शब्दों की 314 सम्बोध अक्षर बावनी 223 सागर सेठ चौपई 296 सम्बोध प्रकरण 40 सागर धर्मामृत टीका सह 101 सम्बोध पंचाशिका 113 साधना का राजमार्ग 266, 332 सम्बोध सप्तति टीका 69, 74 साधना के पथ पर 266, 330 सम्बोधि साधना के सूत्र 266, 331 86, 345 सम्बोधि हिन्दी अनुवाद 86 साधना पथ की अमर साधिका- 264 महासती श्रीपन्नादेवी जी म. की जीवनी सम्भव जिनालय प्रशस्ति 77 सम्मई जिण चरिउ 154, 155 साधनिका 244 सम्मई सुत्त 12, 33 साधु कर्त्तव्य की ढाल 186 टीका 12 साधुगुण की सज्झाय 183 सम्मत्त कउमुदी 156 साधु गुणमाला 185 सम्मत गुण निधान 155 साध पंच प्रतिक्रमण सूत्र अनुवाद 287 सम्मेतशिखर पूजा 283 साधु प्रतिक्रमण सूत्र टीका 65 , याना स्तवन 177 साधु प्रतिक्रमण सूत्र बालाव. 229 सम्मेद शिखर पूजा 115 साधु वन्दना 174, 282 सम्यक्त्व कौमुदी 113, 158 साधु-श्रावक विधि प्रकाश 71 , भाषा 217 साधु समाचारी 229 ,, रास 175 साध्वाचार पतिशिका 71 सम्यक्त्व प्रकाश 214 साध्वी रत्नकुंवर 302 सम्यक्त्व माई चौपई 167 साध्वी व्याख्यान निर्णय 71, 76,287 सम्यक्त्व मिथ्यात्व रास 204 सामायिक 2 सम्यक्त्व रास 171 सामायिक पाठ अनुवाद 320 सम्यक्त्व शल्योद्धार 285 सामायिक पाठ वचनिका 252 सम्यक्त्व सप्तति टीका 72 साम्प्रदायिकता से ऊपर उठो 337 सम्यक्त्व स्तव बाला. 229 सार चतुर्विशतिका 105, 108 सम्यग् दर्शन पूजा 285 सार चौवीसी 222 सम्राट् खारवेल का हाथी गुफा शिलालेख 14 सार शिखामणि रास 105, 203 सयलविहिविहाण कव्व 152 सार समुच्चय 249 सरगम 313 सारस्वत टीका 68,69 सरदार सुजस 201 सारस्वत धातुपाठ 73 सरस गीत 304 सारस्वत बालावबोध 142 सरस्वती पूजा 103, 110, 111, 204 सारस्वत रहस्य 68 सरस्वती स्तवन, स्तुति 110 मारस्वतानुवत्यवबोधक 81 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 ग्रन्थनाम पृष्ठांक ग्रन्थ नाम पृष्ठांक सारस्वतीय शब्द रूपावली 68 सारावलि 9 सार्द्धशतक 11 सावयधम्मदोहा 130, 138 सावयधम्मविहि 13 सावयपण्णत्ति 13 सास और बहू 354 साहित्य और संस्कृति 333 साहित्य के त्रिकोण 338 साहु गुणमाला45 सिख नख 283 सिद्धचक्र कथा 151 सिद्धचक्र पूजा 111,285 सिद्ध चक्र श्रीपाल रास 170 सिद्धपाहुड 9 सिद्ध पूजा 103 सिद्ध पूजाष्टक 222 सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली 284 सिद्धभक्ति 13 सिद्धति विवेक विलास 284 सिद्ध शब्दार्णव नामकोष 69 सिद्ध सप्ततिका 71 सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन 16, 63 सिद्ध हेम शब्दानुशासन टीका 69 सिद्ध हेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति 73 सिद्धाचल गजल 281 सिद्धाचल पूजा 284 सिद्धान्तचन्द्रिका टीका 71 सिद्धान्त रत्नावली व्याकरण 81 सिद्धान्त सागर प्राथमिक शिक्षा 289 सिद्धान्तसार 52, 187, 244 सिद्धान्तसार दीपक 105, 107, 212 सिद्धान्तसार भाष्य 110 सिद्धान्तसारोद्धार 228 सिद्धान्तार्थसार 155. सिन्दूरप्रकर टीका 66,73 सिन्दुर प्रकर बालाव. 229 सिरिपाल चरिउ 154 सिरिपाल कहा 15, 138, 155 सिरि विजयचन्दकेवलि चरिय 31 सीता चरित 192 सीताजी की आलोयणा 183 सीताराम चरित 228, 296 सीताराम चौपई 175, 295 सीप और मोती 314 सीमन्धर स्तवन 148, 173 सीमन्धर स्वामी गीत 211 सील जखड़ी 224 सील पाहुउ 12 सुकूमाल चरिउ,चरित्र 105, 106, 161 सुकुमाल चौपई 178 सुकुमाल सज्झाय 173 सुकोशल स्वामी रास 204 सुकोसल चरिउ 155 सुकृत कीतिकल्लोलिनी 291 सुखचरित्र 288 सुखनिधान 114 सुखविलास 213 सुखानन्द मनोरमा चरित्र 187 सुगन्ध दशमी पूजा 322 सुजान पद सुमन वाटिका 188 सुजार्नासह रासो 278 सुत्त निपात 7 सुत्तपाहुड 12 सुत्तागम 45 सुदंसण चरिउ 137, 138, 152, 154 सुदंसणा चरिय 16, 22, 32 सुदभत्ति 13 सुदर्शन चरित्र 105, 106, 262, 325 सुदर्शन चौपई 178 सुदर्शन रास 173,204, 209 सुदर्शन श्रेष्ठ रास 171 सुदर्शन सेठ 292 सुदर्शन सेठ रास 177 सुदर्शनोदय 115 सुदष्टि तरंगिणी 213 सुधा 319 सुन्दर गीत 304 सुपासनाह चरिय 14, 22 सुबह के भूले 302, 303 सुबाहु कुमार 262 सुबाहु सन्धि 174 सुबुद्धि प्रकाश (थानविलास) 212, 213 सुभद्रा चौपई 179 सुभद्रा सती की चौपई 187 सुभद्रा सती चतुष्पदिका 167, 168 सुभाषित ग्रन्थ टब्बा 231 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 465 ग्रन्थ नाम पृष्ठकि ग्रन्थ नाम पृष्ठांक सुभाषितार्णव 112 स्तवन रत्न 70 सुभौम चक्रवर्ति रास 204 स्तवन रत्न मंजुषा 291 सुमइनाह चरिय 14 स्तवनादि संग्रह 289 सुमति कुमति को चौढालियो 196 स्थानाङ्ग (ठाणांग) 1, 6, 55 सुमति चरित्र 196 स्थानाङ्ग सूत्र नाथागत त्ति 68 पमित्र कुमार रास 173 स्थूलिभद्र कवित्त 170 सुमित्र चरित्र 73 स्थलिभद्र गुणमाला काव्य 70, 77, 119:120 सूरपिता का दोहा 183 स्थूलिभद्र छत्तीसी 272 सुरसुन्दर चौपई 174,270 धमाल 270 सुरसुन्दरी 292 नाटक 291 सुरसुन्दरी चरिय 16, 21, 31 फाग 169 सुरसुन्दरी रास 178 रास 167, 175 सुरादेव श्रावक 292 मज्झाय 177 सुलोचना चरित्र 114 स्ताव पवाशिका 230 सुषेण चरित 114 स्नात्र पूजा सानुवाद 293 सक्ति द्वात्रिशिका विवरण 75 स्मृति विज्ञान 354 सूक्तिमुक्तावली 60, 77 स्वयम्भूच्छन्द 128 सुक्ति रत्नावली स्वोपज्ञ टीका 71 स्वयम्म स्तोत्र 91 सूक्ति संग्रह 45, 72 ", अनुवाद 320 सूक्ष्मार्थ विचार पारोद्धार 64 स्थाद्वाद मुक्तावली 70 सत्रकृतांग (गुयाडांग) 2,3 स्थाद्वादानभवरलाकर 23 चणि 10 स्पन सप्ततिका 61 टीका 10 टीका 75 दीपिका 71 स्वप्न सामद्रिक शास्त्र 284 नियुक्ति । स्वरूप सावन-वृत्ति 11 ! , बालायबोध 229 स्वरूपानन्द 248 सूरजप्रकाश 182 स्थरादय 283 सूरपण्णत्ति 6 , भाषा 278 सुरिमन्त्रकल्प 66 सार 288 सुरिमन्त्र वहत्कल्प विवरण 65 स्वणगिरि पाश्वजिनस्ताव so सूर्यप्रज्ञत्ति ? स्वात्मसम्बोध 73 निर्यवित 9 स्वामी कातिकवानप्रेक्षा भाषा 2.2 सेठ धन्ना चरित 262, 325 सेठ सुदर्शन 184 सोजत वर्णन गजल 283 सोलह कारण पूजा 105, 108 हनमत रास 20, 209 सोलह कारण भावना 321 हम्मीर महाकाव्य 122,123,291 सोलह कारण रास 105, 203, 204, 208 हमीर रासा सार 289 सोलह सती की सज्झाय व चौपई 182 हम्मीरायण 296 सौन्दर्य दर्शन 263, 366 हविजय 119 सौभाग्य पंचमी कथा 79 हरिकेशी मनि चरित 189 सौभाग्य पंचम्यादि संस्कृत पर्वकथा संग्रह 296 हरिकेशी सन्धि 174, 178 सौभाग्य लक्ष्मी स्तोत्र 283 हरिबल 289 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 अन्य नाम पृष्ठांक अन्य नाम पृष्ठांक हरिबल मच्छी 292 " " रास 177 हरिभक्तामर 80 हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य 52 का पालोचनात्मक अध्ययन हरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णयः 290 हरिवंश पुराण 104, 128, 155, 203, 204, 220, 249, 251 हरिविलास 288 हरिश्चन्द्रकालिकं द्विशतक 94 हरिश्चन्द्र तारा 262, 325 हरिश्चन्द्र नाटक 291 हरिश्चन्द्र रास 177 हंस वच्छ नाटक 291 हस्त संजीवन 59, 70 हिंगल प्रकर 60 हित शिक्षा द्वात्रिशिका 280 हिन्दी इंग्लिश डिक्सनरी 7 भाग 292 हिन्दी जन-जन की