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जिस पर पं. टोडरमल एवं जयचन्द की शैली का प्रभाव है। इनकी भाषा का एक उदाहरण देखिये--
"वसुनंदि सिद्धान्त चक्रवति कवि रची टीका है सो चिरकाल पर्यन्त पृथ्वी विर्ष तिष्ठहु । कैसी है टीका सर्व अर्थनि की है सिद्धि जाते। बहुरि कैसी है समस्त गुणनि की निधि । बहुरि. ग्रहण करि है नीति जाने ऐसो जो प्राचारच कहिये मनिनि का प्राचरण ताके सुक्ष्म भावनि की है। अनुवृत्ति कहिये प्रवृत्ति जाते। बहुरि विख्यात है अठारह दोष रहित प्रवृत्ति जाकी ऐसा जो जिनपति कहिये जिनेश्वर देव ताके निर्दोष बचनि करि प्रसिद्ध । बहुरि पाप रूप मल की दूर करण हारी।"
10. कनककीर्ति :
कनककीर्ति 17 वीं शताब्दी के विद्वान थे। ये भट्टारकवर्गीय परम्परा के साधु थे। तथा संभवतः आमेर के भट्टारकों से इनका संबंध था। इनकी अब तक निम्न रचनाएं उपलब्ध हो चुकी हैं :--
कर्मघटावली (पद्य) जिनराज स्तुति (पद्य), तत्वार्थ सूत्र भाषा टीका (गद्य), मेघकुमार गीत (पद्य), श्रीपाल स्तुति (पद्य), पद बारहखडी (पद्य) उक्त राजस्थानी रचनाओं के अतिरिक्त, प्राकृत भाषा में निबद्ध इनकी कुछ पूजाएं भी मिलती हैं। तत्वार्थसूत्र भाषा टीका इनकी एक मात्र गद्य कृति है जो अपने समय में अत्यधिक लोकप्रिय कृति मानी जाती रही। राजस्थान के जैन ग्रन्थागारों में इसकी कितनी ही पाण्डुलिपियां संग्रहीत हैं। इसमें उमास्वामी के तत्वार्थसूत्र पर श्रुतसागरी टीका की भाषा वचनिका की गयी है। इनके गद्य का एक उदाहरण निम्न प्रकार है :
प्रदं समास्वामी मतीवर मल गंथकारको श्री सर्व वीतराग बंदे कहतां श्री सर्वज्ञ वीतराग ने नमस्कार करूं डूं। किसाइक छ श्री वीतराग सर्वज्ञ देव, मोक्ष मार्गस्य नेतारं कहतां मोक्षमार्ग का प्रकास का करवा वाला छै। और किया इक छै सर्वज्ञ देव कर्मभूभृतां भेत्तारं कहतां ज्ञानावरणादिक पाठ कर्म त्यांह रूप पर्वत त्यांह का भेदिवा वाला छै।"
11. पं. शिवजीलाल :
19 वीं शताब्दी में होने वाले विद्वानों में पंडित शिवजीलाल का नाम उल्लेखनीय है। इनके वंश, कुल, गुरु एवं शिष्य परम्परा के संबंध में अभी तक कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है। अब तक इनके द्वारा रचित तीन ग्रन्थ प्राप्त हये हैं जिनके नाम निम्न प्रकार
दर्शनसार भाषा, चर्चासार भाषा, प्रतिष्ठासार भाषा/दर्शनसारः को इन्होंने जयपुर में सं. 1923 में समाप्त किया था। यह राजस्थानी गद्य में निबद्ध है। इनके गद्य का एक उदाहरण निम्न प्रकार है
"सांच कहतां जीव के उपरि लोक दुखों व तूषों। सांच कहने वाला तो कहे ही कहा जग का भय करि राजदण्ड छोडि देता है वा जूवा का भय करि राज मनुष्य कपडा पटकि देय है। तैसे निंदने वाले निंदा, स्तुति करने वाले स्तुति करो, सांच बोला तो सांच कहे।"..