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________________ 402 लिपी में आज भी पड़ी मात्रा है। अतः प्राचीन जैन लिपि के अभ्यासी के लिए बंगला लिपि का ज्ञान बड़ा सहायक है। जिस प्रकार ब्राह्मी-देवनागरी लिपि में जलवाय-देशपद्धति और शिक्षक द्वारा प्रस्तुत अक्षर जमाने के उपकरणों की लिपि विविधता, रुचि-भिन्नता के अन्यान्य मरोड़ के कारण अनेक रूपों में प्रान्तीय लिपियां विभक्त हो गई, उसी प्रकार जैन लिपि में भी यतियों की लिपि, खरतरगच्छीय लिपि, मारवाड़ी लहियों की लिपि, गुजराती लहियों की लिपि-परम्परा पायी जाती है। कोई गोल अक्षर, कोई खड़े अक्षर, कोई बैठे अक्षर, कोई हलन्त की भांति पूंछ वाले अक्षर, तो कोई कलात्मक अलंकृताक्षर, कोई टुकड़े-टुकड़े रूप में लिखे व कोई घसीटवें अक्षर लिखने के अभ्यस्त थे। एक ही, शताब्दी के लिए ब्राह्मण, कायस्थादि की लिपि में तो जैन लिपि से महद अन्तर है ही परन्तु जैन लिपि में भी लेखनकाल निर्णय करने में बहुत सावधानी और सतर्कता आवश्यक है। लेखन सौष्ठव : सीधी लकीर में सघन गोल, एक दूसरे से अलग्न, शीर्ष-मात्रादि अखण्ड एक जैसे, न खाली, न भीड़-भाड़ वाले अक्षर लिखने वाले लेखक भी आदर्श और उनकी लिपि भी ग्रादर्श कहलाती है। जैन शैली में इस ओर विशेष ध्यान दिया है जिससे पिछली शताब्दियों में क्रमशः लेखनकला विकसित होती गई थी। लिपि का माप:--फाटिये द्वारा यथेच्छ एक माप की पंक्तियों में लगभग तृतीयांश या इससे कम-बेश अन्तर रख कर एक समान सून्दर अक्षरों से प्रतियां लिखी जाती थी जिससे अक्षर गणना करने वाले को सुविधा रहती और अक्षर भी सरल, सुवाच्य और नयनाभिराम लगते थे । पडो मात्रा:--ब्राह्मी लिपि से जब वर्तमान लिपियों का विकास हया, मात्राए सूक्ष्म रूप में प्रथवा स्वर संलग्न सकेत से लिखी जाती थीं। व अपना बड़ा रूप धारण करने लगी और वतमान में अक्षर व्यजन के चतूदिक लिखी जाने लगी। पष्ठि मात्रा, अपमात्रा, उध्वंमात्रा में "उ.ऊ' की अग्रमावा 'रु,रू' के अतिरिक्त अधोमात्रा का रूप धारण कर लिया। पष्ठि मात्रा में हस्व इकारान्त संकेत के अतिरिक्त उर्ध्व और अग्रमात्रा बन गई है, जैसे के कै.को,कौ। जब कि प्राचीन काल में बंगला लिपि की भांति काकाकाको लिखे जाते थे. दीर्घ ईकार का संकेत अपरिवर्तित ही रहा। संयक्ताक्षर एवं मात्राओं के प्रयोग के कारण अक्षरो के माप में अन्तर या जाना स्वाभाविक था, अस्तु । पड़ी मात्रा लिखने की पद्धति प्रायः सतरहवीं शताब्दी के पश्चात् लुप्त हो गई । जैन लेखक : जैन साहित्य के परिशीलन से विदित होता है कि जैन विद्वानों-श्रतधरों ने जो विशाल साहित्य रचना की उन्हें वे पहले काष्ठपट्टिका पर लिख कर फिर ताडपत्र, कागज ग्रादि पर उतारते थे। श्री देवभद्राचार्य ने जिस काठोत्कीण पट्टिका पर महावीर चरित्र, पार्श्वनाथ चरित्रादि लिखे थे वे उन्होंने सोमचन्द्र मुनि (श्री जिनदत्तसूरिजी) को भेंट किए थे। अतः इन वस्तुओं का बड़ा महत्व था। ग्रन्थकार अपने महान् ग्रन्थों को स्वयं लिखते या अपने प्राज्ञांकित शिप्य वर्ग से प्रथमादर्श पुस्तिका लिखवाते, जिनका उल्लेख कितने ही ग्रन्थों की प्रशस्तियों में पाया जाता है। मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, स्थिरचन्द्र', ब्रह्मदत्त आदि की लिखित प्रतियां आज भी उपलब्ध हैं। श्री जिनभद्रसूरि, कमलसंयमोपाध्याय, यगप्रधान श्री
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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