भाषा 356 हिन्दी पद संग्रह 359 हिन्दी बही खाता 293 हिन्दी साहित्य का इतिहास 205, 357 हिन्दी साहित्य का परिचय 297 हिन्दुस्तान साप्ताहिक 357 हिम और पातप 335 हिम्मतराम पदावली 188 हीयाली 142, 175 हीरक प्रवचन 10 भाग 266, 332, 339 हीरकलश 142, 249 हीरकलश जोइसहीर 175 हुण्डिका 69 ह्रौंकार कल्प 294 हेमचन्द्राचार्य जीवन चरित्र 293 हेम दृष्टान्त 243 हे मन बरसो 201 हेमराज बावनी 275 हैम नाममाला शिलोञ्छ टीका 69, 81 , सटीक 296 हैम नाम माला शेषसंग्रह टीका 69, 81 हैम निघण्टु शेष टीका 69 हैमलिंगानुशासन दुर्गपद प्रबोध टीका 69,81 हैम शब्द चन्द्रिका 70 हैम शब्द प्रक्रिया 70 हैमी नाम माला भाषा टीका 232 होली कथा 212 होली की कथा 209 होली रास 204 होली रेणका चरित्र 113 होली रो चौढालियो 187 होली व्याख्यान 233 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 467 [2] विशिष्ट व्यक्ति एवं ग्रन्थकार नामानक्रमणो नाम पृष्ठांक नाम पृष्ठांक अकबर 43,67, 68,149,270 अकलंक 85 अखयचन्द रांका 196 अखयराज श्री माल 247,248 अगरचन्द 179 अगरचन्द नाहटा 42,165,195,264,267 294,295 अयवन्ता ऋषि 189 अजनलाल सेठी 318 अर्जुन वर्मा 99 अणों राज 161 अलाउद्दीन खिलजी 23, 44 अर्हत्सेन 95 अशोक मुनि 263, 305 अश्वघोष 60 प्रा अचलकीत्ति 212 अजय नरेन्द्र 147 अजयपाल 147,156 अजयराज पाटनी 219 अजित मनि 'निर्मल' 307,335 अनूप जैन 323 अभयकुशल 231 अभयतिलकोपाध्याय 64,65,168 अभय देवसूरि 10,12, 22,31, 34, 41,42,63,72,124,167,363 अभयधर्म 229 अभयधर्मवाचक 272 अभयमुनि 307 अभयसिंह (जोधपुर नरेश) 182 अभयराज नाहटा 295 अभयसोम 176, 178 अमरचन्द 134 अमरचन्द गोदीका 217 अमरमाणिक्य 174 अमरविजय 176, 178, 280 अमरसिन्धुर 179 अमरसिंह 185. अमितगति प्राचार्य 97,98 अमा ऋषि 192 अमृतचन्द्र 5 3, 98 , (द्वितीय) 96,97 अमृतवन्द्ररि 96,98 अमतधर्म वाचक 71,280 अम्बदेव 162 अम्बदेवसूरि 169 प्राईदान गोलछा 240 प्राचार्य अमरसिंह 190 अमृतकुमार 261,364 प्रानन्द ऋषि 197,327 प्रासकरण 185,186 ऋषिराम (रामचन्द्र) 239,240 काल गणी 84,85,244,245 246, 308 कुशलदास 184 गणेशीलाल 266,326,328 गुणभद्र 363 घासीलाल 45,72 चन्द्रकीर्ति 208 जयमल्ल 183,185,188,193 जवाहरलाल 45,72,192,262, 263,266, 324 जिनसेन 215,250,363 जीतमल 308 ज्ञानसागर 115 डाल गणी 240,245 तुलसी 85,86,91,92,93,201, 202,234,245,266,267, 308, 309, 313.314,315, 340, 342, 345,346, 347, 348,350,351,352, 353 दौलत राम 187 धरसेन 2, नन्दलाल 291 नानालाल 266, 328 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्र 216 पादलिप्त 13 77 "" 33 17 " 12 23 " 33 31 71 21 " सुजाणमल 185 सुमतिसागर सूर्यसागर 358 सोमकीर्ति 206 हम्मीरमन 194 आचार्य हरितमल 72, 181,266, 267,300 328, 366 नाम " पृष्ठांक " 16, 261, 365 17 د. पुष्पदन्त 2 भारमल्ल 239, 240 भिक्षु (भोग) 199, 200,234, 235, 236, 240, 244, 308, 347 182, 183 भूवर रघुनाथ 184 रतनचन्द 188,190 रत्न चन्द 196 रामचन्द्र शुक्ल 205 रामचन्द 183, 185, 186 मघनाथ 236 प्राज्ञासुन्दर 78, 172 आत्माराम (विजयानन्दसूरि ) 285 ग्रानन्दघन 143, 176, 178, 274, 289 आनन्दराज लुणिया 186 आनन्दराम कासलीवाल 221 यानन्दवर्धन 275 71 विजयवर्मसूरि 293 श्रीलाल 192 प्रातन्दवल्लभ 233 श्रानन्दसिंह 221 आनन्दोपाध्याय ( आनन्दीलाल जैन ) 317 आम्रकवि 14 यानदेवसूरि 26, 42 आर्य देव 144 ग्रार्य रक्षित 8, 55 श्राया उमा 335 215 468 335 学 गंगा 335 गुलाबी 335 चन्दना 335 335 छगना जेता 335 ज्ञाना 335 श्रार्या 31 31 "" 31 11 12 11 नाम "; इन्द्रनन्दि इन्द्रभूति इन्द्रसेन पद्मा पन्ना प्रेम कुंवर प्रेमा ईशान श्रालमचन्द 179 प्रशाधर 155 प्रासचन्द्र 228 ग्रासड 22, 34 आमराज दरडा ग्रामिगु इ 335 फूलां मगनां 335 रुक्मा 335 लाछा 335 संतोखा सरसा 335 ई 135 पृष्ठाक 335 उ 335 19, 47 4 95 67 166, 168 264 335 179 273 335 उच्चारणाचार्य 11 उत्तमचन्द भण्डारी उदयकमल 179 उदयचन्द्र 81, 217 उदयचन्द्र भन्डारी 282 उदयचन्द्र मथेण 276 उदयचन्द्र लुहाडिया उदयतिलक 280 उदय नागोरी - 338 उदय मुनि 263,335 उदयरत्न उदयराज 282 223 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पृष्ठांक उदयवल्लभसूरि 228 उदयविजय 179 उदयसागर 73, 229, 230, 271 उदयसिंह (राजा) 35 उद्धरण साह उद्योतन सूरि 113 15, 16, 19, 20, 28, 29 41, 42, 43, 261 उपाध्याय श्रमर मुनि कविजी उमरावचन्द जरगड उमास्वाति 55, 85 उमा स्वामी 254 उमेश मुनि 'अण उम्मेदचन्द्र 75 कक्कुक प्रतिहार कदीबाई 289 कनककीर्ति 307 329 293, 297 ऋ ऋषभदास 221, 223, 255 ऋषभदास निगोत्या 253 ऋषिपुत्र 17 ऋषिवर्धनसूरि 171 ए एलाचार्य 19, 20, 47, 95 क 37 176, 254 कनककुमार 79 कनककुशल 79, 80 कनकनिधान 179 कनकप्रभा ( साध्वी ) कनकसुन्दर गणि कनकसाम 300, 301, 85 229 78. 174 कनकामर 137 कनीराम 187 कन्हैयालाल लोढा कपूरवन्द ( कुशलसार ) कमललाभ 230 338 469 284 नाम कमलसंयमोपाध्याय कमलसुन्दर 77 कमल हर्ष कमला जैन कमला जैन 'जीजी' कमलादे कमलादेवी करमसिंह 103 67 190 141 " " 21 कमचन्द्र 80 कर्मचन्द्र बच्छावत कर्मचन्द्र स्वामी 176 कलश श्रेष्ठि कल्याणकलश कल्याण कवि कल्याणकीर्ति 281 210 कल्याणचन्द्र 172 कल्याणचन्द्र भाई कल्याणतिलक वाचक कल्याणदास 217 कल्याणदेव 175 कल्याणमल ललवाणी कल्याणराज वाचक कल्याणलाभ 178 कल्याणसागर 230 कंवरसेन म. 196 ऋषभदास 171, 270 कण्ह 139 करणीदान 182 कवि कुशललाभ 272 केशव 273 जसराज 274 ठक्कुर 148 दामो 271 31 " " " 11 31 31 71 11 11 17 11 पृष्ठांक 228 178, 231 262 23 364, 365 67 239 293 44 191 66 पुण्यनन्दी 172 भत्तु 167 मालदेव 'माल' रघुपति 233 रयण 167 लाडनाथ 186 लालचन्द 278 लोहट 219 वस्तिग 169 269 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 नाम पृष्ठांक नाय ठांक कवि हरिचन्द-हरिश्चन्द्र) 150 केसरबाई 191 हल्ल-हरिइंद केसरां बाई 193 केसरीचन्द भाण्डावत 297 कविया मुरारिदान बारहठ 297 केसरीचन्द सेठिया 263, 366 कस्तूरचन्द 233 केसव 143 कस्तूरचन्द्र गणी 74 कोट्याचार्य 9 कस्तूरमल बांठिया 293 कोमल कोठारी 297 कहन (कृष्णपाद) 130 कोशपाल 147 क्षमाकल्याणोपाध्याय 71,74,75,76,77, कानूबाई 183 कालिदास 60, 119, 140 78,79, 125, 179, 233, 280, 284 कालिय श्रेष्ठ, कलश श्रेष्ठ 44 क्षमाप्रमोद 179 कालूराम 245 क्षमामाणिक्य 81 काल स्वामी बड़ा 240,245 क्षेमकीर्ति 176 किशनराम 289 क्षेमसागर 78 किशनलाल 190 क्षेमहर्ष 179 किशनसिंह 221 किशनदास मूणोत 187 किसनसिंह 290 कीतिरत्नसरि, कीतिराज, 67, 77,117,118 खडगसेन 211 कीतिराजोपाध्याय खेतल 277 खेतलदे 66 कीर्तिवर्धन 82, 273 खेतल देबी 65 कीतिसिंह 218 खेतसी 68 कीर्तिसुन्दर 231 खेतसी विलाना 224 कुन्द न्द-कुन्दकुन्दाचार्य 2, 11, 12, 13 खेतसी साह 224 ___19,138 खेता 149 कुमार कातिकेज 12 खुशालचन्द्र काला 220 खुध्यालचन्द 179 कुमारपाल 147, 156, 157, 161 खूबचन्द 191 कुंवरादे 193 कुशलकीति 65 