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" जैसे इस लोक विषै सुवर्णं श्रर रूपा कूं गालि एक किए एक पिण्ड का व्यवहार होय है तैसें श्रात्मा के शरीर के परस्पर एक क्षेत्र की अवस्था ही तें एकपणा का व्यवहार है ऐसे व्यवहार raat करि आत्मा र शरीर का एकपणा है । बहुरि निश्चय तै एकपणा नाहीं हैं जातें पीला र पांडुर है स्वभाव जिनिका ऐसा सुवर्ण अर रूपा है तिनके जैसे निश्चय विचारिए तब अत्यन्त भिन्नपणा करि एक एक पदार्थपणा की अनुपपत्ति है, तातै नानापना ही है । " 1
8. पंडित सदासुख :
पंडितप्रवर जयचन्दजी छाबडा के बाद राजस्थानी भाषा के गद्य-भंडार को समृद्ध करने वालों में पंडित सदासुख कासलीवाल का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है । इनका जन्म जयपुर में विक्रम संवत् 1852 तदनुसार ईस्वी सन् 1795 के लगभग हुआ था । 2
श्रापके द्वारा लिखित ग्रन्थ निम्नानुसार है :
2.
भगवती श्राराधना भाषा वचनिका ( सं. 1906)
3. तत्वार्थ सूत्र ( बृहद् भाषा टीका श्रर्थ प्रकाशिका) (सं. 1914 ) अकलंकाष्टक भाषा वचनिका (सं. 1915 )
रत्नकरण्ड श्रावकाचार भाषा टीका (सं. 1920 )
इनकी भाषा का नमूना इस प्रकार है :
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तत्वार्थसूत्र (लघु भाषाटीका) ( सं. 1910 )
समयसार नाटक भाषा वचनिका ( सं. 1914 )
मृत्यु महोत्सव (सं. 1918 )
नित्य नियम पूजा (सं. 1921 )
"संसार में धर्मं ऐसा नाम तो समस्त लोक कहैं हैं परन्तु शब्द का अर्थ तो ऐसा जो नरक तिचादिक गति में परिभ्रमणरूप दुखतें श्रात्मा छुडाय उत्तम आत्मीक, अविनाशी अतीन्द्रिय मोक्षसुख में धारण करै सो धर्म है । सो ऐसा धर्म मोल नाहीं श्रावै, जो धन खरचि दानसन्मानादिक ग्रहण करिये तथा किसी का दिया नाहीं आवै, जो सेवा उपासनात राजी कर लिया जाय । तथा मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि देवमूर्ति, तीर्थादिक में नाहीं धर्या है जो वहां जाय ल्याइये ।"
9. ऋषभदास निगोत्या :
ऋषभदास निगोत्या पं. जयचन्द्र छाबडा के समकालीन विद्वान थे । संवत् 1840 के लगभग इनका जन्म जयपुर में हुआ । ये शोभाचन्द के सुपुत्र थे । संवत् 1888 में इन्होंने प्राकृत भाषा में निबद्ध मूलाचार पर भाषा वचनिका लिखी थी । ग्रन्थ की भाषा ढूंढारी है तथा
1. हिन्दी साहित्य : द्वितीय खंड, पु. 504 1
2. रत्नकरण्ड श्रावकाचार भाषा टीका, पृष्ठ 2 1