कुशलधीर 82, 176, 178, 230,284 कुशललाभ 142, 143 कुशलसागर 179 गंगा 39 कुशलांजी 240 गगा बाई 180, 293 कुशलोजा 153 गंगाराम 193 कृपाविजा 710 गंगाराम चौधरी 186 कृष्ण आहाग 3 गजमल 191 केवल मनि 301, 305 गसिंह (बीकानेर नरंश) 182 केशरमनि 71 गजसिंह राठौड 290 केशरीसिह 255 गणेश मुनि 263, 333, 366 केशव 18! गणेश मनि शास्वी 302, 302 केशवदास 277 गर्गर्षि 11 कभरकुंवर 194 गर्गस्वामी 63 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 471 नाम पृष्ठांक नाम पृष्ठांक गिरधरलाल 179 गीगादे 185 गुणकमल 179 गुणचन्द्र गणि (देवभद्रसूरि) 22, 26, 41 गुणचन्द्रसूरि 14 गुणधर 11 गणनन्दन 176 गुणपाल मुनि 14, 16, 43 गुणरत्न 69, 77 गुणरत्न वाचक 175 गुण रत्नसूरि 170 गुणवती 145 गणविजय 77 गणविनयोपाध्याय 68,69, 74,75,76, 77,79,80, 175 गुणसमृद्धि महत्तरा 32, 195 गुणाकरसूरि 169 गुणाकरसेनसूरि 97 गुणाढ्य 133 गुमानचन्द्र 179 गमान बाई 184 गलाबचन्द जैन 264 गलाबचन्द जैन दर्शनाचाय 322,359 गुहसेन 134 गनीबाई 191 गैंदीलाल 358 गैदीलाल भांवसा 359 गोइन्द (गोविन्द) 128, 144 गोकुलचन्द कुंभट 194 गोपालदास पटेल 293 गोपीचन्द धाडीवाल 297 गोवर्धन धक्कड 145 गोस्वामी तुलसीदास 273 गौतम गणधर 4, 55 चतुभुज 115 चन्द 225 चन्दनमल 'चांद' 261 चन्दनमल नागोरी 294 चन्दन मुनि 38,46,87,88,89,90,91,93, 263 चन्द्रतिलकोपाध्याय 64,76 चन्द्रधर्म गणी 229 चन्द्रप्रभ महत्तर 31 चन्द्रप्रभसूरि 171 चन्द्रर्षि महत्तर 11 चन्द्र श्रावक 23| चम्पाराम भांवसा 255 चम्पालाल चोरडिया 307 चम्पाजी साध्वी 196 चान्दमल कर्णावट 338 चान्दमल जैन 'शशि' 319 चान्दमल सीपाणी 297 चामुण्डराय 11 चाम्प कवि 169 चारण स्वरूपदास 165 चारित्रचन्द्र 74 चारित्रधर्म 142 चारित्रवर्धन 66 चारित्रसिह 175 चारित्रसिंह गणी 229 चारित्रसुन्दर 179 चारित्रसुन्दर गणी 75, 76 चारुचन्द्र 173 चारु भट 99 चिदानन्द 285 चैन सुख 233 चैनसुख लुहाडिया 317 चौथमल 184, 193 चौथमल स्वामी 240,245 घेल्ह 143, 148 घेवरी 115 छइल्ल 144 छगनलाल शास्त्री 88 छाहड 99, 102 छीतर ठोलिया 209 छीहल 205 छोगमल चोपड़ा 89 चउमुह (चतुर्मुख) 128, 13 4, 135,144, CC Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 नाम पृष्ठांक नाम पृष्ठांक छोगाजी 245 छोटेलाल भांवसा 319 जगड 167 जगतराय 217 जगन्नाथ 179 जगजीवन 217 जडावजी 196 जयकत्ति 229 जयकीर्तिसूरि 171 जयचन्द 179, 232 जयचन्द छाबड़ा 222 जयचन्द्रसूरि 228 जयतश्री 65 जयदत्त 67 जयदेव 90 जयनिधान 175 जयमल्ल 182, 183 जयरंग 176, 178, 179, 230 जयराम 15 जयराम कवि 145 जयवल्लभ 12 जयशेखरसूरि 119, 169 जयसागरोपाध्याय 67, 77, 173 जयसागरसूरि 286 जयसार 78 जयसिंह (अलवरनरेश) 192 जयसिंह नरेश 120 जयसिंहसुरि 15, 21, 34, 44,75 जयसेन (जिनसे न) 11 जयसेन 97 जयसेनाचार्य 98, 99 जयसोम 23, 179 जयसोमोपाध्याय 68,79, 175,229 जयाचार्य 200, 201, 233, 240, 242, 243, 244, 308, 346 जवाहरलाल शाह 317 जसकरण डागा 338 जसराज 176 जसवन्त 181 जसवन्तराय 182 जसशील 232, 27 जहांगीर 69 जान बनयन 58 जायसी 129 जाल्हड साहु 160 जितारि 20 जितेन्द्र धींग 307 जिन कवीन्द्रसागरसूरि 80, 288 जिन कुशलसूरि 65, 74, 79, 176 जिनकृपाचन्द्रसूरि 286, 294 जिनचन्द्रसूरि 22, 34, 42, 73, 162,168, 177 ,, (कलिकालकल्पतरु) 65 " (बेगड) 275 ,, (मणिधारी) 64 ,, (युगप्रधान) 67, 175, 270, 271 जिनचारित्रसूरि 74 जिनदत्त 40 जिनदत्तसूरि 12, 22, 33, 35, 62, 143, 161 जिनदास 144 जिनदास पणि महत्तर 8, 9, 10, 40, 363 जिनपतिसूरि 64, 124 जिनपद्मसूरि 169 जिनपालोपाध्याय 64,74, 124 जिनप्रबोधसूरि 64, 168 जिनप्रभसूरि 13, 42, 59, 60, 61, 65, 79, 118, 169 जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण 8, 9, 10, 11, 12, 342 जिनभद्रसूरि 23, 66, 79, 174 जिनमती 147, 157 जिनमणिसागरसूरि 71, 76, 287, 296 जिनमाणिवय 33 जिनमाणिक्यसूरि 67 जिनरंगसूरि 179, 277 जयन्द्रपाल 146 जवाहरचन्द पाटनी 264 जवाहरलाल जैन 230 जवाहरलाल नाहटा 297 Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम जिनरत्नसूरि ( प्र . ) (द्वि.) 77 जिनराजसूरि ( प्र . ) (f.) 37 जिनलाभसूरि 179 जिनवर्धनसूि 65, 67, 80, 172, 179 जिनवल्लभ गणि । 11, 13, 22, 42, 63 76, 161, 162, 226 176 41, 80 179 65, 66,67 61, 68, 175, 176, 271, 277 पृष्ठांक विज जिनसमुद्रसूरि जिन जागरसूरि जिनसिंहसूर जनसुखसूरि जिनसुन्दरसूरि जिनसूरि 228 जिनसेन 47, 48 जिनहंससूरि 67, 74 जिनहरिसागरसूरि 288 जिनहर्ष ( जसराज ) 143, 176, 178,230, 231, 274, 278. 23 33 67, 73, 143, 176, 177 73, 228 65, 67, 175 179 179 जिनहर्ष गणि 23, 77, 78, 123 जिनहर्षसूरि 27 जिनेन्द्र मुनि 307, जितेश्वरसूरि ( प्र . ) 21, 25, 26, 31, 32, 41, 42, 63, 74, 75, 78, 80 (द्वि.) ( कूर्वपुरीय) 169 473 64, 65, 74, 168 63 जीतमल 185 297 जीतमल चोपड़ा 307 जीतमल लूणिया जीत नल स्वामी 200 जीत मुनि 289 जीवनराम 191 जीवनलाल 320 1 जीवराज 79, 175, 180, 192, 299 जीवराज बडजात्या 225 जेठमल जौहरी 194 जैन दिवाकर चौथमल 193, 262, 266,299, 300, 304, 305, 325 जोइंद 138 नाम जोगीदास 251 जोगीदास मथेन जोधराज कासलीवाल 213 जोधराज गोदीका 278 जोशीराय मथेन ज्ञानकीत्ति 179, 215 ज्ञानचन्द्र 232, 255 ज्ञान तिलक ज्ञाननिधान ज्ञानप्रमोद ज्ञान भारिल्ल ज्ञानमेरु 81 ज्ञानविमलोपाध्याय ज्ञानविलास 176 278 178, 276 232 176 झगडू 218 ] झुमरमल खटेउ 217, 218 पृष्ठांक 261, 364, 365 69, 79, 81 ज्ञानसार 179, 233, 281 ज्ञानसुन्दर 175 ज्ञानसुन्दर ( देवगुप्तसूरि ) 286 झ 245 ट टीकम 211 टेकचन्द जैतावत 1915 टेकचन्द्र 213 5 ठ. अरडक्कमल 66 ठ. जैसल छाजहड 65 ठ. भीषण 66 ठ. सहस्र मल्ल 66 ठक्कर फेरु 16, 17, 23, 44,66 ठक्कुरसी 205 ठाकुर 209 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 माम पृष्ठक नाम पृष्ठांक डॉ. हर्मन जेकोबी 40 डा. हीरालाल जैन 47, 48,58,140, 187 डड्ढा कवि 97, 98 डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल 321, 360 डालूराम 214, 224 डॉ. इन्द्रचन्द शास्त्री 264 डूंगरसी 218 डॉ. इन्द्रराज वैद 307,338 डॉ. ईश्वरानन्द शर्मा 274 डॉ.ए.एन. उपाध्ये 99 डॉ. कमलचन्द सौगानी 360 डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 217, 218, 222, तत्त्वकुमार 179 267, 358, 362. तरुणप्रभाचार्य 79, 227 डॉ. कृष्णा मुहणोत 282 ताजमल बोथरा 297 ताराचन्द महता 307 डॉ. गंगाराम गर्ग 361, 362 डॉ.गौतम 251 ताराचन्द सेठ 188 डॉ. ग्रियर्सन 144 ताल्हप 160 डॉ.जयकिशन 249 तिलकसरि 14 तिलोक ऋषि 189,327 डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन 105 डॉ.टसीटरी 164 तिहुणपाल 146 डॉ. दशरथ शर्मा 50,297 तुम्बूलाचार्य 11 डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री 162 तुलसीदास 129 डॉ. नरेन्द्र भानावत 219, 261, 263,267, तेजपाल 160 तेजसिंह गणि 181 306, 338, 365,366 डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री 48,52,59, 155 तोलाराम 289 डॉ. प्रेमसागर 105 त्रिभुवनकीर्ति 215 डॉ.प्रेम सुमन जैन 261, 267, 364 त्रिभुवननारायण 152 डॉ. भोगीलाल सांडेसरा 228,293 अलोक्यसागर 288 डॉ. महेन्द्र भानावत 307, 338 त्रिविक्रम 16, 37, 41 डॉ. मोतीलाल मेनारिया 277 डॉ. मोहनलाल मेहता 337 डॉ. राजाराम जैन 154, 155 डॉ. रामकुमार वर्मा 205 डॉ. रामचन्द्र शुक्ल 357 डॉ. रामचरण महेन्द्र 366 थानसिंह अजमेरा 316 डॉ. रामप्रसाद द्विवेदी 302 थानसिंह ठोलिया 212 डॉ. लक्ष्मीनारायण साहू 345 थाहरु शाह 229 डॉ. लालचन्द जैन 361,362 डॉ. लूडो रोचर 87 डॉ. विजेन्द्र स्नातक 312 डॉ. शुकिंग 7, 40 डॉ. सौभागमल दौसी 323 डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी 130 डॉ. हरिवंश कोछड़ 162 दण्डी 127, 128, 133, 134 डॉ. हरिवल्लभ भायाणी 228 दयातिलक 232 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 नाम पृष्ठांक पृष्ठांक देव वाचक 8 देवविजय गणि 78 देवसेन 12 देवसेन 12,48, 49, 50 देवीलाल लोढा 190 देवीलाल सांभर 261,297 देवीसिंह चांपावत 182 देवेन्द्र 210 देवेन्द्र कीर्ति 218, 255 देवेन्द्रगणी 10, 15 देवेन्द्र मुनि 262, 263, 267, 332, 366 देवेन्द्रसूरि 11, 13, 16, 22, 32, 33,72 330 दौलतराम 216, 225 दौलतराम कासलीवाल 213, 221, 222, 248,249,251,357 दौलत रूपचन्द भंडारी 307 दौलतसिंह लोढा 'अरविंद' 293 द्यानतराय 216, 217 द्रोण 135 दयामेरु 178 दयारत्न 73,273 दयावल्लभ 277 दयासागर 78,271 दयासार 179 दयासिह 71,77,228 दयासिंह उपाध्याय 279 दयासुन्दर 277 दलपत 142 दामोदर 154 दिड नाग 60 दिलाराम 211 दिवाकरदास 23 दिवाकरसेन 95 दिवाकराचार्य 72 दीपचन्द 82, 191, 213, 232, 279. दीपचन्द कासलीवाल 248 दीपचन्द शाह 225 दीपाबाई 236 दीपा शंखवाल 67 दीवान अमरचन्द 223 दीवान जयचन्द छाबड़ा 255 दुर्गदेव 17, 21, 36 दुर्ग स्वामी 63 दुर्गादास 184 दुर्लभराज 63 दुलीचन्द सुराणा 189 दृष्य गणी 8 देपाल 171 देवकुमार जैन 264 देवचन्द्र 12. देवचन्द्रोपाध्याय 176, 178,232, 279 देवजी ऋषि 327 देवभद्रसूरि 15,63 देवमुनि 233 देल्हण 162, 167 देल्हणदे 161 देल्हाकुंवर 67 देवपाल परमार 101 देवरत्न 176 देवराय 150 देवधिगणि क्षमाश्रमण 2, 4,8 'वलदे 67 ध धनंजय 60 धनदेव 144 धनपाल 16, 21, 35, 135, 137, 146, 151, 152, 166, धनपाल मंत्री 35) धनराज 82 धनवती 196 धनश्री 146 धनसार पाठक 77 धन्नाजी 299 धनेश्वर 45 धनेश्वरसूरि 16, 21, 31, 41 धरमदास 217 धरसेन 10, 17 धरसेनाचार्य 47 धर्म 167, 168, 219 धर्मकलश मुनि 169 धर्मकीर्ति 175 धर्मघोषसूरि 13 धर्मचन्द्र 73 धर्मतिलक 64 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 नाम पृष्ठांक नाम पृष्ठांक धर्मदास 611 धर्मदास गणी 12, 14, 15 धर्मदास जी 180 धर्मदेव 229 धर्मदेव गणी 228 धर्मपाल 147 धर्मप्रमोद 175 धर्ममन्दिर 176, 178 धर्मरत्न 175 धर्मवर्धन (धर्मसी) 70, 80, 176, 178, 231,276 धर्मविशाल 284 धर्मशेखर 119 धर्मसमुद्र वाचक 173 धर्मसागरोपाध्याय 67 धर्मसिंह 180 धर्मसी बोहिथरा 68, 271 धर्मसेन 191 धल 144, 152 धाणिक छाजहड 66 धारणी 45 धारलदे 68 धारलदेवी 271 धाहिल 129 धूधलि साहु 160 धर्त 144 नरचन्द्रसूरि 59 नरचन्द्रोपाध्याय 59 नरपति 64 नवल 216, 217,222, 225 नागदेव 100, 101 माथीबाई 192 नाथू अग्रवाल 205 नाथूलाल जैन 323, 361 नानूबाई 189. नाभिराय 255. नारायणी देवी 191. निहाल अजमेरा 260. निहालचन्द्र बज 223. नूनजी 180. नेमिकुमार 102. नेमिचन्द जरगड 293. नेमिचन्द सेठी 218. नेमिचन्द्र 98, 190. नेमिचन्द्र गणी 16 नेमिचन्द्र भण्डारी 23, 35, 45, 167 नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती 11 नेमिचन्द्रसूरि 12, 14, 21, 22, 26, 33,42 नैनमल जैन 305 नैनसिंह 232 न नथमल 193. नथमल स्वामी 246 नथमल बिलाला 212 नन्दराम 224 नन्दलाल 191 नन्दादेवी 183 नन्दिषेण 13 ननसूरि 228 नमि साधु 134 नयचन्द्रसूरि 14, 122, 123 नयनचन्द 217, 222 नयनन्दि 152 नयनसिंह 278 नयरंग 23,76,78, 175 तमविलास 230 पउम कवि 1690 पण्डित अनूपचन्द न्यायतीर्थ 320 आशाधर 96,99, 100, 101 इन्द्रलाल शास्त्री 160, 320,358 उदय जैन 307, 337 काशीनाथ जैन 262, 292 खेता 113 गिरिधर शर्मा 83,323 गुमानचन्द 185 घासीलाल 267 चिमनलाल 317 चैनसुख दास 52, 115, 116, 318, 320,357,358,360,361 चौथमल शर्मा 320 जगन्नाथ 114 जयचन्द छाबड़ा 53,252,253, 254,357 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक पृष्ठांक 477 नाम माम पण्डित जिनदास 113 पद्म कुमार 176 जुगलकिशोर मुख्तार 96 पद्मचन्द्र 232 " टोडरमल 53, 213, 214, 251, पद्मनन्द मुनि 12 252,254, 357 पद्मनन्दि 20, 35 दामोदर 226 पद्मनन्दि आचार्य 51 दुखमोचन झा 264 पद्मनाभ 205 दौर्बलि जिनदास शास्त्री 117 पद्मप्रभ 64 नरसेन 151 पद्ममन्दिर गणी 75, 172 नाथू राम प्रेमी 48, 51, 96, 110 पद्मराज गणि 67, 80, 174 नित्यानन्द शास्त्री 83 पद्मश्री 194 नीलकण्ठदास 345 पद्मसागर 74 परमानन्द शास्त्री 48, 96, 104, पद्मानन्द कवि 66 110, 145, 146, 148, पद्मानन्द श्रावक 77 150, 157 पंन्यास कल्याणविजय 289 , फूलचन्द (पुप्फभिक्खु) 45 परमानन्द 174 भगवतीलाल शर्मा 83 पल्ह कवि 166, 168 भगवानदास जैन 293 पाणिनी 127,132 भंवरलाल न्यायतीर्थ 359 पानमल कोठारी 297 महाचन्द 316 पायचन्दसरि 243 महावीर 99 पारसमल कटारिया 297 मांगीलाल 223 पारसमल पोल्याका 361 माल्हा 148 पारस मुनि 307 मिलापचन्द रतनलाल कटारिया 361 पार्वताजी 196 मिलापचन्द शास्त्री 358 पार्श्वचन्द्रसूरि 173, 174, 229 मूलचन्द शास्त्री 116, 360 पार्श्वदास 217, 225 मेधावी 52, 113 पार्श्वदास निगोत्या 223,224,318 रघुनन्दन शर्मा 85,87 पार्श्वदेव गणि 60 रत्नराज 231 पाल्हण 167 राजमल्ल 53,96, 113 पी. डी.गुणे 132 लाख 146 पंजराज 173 वंशीधर शास्त्री 361 पुण्यशील 71,281 शिवजीलाल 254 पुण्यसागर महोपाध्याय 67,74,76,174 शिवदत्त 224 पुण्यहर्ष 231 शोभाचन्द भारिल्ल 264,339 पुष्कर मनि 45, 262, 266, 332 श्रीधर 99 पुष्पदन्त 10, 47, 129, 135,137,145 श्रीप्रकाश शास्त्री 116 151, 15 सत्यन्धर कुमार सेठी 361 पुज्य अमरसिंह 196 सदासुख कासलीवाल 253 , कजोड़मल 187 सदासुखदास 223 , गुमानचन्द 186 सुखलाल 39 " दुर्गादास 187 हरिनाथ मिश्र 217 , धर्मदास 191 , हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री 36! , नानकराम 191 पतञ्जलि 86,134 पूज्यपाद 85, 98 पदम मगत 164 पूज्य रत्नचन्द 183 पदमसुन्दर 229 विनयचन्द 188 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 पृष्ठांक पृष्ठांक नाम नाम पूज्य श्रीमल 195 बलवन्तसिंह मेहता 297 " पूनमचन्द 190 बल्लाल 157 पूनसिह 103 बस्ता 280 पूर्णकलश गणि 64 बहादुरसिंह सिंघी 290 पूर्णचन्द्र जैन 297 बाण भट्ट 24, 41, 128 पूर्णभद्र गणि 78 बाबू कालूराम 242 पथ्वीचन्द 299 बालचन्द 178, 277 पथ्वीचन्द्र 167 बालचन्द पान्डे 212 पथ्वीचन्द्र राजाधिराज 64 बालचन्द मुनि 156 पथ्वीपाल अमात्य 162 बालचन्द सोनी 358 पृथ्वीराज चौहान 64, 124 बालनन्दि 20, 51 पथ्वीराज राठोड 164, 230, 231 पोमराज श्रेष्ठ 114 बुद्धसिंह बाफना 297 प्यारा बाई 192 बुद्धि मुनि गणि 71 प्रकाश मुनि 335 बुद्धिसागर 21 प्रज्ञातिलक 168 बुद्धिसागरसूरि 63,81 प्रतापचन्द भूरा 338 बुधजन (भदीचन्द) 223 प्रतापमल पंगलिया 187 बुधजन 216, 217, 225 प्रद्युम्नसूरि 13, 43 बूटेराय 285 प्रद्युम्नाचार्य 64 बेगराज 249 प्रबोधचन्द्र गणि 64 ब्रह्मदेव 98 प्रभाचन्द्र 98 ब्रह्म अजित 215 प्रभुदत्त 45 कामराज 114 प्रसन्न कुमार सेठी 321 गणकीर्ति 215 प्रेमचन्द रांवका 362 चन्द्रसागर 214 प्रेमराज साह 214 जयसागर 208 प्रो. प्रवीणचन्द जैन 360 जिनदास 104,105,107,203 प्रो. सुवाली 40 देवा 221 धर्मरुचि 215 नाथ 219,225 प्रहलाद वर्णी 114 बुचराज 113, 206, 207 फूलचन्द बाफना 297 बूचराज बल्ह-बूचा। 150,158 बील्ह-वल्हव यशोधर 207 रत्नकीति 151 बखतराम 224 रायमल्ल 208, 216 बख्तराम साह 214 साधारण 159 बख्तावर कासलीवाल 223 बधावासिंह 191 बनारसीदास 216, 217, 221, 230,232 बप्पदेव गुरु 11 भक्तिभद्र 280 बलदेवसिंह चौहान 196 भक्तिलाभोपाध्याय 82, 173 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक 479 नाम पृष्ठांक भगवतीदास 161 भट्टारक सोमीति 207 भगवती मनि 'निर्मल' 262,263,307, , हरिभूषण 159 334, 366 भद्रबाहु 2,6,7,8,9,13,363 भगवानसागर 288 भद्रसार 273 भगवान महावीर 1, 2, 4, 47, 55 भद्रसेन 272 भट्टारक उदयचन्द्र 156 भद्रेश्वरसूरि 13 जगत्कीर्ति 115, 212 भरतमुनि 127, 134, 144 जिनचन्द्र 51, 52, 113, 151, 15-1, भंवरलाल नाहटा 264,267,294,295 ज्ञानकीर्ति 109 भंवरलाल पोल्याका 361 ज्ञानभषण 108, 109, 110, 111, भंवरी देवी रामपुरिया 264 151, 158, 206 भविलाल 224 देवेन्द्रकीति 108, 115. 119, 220 भाण जी 180 धर्मकीर्ति 160 भानु चन्द्र गणि82, 142 धर्मचन्द्र 102, 112 भामह 128 नरेन्द्रकीर्ति 114, 159. 160, 215 भारमल राजा 37 नेमिचन्द 225 भारवि 60, 118 पद्मनन्दि 102, 103,104, 159 भावदेवसूरि 174, 269 प्रभाचन्द्र 102,151,154,159 भावप्रमोद 80 बालचन्द्र 151 भावविजय 74 भवनकीर्ति 108 भास्कराचार्य 16 भानुकीर्ति . 11: भीखण जी 233 भुवनकीति 104,109,158,160,206 भीखुही 113 महीचन्द्र 215 भीम जी 245 रत्नकीति 102, 108, 151. 159 भीमसिंह नृपति 64 160, 208 भीमसिंह रावल 68 रत्नचन्द्र (द्वि) 215 भुवनकीर्ति 175, 176 रामसेन 214 भुवनसेन 179 लक्ष्मीचन्द्र 210 भूतबलि 2, 10, 47 वादिभूषण 210 भूधर चोरडिया 194 विजयकीति 110,111, 150,158 भूधरदास 216, 217, 221 207 भूरसुन्दरी 196 विजयसेन 207 भूरामल 115 विद्यानन्दि 159 भूरामल छाबडा 359 विमलेन्द्रकीर्ति 109 भूरेलाल बया 297 विशालकीर्ति 149, 160 भैया भगवतीदास 217 वीरचन्द्र 108, 149,208,210 भैरुदान नाहटा 295 शुभचन्द्र 51,104,110,111,154, भैरुलाल 192 207 भैरवलाल सेठी 362 (द्वि) 215 श्रीभूषण 112 श्रुतकीर्ति 145 , सकलकीर्ति 103, 104,105,107, 108, 203 204, 210, 214, मखनूम महमूद शेख काजी 68 सकलभूषण 104, 114 मगन मुनि 191 , सुरेन्द्रकीर्ति 115, 214, 215, 218 मगन मुनि 'रसिक' 307 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक, 480 नाम पृष्ठांक नाम मगनलाल पहाडिया 358 महावीराचार्य 16 मण्डलीक 67 महासती जडावजी 335 मण्डलेश्वर श्रीपाल 501 , जसकुंवर 336 मतिकीर्ति 69,230 . " भूरसुन्दरी 335 मतिकुशल 179 महासन प्राचार्य 97 मतिलाभ 179 महिमसमुद्र (जिनसमुद्रसूरि) 177,275 मतिवर्धन 15 महिमादेवी 182 मतिशेखर 172 महिमामेरु 176 मतिसागर 143 महिमासागर 275 मतिहंस 70 महिमासिंह 272 मथुरादास पाटनी 221 महिमोदय 70,178 मदन मुनि 335 महीधर ताम्बी 118 मदन मुनि 'पथिक' 307 महीपति साधु 99 मदनमोहन जैन 'पवि' 307 महेन्द्रकीति 219, 225 मधुकर मुनि 262, 266, 307, 366 महेन्द्र जैन 367 मनजो 71 महेन्द्र मनि 'कमल' 335 मनरूप 283 महेन्द्रप्रभसूरि 12 मनसुखराम (मनीराम) 219 महेन्द्रसूरि 168 मनोदानन्द 64 महेश्वरसूरि 21, 25, 42, 162, मनोहर 299 माउरदेव 144 मन्ना साह (मनोहर) 214 माक्कलय 102 मंत्री जीवराज छाजेड 232 माघ 19, 60, 61, 118 मन्त्री धनद 66 माण्डण सेठ 170 , धनराज 230 माणक मुनि 297 , मण्डन 66 माणिकचन्द 217 , संग्रामसिंह 229 माणिकचन्द भांवसा 223 मरुधरकेसरी मिश्रीमल 181, 194,266, माणिक्यचन्द्र जैन 362 301, 302, 330 माणिक्यचन्द्रसूरि 228 मलयगिरि 6,9, 10 माणिक्यराज 161 मल्लण क्षत्रिय 157 माणिक्यशेखर 9. मल्लिदास 148 माणिक्यसुन्दर गणि: 75, 228 महयंद (महीचन्द) 149 माणिक्यसुन्दरसूरि 77, 78, 125 महाराज प्रानन्दसिंह , 232,278 मातेश्वर 146 महाराजकुमार जोरावरसिह 278 माधवचन्द्र 96 महाराजा अनूपसिंह 276, 278 माधवचन्द्र 'विद्यादेव' 929 , प्रतापसिंह 281 माधव मुनि 191 , माधोसिंह 191 मान कवि 277, 278 मानसिंह 186, 209, 282, मानतुंगाचार्य 91 रणजीतसिंह 213 मानदेव सूरि 45 . , सुजानसिंह 178, 276 मानसागर 143, 179 महाराणा फतहसिंह 193 मानसिंह 'मान' 272 , भोपालसिंह 193 मानूशाह 211 " राजसिह 277 मायाचन्द पाटनी 213 , रायसिंह (द्वि.) 182 मार्टिन लूथर 180 महावीर कोटिया 261,263,361,365 मालदेव 174 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पृष्ठांक मालू साहू 99 मास्टर नानूलाल भांवसा 319 मिट्ठालाल मुरडिया 338 मिश्रीमल मधुकर 181 मिश्रीलाल मधुकर मुंज राजा 182 97, 141 मुंशी मालीलाल चांदवाड 358 मुंशी हीरालाल छाबडा 322 स 142 मुनि अनन्तकीर्ति " "3 11 11 "" 77 73 " 11 " 13 "1 " 13 मुनि चन्दनमल 311 मुनिचन्द्रसूरि 75, 168 मुनि चम्पालाल 94, 309 चैनमल 45 चौथमल 84,85 छत्रमल 37 11 "1 " 11 " 208 अमीचन्द 1841 कन्हैयालाल 89, 351, 354 कल्याणविजय 267 " "" " डूंगर मुनि दुलीचन्द 187 दिनकर 353 दुलीचन्द 'दिनकर' दुलहराज कानमल कान्तिसागर 267,286,297, किसनलाल 342,352 केसरविजय 290 गुलाबविजय 283 चन्दन 354 " मुनि देवकीर्ति धनराज 11 17 91 (सरसा) 353 ) जयन्तविजय 289 जिनविजय 39, 43, 44, 71, 226, 267, 290 ज्ञानकलश 169 " " " 92,93,94,263,344 346,347,351,366 22 89, 91 90,92,94, 351,356 86, 88, 89,90, 312 342,343 210 344, 347 (.) 91,93 (fa) 89 481 ( लाडनू ) 354 (सरसा) 342, 344,351 356 नाम पृष्ठांक मुनि नगराज 89, 94,267,310,343,344 348,350,35 1,352,354,35 नथमल 38, 85, 86, 89, 90, 92, 93, 267,309,315,340, 341,342,343, 344, 345, 347,349,350,351,352, 353, 354, 355, 356 मुनि नथमल (बागोर)) 85,88,91 नन्दलाल 190 33 " " " 23 "" मुनिप्रभ 175 मुनि बुद्ध मल 89, 90, 92, 93, 194 264,267,310,346, 349, 350, 353 354, 355, 356, मुनि मगनमल 191 37 " 11 " 31 13 " नवरत्नमल 94 नेमिचन्द 50 पद्मनन्दि 150 पूनमचन्द 92 13 " "1 महेन्द्र कुमार 'कमल' 264, 303,304 महेन्द्र कुमार ( प्र . ) 262, 366 33 मुनि महेन्द्रसागर 297 33 33 33 11 31 37 "3 " " मगनलाल 192, 246 मगनसागर 289 मणिलाल 312, 315 मदनकीर्ति 98 "1 29 13 मधुकर 94, 313, 344, 354 महनन्दि 149, 208 महेन्द्र कुमार 343 "1 मानमल 313 मिठ्ठालाल 86,89,90,94 मिश्रीमल 'मधुकर 331 मोहनलाल 'शार्दूल' 87,89,90,92 93,311, 3 राकेश कुमार 94,351 राजचन्द्र 215 रामसिंह 138,139 रूपचन्द 311,312,315,35 लक्ष्मीचन्द्र 264,267 लालचन्द 'श्रमणलाल' 45 वत्सराज 93,313 विनयकुमार 'आलोक' 312,3 विनयचन्द 147, 148 86,212,345 शुभकरण श्रीचन्द्र 342, 345, 346, 352, 353 264 समन्तभद्र " 2 सागरमल 'श्रमण' 311 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 माम पृष्ठांक " सदर्शन यशोधवल 157 यशोवर्धन 178 यशोवर्धन मालू 64 यशोविजयोपाध्याय 23, 85, 176, 274 यास्क9 युक्ति अमृत मुनि 286 युगलकिशोर 323 योगीन्द्रदेव 13 नाम पृष्ठांक मुनि सुखलाल 312,346,350,352 352 मुनिसुन्दर 23 मुनिसुन्दरसूरि 171 मुनि सोहनलाल 91,92 " हरजीमल 186 को हीरालाल 332 " हेमराज 243 मुहम्मद तुगलक 65 मूलकचन्द 224 मलचन्द कोठारी 245 मूलमुनि 305 मेघराज 229 मेघराज चोपड़ा 67 मेघविजयोपाध्याय 23,59,60,70,76, 23,59,60,70,76, 120,121,124,176 मेरुतुंगसूरि 228 मेरुनन्दन गणि 79,169 मेरुसन्दरोपाध्याय 79,229 मेवाड़भूषण प्रतापमल 305,334 मेहा कवि 170 मोडीराम 294 मोहनलाल दुलीचन्द देशाई 167,171 मोहनलाल समदड़िया 182 मोहनविजय 282 रइधू 152, 154, 155 रघुनाथ 113 रघुपति 280 रंगमुनि 307 रजतमुनि 307 रणमल 160 रणहस्तिन् वत्सराज 28 रतन चोरडिया 339 रतनलाल संघवी 264, 338 रत्नऋषि 327 रत्नकुंवर 197 रत्नकुमार जैन 'रत्नेश' 307, 338 रत्नचन्द 217 रत्नचन्द्र 186 रत्नचन्द्र अग्रवाल 297 रत्नजय (नरसिंह).231. रत्नधीर 233 रत्नपाल ताम्बी 65 रत्नरंगोपाध्याय 172, 229 रत्नराज गणि 281 रत्नवल्लभ 178 रत्नविजय 287 रत्नविमल 179 रत्नशेखरसूरि 12, 15, 16, 17, 37 रत्नसमुद्रोपाध्याय 173 रत्नसिंहसूरि 168 रत्नहर्ष 273 रमेशमुनि 262, 305, 307, 334, 335, 366 रम्भाजी 187, 196 रम्भादेवी 251 रल्हण 97, 157 यति देवीहंस 290 है नेमिचन्द्र 291 " पन्नालाल 233 , बख्तावरचन्द 291 बालचन्द्र 283 माणिक्यरुचि 291 वृषभ 11,17 ,. श्रीपाल 233 . श्रीपालचन्द 284 यतीन्द्रसरि 289 यशःकीति 161 यशःसागर 70 यशपाल 147 यशस्वत्सागर (जसवन्तसागर)70,80 यशोदेवसूरि 13 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पृष्ठांक रविषेणाचार्य 95, 128,250 रवीन्द्रनाथ टैगोर 321 रहमान 129 ईबाई 188 राऊदेवी 187 राजकुमारी 290 राजकुशल 75 राजचन्द्रसूरि 230 राजमल जैन बेगस्या 322 राजमल्ल 23 राजमल्ल कवि 37 राजमल्ल पांडे 247 राजरूप टांक 297 राजलाभ 178 राजविजय 77 राजविमल 279 राजशील 172, 229 राजशेखर 134, 144 राजशेखर वाचनाचार्य 44 राजशेखरसूरि 169 राजसमुद्र 68, 271 राजसार 179 राजसोम 142, 232 राजहंस 229 राजहर्ष 179 राजा धरसेन (द्वि.) 134 राजा नरवाहन 51 राजा भीमसिंह 114 राजा भोज 146 राजा मानसिंह 149 राजा राजसिंह 114 राजेन्द्रमुनि 264, 307, 335 राजेश्वरसूरि 162 रानी गुराई 109 रामकृष्ण 213 रामचन्द्र 179 रामचन्द्रसूरि 229 रामणकुमार 66 483 184, 188, 224, 232 रामदास 224 रामधारीसिंह दिनकर 310 रामबाई 196 रामलाल (रामऋद्धिसार) 233,284 रामवल्लभ सोमानी 297 रामविजयोपाध्याय (रूपचन्द्र ) 71, 75, 76, 77, 79, 81, 125, 178, 232,279 नाम रामसिंह 98 रामसेन 97 रायकंवर 191 रायचन्द्र 82 पृष्ठांक राव रघु 182 रावल मूलराज 280, 281 रावल सोमदास 109 राहड 102 रिरख राज कर्णावट 338 रुघपति 179 रूपऋषि 181 रूपचन्द 218 रूपचन्द गणि 284 रूपचन्द्र पांडे 218 रूपचन्द बोथरा 185 रूपसी प्राग्वाट 68 ल लक्ष्मण गणि 14, 22 लक्ष्मणलाल पाटनी 360 लक्ष्मणसेन 95 लक्ष्मीकीति 70, 275 लक्ष्मीचन्द्र 72 लक्ष्मीचन्द मूथा 186 लक्ष्मीतिलकोपाध्याय 64, 74, 168 लक्ष्मीदास चांदवड 220 लक्ष्मीदेवी 194 लक्ष्मीवल्लभोपाध्याय 12, 70, 78, 79, 143, 176, 178, 231, 275 लक्ष्मीविनय 178, 231 लखपत 176 लखमसी 180 लखमादेवी 177 लब्धिकल्लोल 175 लब्धिरत्न 176 लब्धिराज 176 लब्धिरुचि 179 लब्धिविजय 178 लब्धिसागर 179 लब्धोदय 142, 143, 176, 177 ललितकीति 75 लवजी 180 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 नाम पृष्ठांक लाखकवि 137) लाडाजी 246 लाधुराम चंगेरिया 183 लाभचन्द 179 लाभवर्धन 82, 176, 178, 231, 27 लाभानन्द 178, 274 लाभोदय 176 लायमान विन्तनित्स 40% लालचन्द 186, 1871 लालचन्द (लावण्यकमल) 283 लाला कृष्णचन्द्र जौहरी 242 लावण्यकीर्ति 176 लावण्यरत्न 277 लावण्यविजय 77 लाहड 147 लीलादेवी 680 लणराज 2111 लोकाशाह 180,299 बाम पृष्ठांक विजय धर्मसूरि 289 विजयपाल 146, 147 विजय प्रभसूरि 120,124 विजय मुनि शास्त्री 366 विजय यतीन्द्रसूरि 293 विजय राजेन्द्रसूरि 16, 45,285,289 विजय ललितसूरि 297 विजय वल्लभसूरि 285 विजय विमल गणि 12.! विजयसिंहसूरि 74,75 विजय सुशीलसूरि 297. विजयमेनसूरि 162 विजयहर्षोपाध्याय 70, 276. विद्याकुशल 142. विद्याचन्द्रसूरि 289 विद्यानन्द 85. विद्यानन्दि 36 विद्यानिधान 179, 280. विद्याभूषण 215. विद्यारुचि 179 विद्याविलास 231. विद्यासागर 215. विद्यासिद्धि 195. विनयचन्द्र 77, 156, 158, 176, 178 187,276. विनयचन्द्र श्रावक 194. विनयचूला 194. विनयप्रभ 169. विनयप्रमोद 69, 277. विनयभक्ति 280. विनयमेरु 175. विनयलाभ 179,217. विनयविजयोपाध्याय 76,90, 176. विनयसमद्र 143, 174. विनयसागर 179. विनयसागरोपाध्याय 13. विनयसागर महोपाध्याय 124,267, 296. विनोद मुनि 307. विपिन जारोली 307. विबुध श्रीधर 136 विमलकीर्ति 175, 229. विमलरत्न 229, 232. विमलसूरि 13, 363. विमलादे 173. वंशीधर सनाढ्य 191 बच्छराज 143 वज्रसेनसूरि 166,168 वट्टकर 2, 11, 13 वदनांजी 245, 246 वररुचि 133 वर्धमान कवि 210 वर्धमानसूरि 22, 63, 72,75, 142 वसुनन्दी 13 यस्तो कवि 169 वाग्भट 94,101,102,117, 118 वाछिग मन्त्री 161 वाडव 61,66,81 वादिदेवसूरि 168 वादिराज 114 वादी हर्षनन्दन 68,74,75,76 विक्रम 210 विजय कलापूर्णसूरि 297 विजय कस्तूरसूरि 38 विजयचन्द धाडीवाल 183 विजय दक्षसूरि 297 विजय देवसूरि 120, 123, 173, 174 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पृष्ठांक विमलाबाई 45. विवकलब्धि 284. विवेकसमुद्रोपाध्याय 78. विवेकसिंह 173. विवेकसिद्धि 195. - विशाल सुन्दर 74. विश्वभूषण 225. वी.पी. जोहरापुरकर 111. वीर 152, 161. वीरकलश 70. वीर कवि 136. वीरदेव 31. वीरनन्दि 20, 35, 51, 99. वीरपुत्र प्रानन्दसागरसूरि 288. वीरभद्र 8, 13. वीरभद्रसूरि 41, 43. वीरम तोमर नरेश 122. वीरविजय 175. वीरशेखरविजय 11. वीरसेन 11, 16, 19, 20, 47, 48, 98 वीरसेनाचार्यं 95. वीरेन्द्र मुनि 307. वृद्धिसिंह परमार 290. व लगशाह 173. श शंकरदान नाहटा 294. भट्ट 39. शक्तिकुमार 51. शक्ति भूपाल 51. शम्भुराम 281. शयंभव ( सूरि) 7. शरद जैन 323. शान्ता भानावत 339. शान्तिचन्द्र मेहता 263, 338, 366. शान्ति मुनि 307. शान्तिसूरि 10, 12, 33. शान्तिहर्ष 274, 278 शामकुण्ड 11. शालिभद्र सूरि शालिवाहन 51. शास्त्रकुण्ड 11. 162, 166, 168, 169. 485 पृष्ठांक नाम शाह चतरोजी बम्ब 239. शाहजहां 211, 271 शाह ठाकुर 148. शाह बलुजी सकलेचा 236शिवचन्द्र 82. शिवचन्द्रोपाध्याय 71, 76, 77, 79, 179 281. शिवजीराम 285. शिवनिधानोपाध्याय 75, 80, 229, 272. शिवराज 184. शिवशर्मसूरि 11. शिवसुन्दर 229. शिवादेवी 184. शिवार्य 2, 11, 13. शिवा सोम 67. शीलदेवसूरि 270. शीलसौभाग्य 284. शीलाङ्गाचार्य, शीलाचार्य 10, 13, 243,363 37 शुद्धशील 144., शुभकरणसिंह बोथरा शुभकीर्ति 136 शुभचन्द्रसूरि 23 शुभचन्द्रसूरि भट्टारक शुभचन्द्राचार्य ( प्र . ) 98 शुभवर्धन गणि शुभशील 171 शेरशाह 113 शेषमल सोलंकी शोभचन्द 244 शोभा 103 12 194 शोभाचन्द्र 212, 253 शोभाचन्द्र भारिल्ल 307 श्यामाचार्य 6 श्रावक वि 169 339 श्रीचन्द रामपुरिया 267 श्रीचन्द सुराणा 'सरस' श्रीचन्द्रसूरि 13, 14, 162 श्रीतिलक 72 श्रीदेव 232 श्रीधर 63, 161 श्रीपति 63 श्रीपाल ऋषि 229 श्रीपाल पोरवाड 97 श्रीप्रकाश शास्त्री 358 श्रीमती सुदर्शन छाबडा 297 361, 362 Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 पृष्ठांक पृष्ठांक नाम नाम श्रीमती सुशीला कासलीवाल 323,361 सर्वदेवसूरि 75 362 सलखण 99 श्री मती स्नेहलता जैन 362 सवाई जयसिंह 115 श्री रानी 99 सवाईराम 225 श्रीवन्त रीहड 67 सहजकीत्ति उपाध्याय 69,77,79,80,175 श्रीवल्लभोपाध्याय 67,69,76,77,123 सहजसुन्दर 173 124 साधु कीति 174,219 श्रीसार 76, 175,273 साधुरंग 23, 74 श्रीसुन्दर 175 साधुरत्न सूरि 2280 श्रीसोम 179 साधुसुन्दर 79 श्रुतसागर 36 साधुहंस 169 साध्वी उमराव कुंवर 262,266,335,365 , कनकप्रभा 313 कनकश्री 94 , कमलश्री 91,315 चन्दना 264 संघकलश 171 छगन कंवर 336 संघतिलकसूरि 12 जयश्री 315 संघदास गणि क्षमाश्रमण 10,13,14 निर्मल कंवर 336 संघपति डूंगर 205 पुष्पवती 336 संघविमल 171 प्रमोदश्री 292 संपतराज डोसी 338 प्रेमश्री 292 सकलचन्द्र गणि 68 फूलकुमारी 94 सज्जन उपाध्याय 42 बुद्धिश्री 292 सत्यदेव विद्यालंकार 345 मंजुला 85,91,313,314,353 सत्यरत्न 179 मंनासुन्दरी 236,335,336 सन्त सुमतिकीर्ति 211 , मोहन कुमारी 94 सबलदास 186 याकिनी महत्तरा 62 सभाचन्द्र 233 रतन कंवर 336 समन्तभद्र 16,56,87,91 राजीमती 263,315,342,353 समयप्रमोद 175 लाडां 350 समयमाणिक्य 82 वल्लभश्री 292 समयराजोपाध्याय 175 विचक्षणश्री 297 समयसुन्दर 281 विनयश्री 292 समयसुन्दरोपाध्याय 43,60,68,74,75,76 संघमित्रा 90,91,314,350 77, 78, 79,80,81,82,143,172,175, सज्जनश्री 297 178,229,232,270,271 सरला 264 समरचन्द्रसूरि 174 , सुमनश्री 314 संयमसागर 215 , हीराश्री 292 संवेगदेव गणि 228 सारंग 143,175 सर सेठ मलचन्द सोनी 223 साराभाई नवाब 272 सरस्वती 99 साह समरा 171 सरह 130,139 साहिबराम 222 सरूपादेवी 186 साहु 160 सरूपावाई 195 साहुल 147 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम सिंह (सिद्ध) सिंह गणी 96,157 143 सिद्धराज जयसिंह 102 सिद्धराज ढढ्ढा 297 पृष्ठांक faaf 55, 58, 63,76 सिद्धसेन, सिद्धसेन दिवाकर 8, 12, 19, 20, 23,56,84,85,91 सिद्धसेन सूरि सिद्धिचन्द्र गणि सिरियादेवी 67 सील्हा 149 सुकन मुनि 307 सुखसंपतराय भंडारी 292 सुखसागर 179,285, 286 सुखलाल झाबक सुखा ऋषि 192 सुगुणचन्द 230 सुजड साहू सुजाण मल सुजानदे 220 सुजानमल 188. 296 सुगनचन्द 225 सुगनजी (सुमतिमण्डन) 233,283,284 160 185 10 142 सुन्दरदास 220. सुन्दरदेवी 186. सुधर्मा 4. सुसुद्रा देवी 185. सुभाष मुनि 305 सुमतिकल्लोल 175. सुमतिधीर 67. सुमतिमेरु वाचक 278. सुमतिरंग 176, 178. सुमतिवर्धन 78. सुमतिवल्लभ 179. सुमतिवाचक 26. सुमतिविजय 77. सुमतिसागर महोपाध्याय 71, 287. सुमतिहंस 73, 143. सुमेरमुनि 307. सुलतान कुमार 67. सुलतान मोहम्मद तुगलक 42. सुहड प्रभ 146. सुहादेवी 146. सुशीला बोहरा 339. सुश्री सुशीला बैर 362 487 नाम पृष्ठांक सूरचन्द्रोपाध्याय 70, 77, 80, 119, 120, 175, 230. सूरजचन्द डांगी 338. सूरजचन्द 'सत्यप्रेमी' 307. सूराचार्य 63. सूर्य मुनि 307. सूहवदेवी 64. सेवक 219. सेवाराम पाटनी 213, 214. सोमकीर्ति 97. सोमकीर्ति भट्टारक 95 सोमकुंजर 77 सोखू 67 सोमचन्द्र 161. atafat 12, 72, 80. सोमप्रभाचार्य 14,60 सोमराज श्रेष्ठि 50, 98. सोमविमलसूरि 229. सोमसुन्दरसूरि 142, 170,228. सोमसेन 99. सौभाग्य मुनि 'कुमुद' 307, 335. स्थूलभद्र 2. स्वयंभू 127 128, 135, 144, 145, 152 स्वरूप चन्द मुनि 225. ह हजारीमल श्रमण 45. हनुमानमल बोथरा 307. हरकचन्द स्वामी 244. हरकू बाई 195. हरगोविन्ददास त्रि. सेठ 16. हरचन्दराय 193 हरजी 299. हरदेव 150. हरपाल 147. हरराज श्रीमाल 177. हरिदास 181. हरिभद्रसूरि 8, 9, 10, 12, 13, 15, 17, 19, 20, 23, 24, 30, 33, 39, 41, 56, 57, 58, 60, 61, 62, 84, 85, 136, 162, हरिषेण 144, 145, 146, 152 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 তাক नाम पृष्ठांक नाम हर्षकीर्तिसूरि 58, 209, 231. हर्षकुंजरोपाध्याय 73. हर्षकुल गणि 12. हर्षवल्लभोपाध्याय 175, 229, 230. हर्षसमुद्र वाचक 174. हलराज कवि 169. हंसराज भारिल्ल 360. हस्तिमल धाड़ीवाल 297. हस्तिरुचि यति 58. हालू 143. हिम्मतराय 188. हिम्मतसिंह सरूपरया 338. हीरकलश 17, 23, 36, 44,82, 175. हीरा 213. हीराचन्द वैद 297. हीरादेवी 14. हीरादेवी साध्वी 196. हीरानन्द 143. हीरानन्दसूरि 169. हीरामुनि 'हिमकर' 307. हीरालाल 255,266. हीरालालजी म. 193. हुलासाजी 195. हेम कवि 283. हेमचन्द्रसूरि 12, 14, 16, 22, 34, 37, 60, 63, 140, 141, 163 हेमचन्द्रसूरि मलधारी 9, 22, 75. हेमनन्दन 69. हेमभूषण गणि 168. हेमरत्न 77, 142. हेमरत्नसूरि 175 हेमराज 216, 218, 275. हेमराज पांडे 248. हेमराज स्वामी 239, 245. हेमविलास 179. हेमश्री 197. हेमसिद्धि 195. हेमहंस गणि 228. हेमाभाई 180. हैमपाल 44. होलिवर्म 150. Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम अटाटिया 244 अटेर 212 (३) ग्राम-नगर-नामानुक्रमणो श्र श्रचनेरा 191 अचलगढ 145 अचलपुर 145 अजमेर 33,64,78, 102, 152,155, 160, 161,187,223,231,286,292 अहिलपुर पत्तन (पाटण) 63, 103 अमरसर 79 अमृतसर 229 अम्बावती (आमेर) 149 अरहटवाडा 180 अर्बुदगिरि 32 धारा 52 आवां 154 पृष्ठांक अलवर 82, 174, 316 अलीगढ (रामपुरा) 221 अहमदनगर 189 अहमदाबाद 67,180,270,290 अहिछतपुर (नागोर) 117 श्रा 489 आशापल्ली 25, 66 आशारम्भपट्टण 50 आशिका 64 आश्रमनगर 50 बाधमपत्तन 50, 98 नाम प्रासाउन 68 माहोर 288 ईसरदा 118 उज्जयिनी 155 उनियारा 289 उदयपुर 77,177, 221, 22, 230,200 316, 360 आगरा 186,211, 212, 216, 217,218 221, 230, 231,248, 249, 271 श्राघाटनगर 169 आतमा गांव आदित्यवर्धनपुर 80 श्राबू 245 22, 67 कसबा ग्राम आमेर 115,209, 212, 218, 219,248 कांकरोली कांगडा 67 काडिऊंपुर 78 कातरदा 187 कानोड 337 कंटालिया 235 कन्नाणपुर 23 44 कंठाला ( वल्लभनगर ) 184 करौली कर्णावती कलकत्ता पृष्ठांक क कामां 213, 218 कालख ग्राम 211 काला ऊना 81 146, 212 66 71,89 249 87, 208 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम कालू 187 काश्मीर किसनगढ़ कुकणिया वेणासर कुचेरा 193, 232 212 कुज - पुर कुड गांव 186 कुम्भनगर (कुंभेरगढ ) 21, 36 कुम्भलमेर 23, 66 कुहियप 64 केकडी 361 केलवा 230 केशोरायपाटन 50, 98 केसरदेसर 71 कोटडा 190 कोटा 71,78,188, 316, 361 कोरटा 168 गंगापुर गंगाशहर 43, 68 191, 195, 233 291 खंभात 66, 68, 119 खींवसर खुडाला गांगाणी गाडोला गिरनगर घाणेराव 187, 229 285 245 241 271 191 47 गुढा 82 गोगुन्दा गोर *वालियर 120, 155 ख 177, 296 359 पृष्ठांक 120 चंदेरिया 290 चड्डावलीपुर 22 Passtat 31 चन्द्रावती 21, 26, 75 चम्पावती (चाकसू ) चाकसू 214 490 नाम चामू गांव चित्तौड़ चित्तौडगढ़ 19, 20, 23, 27, 30, चित्रकूट चित्रकूटपुर | 33, 39, 40, 47, 61, 62, 63,75, 76, 77, 78, 95, 97, 103, 123, 144 145, 146, 151, 152, 161, 162, 171, 172, 205; 290 286 चरू 38, 85 चौपासनी 232 चौमू 361 छत्रपल्ली 34 छापर 92, 93, छीपा का कोला छोटी रावलियां छोटी सादडी छ जावद 113, 148, 158 जैतारण पृष्ठांक ज 180 244 190 240 75 जयतारण जयपुर 52, 74, 75, 76, 77, 81, 82, 102, 113, 115, 152, 155, 182, 187, 188, 196, 212, 213, 214, 217, 219, 221, 222, 223, 224, 225, 229 232, 240, 250, 251, 253, 254,255 279, 281, 288, 293, 294, 316, 317, 318 319, 320, 321, 322 358, 359, 360, 361, 367 294 जयसिंहपुरा ( जिहानाबाद ) 220 जसवन्तगढ 45, 72 जामनगर 88 जालना 93 जालिपुर 82 जालोर, जाबालिपुर 20, 21, 2228, 35,41, 63, 64, 65 66, 74, 75, 78, 80, 81, 168, 174,180,271,289,290 245 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 491 नाम पृष्ठांक नाम पृष्ठांक जैसलमेर 32,65,66,67,68,74,75, 76,77,78,79,80,117,125,174, 177,182,229,230,275,281 थट्टा 233 जोधपुर 23,36,69,71,75,76,77,81,82 थांदला 192 83,120,124,125,155,173,174, 177,183,185,186,188,226, 230 झाडोल 190 . झालरापाटन 83, 255 झालावाड 103, 188 झंझुनू 66 झूबो 192 दलोद 192 दायिका कूप 75 दिल्ली देशली १२ 44. 65. 102.151, 1713174,242,367 देईकडा 194 देवकुलपाटक 65, 75,77, 125, 228 देवगढ 239 देवगिरि 65, 66 देवरजिमुरादरावर)) 6.5 देवावडनगर 31 . दौसा 213 ध टोंक 103,151,188,219,222, 224,225 टोडारायसिंह 209, 212 धजिलाणपुर 173 धन्धुका 161 धामणिया 293 धारानगरी 48, 50. 63,99,152 धुलेवा 177 डिंडवानक, डिडिवानक 21,20 धौलपुर 52, 67, 155 डिण्डिलव सन्निवेश " डीग 213, 214,255 डीडवाशा: 63.78,81 डूंगरगढ़ 85, 89 डूगरपुर 109, 208, 20, 2537360 नगर 219 डेह 36 नगरकोट 64, 67 नगली नगर 107 नमियांड 109 तक्षकगढ (टोडारायसिंह) 114 नलकच्छपूर, नालछा 99,100,101 तलवाडा 171 नवलक्षपुर 113 तलोटपुर 102 नाकोडा 67 तहनगढ 146,147, 156 नागोर 21, 22 23, 34, 36,37,44,65, तातीजा 186-.. . 69,74, 75, 77, 79, 80, 81, 82,113, तिवरी 79, 174, 185 152,155,168,173,174,175,180,182, त्रिभुवनगढ़ 147 187,229 त्रिभुवनगिरि 146, 147,148,156,161 नाडोल 45 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492 नाम पृष्ठांक नाम पृष्ठांक नाथद्वारा 243 नादउद्री 169 नापासर 280 नारनौल 186,211 नारायणा 47 निम्बाहेडा 191 निवाई 218, 219,224,225 नीमच 191, 193 नेपाल 2 नैणवा 103, 104 नोगाम 109 पंचर 270 पद्मावती पत्तन 82 पहलगांव 211 पाटण 65, 66, 67, 176, 177, 220% 227 पाटलिपुत्र 133 पाटौदी 78 पानीपत 155 पालनपुर 64 पाली 74,77, 187,194, 196 पालीताणा 71,293 पीपाड 74, 187 पुटभेदन 50 पुष्कर 64 पूना 290 पोकरण 186 प्रतापगढ़ 288 प्रतापपुरा 358 बड़ी रावलियां 239 बड़ौदा 228 बडाली 67 बडलू 74 बनारस 294 बमोरा 262 बम्बई 71, 90, 93, 290 बयाना 96 बलभद्रपुर (बालोतरा) 77 बसवा 221, 222 बांकडिया बड गांव 71,287 बागरा 293 बाटग्राम (बडोदा) 47 बांभणवाड, ब्रह्मवाद 96,1 ब्राह्मवाद 196, 175 बहाणवाड, ब्राह्मणवाड बाडमेर, बाडमेर 65, 14, 76,176, 291 बारडोली 208 बारां नगर 20,35,51 बालपताकापुरी 78 बिलाडा 67 बिल्हावास, बील्हावास 71, 274. बीकानेर 36,67,68,71,74,75,76,77, 78,79,80,81,82,117,1735 174,175,180,196,229,231, 232,233,271,272,276,278, 279,283,284,285,288,294, 360 बुचकला ग्राम 186 बूंसेरी 196 बून्दी 50,103,188, 211,213,219, 222,316 बृहदद्वार 64 बेनातट (बिलाडा) 77, 80 फतेहगढ 191 फलवधि 67,76, 77,79,80 फलोदी 187, 296 फिरोजपुर 191 फीरोजपुरा 193 भंवाल 184 भटनेर 269 भडोच 208 भरतपुर 102, 191,212,283,316,380 भरुकच्छ 26 मांडपुरी 196 भागनगर 284 बंभपुणी, ब्रह्मपुरी 39 बगडंदा 190 बगवाड 319 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम भादवा ग्राम 52 भिन्नमाल, भीनमाल 76, 363 भींडर 291 भीतासर 192 भीमपल्ली, भीलडिया 168 भीलवाडा 197, 260, 293 भोपालगढ 293 मंडोवर 68 मकसूदाबाद 242 मगरदा 192 मरुकोट, मरोठ 22, 23, 35, 232 महसाना 104 महावत 147 महावीर जी सहस्रा महा 67, 117 210 माडल गठ मांडवगठ 360 22, 99 66 मात्रापुर 255 भारोठ 112, 113 मेडता रोड मेरठ म सातवाडा 71, 287 माहिनुरा 213 सुशिदानाद 280, 281, 283 भेडता पृष्ठांक मोहिलवाडी 65, 118 मौजमाबाद 155, 209 र 22, 34, 68, 75, 76, 77, 79, 82, 178, 184, 271, 273, 274 80, 286,288 359 राजपुर 81 77 0- राद्रह राणोली 115 रामपुरा 185 रायभा 146 राहुडपुर 102 रणथंभोर 102, 113, 209 रतलाम 189,191 राजनगर 125, 177, 236 493 नाम रिणी रूपावास रूपाहेली रेलमगरा 74, 75, 78, 276 77 290 रोमट गांव रोहतक 155 रोहिट गांव 240 लवेरा 68 लांबिया 240 288 रोहिणा रोहिणीपुर (सिरोही) 74 183 181 ल लाटद्रह 75 लाडनू 234, 245 लास ग्राम 289 लाहोर 67, 68, 211, 270, 278 लूवाइणिपुर 149 लूणकरणसर 78,82 लौद्रवा 68, 80 शुजालपुर श्रीमन्त नगर श्रीमालपुर वनस्थली 360 वर्धनपुर 177 बलभी 2, 134 वाराणसी 115, 337 160 बासनपुर विक्रमपुर 22, 64, 134 विजयपुर 231 विराट नगर, बैराट 61, 66, 81, 109, 114, 247 बीदासर 38, 240, 245 बीरपुर बीसलपुर 286 व्याघ्रपुर 162 पृष्ठक 23, 67, 76, 78 9! शत्रु जय 68 शान्ति निकेतन 290 193 160 74, 78 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक माम पृष्ठाक सिरियारी 236 सिरोही 23, 77, 82, 180 संग्रामपुर (सांगानेर) 80 सिवाना 65 सत्यपुर 176 सीकर 115, 316 सरदारशहर 246 सुमेरपुर 293 सरसा 176, 269 सेठारीरीयां 183, 193, 196 सलखणमुर 100, 101 सेनावा 67 सवाई माधोपुर 188, 224 सेंथल 358 सहजिगपुर 168 सेरुणा 75,76 सांगानेर (संग्रामनगर) 75,77,120,209, सोजत 186, 2 14, 232 212, 213, 217,218,220,221, सोनामाई 85 225, 229,248 सोनीपत 191 साचोर 21, 68, 78, 80, 229, 232,271 स्वर्णगिरि 232 सांभर 80, 119, 161,209,219,229 सागवाडा 109,208 सादडी 76, 80, 120 सालटियागांव 184 हमीरपुर 173 सिकन्दराबाद 151 हारसोर 209 सिणली 231 हिंडोन 212 सिद्धपुर (सिन्ध) 6. हिसार 151, 165 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- _